________________
१२४
जैन-रत्न
लोकान्तिक देवताओंने आकर विनतीकी:-“हे प्रभो! तीर्थ चलाइए।" फिर देवता नमस्कार कर चले गए।
वर्षी दान देनेके अनन्तर भगवानने सहसाम्र वनमें आकर मार्गशीर्ष शुक्ला पूर्णिमाके दिन चन्द्रमा जब मृगशिर नक्षत्रमें आया था तब संध्याके समय पंच मुष्टि लोच किया और इंद्रका दिया हुआ देवदूष्य वस्त्र धारण कर सर्व सावद्य योगोंका त्याग कर दिया।
इन्द्रादि देव तपकल्याणक मना स्तुति कर अपने अपने स्थानको गये। दूसरे दिन भगवान पारणेके लिये नगरमें गये । सुरेन्द्र राजाके घर पारणा किया।
चौदह बरस तपश्चरण करनेके बाद प्रभुको केवलज्ञान हुआ। उस दिन कार्तिक महीनेकी कृष्णा ५ थी और चन्द्रमा मृगशिर नक्षत्रमें आया था। केवलज्ञान होने के बाद देवताओंने समवसरणकी रचना की । प्रभुने उसमें बैठकर देशना दी। देशना सुनकर अनेक लोगोंको वैराग्य हुआ और उन्होंने दीक्षा ग्रहण की।
भगवानने चारु आदि गणधरोंको स्थिति, उत्पाद और नाश इस त्रिपदीका उपदेश दिया। इस त्रिपदीका अनुसरण करके १०२ गणधरोंने चौदह पूर्व सहित द्वादशांगीकी रचना की। उसके बाद प्रभुने उनपर वासक्षेप डाला । __ संभवनाथ प्रभुके शासनका अधिष्ठाता देवता त्रिमुख और देवी दुरितारी थे । देवताके तीन मुँह, तीन नेत्र और छः हाथ थे। उसका वर्ण श्याम था। उसका वाहन मयूरका था । देवी चारभुजा वाली थी । उसका वर्ण गोरा था और सवारी उसके मेषकी थी।
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com