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श्री आदिनाथ चरित -wwwwwwwwwwwwwwww
इस अवसर्पिणीकालके तीसरे आरेके जब नन्यानवे पक्ष (४ बरस एक महीना और पन्द्रह दिन ) रहे तब माघकृष्णा त्रयोदशीके सवेरे, अभिचि नक्षत्रमें, चंद्रका योग आया था उस समय पर्यकासनस्थ प्रभुने बादर काययोगमें रहकर बादर वचन-योग और बादर मनोयोगको रोका; फिर सूक्ष्म काययोगका आश्रय ले, बादर काययोग, सूक्ष्म मनोयोग तथा सूक्ष्म वचनयोगको रोका। अन्तमें वे मूक्ष्म काययोगका भी त्यागकर
और 'सूक्ष्म क्रिया' नामक शुक्ल ध्यानके तीसरे पायेके अन्तको प्राप्त हुए । तत्पश्चात् उन्होंने 'उछिन्नक्रिया' नामके शुक्ल ध्यानके चौथे पायेका-जिसका काल केवल पाँच हस्व अक्षरोंके उच्चारण जितना ही है-आश्रय किया । अन्तमें केवलज्ञानी, केवलदर्शनी, सर्व दुःखविहीन, आठों कर्मोंका नाश कर सारे अर्थोंको सिद्ध करनेवाले अनंत वीर्य, अनंत सुख और अनंत ऋद्धिवाले, प्रभु बंधके अभावसे एरंड फलके बीजकी तरह उव गतिवाले होकर स्वभावतः सरल मार्ग द्वारा लोकाग्रको ( मोक्षको) प्राप्त हुए । प्रभुके निर्वाणसे-सुखकी छायाका भी कभी दर्शन नहीं करनेवाले-नारकी जीवोंको भी क्षण वारके लिए सुख हुआ।
दस हजार श्रमणों ( साधुओं) को भी, अनशन व्रत लेनेके और क्षपकश्रेणीमें आरूढ़ होनेके बाद केवलज्ञान प्राप्त हुआ। फिर मन, वचन और कायके योगको सर्व प्रकारसे रुद्ध कर वे भी ऋषभदेव स्वामीकी भाँति ही परम पदको प्राप्त हुए।
चक्रवर्ती भरत वज्राहतकी भाँति इस घटनासे मृच्छित हो कर पृथ्वीपर गिर पड़े। इन्द्र उनके पास बैठकर रुदन करने लगा । देवताओंने भी इन्द्रका साथ दिया। मूञ्छित चक्री
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