Book Title: Bruhad Sanskrit Hindi Shabda Kosh Part 01
Author(s): Udaychandra Jain
Publisher: New Bharatiya Book Corporation
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir महाकवि आ० ज्ञान सागर बृहद् संस्कृत-हिन्दी शब्द कोष उदयचन्द जैन For Private and Personal Use Only Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir महाकवि आ० ज्ञान सागर बृहद् संस्कृत-हिन्दी शब्द कोष भाग-१ (अ से ण) प्रो० उदयचन्द्र जैन न्यू भारतीय बुक कॉर्पोरेशन दिल्ली (भारत) For Private and Personal Use Only Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir इस पुस्तक का कोई भी भाग किसी भी रूप में या किसी भी अर्थ में प्रकाशक की अनुमति के बिना प्रकाशित नहीं किया जा सकता। सर्वाधिकार प्रकाशक के अधीन हैं। समारA परिहान प्रकाशक : न्यू भारतीय बुक कॉर्पोरेशन ५८२४, (समीप शिव मंदिर) न्यू चन्द्रावल, जवाहर नगर, दिल्ली-११०००७ फोन : २३८५१२९४, २३८५०४३७ ५५१९५८०९ E-mail : newbbe@indiatimes.com. बीका KRutane कोवा (गांधीनगर) वि.३८२००९ पावीर पारा प्रथम संस्करण : २००६ आई.एस.बी.एन. : ८१-८३१५-०४८-९ (set) मुद्रक : जैन अमर प्रिंटिंग प्रेस दिल्ली-७ For Private and Personal Use Only Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir विषय सूची आत्म कथ्य संक्षेपिका वर्ण अ से ह तक १-१२५० पारिभाषिक शब्द १२५१-१२५८ भौगोलिक शब्द १२५९-१२६३ नामवाचक शब्द १२६४-१२८३ विशिष्ट शब्द १२८४-१२९६ For Private and Personal Use Only Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आत्म कथ्य पंचविधमाचारं चारंति चारयन्तीत्याचार्याः चतुर्दशविद्यास्थानपारगाः एकादशाङ्गधरा। पांच प्रकार के आचार का जो आचरण करते हैं, उनके अनुसार चलते हैं, वे आचार्य हैं। वे चौदह विद्या स्थानों में पारगामी एवं ग्यारह अंगों के धारी होते हैं। वे ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तप और वीर्य से परिपूर्ण बौद्धिक एवं आध्यात्मिक विचारधारा से युक्त सूत्र का व्याख्यान करते हैं। स्वयं स्वाध्याय में लीन दूसरों को भी स्वाध्याय की ओर लगाते हैं। उनके श्रुत से प्रथमानुयोग, करणानुयोग, चरणानुयोग और द्रव्यानुयोग के विषय प्रकाश में आते हैं, जो श्रुत कहलाते हैं। वे श्रुत वचन हैं, जिन्हें आगम, जिनवाणी, सरस्वती, आप्त वचन, आज्ञा, प्रज्ञापना, प्रवचन, समय, सिद्धांत आदि कहा जाता श्रत के धारण करने वाले श्रतधराचार्य कहलाते हैं। वे प्रबद्ध होने से प्रबद्धाचार्य. उत्तम अर्थ के ज्ञाता होने से सारस्स्वताचार्य आदि कहलाते हैं। उनकी रचनायें तीर्थ बन जाती हैं। क्योंकि वे तीर्थंकर की वाणी हैं जिन्हें आचार्य गुणधर, आचार्य धरसेन, आचार्य पुष्प दन्त, आचार्य भूतवलि, आचार्य मंछू, आचार्य नागहस्ती, आचार्य वज्रयस, आचार्य कुन्दकुन्द, आचार्य वट्टकेर, शिवार्य, स्वामी कार्तिकेय आदि प्राकृत मनीषियों के साथ-साथ संस्कृत के सूत्रकार, काव्यकार, कथाकार, पुराण काव्य प्रणेता आदि ने सारस्वत मूल्यों की स्थापना की। तावार्थसूत्र के सूत्रकर्ता उमास्वामी ने दस अध्यायों में वीतराग वाणी के समग्र पक्ष को प्रस्तुत कर दिया। आचार्य समन्तभद्र की भद्रता के आचार विचार आदि के साथ-साथ दार्शनिक मूल्यों की स्थापना के लिए आप्तमीमांसा जैसे ग्रंथ को लिखकर संस्कृत दार्शनिक साहित्य को पुष्ट किया। उन्होंने स्वयंभूस्त्रोत, स्तुतिविद्या, युक्त्यानुशासन, रत्नकरण्डश्रावकाचार जैसे सारगर्भित ग्रन्थों की रचना की। वे कवि हृदय सारस्वताचार्य हैं जिन्होंने ई० सन् द्वितीय शताब्दी में जीवसिद्धि, प्रमाणसिद्धि, तावविचार, कर्म आदि पर पर्याप्त प्रकाश डाला। आचार्य सिद्धासेन ने अनेकान्तसिद्धि के लिए सन्मतिसूत्र ग्रंथ की रचना की और उन्हीं ने कल्याण मंदिर स्त्रोत काव्य की रचना की। वे नय और प्रमाण की व्यापक दृष्टि को लिए हुए उक्त ग्रंथों को मूल्यवान् बनाते हैं। आचार्य पूज्यपाद को आचार्य देवनंदी भी कहा गया वे एक कुशल व्याकरणकार हैं। उन्होंने जैनेन्द्र व्याकरण की सूत्रबद्ध रचना की। उनकी तावार्थ सूत्र पर लिखी गई वृत्ति सर्वार्थसिद्धि के नाम से प्रसिद्ध है वे योग, समाधि, आदि के विषय को आधार बनाकर समाधितन्त्र एवं इष्टोपदेश की रचना करते हैं। पात्र केशरी का पात्र केशरी स्त्रोत भावपूर्ण है। आचार्य जोइन्दु प्राकृत, संस्कृत और अपभ्रंश के काव्यकार हैं, उनका परमात्म प्रकाश (अपभ्रंश) योगसार, श्रावकाचार, आध्यात्मसंदोह, सुहासिततंत्र जैसे संस्कृत रचनाएं भी प्रसिद्ध हैं। आचार्य मानतुंग का भक्तामर स्त्रोत जन-जन में प्रिय है। आचार्य विमल सूरि का प्राकृत का काव्य पउमचरियं रामायण के विकास में योगदान प्रदान करता है। आचार्य रविसेन ने भी राम से संबंधित पद्म चरित्र नामक ग्रंथ की रचना की, जो संस्कृत में सर्वबद्ध है। आचार्य जहानदीना वरांगचरित्र भी चरित्रकाव्य की परंपरा का सुन्दरतम् अलंकृत ग्रन्थ हैं। For Private and Personal Use Only Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (vi) आचार्य अकलंकदेव न्यायशास्त्र के विशेषज्ञ माने जाते हैं। जिन्होंने जैन न्याय की यथार्थता को संस्कृत में प्रस्तुत किया। उनके प्रसिद्ध ग्रंथ इस बात के प्रमाण हैं। लघीयस्त्रय (स्वोपज्ञवृत्तिसहित) न्यायविनिश्चय (स्वोपज्ञवृत्तियुक्त) सिद्धिविनिश्चयसवृत्ति, प्रमाण संग्रहसवृत्ति, तत्त्वार्थवार्तिक सभाष्य, अष्टशती (देवागम-विवृत्ति) आचार्य वीरसेन की ध वला टीका, जय धवला टीका, सभी दृष्टियों से महत्वपूर्ण है। आचार्य जिनसेन ने भगवान ऋषभदेव से संबंधित जो रचना की है वह आदि पुराण के नाम से प्रसिद्ध है। उन्होंने संस्कृत में पार्वाभ्युदय नामक महाकाव्य की रचना की है यह नवीं शताब्दी का महत्वपूर्ण ग्रन्थ है। आचार्य विद्यानंद परीक्षा प्रधानी आचार्य माने जाते हैं जिन्होंने दर्शन के क्षेत्र में महत्वपूर्ण कार्य किया। आप्तपरीक्षा, प्रमाण परीक्षा, पत्र परीक्षा, सत्यशासनपरीक्षा विद्यानंद महोदय, श्रीपुर पार्श्वनाथ स्त्रोत, तावार्थ श्लोक वार्तिक अष्टसहस्त्री युक्त्यनुशासनालंकार आदि जैसे दार्शनिक ग्रंथों का महत्वपूर्ण स्थान है। आचार्य देवसेन का दर्शनसार भावसंग्रह, आराधनासार, तावसार, लघुनयचक, आलापपद्धति आदि ग्रंथ संस्कृत साहित्य के विकास में महत्वपूर्ण योगदान देते हैं। जैन संस्कृत काव्य परम्परा संस्कृत काव्य परम्परा राष्ट्रीय मानवीय और सांस्कृतिक मूल्यों से जुड़ी हुई परम्परा है। जिसमें वैदिक परंपरा और श्रवण परंपरा इन दोनों ही परंपराओं का महत्वपूर्ण स्थान है। वेद उपनिषद् आदि के उपरान्त, रामायण, महाभारत आदि महाप्रबंधों की रचना हुई, जिन्होंने विषय, भाषा, भाव, छन्द, रस, अलंकार आदि के साथ-साथ मूल कथा को गतिशील बनाया। रामायण, महाभारत आदि के महाप्रबंध को जो काव्य शैली प्रदान की उसे कवि भाष अश्वघोष, कालिदास, भारती, माघ, राजशेखर आदि ने काव्य-शैली को गति प्रदान की। उनके प्रबंध महाप्रबंध बने। संस्कृत काव्य परंपरा का संक्षिप्त विभाजन १. आदिकाल-ई० पू० से ५ ई० प्रथम शती तक। २. विकासकाल-ई० सन् की द्वितीय शती से सातवीं शती तक। ३. हासोन्मुखकाल-ई० सन् की आठवीं शती से बारहवीं शती तक। संस्कृत काव्य परंपरा के विविध चरणों में माघ, हर्षवर्धन, वाणभट्ट, मल्लिनाथ, आदि कवियों के काव्यों ने प्रकृति का सर्वस्व प्रदान किया। उनके कवियों ने अनेक महाप्रबंध लिखे, तथा महाकाव्य भी अनेक लिखे हैं। इसी तरह चरित काव्य, खण्ड काव्य, कथा-काव्य, चम्पूकाव्य आदि ने काव्य गुणों को जीवन्त बनाया। जैन संस्कृत काव्य परम्परा महावीर के पश्चात् सर्वप्रथम जैन मनीषियों ने आगम ग्रंथों की रचना की जो प्राकृत में है। प्राकृत के साथ जैनाचार्यों ने संस्कृत में भी अनेक रचनायें की हैं। जो कवि प्राकृत में रचना करते थे वे संस्कृत के भी जानकार थे परंतु उन्होंने संस्कृत में रचनायें प्रायः नहीं की, परंतु जो संस्कृत कवि थे उन्होंने प्रायः संस्कृत में ही रचनायें की, और कुछेएक रचनायें प्राकृत में की, प्रारंभिक में बारह अंग, उपांग, चौदह पूर्व, जैसी रचनाएं प्रसिद्ध हुई इसके अनंतर संस्कृत के प्रथम सूत्रकार आचार्य उमा स्वामी ने संस्कृत की सूत्र परंपरा को गति प्रदान की जो काव्य जगत् में कवियों के मुखारबिन्द की अनुपम शोभा बनी। आचार्य समन्तभद्र जैसे सारस्वताचार्य ने संस्कृत में न्याय, स्तुति और श्रावकों के आचार योग्य काव्यों की रचना की। इसके अनन्तर संस्कृत में ही आचार्य पूज्यपाद, आचार्य योगेन्द्र, आचार्य मानतंग, आचार्य जिनसेन, आचार्य विद्यानन्द, आचार्य देवसेन, आचार्य अमितगति, आचार्य अमरचन्द्र, आचार्य नरेन्द्रसेन आदि ने जो धारा प्रवाहित की वह For Private and Personal Use Only Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org (vii) Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir काव्य परम्परा को गतिशील बनाने में सहायक हुई। पुराणकाव्य और महाकाव्य दोनों ही जहां विकास को प्राप्त हुये वहीं अनेक चरित काव्य भी काव्य की रमणीयता से युक्त पौराणिक और ऐतिहासिक क्विचन को करने में समर्थ हुये । डॉ० नेमीचन्द्र शास्त्री ने काव्य-विकास यात्रा के तीन चरण प्रतिपादित किये हैं। (क) चरितनामांत महाकाव्य (ख) चरितनामांत एकान्त काव्य (ग) चरितनामांत लघु काव्य चरित्रनामांत नाम से युक्त अनेक काव्य रचनायें हुई, जटासिंह नन्दी का वरांगचरित, रविसेण का पद्मचरित, वीरनंदी का चन्द्रप्रभुचरित, असग कवि का शान्तिनाथ चरित, वर्धमान चरित, महाकवि वादिराज का पार्श्वनाथ चरित, महाकवि महासेन का प्रद्युम्नचरित, आचार्य हेमचन्द्र का कुमारपाल चरित, गुणभद्र का धन्यकुमार चरित, उत्तर जिनदत्त चरित, नेमिसेन का धन्यकुमार चरित, धर्मकुमार का शाभद्रचरित, जिनपाल उपाध्याय का सनत कुमार चरित, मलधारी देवप्रभ का पांडवचरित, मृगावतीचरित, माणक चन्दसूरि का पार्श्वनाथ चरित, शान्तिनाथ चरित, सर्वानंद का चंद्रप्रभुचरित, पार्श्वनाथ चरित, विनयचंद्र का अजितनाथ चरित, पार्श्वचरित, मुनिसुव्रतचरित आदि कई ऐसे महाकाव्य हैं जो चरित प्रधान हैं। विक्रम की चौदहवीं शताब्दी में मलधारी हेमचंद्र ने अनेक चरित ग्रंथों की रचना की। जिनमें नेमिनाथ चरित प्रमुख है। इसी तरह भट्टारक वर्धमान का वरांगचरित, कमलपभ का पुंडरीकचरित, भावदेवसूरि का पार्श्वनाथचरित, मुनिभद्र का शांतिपथचरित एवं चन्द्र तिलक का अभयकुमार चरित, शास्त्रीय महाकाव्य के लक्षणों से युक्त हैं जो पुराण कथा से परिपूर्ण प्रबंध की काव्यगत विशेषताओं को लिये हुए है। संस्कृत काव्य की परंपरा में अकलंक, गुणभद्र, समन्तभद्र, मिमरचंद, काव्य महाभारत के कवि का काव्यत्व अनुपम है। इसके अतिरिक्त भी अनेक काव्य महाकाव्य लिखे गये। महाकवि हरिश्चंद्र का धर्मशर्माभ्युदय वैदिक परंपरा के संस्कृत काव्य रघुवंश, कुमारसंभव एवं किरात् आदि उस समय का प्रतिनिधित्व करते हैं । कवि हरिचंद्र का जीवंधर चंपू महाकवि असग का वर्धमान चरित भी महत्त्वपूर्ण है। वादीभसिंहसूरि की क्षत्रचूणामणि सूक्ति शैली का काव्य हैं। जिनसेन का आदिपुराण, हरिवंश पुराण आदि भी महत्वपूर्ण है। शिशुपालवध की शैली पर आधारित जयंतविजय का भी महत्वपूर्ण स्थान है। वस्तुपाल ने स्तुति काव्यों की विशेष रूप से रचना की आदिनाथ स्त्रोत, अंबिका स्त्रोत, नेमिनाथ स्त्रोत, आराधना गाथा आदि भक्ति प्रधान रचनायें हैं। इसमें कवि भारती के निरात आजुनेय की काव्य शैली भी है। संधान ऐतिहासिक और स्तुति अभिलेख आदि काव्य भी लेन परम्परा में लिखे । द्विसंधान में कवि धनंजर ने कथा और काव्य दोनों का समावेश किया जो महाकाव्य की दृष्टि से भी महत्वपूर्ण है। सप्तसंधान के रचनाकार मेघ विलयमणि है उनकी अन्य रचनाऐं भी है, जिनमें देवनन्द महाकाव्य, शांतिनाथ चरित, दिग्विजय महाकाव्य, हस्तसंजीवन के साथ-संस्कृत युक्ति प्रबोध नाटक मिलते हैं। नेमिदूत समस्यापूर्ति काव्य है। जैन मेघदूत कवि मेरुगुप्त की प्रसिद्ध रचना है। इसी तरह शीलदूत चरित्रगणि की रचना है। प्रबंध दूत के रचनाकार वादिसूरी हैं। जैन काव्य परम्परा में द्वितीय, तृतीय शताब्दी से लेकर अब तक अनेक रचनाएं लिखी जा रही है। बीसवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में जैन जगत् के प्रसिद्ध महाकवि ज्ञानसागर ने अनेक प्रकार की रचनाएं की। उनमें जयोदय, वीरोदय, सुदर्शनोदय, भद्रोदय जैसे महाकाव्य दयोदयचम्पू, सम्यक्त्वसारशतक, मुनि मनोरंजनाशीति, भक्तिसंग्रह, हितसम्पादक आदि कई काव्य हैं। For Private and Personal Use Only Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (viii) महाकवि ज्ञानसागर सिद्धांतवेदता के साथ-साथ प्रबंध काव्य में निपुण एवं सुलझे हुए महाकवि हैं उनके काव्यों की संस्कृत साहित्य के विकास में महत्वपूर्ण भूमिका मानी जाती है क्योंकि उनमें संस्कृत काव्य कला के पक्ष आदि विद्यमान हैं। उनकी ज्ञान-साधना में सिद्धांत एवं प्रबंध का महत्वपूर्ण स्थान है। संस्कृत काव्य के आलोक में संस्कृत नाटकों का भी महत्वपूर्ण योगदान है। जैन जगत में विक्रांत कौरव जैसा नाटक प्रसिद्ध है। उसी संस्कृत में भास, कालिदास का शाकुन्तलम्, चन्द्रोदय, अविमारक, उत्तररामचरित, प्रतिमानाटकम् आदि अनेक नाटक संस्कृत और प्राकृत का प्रतिनिधित्व करते हैं। काव्य की रमणीयता में उनके शब्द क्या है उनका अर्थ क्या है एवं उनके क्या महत्व है यह तो ज्ञान-संस्कत हिन्दी कोष से ही ज्ञात हो सकेगा। इस ज्ञान-संस्कृत शब्द-कोष में जैन संस्कृत काव्यों एवं वैदिक संस्कृत काव्यों के कुछ एक उद्धरण भी दिये गये हैं। यह महाकवि आ० ज्ञान सागर संस्कृत हिन्दी शब्द-कोष सभी दृष्टियों से महत्वपूर्ण बनाया गया है। इसमें अधिक से अधिक ज्ञान के आधारभूत शब्दों को सम्मलित किया गया है। यह वैदिक एवं जैन दोनों ही विद्याओं के शब्दों से संबंधित कोश ग्रंथ है। इसे साहित्य के अनेक विषयों के साथ जोड़ने का प्रयास किया गया परन्तु यह सीमित शब्दों का शब्द कोश केवल शब्द कोष नहीं है अपितु विविध शब्दार्थ का शब्द-कोष भी है। कुछ स्थानों पर शब्द चयन के साथ-साथ व्युत्पत्ति, परिभाषा, शब्द विश्लेषण, अर्थ गाम्भीर्य आदि को भी उचित स्थान दिया गया, जिससे इसकी उपादेयता अवश्य ही शब्द के अर्थ में सहायक बनेगी। इस कोश में सामान्य शब्द के अर्थ के साथ-साथ विशिष्ट अर्थ बोधक शब्दों को भी महत्व दिया गया। शब्द संकलन संस्कृत के स्वर और व्यंजन दोनों ही को क्रमबद्ध रखकर उन्हें उपयोगी बनाया गया है। इसमें सीमित शब्दों के उपरांत भी शब्द योजना को विशिष्टत अर्थों के साथ उद्धरण शब्द, पर्यायवाची शब्द आदि भी संख्याक्रम के अनुसार दिये गये है। यद्यपि संस्कृत में कई कोश ग्रंथ प्रकाशित हुए हैं। उनका अपना महत्वपूर्ण स्थान है। उनके कम युक्त शब्द में आचार्य के वों काव्य के शब्द संस्कृत हिन्दी शब्द कोश में समाहित हो गये हैं। इसे आवश्यक एवं अधिक उपयोगी बनाने के लिए वैदिक और जैन दोनों ही संस्कृतियों के शब्दों को स्थान दिया गया है। यहां यह ध्यान देने योग्य विचार है कि इसमें विस्तार की अपेक्षा संक्षिप्त में ही विषय विवरण को दिया गया है। इसके शब्द संग्रह में प्रायः प्रचलित शब्दों को स्थान दिया गया। कोश का शब्द प्रवष्टियां एवं भाषागत विशेषताएं भी कुछेक संकेत के साथ ही दिये गये हैं। संज्ञा, सर्वनाम, क्रिया, कृदन्त, विशेषण, तद्धित आदि कितने ही प्रयोग कोश को महत्वपूर्ण बनाते हैं। इसलिए आवश्यकतानुसार कुछ ही स्थानों पर शब्द और अर्थ के चयन में उनकी सहायता दी गई है। ज्ञान संस्कृत-हिन्दी शब्द कोश में आचार्य ज्ञानसागर के परम शिष्य आचार्य विद्यासागर और आचार्य विद्यासागर के ही प्रबुद्ध विचारक मुनि पुंगव सुधासागर जी, क्षुल्लक गंभीर सागर, क्षुल्लक धैर्यसागर एवं अन्य प्रबुद्ध विचारकों के परम आशीष से इस शब्द कोष को गति दी गई। यह कहते हुए मुझे अत्यंत गौरव का अनुभव हो रहा है कि जिन शब्द कोशकारों के शब्द और अर्थ के चयन करने में सहयोग मिला वह अत्यंत ही उपकारी है। जैनेन्द्र सिद्धांत कोश, जैन लक्षणावली, संस्कृत-हिन्दी शब्द कोश, राजपाल हिन्दी शब्दकोश, प्राकृत हिन्दी शब्द कोश आदि के संपादकों का मैं अत्यंत आभारी हूं। इसके तैयार करने में मोहनलाल सुखाड़िया विश्वविद्यालय उदयपुर के दर्शन विभाग के प्रोफेसर के० सी० सोगानी, जैन विद्या एवं प्राकृत विभाग में प्रोफेसर प्रेम सुमन जैन, सह आचार्य हुकुमचन्द्र जैन एवं अन्य विभागीय For Private and Personal Use Only Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (ix) सहयोग से इसे इस रूप में प्रस्तुत किया गया। जिन्होंने प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप में इसे गतिशील बनाया उनका मैं हृदय से आभारी हूं। ___संस्कृत जगत् के वे सभी काव्यकार पूज्य हैं जिनकी विविध कृतियों को देखने का अवसर प्राप्त हुआ। मैं उनके शब्द सागर में प्रवेश नहीं कर पाया। परंतु यदा कदा जो कुछ भी उनसे ग्रहण किया या उन ग्रंथ कर्ताओं या उन संपादकों के पाठों को स्थान दिया। इसलिए मैं इस सहायता के लिए हृदय से आभार व्यक्त करता हूं। __ आभारी हूं हितैषियों का, सहयोगियों का और अत्यंत आशीष को प्राप्त हुआ मैं आचार्य विद्यानंद के चरणों में बारंबार नमोस्तु करता हूं और यही भावना व्यक्त करता हूं कि उनका आशीष तथा मुनि पुंगव सुधासागर की सुधामयी वाणी इस महाकवि आ० ज्ञान सागर संस्कृत हिन्दी शब्द कोश की ज्ञान गंगा को गतिशील बनाये रखेगी। विशेष आभार है उन व्यक्तियों का जिन्होंने मुझे बहुत सम्मान दिया और उत्तम सुझाव भी दिये। इस शब्द में गागर से सागर तक की यात्रा गृह आंगन में ही हुई जिसमें सहयोगी बने घर के सदस्य ही। श्रीमती डॉ० माया जैन ने गृहणी के उत्तरदायित्व के साथ-साथ इसे उपयोगी बनाने में भी सहयोग किया। पत्री पिऊ जैन एम- एस. सी० बी० एड०, एवं प्राची जैन के अक्षर विन्यास ने भी गति प्रदान की। मैं इस शब्द-कोश के प्रकाशक श्री सुभाष जैन, न्यू भारतीय बुक कारपोरेशन, दिल्ली का भी आभार व्यक्त करता हूं। जिन्होंने इसे छापकर जनोपयोगी बनाया। मैं, साहित्य मनीषियों से निवेदन करता हूं कि वे अपने सुझावों से इसे उपयोगी बनाने का प्रयत्न करेंगे ताकि आगे आने वाले संस्करण में यदि उनको समावेश किया गया तो अत्यंत प्रसन्नता का अनुभव करूंगा। २ अप्रैल, २००५ -डॉ० उदयचंद्र जैन For Private and Personal Use Only Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir संक्षेपिका अमर० जयो० जयो० म० तत्त्वा० त०वा० त०वा० श्लोक दयो० धव०पु० न्या० प्रमे० भ० सं मू० मूला० मुनिमू०/मूला० वि० लोचन वीरो० सुद० समु० सम्य० स०सि० हि०सं० अमरकोष जयोदय महाकाव्यम् जयोदय महाकाव्यम् तत्त्वार्थसूत्र तत्त्वार्थ राजवार्तिक तत्त्वार्थ श्लोकवार्तिक दयोध्यम् धवला पुस्तक १ से १६ न्यायदीपिका प्रमेयरत्नमाला भक्तिसंग्रह भगवती आराधना मुनिरञ्जनासीति मूलाचार विश्वलोचन कोष वीरोदयम् सुदर्शनोदय एमुद्रदत्त चरित्र सम्यक्त्वशतकम् सर्वार्थसिद्धि हितसंपादक मूल शब्द पु० नपुं० स्त्री० क्रि०वि० वि० अव्य० अक० पुलिंग नपंसुकलिंग स्त्रीलिङ्ग क्रिया विशेषण विशेषण अव्यय अकर्मक सकर्मक सक० For Private and Personal Use Only Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अंशी अ (झ) कृदन्त प्रयोगों के साथ 'अ' होने पर नहीं अर्थ होता अ देवनागरी लिपि का प्रथम अक्षर। प्रथम स्वर। इसका (ट) 'अ' अव्यय संज्ञा में प्रयुक्त होने पर कभी-कभी उच्चारण स्थान कण्ठ है। 'अ' को अकार, अवर्ण भी उत्तरपद की प्रधानता को भी प्राप्त होता है। कहते हैं। (ठ) विस्मयादि बोधक के रूप में भी 'अ' का प्रयोग अ: पु० [अव्+ड] महादेव, विष्णु, पवित्र। अकारो महादेवः होता है। (जयो० १/२), 'अ' अर्थात् विष्णु। (वीरो० १/५) (ड) सम्बोधन में भी 'अ' का प्रयोग होता है। अ (अव्यय) यह कई अर्थों में प्रयुक्त होता है। निषेधात्मक अर्थ के लिए इसका प्रयोग संज्ञा शब्दों से पूर्व किया जाता (ढ) भूतकाल के लङ, लुङ् और लङ्लकार में भी 'अ' है। वैधव्य-दानादयशोऽप्यनूनम् (जयो० १/६०) 'न का प्रयोग होता है। स शुचेव शुक्लत्वमवाप शेषः। नूनमनूनम्' (जयो० वृ० १/६०) (जयो० १/२५) (क) सादृश्यवाची-समानता, सरूपता या सादृश्यता अऋणिन् (वि०) ऋण रहित, कर्ज से मुक्त नास्ति ऋणं यस्य व्यक्त करने के लिए, संज्ञा से पूर्व 'अ' अव्यय का जहां 'ऋ' व्यञ्जन ध्वनि माना गया है। ऋणमुक्त। प्रयोग किया जाता है। विद्याऽऽनवद्याऽऽप न अंनिन् (नपु०) चरण, पाद, पैर। (वीरो० ३/१०) वालसत्त्वम्। (जयो० १/६) अंश [चुरादि उभयादि अशंयति ते] हिस्सा करना, वितरित (ख) अभाव-वाची-जहाँ निषेध, अविद्यमानता, अभाव, करना। प्रतिषेध, रहित आदि को व्यक्त किया जाता है वहाँ अंश [अंश्+अच्] भिन्न संख्या, लव। (वीरो० हि० २/१४) 'संज्ञा शब्दों से पूर्व 'अ' अव्यय का प्रयोग किया अंशः [अंश् अच्] हिस्सा, भाग, टुकड़ा। करिष्णवो दुग्ध जाता है। अहीनलम्बे भुजम दण्डे। जयो० १/२५ मिवार्णसोंऽशात्। (भक्ति, पृ० ७) पानी के अंश से दुग्ध रूपं प्रभोरप्रतिमं वदन्ति। वीरो० (१२/४४) केनाप्यजेयं की तरह। भुवि मोहमल्लम्। (वीरो० १२/४५) उपद्रुतः | अंश: [अंश्न-अच्] तदरूप। सृष्टिर्यस्य समन्तात् सर्वस्तस्यात्स्वयमित्ययुक्तिर्यस्य (वीरो० १२/४७) दंशरूपतापन्नो भवेत्। (जयो० २६/८८) (ग) भिन्नता-अन्तर, भेद, विभिन्नता. अयोग्य। कैर्देहिभिः | अंशकः [अंश्+ण्वुण] लग्न, शुभलग्न। मृदु मौहूर्तिक पुनरमानि न योग्ययोगः (वीरो० २२/१३ जो युक्तियुक्त संसदोंशकम् (जयो० १०/२०) ज्योतिर्विद गोष्ठी से निर्दोष कहते हैं, उनका यह कथन युक्ति संगत नहीं है। लग्न प्रस्तुत करते। सहेत विद्वान्पदे कुतो रतम् (जयो० २/१४०) विद्वान् | अंशकः [अंश+ण्वण] निर्मित, रचित, जटित। रत्नांशकैः अयोग्य पद पर कैसे स्थित हो सकता? पञ्चविधैर्विचित्रः। वीरो० १३/५। पांच प्रकार के रत्नों से (घ) अल्पता लघुता, न्यूता, कृश आदि अल्पार्थवाची निर्मित। हिस्सेदार, भागीदार, सम्बंधी. सहभागी सहयोगी अव्यय के रूप में प्रयुक्त होता है। अनल्पपीताम्बर (सम्य० १०८) धाम-रम्याः (वीरो०२/१०)। अंशकिन् (वि०) विचारशील, चिंतन युक्ता पश्यांशनिन्दारुणमाशुगेव। (च) अप्राशस्त्य् बुराई, अयोग्यता, लघुकरण, अनुपयुक्त, (वीरो०४/१९) अकार्य, आदि में इस अव्यय का प्रयोग होता है। अंशनम् (अंश-ल्यट) बांटने का कार्य, विभाजन का कार्य। कायोऽप्यकायो जगते जनस्य (वीरो० १/३८) अंशभाज (वि०) [अंशभाज] अंशधारी, सहभागी। (छ) विरोध-वाचक-विरोध, प्रतिक्रिया. विपरीतता, अंशयित (पु०) [अंश्+णिच्+तुच्] विभाजक, हिस्सेदार। अनीति आदि के रूप में इस तरह के अव्ययों का अंशल (वि०) [अंशं लाति ला+क] हिस्सेदार, सांझेदार, प्रयोग होता है। वर्णेषु पञ्चत्वमपश्यतस्तु, कुतः विभाजक, सहभागी। कदाचिच्चपलत्वमस्तु। (जयो०१/४८) अनीतिमत्यत्र अंशि [क्रि०वि०] सहभागी, सहयोगी। जन: सुनीतिस्तया। (सुद० १/२३) अंशिन् [अंश्+इनि] सहभागी, सहयोगी, विभाजक, हिस्सेदार। (ज) क्रिया एवं विशेषण में भी अव्यय का प्रयोग होता अंशी (वि०) [अंश्+इनि] अंशी, यह एक दार्शनिक शब्द है। For Private and Personal Use Only Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अंशुः अकञ्चित् अंशीह तत्क्र० खलु यत्र दृष्टि, शेषः समन्तात्, तदनन्य सृष्टि, स आगतोऽसौ पुनरागतो वा, परं तमन्वेति जनोऽत्र यद्वाक्।। (जयो० २६/८८) इस जगत् में अंशी कौन? जिस पर दृष्टि होती है, वही अंशी है और सब ओर विद्यमान शेष पदार्थ अन्य रूप हैं। जिसकी अपेक्षा होती है, वही अंशी हो जाता है, तदरूप | कहलाने लगता है और शेष अतद्प है। अंशुः [अंश्+कु] किरण, रश्मि, प्रभा, कान्ति। रदांशु पुष्पाञ्जलिमपर्यन्ती। (सुद० पृ० १२) दातों की कान्ति पुष्पाञ्जलि अर्पित करती हुई। कुतः श्वेतांशु-कायाऽपि भूया। (सुद० पृ० ८७) श्वेत किरण के समान काया। शीर्ष हिमांशुमुकुलम्। (१८/७०) अंशुः (पु०) सूर्य, रवि। उपद्रुतोऽशुस्तिमिरैः (जयो० १५/२२) संकट के समय अंशु/सूर्य ही अपने शरीर को खण्ड-खण्डकर दीपकों का वेष रख धर-घर में सुशोभित हो रहा है। (अशुस्त्विषि रवौ लेशे 'इति विश्वलोचने) . अंशुकम् [अंशु+क-अशवः सूत्राणि विषया यस्य] वस्त्र, कपड़ा, परिधान, (जयो० २।८०) अम्भसा समुचितेन चांशुकक्षालनादि परिपठ्यतेऽनकम्। (२/८०) निर्मल जल से धोए गए वस्त्रादि निर्दोष माने जाते हैं। ध्वजाली विपादांशुका। (जयो०८) ध्वजाओं की पंक्तियां निर्मल वस्त्र/सफेद वस्त्र भी हैं। अंशक इत्यनेन कुचाञ्चले। (जयो० वृ० १७/६४) अञ्चल का वस्त्र भी इसका अर्थ है। प्रायः रेशमी वस्त्र या मलमल के लिए इस शब्द का प्रयोग होता है। अंशुजाल (न०) किरण समूह, प्रभामण्डल, कान्तरूप। अंशुधर (वि०) किरणधारक, प्रभामण्डित। अंशुपति (पु०) सूर्य, दिनकर, रवि। अंशुबाण (पु०) सूर्य, दिनकर, रवि। अंशुभृत् (वि०) अंशुधारक, किरण युक्त, प्रभारञ्जित। अंशुमान (वि०) अंशुवाला, सूर्य। (वीरो० ८/९) अंशुमालिन् (वि०) सूर्य, दिनकर, रवि। सद्योऽलिमुद्धरति शल्यमिवांशुमाली। सूर्य अपनी प्रिया कमलिनी को कांटे की तरह निकाल रहा है। (अंशुमाली सूर्योऽब्जिनीभ्यः कमलिनीभ्यः शल्यमिव कण्टकमिवालिं षट्पदमुद्धरति। (जयो० वृ० १८/६१) अंशुल (वि०) प्रभायुक्त, कान्तिवान्, सूर्य, चमकीले वस्त्र। (जयो० ५/६२) अंशुस्वामिन् (पु०) दिनकर, सूर्य। अंशुसमाजः (पुं०) किरण समूह, चमक युक्त परिधान। अंशुहस्तः (पु०) सूर्य, दिनकर, रवि। अंस् [चु० पर०] अंसयति-अंसापयति, अंश, खण्ड करना। अंसः [अंस्+अच्] ०भाग, खण्ड० स्कन्ध। (जयो० ६/४०) अंसकूटः (पु०) बैल का कंधा। अंसफलक (वि०) रीढ़ का ऊपरी भाग। अंसभार (वि०) कंधे पर रखा गया भार, जूआ। अंसभारिक (वि०) भारवाहक। अंसभारिन् (वि०) भारवाहक। अंसल (वि०), [अंस्+लच्] बलवान्, शक्तिसम्पन्न। अंसु (पुं०). सूर्य प्रभानन्दन, दिनपति (सुदं० १/३८) ____ अंसुमाली, सूर्य। अंह (भ्वा० आ० अंहत्ते, अंहितुं, अंहित) जाना, समीप जाना, प्रयाण करना, आरम्भ करना, भेजना, चमकना, बोलना. प्रतिपादित करना, कथन करना। अंहतिः (स्त्री) [हन्+अति-अंहादेशश्च] भेंट, उपहार, व्याकुल, ___ कष्ट, चिन्ता, दुःख, बीमारी। अंहस् (नपुं०) अंह:हसी आदि। अंहितिः (स्त्री)[अंह् + क्तिन् ग्रहादित्वान्त् इट्] उपाहार, दान, प्राभृत, भेंट। अंह्नि [अंह+क्रिन्-अंहति गच्छत्यनेन] अंघ्रि, पेड़ की जड़, पैर, चरण। अकंदता (वि०) असारता, ०अनिहयता, ०अनिश्चयता। अक् (भवा०प०र० अकति, अकित) जाना, सांप की तरह टेढ़ा-मेढ़ा चलना। अक (नपुं०) दुःख, पीड़ा, पाप। नाकमवानानुष्ठानेन। (जयो० २२/२४) अकं न प्राप्तवान् (जयो० वृ० २२/२४) दु:ख नहीं प्राप्त किया। नाकं स्वर्ग तथैवाकेन दुःखेन रहितं नाकम्। (वीरो० २/२२ वृ० ) अकाय नाम पापाय क्लेशसंभूतः कष्टकारकः। (जयो० २८/१२) अकम् [न कम्-सुखम्] सुख का अभाव, पीड़ा, पाप, दु:ख (सम्य ६/६) अकच (वि०) कच हीन, केश रहित, मुण्डित। अकञ्चित् (वि०) पापापहार, दु:खापहारी, दु:खजयी, पापजयी। त्वकयि त्वकजिच्च नस्ततां। (जयो० २६/५) अस्माकं प्रजाजनामकजित् पापापहारो। For Private and Personal Use Only Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अ-कथि ३ अकान्त अ-कथि (वि०) कष्टवर्जित, दु:खरहित। (जयो० ३/६) अकनिष्ठ (वि०) [न अकनिष्ठ:] बड़ा, श्रेष्ठ, उत्तम, ज्येष्ठ। अकन्या (वि०) [न कन्या अकन्या] जो कुमारी न हो, पत्नी। अ-कर (वि०) [न करः अकर:] कर मुक्त, निष्क्रिय, अकर्मण्य, अपाहिज। अकनाशिनी (वि०) दु:खहारिणी, पाप विनाशिनी। हृदयमाशु ददावकनाशिनी। (जयो० ९/७८) अकप्रद (वि०) दु:खदायी (सम्य १५४/१०१) अकरणम् (न०) [कृभावे ल्युट] अक्रिया, कार्य का अभाव। अकरिणः [स्त्री०) [न+कृ+अनि] असफलता, निराशा, अप्राप्ति। अकरणीय (वि०)[नास्ति करणं योग्यः] नहीं करने योग्य। (दयो० पृ० ३३) अकर्ण (वि०) [न कर्ण:] कर्ण रहित, श्रवणशून्य, बहरा। कर्ण रहित सर्प भी होता है। [कलङ्करहितोऽस्ति] कलङ्करहित, निष्कलङ्क, श्रेष्ठ, उत्तम। नोट:-अकर्तन् से अकलङ्क (वि.) [कलङ्क रहितोऽस्ति] कलङ्क रहित, निष्कलङ्क, ०श्रेष्ठ, उत्तम ०शुद्ध, विशुद्ध। विभिद्य देहात्परमात्मतत्त्वं, प्राप्नोति सद्योऽस्तकलङ्कसत्वम्। (सुद० १३३) जो अन्तरात्मा बनकर देह से भिन्न, निष्कलङ्क-सत्, चिद् और आनन्द रूप परमात्मा का ध्यान करना है, वह स्वयं शुद्ध बनकर परमात्म तत्त्व को प्राप्त होता है। अकलङ्कर्थमभिष्टुवन्ती कुमुदानां समूह चैधयन्ती किलास्ति। लङ्कानां व्यभिचारिणीनामार्थो लङ्कार्थः, अकोऽघकरश्चासौ लङ्कार्थश्च तम्। (वीरो० १/२५) अकलङ्कः (पुं०) आचार्य अकलङ्कदेव। अकलङ्कस्य यशसः प्रतिष्ठानाय यन्मति। (जयो० २२/८४) अष्टसहस्री नामटीका किलाकलङ्कस्य नामाचार्यस्य यशसः प्रतिष्ठानाय भवति। जिसका ज्ञान अकलङ्क नामक आचार्य के अष्टशती नाम ग्रन्थ की प्रतिष्ठा/स्पष्टीकरण के लिए आवश्यक है। किलाकलङ्को यशसीति वा यः। (जयो० ९/९०) यश में कलङ्क रहित, अकलङ्क हैं।