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जैन-रत्न ~~mmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmm इसी नगरमें विमलवाहन नामका राजा राज्य करता था। वह प्रजाको सन्तानकी तरह पालता था, पोषता था और उन्नत बनाता था । न्याय तो उसके जीवनका प्रदीप था । और तो
और वह निजकृत अन्याय भी कभी नहीं सहता था । उसके लिए दंड लेता था, प्रायश्चित्त करता था। प्रजाके लिए वह सदा अपना सर्वस्व न्योछावर करनेको तत्पर रहता था । प्रजा भी उसको प्राणोंसे ज्यादा प्यार करती थी। जहाँ उसका पसीना गिरता वहाँ प्रजा अपना रक्त बहा देनेको सदा तैयार रहती थी । वह शत्रुओंके लिए जैसा वीर था, वैसा ही नम्र और याचकोंके लिये दयालु और दाता था। इसीलिए वह युद्धवीर, दयावीर और दानवीर कहलाता था। राज-धर्ममें रहकर बुद्धिको स्थिर रख, प्रमादको छोड़, जैसे सर्पराज अमृतकी रक्षा करता है वैसे ही वह पृथ्वीकी रक्षा करता था।
संसारमें वैराग्योत्पत्तिके अनेक कारण होते हैं । संस्कारी आत्माओंके अन्तःकरणोंमें तो प्रायः, जब कभी वे सांसारिक कार्योंसे निवृत्त होकर बैठे होते हैं, वैराग्यके भाव उदय हो आते हैं।
राजा विमलवाहन संस्कारी था, धर्मपरायण था। सवेरेके समय, एक दिन, अपने झरोखेमें बैठे हुए उसको विचार आया, "मैं कब तक संसारके इस बोझेको उठाये फिरूँगा। जन्मा, बालक हुआ-बाल्यावस्था दूसरोंकी संरक्षतामें, खेलने कूदनेमें
और लाड प्यारमें खोई। जवान हुआ-युवती पत्नी लाया, विषयानंदमें निमग्न हुआ, इन्द्रियोंका दास बना, उन्मत्त होकर भोग
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