________________
१६८
जैन-रत्न
यह सुन अमिततेज और ज्योतिःप्रभाको बहुत खुशी हुई। थोड़े दिन रहकर दोनों पतीपत्नी अपने देशको चले गये ।
एक बार श्रीविजय और सुतारा आनंद करने ज्योतिर्वन नामके वनमें गये । उस समय कपिलका जीव अशनिघोष प्रतारणी नामकी विद्याका साधनकर उधरसे जा रहा था । उसने सुताराको देखा । उसपर वह पूर्वभवके प्रेमके कारण मुग्ध हो गया और उसने उसको हर ले जाना स्थिर किया।
उसने विद्याके बलसे एक हरिण बनाया । वह बड़ा ही सुंदर था। उसका शरीर सोनेसा दमकता था। उसकी आँखें नील कमलसी चमक रही थीं। उसकी छलांगें हृदयको हर लेती थीं। सुताराने उसे देखा और कहा:-" स्वामी मुझे यह हरिण पकड़ दीजिए।"
श्रीविजय हरिणके पीछे दौड़ा । वह बहुत दूर निकल गया । इधर अशनिघोषने सुताराको उठा लिया और उसकी जगह बनावटी सुतारा डाल दी । यह चिल्लाई-" हाय ! मुझे साँपने काट खाई ।" यह चिल्हाहट सुनकर श्रीविजय पीछा आया । उसने बेहोश सुताराके अनेक इलाज किये । मगर कोई इलाज कारगर न हुआ । होता ही कैसे ? जब वहाँ सुतारा थी ही नहीं फिर इलाज किसका होता ?
थोड़ी देरके बाद उसने देखा कि, सुताराके प्राण निकल गये हैं । यह देखकर वह भी बेहोश हो गया । नौकरोंने उपचार किया तो वह होशमें आया । सचेत होकर वह अनेक तरहसे विलाप करने लगा। अंतमें एक बहुत बड़ी चिता तैयार
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com