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जैन-रत्न
श्रीदत्ता उनपर मोहित हो गई । वादमें उसके हृदयमें धर्मके प्रति जो संदेह उत्पन्न हुआ था उसको निवारण किये बिना ही वह मर गई।
प्राचीन कालमें वैताट्य गिरिपर शिवमन्दिर नामक बड़ा समृद्धि शाली नगर था। उसमें विद्याधरोंका शिरोमणि कनक पूज्य नामक राजा राज्य करता था । उसके वायुवेगा नामकी धर्मपत्नी थी। उस दम्पतीके मैं कीर्तिधर नामक पुत्र हुआ। मेरे अनिलवेगा नामकी एक धर्मपत्नी थी । उसकी कोखसे दमितारी नामक पुत्र हुआ । यही छठा प्रति वासुदेव था। ___एक समय विहार करते हुए भगवान शान्तिनाथ मेरे नगर
की ओर होकर निकले और नगरके बाहर उपवनमें विराजमान हुए। मैंने भगवानका आगमन सुन, दौड़कर दर्शन किये । दर्शन मात्रसे मुझे संसारसे वैराग्य उत्पन्न हो गया और मैं दीक्षा लेकर इस पर्वतपर आया और तप करने लगा । अब घातिया कोंके नाश होनपर मुझे केवलज्ञान प्राप्त हुआ है। उधर दमितारीके मदिरा नामकी रानीकी कोखसे श्रीदत्ताका जीव उत्पन्न हुआ और तुम उसकी पुत्री कनकधीके रूपमें विद्यमान हो । जिन धर्मके विषयमें तुम्हें सन्देह हुआ इसी कारणसे तुम्हें यह दुःख भोगना पड़ा है ।" - मुनिसे अपने पूर्व भवकी कथा सुनते ही कनकश्रीको वैराग्य उत्पन्न हो गया । वह विनय पूर्वक अपने पतिसे निवेदन करने लगी:-" प्राणेश ! उस जन्ममें मैंने ऐसे दुष्कृत्य किये जिससे ये फल भोग रही हूँ । न जाने आगे क्या होने
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