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जैन-रत्न
___ जब गर्भको नौ महीने और साढ़े आठ दिन व्यतीत हुए, सारे ग्रह उच्च स्थानमें आये, चंद्रयोग उत्तराषाढा नक्षत्रमें स्थित हुआ तब चैत महीनेकी काली आठमके दिन आधीरातमें मरुदेवा माताने युगल धर्मी पुत्रको उत्पन्न किया। उपपाद शय्यामें जन्मे हुए देवताओंकी तरह भगवान सुशोभित होने लगे। तीन लोकमें, अन्धकारको नाश करनेवाले बिजलीके प्रकाशकी तरह, उद्योत हुआ। आकाशमें दुंदुभि बजने लगे। क्षण वार नारकी जीवोंको भी उस समय अभूत पूर्व आनन्द हुआ। शीतलमंद पवनने सेवकोंकी तरह पृथ्वीकी रजको साफ करना प्रारंभ किया। मेघ वस्त्र डालने और सुगंधित जलकी वर्षा करने लगे। ___ छप्पन दिक्कुमारियाँ मरुदेवा माताकी सेवामें आई सौधर्मेन्द्र व दूसरे तिरसठ इन्द्रों ने मिलकर प्रभुका जन्म-कल्याणक किया। ___ माता मरुदेवा सवेरे ही जागृत हुई । रातमें स्वप्न आया हो इस तरह उन्होंने इन्द्रादि देवोंके आगमनकी सारी बातें नाभिराजासे कहीं। भगवानके उरुमें (जांघ) ऋषभका चिन्ह था, और माता मरुदेवाने भी स्वप्नमें सबसे पहले ऋषभहीको देखा था, इसलिए भगवानका नाम 'ऋषभ' रक्खा गया । भगवानके साथ जन्मी हुई कन्याका नाम सुमंगला रक्खा गया। योग्य समयमें भगवान इन्द्रके संक्रमण किये हुए अंगूठेके अमृतका पान करने लगे । पाँच धाएँ-जिन्हें इन्द्रेन नियत की थीं हर समय भगवानके पास उपस्थित रहती थीं।
६ देखो, तीर्थकरचरित-भूमिका पृष्ठ १८-३१ तक ।
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