आचार्य अकलङ्क का यश न्यायशास्त्र में प्रसिद्ध है। अतुलकौतुकवती वा या वृततिरकलङ्कसदधीतिः। (सुद० पृ० ८२), अत्यन्तमननपूर्वक आत्मसात् करके अतुल कौतुक वाली महावृत्ति अकलङ्क की है। अकलङ्ककृति: (स्त्री०) अकलङ्क रचना, आचार्य अकलङ्क द्वारा रचित अष्टशती और अष्ट सहस्री टीका जैन न्याय के विषय से सम्बंधित कृतियाँ हैं। विशिष्ट रचना। अकलङ्ककृति: शाला, विधानन्दविवर्णिता। (जयो० ३/७७) यह कलङ्क रहित/निर्दोष रचना अष्टशती आचार्य अकलङ्क द्वारा रची गई, आचार्य विद्यानन्द द्वारा न्याय की श्रेष्ठतम् कृति अष्टसहस्री मानी गई, जिस पर आचार्य अकलङ्क द्वारा विवर्णिका प्रस्तुत की गई। अकलङ्का कलङ्कवर्जिता कृतिर्विनिर्मितिर्यस्याः सा। यस्माद्विद्याया आनन्देन विवर्णिता। अनेन अष्टसाहस्रीनामन्यायपद्धतिश्च समस्यते। (जयो० वृ० ३/७७) निर्दोष/ कलङ्करहित चमत्कार जन्य महावृत्ति राजवार्तिक की रचना आचार्य अकलङ्क ने की है। अकलदेवः (पुं०) आचार्य अकलङ्क अष्टशती न्यायग्रन्थ के कर्ता, राजवार्तिक महावृत्ति के प्रणेता और अष्टसहस्री विवर्णिकार आचार्य अकलङ्कदेव हैं। अकलङ्कारलङ्कारः (पुं०) अष्टशती वृत्ति (वीरो० . ४/३९) अकल्क (वि०) नियन्त्रित, योग्य, निष्पाप, शुद्ध। अकल्प (वि०) [न कल्प:] कल्प रहित, विचार रहित, अयोग्य, दुर्बल, अतुलनीय। अकल्प्य (वि०) अग्राह्य। अकषाय (वि०) कषाय रहित, क्षमत्वशील। यस्मिन् नास्ति कषायः अकषायत्व (वि०) विगतकषायता। अकषायवेदनीय (नपु०)ईषत् कषाय रूप से वेदन जहां होता है। अकस्मात् (अव्य०) अचानक, सहसा, एकाएक। अकस्मानिया (स्त्री०) दूसरे किसी को लक्ष्य करके बाण आदि के छोड़ने पर जो उससे उसका घात न होकर अन्य ही किसी व्यक्ति का घात हो जाता है। सहसाक्रिया। अकाण्ड (वि०) [समयो रहित:] अवसराभाव, असमय, विकाल। अकाण्ड एवाथ शिखण्डिमण्डल:। (जयो० २४/२२) अकाण्ड एवावसराभावेऽपि। (जयो० २५/२२) मयूरों का समूह आनन्द से पुलकित होता हुआ असमय में ही कोमल नृत्य करता है। अकाण्ड (वि०) आकस्मिक, अप्रत्याशित, सहसा, अचानक। अकाण्डजात (वि०) असमय में उत्पन्न, सहसा उत्पन्न, आकस्मिक उत्पादक। अकाण्डपात (वि०) आकस्मिक घटना। अकान्त (वि०) अकस्य दुःखस्यान्तकरीमकान्तां, किञ्चाकान्ता शोभनीयाम्। (जयो० पृ० ११/५६) दुःख को मिटाने For Private and Personal Use Only Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अकाम अकुञ्चित वाली, अशोभनीय, कान्तहीन, प्रभारहित। सुपर्वधामाभि- | अकाय-शङ्कासाहित (वि०) दु:ख प्राप्ति की शङ्का सहित। भवामकान्ताम्। (जयो० ११/५६) (जयो० १५/३१) अकाम (वि०) इच्छा, रहित, काम मुक्त, अनुराग विहीन। अकार्य (वि०) अनुपयुक्त। अकाम (वि०) अनिच्छापूर्वक। (सम्म०८४) अकाल (वि०) असमय, विकाल। अकाल एतद् अकामनिर्जरा (स्त्री०) अनिच्छापूर्वक जो कर्म निर्जरा होती घनघोररूपमात्तम्। (सुद० १२०) है, वह अकामनिर्जरा है। अकाल (वि०)असामयिक, प्राक्कालिक। अकाम-मरण (नपु०) अनेच्छुमरण। अकामेन अनीप्सितत्त्वेन अकालमृत्यु (वि०) असमय मरण। म्रियतेऽस्मिन् इति अकाममरणं बालमरणम्। अकिञ्चन (वि०) निष्परिग्रही. त्यागयुक्त, नग्न। मेरा कोई अकामुक (वि०) शान्तिपूर्वक। (जयो० २/१४१) गतानुगत्या नहीं और मैं भी किसी का कुछ नहीं हैं। अकिञ्चनोऽऽन्यजनैरथाहता, मृता च साऽकामुकनिर्जरावृता। (जयो० सम्यन्तरनुस्मरेण, कायोऽपि नायं मम किं परेण। (भक्ति २/१४१) सं०५०) अकामुकनिर्जरा (स्त्री०) शान्तिपूर्वक कर्म निर्जरा। अकामुक- अकिञ्चनता (वि०) अकिञ्चनत्व, सकलग्रन्थत्याग, संगमुक्ति। निर्जरया शान्तिपूर्वक कष्ट-सहन-हेतुना आवृताऽलङ्कृता। अकिञ्चनधर्म (वि०) आकिञ्चन्यधर्म, सकलग्रन्थत्यागधर्म। (जयो० वृ० २/१४१) (जयो० २८/३१) हमारे पास कुछ नहीं। (जयो० वृ० अकाय (वि०) निरङ्कश। (वीरो० १/३८) अशरीर, सिद्ध। १२/१४१) संगीत गुण संस्थोऽपि, सन्नकिञ्चन रागवान्। अकाय (वि०) कामातुर, काम की शङ्का सहित। अकस्य प्रशंसनीय गुणों की स्थिति होने पर भी सकलग्रन्थत्यागधर्म दु:खस्याय: सम्प्राप्तिभावस्तस्य। (जयो० वृ० १५/३९) वाले। द्रागकिञ्चनगुणान्वयाद्वतेद्रड न किञ्चिदिह सम्प्रतीयते। अकाय (वि०) अनङ्ग, काम, कामातुर। अकायस्य अनङ्गस्य (जयो० १२/१४१) कामस्य शङ्का सहितः कामुतरो भवतीति। न विद्यते किञ्चनापि यत्र सोऽकिञ्चनो गुणस्तस्याअकाय (वि०) ०काम रहित, ०शरीर रहित, सिद्ध, ०अशरीरी। न्वयाद्धेतोरिहास्माकं गृहे, ईदृक् किञ्चिदपि परं न प्रतीयते कायोऽप्यकायो जगते। (वीरो० १/३८) तदस्मात्। (जयो० वृ० १२/१४१) हम लोग अकिञ्चन अकाय-क्लेश (वि०) पाप परिकर। अकाय नाम पापाय गुण के धारक हैं, अतः हमारे पास आपके (वरपक्ष) क्लेशसंभूतः कष्टकारकः। (जयो० वृ० २८/१२) सत्कार करने योग्य कोई वस्तु नहीं है। अकाय-क्लेशसंभूत (वि०) पाप परिकर रूप। पापकष्ट अकिञ्चिज्ज (वि०) [अकिंचित्+ज्ञा+क] कुछ न जानने कारक। (जयो० वृ० २८/१२) वाला, निपट अज्ञानी। अकार (पु०) अवर्ण, प्रथम स्वर। अकारेण शिष्टं प्रारब्धोच्चारणम्। अकिञ्चित्कर (वि०) निरर्थक, अर्थहीन। अत्यये च तयोश्चा(जयो० वृ० २८/२०) 'अ' से शिष्ट उच्चारण भी होता है। सावकिञ्चित्करतां व्रजेत्। (जयो० ७/३७) अकार (वि०) अपूर्व, आद्य। (जयो० वृ० १६/४९) अकारस्य अकिञ्चित्करता (वि०) निरर्थकता, कुछ नहीं रहना। तयोरत्यये ईषदर्थकत्वेन हीनार्थकत्वात्। (जयो० ५/११) अकार: नाशे सति असौ अकिञ्चित्करतां निरर्थकतां व्रजेदिति पूर्वस्मिन् यस्याक्तामपूर्वाम्। चिन्तनीयम्। (जयो० वृ० ७/३७) अकारण (वि०) कारण रहित, निराधार। कथं पुनरकाणरमेव अकिता (वि०) दुःखित्व, कष्ट। इति असौ अकिताया: स्थलं विपरीतं गीतवान्। (दयो० ९०) आज बिना कारण ऐसी अभूत्। ऐसी सभा देखकर मन में थोड़ा सा कष्ट का उल्टी बात क्यों कर रहे हैं। अनुभव किया। (जयो० ५/३५) अकारात्समारभ्य (वि०) 'अ' से लेकर 'म' पर्यन्त। (जयो० अकी (वि०) दुःखी, पीड़ित। गङ्गामभङ्गां न जहात्यथाकी। वृ० २८/२६) (जयो० १८, ९) दु:खी होकर शङ्कर नित्य प्रवाहित होने अकारिन् (वि०) स्थान, (जयो० १७/५२) वाली गङ्गा को कभी नहीं छोड़ते।। अकारिन् (वि०) [न कारिन्] प्रयोजन रहित। हनन, घातक। अकुञ्चित (वि०) उदरचेता। न कुञ्चितोऽकुञ्चितः, मरालतुल्यसुदर्शनोऽकारि विकारि। (सुद० १०७) उदारभावना युक्तः (जयो० ३/९) हंसवद कुञ्चिताश्रयः (जयो० २/९) For Private and Personal Use Only Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अकुटिलत्व अर्करीतिः मला अकुटिलत्व (वि०) कुटिलता रहित, सरल (सुद० १/२७) (ख) अर्ककीर्ति का अपर नाम रविरीति। रविरीतिरर्ककीर्तिः। अकुण्ठ (वि०) अनल्पपरिणामभृत। (जयो० १०॥ (जयो० ७०४/५) अर्कस्य सूर्यस्य कीर्तिरिव कीर्तिर्यस्य अकुष्ट (वि०) अबाध, स्थिर, प्रबल। *अत्यधिक, अबाध, सः। (जयो० ४७/३४) स्थिर, प्रबल। जिसकी कीर्ति अर्क/सूर्य के समान है। अकुतः (क्रि०वि०) कहीं से नहीं, कुछ भी नहीं। अर्कचारः (पु०) सूर्योदय (जयो० १८/२) अकुप्यम् (नपुं०) सोना, चांदी, बिना खोट की धातु। स्वस्तिक्रियामतति विप्रवदर्कचारे (जयो० १८/२) अकुलीन (वि०) नाभेरुत्पन्न उत्तमकुलजात। (जयो० वृ० (१/३५) सूर्योदय विप्र के समान स्वस्तिक्रिया शोभनक्रिया/स्वस्तिपाठ अकुशल (वि०) असंयम, अविरति। अशुभ, दुर्भाग्यपूर्ण। को प्राप्त हो रहा है। अकुशलभावः (पुं०) असंयमभाव, अशुभभाव। अकुशलो अर्कता (वि०) आक सदृश। (जयो० ७/६९) ___ भावो अवरत्यादिरूपः। अर्कतापरिणत (वि०) आक सदृश सम्भूत। (जयो० ७/६९) अकूपारः [नञ्+कूप+ऋ+अण्] ०समुद्र, सूर्य, ०कछुआ, अर्कः क्षुद्रवृक्ष विशेषस्तत्तायाः परिणतौ सम्भूतौ। अर्थात् ०पाषाण। अकृच्छ (वि०) ०सरलता, सुविधाजनक, ०कठनाई से युक्त। जो अर्क/क्षुद्रवृक्षविशेष है वह उत्पन्न हुआ। अकृत (वि०) [नञ्+कृ+क्त] जो नहीं किया गया, अधूरा, अर्कदलम् (नपुं०) आक पत्र। (जयो० ६/१८) त्रुटित, अनिर्मित, अपरिपक्त्व। ०कष्टदायक। ननु परिग्रह अर्कदलजातिः (स्त्री०) आकपत्र की उत्पत्ति। (जयो० ६/१८) एष बलादककृदथ। (जयो० २५/२७) कटुकं परमर्कदलजाति:। (जयो० ६/१८) आक के पत्तों अकृत् कष्टदायकोऽस्ति। (जयो० २५/२७) की जाति अत्यन्त कटुक होती है। अकृतता (वि०) कष्टदायकता। त्रुटि पूर्ण। अर्कदेवः (पु०) अर्कप्रभ देव। (समु० ६/२४) कापिष्टलोऽभ्येत्य अकृतार्थ (वि०) असफल। बभूव पुत्रः, किलार्कदेव: स मुदेकसूत्रः। (ससु ६/२४) अकृतात्मन् (वि०) अज्ञानी, मूर्ख, असंतुलित। रश्विवेग ही कापिष्ट स्वर्ग में जाकर अर्कप्रभदेव हुआ। अकृत्य (वि०) वृत्ति अभाव । (वीरो० १७/१९) ०अपूर्ण | अर्कदेवः (पुं०) अर्कदेव, अर्ककीर्ति, अकम्पनदेश का राजा। गृहस्थस्य वृत्तेरभावो ह्यकृत्यं भवेत्त्यागिनस्तद्विधिर्दुष्टकृत्यम्। (जयो० १८/६८) अर्कदेवः सूर्यनामनरपतिः। (जयो० अकृष्ट (वि०) [न+कृष्+क्त] ०वंजर, ०उपज रहित भूभाग वृ० १८/६८) बिना जुता, अकृषता। अर्कपराभवचक्रबन्धः (पुं०) कवि द्वारा सर्ग के अन्त में दिया अक्का (स्त्री०) [नञ्+कत्+टाप्] माँ, माता, जननी। गया छन्द। इसके प्रत्येक चरण में १९, १९ अक्षर हैं। अक्त (वि०) [अक्+क्त] अभिषिक्त, सिंचित, सना हुआ। वन्दना अर्क: सक इह परम्पराध्वंसभवाश्रवम्। अक्तम् (अञ्च्+क्तृ) कवच, वर्मन्। ऽ।ऽ, 551, III, 151, 55। 151, 5 अक्रम (वि०) [नास्तिक्रमो यस्य] अव्यवस्थित। अर्कप्रभदेवः (पुं०) अर्कदेव। कापिष्ट स्पर्श को प्राप्त राजा। अक्रिय (वि०) निष्क्रिय, क्रिया हीन। (जयो० वृ०६/२४) अर्कः (पुं०) सूर्य, दिनकर, रवि। (जयो० २/११) जयो० वृ० ७/७३ अर्क एव तमसावृतोऽधुना। अमावस्या के दिन सूर्य अर्कबिम्ब: (पुं०) सूर्यमण्डल। (जयो० १५/४४) के समान इस माङ्गलिक बेला में। अर्कयशः (पुं०) अर्ककीर्ति राजा, भरतेशसुत, अकम्पन देश अर्कः (पुं०) आक, आकवृक्ष, क्षुद्रवृक्ष। अर्क: क्षुद्रवृक्षविशेषः का नृप। (जयो० १९) (जयो० वृ० ७/६७) अर्करीतिः (स्त्री०) सूर्यचेष्टा, सूर्य की उदय रूप चेष्टा। (जयो० अर्ककीर्तिः (पुं०) अर्ककीर्ति, भरतेशसुत। भरतेशसुतस्य वृ० १८/५१) अम्भोरुहस्य सहसा समुदर्करीतिं स्वीकुर्वतो अर्ककीर्तेः अनेकसदस्यैः। (जयो० वृ० ४/३०) अकम्पनदेश मधुरसं प्रतिजातगीतिम्। (जयो० १८/५१) सूर्य की उदय रूप का राजा। (जयो० ४/१) चेष्टा मधुरस और कमल की स्पष्टता को प्राप्त हो रहा है। आदिराज इमाह सुरम्यमर्ककीर्तिमचिरादुपगम्य। (जयो० अर्कस्य सूर्यस्य रीति चेष्टामुदयलक्षणामुत चोदकरीतिम्। (जयो० ४/१) वृ० १८/५१) ०अर्ककीर्ति नामक राजा। For Private and Personal Use Only Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अर्कसारः अक्षर अर्कसारः (पुं०) सूर्य हर्ष, सूर्यप्रसरण। अर्कस्य सूर्यस्य सारः अक्षणिक (वि०) स्थिर, दृढ़, निश्चल। प्रसरणम्। (जयो० वृ० १८/७१) पुण्याहवाचन परा | अक्षत (वि.) [नञ्+क्षण+ क्त] अखण्ड, पूर्ण, ०अविभक्त, समुदर्कसारा। सूर्य का प्रसरण यह कहने में तत्पर है कि सम्पूर्ण। (जयो० ३/८४) २४/१५) ०पूजा द्रव्य। 'आज पवित्र दिन है।' विशदाक्षयातान्ता सुभाषेव सुलोचना। (जयो० ३/८४) अर्कसंस्कृत-कुड्यम् (नपुं०) भास्करभासितभित्ति, सूर्य 'की' विशदं चाक्षतमखण्डम्। (जयो० व० ३/८४) किरणों से देदीप्यमान दीवारें। अर्केण संस्कृतानि यानि शिरसि स्फुटमक्षतान ददौ। (जयो० १३/२) कुड्यानि तेषु भास्करभाषित भित्तिषु। (जयो० वृ० १०/८९) शिर पर मङ्गलसूचक अक्षत अर्पण किए। अर्काङ्कित (वि०) सूर्यप्रभाभासित। (जयो० १०३) विधु-बन्धुरं । अक्षत (वि०) आचार पालक। (जयो० १८/१६) अक्षतस्य मुखमात्मनस्वमृतैः समुक्ष्यार्काङ्कितम्। (जयो० १०३) अक्षस्याचारस्य परिपालनकर्ता यस्तस्याचारव्यवहारतः। शोभनाङ्गी ने प्रातर्वेला में सूर्य की प्रभा से चिह्नित अपने (जयो० वृ० १८/१६) पूर्ण निष्ठावान् सुयोग्य ० श्रेष्ठ। चन्द्रमा के समान मुख को अमृत/दूध/जल से धोया। अक्षततिः (स्त्री०) अक्षमाला, सुलोचना की छोटी बहिन, राजा अक्षु [ भ्वा०स्वा०पर०अक०] अक्षति अक्ष्णोति। पहुंचना, व्याप्त अकम्पन की पुत्री तथा राजकुमार अर्ककीर्ति की भार्या। होना, संचित होना। अक्षततिं अक्षमालां नाम सुताम् (जयो० वृ० ९/३) अक्षः [अक्ष्+अच्+अश्+सः वा] धुरी, धुरा, गाड़ी के बीच की अक्षतरुः (पुं०) अखरोट। (वीरो०७/२५) छड़, लोहे की लम्बी-मोटी छड़, जिसमें दाएं-बाएं पहिए अक्ष-बुद्धित (वि०) इन्द्रिय ज्ञात। (जयो० २३/३२) श्रुतं च लगाए जाते हैं। ०तराजू, ०चौसर, ०पांशा, रुद्राक्ष, दृष्टं क्व कटाक्ष-बुद्धितः। (जयो० २३/३२) ० चक्र, पहिया। (जयो० वृ० १/१०८) गाड़ी, शकट जो इन्द्रिय ज्ञान से कभी कहीं नहीं सुना गया या देखा (जयो० वृ० १/१०८) अक्षः शकट एव। (जयो० वृ० गया। १/१०८) अक्षस्तु पाशके चक्रे शकट च विभीतके। इति अक्षभोग्य (वि०) इन्द्रिय भोग्या (भक्ति सं० पृ० ४८) रुचिं विश्वलोचनः। मनोज्ञे विषये विषयेऽक्षभोग्ये। (भक्ति सं० वृ०४८) अक्षः (पुं०) बहेडे का पौधा। (जयो० १/१०८) विभीतक, अक्षमाक्षम् (वि०) जितेन्द्रिय। अक्षमाणि असमर्थानि, अक्षाणि बहेड़ा, इन्द्रियाणि यस्य जितेन्द्रियत्यर्थः। (जयो० वृ० १/१०८) अक्षः (पुं०) ०दृष्टि, आंख, नेत्र, स्कंध, कंधा। (सुद० अक्षमाला (स्त्री०) रुद्राक्षमाला। १/४० जयो० १४/३६) अक्षमाला (स्त्री०) सुलोचना की छोटी बहिन, अकम्पन राजा अक्षः (पुं) ०ज्ञान, आत्मा ०आचार। अक्षस्याचारस्य (जयो० की पुत्री। (जयो० १/५७) राजकुमार अर्ककीर्ति की १८/१६) पत्नी। (जयो० ९/५७) अक्षम् (नपुं०) इन्द्रियाँ, इन्द्रिय विषय। अक्षाणि इंद्रियाणि यस्य। अक्षमतिः (स्त्री०) इन्द्रियज्ञान। (वीरो० २०/७) परोक्षज्ञान। ते अर्हता वपुषि चात्मधियं श्रयन्ति। (सुद० पृ० १२७) अक्षय (वि०) ०अनश्वर, ०अटूट, अविनाशी। दापयामि भवते इन्द्रिय-विषयों से आहत होकर शरीर में ही आत्म-बुद्धि परितोषं, सज्जनाक्षयमितः कुरु कोषम्। (जयो० ४/४६) करते हैं। अक्षयतृतीया (स्त्री०) अक्षय तृतीया व्रत, वैशाखमास के अक्षेषु सर्वेष्वपि दर्पकारी। (सुद० पृ० १३१) ___ शुक्लपक्ष की तीज। ऋषभदेव के आहार का दिन। प्रतिरेवाजित्वाऽक्षाणि समाबसेदिह जगज्जेता स आत्मप्रियः। (वीरो० क्षयतृतीयादिनं यत्किललग्नविधौ सर्वसम्मतम्। (दयो० पृ०६९) १६/२७) अक्षय्य (वि०) अविनाशी, अनश्वर, अनित्य। . अक्षकः (पुं०) आत्मा। सत्यधर्ममयाऽवाममक्षमाक्ष क्षमाक्षकः। अक्षर (वि०) अविनाशी, अनश्वर, अटूट। क्षरदक्षरसौध-सत्तरा। (जयो० १/१०८) (जयो० २६/४) झरते हुए अविनाशी अमृत समूह। अक्षजय (वि०) इन्द्रिय जय (वीरो० १४/३६) इन्द्रियजयी। अक्षरं-बहुकालस्थायि। (जयो० वृ० २६/४) । (वीरो० १८/२३) अक्षर (वि०) अपराधकारी शब्द। (जयो० १/३९) अक्षराणि अक्षजयी देखो अक्षजय। इन्द्रियाणि। इन्डिय जन्य अक्षर। For Private and Personal Use Only Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अक्षर अखण्डवृत्ति अक्षर (वि०) पाप। (जयो० वृ० १/३९) अक्षिपटलम् (नपुं०) नेत्र पटल, नेत्रभाग। अक्षरः (पुं०) इन्द्रिय विशेष। अक्षिपुरम् (नपुं०) नेत्रभाग। अक्षरः (पुं०) शिव, विष्णु। अक्षीण (वि०) [न क्षीणः] अहीन, पुष्ट, प्रभावशाली, पूर्ण। अक्षरक [स्वार्थकन्] अक्षर, स्वर। (जयो० ११/५४) अक्षरमाला (स्त्री०) अक्षरपंक्ति, वर्णमाला। (जयो० ६/२३) | अक्षीण-कान्ति (वि०) न हीनकान्ति, प्रभास युक्त, आभायुक्त। सजाक्षराणमिति कर्णकूपयोः। (जयो० २०/७२) (जयो० वृ० ११/५४) अक्षरयुगं (नपुं०) दो अक्षर, अक्षर समूह। (जयो० २५/३३) अक्षीणपथगत (वि०) अक्षि-समागत। यदनुलोमतया पठितं वताक्षरयुगं विषयेषु मुदेऽर्वताम्। (जयो० | अक्षीणमहाणसम् (नपुं०) ऋद्धि विशेष, णमो अक्षीणमहाण२५/३३) ०युगल वर्ण समूह। साणमित्यदः। (जयो० १९/८२) अक्षरशः (क्रि०वि०) [अक्षर+शस् (वीप्सार्थे)] एक एक अक्षुण्ण (वि०) अभिनव। विचक्षणेक्षणाक्षुण्णं। (जयो० ३/३८) अक्षर, पूर्ण। (जयो० २०/७४) पूर्ण अक्षर सहित ०अक्षर __ अक्षुण्णमभिनवं क्षणदमानन्दप्रदं मतम्। (जयो० वृ० ३/३८) विन्यास युक्त। अक्षुण्ण (वि०) अखण्ड, अक्षत, पूर्ण, अविजित। तव प्रणेऽक्षरशोऽनुगत्य वृद्धिं (जयो२०/७४) अक्षुद्र (वि०) गम्भीर, (जयो० ६/५८) ०उत्तम विशिष्ट अक्षराभ्यासम् (नपुं०) अक्षरज्ञान, वर्णमालाभ्यास। (जयो० योग्य। वृ० १/३९) ०वर्ण शिक्षा। अक्षद्रपदः (पुं०) उदार (जयो० १६/२७) योग्यस्थान समुचित अक्षरोधक (वि०) इन्द्रियजयी। अक्षाणां रोधकः परिहारकः। प्रतिष्ठा। (जयो० २८/५१) अक्षुब्ध (वि०) क्षोभ रहित, दु:ख विहीन, अशान्ताभाव। अक्षलता [स्त्री०] अक्षमाला, सुलोचना की छोटी बहिन, (सुद० पृ० ९८) शान्त, सौम्य चिंतनशीला अकम्पन राजा की पुत्री। श्रीदेवाद्रिवदप्रकम्य इति योऽप्यक्षुब्धभावं गतः। (सुद० ९८) अक्षवश (वि०) इन्द्रियार्थ, इन्द्रियनिमित्त, विषय निमित्त, विषय अक्षुब्धभाव (वि०) क्षोभरहित भाव, शान्तभावा (सुद० पृ० ९८) कामना। अक्षोट: (पुं०) (अक्ष+ओट:) अखरोट। अक्षाणामिन्द्रियाणां देवशब्द-वाच्यानां येऽर्था विषयाः। (जयो० अक्षोपरिप्रदेश (पुं०) स्कंध के ऊपर का भाग। वृ० २४/८९) अक्षोभ् (वि०) अनुद्विग्न, क्षुब्धता रहित। (जयो० १/४३) अक्षाधीन (वि०) अक्षवश, इन्द्रियाधीन। (मुनिमनो०१९) ___०प्रशान्त ०दत्तचित्त। अक्षाधीनधिया कुकर्मकलना, मा कुर्वतो मूढ! ते। अक्षौहिणी (स्त्री०) (अक्षाणां रथानां सर्वेषामिन्द्रियाणां वा ऊहिनी(मुनिमनोरञ्जनाशीति १९)। षष्ठी तत्पुरुष)। [अक्ष+ऊह+णिनि+ङीप्] चतुरांगिणी इन्द्रियाधीन बुद्धि के कारण खोटे कर्मों का बन्ध करने सेना। रथ, हाथी, घोड़ा और पदाति सहित सेना। वाले तेरी यहाँ क्या दशा हो रही है? अखण्ड (वि०) अक्षत, अविनश्वर, विनाशरहित, सम्पूर्ण, अक्षार (वि०) प्राकृतिक लवण। समस्त, अटूट। (वीरो० २/१२) व्यनपायी, विच्छेदरहित। अक्षि (नपुं०) [अश्नुने विषयान्-अस्+क्स्]ि अक्षिणी, नेत्र, (जयो० १३/२७) चिदकपिण्डः सुतरामखण्डः। (भक्ति सं० ३१) एक ज्ञानशरीरी अत्यन्त गुण गुणी के भेद से आंख, नयन। (जयो० ३१४) अक्षिवच्चरनराः सुदर्शिन: रहित है। एक सा, समान। (जयो० ३/१४) अखण्ड-निवेदन (वि०) पूर्ण सूचित, विशेष कथित। (जयोल गुप्तचर आंखों के समान दूर तक की बात देखते थे। अक्षिणी एव मीनौ तयोईितयी युग्यम्। (जयो० वृ० १/१) २५/५४) सुखवतस्तदखण्डनिवेदनम्। (जयो० २५/५४) सुख सम्पन्न अक्षिकृत (वि०) दृश्यमान्। (वीरो० २१/१७) आत्मा की अखण्डता को सूचित करने वाला। अक्षिगत (वि०) दृश्यमान, दृष्टिगत। अखण्डमहोमय (वि०) सकलतेजोमय। (जयो० ६/११३) अक्षिगोल (वि०) आंख का तारा। अखण्डवृत्ति (स्त्री०) सततयोधन व्यापार, निरन्तरवृत्तिः। (जयो० अक्षिपक्ष्मन् (नपुं०) आंख की झिल्ली, आंख के पटल। ८/७३) For Private and Personal Use Only Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अखण्डितः अगस्त्यः अखण्डितः (वि०) ०अविभाजित, ०अवाधित, अविनाशित, अग (भा०पर०अक०सेट-अगति, आगीत् अगात्, अगम) जाना, ०अक्षतित, ०अक्षरित। गति करना। टेढ़े मेढ़े चलना। (सुद० ९७) अखल (वि०) [न खलः] सज्जन, सदाचारी। समाश्रयायैवम- | अग (वि०) [न गच्छतीति-गम्+ड] चलने में असमर्थ, थाखलानाम्। (जयो० २०/७५) अगम्या (जयो० ३/२७) अखर्व (वि०) प्रशस्त, गौरवशाली, गुणगुर्वी, उदारचित्त वाले। अगः (पुं०) वृक्ष, तरु। (जयो० २८/३३) (जयो० ६/६३) हे अखर्वे प्रशस्तरूपे। (जयो० वृ० अगच्छ (वि०) [गम्-बाहुलकात्] न जाने वाला। ६/१०३) नगौकसश्चाख।। (जयो० ६/८) अगच्छः (पुं०) वृक्ष। (जयो० २८/३३) अखर्वसूत्री (वि०) दीर्घ विचारवान्। (जयो० ३/८५) मतिं क्व अगच्छाया (स्त्री०) वृक्ष की छाया। सम्पल्लवसमारब्धा कुर्यान्नरनाथपुत्री भवेद्भवान्नैवमखर्वसूत्री। (जयो० ३/८५)। योऽगच्छायामुपाविशत्। (जयो० २८/३३) अगस्य छायाअखात (वि०) पोखर, प्राकृतिक गर्त। वृक्षस्य छायामुपाविशत्। (जयो० वृ० २८/३३) अखिल (वि०)[नास्ति खिलम् अवशिष्टं यस्य] सम्पूर्ण, समस्त, | अगणित (वि०) संख्यातीत, असंख्य। (जयो० १/९४) पूर्ण। (सुद० पृ० ७०) ०एक मात्र। अगणिताश्चगुणा गणनीयतामनुभवन्ति भवान्तकाः। (जयो० १/९४) अखिलकर्मन् (नपुं०) सम्पूर्ण कर्म, समस्त कार्य निखिल अगणित-कष्ट (वि०) अनन्तकष्ट युक्त, अधिक दुःख युक्त। क्रियाकाण्ड। (जयो० ९/५५) (समु० ५/४) भगवतोऽखिलकर्मनिषूदनम्। (जयो० ९/५५) भगवान् की अगण्य (वि०) पर्याप्त संख्या, अधिक गणना। (जयो० १३/८७) पूजा निखिल कर्मों का नाश करने वाली है। अगतिः (स्त्री०) आश्रयाभाव, उपाय का अभाव, विराम। अखिलकायः (पुं०) सम्पूर्णदेह, समस्त शरीर। वीक्षितुं अगति/अगती (वि०) नि:सहाय, निरुपाय, निराश्रय, आधारहीन। यदधुनाऽखिलकाय:। (जयो० ४/४) ०समग्र अङ्ग। अगद (वि०) नीरोग, स्वस्थ, रोगरहित। (जयो० १४/४) अखिलज्ञ (वि०) सर्वविद, सर्वज्ञ, लोकमार्गदर्शी। (जयो० अगदंकारः (पुं०) [अगदं करोति-अगद् कृ+अण् मुमागमश्च] वैद्य, चिकित्सक। श्रियाश्रितं सन्मतिमात्ययुक्त्याऽखिलजमीशानमपीतिमुक्त्या। अगदत् (अ+गद्-) बोली, कहती, प्रतिपादित करती। (जयो० १/१) जो अच्छी बुद्धि के धारक हैं, आत्मतल्लीनता अगदलम् (नपुं०) वृक्ष-पत्र, तरु पल्लव। (जयो० १४/४) के द्वारा जो सर्वज्ञ बन चुके हैं। अखिलज़ लोकमार्गदर्शिनम्। ___ अगस्य वृक्षस्य यानि दलानि पत्राणि। (जयो० वृ० १४/४) (जयो० वृ० १/१) अगदलसच्छाया (स्त्री०) रोपापहारिणी सुन्दरछाया। अगदस्य अखिलदेशवासिन् (वि०) समस्त देशवासी, देशदेशान्तर वासी। गदरहितस्य लसन्ती या छाया। अथवा अगस्य वृक्षस्य यानि सम्पूर्ण देश निवासी। (जयो० वृ० ४/१) दलानि पत्राणि तेषां सती या छाया। (जयो० वृ० १४/४) अखिलवेदित (वि०) सरर्वज्ञ, सर्वज्ञाता। (वीरो० १९/३४) अगम् (वि०) प्राप्त हुई। (सुद० ३/४६) अखिलाङ्गसुलभ (वि०) सर्वाङ्गपूर्ण, सभी तरह से योग्य। अगम्य (वि०) [न गन्तुमर्हति-गम्+यत्] दुर्गम, अनुलङ्घनीय। (जयो० ३/१५) अकल्पनीय। अखेटिकः (पुं०) [नञ्+खिट्+पिकन्] (१) वृक्षमात्र, (२) वैरीश-वाजि-शफराजिभिरप्यगम्याम्। (जयो० ३/२७) शिकारी कुत्ता। अगम्यामनुलङ्घनीयाम्। (जयो० वृ० ३/२७) अखेद (वि०) खेदवर्जित, दु:खरहित। (जयो० २/१३७) अगम्या (स्त्री०) व्यभिचारिणी। गमनं चैव अनुचितम्। ०कुत्सिता, अखुरः (पुं०) मूसक, चूहा। (वीरो० १४/५१) कुमार्गगामिनी। अख्यातः (पुं०) प्रसिद्ध, लोकप्रिय। (सुद० १/४२) अगरु (नपुं०) [न गिरति-गृ+उ] अगर, एक प्रकार का अख्याति (नपुं०) अपकीर्ति, अपयश। चन्दन। अख्यातिकर (वि०) लज्जाजनक। अगस्त्यः (पुं०) वृक्ष, देवदारु वृक्ष, प्रियाल। प्रियालागस्त्यादिअंगीकृत (वि०) स्वीकृत, अंगीकार। (जयो० ११८०) ___ वृक्षाणाम्। (जयो० वृ० २१/२८) अंग्रेज (वि०) गौराङ्क शरीरी, फिरङ्गी। (जयो० वृ० १८४८१) | अगस्त्यः (पुं०) [विन्ध्याख्यम् अगम् अस्यति, अस्+क्तिच्] १/१) For Private and Personal Use Only Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अगाढ़ः अग्निज्वाल: (अगं विन्ध्याचलं स्त्यायति स्तम्नाति-स्त्यै क-वा अगः कुम्भः तत्र स्त्यानः संहतः इत्यगत्य:) एक ऋषि, नक्षत्र। अगाढ़ः (पुं०) सम्यग्दर्शन का दोष। ०प्रगाढ़। अगात् (वि०) प्राप्त, आया। (सुद० ९७, १२३) अगात् (वि०) बिताना। (सुद० ४/१) तयोरगज्जीव नमत्यघेन। (सुद०४/१७) अगाश्रित (वि०) अगान् वृक्षानाश्रिताः। वृक्षाश्रित, वृक्ष का सहारा लेने वाले। (जयो० १४/७) अगारम् (नपुं०) घर, गृह, सदन। (जयो० २/१३९) स्थान ०वास निवास। स्थल। अगारि (वि०) गृहस्थी, गृह में रहने वाला। (सम्य० ११०) (जयो० २/१३९) अगारिराट् (पुं०) गृहस्थशिरोमणिः, सद् गृहस्था (जयो० २/१३९) अगं न गच्छन्तम् ऋच्छति प्राप्नोति (अग्+ऋ+अण्) गृह स्वामी ०गृहस्थ का उच्च व्यक्ति। अगारे निवसते स अगारि। अणुव्रतोऽगारि। (त०सू० ७/२०) तस्य राट्र अगालित (वि०) अस्वच्छ, अनिर्मल, प्रदूषित, जीव युक्त। (सुद० पृ० १२९) अगालितजलं [नपुं०] जीव युक्त जल। (सुद० १२९) अगिरः (पुं०) [न गीयते दुःखेन ] स्वर्ग। ०शुभस्थान ०उत्तमस्थल। अगुण (वि०) गुण रहित, दोष मुक्त। अगुण (वि०) निर्गुण। अगुणज्ञ (वि०) गुणों को न जानने वाला। तेनागुणज्ञोऽभवमेवमेतत्। । (भक्ति०सं० ४८) गुणवानों के गुण को जाना नहीं गर्व अगोचर (वि०) [नास्ति गोचरो यस्य] ०अदृश्य, ०अज्ञेय, ब्रह्म अतीन्द्रिय। अग्नायी (स्त्री०) [अग्नि+ऐ+डीष] अग्निदेवी। अग्निः (स्त्री०) [अंगति ऊर्ध्वं गच्छति अङ्ग+नि न लोपश्च] अग्नि, वह्नि आशुशुक्षणि। (जयो० १२/७५) अग्नि: त्रिकोणः रक्तः। अग्नि त्रिकोण और लाल होती है। स्वयमाशु पुनः प्रदक्षिणीकृत आभ्यामधुनाशुशुक्षिणी। (जयो० १२/७५) आशुशुक्षणिरग्निः प्रथमं दक्षिणीकृतः। (जयो० वृ० १२/७५) अग्नि प्रथम दक्षिणीकृत हुई। अग्नि को समुद्रदत्तचरित्र में 'पावकेकिल' भी कहा है। 'समेत्यमन्त्रोत्थित-पावकेकिल (समु० पृ० ४४) अग्नि के कई भेद हैं-यज्ञीय अग्नि (गार्हपत्य अग्नि), आहवनीय, दक्षिण, जठराग्निः (पाचनशक्ति), पित्त, सोना आदि से उत्पन्न शुद्ध अग्नि, सामान्य अग्नि आदि। आगमों में धुंआ रहित अंगार, ज्वाला, दीपक की लौ, कंडा की आग, वज्राग्नि, बिजली आदि से उत्पन्न शुद्ध अग्नि, सामान्य अग्नि आदि। (देखें-जैनेन्द्रसिद्धान्त कोष पृ० १/३५) आध्यात्मिक अग्नियाँ क्रोधाग्नि, कामाग्नि और उदराग्नि भी अग्नियां हैं (महापुराण) पंचमहागुरुभक्ति में साधक की पञ्चाचार रूप क्रियाओं को भी अग्नि कहा गया है। अग्नि-अस्त्रम् (नपुं) अग्नि अस्त्र, अग्नि उत्पन्न करने वाला अस्त्र। अग्नि-कर्मन् (नपुं०) अग्नि क्रिया। तय कर्म ऊर्जा सम्बंधी क्रिया। अग्नि-कलित (वि०) अग्नि में तपाया, वह्नितापित। (जयो० २।८१) अग्नि से संस्कारित। अग्निकायिक (वि०) अग्निजीव वाला। (वीरो० १९/) अग्नि-कुण्डम् (नपुं०) अग्निपात्र। अग्निकुमारः (पुं०) देव नाम। अग्निकेतुः (स्त्री०) अग्निध्वज, अग्नि पताका। अग्निकोण: (पुं०) दक्षिण-पूर्व का कोना। अग्निगतिः (स्त्री०) एक विद्या विशेष। अग्निजः (वि०) अग्नि से उत्पन्न। अग्निजन्मन् (वि०) अग्नि ज्वाला, अग्नि लपट। लौ, प्रदीप्त कारण अग्निजीवः (पुं०) अग्निकायिक जीव। अग्निज्वालः (पुं०) विजया की उत्तर श्रेणी का नगर, विद्याधर नगर। सरकारी से। अगुणी (वि०) गुण रहित। अगुर-गमन (वि०) प्रफुल्लगमन, अच्छी गति (जयो० वृ० । ६/११) अगुरु (नपुं०) अगुरु, धूम्र, गन्ध विशेष, विलेपन। (जयो० १२/६८) दीर्घ ०व्यापक भाव का न होना। अगुरुपरिणामः (नपुं०) बिलेपन, शीतल परिणाम। चंदन लेप। (जयो० १४/४१) अगुरुचंदनस्य परिणामो विलेपनम्। (जयो० वृ० १४/४१) यद्वा लघुभावो (जयो० वृ० १४/१४) अगुरुलघु (वि०) षट्गुण हानि-वृद्धि गुण। अगूर (स्त्री०) सूक्ष्म, लघु (सुद० १३३) अगृह (वि०) गृह विहीन, घर रहित, अगार रहित। अगृहीत (वि०) मिथ्यात्व विशेष। For Private and Personal Use Only Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अग्नितपस् अग्रतः अग्नितपस् (वि०) अग्नि सा चमकीला। तेज युक्त। अग्निदाहः (पुं०) अग्नितपन। अग्निदीपन् (वि०) क्षुधा वर्द्धक। अग्निवृद्धिः (स्त्री०) पाचन शक्ति। अग्निदेव: (पुं०) अग्निदेवता। (दयो० २८) 8 भूतकालीन ग्यारहवें तीर्थंकर। 8 लोकपाल के भेद रूप अग्नि। 8 अनलकायिक आकाशोत्पन्न देव। 8 अन्याभजातिके लोकान्तिक देव। 8 अग्निज्वाला नामक ग्रह। 8 अग्निकुमार भवनवासी देव। 