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जैन-रत्न
उत्तर वाचालसे विहारकर प्रभु श्वेतांबी नगर पहुँचे । प्रभुनगरके बाहर रहे । श्वेतांबीका ‘प्रदेशी' नामक राजा जिनभक्त था । वह सपरिवार वंदना करने आया था। महावीर स्वामी विहार करते हुए सुरभिपुरकी तरफ चले।
रस्तमें गंगा नदी आती थी । उसको सुदंष्ट्र नागकुमारका उपद्रव पार करनेके लिए सिद्धदंत नामके
नाविककी नौका तैयार थी। दूसरे मुसाफिरोंके साथ महावीर स्वामी भी नौकापर बैठे । नौका चली, उससमय किनारेपर उल्लू बोला । मुसाफिरोंमें क्षेमिल नामका शकुनशास्त्री भी था । उसने कहा:-" आज हमको रस्तेमें मरणांत कष्ट होगा; परंतु इन महात्माकी कृपासे हम बच जायँगे ।"
नौका बहते हुए पानीपर नाचती हुई चली जा रही थी। रस्तेमें सुदंष्ट्र नामक नागकुमार रहता था। उसने अवधिज्ञानसे जाना कि, ये जब त्रिपृष्ठ वासुदेव थे तब मैं सिंह था । इन्होंने उस समय मुझे बेमतलब मार डाला था। फिर उसने प्रभुको डुबाकर मार डालना स्थिर किया । उसने संवर्तक नामका महावायु चलाया। इससे तटोंके झाड़ उखड़ गये, कइ मकान गिर पड़े। नौका ऊँची उछल उछलकर पड़ने लगी । मारे भयके मुसाफिरोंके प्राण मूखने लगे और वे अपने इष्ट देवको याद करने लगे । महावीर शांत बैठे थे । उनके चहरेपर भयका कोई चिन्ह नहीं था। उन्हें देखकर दूसरे मुसाफिरोंके हृदयमें भी कुछ धीरज
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