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जैन-रत्न wwwxxxmmmmmmmmmmmmmmm.rxxxwwwrrrrrrrrrrrrrrrr.
लौटे तो देवताओंके विमानोंका विचार करने लगे । सोचते सोचते उन्हें जातिस्मरण ज्ञान हो गया। उन्हें अपने पूर्व भवका हाल मालूम हुआ और नाशमान जगतका विचार कर वैराग्य हो आया । इससे उन्होंने पुत्रको राज्य देकर, जगन्नाथ तीर्थकरके पाससे दीक्षा ले ली ।
उग्र तपस्या कर, अहंतभक्ति आदि बीस स्थानकोंकी आराधना कर उन्होंने तीर्थकर नामकर्म बाँधा और वे पृथ्वी मंडलपर जीवोंको उपदेश देते हुए भ्रमण करने लगे। ___एक बार विहार करते हुए सुवर्णबाहु मुनि क्षीरगिरि नामक पर्वतके पासके क्षीरवणा नामक वनमें आये । वहाँ सूर्यके सामने दृष्टि रख, कायोत्सर्ग कर आतापना लेने लगे। कमठका जीव नरकसे निकलकर उसी वनमें सिंह रूपसे पैदा हुआ था । वह दो रोजसे भूखा फिर रहा था । उसने मुनिको देखकर घोर गर्जना की । मुनिने उसी समय कायोत्सर्ग पूरा किया था । शेरकी गर्जना सुन, अपने आयुकी समाप्ति समझ, उन्होंने संलेखना की, चतुर्विध आहारका त्याग किया और शरीरका मोह छोड़कर ध्यानमें मन लगा दिया। सिंहने छलांग मारी और मुनिको पकड़कर चीर दिया। सुवर्णबाहु मुनि शुभ ध्यानपूर्वक मरकर महाप्रभ नामके विमा
नमें बीस सागरोपमकी आयुवाले देवता ९ नवाँ भव ( महाप्रभ हुए । कमठका जीव सिंह मरकर चौथे विमानमें देव ) नरकमें दस सागरोपमकी आयुवाला
नारकी हुआ और वहाँकी आयु पूर्णकर, तिर्यच योनिमें भ्रमण करने लगा।
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