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जैन-रत्न
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उसका शरीर परिसह सहन करनेके योग्य था, इसलिए मैंने उसके शरीरमें प्रवेश किया है । एक सौ तेतीस बरसोंमें मैंने सात शरीर बदले हैं । यह मेरा सातवाँ शरीर है।" ___ महावीर बोले:-" हे गोशालक ! चोर जैसे कोई आश्रयस्थान न मिलनेसे कुछ ऊन, सन या रूईके तंतुओंसे शरीरको ढककर अपनेको छिपा हुआ मानता है, इसी तरह हे गोशालक ! तुम भी खुदको बहानोंके अंदर छिपा हुआ मानते हो; मगर असलमें तुम हो गोशालक ही ।"
गोशालक अधिक नाराज हुआ। उसने अनेक तरहसे महावीरका तिरस्कार किया और कहा:-" हे काश्यप ! मैं आज तुझे नष्ट भ्रष्ट कर दूंगा।"
गुरुकी निंदा देख प्रभुके शिष्य सर्वानुभूति मुनि और सुनक्षत्र मुनिने उसे गुरुका अपमान नहीं करनेकी सलाह दी। परंतु उसने क्रोध करके उन दोनोंको जला दिया । फिर उसने महावीरपर सोलह देशोंको भस्म करनेकी ताकत रखनेवाली तेजोलेश्या रखी; परंतु वह प्रभुपर कुछ असर न कर सकी । उनका शरीर कुछ गरम हो गया। फिर तेजोलेश्या लौटकर गोशालकके शरीरमें प्रवेश कर गई । तब गोशालक बोला:-" हे काश्यप! अभी तू बच गया है पर मेरे तपसे जन्मी हुई तेजोलेश्या तुझे पित्तज्वरसे पीडित करेगी और दाहके दुःखसे छ:महीनेके अंदर तू छमस्थ ही मर जायगा!" ___ महावीर बोले:--" हे गोशालक ! मैं छः महानके अंदर न मरूँगा । मैं तो सोलह बरस तक और भी तर्थिकर पर्यायमें
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