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जैन - रत्न
होती थी, उस समय उसीसे काम लिया जाता था । प्रभुने सबको विवेक सिखाया था, त्याज्य और ग्राह्यका ज्ञान दिया था ।
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एक बार वसन्त आया तब प्रभु परिजनोंके आग्रहसे नंदनोद्यानमें क्रीडा करने गये । नगरके लोग जब अनेक प्रकारकी 1 क्रीडा कर रहे थे तब प्रभु एक तरफ बैठे हुए देख रहे थे, देखते ही देखते उनको विचार आया कि अन्यत्र भी कहीं ऐसी सुखसमृद्धि होगी ? क्षण वारके बाद उन्होंने अपने पूर्व भवके समस्त सुखोपभोग और फिर उसके बाद होनेवाले जन्म-मरण आदिके दुःख देखे । विचार करते हुए उनके अन्तःकरणमें वैराग्य भावना उदित हुई । कलिकालसर्वज्ञ श्रीमद् हेमचंद्राचार्यने उसका वर्णन इस तरह किया है:--
“ विषय - सुखमें लीन, अपने आत्महितको भूले हुए लोगों को धिक्कार है ! इस संसाररूपी कूप में प्राणी ' अरघट्टघटि न्याय से ( रेंटकी घेड़ें जैसे कुए में जाती हैं, भरती हैं और वापिस खाली होती हैं; वे इसी तरह चक्कर - खाया करती हैं । वैसे ही ) अपने कर्मसे गमनागमन किया करते हैं। मोहसे अंधे बने हुए उन प्राणियोंको धिकार है कि, जिनका जन्म सोते हुए मनुष्य की भाँति फिजूल चला जाता है । चूहे जैसे वृक्षोंको खा जाते हैं उसी तरह राग, द्वेष, और मोह उद्यमी प्राणियोंके धर्मको भी मूलमेंसे छेद डालते हैं । मुग्ध लोग वटवृक्षकी भाँति उस क्रोधको बढ़ाते हैं कि, जो क्रोध अपनेको बढ़ाने वालेहीको जड़ से खा डालता है । हाथीपर चढ़े हुए महावतकी तरह मानपर चढ़े हुए
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