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१६ श्री शांतिनाथ-चरित
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पूर्व भवका स्मरण कर ! यदि याद नहीं पड़ता हो तो सुन ! पुष्करवर द्वीपार्द्धमें, भरतक्षेत्रके मध्यखण्डमें विशाल समृद्धिवाला श्रीनंद नामक एक नगर था । उसमें महेन्द्र नामक राजा राज्य करता था। उसके अनंतमति नामकी एक रानी थी। उसके दो पुत्रियाँ हुई। उनमेंसे कनकधी नामकी कन्या तो मैं हूँ और धनश्री तू । जब हम दोनों युवतियाँ हुई तब एक समय दोनों प्रसंग वश गिरि पर्वतपर चढ़ीं । वहाँ एक रम्य स्थानमें हमें नंदनगिरि नामक मुनिके दर्शन हुए । बड़े भक्तिभावसे हमने उनकी देशना सुनी। फिर हमने गुरुजीसे निवेदन किया कि हमारे योग्य कोई आज्ञा दीजिए । तब गुरुजीने हमें योग्य समझ श्रावकके बारह व्रत समझाये हमने उन्हें, अंगीकार कर, निर्दोष पालना शुरू किया।
एक समय हम दोनों फिरती हुई अशोक वनमें जा निकलीं। उसी समय त्रिपृष्ट नगरका स्वामी विरांग नामक एक जवान विद्याधर हमको हर ले गया। परंतु उसकी स्त्री वज्रश्यालिकाने दयाकर हमें छोड़नेके लिए उसको मजबूर किया। उसने क्रुद्ध होकर हमें एक भयंकर वनमें ले जाकर फैंक दिया। हमारी हड्डियाँ पसलियाँ चूर चूर हो गई। अन्त समय जानकर हम दोनोंने अनशन व्रत लेकर नमोकार मंत्रका जाप आरंभ कर दिया। वहाँसे मरकर मैं सौधर्म देवलोकमें नवमिका नामक देवी हुई। तू भी वहाँसे मरकर कुबेर लोकपालकी मुख्य देवी हुई । वहाँसे च्यवकर तू बलभद्रकी पुत्री सुमति हुई है । देवलोकमें रहते समय हमारे बीचमें यह शर्त हुई थी कि जो पहले पृथ्वपिर
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