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२३ श्री पार्श्वनाथ - चरित
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प्रभुको उसपर चढ़ाया और अपने फन फैलाकर तीन तरफसे
प्रभुको ढक लिया । धरणेंद्रकी नाट्यादिसे भक्ति करने लगी ।
रानियाँ प्रभुके आगे नृत्य,
जब मेघमालीका उपद्रव बहुत देरतक शांत न हुआ तब धरणेंद्र क्रुद्ध होकर बोला :- " हे मेघमाली ! अपनी दुष्टता अब बंद कर । यद्यपि मैं प्रभुका सेवक हूँ, क्रोध करना मुझे शोभा नहीं देता, तो भी तेरी दुष्टता अब सहन न कर सकूँगा । प्रभुने तुझको पाप से बचाकर तुझपर उपकार किया था । तू उल्टा उपकार के बदले अपकार करता है । सावधान ! अब अगर तुरत तू अपना उपद्रव बंद न करेगा तो तुझे इसकी सजा दी जायगी । "
मेघमाली अबतक पानी बरसानेमें लीन था । अब उसने धरणेंद्रकी बात सुनकर नीचे देखा । प्रभुको निर्विघ्न ध्यान करते देख वह सोचने लगा, - धरणेंद्र जैसे जिनकी सेवा करते हैं उनको सतानेका खयाल करना सरासर मूर्खता है । इनकी शक्तिके आगे मेरी शक्ति तुच्छ है । इनके सामने मैं इसी तरह क्षुद्र हूँ जिस तरह हवा के सामने तिनका होता है । तो भी इन क्षमाशील प्रभुको धन्य है कि इन्होंने मेरे उपद्रवको सहन किया है । मेरा कल्याण इसीमें है कि, मैं जाकर प्रभुसे क्षमा माँगू ।
मेघमाली आकर प्रभुके चरणों में पड़ा; मगर समभावी प्रभु तो अपने ध्यानमें मग्न थे । उनके मनमें न तो वह उपद्रव कर रहा था तब रोष था न अब वह चरणोंमें आकर गिरा इससे तोष है। उनके मनमें उसकी दोनों कृतियाँ उपेक्षित हैं । मेघमाली
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