3 अग्निरुद्धनामा असुरकुमार देव। अग्निपक्व (वि०) अग्नि में पकाया गया। (सुद०) अग्निप्रभदेवः (वि०) ज्योतिर्देव, जिसने देशभूषण और कुलभूषण मुनियों पर उपसर्ग किया था। अग्निपुराण (पुं०) अग्निपुराण, एक वैदिक पुराण। (दयो० ३१) अग्निभूतिः (पुं०) मगधदेश शालिग्राम निवासी सोमदेव ब्राह्मण पुत्र। गौतम का छोटा भाई। (वीरो० १४/२) युतोऽग्निना भूतिरिति प्रसिद्धः श्री गौतमस्यानुज एवमिद्धः। (वीरो० १४/२) अग्निमित्रः (पुं०) एक ब्राह्मण पुत्र। अग्निमुखं (नपुं०) अग्निपंक्ति, अग्निज्वाला। (जयो० १२/७१) ०लौ, तेजस् क्रिया। अग्निमुखी (स्त्री०) रसोई घर। अग्निरक्षणं (नपुं०) पवित्र गार्हपत्य। अग्निरजः (पुं०) इन्द्रगोप, एक सिन्दूरी कीड़ा। अग्निवधू (स्त्री०) स्वाहा। अग्निवर्धक (वि०) पौष्टिक, शक्तिशाली। अग्निवीर्यं (नपुं०) अग्निशक्ति, अग्निबल। अग्निशाला (स्त्री०) यज्ञशाला, अग्निस्थान। अग्निशिखः (पुं०) दीपक, प्रदीप। लौ, ज्वाला। अग्निसंस्कारः (पुं०) अग्निप्रतिष्ठा। अग्निसहः (पुं०) एक ब्राह्मण पुत्र। अग्निसात् (अव्यय) अग्नि की दशा। अग्र (वि०) आगे, प्रथम, सर्वोपरी, मुख्य, प्रमुख, प्रान्त, भाग, पुरस्तात्। (जयो० ११/८९/सम्य० ५८) स्फुटत्कराग्रा मृदुपल्लवा। (जयो० ११४८९) मनोहर नख के अग्रभाग। रात्रं तदन उपकल्पित बह्निभावः। (सुद० ४/२४) रात्रि की शीतबाधा दूर करने के लिए आगे आग जलाता। (सुद० ४/२४) सदभावेन च पुञ्ज दत्वाऽप्यग्रे जिनमुद्रायाः। (सुद० पृ० ७१) अग्रकरः (पुं०) अग्रहस्त। हाथ का प्रथम हिस्सा। अग्रगण्यः (पुं०) श्रेष्ठ, प्रथम, मुख्य, प्रधान। (वीरो० १८/४६) (जयो० ८/१९) अग्रगामित् (वि०) आगे आगे रहना। (जयो० ४/३५) अग्रगामिन् (वि०) अग्रणी, मुखिया, प्रधान। (जयो० ३/८९) अग्रचर्मन् (नपुं०) नूतनचर्म। (जयो० २/५) अग्रज (वि०) अग्रणी, पहले उत्पन्न। (जयो० ५/७६) अग्रजः (पुं०) बड़ा भाई। अग्रजतः (पुं०) पितृजन, बड़े लोग। (जयो० २/१०५) अग्रजा (स्त्री०) बड़ी बहन। अग्रजाया (स्त्री०) बड़े भाई की पत्नी, भौजाई, भ्रातृजाया। वीरो० (१५/४९) अग्रणी: (पुं०) प्रमुख, प्रधान, सैन्यमुख्य, नायक। स पुनः परमानन्दमेदुरो मानवाग्रणी (जयो० ३/९५) मानवानाम ग्रणी यक: (जयो० वृ० ३/९५) अग्रक्षणं (नपुं०) आगामी, भविष्यत् कालीन। अग्रायणी (स्त्री०) एक पूर्व ग्रन्थ का नाम। अग्र अर्थात् द्वादशांगो में प्रधानभूत वस्तु के अयन/ज्ञान को अग्रायण कहते हैं और उसका कथन करना जिसका प्रयोजन हो उसे अग्रायणी कहते हैं। अग्राह्य (वि०) छोड़ने योग्य, त्याज्य। (वीरो० १६/२३) प्राणिजनित वस्तुओं में जो पवित्र होती है, वह ग्राह्य है, अपवित्र नहीं। अतः शाक-पत्र और दूध ग्राह्य है और मांस और गोबर आदि ग्राह्य नहीं है, ऐसा कथन उपादेय नहीं है, क्योंकि गोबर और दूध ये दोनों ही गाय-भैंस आदि से उत्पन्न होते हैं, फिर भी मनुष्य दूध को पीता है, परन्तु गोबर को नहीं खाता। अग्रणीका (वि०) अग्रणी, प्रधान, प्रमुख। उद्दिश्य-तं साम्प्रतम ग्रणीकम्। (वीरो० १४/२०) जिनके पीछे ब्राह्मण समूह था, उन अग्रणी इन्द्रभूति को उद्देश्य करके वीरप्रभु ने कहा। अग्रतः (क्रि० वि०) [अग्रे अग्राद्वा-तसिल्] आगे, प्रमुख। (सुद० १०५) जगदिहतेच्छोद्रुर्तमग्रतस्तौ। (सुद० २/२६) For Private and Personal Use Only Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra अग्रदूतः www.kobatirth.org · जगत् के प्राणिमात्र का हित चाहने वाले मुनिराज आगे हाथ जोड़कर स्थित थे। ० आगे आगे अग्रणी ० प्रधान अग्रदूतः (पुं०) अग्रगामी दूत, अनुचर । अग्रपादः (पुं० ) पैर का अग्रभाग अग्रपूजा ( स्त्री० ) प्रमुख अर्चना । अग्रभागः (पुं०) प्रान्तभाग (जयो० ३/७४) अग्रभाग: (पुं०) शिर, मस्तक । अग्रभागचालक (वि०) शिरचालन। अग्रभागिन् (वि०) सर्वोत्तम भागी । अग्रभूमिः (स्त्री०) मुख्यधरा, उद्दिष्ट भाग अग्रवर्तित् (वि०) अग्रणी । अग्रवर्तिनी (वि०) अग्रणी, अग्रप्रवर्तिनी । (जयो० १/२३) (जयो० १३/५६) अग्रवस्तु कलश विशेष तस्यावस्तु कलशस्तद्वत् (जयो० १३/९०) कलश वस्तु मङ्गलवस्तु । प्रमुख पदार्थ सर्वोपरि रहस्य | अग्रसंलग्न (वि०) आगे प्रयुक्त, अग्रप्रान्त व्यापी । (जयो० १/३१) अग्रसर (वि०) अग्रगामी, अग्रगण्य । अग्रहस्तः (पुं०) नखभाग । अग्रिम (वि०) [ अग्रेभव:- अग्र-डिमच्] प्रथम, अग्रणी, प्रधान, मुख्य, ज्येष्ठ, बड़ा, महत्। (जयो० १३/५४) अग्रिम - वर्षपवित्र: (पुं०) प्रथमवर्षधर पर्वत, हिमालय, हिमवान् पर्वत । (जयो० १३ / ५४) अग्रिमवर्षपवित्रः प्रथमवर्षधरस्य हिमालयस्य (जयो० कृ१३/५४) अग्रिम (पुं०) बड़ा भाई, ज्येष्ठ भ्राता । अग्रिय (वि० ) [ अग्रेभवः - अग्र+च] प्रमुख, आदि । अग्रे ( क्रि०वि०) के सामने, के ऊपर (जयो० ० ५/९३) अग्रेऽग्र (वि०) यथोत्तर। (जयो० वृ० ५ / ९३) । अग्रेतन (वि०) अग्रगामी, पुरश्चारी। (जयो० १३ / १६) अग्रेसर (वि०) नेतृत्व करने वाला, पुरश्चारी, अग्रगामी, प्रवर्तनशील । मोक्षमार्गाग्रेसरस्य यद्वा जनान् मोक्षमार्गे प्रवर्तनशीलस्य । (जयो० वृ० २/६८) मोक्षमार्ग पर निरन्तर आगे बढ़ने वाले। अग्रेसरभाव: (पुं०) अग्रगामी के भाव (जयो० ० १/२) अर्गल (वि०) अवरोधक, आगला (दयो० ३७) समुदङ्गः समुद्गाद्मार्गलं मार्गलक्षणम् (जयो० ३/१०९) लक्ष्मी के बाधक मार्ग को शीघ्र ही पार कर गया। अर्गले प्रतिरोधकम् (जयो० पृ० ३/१०९) ११ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अघविराधि अर्गलतातिः (स्त्री० ) ०अर्गला पंक्ति, ०निगडपंक्ति । या तिर्यगुत्तार्गलतातिस्तु वक्षः (जयो० १/५२) अघ् (दे० ) [ चु०उभ०] बुरा करना, पाप करना, अघं (नपुं० ) [ अघ्+अच्] पाप, कुकृत्य, उपद्रव। (जयो० १ / ६९, सुद० पृ० १०४) जयो० ८/५३ भो द्वा: स्थजना कोऽयमघमितः (सुद० पृ० १०४) देखो वह कौन पापी आ रहा है। अघचर्वणं (नपुं०) पापक्षय, पापविनाश । अघस्य पापस्य चर्वणं मास्तु । (जयो० २६ / ३१) अघदा (वि०) पाप प्रदाता, पापदाता, कष्टदाता । अघ पापं कष्टं वा ददातीत्यघदा (वीरो० ३/१७) अघन (वि०) [न घनं अघनं] कर्पूर रहित। (जयो० ५/८१ ) अघनसारपात्री (वि०) अति सुन्दर, रूपवान्। सा घनसारस्य पात्री न भवति । तत एवाघं पापमेव न सारो यस्य स सारहीनः पदार्थस्तस्य पात्रीति तु कुतः स्यात् । (जयो० वृ० ५/८१) 'अघ' का अर्थ पाप है, वह जहाँ साररूप में नहीं, वह अघनसारपात्री है, परमपवित्र और अतिसुन्दर है। अघनाश (वि०) परिमार्जक, शुद्ध, पाप रहित, कष्ट विहीन । अघनाशक (वि० ) शुद्ध, परिमार्जित । अघनाशन (वि०) निर्मल, उत्तम श्रेष्ठ । अघनिग्रह ( वि० ) दुःखविच्छेदक, कष्टनिवारक । (जयो० २७ / १०) हे भव्य ! शरीर ही दुःख का निग्रह करने वाला है, ऐसा मानकर भोगों में निरत हुआ प्राणी गृहस्थ बना हुआ है। अघस्य दुःखस्य निग्रहं विच्छेदकम्। (जयो० वृ० २७/१०) अघभू (स्त्री०) पापभूमि । ( सुद० पृ० १०५ ) अघभूरा (वि०) पाप की प्रचुरता। (सुद० पृ० १०५ ) अघभू- राष्ट्र: (वि०) अपराध संयुक्त। (जयो० वृ० ७ /६३) अपेन अपराधेन मानितः संयुक्तः सम्भवति (जयो० ० ७६३) अघमथनं (नपुं०) पाप रहित, निष्पाप । सुलोचननाया अघमोचनायाः (जयो० १/६८) अघमोचन (स्त्री०) तुच्छ वस्तु निम्नपदार्थ, पापकारिवस्तु । (चीरो० १/२१) अघलोपिन् (वि०) पापक्षयी (समु० ५/२८) अघवज्रः (पुं०) पापकणी (जयो० वृ० २ / १५७) अघ - विध्वंसिन् (वि०) पाप नाशनि पापक्षयी सर्वेसन्तु निरामयाः For Private and Personal Use Only सुखयुजः सर्वेऽद्यविध्वंसिनः । ( मुनि० पृ० १६ ) अघविराधि ( क्रि०वि०) पापनाश पापक्षय, बाधानाश, अधानां Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अघस्रजः अङ्कित विराधिस्तस्यै पापनाशाय। (जयो० वृ० २/६१) अभीष्ट कार्यों की बाधाओं का नाशक। अघस्रजः (पुं०) निशापति, चंन्द्र (जयो० १५/५५) अघसम्भवः (पुं०) रोगोत्पत्तिः रोग का जन्म। (जयो० २/५४) अघहरणी (वि०) पापनाशिनी। (सुद० पृ०७३) अघहेतुः (नपुं०) पाप का कारण, दु:ख का हेतु। (समु० १/२) नमामि तं निर्जितमीनकेतुं, नमामि तोहन्तु यतोऽघहेतुः। (समु० १/२) अधर्म (वि०) ठंडा, शीतल, जो गरम न हो। अघाति (स्त्री०) अघातियां कम।। अघातिकर्मिन् (वि०) अघाति कर्म वाला। (वीरो० १२/३८) अघास्पदं (नपुं०) पापस्थान, कष्टमूल। इत्यनेकविधमत्यधास्पद मस्ति। (जयो० २।८९) अनेक प्रकार के बहुत से पाप स्थान हैं। अघावृत (वि०) पतन से घिरा हुआ। अधेन पतनेनाभावेन वा आवृता। (जयो० ३/२३) अघृण (वि०) घृणा रहित। अघृणी (वि०) घृणा शून्य। (जयो० २२/८२) घृणासद्भावाद् अविकलो। (जयो० ३/३२) कुशेशयं वेदिम निशासु मौनं दधानमेकं सुतरामघोनम्। (जयो० ११/५०) मौन रहकर एकाकी तपश्चरण भी निष्पाप है। अघोनिका (स्त्री०) अघादूनाऽघेनिका, पाप की न्यूनता। (जयो० १/८९) अघोर (वि०) सुन्दर, अच्छा, सुहावना। (समु० १/२३) अघोरः (पुं०) शिव, शङ्कर। अघोरा (स्त्री०) सुहावनी। (समु० १/२३) अघोष (वि०) [नास्ति घोषा यस्य यत्र वा] ध्वनिरहित, नि:शब्द, अल्पध्वनि। अङ्क (चु०उभ०) ०अङ्किता, ०कहना, प्रतिपादित करना। (जयो० २/६) * चिह्नित करना, छाप लगाना। अङ्कः (पुं०) [अङ्क+अच्] गोद, ०क्रोड, ०तल। उत्सङ्ग मातृस्थानीयाया अङ्के क्रोडे। (जयो० वृ० ३/२३) लावण्यअङ्कोऽपि मधुरतनु। (जयो०६/५४) लावण्य का घर होकर भी मधुर है। अङ्कं (नपुं०) भूषण, सुन्दर। (जयो० ६/९१) अङ्क (नपुं०) लक्षण, चिह्न, प्राप्त, वृत्ति। अङ्केन लक्षणेन कलिता। (जयो० ५/५२) अङ्कः चिह्नमन्त:करणपरिणामः। (जयो० १/६६) अङ्कः (पुं०) लोक, भाग, स्थान। नादौ सुराते च्युतिशङ्कयेव। (सुद० २/१४) स्वर्गलोक के नीचे गिरने की शङ्का। अङ्कः (पुं०) संख्या विशेष। अङ्कः (पुं०) अपराध, कलंकार। अंकोऽपराधस्तस्य निवरारणम्। (जयो० ९/३९) अनेकता का कलंक दूर करने वाली। 'अङ्कश्चित्र रणेमन्ताविति' विश्वलोचनः। अङ्कः (पुं०) प्रबन्ध। (सुद० १/५) इदं स्विदके द्रुतभ्युदेति। (जयो० १/५) ०काव्य का अंश ०नाटक का एक दृश्य। अङ्ककः (पुं०) गोद, उत्सङ्ग, क्रोड। सकलङ्कः पृषदङ्ककः। (सुद० पृ० ८७) चन्द्रमा कलंक सहित है, शशक को गोद में बैठाए हुए है। (सुद० पृ० ८८) । अङ्कगतः (पुं०) अङ्क में विद्यमान, उत्सङ्ग स्थित। चन्द्रस्याङ्के उत्सङ्गे कलङ्के च गतो वर्तमानः। (जयो० ६/४५) अङ्कनं (नपुं०) [अङ्क ल्युट्] चिह्न, प्रतीक। मुहर, ०लाञ्छन। चिह्न लगाना ०संकेत देना। अङ्कतिः (पुं०) [अञ्च्+अति, कुत्वम्-अञ्चे:को वा अञ्चतिः ___ अङ्कतिर्वा] हवा, अग्नि। अङ्कदलं (नपुं०) अक्षर समूह, (जयो० १/१४) कलङ्कमेत्वङ्कदलं तदर्थ विभावनायाम्। (जयो० १/१४) अपरिस्थितिः (स्त्री०) चन्द्रचिह्न पर स्थित। टङ्ककृत चिह्नस्य परिस्थितिः (जयो० १५/५२) अङ्कभाज (वि०) अङ्क में बैठा हुआ। अङ्कमुखं (नपुं०) कथावस्तु का क्रम। अतिः (पुं०) विधाता, ब्रह्मा। कृतवान् यन्त्रिकमङ्कमतिः (जयो० १०/४४) अङ्गतिर्विधाता। (जयो० वृ० १०/४४) अङ्कविद्य (वि०) अङ्क में बैठा हुआ। अङ्कविद्या (स्त्री०) संख्या विज्ञान, अङ्कगणित। अङ्कय् (सक्) आंकना, देखना, मूल्यांकन करना। (दयो० पृ० ७१) एतत्कृतस्य पुण्यस्याप्यहो केनाडूयतेऽवधिः। (दयो० ७१) अङ्कस्थित (वि०) गोद में बैठा हुआ। नाभि में स्थित (मुनि०२४) एणोऽङ्कस्थितगन्धहेतु-कृतये वाऽज्ञानतो गच्छसि। (मुनि०२४) कस्तूरी-मृग अपनी नाभि में स्थित गन्ध की प्राप्ति के लिए वन में भटकता है। अङ्काशायी (वि०) उत्सङ्गवर्ती। (जयो० १२/७८) अङ्कित (वि०) ०व्याप्त, फैला हुआ, विस्तीर्ण। प्रकल्पित। अङ्कितः प्रकल्पितो गूढो यो मार्गः। (जयो० २/१५४) अङ्कित (वि०) व्याप्त। (जयो० वृ० १/१४) अङ्कित (वि.) उपस्थित। स्वस्थानाङ्कितकाममङ्गलविधौ निर्जल्यतल्पं क्रमेत्। (जयो० २/१२३) For Private and Personal Use Only Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org अङ्कित अङ्कित (वि०) निर्मित। सुवर्णरेखाङ्कितमेव वाणम् । सुवर्ण की रेखा युक्त बाण। (जयो० ८/६६) सुवर्णस्य हेम्नो रेखयाऽङ्कितं निर्मितम्। (जयो० वृ० ८ /६६ ) अङकुट [ अङक् + उटच्] ताली, कुंजी । अङ्कुरः (पुं० ) [ अङ्क + उरच्] किसलय, कोंपल, हरितृण । (जयो० ८/५८) यशस्तरोरङ्करकाः समन्तात्। (जयो० वृ० १/५८) अकुरै: रोमोद्गमैः हरितृणैश्च । (जयो० वृ० १/८८) अङ्कुरः (पुं०) कलम, संतान, प्रजा, बाल। अङ्कुरक: (पुं०) अङ्कर, हरितृण । (जयो० वृ० ११ / ४३ ) अङ्कुरमात्रकः (पुं०) कन्द्र प्रकार, एक जमीकंद विशेष । (जयो० २ / ८८) अकुरय (सक्) अङ्कुरित करना, पल्लवित करना । (जयो० ३/९२) इत्थं वारिनिवर्षैरङ्कुरयन् संसदं तथैव रसैः। (जयो० ३ / ९२ ) इस प्रकार वचन रूप जलवर्षा से सारी सभा को अङ्कुरित करता हुआ। अङ्कुरयन्, अङ्कुरितां कुर्वत् (जयो० वृ० ३/१२) अङ्कुरित (वि०) पल्लवित, प्रफुल्लित । (जयो० वृ० ३ / ९२) अङ्कुराङ्कित ( वि० ) ० रोमाञ्चित, हर्षित, प्रसन्नता युक्त। (जयो० १/८८) अङ्कुरोत्पादनं (नपुं० ) अङ्कुर उत्पादन। (जयो० २३/६६) अङ्कुराणामुत्पादनकृद्भवति। (जयो० २३/३६) वर्षा ऋतु अङ्कुर उत्पादन करती है। अङ्कुश: (पुं०) [ अङ्क + उशच्] कांटा, कीला, नियन्त्रक, प्रशासक, निदेशक । अङ्कुशित (वि० ) [ अङ्कुश + इतच्य् ] अङ्कुश से नियन्त्रित किया गया। अङ्कुशिन् (वि० ) [ अङ्कुश + णिनि] अङ्कुश रखने वाला, महावत । अङ्कोट (पुं०) पिस्ते का वृक्ष । अोलिका [अङ्क + उल+क+टाप् या अङ्क-पालिका ] आलिंगन । अङक्य (वि० ) [ अङ्क् + ण्यत्] चिह्नित, लाञ्छित । अङ्ख (चुर० पर० अक० ) [ अङ्खयति-अडित] रोकना, सरकना। अङ्ग (भ्वा० पर० अक० ) जाना, चलना, चक्कर काटना, चिह्न लगाना । अङ्ग (अव्य) [ अङ्ग+अच्] संबोधन अव्यय जिसका अर्थ है। 'अच्छा', ०श्रेष्ठ, ०उत्तम, ० श्रीमन, ०निःसन्देह । (जयो० २४/१३३) अङ्गसंबोहनेऽसंख्यं पुनरर्थप्रमोदयोः इति विश्वलोचन: निजशक्त्याङ्गरनुयोगमयम्। (जयो० २४ / १३३) अङ्गस्य स्वशरीरस्यानुयोगमयम्। अङ्गा हे भद्र (जयो० २ / १२९) १३ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अङ्गणं अङ्गं (नपुं०) ०शरीर, देह, ०शरीर का हिस्सा, ०भाग । (सुद० १२२), चतुराख्यानेष्वभ्यनुयोक्त्रीं भास्वङ्गतामिह भावय । (सुद० १२२) जिनवाणी चार अनुयोगों और द्वादश अङ्गों को धारण करती है। चतुर आख्यानों को बना देती है। ० प्रणाली ०पद्धति ०बिचार आख्यान । अङ्गं (नपुं०) उपाय। (जयो० ३/४०) अङ्गान्यनङ्गरम्याणि । (जयो० ३ / ४० ) अङ्गमुपायस्ततोऽनङ्गरम्याणि । (जयो० वृ० ३/४० ) अङ्गं (नपुं०) प्रबन्ध । अङ्गागम ग्रन्थ, द्वादशाङ्ग सूत्र, आचारांग, सूत्रकृतांग आदि ग्रन्थ । ०सूत्र ग्रन्थ षट्खंडागम आदि । अङ्गं (नपुं० ) ० अवयव, ०गुण, ०एक दार्शनिक शब्द जिसके गुण-गुणी की विशेषता को स्पष्ट किया जाता है। (जयो० २६/८१) अङ्गः (पुं०) अङ्गदेश (सुद० १/१५) अङ्गं (नपुं०) सर्वाङ्ग, पूर्णाङ्ग (सुद०२ / १९) अङ्गोऽङ्गिभावसाद्य । (सुद० वृ० १२८) स्पष्टं सुधासिक्तमिवाङ्गम्। (सुद०२/१९) अङ्गक (वि०) अवयव विशेष वाले, १७/१७) अङ्गक (नपुं०) शरीर, देह । लाति त्यजति चाङ्गकम्। (सुद० ४/८) अङ्गगत (वि०) शरीरगत, देहजन्य। किलकिलाटवदङ्गगतं। (जयो० २४/१३७) अङ्गघूर्णा ( स्त्री०) बावड़ी, वापी, सीढ़ीदार कुआ । (जयो० ८/४२) यशः समारब्धपरागघूर्णा स्म राजते सा समुदङ्गघूर्णा । (जयो० ८/४२) अङ्गज (वि०) शरीर से उत्पन्न हुआ, शरीर संभव। (जयो० १/४०) तदङ्गजा तच्छरीरसंभवा । (सुद० ३/१), (समु० ३/६) (जयो० १/४०) अङ्गज: (पुं०) सुत, पुत्र । स्थितिर्विनाङ्गजेनेति सतामियं मिति । (जयो० २ / १२४) शिरोमणि गृहस्थ की बिना पुत्र के बुरी स्थिति होती है। अङ्गजनुस (पु० ) प्रेम, काम, विषय-वासना । अङ्गजन्मन् (नपुं०) शरीर उत्पन्न, देहजन्म। (सुद० ३/८) अङ्गजा ( स्त्री०) पुत्री, सुता, धूया, लड़की । अङ्गजा (वि०) शरीरगत, ०देह से उत्पन्न हुआ । ०शारीरिक, ० सुन्दर, अलङ्कृत । अङ्गणं (नपुं०) मण्डपलक्षण, आंगन । टहलने का स्थान । चतुष्कपूरणे स्त्रीभिः प्रयुक्तानि यदङ्गणे । (जयो० १० / ९१ ) स्वच्छे यस्याङ्गणेऽधुना । (जयो० १०/९२) स्वच्छेऽङ्गणे पारदर्शक प्रस्तररचिते । (जयो० वृ० १० / ९२ ) For Private and Personal Use Only Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अङ्गतिः १४ अङ्गारिका अङ्गतिः (स्त्री०) यान, सवारी। अङ्गविधिः (पुं०) शरीर क्रिया। अङ्गदः (पुं०) अङ्गद राजा। (जयो० ७/८७) अङ्गवीरः (पुं०) नायक, प्रधान। अङ्गदं [अंग दायति धति वा] आभूषण विशेष, भुजा में पहनने अङ्गस् (पुं०) [अ +असुन्-कुत्वम्] पक्षी। का आभूषण। ०बाजूवंद: बाहु का अलंकरण। अङ्गसंस्कारः (पुं०) शरीर क्रिया, देहालंकरण। अङ्गदेशाधिपतिः (पुं०) अङ्गदेश का राजा। (जयो० ६/५१) अङ्गसंहतिः (स्त्री०) अङ्गशक्ति, शारीरिक बल। अङ्गना (स्त्री०) [प्रशस्तं अङ्ग अस्ति यस्याः , अङ्ग+न+टाप्] | अङ्गसंपर्कः (पुं०) संभोग, आलिङ्गन। ०देह लीला, ०मैथुन। स्त्री, वनिता, रमणी। (सुद० १० ८३) जीवन संगिनी। | अङ्गसंसर्गः (पुं०) अङ्गसङ्ग, अङ्गसंपर्क, मैथुन, संभोग। अङ्गनानुकरणप्रतिपत्तेः। (जयो० ४/३४) अङ्गस्पर्श, शरीरालिंगन। (जयो० १३/९०) अङ्गनाकुलं (नपुं०) स्त्री समूह। (जयो० १३/३८) असारः (पुं०) शरीरप्रभा, देहकान्ति। (वीरो० १/३) अङ्गन्यासः (पुं०) अङ्गस्पर्श, मन्त्र द्वारा शरीर स्पर्श। अङ्गसेवकः (पुं०) निजी भृत्य। ०अंग रक्षक। अङ्गपालिः (स्त्री) रेखा परम्परा, आलिंगन। (जयो० २३/२५) | अङ्गस्थ (वि०) शरीरस्थ, देहजन्य। (भक्ति सं० पृ० ३०) ___ कुलैस्तमालीभवदङ्कपाली (जयो० २३/२५) अङ्गस्फालन (वि०) अङ्गविक्षेप, स्फीत्कर, अङ्गस्फुरण, शरीर अङ्गभागः (पुं०) अङ्गाश, शरीर भाग। (सुद० १०१) प्रयुक्तये स्पंदन। (जयो० वृ० २७/१८) __साम्प्रतमङ्गभागः। (सुद० १०१) अङ्गाख्यः (पुं०) आचारांग आदि अंग आगम (वीरो० २२/६) अङ्गभूः (पुं०) पुत्र, कामदेव। (सुद० ४/९) शरीर सम्बंधी निरुपण। अङ्गमन्त्रं (नपुं०) शरीर मन्त्र। अङ्गाङ्गः (पुं०) शरीर, देश। अङ्गेति मृदु-भाषणे। (जयो० १५/१६) अङ्गमतिः (वि०) एकादश वेत्ता मसकपूरण यति। (जयो० २३/८७) अङ्गाङ्गिन् (नपुं०) शरीर और आत्मा। अङ्गाङ्गिनारेकयनुदेऽथ अङ्गमर्दः (पुं०) देहमर्दन, मालिश। उपटन, संबाहन। घाणी। (समु० १/५) अङ्गमर्दिन् (पुं०) मालिश। अङ्गातिग (वि०) अंगवर्जित, शरीर रहित। (जयो० २/१५७) अङ्गमर्षः (पुं०) गठिया रोग। गांठ देहागत मस्सा। अङ्गातीत (वि०) आत्मीय, निजीय, स्वकीय। (जयो० वृ० अङ्गरक्षकः (पुं०) सेवक, व्यक्तिगत सेवक, शरीर रक्षक। ११/१००) अङ्गरक्षणं (नपुं०) किसी व्यक्ति की रक्षा। अङ्गाधिपतिः (पुं०) अङ्गदेशाधिपति। (जयो० ६/५१) अंग अङ्गरक्षणी (स्त्री०) कवच, पोशाक। देश का राजा। अङ्गरागः (पुं०) सुगन्धित लेप। (जयो० १४/६४) अङ्गाभिधानः (पुं०) अङ्गदेश (सुद० १/१५) अङ्गरागी (पुं०) प्रियतम। (जयो० २३/८९) ललनाऽऽलिङ्गन- अङ्गान्तरितं (नपुं०) एक्सरे यंत्र (वीरो० २०/८) मगरागिणा। अङ्गायित (वि०) अङ्गगत। (सम्य०५८) अङ्गलता (स्त्री०) शरीर वल्लरी। प्रागेवाङ्गतायाः पल्लविता। अङ्गारः (वि०) अङ्गार, बह्निस्फुलिङ्ग। (जयो० ६/५१) (जयो० १/९१) अङ्गारं (नपुं०) अङ्गार, अग्निखण्ड। अङ्गवत् (वि०) प्राणिजन्य (सुद०४/३०) अङ्गारकः (पुं०) [अङ्गार+स्वार्थेकन्] कोयला। अङ्गवत्त (वि०) आत्मीय भाव, निजभाव। अङ्गारकं (नपुं०) बह्निकण। (जयो० १६/२४) अङ्गवान् (वि०) अङ्गवाला, शरीर युक्त। मृदु-चन्दन- चर्चितङ्ग- अङ्गारकभावः (पुं०) वह्निकणभाव। अङ्गारकाणां वह्निकणानां वानपि। (सुद०३/७) भावः। (जयो० १६/२४) अङ्गविकल (वि०) अपाहिज, पङ्गः मूर्छित, अङ्गशून्य। अङ्गारकित (वि०) [अङ्गारक्+इतच्] झुलसा हुआ, भुना हुआ। अङ्गविकृतिः (स्त्री०) अवसाद, शरीर विकार, मिरगी। अङ्गारतुल्य (वि०) अंगारे के समान। (वीरो० ६/२७) अङ्गविकारः (पुं०) शारीरिक दोष, देहकष्ट।। अङ्गारिः (स्त्री०) [अङ्गार-मत्वर्थेठन् पृषो-कलोप] अंगीठी, अङ्गविक्षेपः (पुं०) अङ्गसंचलन, शरीर गति, देहचेष्टा। कांगड़ी। अङ्गविद्या (स्त्री०) शरीर सम्बन्धी शास्त्र। काय चिकित्सा, | अङ्गारिका (स्त्री०)[अङ्गार-मत्वर्थे ठन्-कप्-च] अंगीठी, अष्टांग क्रिया सम्बंधी ग्रन्थ। हसन्ती, कांगड़ी। (जयो० २२/८) For Private and Personal Use Only Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अङ्गारिका अचल: अङ्गारिका (स्त्री०) अंगारे, स्फुलिंग। (वीरो० ९/२४) अङ्गीकारक (वि०) धारण करने वाला, ग्रहण करने वाला। अङ्गारित (वि०) [अङ्गार+इतच्] अध जला, झुलसा हुआ। (जयो० वृ० १०/८०) अङ्गारितः (पुं०) पलाश-कली, लता। अलि: (स्त्री०) [अंग+उलि] अंगुली जयोदयकार ने 'पञ्चशाखः' अडारीय (वि०) [अङ्गार छ] कोयला तैयार करने की सामग्री। नाम दिया है। पांच अंगुलियों वाला हाथ। पञ्चशाखा अङ्गिका (स्त्री०) चोली, अंगिया। अङ्गलियो यस्य स हस्तः। (जयो० वृ० १/५१) अंगुष्ठ, अङ्गिन् (वि०) अवयवी, गुणी, एक दार्शनिक दृष्टि, जिसमें तर्जनी, मध्यमा, अनामिका और कनिष्ठा (सुद० ३/२४) गुण-गुणी दोनों का महत्त्व होता है। अवयव के बिना अङ्गली (स्त्री०) अंगुली, पञ्चशाखा। अवयवी/गुणी और अवयवी/गुणी/अङ्गि के बिना अवयव/ अङ्गुलीमूल (नपुं०) नख, नाखून। (वीरो० १/८) अङ्ग/गुण भी संभव नहीं। (जयो० २६/८१) जैसे सौ पत्रों/ गीयकं (नपुं०) अंगूठीसहित। (जय०वृ० १०/४७) कलिकाओं का समूह शतपत्र कहलाता है। यहाँ सौ पत्रों अङ्गसह (वि०) अङ्ग में उत्पन्न, शरीर जय। (सुद० २/४१) और कमल में भेद नहीं है-अभेद है, क्योंकि एक-एक अष्ठः [अंग-स्था+ल] अंगठा। (जयो० ११/१९, १/५७), पत्र के पृथक् करने पर शतपत्र/कमल ही नष्ट हो जाता अङ्गष्ठनिगूढ (वि०) अंगुष्ठ से हाथ दिया। (जय०१२/९९) है। यही बात गुण और गुणी में भी है। प्रदेश भेद न होने अङ्गष्ठाङ्ग (वि०) अंगूठे का अग्रभाग। (जयो० ६/४८) से गुण में अभेद है, क्योंकि गुणों के कष्ट होने पर गुणी अड़े रुह (वि०) अङ्ग में उत्पन्न, शरीर जन्य। (सुद० २/४१) भी नष्ट हो जाता है। अङ्घि -अह्निः [अङघ्र असुन्] पैर, चरण, पाद। (जयो० अङ्गिन् (पुं०) प्राणी, जीव। (जयो० २/१३४) (सुद० ४/४१) ५/१००) घृणाङ्घृिणाधारि। (जयो० १/४७) कौतुकात् किल निरागसोऽङ्गिनः। (जयो० २/१३४) अङ्गिनो अङ्घिचाल (पुं०) पादविक्षेप, चरण गति। (जयो० ८/१४) जीवान् (जयो० वृ०२/१३४) अङ्गिनां प्राणीनां कष्टम्। अङ्घ्रिदासिका (स्त्री०) चरणोर्दासिका, सेविका। (जय०) (जयो० वृ० २/९९) अङ्घ्रिपः (पुं०) वृक्ष, तरु। (जयो० ४/२२) वायुनाघ्रिप अङ्गिन् (पुं०) पुरुष। अङ्गिनः पुरुषान्। (जयो० ३/७४) __ इवायमपापः। (जयो० ४/२२) अङ्घिय इव वृक्ष इव। अङ्गिजन (वि०) प्राणिवर्ग, जनसमूह। (जयो० १/९०) प्राणिवर्गाय | अङ्घ्रिपद्म (नपुं०) चरण कमल (जयो० १९/१८) जनशब्दोऽत्र समूहवाचकः। (जयो० वृ० १/९८) अच् (भ्वा०उभइदित-अक०) [अचति, अञ्चित, अञ्चन] अङ्गिमात्र (वि०) प्राणिमात्र। (सुद० ४/३५) सौहार्दमणिमात्रे तु जाना, हिलना, विनर्तन करना, सम्मान करना, प्रार्थना क्लिष्टे कारुण्यमुत्सवम्। (सुद० १/९८) करना, ०पहुंचना, प्राप्त करना। (जयो० ४/३४) अङ्गिना (वि०) संसारिणा, संसारगत। (वीरो० १/९) ०संसारस्थ, | अच् (पुं०) अच् प्रत्याहार, अ, इ उ, ऋ, लु, ए, ओ। प्राणि वर्ग युक्त। अचक्षुस् (वि०) नेत्रहीन, अन्धा। अङ्गिरः (पुं०) [अङ्ग अस्+इरुद] नाम विशेष। अचक्षुस् (वि०) ०अदृश्य, अदर्शनीय। रोग विशेष। ०अंधापन, अङ्गी (वि०) शरीरधारी, देहधारी। (जयो० २७/२) विमूढ, विमोह। अङ्गीकृ [अङ्ग+च्चि कृ०सक०] अंगीकार करना। अङ्गीकरोति अचङ्ग (वि०) विचारहीन, निर्विचार। (जयो० २७/५७) सम्भवता रसेन। अङ्गीकरोति किल सम्भवता रसेन। (जयो० अचण्ड (वि०) शान्त, क्षमाशील, सौम्य। १८/३२) (वीरो० २२/३५) अङ्गीकुर्यात् अचतुर (वि०) अनपढ़, अनाड़ी। अङ्गीकृतः (वि०) स्वीकृत, प्रतिज्ञ। (दयो० ५५) (सुद० अचर (वि०) स्थिर, दृढ़, अचल। १/१७) अचरः (पुं) स्थावर जीव। (१/५४) सुरुचिरा विचरन्ति चरा चरे। अङ्गीकृत्य-समेत्य स्वीकार करके। (जयो० वृ० १/५५) अचल (वि०) निश्चल, दृढ., निश्चल, निश्चित, स्थायी। अङ्गीकृतवती (वि०) स्वीकृतवती, स्वीकार की जाने वाली। (जयो० १/९४) यतिपतेरचलादर दामरे। ___ (जयो० वृ० ११/२) अचलः (पुं०) अचल पर्वत। स एवाचलः पर्वतः। (जयो० अङ्गीकरणं (नपुं०) स्वीकृति, सहमति। (दयो० ६७) ३/१९) सुमेरु। अङ्गीकरणयोग्यः (पुं०) स्वीकार करने योग्य। (दयो०६७) | अचलः (पुं०) अचल नामक नवां गणधर। (वीरो० १४/१०) For Private and Personal Use Only Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अचल: अजड अचलः (पुं०) द्वितीय बलदेव, षष्ठरूद्र, ०भरतक्षेत्र का एक नाम, पश्चिम धातकीखण्ड का मेरु। अचलः (पुं०) काल प्रमाण। अचलज (वि०) पर्वत से उत्पन्न। अचलत्व (वि०) दृढ़त्व, स्थायित्व। (वीरो० ३/२) अचलदेवी (स्त्री०) मन्त्री चन्द्रमौलि की भार्या। नामतोऽचलदेवी या बभूव दृढ़धार्मिका (वीरो० १५/४१) अचलाल्मः (पुं०) काल का प्रमाण। अचलावली (स्त्री०) [नञ्+चित्+क्विप्] ०अचेतन, जड़, धर्मशून्य, शक्तिहीन। चिदचित्प्रभेदात्। (जयो० २६/९२) अचिज्जडात्मकमिति प्रभेदाद्। (जयो० २४/१२) ०रूपी पदार्थ, निजीव। अचित (वि०) गया हुआ, समाप्त हुआ, ०अविचरित, ___ अकल्पनीय; ०बुद्धिरहित, ०अज्ञान, मूर्ख। अचित्तः (पुं०) योनि विशेष। अचिन्तनीय (वि०) [नञ्+चिन्त्+अनीयर, चित्+यत्] जो सोचा न जा सके, अकल्पनीय, अविचारित। (सुद० १०७) अचिन्त्य (वि०) अविचारित, अकल्पनीय। (समु० १/३२) व्यापारकार्यार्थमचिन्त्य। अचिन्त्यधामः (पुं०) अपूर्वनाम, अनुपम नाम। (समु० १/३२) अचिन्त्यप्रभावः (पुं०) अप्रत्याशित, आकस्मिक। अचिर (वि०) क्षणस्थायी, क्षणिक, शीघ्रता (सुद० पृ० १००) अचिरात् (अव्य) शीघ्रमेव, जल्दी, तुरन्त। सुरम्यमर्ककीर्तिम चिरादुपगम्य। (जयो० ४/१) । अचेतन (वि०) निर्जीव, पुद्गल। अचेतनं भस्म सुधादिकन्तु। (वीरो० ९९/२८) अचेनं (नपुं०) अचेतन, निर्जीव। अचेलकः (पुं०) निर्ग्रन्थ, दिगम्बर। अचेलकत्व (वि०) बाह्य और आभ्यन्तर दोनों ही परिग्रह से मुक्त। अच्छ (वि०) [नञ्+छो+क] स्वच्छ, निर्मल, पारदर्शक। न विद्यते छाया यस्याः सा, अच्छो निर्मलः अयो भाग्यं यस्याः सा। (जयो० १४/४वृ० ) छाया सूर्यप्रिया कान्ति प्रतिबिम्बमनातपः इत्यमरः। अच्छः (पुं०) भालू, रीछ, स्फटिक, ०असूर्य। (जयो० २३/१) अच्छता (वि०) स्फटिकरूपता। अच्छन्दस् (वि०) अक्षत, निर्दोष। अच्छल (वि०) छलरहित (वीरो० ९/५७) अच्छिद्र (वि०) अक्षत, निर्दोष, दोषरहित। अच्छिन्न (वि०) अटूट, अविभक्त। अच्छोटनम् (नञ्-छुट+णिच्+ल्युट) आखेट, शिकार। अच्युत (वि०) ०दृढ़, ०देव विशेष। स्थिर, निश्चल, अचल, निर्विकार। अच्युतः (पुं०) प्रभु, नायक, इन्द्र। (दयो० पृ० २८) अच्युतेन्द्रः (पुं०) स्वर्ग नाम। (क्षीरो०११/३६) अच्युतेन्द्रः (पुं०) देव नाम। (दयो० पृ० २८) अचौर्यमहाव्रतं (नपुं०) अचौर्यमहाव्रत, साधु का एक निरपेक्ष व्रत। (मुनि० पृ० ३) अचौर्यमहाव्रत की भावना-शून्यागारावास, विमोचित्तावास, परोपरोधाकरण, भैक्ष्यशुद्धि और सधर्म विसंवाद। अज् (भ्वा०पर०अक०) अजितुम्। ०जाना, हाँकना, गमन करना। अज (वि०) [न जायते नञ् जन+ड] अजन्मा, अनादि। अजः (पुं०) परमात्मा, परब्रह्म। (जयो० १९/९२) अजस्य नाम परमात्मनोऽनुभावको भवन्। (जाये०१९/९२) अज का नाम परमात्मा और अनुभावक दोनों हैं। अकार नाम का वर्ण/अक्षर प्रथम और जकार नाम का वर्ण अन्तिम इस तरह अज शब्द निष्पन्न हुआ। यह 'अज' परमात्मा और परब्रह्म का वाचक है। इसी तरह अट्ठाइसवें सर्ग में 'अज' शब्द का विश्लेषण इस प्रकार किया है-'अकारेण शिष्टं प्रारब्धोच्चारणम् अन्त्येभवोऽन्त्यो जकारो यस्य जं' 'अजं' परमात्मरूपम्। (जयो० वृ० २८/२०) अजः (पुं०) आत्मा। (जयो० ६/७४) निजतेजसाऽजसाक्षी (जंयो० ६/७४) 'अज' आत्मेव साक्षी यस्य स आत्म प्राणवान्। (जयो० वृ० ६/७४) शिव। अजः (पुं०) १. मेंढा, बकरा, मेषराशि। (जयो० ११/८२) २. चन्द्रमा, कामदेव। अजः (पुं०) ०स्थान नाम, अजमेर का नाम, ०अजयमेरू, अज उपाधि विशेष। अजः (पुं०) सौभाग्य, सुहाग। (जयो० ६/७४) अजकवः (पुं०) शिव धनुष। अजका (स्त्री०) छोटी बकरी, मेमना। अजकावः (पुं०) [अजं विष्णु कं ब्राह्मणाम् अवति-वा-क] शिवधनुषा अजगरः (पुं०) अजगर सर्प, वालव। (जयो० १३/४५) वालवस्याजगरस्य। (जयो० वृ० १३/४५) अजड (वि०) विज्ञ, समझदार, चिन्तनशील। (जयो० १/४१) समुद्रोऽप्यजडस्वभावात्। प्रज्ञाशील, ज्ञानी, बुद्धिमान्। For Private and Personal Use Only Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अजडप्रकृतिः १७ अजिनः ४/३) अजडप्रकृतिः (स्त्री) विज्ञस्वभाव। अजा (स्त्री०) [नञ्+जन्+ड+टाप्] सांख्यदर्शन द्वारा मान्य अजडभावः (पुं०) प्रज्ञाभाव, ज्ञानभाव। प्रकृति या माया। अजड-मतिः (स्त्री०) तीव्र बुद्धि, श्रेष्ठ बुद्धि, चिन्तनशीलमति। | अजागलस्तनः (पुं०) बकरियों के गले में लटकने वाला स्तन अजडस्वभावः (पुं०) १. नीरप्रकृति रहित, २. जलप्रकृति तुल्य थन। यह एक न्याय/तर्कशास्त्र का प्रचलित शब्द भी रहित। (जयो० १/४१) ०ज्ञान स्वभाव, प्रज्ञ स्वरूप, है, इसका उदाहरण किसी वस्तु की निरर्थकता सूचित आत्म परिणाम। करने के लिए दिया जाता है। अजडाशय (वि०) ०अजलाशय, ०अजड़ता रहित। (सुद० अजाजिः (स्त्री०) [अजेन आज: त्यागः यस्याम् अज+आज+इन] २४३) सफेद या काला जीरा। अजत्व (वि०) अमरत्व, (जयो० २७/३) अजात (वि०) ०अनुत्पन्न। न समझ, नानुमान्यमाना। (जयो० अजत्व-प्रकृतिः (स्त्री०) अमर स्वभाव, अमरभाव। (जयो० १४/९३) २७/३) अजातशत्रुः (पुं०) मगध का शासक। अजन (वि०) उत्पन्न, पैदा हुआ। (जयो० वृ० ३/९३) अजानती (वि०) अज्ञानी, मूढ, विज्ञहीन। अजन (वि०) निर्जन, जन विहीन, एकान्त, मनुष्यशून्य। अजानिः [नास्ति जाया यस्य-जायाया निङादेश:] विधुर, पत्नी अजन्मन् (वि०) अनुत्पन्न। विहीन। अजन्मन् (पुं०) परमानन्द, परपद। अजानिकः (पुं०) [अजेन जानो जीवनं यस्य ठन्] गडरिया, अजन्य (वि०) प्रतिकूल, अयोग्य। बकरियों का व्यापारी। अजंभः (पुं०) १. सूर्य, २. मेंढक। अजानुभविन् (वि०) अजर-अमर आत्मानुभव करने वाला। अजंभ (वि०) दन्तहीन, दशन-विहीन। (सुद० ४/३) अजानुभविनं दृष्टुं जानुजाधिपतिर्ययौ। (सुद० अजपक्षिन् (पुं०) कृष्णखग, गरुड़। (जयो० २८/२२) गरुडेन नामाजपक्षिणा कृष्णखगेन। (जयो० वृ० २८/२२) अजानेय (वि०) [अजेऽपि आनेयः-यथा-स्थान प्रापणीयः-इति अजपक्षिन् (पुं०) आत्मचिन्तक। अजपक्षिणा आत्मचिन्तकेन। अज्+अप्+आ+नी-यत्] उत्तम कुल वाला। (जयो० वृ० २८/२२) अजातपुत्रः (पुं०) छागल, बकरा। (दयो० ५७, जयो० २५/१२) अजपोक्त (वि०) जप रहित कथन। (जो०२८/४६) अजातपुत्र नाम विशेष, ०ऐतिहासिक पुरुष। अजमारी (वि०) अजमृत्यु, बकरा, बकरी की अपमृत्यु। अजित (वि०) [नञ्+जित+क्त] अजेय, अपराजिय, न जीता (जयो० १९/७९) हुआ, अनियन्त्रित। अजय (वि०) अजेय, अपराजित। अजितः (पुं०) अजितनाथ, जैनधर्म के चौबीस तीर्थंकरों में अजयः (पुं०) नाम विशेष। ___द्वितीय तीर्थंकर अजितप्रभु। (भक्ति सं० १८) अजयः (पुं०) पराजय। अजायबघरं (नपुं०) अजायबघर 'इति देशभाषायाम्' अजय्य (वि०) [नञ्+जि+यत्] जो जीता न जा सके। विचित्रवस्तुगेह। (जयो० १८/४९) अजर (वि०) जरारहित, बुढ़ापाहीन। (जयो० १३/३९) अजितेन्द्रियत (वि०) वशेन्द्रियत्व (वीरो० १६/१५) अजर (वि०) अनश्वर, (वीरो० १४/४१) जन्म-मृत्यु रहित। अजितंजयः (पुं०) मगध राजा। अजरः (वि०) देव, देवता, अमर। (वीरो० १८/४१) अजितंधरः (पुं०) अष्ठम रुद्र। अजयः (वि०) [नञ्+~+ यत्] अभिहित, अध्याहत। अजितसेन: (पुं०) राजा अजितंजय का पुत्र। अजवप्रम् (नपुं०) छागशरीर (जयो० २२/३१) अजिनं [अज्+ इनच्] वाघ। अजसाक्ष (वि०) आत्मप्रमाणपूर्वक। (जयो० ६/७४) अजिनः (पुं०) महादेव, चमैवाजिन चर्मकं येन, तस्मै अजस्र (वि.) [नञ्। जस्+र] अविच्छिन्न, निरन्तर। लब्धाजिनचर्मकाय महादेवनामकाय। (जयो० वृ० १९/२२) अजस्रं (अव्य) सदा, अनवरत, लगातार। (सम्य० ११५) देवाधिदेवाय नमो जिनाय न किन्तु लब्धाजिनचर्मकाय। अजा (स्त्री०) बकरी, छाली। (जयो० ११/८२) (जयो० १९/२२) देवाधिदेव ऋषभ का महादेव के साथ For Private and Personal Use Only Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अजिनं १८ अज्ञानिन् नाम सादृश्य होने पर उन्हें नमस्कार किया है, किन्तु जो भवतां खलु भाग्यान्नि:स्वागतगणना अपि चाज्ञाः। (जयो० अजिन/चर्म को धारण करने वाले हैं, उन महादेव को १२/१४३) मेरा नमस्कार है। अज्ञता (वि०) मूखर्ता, अज्ञानता। (जयो० २/४५) अज्ञता हि अजिनं (नपुं०) १. चर्म। (जयो० १९/२२) चमड़े की धौकनी। जगतो विशोधने। (जयो० २/४५) अपने घर की जानकारी अजिनपत्री (स्त्री०) चमगादड़। न रखते हुए दुनिया को खोजना अज्ञता ही होगी। अजिनयोनिः (पुं०) हिरण, मृग। स्वगृहाचारज्ञानाभावे जगत: संसारस्य विशोधनेऽन्वेषणेऽज्ञतैव अजिनवासिन् (वि०) मृगचर्मधारी। मूढतैव स्यात्। (जयो० २/४५) अजिर (वि०) [अज्+ किरन्] शीघ्रगामी, स्फूर्तिवान्। अज्ञाङ्गजः (पुं०) अज्ञानी का पुत्र, मूर्ख व्यक्ति का पुत्र। अजिरं (नपुं०) आंगन। (वीरो० १७/३३) भो सज्जना विज्ञतुतज्ञ एवमज्ञाङ्गजो अजिरं (नपुं०) शरीर, देह। यत्नवशाज्ज्ञदेवः। (वीरो० १७/३५) विद्वान् पुरुष का लड़का अजिला (स्त्री०) शोभा। (जयो० वृ० ५/१०७) अज्ञ देखा जाता है और अज्ञानी पुरुष का लड़का विद्वान् अजिह्य (वि०) सीधा, सरल, देखा जाता है। अजिह्यः (पुं०) मेंढक, दुर्दर। अज्ञात (वि०) आज्ञा प्राप्त वाला। अज्ञातोऽपि न अजिह्वः (पुं०) मेंढक, दर्दुर। दातृदेहमृदुताद्यालोकने व्याकुलः। (मुनि०१०) आज्ञा प्राप्त अजीर्णं (नपु०) अपचन, न पचा हुआ। (दयो० ८०) होने पर भी दाता के शरीर की कोमलता आदि के देखने अजीर्ण (वि०) नया, नूतन। में व्याकुल न हो। अजीर्ण (नपुं०) अपच। अज्ञात (वि०) मद/प्रमाद बिना जाने प्रवृत्ति करना। अजीर्णिः (स्त्री०) [नञ!