________________
१६४
जैन-रत्न
जीता रहेगा वह वेश्याको रखेगा। दोनों लड़ने लगे । मातापिताने उन्हें बहुत समझाया । मगर वे न माने । तब श्रीषेणने जहर मिला हुआ फूल सूंघकर आत्महत्या कर ली। दोनों राणियोंने भी राजाका अनुसरण किया। सत्यभामाने भी यह सोचकर जहरवाला फूल सँघ लिया कि अगर जीति रहूँगी तो अब कपिल मुझे अपने घर जरूर ले जायगा।
दोनों भाई युद्ध कर रहे थे उसी समय कोई विद्याघर विमानमें बैठकर आया । दोनोंको लड़ते देखकर वह नीचे आया और बोला:-" विषयांध मूर्यो! यह तुम्हारी बहिन है। उसे जाने बिना कैसे उसे अपनी सुखसामग्री बनानेको लड़ रहे हो ?" दोनों लड़ना बंद कर खड़े हो रहे और बोले:बताओ यह हमारी बहन किस तरह है ?"
विद्याधर बोला:-" मेरा नाम मणिकुंडली है । मेरे पिताका नाम सुकुंडली है । पुष्कलावती प्रांतमें वैताढ्य पर्वत पर आदित्यनाभ नामका नगर मेरे पिताकी राजधानी है । मैं विमानमें बैठकर अमितयश नामके जिन भगवानको वंदना करने गया था। वहाँ मैंने भगवानसे पूछा, “ मैं किस कर्मसे विद्याधर हुआ हूँ ?" भगवानने जवाब दिया,-" वीतशोका नामकी नगरीमें रत्नध्वज नामका चक्रवर्ती राजा राज करता था। उसके कनकश्री और हेममालिनी नामकी दो रानियाँ थीं। कनकश्रीके कनकलता और पद्मलता नामकी दो लड़कियाँ हुई। हेममालिनीके एक कन्या हुई । उसका नाम पद्मा था। पद्मा एक आयोके पास धर्मध्यान और तप जप करने लगी। अंतमें
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com