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१६ श्री कुन्थुनाथ-चरित
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भरतक्षेत्रके हस्तिनापुर नगरका राजा वसु था । उसके
श्री नामकी रानी थी। वहाँसे च्यवकर सिंहावहका ३ तीसरा भव जीव श्रीरानीके गर्भ में श्रावण वदि ९ के दिन
कृत्तिका नक्षत्रमें आया । इन्द्रादि देवोंने गर्भकल्याणक मनाया। ___ समय पूरा होनेपर वैशाख सुदि १४ के दिन कृत्तिका नक्षत्रमें बकरेके चिन्हयुक्त, स्वर्णवर्णवाले, पुत्रको रानीने जन्म दिया। बालकका नाम कुन्थुनाथ रखा गया । कारण-गम समयमें रानीने कुन्थु नामक रत्नसंचयको देखा था । इन्द्रादि देवोंने जन्मकल्याणक मनाया।
यौवनावस्था प्राप्त होने पर पिताकी आज्ञासे. अनेक राज कन्याओंसे कुंथुनाथने ब्याह किया । २३ हजार साढ़े सात सौ वर्ष तक युवराज रहे। ४५०० सौ वर्ष बाद उनकी आयुधशालामें चक्ररत्न उत्पन्न हुआ । उसीके बल छः सौ वर्षमें उन्होंने भरतखण्डके छः खण्ड जीते । २३ हजार साढ़े सात सौ वर्ष तक चक्रवर्ती रहे । पीछे लोकान्तिक देवोंने प्रार्थना की:-"हे प्रभु ! दीक्षा धारण कीजिये ।" तब प्रभुने वर्षादान दे वैशाख यदि ५ के दिन कृत्तिका नक्षत्रमें एक हजारः राजाओंके साथ सहसाम्र वनमें दीक्षा धारण की । इन्द्रादि देवोंने दीक्षाकल्याणक मनाया । दूसरे दिन भगवानने चक्रपुर नगरके राजा व्याघ्रसिंहके घर पारणा किया । __वहाँसे विहार कर सोलह वर्ष बाद प्रभु उसी वनमें पधारे। तिलक वृक्षके नीचे कायोत्सर्ग धारण कर, घातिया कर्मोको क्षय
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