+~+क्तिन्] मन्दाग्नि, शक्तिक्षय। अज्ञान (नपुं०) अज्ञान, अनजान। (वीरो० १६/२६) अजीव (वि०) निर्जीव, जीव रहित। (वीरो० १९/३०) यदज्ञानतोऽतर्व्यवस्तु प्रशस्तिः । अज्ञान से कुतर्क करके अजीवः (पुं०) पुद्गल, अचेतन, अचित्त। अजीव/पुद्गल निंद्य वस्तु को उत्तम बताना। द्रव्य-पुदगल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल ये पांच अज्ञान (वि०) अनजान, अनभिज्ञ न समझी। अचेतन द्रव्य हैं इन्हें अजीव या पुद्गलद्रव्य कहते हैं। जो अज्ञानं (नपुं०) अज्ञान, ०वस्तु तत्त्व में विपरीतता ०कुमति, न जीवति, जीविस्यति न वा जीवितः सो अजीव:। अजीव कुश्रुत और कुअविध ये तीन अज्ञान है। जैन सिद्धान्त में पुद्गल द्रव्य रूप, रस, गन्ध और स्पर्शयुक्त हैं, इसे ग्रन्थों में अज्ञान के दो अर्थ किए गए हैं-१. ज्ञान का रूपी/मूर्त भी कहा जाता है। धर्म, अधर्म, आकाश और अभाव और २. मिथ्याज्ञान-कुमति, कुश्रुत और कुअवधि काल अरूपी/अमूर्त द्रव्य हैं। चेतना च यत्र नास्ति स है। मिथ्यात्व सहित ज्ञान को ही ज्ञान का कार्य नहीं करने भवत्यजीव इति विज्ञेयम्। (द्रव्य सं० टी०१५/५०) से अज्ञान कहा जाता है। नित्यानित्य विकल्पों से विचार अजीवभावः (पुं०) अचित्तभाव। (वीरो० १९/३०) करने पर जीवाजीवादि पदार्थ नहीं हैं, अतएव सब अज्ञान अजीवनिः (स्त्री०) [न+जीव+अनि] मृत्यु, जीवपने का अभाव। अज्झलं (नपुं०) ढाल, जलता हुआ कोयला। अज्ञान-अतिचारः (पुं०) अज्ञान दोष, अज्ञ जीवों के आचरण अज्ञ (वि०) [नञ्+ज्ञा+क] मूर्ख, अज्ञानी, ०अनुभवहीन, की तरह आचरण। ज्ञानरहित, नहीं जानने वाला। (जयो० १२/१४३, अज्ञान-स्थानं (नपुं०) अज्ञान का कारण। भक्ति०सं० २७, सुद० पृ० ११०, वीरो० १६/१) अज्ञोऽपि अज्ञानपरिषहः (पुं०) जैन सिद्धान्त को प्रतिपादित बाईस विज्ञो। (वीरो० १६/१) शत्रुश्च मित्रं च न कोऽपि लोके परिषहों में एक अज्ञान परिषह भी होता है। मे अद्यापि हृष्यज्जनोऽज्ञो निपतेच्च शोके। (सुद० ११०) अज्ञानी ज्ञातातिशयो नोत्पद्यत इति। मुझे आज भी ज्ञान का अतिशय मनुष्य व्यर्थ ही किसी को मित्र मानकर कभी हर्षित होता नहीं उत्पन्न हुआ है। है और कभी किसी को शत्रु मानकर शोक में गिरता है। अज्ञानमयी (वि०) अज्ञानयुक्त। (हित०सं० वृ० ५८) अज्ञः (पुं०) अज्ञान, अनभिज्ञ (जयो० १२/१४३) स्वागतमिह । अज्ञानिन् (वि०) अज्ञानी। (भक्ति ३८) For Private and Personal Use Only Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org अज्ञानिता अज्ञानता (वि०) अज्ञानभाव वाला ( भक्ति०३८) अतोऽधुना हे निजप । त्वदग्रे प्रमादनोऽज्ञानितया समग्रे। हे जिनेन्द्र ! प्रमाद से अज्ञानभाव वाला हूँ। अञ्च् (भ्वा०उभ० सक० ) [ अजति अञ्चितुम् अञ्चेत् ] स्वीकार करना, झुकना, हिलना। (जयो० ४ / २८ ) सत्तनुननु परं जनयेत्। अञ्च् (सक० ) ०प्राप्त होना, ०बन जाना। ० योग्य स्थान को पाना पहुंचना, लोहोऽथ पार्श्वद्दषदाऽञ्चति हे महत्सत्त्वम् । (सुद० ४/३०) पारस पाषाण का योग पाकर लोहा भी सोना बन जाता है। स्वच्छत्वमञ्चेदिति भावनालः। ( २/४८) मन्दत्वमञ्चत्पदपङ्कजा वा। (वीरो० ६ / २) अञ्च् (सक०) प्रार्थना करना, इच्छा करना, पूजा करना, भक्ति करना । आत्मीयमञ्वेदथसन्निधानम्। (भक्ति सं० २५, १९) अञ्च् (सक०) ढकना, आच्छादित करना। (सुद० वृ० ८५) अञ्चता (वि०) प्राप्त करने वाला। भूतले तिलकतामुताञ्चताम्। (जयो० २ / ४६ ) अञ्चन (नपुं०) पूजन, अर्चन, प्रार्थना। धर्मं च शन्तिं खलु कुन्थुमञ्चन्नरं च मल्लिं मुनिसुव्रतं च । (भक्ति १९ ) अञ्चन् (वि०) प्राप्त होने वाला। (सुद० ७९) सारोमाञ्चनतस्त्वं भो मारो। कर स्पर्श से रोमाञ्च को प्राप्त हुई। अञ्चनं (नपुं) निवर्तन) (जयो० ४/२६) परिफुल्लोलपाञ्चनेनासीद्यासा (जयो० ४ / २६) पुष्पित लताग्र को नीचा करने का प्रयत्न कर रही थी। . (सुद० अञ्चनं (नपुं०) रोमाञ्चन्, हर्ष, प्रमोद । दर्शनादञ्चनैः प्रमोद रोमाञ्चैः कृत्वा (जयो० ३/३४) अञ्चल (वि०) निश्चल, स्थिर। (जयो० ५ / १५ ) अञ्चल: (अञ्च्+अलच्) पल्लू, किनारा, गोट, झालर, वस्त्र का छोर, कोना। गृहिणोऽखिलाञ्चलाः । (जयो० २ / १९ ) गृहस्थी के चारों पल्ले कीचड़ में हैं। अञ्चलपाकः (पुं०) अञ्चल की स्थिति। (जयो० ५/१५) अञ्चलवान्तभाग (पुं०) वस्त्र प्रान्त । उभयोः शुभयोगाकृत्प्रबन्धः समभूदञ्चलयान्तभाग-बन्धः (जयो० १२/६३) दोनों का शुभयोग कृत प्रबन्ध हुआ और आपस में वस्त्र का गठबन्धन भी किया गया। अञ्चित (भूतकालिक कृदन्त ) [ अञ्+क्त] पूजित, अर्चित, सम्मानित अलंकृत पल्लवैरभितवैरथाञ्चिताः (जयो० ३/९) अञ्चित (वि०) युक्त, व्यवस्थित, उचित। निर्णयाञ्चिता (जयो० २/५) (जयो० ० ३ / ९) १९ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अज्जरीङ्गित अञ्चित (वि०) धनुषाकार टेढ़ा, सुन्दर सुलसद्धार पयोधराञ्चिताम् (सुद० ५०) स्तनमण्डल पर लटकता हुआ सुन्दर हार। । अञ्चित (वि०) आच्छादित आवृत्त कापि मञ्जुलता ऽञ्चिता । (सुद० वृ० ८५) सुन्दर वृक्ष किसी सुन्दर लता को ढकलेता है। अञ्जु (सक०) लेपना, रंगना, पोतना। अञ्जु (सक० ) ० चमकना, ०सम्मानित करना, ०सजाना, समारम्भ करना। अञ्जु (सक० ) ० स्पष्ट करना, ०प्रस्तुत करना, ०सजाना, ० समारम्भ करना। अञ्जञ्जनः (पुं०) सानत्कुमार स्वर्ग का प्रथम पटल | अञ्जनं (नपुं०) कज्जल, सुरमा । तस्याः दृशोश्चञ्चलयोस्तथाऽन्याऽञ्जनं चकरातिशितं वदान्या । (वीरो० ५ / १२) चञ्चल नेत्रों में अत्यन्त काला अञ्जन । अञ्जनं जयति रूपसम्पदि । (जयो० ११ / ९६) अञ्जनगिरि: (पुं०) अञ्जनगिरिः, अञ्जन गिरि नामक पर्वत ॥ नन्दीश्वरद्वीप की पूर्वादि दिशाओं में ढोल के आकर के चार पर्वत हैं, उनमें अज्जनगिरि, अञ्जन के सदृश्य पर्वत है। अञ्जनचोर (पुं०) अज्जन नामक चोर (हित०सं० २८) यत्राञ्जन्स्तस्करादिजना: मुक्तिं गताः किल । निःशकित अंग में दृढ़ व्यक्ति, जिसने राजदण्ड के भय से नवकार मन्त्र का स्मरण किया। अञ्जनमूलः (पुं०) मानुषोत्तरपर्वत का एक कूट। अञ्जनमूलकः (पुं०) रुचक पर्वत पर स्थित कूट । अञ्जनराशि (स्त्री०) कज्जलपंक्ति (जयो० १०/३) अञ्जनवर : (पुं०) एक प्रमुख सागर, मध्यलोक के अन्त से १२वीं सागर व द्वीप। अञ्जनशैलः (पुं०) विदेहक्षेत्र का पर्वत, भद्रशाल वन में स्थित पर्वत, दिग्गजेन्द्र पर्वत । अज्जना (स्त्री०) महेन्द्रपुर के राजा महेन्द्र की पुत्री, पवनज्जय की भार्या और हनुमान की मातुश्री । अञ्जनौघः (पुं०) कञ्जलकुल । (वीरो० २/१२) अञ्जलिः (स्त्री०) कर युग सम्पुट, दोनों हाथ का कमल-कली रूप भाग। संहिताञ्जलिरहं किलाधुना (जयो० २/१) अञ्जलिपुटं (नपुं०) करसम्पुट । बद्धाञ्जलिः (दयो० वृ० ११६) अञ्जरीङ्गित (वि०) कर युगल सम्पुट वाला। (जयो० २०/८५) परमञ्जरीतिं विदधामि । (जयो० २०/८५) केवलमज्जरीङ्गितं स्वकीय- करपुटसंपुटम्। (जयो० वृ० २०/८५) For Private and Personal Use Only Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अञ्जस २० अत् अञ्जस (वि०) सीधा, सरल। अञ्जसा (अव्य०) सीधी तरह से, यथावत्, उचित, शीघ्र, त्वरित। अञ्जिष्ठः (पुं०) [अंज+इष्ठ्च] सूर्य, रवि। अजीरः (पुं०) अजीर फल। अजीरं (नपुं०) अञ्जीर फल। अट् (अक०) घूमना, परिभ्रमण करना, इधर-उधर जाना। अट (वि०) [अट्+अ] घूमने वाला। अटनं (नपुं०) [अट्+ल्युट] परिभ्रमण, हिण्डन। अटनिः (स्त्री०) [अट्+अनि] धनुष का सिरा। अटरुः (पुं०) वासक लता, अडूसा। अटविः (स्त्री०) जंगल, वन, अरण्य। अटविक (वि०) वनचारी। अटा (स्त्री०) [अट्+अ+टाप्] परिभ्रमण प्रवृत्तिः। अटूट (वि०) विशाल, अखण्ड। (वीरो० २/१२) ०हढ़ः शक्ति संपन्न अट्ट (अक०) कम करना, घटाना, घृणा करना। अट्ट (अक०) वध करना, अतिक्रमण करना। अट्ट (वि०) [अट्ट+अच्] ऊँचा, उन्नत, लगातार आने वाला, शुष्क, सूखा। अट्टः (पुं०) [अट्ट+घञ्] अटारी, ०कंगूरा, मीनार, दुर्ग, व्हाट, मण्डी, विशाल भवन, महल। अट्ट (पुं०) भोजन, भात। अट्टहास (पुं०) हंसी, ठहाका। अट्टालिका (स्त्री०)शृंगाग्र, उच्च, ऊँचा। उत्तुंग भवन, अट्टालिकोपरि (वि०) ऊँचे भाग, उन्नत भाग। (वीरो० २/४२) अट्टांगः (पुं०) एक प्रमाण विशेष। अण् (वि०) प्रत्याहार विशेष। आदि, अन्तिम और मध्यपाती अक्षरों को लेकर प्रत्याहार बनता है। 'अ इ उ ण' यहां अंतिम 'ण' इत् संज्ञक है। अण् (अक०) शब्द करना, सांस लेना, बोलना, जीना। अण (वि०) [अण्+अच्] बहुत छोटा, तुच्छ, ०नगण्य, ०अधम, ०ह्रास, कम, हीन, ०अल्प, लघु। अणक देखो अण। अणिः (स्त्री०) [अण+इन्] ०सूची अग्रभाग, कील की नोंक, ०धुरे की कील, कमल, अग्रदेश। (जयो० वृ० १८/३७) अणिका (वि०) लेशमात्र। (जयो० १७/९) अणिमन् (पुं०) [अण+इमनिच्] सूक्ष्मता, लघुता, एक दैवीशक्ति। अणिमा (स्त्री०) अणिमा ऋद्धि। अणु (वि०) [अण्+उन्] सूक्ष्म, वारीक, लघु, छोटा, ०परमाणु, पुद्गल का एक भेद। (भवेदणु-स्कन्धतया स एव) (वीरो० १९/३६) पुद्गल के अणु और और स्कन्ध के दो भेद हैं। अण्यन्ते शब्दयन्ते ये ते अणवः। जो परिणमन करते हैं और इसी रूप से शब्द के विषय होते हैं, वे अणु हैं। 'अणु' शब्द से प्रदेश भी लिया जाता है, जिसका आदि, मध्य और अन्त एक ही है। अणुक (वि०) अणुमात्र, अल्परूपक। न व्यापकं नाप्यणुकं भणामि। (जयो० २६/९५) शुचिवंशभवच्च वेणुकं बहुसम्भावनया करेऽणुकम्। (जयो० १०/२१) अणुमात्र (वि०) दार्शनिक विचार, कुछ लोग कथन करते हैं कि आत्मा समस्त ब्रह्माण्ड में व्याप्त है और कुछ का कहना है कि अणुमात्र है, अलात चक्र के समान समस्त शरीर में शीघ्रता से घूमता रहता है। अणुव्रतं (नपुं०) व्रत का एकांश, स्थूल पापों का त्याग, व्रत के एक अंश का त्याग। अणूनि लघूनि व्रतानि अणुव्रतानि। हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील और परिग्रह ये पांच पाप हैं, इनका एक अंश त्याग अणुव्रत है। स्थूलेभ्यः पापेभ्यो व्युपरमणमणुव्रतम्। अण्डः (पुं०) [अम्+ड] अण्डकोष। अण्डं (नपुं०) फोता। (दयो० ३२) ०अण्डकोष अण्डः (पुं०) ०ब्रह्मा, ब्रह्माण्ड, शिव। अण्डः (पुं०) शुक्र-शोणित-परिवरणमुपात्तकाठिण्यं शुक्र शोणित-परिवरणं परिमण्डलं तदण्डम्। अण्डक (वि०) ०अण्डे से उत्पन्न ०अण्डे जाता अण्डज। अण्डरः (पुं०) निगोदजीव। अण्डाकार (वि०) अंडे की आकृति। अण्डकोषः (पुं०) अण्डकोष, फोता। (दयो० ३२) अण्डज (वि०) अण्डे से उत्पन्न। अण्डे जाता अण्डजा। अण्डालुः [अण्ड+आलुच्] मछली। अण्डायिक (वि०) अण्डे से उत्पत्ति वाला। अण्डीरः [अण्ड-ईरच्] हृष्टपुष्ट पुरुष। अत् (अक०) जाना, चलना, घूमना, ०चक्कर काटना, ०परिभ्रमण करना। अनवयन् दहनं शलभोऽतति। (जयो० २५/७७) पतङ्ग अग्नि के पास जाता है। अतति-संगच्छति। (जयो० २५/७७) For Private and Personal Use Only Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अत् अतिकृच्छ्र अत् (अक०) प्राप्त करना, बांधना। (सुद० २/१९) अतो जयकुमारस्य। (जयो० वृ० १/११) अत एव (अव्य) तो भी, फिर भी, इसलिए, इससे, इस प्रायमुदीक्ष्यतेऽतः। (सुद० पृ० ४०) कारण, फलतः, हि। अत एव कियत्याः स राजा भूमेर्भवेत् अतसः (पुं०) [अत्+असच्] हवा, वायु। पतिः। (वीरो० १६/२९) अत एव अकी दु:खीभवन् पिना अतसी (स्त्री०) [अत्+असिच्+ङीप्] सन, पटसन, अलसी। की। (जयो० वृ० १/८) अतानि (वि०) विस्तारित। (जयो० २३/३६) अतट (वि०) तंट रहित, खड़ी ढाल वाला, किनारे रहित। अति (वि०) [अत्+इ] अति का प्रयोग विशेषण या क्रिया अतटः (वि०) चट्टान। विशेषण के रूप में होता है, जिसके कई अर्थ होते हैं। अतथा (अव्य) [नञ्+त्+था] ऐसा नहीं। यह उपसर्ग रूप अव्यय है। अत्यन्त, बहुत, अधिक, अतद्गुणं (नपुं०) जहां शब्द प्रकृति नहीं, गुण नहीं, क्रिया विशेष, अतिशय, अत्यधिक। अतिबृद्धतयेव सन्निधि। (वीरो० नहीं, ०एक अलंकार विशेष। न विद्यते शब्दप्रवृत्तिः यस्मिन् अत्यन्त वृद्ध होने से आने में असमर्थ है। "चतुर्दशत्वं वस्तुनि तद्वस्तु अतद्गुणम्। गमितात्युदारैः" (जयो० १/१३) इसमें उदार से पूर्व 'अति' अतद्भावः (पुं०) द्रव्य रूपता का अभाव। का प्रयोग है जिससे उत्कर्ष/विशाल/निर्दोषभाव का बोध अतद्रपः (पुं०) अंशी रहित। अनेक धर्मात्मक वस्तु में जिस कराया गया। "विनयो नयवत्येवाऽतिनये" (जयो० ७/४७) समय जिस धर्म की विवक्षा की जाती है, उस समय वह यहां नय के साथ अति का प्रयोग शिष्टाचार की विशेषता वस्तु तद्रूप हो जाती है और शेष वस्तु अतद्रूप। अंशीह को प्रबल कर रहा है। तत्कः खलु यत्र दृष्टिः, शेषः समन्तात्, तदनन्य सृष्टि। 'पुष्टतमेऽतिसंरसात्' (वीरो० ७/३१) 'सरस' से पूर्व (जयो०२६/८८) 'अति' उपसर्ग विशालता को प्रकट कर रहा है अतन्त्र (वि०) विना रस्सी, तार रहित, लगाम विहीन। अतिमव्वेऽप्यतिधार्मिका। (वीरो०७/३१) 'अतिधार्मिका' अतन्द्र (वि०) [नास्ति तन्द्रा यस्य] सतर्क, सावधान, अम्लान, का 'अति' महान्, अर्थ को प्रकट कर रहा है। जागृत। पारोऽतलस्पर्शितयाऽत्युदारः (सुद० २/१६) इसमें प्रयुक्त अतर्क (वि०) तर्कहीन, युक्ति रहित। 'अति' का अर्थ स्पष्ट है। अतर्क (पुं०) तर्क अभाव, युक्ति अभाव। अतिंतर (वि०) संलग्न, समाहित। श्रुतारामे तु तारा अतर्कित (वि०) अप्रत्याशित, चिन्तक विहीन। मेऽप्यतितरामेतु सप्रीति। (सुद० वृ० ८२) अतर्क्स (वि०) निंद्य, निन्दयीय। (वीरो०१६/२६) अतिकथा (स्त्री०) अतिरजित कथा, निरर्थक कथन, अतर्व्यवस्तु (वि०) निद्यवस्तु। (वीरो० १६/२६) निष्प्रयोजन वचन। अतनु (नपुं०) विशाल, ०काम। (जयो० १६/१८) ०बहुत, | अतिकर्षणं (नपुं०) [अति कृष्+ल्युट] अधिक परिश्रम, बहुत भारी। विपुल। उद्यम। अतनुज्वरं (नपुं०) कामज्वर, विशालज्वर। नतभु | अतिकश (वि.) [अतिक्रान्तः कशाम्] कोड़े न मानने वाला तप्तास्यतनुज्वरेण। (जयो० १६/१८) अतनुज्वरेण कामज्वरेण घोड़ा। वा तप्तासि। (जयो० १६/१८) अतिकाम (वि०) निरर्थक काम। अतर (वि०) अप्रसन्न, प्रसन्नता रहित। स कोकवत्किन्त्वि अतिकाय (वि०) [अत्युत्कटः कायो यस्य] भारी/विशाल/स्थूल तरस्त्व शोकः (सुद० १/१०) शरीर वाला। अतल (वि०) तल रहित, अथाह, गहरा। (सुद० २/१६) अतिकोमल (वि०) मुदीयसी, अत्यधिक सरल। कलहंसतति:पारोऽतलस्पर्शितयाऽत्युदारः (सुद० २/१६) सरिवृत्ति प्रतिवर्तिन्यतिकोमलकृतिः (जयो० १३/५७) अतलं (नपुं०) ०पाताल निम्नभाग, ०अधोभाग। अतिकोमला-म्रदीयसी-बड़ी कोमल/स्वच्छ (जयो० वृ० अतस् (अव्य०) [इदम् तसिल] इसकी अपेक्षा इससे, तो १३/५७) यहां से इस कारण से (समु ३/२, सुद० ए ५९) रज्यमानोऽत | अतिकृच्छ्र (वि०) [अत्युत्करः कृच्छ्र:] अति कठिन, बहुत इत्यत्र। (सुद० ४/८) सम्भावितोऽसः खलु निर्विकारः कष्टदायी। For Private and Personal Use Only Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अतिक्रमः अतिथि: अतिक्रमः (पुं०) [अतिक्रम्+घञ्] सीमा या मर्यादा का | अतिचरा (स्त्री०) पद्मिनी, स्थलपद्मिनी, पद्मचारिणी लता। उल्लंघन, विलम्बन। (जयो० वृ० ५/१५) मार्गातिक्रमे अतिचरणं (नपुं०) [अति+च+ ल्युट्] अधिक प्रयत्न, विलम्बनम्। विशिष्टाभ्यास। अतिक्रमः (पुं०) उल्लंघन, अतिक्रमण, लांघना, बीतना, | अतिचारः (पुं०) विकार, ०दोष, ०अतिक्रमण, उल्लंघन, मानसिक शुद्धि का अभाव, दिग्व्रत का अतिचार। व्रतमर्यादा विकार, सामर्थ्य। स्याद्दीपिकायां मरुतोऽधिकारः अतिक्रमण (नपुं०) [अतिक्रम् ल्युट] उल्लंघन, लांघना। क्व विद्युतः किन्तुं तथातिचारः। (वीरो० ६/११) तेलवत्ती (दयो० ६५) वाली साधारण दीपिका बुझाने में पवन का अधिकार है। अतिक्रमणीय (वि०) [अतिक्रम्+अनीयर] उपेक्षणीय, पर क्या वह बिजली के प्रकाश को बुझाने में सामर्थ्य उल्लंघनीय, अतिक्रान्तय, मर्यादा भंग करने योग्य। रखता है? अतिचारो निर्वापणं। (वीरो० ६/११) अतिन (वि०) [अतिक्रम्+क्त] अतिनय। अतिक्रान्तोऽतिनयः। अतिचारः (पुं०) बन्ध, बन्धन, दुर्गुणभार (जयो० ५/४४) (जयो० वृ०७/२७) विभावि परिणामः (जयो०५/९०) सन्तनोति सुतरामतिचार: अतिक्रान्त (वि०) असीम उद्वेलित, वेलप्रसक्ति युक्त, बीता अतिचारो बन्धनं भवति। (जयो० वृ० ३/४४) हुआ, अभ्यतीत, आगे बड़ा हुआ। (जयो० ३/१२) जयोदय 'गतौ बन्धेऽपि चारः स्यादिति विश्लोचन:' में अतिक्रान्त का अर्थ 'वेलातिग सीमातीत भी किया। अतिचारः (पुं०) व्रत का अतिक्रमण, मालिन्य, अपकर्ष, (जयो० ११/५३) प्रत्याव्यान का नाम। अंशभंजन, मर्यादातिक्रम। 'अतिचार व्रतशैथिल्यम्' अतिक्रान्ततट (नपुं०) वेलातिग, सीमातीत, उल्लंघनीय तट। (मूलाचार वृ० ११/११) अतीत्य चरणं ह्यतिचारी (जयो० वृ० ११/५३) महात्म्यापकर्षोऽ शतो विनाशो वा। (मूला०१४४) ०असत् अतिखट्व (वि०) [ अतिक्रान्तः खट्वाम्] चरपाई रहित। अनुष्ठान, चरित्रस्खलन, विषय/इन्द्रिय प्रवर्तन, व्रतांश अतिग (वि०) [ अति गमाड] रहित, दूर, दूरवर्ती, ०वर्जित। भंग, व्रत शैथिल्य, ०असंयम सेवन इत्यादि नाम अतिचार (जयो० २७/६६, २/१५७) दोषातिगः किन्तु कलाधरश्च। (सुद० २/३) दोषों से रहित होते हुए भी कलाधर था। अतिच्छत्रः (पुं०) [अतिक्रान्तः छत्रम्] कुकुरमुत्ता, खुंब, अतिग (वि०) सर्वोत्कृष्ट रहने वाला, बढ़ने वाला। सोया, सौंफ का पौधा। अतिगन्ध (वि०) [अतिशयितो गन्धो यस्य] प्रबल गन्ध, अतिजवेन (अव्य०) सद्य, शीघ्र, त्वरित। आव्रजत्यतिजवेन दुर्गन्ध युक्त। पत्तनम्। (जयो० २१/५) पत्तनं नगरमतिजवेन सद्या (जयो० अतिगत (वि०) दूर, दूरवर्ती, रहित। चित्रं जडतातिगसोऽसौ। वृ० २१/५) नगरशीघ्र आ रहा है। (जयो० ६/११०) अतिजात (वि०) [अतिक्रान्तः जातं-जाति जनकं वा] पिता 8 जडतातो वारिरूपातातोऽतिगतो दूरवर्ती भवन्नपि। से बड़ा हुआ, उत्पन्न हुआ। 8 जडतामतिगतो मूर्खता रहितः। (जयो० पृ० ६/११०) अतितर (वि०) [अति+तरप्] अधिक, उच्चतर। (समु० १.१ अतिगमोह (वि०) मोह रहित। (जयो० २/१५७) उत्तेजनयातितरां समर्थः)। अतिगव (वि०) [गामतिक्रान्तः] अत्यन्त मूर्ख, अधिकजड। अतितृष्णा (वि०) [तृष्णातिक्रम्य] लालसा, अधिक इच्छा। अतिगुण (वि०) [गुणमति क्रान्तः] गुणहीन, गुणरहित, निर्गुण। अतिथि: (नपुं०) [अतति-गच्छति न तिष्ठति-अत्+इथिन्] अतिगुण (वि०) विशिष्ट गुणों वाला। विशिष्ट योग्य। अभ्यागत, प्राघूर्णिक, स्वागत योग्य। (जयो० १२/१२) अतिगौर (वि०) उत्तरोत्तर गौरवपूर्ण वाली। (सुद० २/४६) अतिथयेऽभ्यागताय (जयो० वृ० १२/१२) न विद्यते तिथि: अतिग्रह (वि०) [ग्रहम् अतिक्रान्तः] दुर्बोध, सत्यज्ञान। यस्य योऽतिथिः। अतिघोर (वि०) भयानक, तीव्र, कठिन। (समु० २/३०) अतिथिः (नपुं०) संयम विराधन हित साधु भी अतिथि है। अतिचर (वि०) [अति+च+ अच्] अति परिवर्तनशील, विशिष्ट साधुरेवारतिथिः। यत्नेनातति गेहं वा न तिथिर्यस्य सोऽतिथिः। परावर्तन, क्षणभुगर। (सागारधर्मामृत ५/४२) संयममविराधयन् अतति भोजनार्थ अतिचर (अक०) [अति+चर] घटित होना। (वीरो० १७/२८) | गच्छति यः सोऽतिथि:। (तत्त्वार्थ वृ० ७/२१) For Private and Personal Use Only Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अतिथिः अतिप्रश्न: अतिथि: (पुं०) पति, जयोदय में अतिथि/पति अर्थ भी किया है। जिसे प्राघूर्णिक भी कहा है। शातवती होत्थितासनतः। परिधानमतिथिरागम्। (जयो० १५/१००) पति को आया देखकर पत्नी आसन से उठी और अतिथि/पति राग को व्यक्त किया। तावदेवातिथो प्राघूर्णिके रागः प्रेमभाव। (जयो० वृ० १३०) अतिथिदानं (नपुं०) अतिथि संविभाग नाम व्रत, ० श्रावक का एक व्रत। अतिथि-पूजनं (नपुं०) अतिथि संविभाग नाम, संयत के लिए उत्तम आहार। अतिथिरागः (पुं०) प्राघूर्णिक राग, पतिराग। (जयो० १५/१००) अतिथिसत्करणं (नपुं०) अतिथि सत्कार। अतिथिसत्करणं चरणं व्रते गुणसमुद्धरणं जगतः कृते। भवावदारणं च महामते निखिलदेवमयोऽतिथिरूच्यते।। (दयो० वृ०५८) अतिथि सत्कार सदाचार है, इससे जगत् के गुण प्रकट होते हैं, और यह भगवन् स्मृति का उचित माध्यम है, क्योंकि अतिथि पूर्णरूप से देवतुल्य है। अतिसत्कार: (पुं०) अतिथि पूजन, अभ्यागत अर्चन। (जयो० १२/१४१) अतिथिसत्कृति (वि०) अतिथि सत्कार करने वाली। (सुद० २/६, जयो० वृ० १२/१४१) अतिदानं (नपुं०) [अति+दा+ल्युट्] उदारता, अधिक दान। अतिदुर्लभः (पुं०) अत्यन्त दुर्लभ, कनिष्ठता से प्राप्त। (सुद० __ १२८) मर्त्यभावो अतिदुर्लभः। (सुद० १२८) अतिदेशः (पुं०) [अति+दिश्+घञ्] हस्तान्तरण, समर्पण, (वीरो० ३/४) 'अतिदेशः सजातीयपदार्थेभ्यां विशिष्टता' इति सूक्तेः । (वीरो० ३/४) अतिदेशालङ्कारः (पुं०) अलङ्कार नाम। (वीरो० ३/४) जिसमें ११ वर्ण हों। ऽऽ। 55। ।। ६५ भूयावहो वीतकलङ्कलेशः, भव्याब्जवृन्दस्य पुनर्मुदे सः। राजा द्वितीयोऽथ लसत्कलाढ्य, इतीव चंद्रोऽपि बभौ भयाढ्यः॥ अतिद्वय (वि०) [द्वयमतिक्रान्तः], अद्वितीय, अनुपम, अतिशय युक्त। दोनों से बड़ा हुआ। अतिधन्वन् (पुं०) [अत्युत्कृष्टं धनुर्यस्य] योद्धा, धनुर्धर। अतिधार्मिक (वि०) बहुत धर्म प्रवृत्ति वाला, पुण्यशील वाला। (वीरो० १५/३९) अतिधार्मिका (वि०) उत्तमधर्म वाली। (वीरो० १५/३९) अतिधीरः (पुं०) अधिक गम्भीर। (सुद० २/३९) अतिनय (वि०) अतिक्रान्तनीति, नीति त्यागने वाला, नीति रहित। विनयो नयवत्येवाऽतिनये तु गुरावपि। प्रमापणं जनः पश्येन्नीतिरेव गुरुः सताम्।। (जयो० ७/४७) नयम् अतिक्रान्तोऽतिनयस्तस्मिन्नतिनये अतिक्रान्तनीतौ त। (जयो० वृ०७/४७) अतिनिगूढ पद (वि०) अधिक छिपी हुई अवस्था वाले। (समु०७/८) अतिनिद्र (वि०) [निद्रामतिक्रान्त:] अनिन्द्रालु, कम निद्रा वाला, निन्द्रा रहित। अतिनिन्ध (वि०) अति निन्दनीय (वीरो० १७/२) अतिनुत्ति (स्त्री) प्रगाढभक्ति (वीरो० २२/४०) अतिपञ्च (वि०) [पञ्चवर्षमतिक्रान्तः] पांच वर्ष से अधिक। अतिपत्तिः (स्त्री०) [अति+पत्+क्तिन्] असफलता, सीमापार। अतिपत्रः (पुं०) [अतिरिक्तं बृहत् पत्रम्] सागौन वृक्षा अतिपथिन् (पुं०) [पन्थानमतिक्रान्तः] सन्मार्ग, अच्छा पथ। अतिपर (वि.) [अतिक्रान्तः परान्] अपराजित, शत्रु को __ परास्त करने वाला। अतिपरिचयः (पुं०) अधिक पहचान, विशिष्ट परिचय। अतिपानः (पुं०) [अति+पत्+घञ्] ०अतिक्रमण, उपेक्षा, भूल, विस्मरण, विरोध, दुष्प्रयोग, वैपरीत्य। अतिपाति (वि०) अधिक पाने वाले। (सुद० ३/१८) अतिपातकः (पुं०) [अतिपात-स्वार्थे कन्] जघन्य पाप, व्यभिचार। अतिपातिन् (वि०) [अति+पत्+णिच्+णिनि] शीघ्रतर, अग्रगामी, गतिवान। अतिपात्य (वि०) [अति+पत्+णिच् यत्] विलम्बित, स्थगित। अतिपीतः (पुं०) अधिक पुष्ट। (जयो० १२/१२) अतिपेशल (स्त्री०) अति पुष्ट (वीरो० २१/४) ०बलिष्ट, शक्ति सम्पन्न। अतिप्रखरः (पुं०) तेज, दीप्त। (जयो० १/२४) अतिप्रबन्धः (पुं०) [अतिशयितः प्रबन्धः] विशिष्ट रचना, श्रेष्ठ काव्य। अतिप्रबन्ध (वि०) बन्धयुक्त, अत्यन्त समीप्य। अतिप्रगे (अव्य) [अति+प्र+गै+के] प्रात:काल में, प्रभात बेला में। अतिप्रश्नः (पुं०) [अति-प्रच्छ+ नङ्] विशिष्ट प्रश्न, उचित निवेदन। For Private and Personal Use Only Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org अतिप्रसङ्ग अतिप्रसङ्ग (पुं० ) [ अति+प्र+संज्+घञ्] अति लगाव, धृष्टता, अधिक सम्पर्क | अतिबल (वि०) शक्तिशाली, विशिष्ट योद्धा, शक्तियुक्त । अतिभर (वि०) अत्यधि भार वाला। अतिभव (वि०) उत्कृष्टता । अतिभीः (स्त्री०) बिजली, विद्युत, वज्रप्रभा । अतिभीतिः (स्त्री०) सार्वत्रिक भय से भीत। अभितः समन्तात् इता प्राप्ता भी सन्त्रस्तपरिणतिः साऽभीतभीस्तस्या भावस्तस्मात् अतिभीतिभावादित्यर्थः (जयो० वृ० ६ / ५९) अतिभूमिः (स्त्री० ) पराकाष्टा, प्रमुखता, साहसिकता । अतिभैरवः (पुं०) भीषण ध्वनि, तीव्र ध्वनि । पटहादुद्विजितोऽभैरवात् । (जयो० ७ / १०८) अतिमन्थर (वि०) अत्यन्त मंदगति वाला (वीरो० २१ / १४) अतिमव्वे (स्त्री०) नागदेव की महारानी। निर्मापय्य जिनास्थानं तदर्थं भूमिदायिनी । महिषी नागदेवस्यातिमव्वेऽप्यतिधार्मिका ।। (वीरो० ) राजा नागदेव की महारानी अतिमव्वे अधिक धर्मात्मा थी, जिसने जिनालय बनवाकर उसकी रक्षा हेतु भूमि प्रदान की थी। अतिमुक्त (पुं०) तिनिशवृक्ष, वासन्ती लता । (जयो० २१ / २७) अतिमुक्तस्तु वासन्त्यां तिनिश निष्फले त्रिषु इति विश्वलोचनः अतिमुक्तक (पुं०) तिनिशवृक्ष, वासन्तीलता। (जयो० २५/२५ ) अतिमौक्तिक (पु० ) अतिमुक्तक वृक्ष, तिनिशवृक्षा (जयो० २५/२५) बकुलमप्यतिमौक्तिकमाक्षिपन् । अतिमतिः (स्त्री० ) अहंकार, घमंड, अधिक मान । अतिमनोहरः (पुं०) अमूल्य सुन्दर । (जयो० ११ / १५ ) अतिमार्दवः (वि०) अधिक सरल। (समु० २/८) ० मार्दव परिणामी अतिमात्र (वि० ) [ अतिक्रान्तो मात्राम् ] मात्रा से अधिक, अत्यधिक अतिशय, अधिकता। आममन्नमतिमात्रयाऽशितं । (जयो० २/६३) अतिमात्रशं (अव्य) अतिशय, अत्यधिक । अतिमात्रशः देखो ऊपर। अतिमानुषः (पुं०) अनर, देव। नराणां गोचरं न भवतीति अनरगोचरमतिमानुषं कार्यं साधयति । (जयो० २ / ३९ ) अतिमाय (वि० ) [ अतिक्रान्तो मायाम् ] पूर्णत: मुक्त, सांसारिक छल से रहित। अतिमुक्त (वि० ) [ अतिशयेन मुक्तः ] पूर्णमुक्त, छूटा हुआ। २४ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अतिवाहनं अतिमुक्त: (वि०) बंजर, ऊसर । अति-मुक्त (वि०) एक लता, माधवी लता । अतिमुक्ति (स्त्री०) मृत्यु से रहित, प्राण हीन । अतियत्न (स्त्री०) प्रयत्नशील । (जयो० २/५७ ) अतिरहस् (वि०) [ अतिशयित रहो यस्मिन् ] क्षिप्रतर, शीघ्रतर । अतिरथः (पुं०) अतिरथ योद्धा । अतिरभसः (पुं०) द्रुतगमन, शीघ्रगमन । अतिराजन् (पुं०) श्रेष्ठ राजा । अतिरात्र: (पुं०) रात्रि का मध्य भाग । अतिरिक्त (वि० ) [ अति+रिच् +क्त] आगे बढ़ा हुआ, ० अत्यधिक, द्रुतगामी, अद्वितीय, उत्तुंग । अतिरेक ( वि० ) [ अति+रिच्+धञ् ] आधिक्य, अतिशयता, महत्ता, गौरव, बाहुल्य अतिरेकः (पुं०) अभाव। (जयो० ) अति रूच् (पुं० ) [ अति + रूच्+ क्विप्] घुटना । अतिलंघनं (नपुं० ) [ अति+लंघ+ ल्युट् ] अधिक उपवास रखना, अतिक्रमण | अतिलंघिन् (वि० ) [ अति+लंघ्+ णिनि ] त्रुटी करने वाला, उल्लंघन करने वाला। For Private and Personal Use Only अतिलङ्घित (वि०) गत, समाप्त, गया । जनभूमिर्नगरभूर्गताऽतिलाधिता । (जयो० वृ० १३ / ४२ ) अतिलपातिनि (वि०) तिल भर जगह से रहित । पूर्ण भरा हुआ। न तिलाः पतन्ति यस्मिन्रत्यतिलपाति । (जयो० वृ० ५ / ९) मानवैरतिलपातिनि राजवर्त्मनि । (जयो० ५/१) अतिवयस् (वि० ) [ अतिशयित वयः यस्य ] वृद्ध, जरा युक्त, अधिक आयु वाला। अतिवर्तन (नपुं० ) [ अति + वृत+ ल्युट् ] क्षम्य अपराध, सामान्य अपराध, दण्डमुक्त । अतिवर्तित (वि० ) ० अछूता, ० अतिक्रमण करने वाला, ० परागामिन्, ० अग्रगामी, अतिलंघिनि । (सुद० १०७) अतिवर्तिनी (वि०) उल्लङ्घितवती, अतिक्रमण शालिनी । (जयो० ६ / २८ सुद० ४ / ३२) रतिमतिवर्तिन्यस्मादस्यासि च वल्लभयोग्या । (जयो० ६ / २८ ) अतिवादः (पुं० ) [ अति+वद्+घञ्] अतिकठोर, भर्त्सना, अपमान युक्त वचन। अतिवादिन् (वि०) मुखरी, अधिक बोलने वाले, वाचाल । अतिवाहनं (नपुं० ) प्रेषण, यापन, अतिभार वहन । Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अतिविकट अतिशयिप्रधानं अतिविकट (वि०) भीषण, कष्टदायी। (जयो० ४/३१) स्यादुत्थि ताऽतिविकटैव समस्या। अतिविमल (वि०) निर्दोष, निर्मलता युक्त। अतिविमला (वि०) निर्मलता, निर्दोषता। अतिशयेन बिमला __ निर्दोषाऽसीत्। (जयो० वृ० ४/३१) अतिवियुज (सक०) [अति+वि+युज] सम्मिलित होना, मिलना, अनुरक्त होना, नियुक्त करना, केन्द्रित करना, प्रयुक्त करना, स्थिर करना। अतिवियुज् (अक०) वियोग होना, विरह होना। (जयो० ९/३) अतिवियुज्यते। अतिविशद (वि०) निर्मल, पवित्र। (जयो० ४/४९) मतिमतिविशदां ततश्चकोरदृशम्। अतिविस्तर (वि०) अधिक व्यापकता, बहुव्यापी, अतिप्रसरित। अतिविस्तीर्ण (वि०) उदार, उदाराऽतिविस्तीर्णा (जयो० ७० ३/१७) कुविंदवदुदारधारणा। (जयो० ३/१७) अतिवृत्तिः [अति+वृत्+क्तिन] अतिक्रमण, अतिगामी, ___अतिरंजिता। अतिवृद्ध (वि०) अधिक वृद्धता। (वीरो० २/१७) अतिवृष्टिः (स्त्री०) अत्यधिक वर्षा, प्रवल व्याधि। (जयो० १/११) जगत्यविश्रान्ततयाऽतिवृष्टिः (जयो० १/११) अतिवीरः (पुं०) [अतिशयितो वीरः] ०अतिवीर, प्रबल वीर, उत्कृष्ट योद्धा, चौबीसवें तीर्थंकर महावीर का उपनाम। अतिवीर्य (पुं०) अतिवीर्य नाम, जिसने नर्तकी के वेष में ___ शत्रुओं को बांधा, जो बाद में मुनि बन गया। अतिवेग (वि०) शीघ्रतर, बहुत वेग पूर्वक। अतिवेगत उद्यदायुधा अभिभूपानरयः प्रपेदिरे। (जयो० ७/११०) अतिवेगः (पुं०) राजा अतिवेग, पृथ्वी तिलकनगर का राजा, विद्याधरों का मुखिया। रामात्र पृथ्वीतिलकाधिपस्य नाम्राऽतिवेगस्य खगेश्वरस्य। अतिवेल (वि०) [अतिक्रान्तो वेला मर्यादा वा] सीमारहित, मर्यादा विहीन, अत्यधिक। अतिवेलंवः (पुं०) वरुण देव। अतिव्याप्त (स्त्री०) [अति+वि+आप+क्तिन्] ०अनुचित विस्तार, नियम का अनुचित प्रयोग, प्रतिज्ञा में अभिप्रेत वस्तु का मिलाना। लक्षण में लक्ष्य के अतिरिक्त, अन्य अनभिप्रत वस्तु का भी आ जाना। दोष विशेष। (हित संपादक १७) अतिशय (वि०) आधिक्य, अधिकता, प्रमुखता, उत्कृष्टता। (सुद० पृ० ८२) अतिशयः (पुं०) अतिशय, भगवान् के चौंतीस अतिशय-जन्म के दश अतिशय, केवलज्ञान के दश अतिशय और देवकृत चौदह अतिशय। १. स्वेदरहितता, २. शरीर निर्मलता, ३. दुग्धसम रुधिर, ४. वज्रवृषभनाराच संहनन, ५. समचतुरस्त्र शरीर संस्थान, ६. अनुपम रूप, ७. उत्तम गन्ध, ८. उत्तम लक्षण, ९. अनन्तबल और १०. हित-मित भाषण। केवलज्ञान-अतिशय-१. एक सौ योजन सुभिक्षता, २. आकाश-गमन, ३. अहिंसा, ४. भोजन, ५. उपसर्गपरिहीनता, ७. सब ओर मुख स्थिति, ८. निर्मिमेषं दृष्टि, ९. विद्याओं की ईशता, १०. नख-रोम-वृद्धि रहित और ११. अठारह महाभाषा। देसकृत अतिशय-१. संख्यात योजन वन समृद्धि, २. सुखदायक-वायु-प्रवाह, ३. मैत्रीभाव, ४. दर्पणवत् भूभाग, ५. सुगन्धित जलवृष्टि, ६. शस्य-रचना, ७. निर्मल आकाश, ८. शीतल-पवन, ९. जल की परिपूर्णता, १०. रोग-निरोधता, ११. दिव्यधर्मचक्र प्रवर्तन, १२. नित्यानन्द और दिव्य मात्र। अतिशयः (वि०) श्रेष्ठ, प्रमुखता, प्रशंसा युक्त। (जयो० वृ० २२/१६) अतिशय-उक्तिः (स्त्री०) अतिशयोक्ति वचन। अतिशयधर (वि०) प्रशंसा धारक। (जयो० वृ० २२/१६) अतिशयन (वि०) [अति+शी+ल्युट्] बड़ा, प्रमुख, अग्रगामी। अतिशय-पावन (नपुं०) अधिक पवित्र, पूर्ण स्पष्ट। (सुद० पृ०७०) ___ कलिमलधावनमतिशय पावनमन्यत्किं निगदाम। (सुद० पृ०७०) अतिशय-शोभन (वि०) अधिक शोभा युक्त। अतिशय-शोभावान् (वि०) धृतशंस, प्रशंसा धारण करने वाला। (जयो० वृ० २२/१६) धृतशंसोऽतिशय-शोभावानिति। अतिशयालु (वि०) [अति+शी+आलुच] अग्रगामी, आगे बढ़ने वाला। अतिशयिता (वि०) पुष्ट, पीन, प्रशंसा योग्य। पीनं पुष्टिमति शयितामापन्नम्। (जयो० वृ० १/३८) अतिशयितामापन्न (वि०) प्रशंसा को प्राप्त करने वाला। (जयो० वृ० ११३८) । अतिशयिन् (वि०) [अति+शी+णिनि] प्रमुख, श्रेष्ठ, प्रधान, उच्च, योग्य, यथेष्ट, समुचित। (भक्ति सं० २०) अतिशयिप्रधानं (नपुं०) अतिशय युक्त। श्री पार्श्वनाथं भुवि वर्द्धमानं, पादानलोक्तातिशयिप्रधानम्। (भक्ति सं० २०) For Private and Personal Use Only Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अतिशायन अतीन्द्रिय-ज्ञानं अतिशायन (वि०) श्रेष्ठता, प्रमुखता, प्रधानता। अतिसर्व (वि०) सर्वोत्तम, सर्वश्रेष्ठ। अतिशायिन् (वि०) [अति+शी-णिनि] अग्रगामी, अतिशयवान्। अतिसारः (पुं०) [अति+स+णिच्+अच्] अतिसार रोग, पेचिश, (जयो० ११/२२) अन्य से बढ़कर। अन्यातिशायी रथ मरोड़ युक्त दस्त। (जयो० २८/३०) एकचक्रो, रवेरविश्रान्त इतीमशक्रः।। (जयो० ११/२२) अतिसारिन् (पुं०) अतिसार नामक रोग से पीड़िता अतिशयोक्तिरलंकारः (पुं०) अतिशयोक्ति अलंकार, अतिसुन्दरः (पुं०) अतिमनोज्ञ (जयो०५५१) ०सर्वाङ्गः सुन्दर चित्तभित्तिषु समप्रितदृष्टौ तत्र शश्वदपि मानवसृष्टौ। अतिसुन्दरगात्री (वि०) अतिसुन्दरशरीरा, मनोज्ञ देह वाली निर्निमेषनयनेऽपि च देवव्यूह एव न विवेचनमेव।। (जयो० (जयो० ५।२५१) अतिसुन्दरं गात्रं शरीरं यस्याः स।। ३/१९) वहां नगरी की चित्रयुक्त भित्तियों से एक टक अतिसुन्दरी (स्त्री०) सुभगा, सुन्दर रूपा, मनोज्ञा। (जयो० दृष्टि लगाने वाले मानवसमूह और निर्निमेष नयनवाले देवों ३/५८) सुभगाऽतिसुन्दरी कृता। के समूह में परस्पर विवेक प्राप्त करना बड़ा कठिन हो अतिस्नेहः (पुं०) अधिक अनुराग, परमप्रीति। गया था। अतिस्पर्शः (पुं०) परम स्पर्श, विशेष स्पर्श। अतिशयोन्नतिः (स्त्री०) विशेष उन्नति, प्रमुख प्रगति। (वीरो० अतिहितं (नपुं०) अनुरूप, अपने अनुकूल। भाति चातिहितं ____७/३२) तेन। (जयो० ३/६७) अतिशयेन हितरूपमुत्तममाभाति। अतिशयोपयुक्तिः (स्त्री०) अतिशय पुण्य योग का विचार। (जयो० वृ० ३/६७) (सुद० २/४२) बभाषर्था स्वातिशयोपयुक्तिमती सती अतीत् (सक्) [अति-इत्] त्याग करना, छोड़ना, उपेक्षा पुण्यपयोधिशुक्तिः । (सुद० २/४२) करना। (जयो० ४।६७, सुद० १/२७) व्रजति वेदमतीत्य अतिशीतत्व (वि०) अधिक शीतलता, विशेष शैत्य, प्रचुर पुनर्वचः। सर्दी। (जयो० वृ० १२/२०) अतीत्य-त्यक्त्वाऽन्यत्व एव क्वचिन्मौनतो व्रजति, अतिशेषः (पुं०) अवशिष्ट भाग, अवशेष अंश, बचा हुआ शास्त्रमतीत्य समुपेक्ष्यान्यत एव व्रजति। (जयो० वृ० ४/६७) हिस्सा। अतीत (वि०) [अति+इ+क्त] रहित, मृत, व्यतीत, बीता अतिश्रेय (वि०) अतिकल्याणकारी, विशेष उपकारी। हुआ, भूतकालिक, प्राचीन। (सुद० २/२, पृ०७०) अतिश्रेयसिः (श्रेयसीमतिक्रान्तः) श्रेष्ठता युक्त पुरुष। बाह्याडम्बरतोऽतीतास्ते। (सुद० पृ० १२७) अतिसक्तः (पुं०) [अति+षंज्+क्त] आसक्त, तल्लीन, प्रेम, | अतीतगुणं (नपुं०) अपरिमितगुण। द्विजिह्वातीतगुणोऽप्यहीनः। अतिस्नेह। (जयो० १/४४) स वैनतेयः पुरुषोत्तमोऽतिसक्तो न। __(सुद० २/२/) * दुर्गुणहीन, सद्गुणयुक्त। (सुद० २/२) अतिसक्तिः (स्त्री०) भारी आसक्ति, प्रगाढ़ संपर्क। अतीतवती (वि०) विरहित। (जयो० २६/ ) व्यतीत करती अतिसंधानं (नपुं०) [अति+स+धा+ल्युट्] छल करना, धोखा हुई। (वीरो० ५/४२) तासां गर्भक्षणं निजमतीतवती मुदा देना, चालाकी, जालसाजी। सा। (वीरो० ५।४२) हर्ष से अपने गर्भकाल को बिता रही अतिसङ्ककः (पुं०) अतिक्रम, जनबाहुल्य का संकट। (साति- थी; हर्षेणातीतवती व्यतीयाय। (वीरो० वृ०५/४२) सङ्ककतया नरराजां) (जयो० ५/१५) अतीतिः (स्त्री०) आगामी काल। (जयो० २७/६६) ०भविष्यत् अतिसङ्कटता (वि०) विकट समस्या वाला। काल। अतिसरः (पुं०) [अति+सृ+अच्] आगे बढ़ने वाला, नेता, अतीन्द्रिय (वि०) इन्द्रिय द्वारा अगम्य, इन्द्रियों से परे। (जयो० नायक। ४/३४, ८४) अतिसरः (पुं०) अतिसार, दस्त। (सुद०९१) ज्वरिणः पयसि | अतीन्द्रिय-ज्ञानं (नपुं०) प्रच्छन्न ज्ञान। (वीरो० पृ० ३१६) दधिनि अतिसरतो द्वतयोऽपि क्षुधितस्य। प्रच्छन्न/गुप्त ज्ञान भी लोगों को होता हुआ देखा जाता है। अतिसर्गः [अति सृञ्+घञ्] स्वीकार करना, अनुमति देना, देखो-प्रास्कायिक/अङ्ग निरीक्षक एक्स रे यन्त्र के द्वारा पृथक् करना। शरीर के भीतर छिपी हुई वस्तु को देख लेता है और अतिसर्जनं (नपुं०) [अति सृज+ल्युट] देना, स्वीकार, उदारता, सौगान्धिक मनुष्य पृथ्वी के भीतर छिपे हुए/दबे हुए वियोग। पदार्थों को जान लेता है, फिर यदि अतीन्द्रज्ञान का धारक For Private and Personal Use Only Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अतीव अत्युदार यतीश्वर देश, काल और भूमि आदि से प्रच्छन्न सूक्ष्म, अत्यन्तं (अव्य०) अत्यधिक, बहुत, अधिक। अन्तरित और दूरवर्ती पदार्थों को जान लेता है तो इसमें अत्यन्ताभावः (पुं०) एक दार्शनिक कथन, एक द्रव्य का विस्मय की क्या बात है? दूसरे द्रव्य रूप नहीं होना। पटस्य वस्त्रस्यार्थी जनो घटं न अतीव (अव्य०) [अति+इव] अधिक, बहुत, बड़ा। प्रयाति, न स्वीकरोति ततस्तत्त्वं वस्तु तदनुभानुपाति। (जयो० अस्मन्मनसोऽयमतीवानन्ददायी लगति। (दयो० पृ० ५८) वृ० २६८७) अतुच्छ (वि०) अनल्प, विपुल। (जयो० ८/२६) अत्यन्तिक (वि०) [अत्यन्त+ठन्] बहुत अधिक, तीव्रतर, अतुच्छरसं (नपुं०) नव रसों की विपुलता। (जयो० १/४) तीव्रतर गामी। अतुल (वि०) ०अनुपम, असाधरण, ०अनन्य ०अद्वितीय, अत्यय (वि०) [अति+इ+अच्] जाना, ०बीत जाना, ०व्यतीत बेजोड़, अपूर्व। (जयो० ६/१५) सम्भूयभूयादतुलः प्रकाशः। होना, समाप्ति, उपसंहार, ०अतिक्रमण, ०अपराध, (वीरो० १४/२३) जयो० १२/१२ दोष, दुःख अवसान, ०अनुपस्थिति, अन्तर्धान, नाश, अतुल-कौतुकवती (वि०) अपूर्व आनन्ददायी, विशेष प्रशंसनीय। ०भय, हानि। (जयो० २/१५४) (सुद० पृ० ८२) अतुलकौतुकवती वा या वृततिरकलङ्कसद- | अत्ययकर (वि०) हानिकर। प्रत्ययमत्ययकरं विद्धि यदि विद्धि धीतिः। (सुद० पृ०८२) नरं त्वम्। प्रत्ययं विश्वासमत्ययकरं (जयो० २/१५४) अतुलप्रभा (स्त्री०) अपूर्वकान्ति। अतुला प्रभा कान्तिर्यस्य। हानिकारक। (जयो० वृ० ६/१५) अत्ययित (वि०) [अत्यग्र+इतच्] बढ़ा हुआ, आगे निकला, अतुल्य देखो नीचे। उल्लंघन किया गया। अतुल्या (वि०) ०अनुपम, अद्वितीय, ०अपूर्व, विशिष्ट। (जयो० अत्ययिन् (वि०) [अति+इ+णिनि] बढ़ने वाला, आगे निकलने ११/१) न विद्यते तुला यस्याः सा तामनन्य सदृशीम्। वाला, उड़ाई गई। (जयो० ५/३) वात्ययाऽत्ययिनि तूलकलापे। (जयो० वृ० ११/१) (जयो०५/३) वात्या तयाऽत्ययिनि अत्ययभृति वातप्रेरिते। अतुषार (वि०) शीतलता रहित। (जयो० वृ० ५/३) अतेजस् (वि०) कान्तिहीन, प्रभाविहीन, धुंधला, निरर्थक। अत्यर्थ (वि०) अत्यधिक, बहुत भारी। अतोष (वि०) अप्रसन्न, संतुष्टि रहित, गरीयसी स्वस्य अत्यर्थ (क्रि०वि०) अत्यन्त, अधिक। (सम्य १००) गुणेऽप्यतोषः। (समु० १/१८) अत्याचार (वि.) [आचारमतिक्रान्तः] आचार उपेक्षक, अत्ता (स्त्री०) माता, मां [अत्+तक+टाप्] सास, बड़ी बहिन। व्यभिचार, दुराचार। अनः [अतति सततं गच्छति-अत्+न] १. हवा, २. सूर्य। अत्याचारः (पुं०) धर्म विहीन आचरण। अत्थु (अव्य) है, अत्थु शब्दः पादपूरणार्थः। (जयो० १९/७६) अत्यादित्य (वि०) तीव्र तेजस्वी, अधिक कान्तिवाला। णमोत्थु आमोसहिपत्ताणं। अत्याय (वि०) अतिक्रमण, उल्लंघन। अत्य (वि०) व्यतीत करना, बिताना। दिनादि अत्येति तटस्थ। अत्यारूढः (वि०) अधिक बढ़ा हुआ। (सुद० १११) अत्यारूढः (पुं०) अभ्युदय, उच्च। अत्यज् (सक०) अत्याग करना, ग्रहण करना। (जयो० वृ० अत्यारूढं (नपुं०) उच्च, अभ्युदय। १/२०) स्वामिनः सङ्गमत्यजन्ती। अत्यारूढिः (स्त्री०) उच्चासीन। अत्यक्त (वि०) अपरित्यक्त, बिना छोड़े। अत्यक्तदारैक-समाश्रयैः अत्याहित (वि०) [अति+आ+घा+क्त] ०अधिक दुःखित, कृती। (वीरो० ९/६) ___०व्याकुल, अधिक पीड़ित, दुर्भाग्य, विपत्ति, भय। अत्यग्नि (वि०) पाचन शक्ति की अधिकता। अत्युक्तिः (स्त्री०) [अति+व+क्तिन] अतिशयोक्ति, अधिक अत्यग्निष्टोमः (पुं०) यज्ञ का भाग, ज्योतिर्भाग। बढ़ा चढ़ाकर कहना।। अत्यंकुश (वि०) निरंकुश, उच्छृखल। अत्युदार (वि०) निर्दोष, अत्यन्त उदार। (जयो० १/१३, सुद० अत्यन्त (वि०) [अतिक्रान्तः अन्तम्सीमाम्] अत्यधिक बहुत, २/१६) तैरत्युदारैः निर्दोषैः। पारोऽतलस्पर्शितयाऽत्युदारः। नितांत, अनंत, बड़ा, तीव्र। (जयो० वृ० १/१५) (सुद० २/१६) For Private and Personal Use Only Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अत्युन्नत अथात्र अत्युन्नत (वि०) प्रांशुतर, उत्तम, उच्च। प्रांशुतरमत्युन्नत। (जयो० वृ० १३/७) अत्यूहः (पुं०) प्रवल चिन्तन, उत्कृष्ट विचार। अत्र (अव्य०) [इदम्+त्रल्-प्रकृतेः अशभावश्च] यहां, इस स्थान पर इस विषय में। जातु नात्र हितकारि। (जयो० २/६६) जो शास्त्र यहां लौकिक कार्यों में हितकर न हो। वस्तु पुनरत्र पक्त्रिमा। (जयो० २/६७) अत्र (अव्य०) इस जगह, उस स्थान, इसमें। अनीतिममत्यत्र जन: सुनीतिः। (सुद० १/२३) अत्र (अव्य०) दृष्टान्त या उदाहरण के लिए भी 'अत्र' का प्रयोग है। समोदनस्यात्र भवादृशस्य। (जयो० ३/७२) तुम जैसे मोदसम्पन्न महापुरुष के प्रयोग के लिए उपमा देने का अवसर प्राप्त कर लिया। अत्र (अव्य०) अन्तराल/प्रदेश/भाग में। गङ्गापगासिन्धुनदान्तरत्र पवित्रमेकं प्रतिभाति तत्र। (सुद० १/१४) गङ्गा और सिन्धु नदियों के अन्तराल में अवस्थित हैं। अत्रंतरे (क्रि०वि०) इसी बीच में। अत्र च (अव्य०) और यहां पर। सम्पादयत्यत्र च कौतुकं नः। (सुद० २/२१) अत्रत्य (वि०) [आत्रभव-अत्र+त्यप्] इस स्थान का, यहां उत्पन्न। अत्रप (वि०) निर्लज्ज, अविनीत, अशिष्ट। अत्रिः (पुं०) ऋषि। अथ (अव्यः) [अर्थड-पृषो० रलोप:] प्रयोजनभूत, इस तरह, इस प्रकार, अब। सुखलताऽयमथ च पुनः। (सुद० पृ०८४ जयो० १/४) अथ (अव्य०) शुभसंवादे अथेत्यव्ययं। (जयो० वृ० १/३) प्रकरण पुरा प्राचीनकाले पुराणेषु। (जयो० वृ० १/२) अथाभवत्तद्दिशि सम्मुखीन। (जयो० १/७९) अथ प्रकरणे सम्यगुत्थानं सूत्थानम्। और अर्थ में-वाबिन्दुरेति खलु शुक्तिषु मौक्तित्वं लोहोऽथा (सुद० ४/३०) बिन्दु सीप के भीतर मोती और पारस पाषाण का योग पाकर लोहा भी सोना बन जाता है। पश्चात् अर्थ में-अथ प्रभावे कृतमङ्गला सा। (सुद० २/१२०) मानो कि के लिएमिथोऽथ तत्प्रेमसमिच्छकेषु। (सुद० २/२६) उक्तिविशेषे-जहावहो मञ्जुदृशोऽथ तावत्। (वीरो० ६/६) नाभि ने मानो अपने गम्भीरपने को छोड़ दिया हो। अथेत्युक्तिविशेषे। (वीरो० वृ०६/६) शभ-सम्भाषणे-अथ भो भव्या भवेन्मुदे। (जयो० २२/१) सर्वर्तुमयामोदथायात्। (जयो० वृ० २२/२) क्रमार्थे-इतीव पादाग्रमितोऽथ यस्या। (वीरो० ३/२०) अथ शब्द: क्रमेणावयवर्णनार्थमिति। (वीरो० ७०३/२०) शुभसंवाद-करणे-रचितानि पदानि रामयथातदातिथ्यकृतेऽभिरामया। इस पर में अथेति शुभसंवाद-करणे। तथा (२/९४), प्रकरणारम्भे. (जयो० वृ० १०/६६), (जयो० ११/७) अनन्तरे सुद० (जयो० १०/५८) इत्यादि अथ अव्यय के कई अर्थ हैं। यह प्रश्न पूछने, संवाद करने आदि में भी प्रयुक्त होता है। 'अथाथो च शुभे प्रश्ने सकल्यारम्भ-संशये' इति विश्वलोचनः। (जयो०८ वर्ग) अथ किल (अव्य०) इसके अनन्तर निश्चय ही। इसके बाद, निश्चय से। (भक्ति सं० १८) अथ किम् (अव्य०) और क्या? ठीक ऐसा ही। अथ च (अव्य०) और भी, फिर भी. तथापि। (सुद० वृ०८४) अथर्वन् (पुं०) [अथ+ऋ+वनिप्] उपासक, पुरोहित। प्रचराथर्वण तद्धि कार्मणम्। (जयो० २७/३१) अथर्वण-काव्यं (नपुं०) ऋग्वेद, वैदिक ग्रन्थ, वेदग्रन्थ। (दयो० २८) अथर्वणिः (पुं०) अथर्ववेद में निपुण। अथर्वाणः (पुं०) [अथर्वन्+अच्] अथर्ववेद की पद्धति। अथर्ववेदः (पुं०) अथर्ववेद, वेद ग्रन्थ। (दयो० २२) अथवा (अव्य) या, और, अधिकतर, क्यों, कदाचित्। धर्मपात्रम घमर्षकर्मणे कार्यपात्रमथवाऽत्रशर्मणे। (जयो० २/९४) यहां 'अथवा' शब्द का प्रयोग और अर्थ में हुआ है। अथवेत्युक्त्यन्तरे-मानो कि-समुप भान्ति लवा अथवागसः। (जयो० १/१२) अथवा/या (जयो० वृ० १/२) वर्णनान्तरार्थम्-समङ्किते यद्वरणेऽथवा भी:। (वीरो० २/२९) पादपूरणार्थे-आनं नारङ्ग पनसं वा फलमथवा रम्भायाः। (सुद० पृ० २/२) अथवा तु (अव्य०) या तो, फिर भी, तो भी। अथवा तु न पक्षपातः शमनस्य जातु। (सुद० पृ० १२१) अथात्र (अव्य०) ०इसके अनन्तर ०यहां, इसके पश्चात् यहां/इस समय में। अथात्र नाम्ना विमलस्यं वाहन। (सुद० पृ० ११४) अथात्र (अव्य०) तदनन्तर, इसके पश्चात्। अथात्र विद्या विशदा नियोगिनी:। (जयो० २२४/१) For Private and Personal Use Only Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अथान्यदा अदृश् अथान्यदा (अव्य०) कदापि, कदाचित्, तो भी। अथान्यदा स्वैरितया चरन्तौ। (जयो० २३/७१) अथापकृष् (वि०) अपकर्षण। (सुद० १०२) अथैकदा (अव्य०) इसी प्रकार, इसी तरह। अथैकदा भूमिरुहोपरिष्टात्। (समु० ३/३७) अथैकदा दान्त हिरण्य सम्मती। (संमु० ४/१६) इस पंक्ति में 'अथैकदा' का अर्थ है-अब कुछ दिन बाद। अथेति (अव्य०) इसके अनन्तर भी। (जयो० वृ० १/२) अद् (सक्) खाना, निगलना। (सुद० ११२) गौस्तृणानि समादरणेऽत्ति। (जयो० ४/२१) बिना आदर के गाय भी तृण/घास नहीं खाती है।। अद (वि०) [अद्+क्विप्, अच् वा] खाने वाला, निगलने वाला। (सुद० १२१३) अद (वि०) भव, सम्पूर्ण संसार (जयो० २/३) अद्भुत (वि०) अपूर्व, अनुपम, अद्वितीय। (जयो० ३/१६, सुद० ३/९) यौवनेनाद्भुतं तस्याः । (जयो० ३/४३) अद्भुतम भूतपूर्वमेव। (जयो० वृ० ३/४३) अद्भुतच्छटा (स्त्री०) अपूर्वाछटा, अपूर्व कान्ति, अनुपम प्रभा। (जयो० ३/१६) अद्भुत-बोधदीपः (पुं०) असाधारण ज्ञानदीप। अद्भुतो ऽन्यजनेभ्योऽसाधारणश्चासौ बोधो ज्ञानमेव दीपः, स्व-परप्रकाशकत्वात्,। (जयो० १/८५) अदंष्ट्र (वि०) दन्तहीन, जिसके दांत निकाल दिए हों ऐसा सर्प। अदक्षिण (वि०) वाया, दक्षिणा बिना। अदण्ड्य (वि०) दण्डमुक्त। ०अपराध रहित। अदत् (वि०) दन्त रहित, दन्तविहीन। अदत्त (वि०) न दिया हुआ, अनुचित रूप से संग्रहीत, चुराया गया, अपहृत। (सुद० ४/४२) अदत्तादानं (नपुं०) चोरी, स्तेय। अदत्तभाग (वि०) चौर्य रहित। अदन्त (वि०) १. दन्त रहित, २. वह शब्द जिसने अन्त में 'अत्' या 'अ' हो। अदन्तः (पुं०) जोक। अदन्त्य (वि०) दांतों के लिए हानिकारक। अदभ्र (वि०) अनल्प, प्रचुर, पुष्कल, बहुत। अदम्भ (वि०) विशाल, उन्नत, रमणीय। हीरवीरचिताः स्तम्भा अदम्भास्तत्र मण्डपे। (जयो० १०।८८) अदम्भा विशाला: स्तम्भास्ते। (जयो० वृ० १०/८८) अदम्य (वि०) पर पराभवरहित। (वीरो० २/१०) अदय (वि०) दयाहीन। (जयो० १८/३७) अदर्शन (नपुं०) अनावलोकन, अनुपस्थित, अदृष्ट, लुप्त, लोप अभाव। अदर्शिन् (वि०) अदृष्ट, लोप युक्त, अदर्शनता अभावता, लोपता। (सुद० ९८) दस्याऽदर्शि सुदर्शनो मुनिरिवं (सुद० पृ० ९८) अद० (अव्य०) उधर, निम्नलिखित। (सुद० ९४) गदितं च वचोऽदः। (जयो० ४/५०) अदो निम्नलिखितं वचः। (जयो० वृ० ४/५०) अदस् (सर्व०) [पु० स्त्री-असौ] (जयो० १/१४) नपुं०-अदः यह, असौ कुमुद-बन्धुश्चेहितैषी। (जयो० ३/५१०) काशिका ययुरमी धिषणाभिः (जयो० ४/१६) 'अमी' शब्द प्रथमा बहुवचन। दरिणो हरिणा बलादमी। (जयो० १३/४७) अस्याः क आस्तां प्रिय एवमर्थः। (सुद० २२) अदातृ (वि०) कृपण, नहीं देने वाला। अदादि (वि०) 'अद्' से आरम्भ होने वाली धातु, दूसरे गण ___ की धातुओं का समूह अदाय (वि०) [नास्ति दायो यस्य] अदान, अप्रदाता, हिस्से से विमुख। अदायाद (वि०) उत्तराधिकारी से विमुक्त। अदायिक (वि०) उत्तराधिकारी न हों। अदितिः (स्त्री०) [दातुं छेत्तुं अयोग्या दो+क्तिन्] पृथिवी, भूमि, भू। कालः किलायं सुरभीतिनामाऽदिति : समन्तान्मधुविद्धधामा। (वीरो० ६/१२) अदिग्ध (वि०) देवमय (जयो० १४/६८) अदीन (वि०) दैन्य रहित। (जयो० १७/२१), उत्तम, श्रेष्ठ (जयो० ४/१०) अदुर्ग (वि०) जो दुर्गम न हो, सुगम, पहुंचने में सरल। दुष्ट (वि०) पुण्यवान्। (जयो० ३/२६) अदून (वि०) अहीन, पूर्ण, कम नहीं, निर्दोष, ०कुलीन। (जयो० १/८१) व्रताश्रितिं वागतवान दूनाम्। (जयो० १/८१) अदूना (स्त्री०) न्यूना, अहीना, पूर्णा। (जयो० ५/७३) अदूर (वि०) समीप, निकट, पास। (जयो० १९/१५) अदूरवर्तिम् (वि०) निकटवर्ती, समीपस्थ, सन्निकटस्थ। (जयो० ५/७३) अदृश् (वि०) [नास्ति दृग् अक्षि यस्य) दृष्टिहीन, अन्धा। For Private and Personal Use Only Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra अदृष्ट www.kobatirth.org अदृष्ट (वि०) [नज्-दृश् क्त] अदर्शनीय, अनदेखा, अनवलोकित। (सुद०२/२१) वार्ताऽप्यदृष्टश्रुतपूर्विका । (सुद० २/ २१) बात भी अदृष्ट है। अदृष्ट-पार (वि० ) अपार से पार, अगाध से उस पार । (सुद० १/२) हेतुरदृष्टपारे कविताभरे तु (सुद० १/२ ) अदृष्टफलं (नपुं०) शुभाशुभ कर्म वाला फल ।, अदृष्टिः (स्त्री०) कुदृष्टि, मिथ्यादृष्टि, द्वेषपूर्ण दृष्टि | अदृश्य (वि०) देव कर्म की अदृश्य विधि दृष्टुमयोग्या (वीरो० ३/१७) (सम्य० २४) देखने में असमर्थ । अदृश्यरूपं (नपुं०) अदर्शन स्वरूप। (जयो० ३/८८) अदेव (वि०) जो दिया न जाए, अप्रदत्त । अदेव (वि०) देवविहीन, अपवित्र । अदेश: (पुं०) कुदेश, खोटा स्थान अदेशस्थ (वि०) अनुपयुक्त स्थान, अनुचित स्थान । अदैव (वि०) भाग्यहीन, अभागा। अदोष (वि०) दोषमुक्त, निर्दोष। (वीरो० २८/३५) काव्य साहित्य में प्रयुक्त अदोषविधि । अदोषभाव: (पुं० ) निर्दोषभाव (वीरो० २२/३५) अद्धः (पुं०) मार्ग (सुद० ३/४०) अद्धा (अव्य०) सचमुच, वास्तव, अवश्य, बिलकुल, निःसन्देह अद्य (वि० ) [ अद्यत्) खाने योग्य, भोज्य अद्य (अव्य०) आज, अभी इस दिन अब। | J अद्यकालः (पुं०) सुद० १३४, जयो० २७/५६ सम्प्रत्यय (जयो० १२२११८) आज । अद्यतन (वि० ) [ अद्यष्ट्यु, तुट् च] वर्तमान काल, प्रत्युपन्न, इस समय, आज से सम्बन्धित । अद्यतनीय (वि०) आज का आधुनिक अद्यवा (अव्य०) आज ही । (सुद० ३/३७) । अद्याध (अव्य०) आज, इस प्रकार । (वीरो० ६/४३) अद्यावधि ( अव्य० ) इस समय, इस काल। (भक्ति सं० १, जयो० ० २३/८, आज तक (वीरो० १८/५५) अद्यापि (अव्य०) आज भी। (जय०वृ० १/८९) अद्रव्यं (नपुं०) द्रव्य हीन, तुच्छ वस्तु, निर्धन, अकर्मण्य । अद्रिः (पुं० ) [ अद्+क्रिन्] पर्वत, गिरि । (सुद० १२१ ) अद्रिः (पुं०) वृक्ष विशेष। (वीर जयो० १४/४५) अद्रिः (पुं०) सूर्य, रवि । (जयो० १४ / ४६ ) अद्रिईश (पुं०) पर्वतराज अद्रिनाथ : (पुं०) गिरिपति, शिव, ऋषभ। ३० Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अधरः अद्रिमति: (पुं०) शिव, ऋषभ। अद्रिराजक (पुं०) सम्मेदाचल, (जयो० १४/४६) अद्रिः शैले द्रुमे सूर्ये इति विश्वलोचन। उपमधुवनमद्रि राजकं च । (जयो० १४/४६) अद्रिभिर्नानावृक्षराजकं शोभितम् । अद्रिराजर्क सम्मेदाचलमाराधयन्न (जयो० ० १४/४६) अद्रि-शासिना (वि०) पर्वत शासित । ( वीरो० ७/२) अद्रि संगुप्त (वि०) पर्वताक्षिदित, गिरि संरक्षित । पर्वतों से घिरा हुआ। (सुद० ७७) दुर्गम उच्च स्तनों से संरक्षणीय । अद्रिसुता (स्त्री०) पार्वती, गौरी | अद्रिसानु: (स्त्री०) पर्वत कूट । अद्रिसार (पुं०) पर्वतसार, गिरि सत्त्व अद्रोह: (पुं०) मृदुता, सरलता । अद्वय (वि०) [नास्ति द्वयं यस्य] अद्वितीय, ० अनुपम, परम, उत्कृष्ट ० एकमात्र । अद्वितीय (वि०) अपूर्व, अनुपम, ०एकमात्र, ०असाधारण, ० अनन्य (चीरो० २/१६ जयो० १/१०, भक्ति सं० १, जयो० ११/४ अद्वैत (वि०) द्वैत हीन, एक स्वरूप ० एक स्वभाव, समभाव, • अपरिवर्तनशील अनन्य सदृशी वाग्याणी (जयो० वृ० ११/५५) ०एकमात्र, अनुपम, अनन्य (जयो० ११५५) अद्वैतः (पुं०) अद्वैतवाद। (जयो० ११ / ५५) अद्वैतवाक् (नपुं०) अद्वैतवाद | अद्वैतस्येकं ब्रह्मः द्वितीयो नास्तीत्यादि इत्यादिसम्प्रदायस्य वाग्यस्य । (जयो० वृ० ११/५५) अद्वैतवादः (पुं०) एक ब्रह्मवाद सिद्धान्त नान्यद् इति वादोऽद्वैतवादः (जयो० वृ० २७/८६) अद्वैतसम्वादः (पुं०) एकाकिन प्रसङ्ग, एकान्त का प्रसङ्ग । (जयो० १६ / २२) अद्वैतस्येकाकिनः सम्वादं प्रसङ्गमुपेत्य । (जयो० वृ० १६ / २२) अधस् (अव्य० ) [ अधर+असि, अधरशब्दस्य स्थाने अधादेश: ] नीचे, निम्न भाग पर निम्न प्रदेश में अधः स्थितायाः कमलेक्षणाया । (जयो० १३/८६ ) अधः देखो ऊपर। अधकरं (नपुं०) हाथ का निचला भाग । अधःस्थ (वि०) नीचे की ओर (जयो० १४/३३) अधम (वि०) [ अब अम्वस्य स्थानेधादेश) निम्नतम, For Private and Personal Use Only जघन्यतम । अधर (पुं०) ओष्ठ, ओंठ (सुद० १/३०, जयो० १/७२ ) होंठ । Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अधर अधिकारः अधर (विपुं०) नीच प्रकृति, निम्नभाव। नीचप्रकृतिरपि। (जयो० वृ० १/७२) अधर (वि०) ऊपर, ऊपर की ओर। अधरमिन्द्रपुरं विवरं। (सुद० १/३७) इन्द्र का नगर स्वर्ग तो अधर है। अधर (वि०) बीचों बीच, मध्य में। स्वतोऽधरं पूर्णमिदं सुयोगैः। (सुद० १/३०) अधरदलं (नपुं०) रदच्छद, (जयो० २/१५५) । अधरशोणि (वि०) ०दन्तच्छदलोहित, ०अधरोष्ठ की लालिमा, राग युक्त ओष्ठ। (जयो० १८/१०२) दन्तावलीमधर शोणिमसंभृदङ्काम्। अधरोष्ठ की लालिमा से चिह्नित दन्तपंक्ति। अधरबिम्बं (नपुं०) ओष्ठमंडल। (जयो० ३/५२) अधरभाग। बहुस्य वृत्तितावाऽधरबिम्बस्य दृश्ताम्। साध्व्या यतोऽधरं बिम्बनामकं च फलं परम्।। अधरलता (स्त्री०) ओष्ठतति, ओष्ठपंक्ति। (जयो० ३/६०) अधरीकृ (अक०) [अधर+च्चि कृ] आगे बढ़ जाना, पराजित करना। (जयो० २२/६७) अधरीकृत (वि०) अधरौष्ठ परिणत, निरादर भाव। (जयो० २२/६७) अधरीण (वि०) [अधर+ख] तिरस्कृत, निंदित। अधरेद्य (अव्य०) [अधर+एद्युस्] पहले दिन, परसों। अधरोष्ठः (पुं०) दन्तवास, दन्तच्छद। अधर्मः (पुं) तामसभाव, ०बुरा, अन्याय, धृष्टता। (सुद० ४/१२) अधर्मः (पुं०) अधर्मद्रव्य, षद्रव्यों में चतुर्थ द्रव्य। यह जीव और पुद्गलों के ठहरने में सहायक निमित्त कारण है। यह एक है, और असंख्यात प्रदेशी तथा सम्पूर्ण लोकाकाश में फैला है (सम्य० १९) (वीरो० १९/३६७) (सम०२२) अधर्मद्रव्यम् (नपुं०) अधर्मद्रव्य (वीरो० १९/३७) अधस्तन (वि०) [अधस्+ट्युः, तुट् च] निचला, निम्नकर्म, नीचकार्य। (जयो० २४/४७) अधस्तन कृष्टिः (स्त्री०) निम्नकर्म। अधस्तनद्रव्यं (नपुं०) निम्न द्रव्य। अधस्तनद्वीपः (पुं०) अधो द्वीप। अधार (वि०) आधार भूत। अधारिन् (वि०) धारण नहीं करने योग्य। (सुद० २/३) अधि (वि०) [आ+धा+कि] ऊर्ध्व, ऊपर। अधि (अव्य०) मुख्य, प्रधान, प्रमुख। अधि+उष् (अक्) बैठना, स्थित होना। अध्युषित नृपतिमलिना नानानुलिङ्गः। (जयो० ६/१००) अध्युषिता उपविष्टा। (जयो० वृ० ६/१००) | अधि एत् (सक०) पाना, प्राप्त करना। शाश्वत राज्यमध्येतुं प्रयते पूर्णरूपतः। (वीरो० ८/४५) अधिक (वि.) [अधि+क] ०बहुत, ०अतिरिक्त, बृहत्तर, अधिक से अधिक। (सम्य० १००/६६) अधिक (वि०) हेतूदाहरणाधिकमधिकम्। हेतु और उदाहरण के अधिक होने से अधिक नामक निग्रहस्थान है। अधिकर्तृ (वि०) अधिकारिणी। (जयो० ३/७३) अधिकरणं (नपुं०) [अधि+कृ+ल्युट्) ०सम्बंध, उल्लेख, अन्वय, कारक चिह्न। तस्याधिकरणमधिकारस्तम्मात्। (जयो० वृ० १/४) अधिकरणं (नपुं०) दार्शनिकशैली, जिस धर्मी में जो धर्म रहता है, उस धर्मी को उस धर्म का अधिकरण कहते हैं। 'घटत्व' धर्म का अधिकरण 'घट' है। यह अधिकरण, जीवाजीव रूप होता है। जीवाधिकरण समरम्भ, समारम्भ और आरम्भ रूप है, यह कृत, कारित और अनुमत रूप भी है। अजीवाधिकरण निर्वर्तना, निक्षेप, संयोग और विसर्ग रूप है। (सम्य० १५) अधिकरणिकः (पुं०) [अधिकरण+ठन्] न्यायधीश, दण्डाधिकारी। अधिकर्मन् (नपुं०) उच्चकार्य। अधिकर्मिकः (पुं०) [अधि+कर्मन्+ठ] अध्यवेक्षक, कर अधीक्षक अधिका (वि०) सुशोभित शोभनीया, (जयो० २०/४७) सा रसाधिका प्रभूतजलवती किंवा सारपक्षिभिरधिका शोभनीया। (जयो० वृ० २०/४७) अधिकाधिक (वि०) उत्तरोत्तर, अधिक से अधिक, बृहत्तर। क्षणसादधिकाधिकं जजम्भे। (जयो० १२/६९) अधिकाम (वि०) [अधिक: कामो यस्य] अधिक अभिलाषी, कामातुर, कर्त्तव्येछुक। अधिकारः (पुं०) [अधिक+कृ+घञ्] अनुग्रह, अधीक्षण, निरीक्षक, नियो० ७ (जयो० १/४) तस्याधिकरणमधिकारस्तस्मात् कृत्वा, आरात् समी पादेव कथं न पुनातु पवित्रयत्वेव। (जयो० वृ० १/४) नवरसों के विपुल अनुग्रह द्वारा शीघ्र ही क्यों न पवित्र करेगी अर्थात् अवश्य करेगी। "नियोगादधिकारादेव भुवः पृथिव्याः स्त्रियाः करं शुक्लं जग्राह। (जयो० १/२१) यत्नः कर्त्तव्योऽत्यधिकारे। (सुद० ७/४) अधिकारः (पुं०) प्रभुसत्ता, शासन। अस्या धराया भवतोऽधिकार: (वीरो० १७/१) स्वामित्व, प्रकरण, अनुच्छेद, अनुभाग। For Private and Personal Use Only Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अधिकारकः अधिधान्यं अधिकारकः (पुं०) स्वामी, नायक, पालक। (जयो० १०/५६) १/५५) चन्द्रमा बार-बार पहुंचने के लिए तत्पर रहता गुणकृष्ट इवाधिकारकः। (जयो० १०/५६) था। अधिगच्छेत्तदा तदास्य तुल्यता। (जयो० वृ० १/५५) अधिकारिन् (वि०) [अधिकार+णिनि] शक्ति सम्पन्न, सत्ता तन्निर्जरत्वमधिगन्तुमपीत: (जयो० ४/५२) निर्जरपन प्राप्त युक्त, स्वामित्व संयुक्त। करने के लिए प्रयत्नशील है। अधिगन्तुं स्वीकर्तुमपि। अधिकारिणी (स्त्री०) मालकिन्, स्वामिनी। 'मञ्जुवृत्त (जयो० वृ० ४/५८) 'जयोदय' के चौथे सर्ग के ५८वें विभवाधिकारिणी' (जयो० ३/११) मञ्जवृत्तस्य श्लोक में 'अधिगम्' का अर्थ स्वीकार करना भी है। मनोहराचरणस्वरूपस्य आख्यानादेर्विभवस्याधिकारिणी। 