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जैन - रत्न
बीतने पर फाल्गुन वदि १४ के दिन वरुण नक्षत्रमें जयादेवीकी कुक्षिसे महिषीलक्षण - युक्त पुत्रका जन्म हुआ । इन्द्रादि देवोंने जन्मकल्याणक किया । और उसे बालकका नाम वासुपूज्य रखा गया । यौवन काल आनेपर पिताके आग्रह करने पर भी उन्होंने विवाह नहीं किया । और न राज्य ही किया । वे बाल ब्रह्मचारी रहे । वे संसारको असार, और भोगों को किंपाक फलके समान जानते थे। इसीसे उदास रहते थे ।
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एक दिन लोकान्तिक देवोंने आकर दीक्षा लेने की प्रार्थना की वासुपूज्य स्वामीने बर्षोदान देकर फाल्गुन वदि ३० के दिन वरुण नक्षत्र में छह तप सहित दीक्षा ली । इन्द्रादि देवोंने तपकल्याणक किया । दूसरे दिन महापुर नगर में राजा सुनंदके यहाँ उन्होंने पारणा किया ।
प्रभु एक मास छद्मस्थपनेमें विहार कर गृह - उद्यान में आये । और पाटल (गुलाब) वृक्ष के नीचे कायोत्सर्ग पूर्वक रहे । वहाँ पर माघ सुदि २ के दिन शतभिषाखा नक्षत्रमें प्रभुको केवलज्ञान उत्पन्न हुआ । इन्द्रादि देवोंने ज्ञानकल्याणक किया । प्रभुने भव्य जीवोंको उपदेश दिया और नाना देशोंमें विहार किया ।
उनके शासनमें ६६ गणधर, ७२ हजार साधु, १ लाख साध्वियाँ, ४ सौ चौदह पूर्वधारी, ५४ सौ अवधिज्ञानी, १०८ मन:पर्ययज्ञानी, ६ हजार केवली, १० हजार वैक्रियक लब्धिधारी, ४ हजार ८ सौ वादी, १ लाख १५ हजार श्रावक, ४ लाख ३६ हजार श्राविकाएँ तथैव चन्द्रा नामकी : शासन देवी, और कुमार नामक यक्ष थे ।
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