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२२ श्री नेमिनाथ-चरित
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सम्यक्त्व हुआ है, तुमने तीर्थकर नामकर्म बाँधा है, सातवीं नारकी के योग्य कर्मोंको खपाकर तीसरी नारककेि योग्य आयुकर्म बाँधा है । उसे तुम इस भवके अंत में निकाचित करोगे । "
श्रीकृष्ण बोले: – “ मैं एक बार और वंदना करूँ कि जिससे नरकायुके योग्य जो कर्म हैं वे सर्वथा नष्ट हो जायँ । ” भगवान बोले:- “ अब तुम जो वंदना करोगे वह द्रव्यवंदना होगी । फल भाववंदनाका मिलता है द्रव्यवंदनाका नहीं । तुम्हारे साथ वीरा जुलाहेने भी वंदना की है मगर उसको कोई फल नहीं मिला । कारण उसने वंदना करने के इरादे से वंदना नहीं की है; केवल तुम्हें खुश करनेके इरादे से तुम्हारा अनुकरण किया है । " श्रीकृष्ण अपने घर गये ।
एक बार विहार करते हुए प्रभु गिरनारपर गये । वहाँसे रथनेमि आहारपानी लेने गये थे; मगर अचानक बारिश आ गई और रथनेमि एक गुफामें चले गये । राजीमती और अन्य साध्वियाँ भी आहारपानी लेकर लौट रही थीं; बरसात के कारण सभी इधर उधर हो गई । राजीमती उसी गुफा में चली गई जिसमें रथनेमि थे । उसे मालूम नहीं था कि रथनेमि भी इसी गुफामें हैं । वह अपने भीगे हुए कपड़े उतारकर सुखाने लगी। रथनेमि उसे देखकर कामातुर हो गये और आगे आये । राजीमतीने पैरोंकी आवाज सुनकर झटसे गीला कपड़ा ही वापिस ओढ लिया । रथनेमिने प्रार्थना की, “सुंदरी ! मेरे हृदयमें आगसी लग रही है । तुम तो सभी जीवोंको सुखी करनेका नियम ले चुकी हो। इसलिए मुझे भी सुखी करो। "
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