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श्री आदिनाथ - चरित
एक बार धरणेन्द्र प्रभुकी वंदना करनेके लिए आया । उस समय उसने नमि विनमिको प्रभुकी सेवा करते और राज्यकी याचना करते देखकर कहा: – “ तुम भरतके पास जाओ वह तुम्हें राज्य देगा । प्रभु तो निष्परिग्रही और निर्मोह हैं । " उन्होंने उत्तर दिया :- " प्रभुके पास कुछ है या नहीं इससे हमें कोई मतलब नहीं है । हमारे तो ये ही स्वामी हैं । ये देंगे तभी लेंगे हम औरोंसे याचना नहीं करेंगे ।”
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धरणेन्द्र उनकी बातों से प्रसन्न हुआ । उसने प्रभुसेवा के फल स्वरूप गौरी और प्रज्ञप्ति आदि अड़तालीस हजार विद्याएँ उन्हें दीं और कहा: – “ तुम वैताढ्य पर्वतपर जाकर नगर बसाओ - " और राज्य करो । " नमि और विनमिने ऐसा ही किया ।
कच्छ और महाकच्छ गंगानदीके दक्षिण तटपर मृगकी तरह वनचर होकर फिरते थे और वल्कलसे ( वृक्षोंकी छालसे ) अपने शरीरको ढकते थे । गृहस्थियोंके घर के आहारको वे कभी ग्रहण नहीं करते थे । चतुर्थ और छट्ट आदि तपोंसे उनका शरीर सुख गया था । पारणाके दिन सड़े गले और पृथ्वीपर पड़े हुए पत्तों और फलोंका भक्षण करते थे और हृदय में प्रभुका ध्यान धरते थे ।
प्रभु निराहार एक बरस तक आर्य और अनार्य देशों में विहार करते रहे । विहार करते हुए प्रभु गजपुर ( हस्तिनापुर ) नगर में पहुँचे । वहाँ बाहुबलिका पुत्र सोमप्रभ राजा राज्य
करता था ।
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