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जैन-रत्न
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हैं वैसे ही प्रबल विषय-कषाय भी मनुष्यके आत्महितका अन्त कर देते हैं । इसलिए इनमें लिप्त रहनेवाले प्राणियोंको धिक्कार है।"
प्रभु जिस समय इस प्रकार वैराग्यकी चिन्तासन्ततिके तन्तुओं द्वारा व्याप्त हो रहे थे, उस समय ब्रह्म नामक पाँचवें देवलोकके अन्तमें बसनेवाले सारस्वत, आदित्य, वन्हि, अरुण, गर्दितोय, तुषिताश्व, अव्यबाध, मरुत और रिष्ट, नौ प्रकारके लोकान्तिक देव प्रभुके पास आये और सविनय बोले:" भरतक्षेत्रमें नष्ट हुए मोक्षमार्गको बतानेमें दीपकके समान हे प्रभो ! आपने लोकहितार्थ अन्यान्य प्रकारके व्यवहार जैसे प्रचलित किये हैं वैसे ही अब धर्मतीर्थको भी चलाइये।"
इतना कह वन्दनाकर देवता अपने स्थानको गए । प्रभु भी दीक्षा ग्रहण करनेका निश्चयकर वहाँसे अपने महलोंमें गये ।
साधुजीवन प्रभुने महलमें आकार भरतको राज्य ग्रहण करनेका आदेश दिया । भरतने वह आज्ञा स्वीकार की । प्रभुकी आज्ञासे सामन्तों, मन्त्रियों और पुरजनोंने मिलकर भरतका राज्याभिषेक किया । प्रभुने अपने अन्यान्य पुत्रोंको भी जुदा जुदा देशांके राज्य दे दिये । फिर प्रभुने वर्षीदान देना प्रारम्भ किया। नगरमें घोषणा करवा दी कि जो जिसका अर्थी हो वह वही आकार ले जाय । प्रभु सूर्योदयसे लेकर सूर्यास्त तक एक करोड़ आठ लाख स्वर्णमुद्राओंका दान नित्य प्रति करते
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