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जैन-रत्न
भतिने यह बात न मानी और अपनी आँखसे यह बात देखनी चाही । वरुणाने एक दिन मरुभूतिको छुपा रक्खा और अपने पति और देवरानीकी भ्रष्ट लीला उसे दिखा दी । मरुभूतिको बड़ा क्रोध आया और उसने सवेरे ही जाकर राजासे फर्याद की । धर्म और न्यायके प्रेमी राजाको यह अनाचार असह्य हुआ, और उसने कमठका काला मुँह करवा, उसका सिर मुंडवा, उसे गधेपर बिठवा, सारे शहरमें फिरवा, शहर बाहर निकलवा दिया । वह मरुभूतिपर अत्यंत क्रुद्ध हो, वनमें जा, बालतप करने लगा। ___ सरल परिणामी मरुभूति जब उसका क्रोध कम हुआ तो सोचने लगा, मैंने यह क्या अनर्थ किया? जीवको अपने पापोंका फल आप ही मिल जाता है। मेरे भाईको भी अपने पापोका फल आप ही मिल जाता । मैंने क्यों राजासे फर्याद की ? न मैं फर्याद करता न मेरे भाईको दंड मिलता। चलूँ , जाकर भाईसे क्षमा माँगें। मरुभूतिनेजाकर राजासे अपने मनकी बात कही । राजाने उसको बहुत समझाया कि दुष्ट स्वभाववाले कभी क्षमाका गुण नहीं समझते हैं । अभी वह तुमपर बहुत गुस्से हो रहा है । सम्भव है वह तुमपर चोट करे; परन्तु वह यह कहकर चला गया कि, अगर वह अपने दुष्ट स्वभावको नहीं छोड़ता है तो मैं अपने सरल स्वभावको क्यों छोडूं ?
मरुभूति ज्योंही कमठके पास पहुँचा त्योंही कमठका कोष भभक उठा । और वह मरुभूतिका तिरस्कार करने लगा। मरुभूतिने नम्रतापूर्वक क्षमा माँगी और नमस्कार किया ।
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