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२ श्री अजितनाथ - चरित
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सहित नंदीश्वर द्वीपको गये और सगर विनिता नगरीमें गया । दूसरे दिन प्रभुने ब्रह्मदच राजाके घर क्षीरसे छट्ट तपका पारणा किया । तत्काल ही देवताओंने ब्रह्मदत्तके आंगन में साढ़े बारह करोड़ स्वर्ण मुद्राओंकी और पवन विताडि लता पल्लवों की शोभाको हरनेवाले बहु मूल्य सुंदर वस्त्रोंकी दृष्टि की; दुंदभिनाद से आकाश मंडलको गुंजा दिया; सुगंधित जलकी दृष्टिकी और पचवण पुष्प बरसाये । फिर उन्होंने बड़े हर्ष के साथ कहाः – “यह प्रभुको दान देनेका फल है । ऐसे सुपात्र दानसे केवल ऐहिक सम्पदा ही नहीं मिलती है बल्के इसके प्रभावसे कोई इसी भवमें मुक्त भी हो जाता है, कोई दूसरे भवमें मुक्त होता है, कोई तीसरे भव सिद्ध बनता है और कोई कल्पातीत * कल्पों में उत्पन्न होता है । जो प्रभुको भिक्षा लेते देखते हैं वे भी देवताओंके समान नीरोग शरीरवाले हो जाते हैं । "
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जब भगवान ब्रह्मदत्तके घरसे पारणा करके चले गये, तब उसी समय ब्रह्मदत्तने जहाँ भगवानने पारण किया था वहाँ एक वेदी बनवाई, उस पर छत्री चुनवाई और हमेशा वहाँ वह भक्तिभाव से पूजा करने लगा ।
भगवान ईर्ष्या समितिका पालन करते हुए विहार करने लगे । कभी भयानक वनमें, कभी सघन झाड़ियोंमें, कभी पर्वतके सर्वोच्च शिखरपर और कभी सरोवरके तीरपर, कभी नाना विधिके फल फूलों के वृक्षोंसे पूरित उद्यानमें और कभी वृक्ष
* ग्रैवेयक और अनुत्तर विमानको कल्पातीत कहते हैं ।
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