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जैन-रत्न
~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~ त्रिपृष्ठ बोले:-"अश्वग्रीवको कहना कि, जो राजा एक शेरको नहीं मार सका उस राजासे इनाम लेनेको त्रिपृष्ठ तैयार नहीं है । वीर वीरोंसे इनाम लेते हैं, मामूली आदमियोंसे नहीं।" __ यह सुनकर अश्वग्रीवके दूतको क्रोध हो आया और वह बोला:-" उद्धत छोकरो ! तुम्हें मालूम नहीं है कि, तुम किसके.... " दूत अपनी बात पूरी भी न कर पाया था कि, त्रिपृष्ठके आदमियोंने उसे पीटपाटकर वहाँसे निकाल दिया। ___ अश्वग्रीवको जब ये समाचार मिले तो वह अपनी फौज लेकर आया । त्रिपृष्ठ भी फौज लेकर लड़ने निकला । थोड़ी देर तक फौजें लड़ती रहीं । फिर त्रिपृष्ठने कहलायाः-"कृया फौजका नाश किया जा रहा है। आओ तुम और मैं लड़कर लड़ाईका फैसला कर लें । अश्वग्रीवने यह बात मान ली । दोनोंने भयंकर युद्ध किया और अंतमें अश्वग्रीव मारा गया ।
अश्वग्रीवको मरा जान सभी राजाओंने आ आकर त्रिपृष्ठको अपना स्वामी स्वीकार किया और भेटें दे देकर उसकी कृपा चाही । त्रिपृष्ठने सबको अभय किया । वहाँसे त्रिपृष्ठने जाकर भरतार्द्धको जीता कोटिशिलाको क्षणमात्रमें अपने सिरसे भी ऊँचा उठाकर रख दिया और सारे भूचक्रको (१) अपने पराक्रमसे दबाकर पोतनपुरका रस्ता लिया । पोतनपुरमें देवताओंने और राजाओने उन्हें अर्द्धचक्रीके पदपर अभिषिक्त किया।
पृथ्वीपर जो जो अलभ्य रत्न थे । वे सभी त्रिपृष्ठको मिले । भरतार्दमें जितने उत्तम गवैये थे वे भी त्रिपृष्ठके राज्यमें आ गये।
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