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२ श्री अजितनाथ - चरित
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सगरकुमार के हृदयपर मानों वज्र गिरा । दुःखसे उनका चेहरा श्याम हो गया । नेत्रोंसे अश्रुजल बरसने लगा | भला स्वच्छंदतापूर्वक सुखभोगको छोड़कर कौन मनुष्य उत्तरदायित्वका बोझा अपने सिर लेना चाहेगा ? उन्होंने गद्गद् कंठ होकर नम्रतापूर्वक कहा : - " देव ! मैंने कौनसा ऐसा अपराध किया
कि, जिसके कारण आप मेरा इस तरह त्याग करते हैं ? यदि कोई अपराध हो भी गया हो तो आप उसके लिए मुझे क्षमा करें । पूज्य पुरुष अपने छोटों को उनके अपराधोंके लिए सजा देते हैं, उनका त्याग नहीं करते । वृक्षका सिर आकाश तक पहुँचता हो, परन्तु छाया न देता हो, तो वह निकम्मा है । घनघटा छाई हो परन्तु बरसती न हो तो वह निकम्मी है । पर्वत महान हो मगर उसमें जलस्रोत न हो तो वह निकम्मा है । पुष्प सुन्दर हो परन्तु सुगन्ध - विहीन हो तो निकम्मा है । इसी तरह तुम्हारे बिना यह राज्य मेरे लिए भी निकम्मा है । आप मुक्ति के लिए संसारका त्याग करते हैं, मैं आपकी चरणसेवाके लिए संसार छोडूंगा । मैं माता, पुत्र, पत्नी सबको छोड़ सकता हूँ; परन्तु आपको नहीं छोड़ सकता। यहाँ मैं युवराज होकर आपकी आज्ञा पालता था, वहाँ शिष्य होकर आपकी सेवा करूँगा । यद्यपि मैं अज्ञ और शक्ति - हीन हूँ तो भी आपके सहारे, उस बालककी तरह जो गऊकी पूँछ पकड़कर नदी पार हो जाता
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मैं भी संसार सागर से पार हो जाऊँगा । मैं आपके साथ दीक्षा लूँगा, आपके साथ बन बन फिरूँगा, आपके साथ अनेक प्रकारके दुःसह कष्ट सहूँगा, मगर आपको छोड़कर
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