________________
३६६
जैन - रत्न
उसे भी उसने काट डाला, जिससे कीलें आसानी से न निकल सकेँ । गवाल चला गया ।
षण्मानि से विहार कर प्रभु मध्यम अपापा नगरीमें आये । और सिद्धार्थ नामक वणिकके घर गोचरीके लिए गये । बहाँ उसने प्रभुको आहारपानीसे, भक्तिसहित प्रतिलाभित किया । उस समय सिद्धार्थका खरक नामका एक वैद्य मित्र मौजूद था । उसने प्रभुके उतरे चहरेको देखकर रोगका अनुमान किया और जाँच करनेपर कानोंकी कीलं मालूम हुई । उसने सिद्धार्थको यह बात कही । उसने प्रभुका इलाज करनेकी ताकीद की।
प्रभु तो आहारपानी कर चले गये और उद्यानमें जाकर ध्यानरत हुए । खरक वैद्य और सिद्धार्थ सेठ दो संडासियाँ और दूसरी जरूरी दवाएँ लेकर प्रभुके पास गये । उन्होंने दोनों तरफ कानों में दवा लगाई और तब दोनोंने दोनों तरफ - से संडासियों से पकड़कर कीलें खींच लीं । प्रभुके मुखसे सहसा एक चीख निकल गई । वैद्यने कानोंके घावोंमें संरोहिणी नामक औषध लगा दी । फिर वे प्रभुसे क्षमा माँगकर चले गये । अपने शुभाशयोंसे और शुभ कामोंसे उन्होंने देवायुका बंध किया ।
महावीर स्वामीपर यह आखिरी परिसह था । परिसहोंका आरंभ भी गवाळसे हुआ और अंत भी गवालेहीसे हुआ ।
प्रभुके कानों में से जिस जंगलमें कीलें निकाली गई थीं उसका नाम महाभैरव हुआ । कारण कीलें निकालते समय प्रभुके मुखसे भैरवनाद ( भयानक आवाज ) हुआ था । लोगोंने उस जगह एक मंदिर भी बनवाया था ।
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com