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जैन-रत्न
___ एक बार प्रभुने आर्या ब्राह्मी और सुंदरीसे कहा:- भरतसे विग्रहकर, विजयी बननेके बाद बाहुबलिको वैराग्य हो गया उसने दीक्षा ग्रहणकर घोर तपश्वाचरण आरंभ किया। इस समय उसके घाति कर्म क्षय हो गये हैं। परंतु मान कषायका अभीतक नाश नहीं हुआ है । वह सोचता है कि, मैं अपनेसे छोटे भाइयोंको कैसे प्रणाम करूँ ? जबतक यह भाव रहेगा उसे केवलज्ञान नहीं होगा । अतः तुम जाकर उसे उपदेश दो। यह समय है । वह तुम्हारा उपदेश मान लेगा। ब्राह्मी और सुंदरीने ऐसा ही किया। बाहुबलिको केवलज्ञान हो गया। ___ परिव्राजक मतकी उत्पत्ति-एक बार उष्ण ऋतुमें भरतके पुत्र मरिचि मुनि घबराकर विचार करने लगे कि, इस दुस्सह संयम-भारसे छूटनेके लिए क्या प्रयत्न करना चाहिए ? अगर पुनः गृहस्थ होता हूँ तो कुलकी मर्यादा जाती है और चारित्र पाला नहीं जाता । सोचते सोचते उन्हें एक उपाय सूझा, उन्होंने श्वेतके बजाय कषाय (लाल पीले) रंगके वस्त्र धारण किये । धूप वर्षासे बचनेके लिए वे छत्ता रखने लगे । शरीर पर चंदनादिका लेप करने लगे। स्थूल हिंसाका ही त्याग रक्खा। द्रव्य रखने लगे। जोड़े पहिनने लगे । और नदी
आदिका जल पीने लगे और हमेशा कच्चे जलसे स्नान करने लगे। इतना करनेपर भी वे विहार प्रभुके साथ ही करते थे और जो कोई उनसे उपदेश सुनने आता था उसे शुद्ध धर्महीका उपदेश देते थे। अगर कोई उनसे पूछता था कि, तुम ऐसा आचरण क्यों करते हो तो उसे वे कहते थे कि, मेरेमें इतनी शक्ति नहीं है।
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