'परिकृतः परितोऽत्यधिगच्छति' (जयो० ९/३१) इसमें (जयो० वृ० ३/११) कामिनी-मञ्जुलस्य सुन्दरस्य 'अधिगम्' का अर्थ चलना है। अन्धा दूसरे के हाथ पकड़ मनमोहकस्य वृत्तस्याचरणस्य यो विभवस्तस्याधिकारिणी। लेने पर चलता है। क्षणादेव: विपत्ति: (जयो० वृ० ३/११) कविता-मञ्जुनां निर्दोषाणां वृत्तानां स्यात्सम्पत्तिमधिगच्छतः। (वीरो० १०/२)। छन्दसां विभवस्य आनन्दस्य अधिकारिणी भवत्येव। (जयो० अधिगम (पुं०) ०पदार्थ ज्ञान, प्रमाण या नय का भेद। वृ० ३/११) अधिगमोऽर्थावबोधः (स०सि०१/३) अर्थवबोध। अधिकारिणी (वि०) गणनाकी, गणिनी। (जयो० वृ० २२/७०) अधिगमः [अधि+गम+घञ्-ल्युट च] ०अर्जन, प्रापण, अधिकारिणी (वि०) अधिकारी। (सुद० २१/३२) ०अध्ययन, प्राप्ति। स्वीकृति (सम्य० ८३) (वीरो० शाटीव समभूदेषा गुणानामधिकारिणी। १६/२७) सदारम्भादनारम्भादघादप्यतिवर्तिनी।। अधिगमज (वि०) सम्यग्दर्शन का गुण। अधिकारित्व (वि०) अधिकार वाली। (हित०सं० १४) अधिगुण (वि०) [अधिका गुणा यस्य] योग्य, गुणी, श्रेष्ठ अधिकर्तृत्व (वि०) अधिकारी (वीरो० १८४४९) अधिकार्य गुण वाला। की अधिकारी (वीरो० १७/४) अधिचरणं (नपुं०) [अधि+चर+ल्युट] प्रतिगमन, विचरण। अधि+कृ (सक्) भरना, ग्रहण करना। कञ्चन-कलशे अधिजननं (नपुं०) [अधि+जन्+ ल्युट्] जन्म, उत्पत्ति। निर्मलजलमधिकृत्य। (सुद० वृ० ७१) निर्मल जल को अधिजिह्वः (पुं०) सर्प। स्वर्ण घट में भरकर लाऊ। अधिकुर्वते-धारण करना। अधिजिह्वा (स्त्री०) जिह्वा रोग। (जयो० २४/४६) अधिज्य (वि०) [अध्यारूढा ज्या यत्र, अधिगतं ज्या वा। धनुष अधिकृत (वि०) [अधि+कृ+क्त] अधिकार प्राप्त, नियुक्त। पर खींचे, डोरी ताने। अधिकृत्ये ति अधियोगे सप्तमी। (जयो० वृ० ९/५२) अधित्यक्त (वि०) [अधि+त्यकन्] समतल भूमि। अधिकृतः (पुं०) राजपुरुष, पदाधिकारी। अधिदन्तः (पुं०) [अध्यारूढो दन्तः] दान्त के ऊपर दांत। अधिकृतिः (स्त्री०) [अधि+कृ+क्तिन्] स्वामित्व, प्राधिकार। अधिदेवः (पुं०) इष्ट देव, प्रधान देव। अधिकृत्य (अव्य०) [अधि+कृ+ल्यप्] उल्लेख करके। अधिदेवता (पुं०) विद्या देवता, वाणी देव। पुनरवददेव तां अधिक्रमः (पुं०) [अधिक्रिम्+घञ्] आक्रमण, धावा, हमला। साधिदेवता। (जयो० ६/७२) अतिक्रमणं (नपुं०) आक्रमण, हमला। अधिदेवता (स्त्री०) अधिष्ठात्री देवी। हिंसातीत्यधिदेवताभिरुचये अधिक्षेपः (पुं०) [अधि+क्षिप्+घञ्] ०अपमान, गाली, अधिदेवं श्रीमान् प्रशस्तोदयः। (मुनि० पृ० २) ०अनादर, ०दोषारोपण। ०आधात, ०प्रहार। अधिदैवतं (नपुं०) इष्टदेव। (जयो० २/३५) भूमिकासु जिननाम अधिगत (वि०) [अधि+गम्+क्त] प्राप्त, अर्जित, उपार्जित, | सूच्चरंस्तत्तदिष्टमधिदैवतं स्मरन्। गृहस्थ किसी भी कार्य ०संगृहीत। अधिगतस्तदलङ्करणे। (समु० ७/११) के प्रारम्भ में जिनदेव का नाम लेकर अपने इष्टदेव का अधिगत (वि०) अधीत, सीखा गया। स्मरण करे। इष्टदैवतं स्वेष्टदेवताम्। (जयो० वृ० २/३५) अधि+गम् (सक०) [अधि+गम्] पहुंचना, आना, जाना, | अधि+ध्या (सक०) ध्यान करना, चिंतन करना। प्राप्त करना। (अधिगच्छते, अधिगच्छति, अधिगन्तुम) अधिधान्यं (नपुं०) विशेष धन धान्य। वीक्ष्य लोकमधिधन(जयो० १/५५) चन्द्रोऽधिगन्तुं मुहुरेव भाष्यम् (जयो० धान्यधनेशमाप। (जयो० ४/६९) For Private and Personal Use Only Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अधिनाथ: ३३ अधीतिः अधिनाथः (पुं०) स्वामी, परमेश्वर। (जयो० ८/७) अधिपः (पुं०) [अधि+पा+क] अधिपति (सम्य० १००) नरपति, राजा, स्वामी, नायक, शासक, प्रभु प्रधान, ०सम्राट्। अधिपस्य बभौ तनूदरी। (सुद० ३/३) अधिपतिः (पुं०) [अधि+पा+इति] ०नरपति, राजा, प्रभु, शासक, नायक, प्रधान स्वामी। यथाऽधिपतिरेष विशां स्वदृशा तथा। (सुद० २/४९) फुल्लल्यलङ्गाधिपति। (जयो० १८८१) अधिपत्नी (स्त्री०) शासिका, स्वामिनी। अधिपायमानः (वि०) अधिपति बनाते हुए। द्वीपेषु । सर्वेष्वधिपायमानः। (सुद० १/११) । अधिपा (वि०) नीतिविद्। (जयो० १५/७८) अधिपुः (पुं०) स्वामी, प्रभु, परमेश्वर। अधिपोदः (पुं०) सूर्योदय (जयो० १९/१) अधिभूः (वि०) स्वामी, प्रभु, परमेश्वर, नाथ। अभिभुव (वि०) बढ़ाने वाला। (सुद० ३/१४) वृद्धि को प्राप्त हुए (वीरो० १८/४५) अधिभित्तिः (वि०) विभक्ति का आश्रय। अधिमात्र (वि०) [अधिका मात्रा यस्य] अपरिमित, अत्यधिक। अधिमासः (पुं०) अधिकमास, मलमास, लौंद का महिना। अधियज्ञः (पुं०) प्रधान यज्ञ। अधियोगः (पुं०) ध्यान विशेष ध्यानधिकृत्यम् (जयो० २७/३) अधिरथ (वि०) [अध्यारूढो रथं] रथारूढ़ सारथि, सूत। अधिराजः (पुं०) (अधि+राज्+क्विप्) परमशासक, सम्राट्र। हस्तिपुराधिराजः। (जयो० १/५) अधिराज्यं (नपुं०) [अधिकृतं राज्यम्] साम्राज्य, सर्वोच्च शासन। अधिरूढ (वि०) अधि+रूह ल्युट्। चढ़ना, सवार होना, बिठाना। अधिरूहू (सक०) बिठाना, स्थापित करना, आरूढ करना। (जयो० १३/७) सुरथ स्वयमध्यरू रुहन्निति स प्रांशुतरं सुखाशयः। (जयो० १८/७) अध्यरूरुहत्। (जयो० वृ० १३/७) अधिरोहणं (नपुं०) [अधि+रूह+ल्युट्] चढ़ना, सवार होना। अधिरोहिन् (वि०) [अधि+रूह्+णिनि] सवार होने वाला, आरूढ़ होने वाला। अधिलोकम् (नपुं०) विश्व से सम्बंध रखने वाला। अधिवचनं (नपुं०) [अधि+व+ल्युट] पक्षसमर्थन, उपनाम, अभिधान। अधिवासः (पुं०) ०वासस्थान, निवास, संस्कार विशेष, ____ आवास। (जयो० ८/७) अधिवासनम् (नपुं) [अधि+वस्+णिच्+ल्युट्] सुगंध रखना, सुरभि रखना। अधिवेशः (पुं०) अधिवेशन, समारोह। भो सुभद्र! भवतामधिवेशः। (जयो० ४/३६) अधिवेशोऽधिवेशनम्। (जयो० वृ० ४/३६) अधिश्रयः (पुं०) [अधि+श्रि+अच्] आधार, आश्रय। अधिश्रयणं (नपुं०) [अधि+श्रि ल्युट्] गरम, उबालना। अधिश्रित (वि०) तत्पर, उद्यत, आश्रित। सम्यक्त्वसूर्योदय भूभृतेऽहमधिश्रितोऽस्मि। (सम्यक्त्वसार श० पृ० १) अधिश्री (वि०) [अधिका श्रीर्यस्य] उच्च प्रतिष्ठा, उन्नत लक्ष्मी। अधिष्ठ-शरीरम् (नपुं०) मृदुलशरीर, सुकुमार देह। (वीरो० २१/२०) अधिष्ठान (नपुं०) [अधि+स्था ल्युट्] ०परिनिर्वाण, निवास स्थान, आवास, आसन, नगर, पद, उपनिवेश। तमप्यधिष्ठानमहीधरं। (जयो० २४/३१) श्री नाभेयस्याधिष्ठान् महीधरं परिनिर्वाणस्थल। भगवान वृषभदेव का निर्वाणस्थान। (जयो० वृ२०२४/३१) अधिष्ठात्रीदेवी (स्त्री०) ०इष्टदेवी। (मुनि०वृ० २) कुलदेदेवी, ०अधिदेवता। अधिष्ठित (वि०) [अधि+स्था+क्त] स्थित, विद्यमान, अधिकृत, निदेशन, ०परिरक्षित, सुरक्षित, अधीक्षित। (सम्य ९३) परमार्थमधिष्ठितः (हित०सं० पृ० ५) अधि+स्था (अक०) बैठना, रहना, स्थित होना (वीरो० २२/५) शिक्षा प्रदातुमधितिष्ठति सर्वकृत्वः (वीरो० २२/५) अधीट् (पुं०) स्वामी, नायक, प्रभु। (जयो० ७) अधीत (वि०) योग्य, पढ़ा लिखा। (सुद० १३५) स्तुताञ्जन तयाऽधीतः। (सुद० १३५) अधीतारे-पढ़ी (अधीत) विशेष रूप से पढ़ी गई। 'प्रभवति कथा परेण पथा रे युवते रते मयाऽधीतारे।। (सुद० पृ० ८८) अधीतिन् (वि०) [अधीत+इनि] अध्ययन की गई, पढ़ी गई, रची गई। उपसकानामधीतिश्च। (जयो० २/४५) उपासकाध्ययन का अध्ययन करें। अधीतिबोधाऽऽचरणप्रचारैश्चतुर्दशत्वम्। विद्या विशद रूप अधीति/ ०अध्ययन, बोध/ज्ञान, आचरण और प्रचार के द्वारा चतुर्दशत्व को प्राप्त हुई। अधीतिः (स्त्री०) ०अध्ययन, अनुशीलन। स्मरण, प्रत्यास्मरण, For Private and Personal Use Only Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अधीन अध्ययन ०अनुचिंतन, आगम। (जयो० २३/४७, सुद० ८२, सम्य० (सुद० ७९) अब कहां। ममाधुना निर्वृतिरेव योग्या। (सुद० ११७/७४) पं०१११) अधीन (वि०) [अधिगतम् इनम् प्रभुम्] आश्रित, निर्भर। | अधुना तु (अव्य०) इस समय तो। (सुद० ३/४०) क्षिप्ताऽसि (समु० ९/७) अनेकान्तमताधीनोऽप्येकान्तम्। विक्षिप्त इवाधुना तु। (सुद० ३/४०) अधीनस्थ (वि०) आश्रित रहने वाला। (वीरो० १७/१६) अधुनात्र (अव्य०) [अधुना+अत्र] अब यहां, इस समय यहां। निराकुलभावेनाधीति: समध्ययनम्। (जयो० वृ० २३/४७) (जयो० ४/६१) तापमधुनात्र दिनेश:। (जयो० ४/६१) अधीयानः (व०कृ०) [अधि+इ+शानच] विद्यार्थी, पाठक, | अधुनातन (वि०) [अधुना+ट्युल्] आधुनिक, वर्तमान काल ०अध्ययनशील। ग्रन्थ पुनरधीयानो। (समु० ९/७) से सम्बंधित। अधीयानः (व०कृ०) आश्रित, आधीन। भाग्यतमस्तमधीयानो अधोगत (वि०) विकृष्ट, निम्नगत। (सुद० १/३०) नीचे की विषयानुयाति यः। (सुद० वृ० ८२) ओर अधीर (वि०) ०उत्तेजित, उद् विग्न, ०व्याकुल, अस्थिर, अधोगतिः (पुं०) निम्नगति (वीरो० १६/१४) ० धैर्यहीन, चपल, निराश, धीरतारहित। (जयो० ८/५१) अधोविधानम् (नपुं०) निम्न गति (वीरो० १६/१४) सम्भोगमन्तः स्मृतवानधीरः। (जयो० ८/५१) अधीरो अधोजटी (वि०) [अधो गच्छति जटा यत्र] नीचे की ओर धीरतारहितोऽपरः। (जयो० वृ० ८/५१) । जड़ वाली। (जयो० १४/६) अधीरता (वि०) चञ्चलता, चपलता। विषयोपभोग-सङ्घर्षे | अधोभागः (पुं०) निम्नभाग, निचला हिस्सा। (जयो० ७० अधीरतया चञ्चलतया। (जयो० वृ०७/११४) १३/७) अधीर-दृष्टिः (स्त्री०) चञ्चल दृष्टि, चपल दृष्टि। (जयो० | अधोमुखं (नपुं०) झुका मुख, नम्र मुख। (जयो० १६/५३) ५/८५) अधीरा चञ्चला दृष्टिर्यस्यास्तस्याम्। (जयो० वृ० अधोवस्त्रं (नपुं०) परिधान (जयो० १५/१००) ५/८५) अधुवत्व (वि०) अनित्यत्व, अविनश्वर। (जयो० २३/८४) अधीरा (स्त्री०) चञ्चला, चपला, सनकी, कलहप्रिया। अधृतिः (स्त्री०) [नञ्+धृ+क्तिन्] असंयम, धैर्याभाव। (जयो० वृ० ५/८५) अधृष्टय (वि०) अजेय, दुर्घर्ष, अनभिगम्य। अधीशः (पुं०) नरनाथ, नरपति, ०अधिपति, राजा, स्वामी। अध्यक्ष (वि०) [अधिगतम्+अक्षम् इंद्रियम्] अक्ष्णोति व्याप्नोति तदधीशाज्ञयाऽऽयातः। (जयो० ३/३१) अधीशस्य नरनाथ- इति अध्यक्षः। ०प्रमुख, ०अधिष्ठाता। प्रत्यक्ष (वीरो० स्याज्ञया शासनेन अहमायातोऽस्मि। (जयो० वृ० ३/३१) २०/१८) अधीश: स्वामी। (जयो० वृ० ४/५१) अध्यग्नि (अव्य०) विवाह संस्कार की अग्नि के निकट, अग्नि अधीश्वरः (पुं०) ०स्वामी, नरनाथ, ०अधिपति, प्रभु, राजा। साक्षी। श्रीधरोऽधीश्वरो यस्याः । (जयो० ३/३०) समु० ३/१८ अध्यधि (अव्य०) [अधि+अधि] ऊपर, ऊँचे, उच्च। (जयो० १२/२४) अधीश्वरः स्वामी (जयो० वृ० ३/३०) अध्यधिक्षेपः (पुं०) दुर्वचन, कुत्सित वाणी, अपशब्द। सम्बभूव च सुलक्षणिकाऽस्याधीश्वरस्य शुचिरधिमभृदास्या। अध्यधीन (वि.) वशीभूत, आधीन, पूर्ण आश्रित। (समु० ३/१८) अध्ययः (पुं०) [अधि+इ+अच्] ज्ञान, अध्ययन, स्मरण, अधीष्ट (वि०) [अधि+इष्+क्त] प्रार्थित, सत्कारित, सम्मानित। अध्याय। अभीष्टः (पुं०) कर्त्तव्य, पद। ०इच्छित।, उचित। अध्ययनं [अधि+इ+ल्युट] ०सीखना, जानना, ०पढ़ना, अधुना (अव्य०) अब, इस समय, साम्प्रतम्। यौवनेनाधुनाऽञ्चिता। स्वाध्याय, पठन। (सम्य ९४) अधीति। (हित०सं० १७, (जयो० ३/५९, सम्य० १४८/९७) अधुना पुनयौवनेने जयो० १८४६) तस्यैवाऽध्ययन तथा यतिपते: स्वाध्याय अञ्चिता। (जयो० वृ०३/५९) अधुना साम्प्रतमानन्दवारिधिः। संज्ञं धनम्। (मुनि०२१) सूक्तों/सुभाषितों का चिन्तन या (जयो० वृ० १/१०२) भक्तोऽधुना समगच्छतोपसम्मति। अध्ययन मुनिराजों का स्वाध्याय है। परमागम-पारगामिना (जयो० २/१५८) यहां 'अधुना' का अर्थ पश्चात्, फिर विजिता स्यां न कदाचनाऽमुना। स्म दधाति सुपुस्तकं सक्ष भी है। पश्चात् आज्ञा पाकर घर लौट गया। अधुना कुतः सविशेषाध्ययनाय शारदा।। (सुद० ३/३१) शारदा विशेष For Private and Personal Use Only Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अध्ययन-काल: ३५ अध्रुवत्व गुरु। अध्ययन के लिए पुस्तक को सदा हाथ में धारण करती गुरु, शिक्षक, पढ़ाने वाला। अर्हन्नथो सिद्ध इतो गणेश हुई चली आ रही हैं। श्चाध्यापकः साधुरनन्यवेशः। (भक्ति०१७) अध्ययन-कालः (पुं०) स्वाध्याय का समय, पठन का काल। अध्यापनं (नपुं०) [अधि+इ+णिच् ल्युट्] शिक्षण, सिखाना, अध्ययन-गत (वि०) अध्ययन/पठन को प्राप्त। पढ़ाना, वेदमति। (जयो० वृ० ४/५७) अध्ययन-पदं (नपुं०) अध्ययन योग्य पद। अध्यापयितु (पुं०) [अधि+इ+णिच्+तृच्] अध्यापक, शिक्षक, अध्ययनप्रतिष्ठा (स्त्री०) पठन की प्रतिष्ठा, स्वाध्याय की स्थापना। (जयो० १८/४६) अध्यायः (पुं०) अध्ययन, चिन्तन। (दयो० २४) अध्याय को अध्ययन-रत (वि०) पढ़ने में तल्लीन, स्वाध्यायरत। सर्ग, खण्ड, पाठ, उच्छवास, भाग, अंश, हिस्सा, व्याख्यान अध्ययन-शील (वि०) पढ़ने वाला, स्वाध्याय करने वाला, आदि भी कहते हैं। ज्ञानेच्छुक। अध्यायिन् (वि०) [अधि+णिनि] अध्ययनशील, पढ़ने वाला। अध्ययन-समय (नपुं०) स्वाध्याय का समय, पठनकाल। अध्यारूढ़ (वि०) [अधि+आ+रूह+क्त] १. आरूढ़, सवार, (दयो० १/१०) स्थित हुआ, ऊपर स्थित। २. ऊँचा, श्रेष्ठ, निम्नतर। अध्यर्ध (वि०) [अधिकमर्थं यस्य] जिसके पास अतिरिक्त अध्यारोपः (पुं०) [अधि+आ+रूह्+णिच्+पुक्+घञ्] उठना, आधा हो। खड़े होना। मिथ्या या निराधार कल्पना दार्शनिक दृष्टि से अध्यवसानं (नपुं०) [अधि+अव+सो ल्युट्] प्रयत्न, ०बुद्धि इस शब्द का अर्थ है एक वस्तु को अन्यवस्तु समझना, व्यवसाय, ०अध्ययवसान, ०मति, विज्ञान, चित्त, ०भाव, भ्रम पैदा होना, भ्रान्तिपूर्ण विचार होना। परिणाम, ०दृढ़ निश्चय, ०एक दार्शनिक विचार, जो अध्यारोपणं (नपुं०) [अधि+आ+रूणिच् पुक्+ल्युट्] बीज प्रकृत और अप्रकृत दोनों वस्तुओं को एक रूप करें। बोना, उठना। अतिशयोक्ति अलंकार पर आश्रित। अज्ञान, अदर्शन अध्याश्रित (वि०) उपढौकित, प्राप्त हुई। कौतुकेन महता और अचारित्र भी अध्यवसान है। मुहुरध्याता। (जयो० २२/४४) (अध्याश्रिता उपढौकिता) अध्यवसाय: (पुं०) [अधि+अव+सो+घञ्] प्रयत्न, ०दृढ़ निश्चय, जयो० वृ० २२/४४। प्रयास, संकल्प, धैर्य, उद्यम, परिश्रम, कोशिश। अध्यासः (पुं०) १. मिथ्या आरोप, मिथ्या ज्ञान। २. स्व-पर के अध्यवसायिन् (वि०) [अधि+अव+सो+णिनि] प्रत्यनवान्, एकत्व का अध्यास। ३. कुचलना, समाप्त करना। दृढ़शील, प्रयासरत, संकल्पयुक्त। अध्यासनं (नपुं०) [अधि+आस ल्युट्] प्रधानता देना, स्थित अध्यशनं (नपुं०) [अधि+अश्+ल्युट] अधिक खाना। होना, ऊपर बैठना। अध्यात्म (वि.) [आत्मनः संवद्धम्] ०आत्मा या व्यक्ति से | अध्याहारः (पुं०) [अधि+आ+हु+घञ्] ०अनुमान करना, सम्बन्ध रखने वाला। शुद्धात्म में अनुष्ठान् की प्रवृत्ति, तर्क करना, कल्पना करना, ०अनुमान लगाना। दार्शनिक शुद्धात्म में विशुद्धता का आचरण, ०अनुकूल पदों का जगत् में जो वस्तु स्थिति को स्पष्ट करने के लिए कई व्याख्यान, आत्म के आश्रय का निरूपण। प्रकार की कल्पनाएं की जाती हैं अनुमान या तर्क आदि अध्यात्मज्ञानं (नपुं०) आत्म ज्ञान। प्रस्तुत किए जाते हैं, वे 'अध्याहार' कहलाते हैं। अध्यात्मरूचि (स्त्री०) आत्मरूचि। अध्याहरणं (नपुं०) [अधि+आस्+ल्युट्] तर्क करना, अनुमान अध्यात्मविद्या (स्त्री०) आत्मानुभवशास्त्रवृत्त, ग्रन्थ नाम। (जयो० लगाना। १०/११८) अध्युष्ट्रः (पुं०) [अधिगत: उष्ट्रं वाहनत्वेन] ऊँट गाड़ी। अध्यात्मश्रुतिः (स्त्री०) आत्मानशासक की दृष्टि। आत्मख्याति- अध्यूढः (पुं०) [अधि+व+क्त] उठा हुआ, उन्नत, उच्च। नमिका। (जयो० ५/५१) अध्येषणं (नपुं०) [अधि+इष्+ ल्युट्] प्रेरणा। अध्यात्मिकः (वि०) अध्यात्म से सम्बन्ध रखने वाला। अध्यषणा (स्त्री०) सत्कार पूर्वक व्यापार। अध्यापकः (पु०) [अधि+इ+णिच्+ण्वुल्] उपाध्याय, अध्रुव (वि०) अनित्य, अविनश्वर। ०पञ्चपरमेष्ठियों में चतुर्थ परमेष्ठी, परमपद में स्थित। अधुवत्व (वि०) अनित्यत्व, अविनश्वर, अनिश्चित, अस्थिर, For Private and Personal Use Only Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अधुव-बन्धं ३६ अनक्षरायित चञ्चल। दर्शनशास्त्र की दृष्टि से वस्तु दो प्रकार की होती है। १. ध्रुव और २. अध्रुव। 'ध्रुव' की सत्ता सदैव विद्यमान रहती है और 'अध्रुव' की नहीं। जैनसिद्धान्त में 'अध्रुव' को मतिज्ञान का भेद माना है। 'अध्रुव' प्रकृतिबन्ध में भी आता है। (तत्त्वार्थसूत्र महाशास्त्र वृ० १९) विद्युत्प्रदीप ज्वालादौ उत्पाद-विनाश-विशिष्टवस्तु-प्रत्ययः अध्रुवः। धव-पु० १३/वृ० २३१) अध्रुव-बन्धं (नपुं०) कालान्तर व्यच्छेदभावा। अधुव-बन्धिनी (वि०) कदाचित् बन्ध होना, नहीं होना। अधुवानुप्रेक्षा (स्त्री०) अनुप्रेक्षा का नाम। ०अनित्य भावना। अधुवावग्रहः (०) हीनाधिक रूप पदार्थ का अवग्रह। अधुवोदयः (पुं०) सातावेदनीय प्रकृति। अध्वन् (पुं०) [अद्+क्वनिप् दकारस्य धकारः] (क) पथ, | मार्ग, रास्ता, दूरी स्थान। (जयो० २१/१३) (सुद० वृ० १२) (ख) समय, यात्रा, भ्रमण, प्रसरण, उपाय, साधन, प्रणाली। अध्वकर्तनं (नपुं०) मार्ग काटना, मार्ग व्यतीत करना, मार्ग व्यत्ययन। अध्वनो मार्गस्य कर्तनं व्यत्ययनम्। (जयो० वृ० २१/१३) अध्वकर्तनविवर्तविग्रहास्ते। (जयो० २१/१३) अध्वखेदः (पुं०) मार्गश्रम, पथगमन उद्यम, परिश्रान्त। (जयो० १३/८५) अध्वग (वि०) यात्री, पथिक। अध्वगा (स्त्री०) गङ्गा नदी। अध्वनिन् (वि०) [अध्वन्+क्विन्] पथिक, राहगीर, यात्री, वटोही, मार्ग पर चलने वाला। (वीरो० २/१३) सुद० वृ० १२ अध्वनीनस्य पथिकस्य चित्ते (वीरो० वृ० २/१३) अध्वपतिः (पुं०) अध्वपतिः तु सूर्यः सूर्य, रवि, दिनकर। | अध्वन्य (वि०) [अध्वन्+यत्] यात्रा पर जाने योग्य। अध्वरः (पुं०) [अध्वानं सत्पथं राति-इति न ध्वरति कुटिलो न भवति] संस्कार युक्त सोमयज्ञ। यज्ञस्थल। (जयो० २/२५) अध्वरभू (स्त्री०) यज्ञस्थल। (जयो० २/२५) स्वीकरोति समयः पुनः सतामग्निरध्वरभुवीव देवता। (जयो० २/२५) अध्वरभुवि यज्ञस्थले अग्निर्देवता देवरूपेण श्रेष्ठ कथ्यते। (जयो० वृ० २/२५) अध्वविद (वि०) मार्ग ज्ञाता, पथ ज्ञायक। अध्वविदपवर्गमार्ग ज्ञातास्त रागो। (जयो० वृ० २७/५१) अध्वविमुख (वि०) नीतिपथाच्युत, नीतिपथानुगामी नहीं। नीतिरेव हि बलाद् बलीयसी विक्रमोऽध्वविमुखस्य को वशिन्। (जयो० ७/७८) अध्वविमुखस्य नीतिपथाच्युत। (जयो० वृ० ७/७८) अध्वर्युः (पुं०) (अध्वर+क्यच्यु च्) ऋत्विक, पुरोहित, याजक। अन् (अक०) सांस लेना, हिलना, जीना। अनः (पुं०) [अन्+अच्] प्रश्वास, निश्वास, उच्छवास। अनंश (वि०) अधिकार विहीन। अनक (वि०) (नञ्+अक्) अनक, निष्पाप, मतवर्जित, निर्दोष। कष्टवर्जित, सरल। (जयो० १/१०९) अनकं कष्टवर्जितं सरलमित्यर्थः। (जयो० वृ० १/१०९) अभ्यसा समुचितेन चांशकक्षालनादि परिपठ्यतेऽनकम्। (जयो० २/८०) यहां 'अनकं' का अर्थ निर्दोष है। अनकाङ्गि-प्रहारः (पुं०) निरपराध प्राणियों को मारना। (वीरो० १६/२१) अनकायः (पुं०) निर्दोष, पाप मुक्त। (वीरो० १६/१७) स्तनं पिवन वा तनुजोऽनकाय। (वीरो० १६/१७) स्पृशंश्च कश्चिन्महतेऽप्यघाय। कुलीन स्त्री के स्तन को पीने वाला बालक निर्दोष/अनकाय/पापरहित है, किन्तु उसी के स्तन का स्पर्श करने वाला अन्य कामी पुरुष महापाप का उपार्जक है। अनकिन् (वि०) निष्पाप, निर्दोष, पापरहित, पापी। श्रीमतां चरणयोः समुपेतः स्वामि एवमनकिन् सहसेतः। (जयो० ४/२४) सहसाभक्त्या स्वामी स्वयमेव। समुपेतोऽस्ति, अतोऽनेनानिष्पापोऽस्तीत्यर्थः। (जयो० वृ० ४/२४) अनक्ष (वि०) दृष्टिहीन, अन्धा। अनक्षर (वि०) ०मूक, गूंगा, बोलने में असमर्थ, अशिक्षित, ०अनपढ़, ०अयोग्य। अनक्षर (वि०) उच्चारण, ०श्रुत का एक भेद। उच्छवासित, नि:श्वसित, निष्ठभूत, कासित, छींक आदि अनुस्वार ध्वनि, ०हुंकारादि संकेत अनक्षर हैं। अनक्षरं (नपुं०) अपशब्द, दुर्वचन। अनक्षरात्मक (वि०) शब्द विशेष, दिव्यध्वनि रूप शब्द। अनक्षरात्मको द्वीन्द्रिया दिशब्दरूपो दिव्यध्वनि रूपश्च। (पंचावृ० ७९) अनक्षरायित (वि०) अनक्षर रूप। शू श्रूषणामनेका वाक् नानादेशनिवासिनाम्। अनक्षरायितं वाचा सर्वस्यातो जिनेशिनः।। नाना देश के निवासियों की भाषा अनेक प्रकार की थी, For Private and Personal Use Only Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अनगारः अनन्त परंतु जिनेन्द्र की वाणी सार्वहितैषी अनक्षरायित/अनक्षर निरूपायरमणीयानि सुहजसुन्दराणि। (जयो० ३/४०) अङ्गेन रूप से प्रकट हुई। (वीरो० १५/८) । शरीरेण रम्यो मनोहरो न बभूवेति विरोधः, किन्तु अनङ्गः अनगारः (पुं०) अनगार, साधु, श्रमण। (सुद० ४/२५) न कामदेव इव रम्यो मनोहरोऽभूदिति। (जयो० वृ० १/४१) विद्यते ऽगारमस्येत्यनगार:। (स०सि०७/१९) प्रात: अनङ्गलेखं (नपुं०) प्रेमपत्र। समापितसम्प्रधिरिहानगारधुर्यो नमोऽर्हत इतीदमदादुदारः। अनङ्गसङ्ग (वि०) काम साहचर्य। (जयो० १०/११५) (सुद०४/२५) अनङ्गसमवाय (वि.) कामदेव की सादृशता, कामदेव सम्बन्ध अनग्न (वि०) [नञ्+नग्न +घञ्] वस्त्रधारी। वाला। (दयो०६८) अनग्नि (वि०) अग्नि रहित, जलन विहीन, निस्तेज। अनङ्गसुखसारः (पुं०) काम-वासना जन्य सार, काम सुख अनघ (वि०) निष्पाप, निर्दोष, (जयो० २/२५) निष्कलंक। __ का प्रयोजन, शरीरातीत सुख, मोक्ष सुख। (जयो० ५/५१) अनघः (पुं०) शिव, विष्णु। अनञ्जन (वि०) बिन अंजन, कज्जल रहित। अनघानक (वि०) निर्दोष रूपार्थ, निर्दोष रूप अर्थ बताने अनच्छ (वि०) गर्त, गड्ढा। उन्मार्गगामी निपतेदनञ्छे। (वीरो० वाला। (जयो० २/२५) साम्प्रतं प्रणदितानघातक। (जयो० १८/४२) २/२५) अनणि (वि०) विपुल विस्तार। (जयो० वृ० २१/७६) अनणौ अनङ्ग (वि०) आकृतिविहीन, अशरीरी, देह रहित। विपुलविस्तारे। (जयो० वृ० २१/७६) अनङ्गः (पुं०) काम, कामदेव, रतिपति। (जयो० १०/११५) | अनति (अव्य०) बहुत अधिक नहीं, कम। अनङ्ग (वि०) परम सुन्दर (जयो० ६/५१) मदनश्चानङ्ग अनति (वि०) स्वीकृति, अङ्गीकृत। (जयो० २४/३) नयस्य एवाङ्ग (जयो० ६/५१) परिपूर्णमङ्ग यस्य सः परमसुन्दरः नीतेरानतिः स्वीकृतिः। (जयो० वृ० २४/३) इत्यर्थः। यस्यावलोकने कृते सति मघ्नः कामः स पुनरनङ्गः अनद्यतन (वि०) आज/प्रारम्भिक/आधुनिक/वर्तमान से सम्बन्ध एव शरीररहितः, स्वल्पसुन्दरो वा, प्रतिभातीति। (जयो० न रखने वाला यह लङ्गलकार और लट्लकार के अर्थ को वृ०६/५१) भी प्रकट करता है। अनङ्गक्रीडा (स्त्री०) कामक्रीड़ा, अन्य अंग की कामना। अनधिक (वि०) अधिकता रहित, असीम, पूर्ण। (अङ्ग प्रजननं योनिश्च, ततोऽन्यत्र क्रीडा अनङ्गक्रीडा। अनधीन (वि०) अपने आधीन, स्वाधीन। (स०सि०७/२८) अनध्यायः (पुं०) अनाभ्यास। अनजिष्णु (वि०) मदन विजेता, कामजयी मदन महेन्दु। अनध्ययनं (नपुं०) अध्ययन पर विराम। (जयो० ११/२८) जगज्जिगीषाभृदनङ्गजिष्णु। (जयो० अननं (नपुं०) [अन्+ल्युट्] सांस लेना, जीना। ११/२८) अननुका (वि०) आज्ञा। (समु० ३/४) अनङ्गजूर्तिः (पुं०) कामज्वर (सुद० १०२) अननुगामी (वि०) अवधिज्ञान का एक भेद। अनङ्गता (वि०) तुच्छशरीरता (जयो०१/४६) कामो भस्मीभावं अननुभाषण (नपुं०) निग्रहस्थान। गतवान्। (जयो० वृ० १/४६) अननुभावुक (वि०) न समझ, अनभिज्ञ। अनङ्गदशा (स्त्री०) काम भाव, [अन्+अङ्ग दशा] शरीर रहित | अननुया (वि०) पीछे दौड़ना। अवस्था। (सुद० वृ० १२३) सङ्गच्छन् यत्र महापुरुष, को अनन्तः (पुं०) अनन्तनाथ, चौदहवें तीर्थंकर। (भक्ति सं० नाऽनङ्गदशां याति। (सुद० १२३) १९) अनङ्गदर्शिक (वि०) १. कामदर्शक, २. अङ्ग नहीं दिखलाने अनन्तः (पुं०) शक्ति विशेष, जिसे अनन्त चतुष्टय भी कहा है। वाली। (जयो० ५/१०६) अनन्तः (पुं०) शेष नाग। (वीरो० २/२३) अनङ्ग प्रविष्टं (नपुं०) आगम ग्रन्थ, स्थविर रचित रचना। अनन्त (वि०) [नास्ति अन्तो यस्य] अन्त रहित, (सम्य अनङ्गभास (वि०) एकान्त, जहां शरीर नहीं दिखाई दे। १२२) अक्षय, असीम, अपरिमित। (जयो० १७/१०७) न सावश्यक ग्लानिरनङ्गभासे। (भक्ति सं० ४७) विद्यतेऽन्तो यस्य। (जयो० वृ० १७/१०७) अन्तो विनाश, अनङ्गरम्य (वि०) कामदेव के लिए रमणीय, अनङ्गरम्याणि न विद्यते अन्तो विनाशो। For Private and Personal Use Only Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अनन्त ३८ अनन्य-सहाय अनन्त वि०) अनन्त संख्या विशेष, आय-रहित और निरन्तर अनन्तानुबन्धी (वि०) अनन्तभवों की परम्परा को बनाए व्यय सहित होने पर भी जो राशि समाप्त न हो या जो रखने वाली कषाय। (सम्य० १२२) राशि एकमात्र केवलज्ञान का ही विषय हो। अनन्तानुरूपं (नपुं०) अनन्त रूप। (सुद० १/२९) अनन्तकायः (पुं०) अनन्तजीव, जिन अनन्त जीवों का एक अनन्तालयः (पुं०) शेषनाग का भवन। (वीरो० २/२३) साधारण शरीर हो तथा जो अपने मूल एवं जो शरीर से विभात्यनन्तालयसंकुलं। (वीरो० २/२३) छिन्न-भिन्न होने पर भी पुनः उग आते हैं, ऐसे थूवर, अनन्तालयः (पुं०) अगणितालय, असीम भवन। गुडूची आदि अनन्तकाय हैं। अनन्य (वि०) [न अन्योऽपरो वा] अभिन्न, अद्वितीय, अप्रतिहत अनन्तचतुष्टयं (नपुं०) अनन्त दर्शन, ज्ञान, सुख और बल। (जयो० १/९) निश्चित, दृढ़ (जयो०५/१०६) (१/१०), (भक्ति०१९) अनुपम, एकमात्र, अविभक्त, अविभाज्य, समरूप, अनन्तजिनः (पुं०) चौदहवें तीर्थंकर अनन्तप्रभु इन्हें 'अनन्तजिद्' एक सा, पूर्व। (जयो० ११/७२) रमणे चरणप्रान्ते अनन्तनाथ, भी कहते हैं। प्रणतिप्रवणेऽत्त्यनन्यशरणे वा। (जयो० १६/६१) इस पंक्ति अनन्तजीवः (पुं०) अनन्तकाय। में 'अनन्य' का अर्थ परम है। पाणिपीडनमनन्यगुणेन। अनन्तता (वि०) अनन्त रूपता। (वीरो० ७/२३) (समु०५/२२) यहां 'अनन्य' का अर्थ यशस्वी, अनुपम, अनन्तदेवः (पुं०) अनन्तनाथ। (चौदहवें तीर्थंकर) अद्वितीय है। (तवालसत्वं स्विदनन्यभासः) (जयो० ८७१) अनन्तधर्मता (वि०) अनन्तधर्म वाला। (सुद० ९१) अनन्यभासोऽसदृशतेजः। अनन्तनाथ: (पुं०) अनन्तजिन, अनन्तप्रभु। चौदहवें तीर्थंकर। अनन्यकर्मन् (नपुं०) अपूर्वकर्म (वीरो० २२/२७) (भक्ति सं० १९) अनन्यगतिः (स्त्री०) एकमात्र सहारा, एकमात्र आश्रय। अनन्तपार (वि०) असीम विस्तार युक्त, निस्सीम। अनन्यगुणं (नपुं०) यशस्वीगुण, अद्वितीय गुण। (समु०५/२२) अननन्तमिश्रित (वि०) अनन्तकायिक, अनन्यचित्तं (नपुं०) एकाग्रचित्त। अनन्तर (वि०) [नास्ति अंतरं यस्य] ०सीमा रहित, ०अन्त अनन्यजनः (पुं०) परम जन। (वीरो० २१/१९) रहित, सटा हुआ, ०संसक्त, निकटवर्ती। अनन्यजन्मन् (पुं०) कामदेव। ०मदन। अनन्तरं (नपुं०) सन्निकटता। अनन्यता (वि०) स्वार्थपरता। (वीरो० १/३४) अनन्तरं (अव्य०) पश्चात्, तुरन्त बाद, इसके बाद, पुनश्च। अनन्यतम (वि०) अभिन्नतम। (जयो० १०/२३) सुहृदोऽनन्यतमे (सम्य ७२) क्षेमप्रश्नानन्तरं ब्रूहि। (सुद० ३/४५) योग-भोग- गुणक्षमे। (जयो० १०/२३) योरन्तर खलु। (सुद० वृ०७०) पुनरनन्तरं (जयो० वृ० ११/१५) अनन्यतेजः (पुं०) अनन्यभास। (जयो० १/९) अनन्तर-बन्धं (नपुं०) कर्मरूप प्रथम परिणमन। अनन्यभावः (पुं०) अनुपमभाव (वीरो० २२/३६) अनन्तरसिद्धः (पुं०) सिद्धगति प्राप्त होना। अनन्यभासः (पुं०) असदृश तेज, अनुपम कान्ति। (जयो० अनन्तरूपत्व (वि०) जरा रहित, अन्तवर्ण रहित। न विद्यतेऽन्तो ८/७१) यस्य तत्तादृग्रूपं यस्य तस्य भाव। (जयो० १७/१०७) अनन्यमनस् (नपुं०) अनमने का रहस्य। (समु० ३/३१) अनन्तवियोजक (वि०) अनन्तानुबन्धी कषाय की विसंयोजना अनन्यरमणीय (वि०) परम रम्य, अद्वितीय, सुन्दरता। (जयो० वाला जीव। वृ० ३/४५) अनन्तवीर्य (पुं०) राजा जयकुमार और रानी शिवंकरा का | अनन्यवृत्तिः (स्त्री०) परमवृत्ति, अन्यत्र नहीं गमन। (भक्ति पुत्र। (जयो० २७/२) सं० २९) अनन्यवृत्त्यात्मनिमग्नतातः। (भक्ति०२९) अनन्तवीर्य (नपुं०) वीर्यान्तराय कर्म के क्षय से प्राप्त शक्ति, अनन्यवेषः (पुं०) [न अन्यो अपरो वेषो परिवेषः रूपः] अनन्त चतुष्टय में अन्तिम चतुष्टय, जिसे 'अनन्तबल' दिगम्बर रूप। भी कहते हैं। अनन्यशरणं (नपुं०) परमशरण, पूर्णशरण, अद्वितीयाश्रय। अनन्तसंसारी (वि०) अर्ध पुद्गल प्रमाण काल तक परिभ्रमण (जयो० १६/६१) करने वाला जीव। अनन्य-सहाय (वि०) इतर साहाय्य। (जयो० ६/११४) For Private and Personal Use Only Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org अनन्य सेविका अनन्य सेविका (वि०) परमसेविका, प्रमुख सेवा करने वाली। (जयो० २३/२९) अनन्यसेवा (स्त्री०) समर्थित भाव (भक्ति १२) अनन्य सुन्दरी (वि०) अपूर्व रूपा, परमसुन्दरी (जयो० ११/७६) अनन्वय: (पुं०) सम्बन्धाभाव । अनन्वयालङ्कार ( पुं०) अनन्वय अलंकार, जिसकी किसी वस्तु की तुलना उसी से की जाए और उसको ऐसा बेजोड़ सिद्ध किया जाए जिसका और कोई उपमान ही न हो। तथापि भूमावपि रूपराशावाशाधिकनार्यो बहुलास्तु तासाम् । का सावरम्या स्मरसारवास्तु सुरोचना नाम सुरोचनास्तु ।। (जयो० ३/७३) सुरोचना तु सुरोचनैव सूत्तमतया रोचना रूचिकरी विलसतु । न किल काचनापि स्त्री समकक्षतामेतस्या उपढौकतामिति । अनन्वयालङ्कारः । अनप (वि०) जलहीन, जल रहित, क्षुद्र जलाशय, सूखा तालाब (जयो० वृ० १/५) अनपकारणं (नपुं०) चोट न पहुंचाना। अनपकर्मन् (नपुं०) ऋण न चुकाना अनपक्रिया ( स्त्री०) पुनः वापस नहीं करना । अनपकारः (पुं०) उपकार का अभाव, अहित का अभाव। अनपकारिन् (वि०) उपकार का अभाव। अनपत्य (वि०) निस्संतान, सन्तानरहित। अनपत्रप (वि०) निर्जल्ज, जल्जाविहीन | अपभ्रंशः (पुं० ) शुद्ध शब्द, व्याकरण सिद्ध शब्द । अनपवृत्ति ( स्त्री० ) यथोत्तर प्रवृत्तिशील। (जयो० वृ० ११ / ५ ) अनपसर (वि०) अन्यायोचित, अक्षम्य । अनपाय (वि०) प्रसन्न, अनश्वर, अक्षीण, निर्वाध पूर्ण (भक्ति सं० १६, २४) स्वयंत्वमानन्दद्दशेऽनपाय: । (समु० ३ / ६) मनोरथस्तस्य सदाऽनपायः (भक्ति पृ० २४) अनपाय: (पुं०) शिव, कल्याण, निर्दोष (वीरो० २२ / १ ) अनपायिन् (वि०) [ अनपाय+णिनि] ० विच्छेद रहित दृढ़, स्थिर, अचल गोहिनो हि जगतोऽनपापिनी भक्तिरेव खलु मुक्तिदायिनी (जयो० २/३८) अनपायिनी विच्छेदरहिता। (जयो० वृ० २/३८) मनसा मन्यमानानां वचसोच्चरतामिदम्। कायेन कुर्वतामेवं सिद्धि स्यादनपायिनी । (हि०सं० वृ०२) ३९ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अनर्थक अनपेक्ष (वि० ) ०असावधान, ०अपेक्षा रहित, ०उदासीन, ०ध्यानशून्य (मुनि००९) अनपेक्षक (वि०) अपेक्षा रहित । अनपेक्षिन् (वि०) असावधान, उदासीन अनपेत (वि०) विचलित नहीं हुआ। । अनभिज्ञ (वि०) अनज्ञान, अनभिज्ञ, अपरिचित, अनभ्यस्त । (वीरो० ३/९) (सम्य ३२) अनभिज्ञत्व (वि०) अपरिचितपना; अज्ञत्व (वीरो० वृ० ३ / ९ ) मोक्षपुरुषार्थसम्पत्तयेऽनभिज्ञत्वमहत्व वेद । अनभिव्यक्त (वि०) गुप्त। (जयो० कृ० १६/४२) वेद। (वीरो० वृ० ३/९) अनभ्यावृत्ति (स्त्री०) पुनरुक्ति का अभाव। अनभ्यास (वि०) अभ्यास रहित । अनम्बर (वि०) दिगम्बर, निर्ग्रन्थ। अनयः (पुं०) अन्याय, अनीति नीति वर्जित दुराचार, दुर्नीति, विपत्ति, दुःख । दुर्भाग्य। (जयो० ७ /६०) अनयन (नपुं०) अन्धा, जन्मान्ध (जयो० २५/७०) २५/६८) अनयनोऽन्धोऽपि जन: । अनयनश्च जनः श्रुतमिच्छति । परिकृतः परितोऽप्यधिगच्छति । अहहसूळतया न मया हितं सुमतिभाषितमप्यवगाहितम् ।। (जयो० ९ / ३१ ) अनरः (पुं०) अतिमानुष (जयो० २ / ३९ ) अनर - गोचर ( वि०) देव गोचर (जयो० २ / ३९) नराणां गोचरं न भवतीति अनरगोचरमतिमानुषं कार्यं साधयति । (जयो० वृ० २ / ३९) अनध (वि०) मेघ विहीन । अनम्र (वि०) नम्रता हीन, अविनीत। अनर्गल (वि०) अव्याहत ०फैलाव ० अनियन्त्रित, ० स्वेच्छाचारी । (जयो० १३ / ३० ) अनर्गलसद्रिन् (वि०) ० अव्याहत प्रसार, ०बहुत तेजी के साथ फैलाव । किमनर्गलसर्पिणे स्थितिं, क्षमता दातुमहो बलाय मे। (जयो० १३/३० ) अनर्घ (वि०) अमूल्य, अनमोल। (सुद० ७२ ) अनर्घ्य देखो ऊपर। अनर्घ्य (वि०) ० अनुपयुक्त, ०भाग्यहीन, ०निष्क्रिय, ० निरर्थक, हानिकारक | " अनर्थः (पुं०) अनुपयुक्त वस्तु ० विपत्ति, दुर्भाग्य, ० विप्लवकरी, ०अनिष्ट । अनर्थक देखो अनर्थकर | For Private and Personal Use Only Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अनर्थकर ४० अनवस्था-दोषः अनर्थकर (वि०) ०अनिष्टकर, हानिकर, अलाभदाई, निरर्थक, दलमनल्प: यशो जल्पन्ती। (जयो० २/१५५) देवमन्नसारहीन। वसनाद्यनल्पशः। (जयो० २/९९) अनल्पशो बहुवारम्। अनर्थकरी (वि०) अनिष्टकारी, हानिकारक, अलाभदायक। (जयो० वृ० २/९९) अनर्थता (वि०) व्यर्थमेव, हानिकारिता। (जयो० ४/२७) । अनल्पित (वि०) अधिकतम्, अत्यधिक, अति। (जयो० ७/६६) अनर्थदण्डः (पुं०) अनर्थदण्डव्रत, दिग्व्रत का एक भेद। अनल्पितक्रध (वि०) अतिक्रोधित, अत्यन्ताद्ध। प्रयोजनं बिना पापादानहेत्वनर्थदण्डः। (चा०सा०१६/४) अनल्पितक्रुधोऽतिकोपवतः। (जयो० ७/६६) पापोपदेश, हिंसादान, अपध्यान, दु:श्रुति और प्रमादचर्या अनवकाश (वि०) अप्रयोज्य, अनाहूत। ये पांच अनर्थदण्ड हैं। (तत्त्व ७/२१) अनवकाशः (पुं०) कार्य क्षेत्र का अभाव, स्थानाभाव। अनर्थनीतिः (स्त्री०) विप्लवकरी चेष्टा। आयाति भो भरत- अनवग्रह (वि०) अतितीव्रगामी। भूभृदनर्थनीतिः। (जयो० २०/३०) अनर्थस्य नीतिविप्ल- अनवच्छिन्न (वि०) ०अनिद्रिष्ट, ०अविकृत, ०अबाधित, वकरी चेष्टा प्रतीतिमायाति। (जयो० वृ० २०/३०) ०अपृथक्कृत, ०सीमांकन रहित, सीमा रहित। अनर्थ-सूदनं (नपुं०) अनिष्टनाशन। देवपूजनमनर्थसूदन। (जयो० अनवधानं (नपुं०) असावधानी। असत्यवक्ताऽनवधानतोऽपि। २/२३) अनर्थं सूदयतीत्यनर्थ सूदनम् अनिष्टनाशनम्। (जयो० (समु० ३/२२) वृ० २/२३) अनवधानता (वि०) बिना प्रयोजन, कारण बिना। (समु०३/२२) अनर्ह (वि०) अयोग्य, अपूज्य, अनुपयुक्त। अनवधि (वि०) असीमित, अपरिमित। अनलः (पुं०) [नास्ति अलः पर्याप्तिर्यस्य] अग्नि, बह्नि, आग। अनवद्य (वि०) निर्दोष, अनिंद्य, समीचीन, उत्कृष्ट, निष्कलंक। (जयो० २।