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जैन - रत्न
वह अपने सामानिक देवादिको साथमें लेकर प्रभुके पास आया । अन्यान्य इन्द्रादि देव भी विनिता नगरीमें आ गये । देवताओं और मनुष्योंने मिलकर दीक्षा महोत्सव किया । प्रभु सुप्रभा नामकी पालकी में सवार कराये गये । बड़ी धूमधामके साथ पालकी रवाना हुई । लक्षावधी सुरनर पालकीके साथ चले । देवांगनाएँ और विनिता नगरीकी कुल - कामिनियाँ, मंगल गीत गाती हुईं पीछे पीछे चलने लगीं ।
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जुलूस अन्तमें ' सहसाम्रवन' नामक उद्यानमें पहुँचा । भगवान वहाँ पहुँचकर शिविकासे उतर गये । फिर शरीर परसे उन्होंने सारे वस्त्राभूषण उतार दिये, और इन्द्रका दिया हुआ अदूषित देवदूष्य वस्त्र धारण किया । उस दिन माघ महीना था, चन्द्रमाकी चढ़नी हुई कलाका शुक्ल पक्ष था; नवमी तिथि थी; चन्द्र रोहिणी नक्षत्रमें आया था । उस समय सप्तच्छद वृक्षके नीचे छटुका तप करके सायंकाल के समय प्रभुने पञ्च मुष्टि लोच किया । इन्द्रने अपने उत्तरीय वस्त्रमें केशोंको लिया और उन्हें क्षीर समुद्र में पहुँचा दिया ।
प्रभु सिद्धोंको नमस्कार कर तथा सामायिकका उच्चारणकर, सिद्धशिला तक पहुँचाने योग्य दीक्षावाहन पर आरूढ़ हुए । उसी समय भगवानको मन:पर्ययज्ञान हुआ ।
अन्यान्य एक हजार राजाओंने भी उसी समय चारित्र ग्रहण किया ।
अच्युतेन्द्रादि देवनायकों और सगरादि नरेन्द्रोंने विविध प्रकार से भक्तिपुरःसर प्रभुकी स्तुति की । फिर इन्द्र अपने देवों
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