________________
२९०
जैन-रत्न
भगवान ऋषभदेवका सबसे पहला समवसरण विनीताके बाहर हुआ । मरीचि भी अपने कुटुंबके साथ समवसरणमें गया और देशना सुन, धर्म ग्रह णकर साधु हो गया ।
जब गरमियोंके दिन आये तो समयपर आहारपानी न मिलनेसे, तेज धूपमें विहार करनेके दुःखसे और पसीनेके मारे कपड़ोंके गंदे हो जानेसे मरीचिका मन बहुत व्याकुल हो उठा। वह सोचने लगा,-पर्वतके समान दुर्वह दीक्षाभार मैंने कहाँ उठा लिया ? आखिरतक मुझसे इसका पालन न होगा। मगर गृहस्थ भी अब कैसे हुआ जाय ? इससे तो लोक हँसाई होगी। मगर इस भारको हल्का करनेका कोई रस्ता निकालना चाहिये। बहुत दिनतक विचार करनेके बाद उसने स्थिर किया,
मुनि लोग त्रिदंडसे विरक्त हैं और मैं तो त्रिदंडके आधीन हूँ इसलिए मैं त्रिदंडधारी बनूँगा । केशलोच करनेसे महान पीड़ा होती है, मैं उस पीडाको सहन करनेमें असमर्थ हूँ इसलिए बाल उस्तरेसे मुंडवाया करूँगा और शिरपर शिखा भी रक्खंगा। मुनि महाव्रतधारी होते हैं मैं अणुव्रतका पालन करूँगा। मुनि कपर्दकहीन होते हैं मैं अपनी जरूरतोंको पूरा करनेके लिए पैसा रक्खूगा । मुनि मोहहीन होनेसे धूप और पानीसे बचनेके लिए कोई साधन नहीं रखते, मैं अपनी रक्षाके लिए छत्रीका उपयोग करूँगा और जूते पहनूंगा । मुनि शीलसे सुगंधित होते हैं, मैं सुगंधके लिए चंदनका तिलक लगाऊँगा । मुनि कषायरहित होनेसे श्वेतवस्त्र धारण करते हैं, मगर मैं तो
१मन दंड, वचन दंड और कायदंड।
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com