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२ श्री अजितनाथ - चरित
यद्यपि सुमित्रकी दीक्षा लेनेकी बहुत इच्छा थी, तथापि उन्होंने अपने ज्येष्ठ बन्धुकी आज्ञा मानकर भावयति रूपसे घरहीमें रहना स्वीकार कर लिया । सत्य है: - " सत्पुरुष अपने गुरुजनकी आज्ञाको कभी नहीं टालते । "
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जितशत्रु राजाने प्रसन्न होकर बड़े समारोह के साथ अजितकुमारको राज्याभिषेक किया । सबको बड़ी प्रसन्नता हुई । भला विश्वरक्षक स्वामी प्राप्त कर किसको प्रसन्नता न होगी ? फिर अजितकुमारने सगरको युवराज पद दिया ।
जितशत्रु राजाने दीक्षा ग्रहण की। बाह्य और अंतरंग शत्रुओंको जीतनेवाले उन राजर्षिने अखंड व्रत पाला । क्रमशः केवलज्ञान हुआ और अंतमें शैलेशी ध्यानमें स्थित उन महा-माने अष्टकमका नाश कर परम पद प्राप्त किया ।
अजितनाथ स्वामी समस्त ऋद्धि सिद्धि सहित राज करने लगे । जैसे उत्तम सारथीसे घोड़े सीधे चलते हैं वैसे ही अजित स्वामी के समान दक्ष और शक्तिशाली नृपको पाकर प्रजा भी नीति मार्ग पर चलने लगी । उनके शासन में पशुओंके सिवा कोई बंधन में नहीं था । ताड़ना वाजिंत्रोंहीकी होती थी । पिंजरे में पक्षी ही बंद किये जाते थे । अभिप्राय यह है कि, प्रजामें सब तरहका सुख था । वह नीतिके अनुसार आचरण करती थी । उसमें अजित स्वामीके प्रभावसे अनीतिका लेश भी नहीं रह गया था ।
उनके पास सकल ऐश्वर्य था तो भी उन्हें उसका अभिमान
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