________________
२४ श्री महावीर स्वामी-चरित
३७१
महावीर स्वामीने हमेशा शुभ मनोयोग, शुभ वचनयोग और शुभ काययोगसे प्रवृत्ति की । अशुभ मन, वचन और कायके योगोंको हमेशा रोका । कभी ऐसा विचार न किया जो दूस. रेको हानि पहुँचानेका कारण हो, कभी ऐसा शब्द न बोले जिससे किसीका अन्तःकरण दुखी हो और कभी शरीरके किसी भी अंगको इस तरह काममें न लाये जिससे कि छोटेसे छोटे प्राणीको भी कोई तकलीफ पहुँचे । न कभी भयंकरसे भयंकर आघात और प्राणांत संकटके सामने ही उन्होंने सिर झुकाया और न कभी स्वर्गीय प्रलोभनमें ही वे मुग्ध हुए। वे सदा काँको खपानेमें लीन रहे । बारह बरस तक उन्होंने बिना शस्त्र, बिना कषाय और बिना किसी इच्छाके भयंकर युद्धं किया । सारी दुनियाको अपनी अंगुलियोंपर नचानेवाले कर्मोंसे युद्ध किया, उन्हें हराया और विजेता बन महावीर कहलाये । केवलश्रीने-जो घातिकर्मोकी आडमें खड़ी थी-आगे बढ़कर उन्हें वरमाला पहनाई । वे आत्मलक्ष्मीको प्राप्तकर जगत्का उपकार करनेके लिए समवसरणके सिंहासन पर जा बिराजे । महावीर स्वामीके गुणोंका उपमाएँ देकर, बहुत ही सुंदर उपमाएँ। वर्णन कल्पसूत्र में किया गया है।
उस का अनुवाद हम यहाँ देते हैं। १-जैसे काँसेका पात्र जलसे नहीं लींपा जाता उसी तरह वे भी स्नेह-जलसे न लौंपे गये । निर्लेप रहे ।
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com