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जैन-रत्न
प्रभुने अवधिज्ञानसे सर्प को पहचाना और उसका उद्धार
देवके नाममें बट्टा लगता है । सिद्धार्थ देवने, भगवानके अजानमें, उनके मुखसे ऐसी बातें कहलाई हैं जिनके कारण एक मनुष्यका अपमान हुआ, एक मनुष्य पापीके नामसे प्रसिद्ध हुआ इतना ही क्यों ? सिद्धार्थकी भूलसे, भगवानके मुँहसे निकली हुई बातको सत्य प्रमाणित करने के लिए, इन्द्र महाराजको, अच्छंदककी उँगलियाँ काटकर उसे अत्यंत पीड़ा पहुँचानी पड़ी। और इस तरह महावीर स्वामी के परम अहिंसा व्रतके पालनमें, न्यूनता बतानेवाली, महावीर स्वामीकी इच्छाके विरुद्ध, उनकी अजानमें, एक अंध भक्तद्वारा एक घटना उपस्थित की गइ ।-लेखक.]
१-यह सर्प पूर्व भवमें एक साधु था। एक बार पारणे के दिन गोचरीके लिए क्षुल्लक के साथ गया। रस्तेमें अजयणासे एक मेंढक मर गया । क्षुल्लकने कहा:-" महाराज आपके पैरोंतले एक मेंढक मर गया है !" साधु नाराज होकर बाला:-" यहाँ बहुतसे मेंढक मरे पड़े हैं । क्या सभी मेरे पैरोंतले दबकर मरे हैं ?" क्षुल्लक यह सोचकर मौन हो रहा कि शामको प्रतिक्रमणके समय महाराज इसकी आलोचना कर लेंगे।" मगर प्रतिक्रमणके सयम भी साधुने आलोचना नहीं की । तब क्षुल्लकने मेंढककी बात याद दिलाई । इसको साधुने अपना अपमान समझा और वह क्षुल्लकको मारने दौड़ा । अंधेरा था । मकानके बीचका थंभा साधु को न दिखा । थंभेसे टकरा कर साधुका सिर फूट गया और वह साधुताकी विराधनासे मरा। पूर्व तपस्याके कारण ज्योतिष्क देव हुआ । वहाँसे चवकर कनकखल नामक स्थानमें पाँच सौ तपस्वियोंके कुलपतिके घर जन्मा । नाम कौशिक रक्खा गया । वहाँके तापसोंका गोत्र भी कौशिक था । इसलिए सामान्यतया सभी कौशिक कहलाते थे। यह बहुत क्रोधी था, इससे इसका नाम 'चंडकौशक' हुआ।चंडकौशिकका पिता मर गया तब वह खुद कुलपति हुआ। चंडकौशिकको अपने वन खंडपर बहुत मोह होनेसे वह किसीको वहाँसे, Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com