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जैन - रत्न
जब चैतन्य हुए तब उन्होंने भी पशुपक्षियों तकको रुळादेनेवाला आक्रंदन करना प्रारंभ किया ।
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जब सबका शोक रुदनसे कुछ कम हुआ तब प्रभुका निर्वाण महोत्सव ( निर्वाणकल्याणक) किया गया और प्रभुका भौतिक शरीर भी देखते ही देखते चितामें भस्मसात हो गया ।
इस तरह एक महान आत्मा हमेशा के लिए संसार से मुक्त हो गया । अपने अन्तिम भवमें संसारका महान उपकार कर गया और संसारको सुखका वास्तविक स्थान तथा उस स्थान पर पहुँचने का मार्ग दिखा गया ।
प्रभुकी चौरासी लाख आयु इस प्रकार पूर्ण हुई थी । २० लाख पूर्व कुमारावस्थायें, ६३ लाख पूर्व राज्यका पालन और सुख भोगमें, १००० वर्ष छद्मस्थावस्थामें १००० वर्ष कम एक लाखपूर्व केवली पर्याय में । उनका शरीर ५०० धनुष उँचा था ।
भगवानका धार्मिक परिवार इस प्रकार था - ८४ गणधर ८४ गण; ८४ हजार साधु; ३ लाख साध्वियाँ; ३०५००० श्रावक; ५५४००० श्राविकाएँ; ४७५० चौदह पूर्वधारी श्रुत केवली; ९ हजार अवधिज्ञानी; २०००० केवलज्ञानी; २०६०० वैक्रियक लब्धिवाले, १३६५० ऋजुमति मन:पर्ययज्ञानी और १२६५० वादी थे । २०००० साधु और चालीस हजार साध्वियाँ मोक्षमें गई । २२९०० साधु अनुत्तर विमानमें गये ।
* - देखो तीर्थंकरचरित भूमिका, पृष्ठ ३० – ३१ ।
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