________________
२४ श्री महावीर स्वामी-चरित
३३३
कही । उन्हें भी कुतूहल हुआ। वे डरते डरते उस तरफ गय
और दूर झाड़की आड़में खड़े होकर पत्थर फैंकने लगे । मगर पत्थर खाकर भी सर्प जब न हिला तब उन लोगोंको विश्वास हो गया कि सर्प निकम्मा हो गया है । यह बात सब तरफ फैल गई । वह रस्ता चालू हो गया । आते जाते लोग महावीर स्वामीको और सर्पको नमस्कार कर कर जाते । कई गवालोंकी स्त्रियाँ सर्पको स्थिर देख उसके शरीरपर घृत लगा गई। अनेक कीड़ियाँ आकर घृत खाने लगी। घीके साथ ही साथ उन्होंने सर्पके शरीरको भी खाना आरंभ कर दिया । मगर सर्प यह सोच कर हिला तक नहीं कि, कहीं मेरे शरीरके नीचे दबकर कोई कीड़ी मर न जाय । वह इस पीडाको अपने पापोदयका कारण समझ चुपचाप सहता रहा । कीड़ियोंने उसके शरीरको छलनी बना दिया। एक कीड़ी अगर हमें काट खाती है तो कितनी पीड़ा होती है ? मगर सर्पने पन्द्रह दिनतक वह दुःख शांतिसे सहा और अंतमें मरकर सहस्रार देवलोक देवता हुआ ।
चंडकौशिकका उद्धार कर महावीर स्वामी उत्तर वाचाल नामक गाँवमें आये और एक पखवाड़ेका पारणा करनेके लिए गोचरी लेने निकले । फिरते हुए नागसेन नामा गृहस्थके घर पहुँचे । उस दिन नागसेन बड़ा प्रसन्न था, क्योंकि उसी दिन उसका कई बरसोंसे खोया हुआ लड़का वापिस आया था। उसने इसको धर्मका प्रभाव समझा और महावीर स्वामीको दूधसे प्रतिलाभित किया । देवताओंने उसके घर वसुधारादि पाँच दिव्य प्रकट किये।
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com