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२ श्री अजितनाथ-चरित
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'गुरुजनोंकी आज्ञा मानना ही संसारमें श्रेष्ठ है। इसलिए प्रभुसे विलग होनेमें सगरकुमारका हृदय खंड खंड होता था तो भी उसने प्रभुकी आज्ञा शिरोधार्य की और भन्न स्वरमें कहा:-" प्रभो ! आपकी आज्ञा शिरसा वंद्य है।" __ प्रभुने सगरकुमारको राज्याधिकारी बनाया और आप वर्षीदान देनेमें प्रवृत्त हुए । इन्द्रकी आज्ञासे तिर्यक्जुंभक नामवाले देवता, देश से ऐसा धन ला लाकर चौकमें, चौराहोंपर, तिराहों पर और साधारण मार्गमें जमा करने लगे जो स्वामी बिनाका था, जो पृथ्वीमें गड़ा हुआ था, जो पर्वतकी गुफाओंमें था, जो श्मशानमें था और जो गिरे हुए मकानोंके नीचे दबा हुआ था। __ धन जमा हो जानेके बाद सब तरफ ढिंडोरा पिटवा दिया गया कि, लोग आवें और जिन्हें जितना धन चाहिए वे उतना ले जावें । प्रभु सूर्योदयसे भोजनके समयतक दान देते थे । लोग आते थे और उतना ही धन ग्रहण करते थे जितने की उनको आवश्यकता होती थी। वह समय ही ऐसा था कि, लोग मुफ्तका धन, बिना जरूरत लेना पसन्द नहीं करते थे। प्रभु रोज एक करोड़ आठ लाख स्वर्ण मुद्राएँ दानमें देते थे। इससे ज्यादा खर्च हों इतने याचक ही न आते थे अ और इससे कम भी कभी खर्च नहीं होता था । कुल मिलाकर एक बरसमें प्रभुने तीन सौ अट्ठासी करोड़ अस्सी लाख स्वर्ण मुद्राएँ दानमें दी थीं। - जब दान देनेका एक वर्ष समाप्त हो गया तब सौधर्मेन्द्रका आसन काँपा । उसने अवधिज्ञान द्वारा इसका कारण जाना।
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