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जैन - रत्न
सामने बैठे हुए जुगाली कर रहे हैं । गवालको बड़ा क्रोध आया । उसने सोचा, - ध्यानका ढोंग करनेवाले इसी वावेने मेरे बैल छिपाये थे । इसका विचार बैल चुराकर भाग जानेका था । उसने प्रभुको अनेक भली बुरी बातें कहीं; परंतु प्रभु तो मौन ही रहे । वे बोलते भी कैसे ? उन्होंने तो रातभरके लिए कायोत्सर्ग कर दिया था । वह महावीर स्वामीको मारने दौड़ा ।
इन्द्र बड़े तड़के उठकर सोचने लगा, - भगवानने किस तरह यह रात बिताई । उसी समय उसने अवधिज्ञान से गवालेको प्रभुपर झपटते देखा । तत्कल ही गवालेको अपने दैवबलसे वहीं स्तंभित कर इन्द्र प्रभुके पास पहुँचा और गवालेका तिरस्कार कर बोला :- " मूर्ख ! क्या तू नहीं जानता कि ये सिद्धार्थ राजाके पुत्र वर्द्धमान स्वामी हैं ? " वर्द्धमान स्वामीका नाम सुनते ही बिचारा गवाल भयभीत हुआ और वहाँ से चला गया ।
जब प्रभुने कायोत्सर्गका त्याग किया तब इन्द्रने प्रदक्षिणा देकर वंदना की और कहा :- " प्रभो ! स्वावलंबनका इन्द्रको बारह बरस तक आपपर निरंतर उपसर्ग उपदेश होंगे इसलिए यदि आप आज्ञा दें तो मैं आपकी सेवामें रहूँ । ”
प्रभुने जलद गंभीर वाणीमें उत्तर दिया :- " हे इन्द्र | अत कभी दूसरोंकी सहायता नहीं चाहते । अन्तरंग शत्रु काम क्रोधादिको जीतनेके लिए दूसरोंकी सहायता निकम्मी है ।
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