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जैन - रत्न
इन्द्रादि देवोंने निर्वाण - कल्याणके किया । भगवानने पचीस हजार वर्ष कौमारावस्था में, पचीस हजार वर्ष युवराजावस्था में, पचीस हजार वर्ष राजपाटपर और पचीस हजार वर्ष मुनिवस्थामें, इस तरह एक लाख वर्षकी आयु भोगी । उनका शरीर चालीस धनुष ऊँचा था ।
धर्मनाथजीके निर्वाण बाद पौन पल्योपम कम तीन सागरो
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पम बीते तव शान्तिनाथ भगवान मोक्षमें गये ।
१७ श्री कुन्थुनाथ - चरितं
श्री कुन्थुनाथो भगवान्, सनाथोऽतिशयार्द्धिभिः । सुरासुरनृनाथाना, - मेकनाथोस्तु वः श्रिये ।। भावार्थ - जिसको चौतीस अतिशयोंकी ऋद्धि प्राप्त हैं और जो इन्द्रों और राजाओंके नाथ हैं वे श्रीकुन्थुनाथ भगवान तुम्हारा कल्याण करें ।
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जंबूद्वीप के पूर्व विदेह में आवर्त्त नामक देश है । उसमें खड्गी नामकी नगरी थी । उसका राजा १ प्रथम भव सिंहावह था । संसारसे वैराग्य होनेके कारण उसने संवराचार्य के पास से दीक्षा ले ली। बीस स्थानककी आराधनाकर उसने तीर्थकर गोत्र बाँधा
२ दूसरा भव
अन्तमें मरकर वह सर्वार्थसिद्धि विमानमें अहमिन्द्र देव हुआ ।
१ - - ये चक्रवर्ती भी हुए हैं ।
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