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जैन - रत्न
उसका मायाजाल मेरी आँखों के सामने खड़ा हुआ । मैंने, अपने राज्य में पहुँचते ही राज्य लड़केको सौंप दिया और, निर्वाण प्राप्तिके लिए चिन्तामणि रत्नके समान फल देनेवाली दीक्षा, महामुनिके पाससे, ग्रहण कर ली
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राजाका अंतःकरण पहले ही संसार से उन्मुख हो रहा था । इस समय उसने इसे छोड़ देनेका संकल्प कर लिया । उसने आचार्य महाराज से प्रार्थना को: - " गुरुवर्य ! मैं जाकर राजवार अपने लड़केको सौंपूँगा और कल फिर आपके दर्शन करूँगा । आपसे संयम ग्रहण करूँगा । कल तक आप यहाँ से विहार न करें । " आचार्य महाराजाने राजाकी प्रार्थना स्वीकार की । राजा नगरमें गया ।
नगरमें जाकर विमलवाहनने अपने मंत्रियोंको बुलाया । उनके सामने अपनी दीक्षा लेनेकी इच्छा प्रकट की । मंत्रियोंने खिन्न अंतःकरण के साथ राजाकी इच्छा में अनुमोदन दिया । तब राजाने अपने पुत्रको बुलाया और उसे राजभार ग्रहण करनेके लिये कहा । यद्यपि उसका हृदय बहुत दुखी था तथापि पिताकी आज्ञाको उसने सिरपर चढ़ाया। विमलवाहनने पुत्रको राजसिंहासन पर बिठाकर, आचार्य महाराजके पाससे दूसरे दिन दीक्षा ले ली ।
इन्होंने समिति, गुप्ति, परिसह आदि क्रियाओंको निर्दोष करते हुए अपने मनको स्थिर किया । वे सिद्ध, गुरु, बहुश्रुत, स्थविर, तपस्वी, श्रुतज्ञान और संघमें भक्ति रखते थे । यही
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