________________
१०२
- जैन-रत्न mmmmmmmmmmmwwwmwwwm~~~~~~
समस्त नगरमें बंदनवार बँधे । दस दिन तक नगरमें राजाने उत्सव कराया। मालका महसूल न लिया और किसी-- को दंड भी न दिया।
कुछ दिन बाद राजाने नामकरण संस्कारके लिए महोत्सव किया । मंगल गीत गाये गये । बहुत सोच विचारके बाद राजाने अपने पुत्रका नाम ' अजित ' रक्खा । कारण, जबसे यह शिशु कूखमें आया तबसे राजा अपनी पत्नीके साथ चौसर खेलकर कभी नहीं जीते । भ्राताके पुत्रका नाम 'सगर' रक्खा गया।
अजितनाथ स्वामी अपने हाथका अंगूठा चूसते थे । उन्होंने कभी धायका दूध नहीं पिया । उनके अंगूठेमें इन्द्रका रक्खा हुआ अमृत था । सभी तीर्थंकरोंके अंगूठेमें इन्द्र अमृत रखता है । दूजके चंद्रमाकी तरह दोनों राजकुमार बढ़ने लगे। __ योग्य आयु होने पर 'सगर' पढ़नेके लिए भेजे गये। तीर्थकर जन्महीसे तीन ज्ञानवाले होते हैं। इसी लिए महात्मा अजितकुमार उपाध्यायके पास अध्ययनके लिए नहीं भेजे गये। .. उनकी बाल्यावस्था समाप्त हुई । अब उन्होंने जवानीमें प्रवेश किया। उनका शरीर साढ़े चार सौ धनुषका, संस्थान समचतुरस्र और संहनन 'वज्र ऋषभ नाराच' था। वक्षस्थलमें श्रीवत्सका चिन्ह था । वर्ण स्वर्णके समान था। उनकी. केशShree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com