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जैन-रत्न
भेजी हुई भेटें हैं । कभी कभी वह समुद्रविजयजी और शिवादेवीके पास जाती । वहाँ स्थनेमि भी उससे मिलता और हँसी मजाक करता । वह निष्छल भावसे उसके परिहासका उत्तर देती और अपने घर लौट जाती । इससे रथनेमि समझता कि, यह भी मुझपर अनुरक्त है।
एक दिन एकांतमें रथनेमिने कहा:-" हे स्त्रियोंके गौरवरूप राजीमती ! तुम इस वैरागीके वेशमें रहकर क्यों अपना यौवन गुमाती हो ? मेरा भाई वज्रमूर्ख था । वह तुम्हारी कदर न कर सका । तुम्हारे इस रूपपर, इस हास्यपर और इस यौवनपर हजारों राज, हजारों ताज और वैराग्यके भाव न्योछावर किये जा सकते हैं । मैं तुम्हारे चरणोंमें अपना जीवन समर्पण करनेको तत्पर हूँ; मैं तुमसे शादी करूँगा । तुम मुझपर प्रसन्न होओ और यह बैरागियोंका भेस छोड़ दो !"
राजीमती इसके लिए तैयार न थी। उसके हृदयमें एक आघात लगा। वह मूच्छितसी बैठी रही । जब उसका जी कुछ ठिकाने आया तब वह बोली:-" रथनेमि ! मैं फिर किसी वक्त इसका जवाब दूंगी।"
राजीमती बड़ी चिन्तामें पड़ी । उसे एक उपाय सूझा । उसने मांडल पिसवाया और उसको पुड़ियामें बाँधकर स्थ नेमिके घरका रस्ता लिया। जब वह पहुँची दैवयोगसे रथनेमि अकेला ही उसे मिल गया। वह बोली:-" रथनेमि ! मुझे बड़ी भूख लगी है। मेरे लिए कुछ खानेको मँगवाओ।"
रथनेमिने तुरत कुछ दूध और मिठाई मँगवाये । राजीमतीने
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