८१) १/७६)। ततोऽनवद्यप्रतिपत्तिवन्मतिः (जयो० ३/६६) नावद्याऽनवद्या अनलः (पुं०) पाचनक्रियाशक्ति, पित्त। निर्दोषा। (जयो० वृ० ३/६६) ततोऽनवद्ये समये। (सुद० अनलद (वि०) [अनलं द्यति] गर्मी को नष्ट करने वाला। ३/४८) अनलदीपन (वि०) जठराग्नि बढ़ाने वाला, पाचनशक्ति कारक। अनवद्यपथः (पुं०) पापरहित मार्ग, निर्दोषपथ। (जयो० २७/५६) अनलार्चिः (स्त्री०) वह्निज्वाला। (जयो० १२/५६) अनवद्यप्रतिपतिपत्तिः (स्त्री०) योग्य कर्त्तव्य। नवद्याऽनवद्या अनल्प (वि०) अनून, बहुमूल्य (जयो० २७/४९) विपुल निर्दोषा चासौ प्रतिपत्तिरिति कर्त्तव्यज्ञानम्। (जयो० ३/६६) (जयो० २/१४९) गहरा (वीरो० २/१९) विशाल (सुद० अनवद्यमतिः (स्त्री०) निर्दोष बुद्धि। (जयो० ७/३२) १०८) बहुत (दयो० १९) अनल्पतूल-तल्पस्थं। (जयो० अनवयनं (वि०) अजानयत्, नहीं जानता, ०अनभिज्ञ, (जयो० २/१४९) २५/७७) अनल्पजलं (नपुं०) गहरा जल, तटाक, नाल्पमनल्पं जलं येषु । अनवरत (वि०) अविराम, निरन्तर। तेऽनल्पजल-तटाका:। (वीरो० २/१९) अनवलंब (वि०) निराश्रित, आलंबन हीन। अनल्पतल्यः (पुं०) बहुमूल्य पल्यङ्क (जयो० २७/४७) अनवलोभन (वि०) लोभ रहित। अनल्पतर (वि०) बहुमूल्यतर। (दयो० १०४) अनवसर (वि०) निरवकाश, व्यस्त। अनल्पतूलं (नपुं०) अतिकोमल। (सुद० २/११) अनल्पतूलोदित- अनवशेष (वि०) जूठन रहित, सम्पूर्ण। (जयो० २/१०८) तल्पतीरे। (सुद० २/११) अतिकोमल रूई दार गद्दा से अनवस्थ (वि०) अस्थिर, अंचल। संयुक्त। अनवस्था-दोषः (पुं०) अनवस्था दोष। तस्याप्य वित्तेराकृत्या, अनल्पतूल-तल्पस्थ (वि०) विपुल रूई के गद्दे वाले शयन। यदि सामान्यरूपतः। उपायान्तरतो वित्तिरनवस्थेति वर्तते।। (जयो० २/१४९) स्त्रियोऽनल्पं तूलं यस्मिन् तादृशं यत्तल्पं हित सं० वृ० १४/२ यदि कहा जावे कि उसकी भी शयनं तत्र। (जयो० वृ० २/१४९) अभिव्यक्ति जाति विशेष में ही होती है तो उसका ज्ञान अनल्परूप (वि०) अलौकिक रूप। (जयो० वृ० ६/६३) किसी आकार विशेष से होता नहीं, अत: उसके लिए भी अनल्पश (अव्य०) ०बारं बार, ०भूयो भूयो, ०पुनः पुनः, और उपायान्तर मानना पड़ेगा। ऐसे आगे से आगे चलते समय समय पर। (जयो० २/१५५) स्मितरूचिताधर- चलो तो अनवस्था हो जाती है। For Private and Personal Use Only Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अनवस्थान अनादि जहां विश्रांति का अभाव होता है, वहां अनवस्था दोष होता है। अप्रामाणिकानन्तपदार्थ परिकल्पनया विश्रान्त्य भावोऽनवस्था। (प्रमे०रत्न०२२७) अनवस्थान (वि०) अस्थिर, चंचल, अस्थायी। अनवस्थित (वि०) अस्थिर, चंचल, परिवर्तित। अनवेक्षक (वि०) असावधान, उदासीन। अनवेक्षणं (नपुं०) [नञ्+अब+ईक्ष् ल्युट्] अनवधानता, असावधानता, उदासीनता। परीक्षण अभाव, पर्यालोचन शून्यता। अनशनं (नपुं०) उपवास [न+अश्+ल्युट्] बाह्य तप का प्रथम भेद अनशन तप। (जयो० वृ० १/२२) अशनत्यागोऽनशनम्। मुक्त्यर्थं तपोऽनशनमिष्यते। (अनगार धर्मामृत ७/११) उपवास भी अवधूतकाल और अनयधूत काल रूप है। अनश्वर (वि.) अविनाशी, शाश्वत। अनस् (पुं०) १. गाड़ी, २. जन्म, ३. प्राणी। भोजन, रसोईघर। अनसूय (वि०) [नञ्+सूय] ईर्ष्यारहित, द्वेष रहित। अनाकाङ्क्षः (पुं०) (अन+आकाङ्क्ष) अनादर भाव रखना। अनाकाङ्क्षणा (स्त्री०) निष्कांक्षित अंग। अनाकाक्षित (वि०) अनाकांक्षा भाव वाले, आकांक्षा से रहित। (मुनि०१०) नो गच्छे दतिभूमिगे हिसदनं निष्टोऽप्यनाकाङ्कितः। (मुनि०१०) अनाकार (वि०) आकार रहित, विकल्प रहित। अनाकालः (पुं०) कुसमय, दुर्भिक्ष। अनाकुल (वि०) ०व्यग्रताविहीन, ०शान्त, ०अविनाशिनी। ०स्वस्थित, आत्मस्थ, स्वस्थ, ०दृढ़। पापं न मनागनाकुलः। (जयो० २३/६) अनाकुला (वि०) प्रसाधनीया, प्रसाधिता। ललाटप्रान्तेऽनाकुलाः प्रसाधनी प्रसाधिता। (जयो० वृ० १०/३३) अनाग (वि०) आगोवर्जित, निष्पाप, शीत बाधा समाप्त करने वाला। द्यौर्मुच्छिताप्यनिशि चित्त्वमिताप्यनागः। (जयो० १८/७०) अनागत (वि०) भविष्यत् काल, आगे आने वाला। (जयो० १२/७३) गतवत्स्युरनागतानि। (जयो० १२/७३) अनागतानि भविष्यत्कालप्रभवाणि। अनागस् (वि०) निरपराध, निर्दोष। (जयो० ३/५) अनागसेवित (वि०) निरपराध द्वारा सेवित, सत्पुरुषों से संरक्षित। नागैः सत्पुरुषैः सेवित आराधितः सन् अनागसे निरपराधजनाय अनित: संरक्षित इति। (जयो० वृ० ३/५) अनागम (वि०) अप्राप्ति, न आना। अनाचार (पुं०) विषयासक्ति, इन्द्रियाधीनता, ०अनुचित आचरण, दुराचरण, कुरीति, व्रत भंग होना। (अनाचारो व्रतभङ्गः, सर्वथा स्वेच्छया प्रवर्तनम्) (मूला० १० ११/११) अनाचिन्न (वि०) ग्रहण करने में अयोग्य। अनाच्छादित (वि०) प्राङ्गण, खुला स्थान। (जयो० वृ० २/१४९) अनाज्ञाद्य (वि०) छाया, ताप रहित, ठण्डा। (जयो० वृ० ३/११३) अनातुर (वि०) उदासीन, खिन्न, अप्रसन्न, थका हुआ, अक्लांत, ___अनुत्सुक। अनात्मन् (पुं०) पुद्गल, अजीव। आत्माऽनात्मपरिज्ञानसहितस्य। (सुद० १३३) अनात्मन् (वि०) आत्मा से रहित, मन से रहित। ०अचेतना पुइगलपना। अनात्मभूत (वि०) अनात्मभूत लक्षण या हेतु। जो लक्षण वस्तु के स्वरूप में मिला हुआ न हो। अनात्मशंसनं (नपुं०) आत्म स्वरूप के अतिरिक्त अन्य __ पदार्थों के स्वरूप का कथन। ०रुव प्रतिपादन का अभाव। अनात्म-सदनं (नपुं०) स्वगृहाचार। (जयो० २/४५) अनात्म-सदनावबोधनं (नपुं०) अपने घर की जानकारी न रखने वाला। (जयो० २/४५) आत्मनः सदनं तस्याव बोधनमात्मसदनावबोधनं नात्मसदनावबोधनं तस्मिन् स्वगृहाचार ज्ञानाभावे। (जयो० वृ० २/४५) अनात्मवत् (वि०) [आत्मा वश्यत्वेन नास्ति इत्यर्थे-नञ्+ आत्मन्+मतुप्] असंयमी, इन्द्रियाधीन। अनाथ (वि०) स्वामिरहित, असहाय, निर्धन, त्यक्त, मातृविहीन। (जयो०८८४) अनादर (पुं०) तिरस्कार, अवज्ञा, उपेक्षा, प्रीत्यभाव, उन्मनस्क प्रकार। (जयो० १७/२३) अनादरः प्रीत्यभावः। (जयो० वृ०८/१९) अनादर (वि०) उपेक्षा करने वाला, उदासीनता। अनादरः (पुं०) प्रोषधोपवास में लगने वाला अतिचार। अनादरः (पुं०) जम्बूद्वीप का अधिपति व्यंतर देव। अनादर-भाक् (वि०) अवज्ञा जन्य कथन करने वाला (वीरो० १७/२२) अनादानं (नपुं०) दानशील। (जयो० १/७२) अनादानकर (वि०) दानशीलत्व। (जयो० वृ० १/७२) अनादि (वि.) नित्य, आदि रहित, अनादि से आगत। (सम्य० ४७) For Private and Personal Use Only Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अनादिकरणं अनाविद्ध अनादिकरणं (वि०) एक साथ अवस्थान। अनादिकालः (पुं०) अनादिकाल, प्रारम्भिक काल से पूर्व। (सम्य० ४७) अनादित (वि०) अनादिकाल युक्त (सम्य० ६/५) अनादिता (वि०) अनादिकाल युक्त। (सम्य ४७) अनादिनयं (नपुं०) सादि अनादि पर्यायार्थिक नय। अनादिनिधनं (नपुं०) अकृत्रिम नय। अनादि-परिणामः (पुं०) गति स्थिति आदि का उपकार। अनादि-रूपः (पुं०) जो पूर्व काल में नहीं उत्पन्न। आदौ पूर्वस्मिन् काले न जातं यत्तदतादिरूपं यस्या सा अनादि रूपा। (जयो० १७/१०७) अनादि-सन्तानम् (नपुं०) अनादि परम्परा (वीरो० १९/४) अनादिसिद्ध (वि०) अनादि से सिद्ध। (सुद० १/१२) अनादिस्थानं (नपुं०) प्रारम्भविहीनस्थान। (जयो० २८/४५) अनादीनव (वि.) निर्दोष, स्वस्थ, स्वच्छ। अनादृत (वि०) आदर बिना। आदरः सम्भ्रमस्तत्करणमादृता सा यत्र न भवति तदनादृतमुच्यते। अनादृत (वि०) दोष विशेष। अनादेय (वि०) आदेयता विहीन, श्रद्धा विहीन, युक्ति युक्त वचन हीन। अनादेशः (पुं०) अनुवृत्ति स्वरूप सामान्य। अनाद्य (वि०) निरन्तर, विच्छेद हीन। न आदि अन्तो। (सम्य० अनामय (वि०) [नास्ति आमयः रोगो यस्य] रोग रहित। अनामा (स्त्री०) [नास्ति नाम यस्याःJ अनामिका अंगुली। अनामिका (स्त्री०) [नास्ति नाम अन्यांगुलिवत् यस्या, स्वार्थे कन्] कानी और बीच की अंगुली के मध्य की अंगुली। (जयो०७/३२) अङ्गष्ठेन सहिता अनामिका। (जयो० वृ० ६/३२) अनामिषः (पुं०) मांस विहीन, शाकाहार। (सुद० ४/४३) अनामिषाशनी (वि०) शाकाहारी, अन्न भोजी। अनामिषाशनी भूयाद्वस्त्रपूतं विवेज्जलम्। (सुद० ४/४३) सदा अनामिष भोजी रहे/मांस नहीं खावे, किन्तु अनामिष भोजी और शाकाहारी रहें। अनायत्त (वि०) जो दूसरों के आधीन न हो। अनायतनं (नपुं०) सम्यग्दर्शन का आधारभूत गुण। अनायास (वि०) ०स्वयमेव, स्वयं ही, अपने आप, आसान, सरल। सहजतयैव अनायासेन। (जयो० वृ० १/५) स्वयमेव अनायासेनैव। (जयो० वृ० १/९६) स्वत एव अनायासेनैव सूत्रप्रयोगादिना बिनैव। (जयो० १/३१) अनारत (वि०) निरन्तर, अनवरत, अबाध, नित्य। (जयो० २८/, वीरो० ४/२५( जयो० २३/५९ अनारताक्रान्तधनान्धकारे। (वीरो० ४/२५) अनारम्भः (पुं०) आरम्भ न होना, हिंसा का अभाव। सदारम्भादनारम्भादघादप्यतिवर्तिनी। (सुद० ४/३२) अनार्जव (वि०) कुटिलता, छल। अनार्य (वि०) ०अधम, नीच, ०अप्रतिष्ठित ०म्लेच्छ, शूद्र। (जयो० ४/४८) जिनका आचरण निंद्य है। अनार्ष (वि०) [अन+आर्षः ऋषि] ऋषि रहित, ऋषियों के कथन से रहित। अनालंब (वि०) असहाय, आश्रय विहीन। निराश्रित, अनाथ अनालंबु (स्त्री०) रजस्वला स्त्री। अनालब्ध (वि०) अप्राप्त, कायोत्सर्ग का एक अतिचार। अनालोच्य (वि०) असत्य वचन। अनालोकित (वि०) दिखाई नहीं देने वाला। (जयो० वृ० ६/३४) अनावर्तिन् (वि०) परावर्तन रहित, पुनः नहीं लौटने वाला। अनावश्यकं (नपुं०) करने योग्य नहीं, अकरणीय। (जयो० २/४०) आवश्यकता रहित (वीरो० २२/२२) शिष्टमाचरणमा-श्रयेदनावश्यकम्। (जयो० २/४०) अनाविद्ध (वि०) छिद्र रहित, बन्धन हीन। ८) अनाद्य (वि०) [अन+अ+ल्युट्] अभक्ष्य, खाने के अयोग्य। अनाद्यनिधनं (नपुं०) अनादि निधन। (सम्य०८) अनानुगामिक (वि०) अवधिज्ञान का एक भेद। अनानुपूर्वी (वि०) विकल्प प्ररूपणा। अनानुपूयं (नपुं०) नियत क्रम का अभाव। अनापदी (वि०) आपत्ति विवर्जित, दुःख रहित। सुरासुराध्यपदान नापदी। (जयो० २४/३) अनापदी किलापत्तिविवर्जितः। (जयो० वृ० २४/१३) अनाभिग्राहिक (वि०) सभी दर्शन/मत-मतान्तर की पुष्टि करने वाला। अनाभोगः (पुं०) ०उपयोग के अभाव का नाम, आगम का पर्यालोचन न करना, क्रिया, निक्षेप, निर्वर्तित कोप, ०बकुश आदि पर्यालोचन न करना। अनाभोगिक (वि०) विचार शून्य, विशेष ज्ञान से रहित। अनामक (वि०) अप्रसिद्ध, बिना नाम का। For Private and Personal Use Only Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अनावृत्तिः ४३ अनियत अनावृत्तिः (स्त्री०) मोक्ष, मुक्ति। कहते हैं। यह प्रथम भावना है, इस संसारी जीव का शरीर अनावृष्टिः (स्त्री०) वर्षा का अभाव। आवृष्टिर्वर्षणम्, तस्य ही विनश्वर है, तो फिर उससे सम्बन्ध रखने वाली भोगोपभोग अभावः अनावृष्टिः । (धव०पु०१३, वृ० ३३६) की साधन भूत इतर वस्तुओं में टिकाऊपन हो ही कैसे सकता अनाशंसा (स्त्री०) इच्छा का अभाव। सर्वेच्छोपरमः। है, ऐसे विचार करने का नाम अनित्यानुप्रेक्षा है। अनासक्त (वि.) नि:स्पृह, आसक्ति रहित। (जयो० वृ० अनित्यनयं (नपुं०) सद्भावानित्य-पर्यायार्थिक नय। २/१२) अनित्यभावना (स्त्री०) अनित्यानुप्रेक्षा। अनासाद्य (वि०) निःस्पृह। (सम्य० ११६) रत्नत्रयमनासाद्य यः । अनित्य-स्वभावः (पुं०) क्षणभंगुर स्वभाव। अस्थिर परिणाम, साक्षात् ध्यातुमिच्छति। ०चंचल प्रवृत्ति, चपल भाव। अनास्वादित (वि०) आस्वादन रहित। (जयो० वृ० १६/३०) अनित्यकैता (वि०) क्षणस्थिति। (जयो० २६/८९) अनाश्रमिन् (वि०) आश्रम की कमी। अनिदा (स्त्री०) वेदना विशेष, विवेक के अभाव में उत्पन्न वेदना। अनाश्रव (वि०) [नञ्+आ+श्रु+अच्] जो न सुने। ०अनसुनी अनिद्र (वि०) निद्रा रहित, जागृत। (जयो० २८/२) करने वाला। अनिद्रालु (वि०) अनालस्य, सावधान, जागृत। (जयो० २८/२) अनास्रव (वि०) उदासीनता, तटस्थता। अनिधत्त (नपुं०) कर्म प्रदेशाग्र का अपकर्षण। अनाहत (वि०) आघात रहित, अक्षत। अनिन्द्रियं (नपुं०) मन, जो इन्द्रिय का विषय न हो। अनिन्द्रियं अनाहार (वि०) उपवास करने वाला। मनो। अनाहारः (पुं०) औदारिकादि तीन शरीरों के योग्य पुद्गलों को अनिन्द्य (वि०) अप्रशंसनीय, अवंदनीय, प्रशंसा रहित। (जयो० नहीं ग्रहण करना। १/१२) अनाहारक (वि०) विग्रहगति को प्राप्त, तीन शरीर, तथा छह | अनिन्दित (वि०) प्रशस्त, समुचित, यथेष्ठ। (जयो० ५/५६) पर्याप्तियों के योग्य पुद्गल स्वरूप आहार न ग्रहण करने अनिबद्ध (वि०) सार्वजनिक, प्रकाशित, अस्थिर, चंचल। वाला। अनिबन्धनं (नपुं०) निरावरण, निराकरण। णमो अनाहुतिः (स्त्री०) होम न होना, आहूति न देना। अमिय-सव्वीणमापत्तेरनिबन्धनम्। (जयो० १९/८१) अनाहूत (वि०) अनिमन्त्रित, अनामन्त्रण। अनिभृत (वि०) सार्वजनिक, प्रकाशित, अस्थिर, चंचल। अनिकाचित (वि०) उत्कर्षण, अपकर्षण, संक्रमण, उदीरणा। | अनिमित्त (वि०) निष्कारण, निराधार, आकस्मिक, बिना अनिकेत (वि०) [न+निकेत] गृहहीन, अनगार। प्रयोजन। (जयो० १५/६२) केचिच्छशं केचिदितः कलङ्क अनिगीर्ण (वि०) निगला न गया, अगुप्त, अच्छादित। वदन्तु हीन्दोनिमित्तमङ्कम्। अनिध्नन्न (वि०) बन्धोदय न होना। (सम्य० १२१) अनिमित्तं (नपुं०) पर्याप्त कारण का अभाव। अनिचार (वि०) आचार विहीन। अनिमेषः (पुं०) ०मत्स्य, ०मीन का नाम, सफर नामक अनिच्छु (वि०) [नास्ति इच्छा यस्य] [नञ्+इच्छुक्] इच्छा मच्छली, बृहन्मीनभावमवापेति। (जयो० ५/७३) रहित, नि:स्वार्थ। आख्याति विख्यातिमनिच्छुरेव। (जयो० | अनिमेषः (पुं०) अनिमेष नमक देव, निमेषरहित देव। अनिमेष २७/२२) अनिच्छुरेव सन् नि:स्वार्थः। (जयो० वृ० २७/२२) निमेषरहिता देवा। (जयो० ११/७४) अनित्य (वि०) ०क्षणभंगुर, ०अशाश्वत, नश्वर, ०आकस्मिक, अनिमेषः (पुं०) मत्स्य नामकदेव। (जयो० ११/७४) अनिमेष अस्थिर, चंचल, अनिश्चित, ०अनियमित। अनित्यो हशैव पश्यति। (समु० २/७) देव एकटक से देखता है प्रतिक्षण विनाशी। (स्यावाद मंजरी) अनिमेष (वि०) टकटकी लगाए, बिना पलक झपके। अनिमेष अनित्य (वि०) वस्तु तत्त्व विवेचन की शैली, स्याद्वाद की हशैव पश्यति। (समु० २/७) अनेकान्त शैली में सामान्य विशेष, सत-असत्, अनिमेष-दृष्टि: (स्त्री०) निर्निमेष दृष्टि, स्थिर दृष्टि। नित्य-अनित्य आदि दृष्टियां होती हैं। पर्याय की अपेक्षा अनिमेष-लोचनं (नपुं०) स्थिर दृष्टि, अचपलता रहित नयन। अनित्य। (वीरो० १९/२१) अनित्य नाम भावना/अनुप्रेक्षा अनियत (वि०) अनियंत्रित, अनिश्चित, संदिग्ध, कारणरहित, का भी है। जिसके अनित्य भावना या अनित्यानुप्रेक्षा भी आकस्मिक, नश्वर। For Private and Personal Use Only Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org अनियन्त्रण अनियन्त्रण (वि०) असंयत, स्वतन्त्र | अनियमः (नपुं०) नियम का अभाव, नियन्त्रण। अनियम (वि० ) ० अनिश्चितता, ० निश्चयाभाव । ० संदेह, ० अनुचित । नियम पर विचार नहीं करने वाला अनिरुक्त (वि० ) ० स्पष्ट व्युत्पत्ति का अभाव, ०व्याख्या का ० उचित प्रयोग नहीं, ०अनुचित कथन। ०शब्द विश्लेषण का उचित प्रयोग नहीं होना । अनिरुद्ध (वि०) अनियन्त्रित, स्वच्छंद, अनिश्चित, आकस्मिक । अनिर्णय (वि०) अनिश्चितता । ० विचारों में एक रूपता न होना, नीति निर्धारण नहीं होना । अनिर्दश (वि०) कम समय । अनिर्देश (वि०) नियम का अभाव, निर्देश की अवज्ञा । अनिर्देश्य (वि०) अवर्णनीय वर्णन शून्य, निर्देशन की उचित व्यवस्था का अभाव। अनिर्धारण ( वि०) नियमाभाव । अनिर्धारित (वि०) नियमाभाव । अनिर्वचनीय (वि०) कहने के अयोग्य, अवर्णनीय, कौशल चातुर्य। (जयो० वृ० ३ / २७) अनिर्वाण (वि० ) निर्वाण का अभाव। अनिर्वेद (वि०) उत्साह, उमंग, सम्यक्त्व की ओर। अनिवार्य (वि०) अव्यवहार । (जयो० वृ० १३ / ९ ) अव्यवहारोऽनिवार्य एवास्ति। (जयो० वृ० १३ / ९ ) अनिवार्य (वि०) आवश्यक । ०करने योग्य, ० विषय की निर्धारण पद्धति । अनिर्वृत (वि०) खिन्न, अशान्त । अनिर्वृत्ति (वि०) विकलता, व्याकुलता । अनिर्वृत्तिः (स्त्री० ) निर्धनता । अनिवृत्तिः (स्त्री०) विशिष्ट आत्मपरिणाम, निवर्तनशीलं निवर्ति, न निवर्ति, अनिवर्ति । सम्यक्त्व की अतिशयता । अनिवृत्तिकरण: ( नपुं०) नवम् गुणस्थान का नाम । (जयो० २८ अनिलः (पुं० ) [ अन्+इलच्] पवन, वायु, हवा । अनिलः (पुं०) देव नाम, वायुदेव । अनिशम् (अव्य० ) निरन्तर लगातार । कुर्यात्प्रयत्नमनिशं मनुजस्तथापि । अनिषेवणं (नपुं०) प्रयोग का अभाव। (हित ७) (वीरो० १८/५८) अनिःशेषित (वि०) शेष नहीं, सम्पूर्णता । (जयो० २ / १०७) अनिष्ट (वि०) अनर्थ ० अननुकूल, ०दुर्भाग्यपूर्ण, ०हानिकारक | ४४ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अनीक्षित (जयो० २ / ९० ) अमङ्गलसूचक। (जयो० वृ० २/२३) (सम्य० १३५) ० अशुभ कारक । अनिष्टता (नपुं०) निःसारता, दुर्भाग्यपूर्णता, अमङ्गलसूचकता। (जयो० वृ० ११ / २०) अनिष्टनाशनं (नपुं०) अनर्थसूदन। (जयो० २ / २३) अनिष्टसंयोगः (पुं०) करणीय नहीं निर्दोष नहीं, अनिष्ट पदार्थों का मिलन। (जयो० १/१०९) इष्टवियोगनिष्टसंयोगतया । (जयो० वृ० १ / १०९ ) अनिष्टसंयोगजं ( नपुं०) आर्तध्यान का नाम, विष, कण्टक आदि अनिष्ट पदार्थों का संयोग होने पर उसके दूर करने के लिए मन में जो बार-बार संकल्प-विकल्प उठते हैं, वे अनिष्टसंयोगज कहलाते हैं। अनिष्टहानि (पुं०) अमंगल, अभाव (वीरो० २० / ७) अनिष्ठा (वि०) महती (जयो० १ / १६ ) अनिष्पन्नं (अव्य०) बहुत बलपूर्वक नहीं । अनिस्तीर्ण (वि०) अपारगामी, छुटकारा से रहित । अनिसृष्ट (वि०) दोष विशेष, अनियुक्त, अनधिकारी द्वारा प्रदत्त वसति । अनिस्सर ( अक० ) ( अनि+सृज् ) अनप्रित करना, अकेन्द्रित करना, बाह्यमनिस्सरन्तीमसतीं निगाह्य। (जयो० १/२० ) अनिस्सरन्ती न निर्गच्छन्तीम् । अनिस्सरणात्मक (वि०) तैजस शरीर विशेष । औदरिक, वैकल्पिक और आहारक शरीर के भीतर स्थित देहदीप्ति । अनिह्नवः (पुं०) अधीत गुरु का उल्लेख, ज्ञानाचार का एक गुण, जिस गुरु के पास जो पढ़ा, उसके विषय में उसी गुरु का उल्लेख करना, अन्य का नहीं। ( भक्ति० ८ ) अनिह्नवाचार: (पुं०) (यस्मात् पठितं श्रुतं स एव प्रकाशनीयः) ज्ञान के आठ भेद हैं- शब्दाचार, अर्थाचार, उभयाचार, कालाचार, उपधानाचार, विनयाचार, अनिह्नवाचार और बहुमानाचार। उनमें अनिह्नवाचार नामक सातवां भेद । अनीकः (पुं०) सेना, सैन्यपंक्ति, सैन्यदल, सैनिक, संग्रामदल । अनीकः (पुं०) अनीक नामक देव, जिनके पास हाथी, घोड़े, रथ, पादचारी, बैल, गन्धर्व और नर्तकी ये सात सैन्य रूप होते हैं। अनीक को दण्डस्थानीय भी कहा है, जो क्षेत्र की दण्ड - व्यवस्था करते हैं। अनीक्षित (वि०) दृष्टि से पर, अनालोकित, अदृष्टव्य, अनदेखे । ( भक्ति सं० ४४) अनीक्षितायोग्यपुरः प्रदेशे । For Private and Personal Use Only Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अनीतिः अनुकूल अनीतिः (स्त्री०) ०ईति का अभाव, ०व्याधियों का नाश, | अनुकथनं (नपुं०) [अनु+कथ्+ल्युट्] वार्तालाप, सम्वाद, अतिवृष्टि। धर्मार्थकामेषु जनाननीतिं (जयो० २/१२०) कथोपकथन। (जयो० १२/३१) अनीतिमीति वयं (जयो० वृ० २/१२०) अनीतिप्रथितं अनुकर्णधारः (पुं०) कर्णप्रान्तगत। कर्णस्य धारामनु समीपं राजा नीतिमान् पुरमप्यसौ। (जयो० ३/१०८) उक्त पंक्ति वर्तते सोऽनुकर्णधारो, यद्वाऽनुकर्णधरा यस्येति वा, स चासौ में 'अनीति' शब्द दुराचार को प्रतिपादित करता है। आशुगो बाणस्तेन कर्णप्रान्तगतबाणेन। (जयो० वृ०६/६६) एकाधृतानीतिर भक्ष्य वृत्ति। (समु०८/४८) यहां 'अनीति' अनुकंपक (वि०) [अनु कंप्+ण्वुल्] दयालु, करुणाशील। का अर्थ अन्याय है। अन्याय। अनुकंपनं (नपुं०) [अनु+कंप+ल्युट्] करुणा, दयालुता, दयाभाव, अनीतिप्रथित (वि०) दुराचार युक्त। (जयो० ३/१०८) सहानुभूति। अनीतिभावः (पुं०) अन्याय भाव, दुराचार भाव, ईतियों/उपाधि | अनुकंपा (स्त्री०) [अनु+कंप+ल्युट्] करुणा, दया, सहानुभूति, का अभाव। (जयो० २३/२) आचार्य ज्ञानसागर ने ईतियों अनुकंपनमनुकंपा। (सि६/१२) सर्वप्राणिषु मैत्री अनुकंपा। का उल्लेख इस प्रकार किया है (त०वा० १/२) क्लिश्मान-जन्तूद्धरणबुद्धिः अनुकंपा। अतिवृष्टिरनावृष्टिर्मूषकाः शलभाः शुकाः। (भ०आ०टी० १६९६) कारुण्यपरिणामोऽनुकंपा (चा०प्रा० प्रत्यासन्नाश्च राजानः षडेता ईतयः स्मृताः।। (जयो० वृ० टी० १०) 'अनुकंपा' सम्यक्त्व का कारण है। (जयो० १०५३, सि०उत्तरार्ध) ४/३४) (सम्य० ६४) अनीतिमतिः (स्त्री०) अन्याय बुद्धि। (सुद० १/२३) अनीतिमत्यत्र अनुकरणं (नपुं०) [अनु+कृ+ल्युट्] अनुरूपता, सादृश्यता, जनः सुनीतिः (सुद० १/२३) समानता, अनुकूलन। अनुकरणस्यानुकूलनस्य। (जयो० अनीतियुक्त (वि०) अनीतिप्रथित, दुराचार युक्त। (जयो० वृ० । वृ० ४/३४) ३/१०८) अनुकरणीय (वि०) अनुकरण करने योग्य, आदर्श रूप। अनीश (वि०) प्रमुख, सर्वोच्च, प्रधान, श्रेष्ठ। महादर्शनमनुकरणीयम्। (जयो० वृ० ३/१०१) आदर्शस्य अनीशः (पुं०) प्रभु, स्वामी, ईश्वर। अनुकरणीयस्या (जयो० वृ० १/९१) . अनीश्वर (वि०) असमर्थ, अनियन्त्रित। (जयो० ८/१६) अनुकी (वि०) सेवाकारिणी। (जयो० वृ० १२/९२) फणीश्वरस्त्यक्तुमनीश्वरोऽस्ति। अनुकर्षः (पुं०) [अनु+कृष्+अच्] आकर्षण, लगाव, झुकाव। अनीश्वरोऽसमर्थस्तत्र। (जयो० वृ० ८/१६) अनुकल्पः (पुं०) [अनु+कल्प+अच्] अनुदेश भाव की प्रयुक्ति। अनीश्वर (वि०) दोष विशेष, स्वामी से भिन्न। अनुकाम (वि०) काम वाला, अपनी इच्छानुसार काम करने अनीश्वर-वादः (पुं०) ईश्वर को नहीं मानने वाले। नास्तिकवाद। वाला। अनीह (वि०) उदासीन, व्याकुल। अनुकाल (वि०) समयोचित, सामायिक गुण। अनु (अव्य०) सदृश, लक्षण, क्रम, निरन्तर, सम्बद्ध संकेत, अनुकालित (वि०) अनुकरण। (वीरो०७/१६) फलस्वरूप, पश्चात्वर्ती, तरह, अनुरूप आदि के अर्थ में अनुकीर्तन (नपुं०) कथन, प्रतिपादन, प्रकाशन, गुणस्तवन, 'अनु' का प्रयोग किया जाता है। (सम्य० १२३/७८) गुणगान। (सम०१/३) 'सादृश्ये लक्षणेऽप्यनु' इति विश्वलोचन:। (जयो० २१/४२) अनुकूल (वि०) [अनु+कूल+अच्] अनुवर्तिनि, मनोवाञ्छित, पातालमूलमनुखातिकया स्म सम्यक्। (सुद० १/३६) उक्त अभिमत, अनुरूप, कृपापूर्ण, (जयो० ३/९१) वामेन पंक्ति में 'अनुखातिकया' के साथ 'अनु' शब्द 'भाग' या कामेन कृतेऽनुकूले। (जयो० ३/९१) अनुकूले भवदिच्छानुअंश को प्रतिपादित कर रहा है। तरल-तरीष-विशिष्टो- वर्तिनि कृते। (जयो० वृ० ३/९१) सरस-सकल-चेष्टा ऽनुकर्ण-धाराशुगेन सन्तरति। (जयो० ६/६६) कर्णस्य सानुकूला नदीव। (वीरो० ३/३३) हारं हृर्दाऽनुकूलं स। धारामनु समीपं वर्तते। (जयो० वृ० ६/६६) इसमें 'अनु' (जयो० ३/९४) हृदोऽनुकूलं हृदयग्राह्यं हारं (जयो० ३/९४) का अर्थ समीप है। हृदयग्राह्य हार। अनुकूले सति सुरथे। (जयो० ६/११) इस अनुक (वि०) [अनु+कन्] कामुक, विलासी, लालची, लोलुपी, पंक्ति में (अनुकूलेऽभिमुख भावमिते) अभिमुख अर्थ है, लोभी। सम्मुख भी इसका अर्थ है। छाया तु लोमावलिकानूकूले। For Private and Personal Use Only Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अनुकूल ४६ अनुग्रहणं (जयो० ११/४९) उक्त पंक्ति में 'अनुकूल' का अर्थ सहज सहायक किया है। यत्: किलानुकूले सहजसहायके। (जयो० वृ० ११/४९) अनुकूल (अव्य०) [अनु+कूल्] ०अनुकूल होना, कृपापूर्ण होना, ०अभिमत होना, मनोवाञ्छित होना। तानि तावदनुकूलयन् बलात्। (जयो० २/१९) अनुकूलयन् स्वहितान्याचरन् यात्। (जयो० वृ० २/१९) अनुकूलक (वि०) स्वाभीष्ट, अपने योग्य। स्त्रियस्त्यक्त्वाऽनु__ कूलकम्। (जयो० २/१४९) अनुकूलकर (वि०) अनुसार चलने वाले। आदिश त्वद्नुकूल कराय। (समु० ५/२) अनुकूलचेता (वि०) अनुकूल चित्त वाला। सम्भावयन्नित्यनु-- कूलचेता। (वीरो० १८/३४) अनुकूलचेष्टावती (वि०) प्रकृत्यानुसारी। (वीरो०३/३३) अनुकूलपतिः (पुं०) मनोनुकूलपति। (जयो० वृ० ३/६५) अनुकूलसाधनं (नपुं) योग्य साधन, अभीष्ट साधन। (जयो० २०/८९) . अनुकूला (वि०) सादृशी, मनोवाञ्छिता। (जयो० १/३८) अनुकलाचरणं (नपुं०) योग्य-व्यवहार, उचित आचरण। (दयो० ४२) अनुकूल्यार्थ (वि०) अनुकूलता के लिए। (जयो० वृ० २/५०) अनुकृ (सक०) [अनु+कृ] अनुकरण करना, अनुसरण करना। (हित वृ० ९) अनुकुर्वाणा। गिरेत्यमृतसारिण्या श्रीवनञ्चानुकुर्वतः। (जयो० १/८८) तदनुकर्तुममुष्य किलाक्षिकम्। (जयो० ७/१९) निर्जगाम नृपनाथतनूजा स्त्री न यामनुकरोति तु भूजा। (जयो० ५/५८) अनुरोति। (सम्य० ६४) अनुक्रमः (पुं०) [अनु क्रम्+अच्] उत्तराधिकार, क्रम, क्रमबद्धता, विषयतालिका, विषयसूची। अनुक्रमणं (नपुं०) [अनु+क्रम्+ ल्युट्] अनुगमन, अनुशरण, क्रमवद्धानुसार, क्रमगमन। अनुक्रिया (स्त्री०) अनुकरण, अनुशरण। अनुक्रोश: (पुं०) [अनु+कृश्+घञ्] दया, करुणा, दयालुता। अनुक्षणम् (अव्य०) प्रतिक्षण, निरन्तर, सदैव, बार बार, पुनःपुनः। (जयो० १०/५९) श्रिया सम्बर्धमानन्तभनुक्षणमपि प्रभुम्। (वीरो०८/७) अनुक्षेत्रं (नपुं०) क्षेत्रानुसार। अनुख्यातिः (स्त्री०) [अनु+ख्या+क्तिन्] विवरण देना, प्रकट करना, प्ररूपणा, निरूपणा। अनुग (वि०) [अनु+गम्+ड] पीछे चलना, गतानुगतिक, अनुचारी। अनुगः (पुं०) अनुचर, सेवक, आज्ञापालक। अनुगत (वि०) प्राप्त, समागत, आगत। (वीरो० २१/२१) सादृशऽनुगत मानवमाला। (जयो० ५/३१) अनुगत्व (वि०) समागत, प्राप्त हुआ। (सम्य० ७८) अनुगतिः (स्त्री०) [अनु+गम्+क्तिन्] अनुचरी, गतानुगतिक, पीछे चलने वाला, अनुकरण करने वाला। अनुगतात्मवस्तुं (नपुं०) ०अनुशरणशील ०वस्तु, ०अनुकूल आचरण समागत पदार्थ। (वीरो० १८/३५) घृत्वाऽखिलेभ्यो मृदुवाक् समस्तु सूक्तामृतेनानुगतात्मवस्तु। (वीरो० १८/३५) अनुगुण (वि०) समान गुण रखने वाला, दूसरे के गुण सदृश, ०अनुकूल, उपयुक्त, रुचिकर, ०अनुरूप। (सुद० ४/४७) अनुगम् (अनु+गम्) अनुगमन करना, जाना, पीछे-पीछे चलना, (जयो० २४/१००) अनुगच्छतोर्निम्ननिबद्धगाथा। (जयो० २४/१००) अनुगामिन् (वि०) अनुयायी, सहचर, सहगामी। (जयो० वृ० ४/२९) अनुगामिनी (वि०) आज्ञाकारी, आज्ञानुसारिणी। पत्नी तदेकनामाऽभूत्तस्यच्छन्दोऽनुगामिनी। (दयो० १/१३) रुचिरम्बुमुचोऽनुगामिनी। (समु० २/१२) उक्त पंक्ति में 'अनुगामिनी' का अर्थ पीछे-पीछे होने वाली है। अनुग्रहः (पुं०) [अनु+ग्रह+अप्] प्रसाद, कृपा, दया, अनुग्रह, उपकार। (जयो० २/६७) (जयो० वृ० १/८७) गुत्तोर्महानुग्रह एव हेतुः। (समु० १/६) तेषां गुरुणां सदनुग्रहोऽपि कवित्वशक्तौ मम विघ्नलोपी। (वीरो० १/६) स्व परोपकारोऽनुग्रहः (स०सि०७/३२) अनुग्रह (सक०) [अनु+ग्रह+अच्] अनुग्रह करना, कृपा करना, उपकार करना। क्षणमनुजग्राह च देवतागण: (वीरो० ७/२४) चेतोऽनुगृह्णाति जनस्य चेतो। (वीरो० १/२७) किन्नानुगृह्णाति जगज्जनोऽपि। (वीरो० २०/१३) न तेऽनुगृह्णन्तु किमीश्वराः सुराः। (जयो० २०/५८) परमप्युगृह्णीयादात्म्ने। (सुद० ४/४४) अनुग्रहकारिन् (वि०) अनुकारिन्, ०उपकारक, ०अनुकंपक ०अनुग्रहक। (जयो० वृ० २४/१५) कृपा दृष्टि वाला। अनुग्रहणं (नपुं०) अनुग्रह, उपकार, कृपा। अनुग्रहणं कृपा विना। (जयो० ९/१४) For Private and Personal Use Only Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अनुग्रहपोषक अनुतापः अनुग्रहपोषक (वि०) उपकारक, अनुकंपा को स्वीकार अनुच्छादः (पुं०) [अनु+छद्+णिच्+घञ्] पल्ला लटकना। करने वाला। अनुच्छित्तिः (स्त्री०) [अनु+छिद्+क्तिन्] कट कर अलग न अनुग्रहपोषी (वि०) अनुग्रह को पुष्प करने वाला। उपकार होना, नाश न होना, अनष्टगत। पुष्टीकर्ता। (जयो० १२/१८) त्वमनुग्रहं पुष्णासीत्यनुग्रहपोषी। अनुच्छेदः (पुं०) [अनु+छिद्+घञ्] पैरा, अंग, भाग। ०अंश, (जयो० वृ. १२/१८) विशेषानुग्रहपोषकोऽसीत्यर्थः। हिस्सा। अनुगृहीत (वि०) कृपा दृष्टि। (दयो० ५५) अनुच्छिष्ट (वि०) अनन्यमुक्त। श्रीमाननुच्छिष्ट भुजामिवाद्यः। अनुग्राह्य (वि०) अनुग्रह करने वाला। (जयो० १९/१) अनुचर् (अक०) [अनु+चर्] ०काम लेना, स्वीकार करना। अनुज (वि०) [अनु+जन्+ड] छोटा भाई, वाद में उत्पन्न, ०अनुशरण करना, ०अनुगमन करना। (मुनि० ३०) पीछे जन्मा। (समु० ४/२१) श्रूयतां श्रवणयोरनुजेन, न उद्दण्डाशनकारितामनु चरेन्नित्यं। (मुनि० ३०) श्रुतं च भवतामनुजेन। (जयो० ४/२) नानुजेन भवतः योग्यतामनुचेरन्महामतिः। (जयो० २/५१) जनो पिताजितः। (जयो० ७/६७) स केवलेन अनुजेन बाहुबलिना योग्यतामनुचरेत् स्वीकुयाद्। (जयो० वृ० २/५१) न जितः किमु, अपि तु जित एवेत्यर्थः। (जयो० वृ० अनुचरः (पुं०) [अनु+च+ट] ०सहगामी, सेवक, भृतिक, ७/६७) आज्ञाकारी, ०अनुगामी। भोगा भुवीहानुचरा न भोगा। अनुजा (स्त्री०) [अनु+जन्+टाप्] छोटी बहिन। (जयो० ९) (भक्ति०४) अनुजान् (सक०) समझना, मानना, कहना। घटकं तु विधिं अनुचरी (स्त्री०) सेविका, सहकारिणी, दासी। तयोः सतो रनुजानामि वरं विचारिणाम्। जडमित्यनुजानता अनुचाटुवचस् (नपुं०) [अनु+चाटु+वच्+असुन्] मीठी मीठी वचः शुचि तावद्धरणौ विरागिणाम्।। (जयो० १०/७७, बात, मधुर मधुरवचन। (समु० ३/४२) संक्रीडके जयो० ४/३४) परमतांश्रितामाशङ्कामनुजग्राह। (जयो० तमनुचाटुवचः प्रभावात् (समु० ३/४२) १०/७७) समुन्नतं