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जैन - रत्न
राजदूतने उत्तर दिया:-." मैं कुशस्थल नगर से आया हूँ । वहाँ पहले नरवर्मा नामके राजा राज्य करते थे । उन्होंने संसारको असार जानकर अपने पुत्र प्रसेनजितको राज गद्दी दी और खुदने दीक्षा ले ली। राजा प्रसेनजितके एक कन्या है । उसका नाम प्रभावती है। प्रभावतीने एक बार बनारस के राजकुमार पार्श्वनाथके रूप लावण्यकी तारीफ सुनी और उसने अपना जीवन इनके चरणोंमें अर्पण करनेका संकल्प कर लिया । वह रात दिन उन्हींके ध्यानमें लीन हो आनंदोल्लास छोड़ एक त्यागिनीकी तरह जीवन बिताने लगी । राजा प्रसेनजितको जब ये समाचार मिले तो उसने प्रभावतीको स्वयंवराकी तरह बनारस भेजने का संकल्प कर लिया ।
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कलिंगदेशमें यवन नामका राजा राज्य करता है । वह बड़ा पराक्रमी है। उसने जब ये समाचार सुने तो वह बड़ा गुस्से हुआ और अपनी सभा में बोला :-- “ भेट ग्रहण करनेकी शक्ति मेरे सिवा इस भरतखंडमें दूसरे किस राजामें है ? पार्श्वकुमार कौन है जो प्रभावतीको ग्रहण करेगा और कुशस्थलपतिकी क्या मजाल है कि वह प्रभावतीको पार्श्वकुमारके पास भेजेगा ? सेनापति जाओ, और कुशस्थलको घेर लो । अगर प्रभावती बनारस भेजी जाय तो उसको पकड़कर मेरे पास भेज दो । " उसके सेनापतिने आकर कुशस्थलको घेर लिया। थोड़े दिनके बाद खुद राजा यवन भी आया और उसने कहलाया कि, "या तो तुम प्रभावती को मेरे हवाले करो या लड़ाईके लिए तैयार हो जाओ । "
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