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२१ श्री मनिनाथ-चरित
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को जन्म दिया । इन्द्रादि देवोंने जन्मकल्याणक मनाया। जिस समय प्रभु गर्भ में थे, उस समय मिथिलाका शत्रुओंने घेर लिया था, उन्हें देखनेके लिए वप्रा देवी महलकी छतपर गई। उन्हें देखकर गर्भके प्रभावसे शत्रु राजा विजय नृपके चरणोंमें आ नमे । इससे मातापिताने पुत्रका नाम नमिनाथ रखा। प्रभु अनुक्रमसे युवा हुए । अनेक राजकन्याओंके साथ उन्होंने ब्याह किया। ढाई हजार वर्षके बाद राजा हुए और पाँच हजार वर्ष तक राज्य किया। फिर लोकान्तिक देवोंकी विनतीसे प्रभुने वर्षीदान दिया, सुप्रभ पुत्रको राज्य सौंपा और सहसाम्र वनमें जाकर दीक्षा धारण की । इन्द्रादि देवोंने तपकल्याणक मनाया। दूसरे दिन प्रभुने वीरपुरके राजा दत्तके घर पारण किया। __ प्रभु वहाँसे विहारकर पुनः नौ मासके बाद उसी उद्यानमें
आये और बोरसली वृक्षके नीचे कायोत्सर्ग धारण कर मार्गशीर्ष वदि ११ के दिन अश्विनी नक्षत्रमें केवलज्ञान पाये ।
नमि प्रभुके तीर्थमें भ्रकुटि नामक यक्ष और गांधारी नामक शासन देवी थी। उनका संघ इस प्रकार था-१७ गणधर, २० हजार साधु, ४१ हजार साध्वियाँ, ४५० चौदह पूर्वधारी, १ हजार छ: सौ अवधिज्ञानी, १२ सौ ८ मनः पर्ययज्ञानी, १६०० केवली, ५ हजार वैक्रियक लब्धिवाले, १ हजार वादलब्धिवाले, ३ लाख ४८ हजार श्राविकाएँ और १ लाख ७७ हजार श्रावक।
विहार करते हुए अपना मोक्षकाल समीप जान प्रभु सम्मेद शिखरपर आये । वहाँ एक हजार मुनियोंके साथ एक मासका
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