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२ श्री अजितनाथ-चरित
९७ wwww.rrrrrrrrrrrrrr कोष-अग्नि दर्शन-मेघसे बुझ गई है; मानवृक्षको दर्शनगनने उखाड़ दिया है। माया-सर्पिणीको दर्शनगरुड़ने डस लिया है। लोभपर्वतको दर्शनवज्रने विध्वंस कर दिया है; मोहान्धकारको दर्शनसूर्यने मिटा दिया है । राजाके अन्तःकरणमें एक अभूतपूर्व आनन्द हुआ । पृथ्वीके समान क्षमाको धारण करनेवाले आचार्य महाराजने उसको धर्मलाभ दिया। राजा बैठ गया । आचार्य महाराज धर्मोपदेश देने लगे।
जब उपदेश समाप्त हो गया, तब राजाने पूछा:-" दयानाथ ! संसाररूपी विषवृक्षके अनन्त दुःखरूपी फलोंको भोगने हुए भी मनुष्योंको जब वैराग्य नहीं होता; वे अपने घरबार नहीं छोड़ते; तब आपने कैसे राज्यसुख छोड़कर संयम ग्रहण कर लिया ?" __मुनिने अपनी शान्त एवं गंभीर वाणीमें उत्तर दिया:"राजन् ! संसारमें जा सोचता है उसके लिये प्रत्येक पदार्थ वैराग्यका कारण होता है और जो नहीं सोचता उसके लिए मारीसे भारी घटना भी वैराग्यका कारण नहीं होती । मैं जब गृहस्थ था तब अपनी चतुरंगिणी सेना. सहिन दिग्विजय करने निकला । एक जगह बहुत ही सुन्दर वागीचा मिला । मैंने वहीं डेरा डाला और एक दिन बिताया। दूसरे दिन मैं वहाँसे चला गया । कुछ कालके बाद जब मैं दिग्विजय करके वापिस लौटा तब मैंने देखा कि, वह बागीचा नष्ट हो गया है, मुमन-सौरभपूर्ण वह बागीचा कंटकाकीर्ण हो रहा है । उसी समय मेरे अन्न:करणमें एक वैराग्य-भावना उठी । संसारकी असारता आर
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