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२४ श्री महावीर स्वामी-चरित
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बहुत रोई चिल्लाई, परन्तु सब बेकार था । गर्भस्थ बालक निकाल लिया गया था । उसका वापिस आना असंभव था।
आसोज वदि १३ के दिन चंद्रमा जब उत्तराषाढा नक्षत्रमें था तब नैगमेषी देवने मरीचिके जीवको त्रिशलादेवीके गर्भमें रक्खा । त्रिशलादेवीको चौदह महास्वप्न आये । इन्द्रादि देवोंने गर्भकल्याणक मनाया।
गर्भको जब सात महीने बीते उसके बाद एक दिन गर्भस्थ महावीर स्वामीने सोचा कि, मेरे हिलनेसे माताको कष्ट होता है इसलिए वे गर्भावासमें योगीकी तरह स्थिर हो रहे । गर्भका हिलना बंद होनेसे त्रिशलादेवीको बड़ा दुःख हुआ । उन्होंने समझा कि, मेरा गर्भ नष्ट हो गया है । वे रोने लगीं। सारे महलोंमें यह खबर फैल गई । सिद्धार्थ आदि सभी दुखी हुए । गर्भस्थ अवधिज्ञानी प्रभुने मातापिताका दुःख जानकर अपना अंग-स्फुरण किया । गर्भ कायम जानकर माता पिताको और सभी लोगोंको बड़ा आनंद हुआ । मातापिताने आनंदके अतिरेकमें लाखों लुटा दिये । प्रभुने गर्भवासहीमें मातापिताका अधिक स्नेह देखकर नियम किया कि जबतक मातापिता जीवित रहेंगे तबतक मैं दीक्षा नहीं लँगा । अगर मैं दीक्षा लूँगा तो इन्हें दुःख होगा और ये असाता वेदनी कर्म बाँधेगे।
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