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जैन-रत्न
जन्म
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विक्रम संवत ५४३ (शक सं०६७८ और ईस्वी सन् ६००)
___ पूर्व चैत्रसुदि १३ के दिन आधी रातके
समय, गर्भको जब ९ महीने और साढ़े सात
दिन बीत चुके थे और चंद्र जब हस्तोत्तरा ( उत्तराषाढ़ा) नक्षत्रमें आया था तब त्रिशलादेवीने, सिंह लक्षणवाले पुत्ररत्नको जन्म दिया । उस समय भोगंकरा आदि छप्पन दिक्कुमारियोंने आकर प्रभुका और माताका मृतिका कर्म किया।
सौधर्मेन्द्रका आसन काँपा। वह प्रभुका जन्म जानकर परिवार सहित मूतिका गृहमें आया। उन्होंने दूरहीसे प्रभुको
और माताको प्रणाम किया। फिर इन्द्रने देवीको अवस्वापनिका निद्रामें सुलाया, माताकी बगलमें प्रभुका प्रतिबिंब रक्खा और प्रभुको उठा लिया । ___ उसके बाद इन्द्रने अपने पाँच रूप बनाये । एक रूपने प्रभुको गोदमें लिया, दूसरे रूपने प्रभुपर छत्र रक्खा, तीसरे
और चौथे रूप दोनों तरफ चवर उड़ाने लगे और पाँचवाँ रूप वज्र उछालता और नाचता कूदता आगे चला । इस तरह सौधर्मेन्द्र प्रभुको लेकर सुमेरु पर्वतपर पहुँचा और वहाँपर अतिकंबला नामकी शिलाके शाश्वत सिंहासनपर बैठा। दूसरे तरसठ
१ इसमें समय हमने मुनि श्री कल्याणविजयजी महाराजके 'वीरनिर्वाण संवत और जैनकालगणना ' निबंधके आधार पर दिया है।
२ त्रिशलादेवी वैशाली के लिच्छवी राजा चेटककी बहिन थीं।
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