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श्रीअजितनाथ-चरित
भोगने लगा, धर्मकी थोडीबहुत भावनाएँ जो लडकपनमें प्राप्त हुई थीं उन्हें भुला दिया । मगर उसका क्या परिणाम हुआ ? पिताके देहान्तने सब सुख छीन लिया। छिः ! वास्तविक सुख तो कभी छिनता नहीं है। वह विषय-सेवनका उन्माद जाता रहा । गया मगर सर्वथा न मिटा । राज्यकायके बोझके तले वह दब गया। राजा बननेपर दुःख और चिन्ताकी मात्रा बढ़ गई। कठोर राज्यशासन चलानेमें कितनोंको सताया ? कितनोंका जी दुखाया ? उच्चाकांक्षा, राज्यलोभ और अहमन्यताके कारण कितनोंको तहोबाला किया? यह सब कुछ किया किन्तु आत्मसुख न मिला । अब पवन विकपित लता-पत्रकी भाँति यौवनकी चंचलता भी जाती रही, और राज्यगर्वका उन्माद भी मिट गया । जिन चीजोंको मैं सुखदायी समझता था, जिन भोगोंके लिए मैंने समझा था कि इन्हें भोग डालूँगा मगर जैसेके तैसे ही हैं। मेरी ही भोगनेकी शक्ति जाती रही तो भी तृष्णा न मिटी।" ___पाठकगण! विवेकी और धर्मी मनुष्योंके दिलोंमें ऐसे विचार प्रायः आया ही करते हैं । भर्तहरिने ऐसे ही विचारोंसे प्रेरित होकर लिखा है:
भोगा न भुक्ता वयमेव भुक्तास्तपो न तप्तं वयमेव तप्ताः। कालो न यातो वयमेव याता
स्तृष्णा न जीर्णा वयमेव जीर्णाः॥ भाव यह है कि, हमने बहुत कुछ भोग भोगे परन्तु भोगोंका अन्त न आया हाँ हमारा अन्त हो गया। हमने तापोंको
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