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जैन-रत्न
। उस समय प्रभुने गणधर होने योग्य ऋषभसेन आदि चौरासी सद्बुद्धि साधुओंको, सर्व शास्त्र समन्वित उत्पाद, व्यय और धौव्य नामकी पवित्र त्रिपदीका उपदेश दिया। उस त्रिपदीके अनुसार उन्होंने (साधुओंने) चतुर्दश पूर्व और द्वादशांगी रची। फिर इन्द्र दिव्य चूर्णका (वासक्षेपका) एक थाल भरकर प्रभुके पास खड़ा रहा । प्रभुने खड़े होकर चतुर्दश पूर्व और द्वादशांगीपर, क्रमशः चूर्ण क्षेप किया-डाला और सूत्रसे, अर्थसे, सूत्रार्थस, द्रव्यसे, गुणसे, पर्यायसे और नयसे, उन्हें अनुयोग-अनुज्ञा दी, ( उपदेश देनेकी आज्ञा दी ) तथा गणकी अनुज्ञा भी दी। तत्पश्चात् देवताओं, मनुष्यों, और उनकी स्त्रियोंने दुंदुभिकी ध्वनि प्रर्वक उनपर चारों तरफसे वासक्षेप किया। प्रभुकी वाणीको ग्रहण करनेवाले सभी गणधर हाथ जोड़कर खड़े रहे । उस समय प्रभुने पूर्वकी तरफ मुँहकर बैठे हुए पुनः धर्मदेशना दी ।
उज्ज्वल शालिका बनाहुआ और देवताओं द्वारा सुगन्धमय किया हुआ, बलि (नैवेद्य) समवसरणके पूर्व द्वारसे अंदर लाया गया। स्त्रियाँ मंगल-गीत गाती हुई उसके पीछे पीछे आई। वह बलि प्रभुके दक्षिणा करके उछाला गया । उसका आधा भाग पृथ्वीमें पड़नेके पहिले ही देवतओंने ग्रहण कर लिया। अवशेष आधेका आधा भरतने लिया और आधा लोगोंने बाँटके ले लिया । उस बलिके प्रभावसे पहिलेके जो रोग होते हैं वे नष्ट हो जाते हैं और आगामी छ: मासतक कोई रोग नहीं होता है।
प्रभु वहाँसे उठकर मध्य भागस्थ देवछंदामें विश्राम करनेके लिये बैठे । गणधरोंमें मुख्य ऋषभसेनने प्रभुके चरणोंमें
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