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जैन - रत्न
व्याह किया गया । कुछ कालके बाद विद्युद्गतिने किरणवेगको राज्य देकर दीक्षा ले ली ।
किरणवेगकी पट्टरानी पद्मावती के गर्भ से किरणतेज नामका पुत्र पैदा हुआ। एक बार सुरगुरु नामक मुनि उस तरफ आये । उनकी देशना सुनकर किरणवेगको वैराग्य हो आया और उसने दीक्षा ले ली ।
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किरणवेग मुनि अंगधारी हुए । गुरुकी आज्ञा लेकर एकल विहार करने लगे । अपनी आकाशगमनकी शक्तिसे वे पुष्कर द्वीपमें गये । वहाँ शाश्वत अर्हतोंको नमन कर वैताढ्य गिरिके पास हेमगिरि पर्वतपर तीव्र तप करते हुए समतामें मग्न रहकर अपना काल बिताने लगे ।
कमठका जीव पाँचवें नरकसे निकलकर उसी हिमगिरिकी गुफामें एक भयंकर सर्पके रूपमें जन्मा था । वह यमराजकी तरह प्राणियोंका नाश करता हुआ वनमें फिरने लगा । एक वक्त वह फिरता हुआ उस गुफा में चला गया जहाँ किरणवेग मुनि ध्यानमें लीन थे । उन्हें देखकर उसे पूर्व जन्मका वैर याद आया । उसने उनको लिपट कर चार पाँच जगह शरीर में काटा । उनके सारे शरीर मे भयंकर जहर व्याप्त हो गया ।
मुनि सोचने लगे,—यह सर्प मेरा बड़ा उपकार करनेवाला है। मुझे जल्दी या देरमें अपने कर्म काटने ही थे । इस सर्पने मुझे मेरे कर्म काटने में बड़ी मदद दी है । उन्होंने चौरासी लाख जीवयोनिके जीवोंको खमाया और चारों तरहके आहारोंका
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