नक्रमिवानुजाने। (सुद० १/२४) अनुचारकः (पुं०) [अनु+च+ण्वुल्] अनुचर, सेवक, सहगामी। अनुजायता (वि०) स्मरणता, अनुष्ठीयता। (जयो० २/३६) अनुचारिणी (स्त्री०) आज्ञाकारिणी, सेविका। (सुद० ८९) अनुजायमान (वि०) उत्पद्यमान। (सम्य० १२३) अनुचित (वि०) अनुपयुक्त, अयोग्य, गलत। न क्षेमपृच्छाऽनुचितास्तु अनुजीविन् (वि०) अनुचर, सेवक, आज्ञाकारी। परजीवि, सापि। (जयो०३/२६) अहो किलोचितानुचितविकलेनानेन। पराश्रित। (जयो० ९) दुर्लभं नरजन्मापि, नीतं विषयसेवया। चिन्तारत्नं समुत्क्षिप्तं | अनुजीविजनः (g०) अनुचर लोग, सेवकजन। आश्रित लोग। काकोड्डायनहेतवे। (दयो० वृ० १०१) किमनौमिचत्यमत्र। (जयो० १० (दयो० वृ० ८१) यहां 'अनुचित' को 'अनौचित्य' भी । अनुज्ञा (स्त्री०) ०अनुमति, स्वीकृति, ०आज्ञा, ०सहमति। दिया है। | 'पित्रोरनुज्ञामनुवर्तमाना।' अन्य की अनुमोदना (समु०८/४) अनुचित-क्रियत्व (वि०) अनुपयुक्त क्रिया वाला, अयोग्य अनुज्ञानम् (नपुं०) [अनु+ज्ञा+ल्युट्] आज्ञा, आदेश, अनुमति, क्रिया वाला। (वीरो० १६/१५) | स्वीकृति। अनुचिंतनं (नपुं०) विचारणा, सोचना, पुनः पुनः चिंतन। अनुज्ञात (वि०) अपरिचित, अनभिज्ञ। (जयो० वृ० ३/२१) (अनु+चिंत्+अ+ल्युट्) अनुज्ञापक (वि०) [अनु+ज्ञा+णिच्+ण्वुल्] आज्ञा देने वाला, अनुचिन्तना (स्त्री०) विचारणा, सोचना। (जयो० वृ० १३/४७) आदेश देने वाला। अनुचिन्ता (स्त्री०) याद करना, स्मरण करना, चिन्तन | अनुज्ञापनम् (नपुं०) [अनु+ज्ञा+णिच्+ल्युट्] ०आज्ञा ज्ञापित करना, निरन्तर सोचना। करना, ०आदेश देना। अनुचिन्तय् (अक०) ०सोचना, विचारना, ०ध्यान देना, अनुतर्षः (पुं०) [अनु+तृष्+घञ्] प्यास, कामना, इच्छा, मद्य। अवलोकन करना। विवराणि भुवोऽनुचिन्तयन्निव दृष्टिं। । अनुतप्प (वि०) संताप युक्त, दुःख युक्त। (जयो० ९/४३) (जयो० १३/४३) उक्त पंक्ति में अनुचिन्तमन् का अर्थ अनुतापः (पुं०) [अनु+तप्+घञ्] पश्चाताप, संताप, पीड़ा, अवलोकन है। दु:ख। (जयो० ९/४) For Private and Personal Use Only Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अनुतापरत ४८ अनुनीत अनुतापरत (वि०) संतापजन्य, दु:खजन्य। (जयो० ९/४३) अनुद्दिष्टां चरेद्भुक्तिं यावन्मुक्तिं न सम्भवेत्। अनुतिलम् (अव्य०) सूक्ष्मता से, कण कण करके। स्वाचारसिद्धये यस्य, न चित्तं लोकवर्त्मनि।। (सुद० वृ० १३२) अनुतिष्ठ (वि०) स्थित रहने वाले। (भक्ति०१४) अनुद्धत (वि०) अहंकार शून्य, मार्दव युक्त। अनु-तुप् (सम०) संतुष्ट करना, प्रसन्न करना। (जयो० २/७२) अनुद्भट (वि०) विनीत, सौम्य। अनुतेजस् (पुं०) निजप्रभाव, अपना यश। (जयो० ६/२३) अनद्रुत (वि०) [अनु+द्रु+क्त] अनुगत, पीछा किया गया। तनुतेऽनुतेजसा स्वां। (जयो० ६/२३) अनुधाव (अक०) अनुसरण करना, पीछे जाना। (जयो० अनुत्क (वि०) खेदयुक्त। ०दु:खी, मानसिक पीड़ा युक्त। १/४४) अनुत्कृष्ट (वि०) उत्कृष्टता रहित, वेदना जन्य। सिद्धान्त की अनुधावनं (नपुं०) अनुसरण, [अनु+धाव्+ ल्युट] पीछे जाना, दृष्टि से आयु की द्रव्यवेदना भी 'अनुत्कृष्ट' कही जाती भागना। (जयो० १/४४) अनुध्या (सक०) [अनु+ध्या] विचार करना, मनन करना, चिन्तन अनुत्तम (वि०) अनुपम, सर्वोत्कृष्ट। करना, स्मरण करना। निरीहत्वमनुध्यायेद्यथाशम्त्यर्तिहानये। अनुत्तर (वि०) प्रमुख, प्रधान, सर्वोत्कृष्ट, अनुपम, उत्तर देने (सुद० १२५) ... में असमर्थ, अद्वितीय। नात्स्युत्तरो अनुत्तरः। (जयो०५/१२) अनुध्यानं (नपुं०) [अनु+ध्या+ल्युट] विचार, चिन्तन, मनन, अनुत्तरमानी (वि०) अद्वितीय मान धारक। नास्त्युत्तरो मानः स्मरण। स्मयोः यस्मात् सोऽनुत्तरमानी। (जयो० वृ० ५/१२) अनुनयः (पुं०) [अनु+नी+अच्] वाक्य परम्परा, ०शालीनता, अनुत्तरंग (वि०) स्थिर, अनुद्वेलित, अविक्षुब्ध। ०व्याकुलता ०शिष्टता, नम्रनिवेदन, ०आमन्त्रण, प्रार्थना, विनय, रहित, प्रशान्त, सुखी। ०पूजन। नित्यमित्यनुनयप्रयच्छने। (जयो० २/१९६) अनुत्तरलोकः (पुं०) अनुपम लोक (वीरो० १८/१६) पुनरनुनयोऽपि विनयोऽपि। (जयो० वृ० ४/१८) तनयां अनुत्थानं (नपुं०) प्रयत्न, प्रयास। विनयाश्रयां ममाथानुनयाख्यानकरीति रीति:-गाथा। (जयो० अनुत्सूत्र (वि०) नियमित। ०क्रमबद्ध, सूत्रागामी, पारम्परिक। १२/५०) अननुयं नयानुसारं देशकालानुसारो अनुत्सेकः (पुं०) सरल, क्षमाशील। उत्सेको गर्वः तस्य विजितः। वचनपद्धतिप्रकारो नयस्तुदनुसारम्। (जयो० वृ० १७/९०) अनुदध् (अक०) धारण करना, पास रखना, पकड़ना। । अनुनयन् (वि०) अनुकूलां कुर्वन्निव, अनुकूल करते हुए। (तुल्यतामनुदधाति तस्य) (जयो० ४/५९) (जयो० ३/१००) अनुदयात्मक (वि०) दोष कारकता विहीन नहीं, दया दृष्टि अनुवादः (पुं०) [अनु+वद्+घञ्] ०प्रतिपादन, प्रति कथन, रहित नहीं। दया जन्य, कृपा दृष्टि करने वाला। सम्यक्त्वे अनुकथन, प्रतिध्वनि, कोलाहल, शब्द। ०अर्थ प्रतिपादन, स कुतोन्यायाज्ज्ञाने वाऽनुदयात्मके। (सम्य० वृ० १२१) शब्दार्थ का विवेचन, भाषान्तरण। अनुदर (वि०) पतली कमर वाला, कृश, दुबला, क्षीण। अनुनायक (वि०) [अनु+नी+ण्वुल] विनम्र, सुशील, विनीत। अनदुरि (स्त्री०) कृशोदरि (वीरो० ४/३२) स्वप्नावलि त्वनुदरि अनुनायिक (वि०) [अनु+नय+ठक्] अनुचरिक, अनुसारिक, प्रतिभासि धन्या। (वीरो० ४/३२) अनुचारी। अनुदार (वि०) कंजूस, उदारता रहित, अपरोपकारी, स्वार्थी। अनुनासिक (वि०) [अनु+नासा+ठ] नासिका से उच्चरित, अनुदिनं (मव्य०) प्रतिदिन। (जयो० वृ० १२/४६) नासिक्य। अनुदेश: (पुं०) [अनु+दिश्घञ्] संकेत, नियम, निर्देश, अनुनिर्देश (पुं०) [अनु+नि+दिश्+घञ्] पूववर्ती क्रम से आदेश। वर्णन, क्रमानुसार वर्णन। अनुद्विग्नत्व (वि०) अक्षोभ, क्षुब्ध नहीं होने वाला। (जयो० | अनुनीत (वि०) साधित, सिद्ध किया गया। स्वीयनवृ० १/४९) प्रशान्त, सहनशील।। भोगजनुष्वनुनीता विद्या अद्यागत्य विनीता। (जयो० २३/७९) अनुद्दिष्ट (वि०) संयम विधि का साधक गुण, उद्दिष्ट त्याग। | अनुनीत (वि०) समीपागत, समीपप्राप्ता जयस्य मुखचन्द्रमनुनीतः। अनुदिष्ट आहार, अपने लिए बनाए गए भोजन का त्यागी। (जयो० ६/२२) मुखमेव चन्द्र आहलादकत्वात्। तमनुसमीप (सुद० वृ० १३२) (वीरो० १८/२५) नीतः प्रापितो ननु। (जयो०६/१२२) For Private and Personal Use Only Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org अनुनीति: अनुनीति: (स्त्री०) अनुनय, प्रार्थना, शालीनता, शिष्टता, नम्र निवेदन । अनुनीवि: (स्त्री०) कटिवस्त्र बन्धन, नाडा । नीविमनु समीपमनुवीवि। (जयो० १२/१७) अनुपघातः (पुं०) उपघात का अभाव, क्षति का अभाव। अनुपचर ( सक०) स्वागत करना, सम्मान करना, आदर करना । आगतानुपचचार विशेषमेष । (जयो० ५ / ६ ) अनुपतनं (पुं० ) [ अनु+पत् + ल्यट् ] ऊपर गिरना, एक के बाद एक गिरना, पीछा करना, अनुसरण करना, क्रमिक अनुसरण करना। अनुपथ (वि०) मार्गानुसार अनुरसण करने वाला, राजपथ के साथ साथ । अनुपद (वि०) कदम के साथ कदम, अनुसरण करता हुआ, गीत टेक, गायन गति, सम्मिलित गायन । अनुपदवी (स्त्री०) मार्ग, पथ, सड़क। अनुपदिन् (वि० ) [ अनुपद + णिनि ] अनुसरण करने वाला, अनुगामी । अनुपदीना (स्त्री०) उपानत, जूता, ऊँची एड़ियों का जूता । अनुपध: (वि०) उपधा रहित, जिसके पूर्व कोई अक्षर न हो। अनुपधि (वि०) छल रहित, कपट रहित । अनुपन्यासः (पुं०) वर्णन न करना, प्रमाणाभाव, संदेह, अनिश्चितता, कथनाभाव । अनुपम (वि०) अनन्यसदृशी, सर्वोत्तम, अतुलनीय | अनुपमा एनां विधायानुपमां भविष्यत् । (जयो० ११ / ८७) अनुपप्लुतः (पुं०) सहायक। (सम्य० ८४) अनुपमता (वि०) सर्वोत्तमता, श्रेष्ठत्व, योग्यतम । साम्यमहिंसा स्याद्वादस्तु सर्वज्ञतेयमुत्तमवस्तु । अनुपमतयाऽनुसन्धेयानि पुनरपि चत्वारीत्येतानि । (वीरो० १५ / ६३ ) अनुपमत्व ( वि० ) ० अनुपमता, उत्कृष्टता, ० प्रशास्यता ० सर्वोत्तमता (जयो० ३/६२) ० श्रेष्ठ भाव युक्त । अनुपमित (वि०) [नञ्+उप+मा+क्त] अतुलनीय, सर्वोत्तमता, बेजोड़ । अनुपमेय (वि०) अतुलनीय, अनुपमता, सर्वोत्तमता, श्रेष्ठता । अनुपलम्भ: (पुं०) किसी एक के अभाव स्वरूप जो अन्य की उपलब्धि होती है, वह अनुलंभ है। जैसे क्षणक्षण एकान्त सम्भव नहीं है, क्योंकि उसका अनुपलंभ है। अनुपवासः (पुं०) आहार परित्याग, चतुर्विधाहारत्यागः, ईषदुपवासोऽनुपवास इति । ४९ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अनुप्रसङ्ग अनुपलंभ: (पुं०) [नञ्+उप+लभ्+ णिच्+घञ् ] अप्रत्यक्ष होना, बुद्धि अभाव, ज्ञान हीन । अन्योपलभोऽनुपलंभः प्रमाण। अनुपवीतिन् (वि०) यज्ञोपवतीत रहित । अनुपशयः (पुं०) भड़काना । अनुपसंहारिन् (वि०) हेत्वाभास का एक भेद, जिसके अन्तर्गत पक्ष सम्बन्धी सभी ज्ञात बात आ जाती है और उदाहरण द्वारा विधेयात्मक या निषेधात्मक, कार्य-कारण सिद्धान्त के नियम का समर्थन नहीं हो पाता। अनुपसर्ग: (पुं०) उपसर्ग का अभाव । निपातादि का अभाव । अनुपस्थानं (नपुं० ) [ अनुप + स्था + ल्युट् ] ०अभाव, ० विहीन, ० अनुपस्थिति, ० अप्रस्तुत, ०उपमा रहित स्थान, ०स्थिति का न होना। अनुपस्थित (वि० ) [ नञ् + उप + स्था+क्त] अप्रस्तुत, उपस्थित न होना, सम्मुख न होना । अनुपहत (वि०) अप्रयुक्त, कोरा, अक्षत, नया कपड़ा) अनुपात: (पुं०) अनुपतन, ऊपर पड़ना । अनुपातक (वि० ) [ अनु+पत् + णिच् + ण्वुल्] अपराधी, घातक, अति आरम्भी, समारम्भी, हिंसक । अनुपानं (नपुं० ) [ अनु+पा+ ल्युट् ] पश्चात् पान, औषधि के बाद पीने योग्य वस्तु का ग्रहण | अनुपुरुष: (पुं०) अनुयायी, अनुचर, सहगामी, सहचर । अनुपूर्व (वि०) क्रमशः, नियमित, क्रमबद्ध, मान रखने वाला। अनुपूर्वशः ( क्रि०वि०) क्रमागत रीति, क्रमानुसार । अनुपूर्वेण ( क्रि०वि०) क्रमागत रीति, अनुक्रम से । अनुपेत (वि०) विरहित, ०विहीन, ०अभावजन्य । अनुप्रज्ञानं (नपुं० ) [ अनु + प्र+ज्ञा + ल्युट् ] अनुसारण, अनुगमन । अनुप्रपातम् (अव्य०) क्रमागत, रीतिपूर्वक | अनुप्रयोगः (पुं० ) अतिरिक्त, उपयोग, आवृत्ति । अनुप्रविधानं (नपुं० ) [ अनु+प्र + विधान+ ल्युट् ] अनुकूलकार्य, योग्य कार्य। मातुर्मनोरथमनुप्रविधानरक्षा । (वीरो० ५/४२) इच्छानुकूल कार्यचरणनिपुणा । (वीरो० वृ० ५ / ४२ ) अनुप्रवेशः (पुं० ) [ अनु+प्र + विश्+घञ् ] प्रविष्ट, अनुगमन, अन्दर जाना, अन्तः समावेश । अनुप्रश्न: (पुं०) प्रश्न के बाद प्रश्न, एक प्रश्न पूछे जाने के बाद दूसरा प्रश्न । अनुप्रसक्तिः (स्त्री० ) [ अनु+प्र + संज् + क्तिन् ] प्राप्त करना, पहुंचना । अनुप्रसङ्ग (वि०) अति संलग्नता, अन्तः संपर्क । विशेष एकाग्रता । For Private and Personal Use Only Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अनुप्राप्त अनुभावः अनुप्राप्त (वि०) बार-बार अंगीकृत। (सम्य० १४०) अनुप्रासः (पुं०) अनुप्रास नामक अलङ्गकार। अनुप्रासालङ्कार अनुप्रासोऽलङ्कार अलङ्कार, एक समान ध्वनियों या वर्णों की पुनरावृत्ति। वर्णसाम्यमनुप्रासः। (काव्यप्रकाश) तुल्यश्रुत्यक्षरावृत्तिरनुप्रासः स्फुरदगुणे: (वाग्भट्टालंकार ४/१७) समान सुनाई देने वाले अक्षरों की बार-बार आवृत्ति और माधुर्यादि गुणों की स्फुरणा जहां होती है। (जयो० ३/१११, ५/६, ५/२६, ५/३३ ८/६५, १४/२९, २२/७०, २३/६७ न भाविनो दिवसा इव शाश्वता मितिरर्निशयोरिह सम्मता। स्फुटमनाथ इतो नरनाथतां प्रमुदितो सदितं पुनरीक्ष्यपताम्।। (जयो० २५/६) विरम विरमतः सुरमेऽमुकतः। सुकतत्त्वमत्र न हि जातु। (जयो० २४/१४०) अनुप्रासोपमा (स्त्री०) अनुप्रासोपमालङ्कारः। (जयो० ३/३६) विचक्षणेक्षणाक्षुण्णं वृत्तमेतद्गतं मतम्। क्षणदं क्षणमाध्यानात् कर्णालङ्करणं कुरु।। (जयो० ३/३८) अनुप्रेक्षा (स्त्री०) ०भावना, ०बार-बार चिन्तन, ०अनुचिन्तन। (जयो० १८१८) स्वभावानुचिन्तनम्, तत्त्वानुचिन्तनम्। अनु- पुनः पुनः प्रेक्षणं-चिन्तनं अनुप्रेक्षा। अनुप्रेक्षा ग्रन्थार्थ योरेव मनसाऽभ्यासः। अभ्यास स्वाध्याय, तत्त्वार्थ चिन्तन आदि का नाम भी अनुप्रेक्षा है। अनुप्रेक्षार्थ (वि०) प्रेक्षा/चिन्तनार्थ। (सम्य० ११६) अनुबद्ध (वि०) [अनु+बन्ध्+क्त] संलग्न, तत्पर, संबद्व, बंधा हुआ, सदान्ततरात्मन्यनुवद्ध शोकः (समु० १/३३) एवं जिनाज्ञामनुबद्धबुद्धे या॑पायतः पूर्णतया ऽऽप्तशुद्धः। (भक्ति सं० ९.२८) अनुबन्धः (पुं०) [अनु+बन्ध्+घञ्] बन्धन, गठबन्धन, सम्बन्ध, प्रणय। आसक्ति, शृंखला, श्रेणी, नियोजन, प्रयोजन, उपक्रम, बाधा। (जयो० १२/१०) अनुबन्धः कार्यविषयः प्रवाहपीणमः। अनुबन्धन (नपुं०) प्रत्यनुवर्तन, सम्बन्ध, नियोजन, उपक्रम, गठबन्धन। (जयो० २५/७०) अनयनो नितरां निजगन्धवे व्रजति हा विपदामनुबन्धने। (जयो० २५/७०) विपत्तीनामनुबन्धने प्रत्यनुवर्तने (२५/७०) अनुबन्धमूल्यं (नपुं०) प्रणयबन्धन का परिणाम, अनुबन्धः प्रणयस्तर-परिणामश्च मूल्यं यस्पाः सा ताम्। (जयो० ११/१) अनुबन्धवशग (वि०) परमप्रेमवश, प्रणय-बन्धनवश, अनुराग युक्त, प्रणयवशीकृत। (जयो० १२/१०) अनुबन्धिन् (वि०) [अनुबन्ध+गिनि] सम्बद्ध, सलम, संयुक्त, क्रमबद्ध, जोड़ने वाला। [स्वमिति सम्वदतोऽङ्गमिदं] गलन्तदनुबन्धि च बन्धुतया दलम्। (समु० ७/१८) (सम्य १२२) अनुबन्धय (वि०) [अनु+ बन्ध+व्यन्] प्रधान, प्रमुख। अनुवलं पीछे की सेना। अनुबाहुः (पुं०) निजबाहु, अपना हुआ। वागाह नदनुबाहु निजबाहु (जयो० ६/२७) अनुबिम्बित (वि०) प्रतिफलित, प्रतिबिम्बित। हृदये जयस्य विमले। प्रतिष्ठिता चानुबिम्बिता। (जयो० ६/१२६) अनुबोध (वि०) [अनु+बुध+णिच्+घञ्] अनुचिन्तन, अनुशीलन, पुनर्विचार, प्रत्यास्मरण। अनुबोधनं (नपुं०) [अनु+बुध+ ल्युट्] पुनमरण, प्रत्यास्मरण, अनुचिन्तन। अनुभवः (पुं०) [अनु+भू+अप्] प्रत्यक्ष व्यक्तिगत अवलोकन, समझ, ज्ञान। वस्तु के यथार्थस्वरूप की उपलब्धि, पर पदार्थों में विरक्ति, आत्मस्वरूप में तल्लीनता और हेय-उपादेय का विवेक। सिद्धान्त की दृष्टि से इस शब्द कर अर्थ इस प्रकार किया जाता है। "यो विपाको सो अनुभव इत्युच्यते" जो कर्म विपाक है, वह अनुभव है। विप्पकोऽनुभवः। (स०सि०८/३) रस विशेष भी अनुभव है। अनुभव को अनुभाग भी कहते हैं। कर्मपुद्गल सामर्थ्य-विशेषोऽनुभवो मतः। (ह०पु०) ५८/२१२) अनुभवनीय (वि०) भोग्य, अनुभव करने योग्य। (जयो० वृ० ४/३०) अनुभवित्व (वि०) अनुभावित, विचारशीलत्व। (सुद०४/३) (जयो० वृ० २/७४) अनुभाविन् देखो ऊपर। अनुभागः (पुं०) ०अनुभव, ज्ञान, प्रत्यक्ष, ०अवलोकन, उपलब्धि, तल्लीनता। ०शुभाशुभ रस का प्रादुर्भाव। (सम्य० ४६) अनुभाग: कर्मणां रसविशेषः। (मूला०वृ० अनुभाग-बन्धः (पुं०) शुभ-अशुभ कर्मों के परिणाम। अनुभाग-मोक्षः (पुं०) निजीर्ण अनुभाग, अपकर्षित, उत्कर्षित, संक्रामित या अधः स्थिति गलन के द्वारा निजीर्ण अनुभाव का नाम अनुभाग मोक्ष है। अनुभावय् (अक०) अनुभव करना, प्रकट करना। [अनु+भू+ णिच्] अन्तस्तले स्वामनुभावयन्तुस्तुरि (वीरो० १४/१४) सदैवाऽनुभावन्त्यो जननीमुदे वा। (वीरो० ५/४१) अनुभावः (पुं०) [अनु+भू+णिच्+घञ्] ०प्रभाव, मर्यादा, ०बल, ०अधिकार। अन्तस्थ सम्यग्वलिनोऽनुभावः। (सुद० For Private and Personal Use Only Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra अनुभावः www.kobatirth.org २/४३) गर्भस्थ अतिबलशाली पुत्र का प्रभाव । तपोऽनुभावं दधता तथापि । (सुद० वृ० ११८) तप के प्रभाव को धारण करने वाला। स्वप्नावलीयं भवतोऽनुभावात्। (सुद०२ / ३५) उक्त पंक्ति में 'अनुभाव' शब्द कृपा का सूचक है। अनुभाव: (पुं०) अनुभव, अवलोकन, ज्ञान, समझ । (विपाकोऽनुभावः। जो जिस कर्म का शुभाशुभ विपाक है, वह अनुभाव है। कर्मविशेषानुभवनं अनुभावः । अनुभावि (वि०) आगमी काल। (सुद० ३ / २५) अनुभावित (वि०) अभिषिक्त, अभिसिञ्चित द्रवीभूत। (जयो० ९/५४) मुदुदिताश्रुन्जलैरनु भावितम्। (जयों ९/५४) यान्यश्रुजलानि तैरनुभावितं समभिषिक्त मित्याशयः । (जयो० वृ० ९/५४) अनुभावित ( वि० ) प्रत्येक बात का विचार करना, अनुभव वाला, विचारशीलता। (जयो० २३/३४) त्यागिताऽनुभाविता । (जयो० २ / ७४) अनुभाषणं (नपुं० ) [ अनु+भाष्+ल्युट् ] क्रमानुसार उच्चारण। उच्चारित, प्रत्याख्यान सम्बन्धी अक्षर, पद, व्यञ्जन आदि जिस क्रम से वर्णित हैं, उसी क्रम के अनुसार उनका अनुवाद रूप से घोषशुद्ध उच्चारण। अनुभू (सक० ) [ अनु+भू] अनुभव करना, ०जानना, ०समझना, चिन्तन करना। ( सम्य० १०९) अगणिताश्चगुणा गणनीयतामनुभवन्ति भवन्ति भवान्तकाः । (जयो० १ / ९४ ) गुणं जनस्यानुभवन्ति सन्तः । (वीरो० १ / १४) पर्यटन्तोऽमी सुखमनुभवन्तु । (जयो० वृ० ११/७४) अनुभूत (वि०) अनुभव करने योग्य, चिन्तनीय । ( सुद० ९४ ) अनुभूता शतशो मयाऽ हो । ( सुद० ९४ ) अनुभूतमत (वि०) अनुभवजन्य, चिन्तनीय विचार । (समु० २/२४) अनुभूतमतः समुत्थितं । (समु० २ / २४) अनुभूतत्व (वि०) बार-बार अनुचिन्तन करने वाला । अनुभूति: (स्त्री० ) अनुभव, चिंतन। (सम्य० ८४ ) अनुभूष्णू (वि०) अनुभवकर्ता, विचार करने वाला, परिशीलन वाला। उपपीडतोऽस्मि तन्वि भावादनुभूष्णुस्तवकाम्र- काम्रतां वा । (जयो० १२ / १२७) अनुभूष्णुरस्मि, अनुभवकर्ता भवामीत्युक्ते । (जयो० वृ० १२/१२७) अनुभोगः (पुं० ) [ अनु+भुज्+घञ्] उपभोग, प्रयुक्त, प्रयोगजन्य । अनुभ्रष्टः (वि०) भ्रष्ट हुआ, पतित हुआ। सिद्धान्त की दृष्टि ५१ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अनुमानं से 'अनुभ्रष्ट' वह है जो सम्यग्दर्शन से च्युत है। दर्शनाद् भ्रष्ट एवानुभ्रष्ट इत्यभिधीयते। (वराङ्गचरितम् २६ / ९६ ) अनुभ्रातृ (पुं०) छोटा भाई, अनुज । अनुमत (वि० ) [ अनु+मन्+क्त] सम्मत, अनुज्ञात, मानित, सम्मानित, अनुज्ञप्त, इच्छित, अभिलषित, अभीष्टित, मान्य। (जयो० २२/८०) ०स्वयं न करोति, न च कारयति, किन्त्यवभ्युपैति यत्तदनुमननम् (भ०आ०टी०८१) ० अनुमतं अनुज्ञातम्। ०अन्यदप्यनुमतादुरीकुरु लोक एव खलु लोक गुरु: । (जयो० २ / ९० ) ० जो सज्जनों द्वारा 'सम्मत' हो उसे स्वीकार करना चाहिए। तं खलु विशेष कायानुमतं । (जयो० २२/८० ) ०नामानुमतं मानितम्। (जयो० वृ० २२/८०) अनुमतं (नपुं०) अनुमोदन, अनुज्ञप्ति, स्वीकृति | अनुमतिः (स्त्री० ) [ अनु+मन्+ क्तिन् ] स्वीकृति, अनुज्ञा, अनुमोदन, अनुमनन। नैव लोकविपरीतमञ्चितु शुद्धमप्यनुमतिर्गृहीशितुः । (जयो० २/१५) अनुमति: स्वीकृति: । (जयो० वृ०२/१५) अनुमन् (अक० ) [ अनु+मन्] सम्मत होना, अनुज्ञात होना । नैवानुमन्यते धात्समाजस्यानुशासनम्। (हित सं० वृ० ५) तमनुमन्तुमवाप्य चचाल सः। (जयो० २ / १४२ ) यहां 'अनुमन्तुम्' का अपराध करने/ आक्रमण करने के लिए भी है। अनुमननं (नपुं० ) [ अनु+मन् + ल्युट् ] स्वीकृति, सम्मति, अनुज्ञप्ति | अनुमा ( स्त्री०) अनुमति, स्वीकृति। (वीरो० २० / १७) दिए गए कारणों से अनुमान । अनुमाता ( वि० ) स्वीकृति दाता (वीरो० ८/१७) अनुमात्व (वि० ) [ अनु+मा+ ल्युट् ] अनुमान करने वाला । (वीरो० ३/६) ततोऽनुमात्वे प्रति चाद्भुतत्वं । (वीरो० ३/६) अनुमानं (नपुं० ) [ अनु+मा+ ल्युट् ] न्यायशास्त्र का एक नियम, ० उपसंहार, ०सादृश, ० अटकल, ० अन्दाज। (जयो० ५ / ६०) ० अभिनिबोधस्य अनुमानस्य विसर्गः प्रवृत्ति (जयो० वृ० ५/१७) ० साधन से साध्य के ज्ञान को अनुमान कहा जाता है। जैसे धूम को देखकर अग्नि का ज्ञान करना । • यत्कृष्णवर्त्मत्वमृते प्रतापवह्निं सदाऽमुष्य जनोऽभ्यवाप । (वीरो० ३/६) परन्तु राजा जो कृष्णवर्त्मा/पापाचार से For Private and Personal Use Only Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अनुमानाभासः अनुयोक्तृ (जयो० १४/६४) किसी स्त्री ने वेग से-पति को जताए बिना ही पानी में डूबकी लगा ली। उसके अङ्गराग की सुगन्ध के लोभी भ्रमरों का समूह वहां मंडराने लगा। इस भ्रमर समूह के पति को अनायास ही अनुमान हो गया कि यह डूबी है। अत: यहां अनुमिति अलंकार है। नेत्रा स्वामिनाऽनुमितं ज्ञातमित्यनुमितिरलंकार। (जयो० वृ० १४/६४) अनुमेय (वि०) ०अनुमान्य ०समादरणीय, दर्शनीय। (जयो० १/३२) (जयो० २७/६१) लास्यं रसा सम्यजनानुमेयम्। (जयो० १/३२) अनुमुद् (सक०) समर्थन करना, स्वीकृत करना ०अनुमोदन करना। समायाता जिनस्यास्य प्रस्तावमनुमोदितुम्। (वीरो० १०/२३) अनुमोदनं (नपुं०) [अनु+मुद्+ल्युट्] सहमति, स्वीकृति, अनुमोदना, समर्थन, सम्मति। अनुमोदना (स्त्री०) प्रशंसा, गुणगान। सिद्धान्त में अधः कर्मदूषित ___ भोजन करने वाले साधु की प्रशंसा करना भी अनुमोदना रहित था, फिर भी लोग 'कृष्णवा' (काले मार्ग वाला धूम) के बिना ही इसके प्रताप रूप अग्नि का अनुमान करते थे। कौतुकाशुगसुलास्य विधाने रङ्गभूमिरियमित्यनुमाने। (जयो० ५/६०) यह सुलोचना 'पुष्पक्षायक' कामदेव के शोभन नृत्य की रङ्गभूमि है, रङ्गमंच है, इस प्रकार अनुमान लगाने पर वहां सूत्रधार महेन्द्रदत्त नामक कञ्चकी ही कहा जाएगा। '०साधात्साध्यविज्ञानमनुमानम्' (परीक्षमुख ३/१४) अनुमानाभासः (पुं०) पक्ष न होने पर पक्ष के समान प्रतीत होने वाले अनिष्ट, सिद्ध या प्रत्यक्षादिवाधित साध्य युक्त धर्मी से उत्पन्न होने वाले ज्ञान अनुमानाभास है। अनुमानित (वि०) अनुमेय, अनुमान किया जाने वाला। अनुमानित दोष भी माना गया है। अनुमानालङ्कारः (पुं०) प्रत्यक्षाल्लिङ्गतो यत्र, कालत्रितप्रयर्तिनः लिङ्गिनो भवति ज्ञानमनुमानं तदुच्यते। (महा० ४/१३७) जिस अलंकार में प्रत्यक्ष चिह्न या कारण से भूत भविष्यत् और वर्तमान से होने वाली सादृश्य वस्तु का बोध होता है। (जयो० ६/८०) जिसमें गुरु के अभिप्राय या उपाय से ज्ञात्व की आलोचना की जाती है। आजिषु तत्करवलैर्हय-क्षुर-क्षोदितासु संपतितम्। वंशान्मुक्तावबीज पल्लवितोऽभूद्यशोदुरितः।। (जयो० ६/८०) । घोड़ों के खुरों से खोदी गई युद्धस्थल की भूमियों में इस राजा के करवालों द्वारा हाथियों के कुम्भस्थलों से मोती रूप बीज गिर पड़ा, इसी कारण यहां इस राजा का यशरूपी वृक्ष खड़ा हुआ पल्लवित हो रहा है। अनुमान्य (वि०) समादरणीय, अनुमेय। 'मुने : सदा न्यायपथानुमान्या' (जयो० २७/६१) "अनुमानविषयाऽनुमेया भवति।" (जयो० वृ० २७/६१) अनुमितं (नपुं०) अनुमान। (जयो० १४/६४) अवश्यम्भावी (वीरो० १७/३) अनुमितिः (स्त्री०) अनुमान ज्ञान। (वीरो० २०/१६) सा चेदसत्याऽनुमितिः कथम्। (वीरो० २०/१६) कार्य-कारण के अविनाभावी सम्बन्ध के स्मरण पूर्वक तो अनुमान ज्ञान उत्पन्न होता है। यदि ऐसा कहो तो अनुमान ज्ञान भी अवस्तु है।अप्रमाण रूप है। अनुमिति-अलंकारः (पुं०) अनुमानालङ्कार (जयो० १४/६४) निमज्जिताया जले जवेन नेत्रानुमितं मुखं सुखेन। तदङ्ग राग-गन्ध-लुब्धेन सम्पतता रोलम्बकुलेन।। अनुया (अक०) [अनु+या] अनुभव करना, प्राप्त होना। (सम्य० २१) जानना, समझना, अनुचिन्तन करना। अनुययौ (जयो० १९/४) अनुयान्ति (मुक्ति ५) वर्णभावमनुयान्तु सुतायामित्यभूत। (जयो० ५/३५) अनुयान्तु प्राप्नुवन्तु। अनुयाजः (पुं०) [अनु+यज्+घञ्] अनुष्ठान करना, यज्ञ करना, अनुयोग। अनुयातृ (पुं०) [अनु+या+तृज] अनुगामी अनुगमनशील। अनुयात्रं (नपुं०) [अनु+यातृ+अण] परिजन, अनुचरवर्ग, अनुसरण। अनुयानं (नपुं०) अनुसरण, अनुगमन। अनुयायिन् (वि०) [अनु+या+णिनि] अनुगामी, सेवक, अनुवर्ती, अनुचर। (वीरो० २२/१०) (दयो० ३१) अनुयायिनी (वि०) अनुसरणकर्ती। (जयो० २२/८२) अनुयुक्तः (स्त्री०) निरंकुश, निराधार। (सुद० १०३) (सम्य १००) यदृच्छयाऽनुयुक्तापि न जातु फलिती नरि। (सुद० १०३) अनुयुक्तिः (स्त्री०) आसक्ति, अनुरक्त। त्वच्छासनैकाशनकानुयुक्ती। (जयो० २६/१००) अनयोक्त (पं०) [अन+यज+तच] ०परीक्षक, जिज्ञास, ०अध्यापक, नियोक्ता, निर्देशक। For Private and Personal Use Only Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org अनुयोगः अनुयोगः (पुं०) उपयोग, उद्देश्य, परीक्षा, ० अनुयोजन, ० संलग्नता, ०संयोग, ०उदय। (दयो० १०४, समु० ६ / २३, सुद० १२०, जयो० २ / ६५) भुक्त्यन्तर तज्जरणार्थमम्भोऽनुयोग आस्तामध एव किम्भो । (सुद० १२० ) अम्भो योग - जल का उपयोग या जल का पीना यह अर्थ है । भवतामनुयोगेन तृणवत्सम्मतोऽप्यहम् । (दयो० १०४) भवतामनुयोगे-आपके सहारे से, या आश्रय से यह अर्थ कवि ने लिया है। सापीह सौभाग्यगुणानुयोगादनेन सार्द्धं सुकृतोपयोगा। (समु० ६ / २३) उक्त पंक्ति में 'सौभाग्यगुणा योगादनेन' में 'अनुयोग' का अर्थ संयोग है। जयोदय महाकाव्य के बीसवें सर्ग में प्रयुक्त 'अनुयोग' का अर्थ सम्बन्ध या संयोग भी है । यथा दुग्धस्य धारेव किलाल्पमूल्यस्तत्रानुयोगो । मम तक्रतुल्यः । (जयो० २०/८४) तत्र ममानुयोगः सम्बन्धस्तक्रतुल्योऽल्पमूल्य एव यथा तक्रसंयोगे दुग्धस्य दधिपरिणतिर्भूत्वा नवनीतसम्पत्तिकर्त्री स्वयमेव भवति । अनुयोगः (पुं०) सूत्र की अनुकूल योजना । अनुयोजनमनुयोगः (जयो० वृ० १ / ६) 'अनु' का अर्थ पश्चात् भाव का स्तोक है। अर्थात् स्तोक सूत्र के साथ जो 'योग' होता है, वह 'अनुयोग' है। यह 'प्रथम- करण-चरण-द्रव्यानुयोग रूपेण । १. प्रथमनुयोग, २. करणानुयोग, ३. चरणानुयोग और ४. द्रव्यानुयोग से चार प्रकार का है। 'जयोदय' के प्रथमसर्ग में अनुयोग चतुष्टय पर इस प्रकार प्रकाश डाला है- " प्रकर्षेण योगो मनोनिग्रहाख्यः प्रयोगः, करणानां स्पर्शन-रसनादीनामिन्द्रियाणामनुयोगः संसर्गस्ते समेत्य, हे सुदृढोपयोग श्रावक ! अनुयोग चतुष्टये प्रथम-करण-चरण-द्रव्योपनामके शास्त्रचतुष्के नवता नवीनभावो बभूव। (जयो० वृ० १ / ३४ ) इस प्रथम सर्ग के चौंतीसवें श्लोक में 'करणानुयोग' का कथन मात्र है, परन्तु कवि ने चारों 'अनुयोगों' का कथन करके 'करणानुयोग' की विस्तृत व्याख्या की है। करणानुयोग नाम गणितशास्त्रम् (जयो० वृ० १/३४) प्रथमसर्ग के इक्कीस एवं बाइसवें श्लोक में भी अनुयोग पर प्रकाश डाला है। द्वितीयसर्ग में प्रत्येक अनुयोग के महत्त्व पर विचार किया गया है। अनुयोग - चतुष्टय (वि०) चार अनुयोग सम्बन्धी प्रथम-करणचरण-द्रव्यानुयोगरूपेण । अनुयोगद्वार : ( पुं० ) अनयोगद्वार (जयो० १/३४) ग्रन्थ (जयो० १ / ६ ) अनुयोगवर्तिनी (वि० ) ०चक्रवर्तिनी, ० चक्राकार प्रवृत्ति । (जयो० ५ / ९२) ० आज्ञानुसार इधर उधर जाती । ५३ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अनुरणनं अनुयोग - मात्रता ( वि०) ग्रन्थकर्तुरुद्देश्य भाव। (जयो० २/४२) अनुयोग- समयः (पुं०) अनुयोग शास्त्र । निमित्तकमुखेषु शास्त्रेषु, अनुयोगसमयेषु । (जयो० वृ० २ / ६४ ) अनुयोगिनी (वि०) अङ्ग संगत, अङ्ग से लिपटी हुई। (जयो० १०/११५) अङ्गेनानुयोगोऽस्या अस्तीत्पनुयोगिनी । (जयो० १०/११५) अनुयोजनं (नपुं० ) [ अनु+युज् + ल्युट् ] प्रवर्तन, प्रश्न, पृच्छा। एतकैर्निजहितेऽनुयोजनमस्ति । (जयो० २/५०) आत्मकल्याणे योजनं प्रवर्तनमस्ति । (जयो० वृ० २/६०) अनुयोग का भी अनुयोजन नाम है। अनुयोजनमनुयोगः (जयो० वृ० १ / ६ ) अनुयोजनं (नपुं०) बिना प्रयोजन, मनोमालिन्य, निरादर । (जयो० ४/२७) अर्ककीर्तिरनुयोजनमात्रगता वयमनर्थतयाऽत्र । (जयो० ४/२७) अनुयोज्य (वि० ) [ अनु+ युज् + ण्यत् ] सेवक, अनुचर, सहभागी । अनुरक्त (वि० ) [ अनु + रज्+क्त] रत, अनुराग, प्रेम, आसक्ति, निष्ठावान्, संतुष्ट, प्रसन्न। (जयो० वृ० ३/८८, अनुरक्ति (स्त्री० ) [ अनु+रंज्+क्तिन्] अनुराग, प्रेम, आसक्ति । (जयो० ४ / १५ ) छाययाऽभिददतीत्यनुरक्तिम्। अनुरञ्ज (सक० ) [ अनु+रंज्] प्रसन्न करना, अनुराग करना, संतुष्ट करना । शरीरर्मन तादृशं हन्त यत्रानुरज्यते । (वीरो० १६/९) अनुरञ्जक (वि०) प्रसन्न करने वाला, संतुष्ट करने वाला, अनुराग करने वाला। अनुरञ्जनं (नपुं० ) [ अनु+रंज + ल्युट् ] अनुराग करने वाला, संतुष्ट करने वाला, आनन्दित करने वाला। (जयो० २५/१५) भुवि जनाभ्यनुरञ्जन तत्परः भवति वानर इत्यथवा नरः । (जयो० २५/१५) अनुरञ्जित (वि० ) [ अनु+र+क्तिन् ] ०गुणानुरागी, प्रशंसनीय, ० अनुरागिणी । ० रंगे हुए। पादद्वयाग्रे नखलाभिधानोऽनुरञ्जितः । (जयो० ११ / १४) अनुरञ्जिनी (वि० ) ० गुणानुरागी, ०प्रशंसनीय, ०अनुरागयुक्त, o रंगे हुए। गृहस्थस्य समा भाति, समन्तादनुरज्जिनी। (हित संपा०७) अनुरज्य (वि०) अनुरक्त, अनुराग युक्त, संतुष्ट । (जयो० २७/३६) सुद० ४/११, (अनुरज्यते सम्य, २४) घने वने ब्रह्मनेऽनुरज्य | अनुरणनं (नपुं० ) [ अनु+रण् + ल्युट् ] ० अनुरूप लगना, ०प्रतिध्वनि, ०नुपूरध्वनि, ०घुंघरू प्रतिशब्द । For Private and Personal Use Only Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अनुरतिः अनुवाचनं वचनं ( अनुवृ (सुद०" अनुरतिः (स्त्री०) [अनु+रम्+क्तिन् प्रेम, सानुकूलवृत्ति, आसक्ति। (जयो० २३/६८) रताद विरक्ताप्युनरतिमापालते जगतश्छाया। (जयो० २३/६८) अनुरथ्या (स्त्री०) पगडंडी, उपमार्ग। अनुरसः (पुं०) प्रतिध्वनि, गुंजन। अनुरहस (वि०) गुप्त, एकान्तप्रिय, शान्त। अनुरागः (पुं०) [अनु+रंज्+घञ्] प्रेम, स्नेह। (वीरो० २२/५१) अनुरागकः (पुं०) रति आसक्ति, अनुराग, भक्ति, निष्ठा, श्रद्धा। (जयो० १/४०) अनुराग-करणं (नपुं०) अनुराग का कारण, अनुराग करना, आसक्ति रखना। वस्तुत्वेन ततोऽनुरागकरणं (मुनि०१७) अनुरागधारिणी (वि०) अनुराग धारण करने वाली, स्नेहवती। तव सुदृगनुकरिण्यां प्रान्तेष्वनुरागधारिण्याम्। (जयो० २०/२१) अनुरागसम्बर्द्धन् (वि०) अनुराग बढ़ाने वाला (वीरो० २१/१९) अनुरागार्थ (वि०) प्रीत्यार्थ, स्नेहार्थ। लालिमा यत्रानुरागार्थमुपैति चेतो। (वीरो० १/१३) अनुरागिन् (वि०) अनुरागी, स्नेही। अनुरात्रं (क्रि०वि०) (अव्य०) प्रतिरात्रि, प्रत्येक रात्रि। अनुराधा (स्त्री०) अनुराधा नक्षत्र, २७ नक्षत्रों में सत्तरहवां नक्षत्र। अनुरुः (पुं०) अ-पद, पैर का अभाव। सूतोऽपदो येन रथाङ्ग मेकी (जयो० १/१९) अनुरूध (अक०) आश्रय लेना, विचार करना, इच्छापूर्ति करना। मूलसूत्रमनुरुद्धय नृत्यतः। (जयो० २/२९) अनुरूप (वि०) तुल्य रूप, सदृश, एक समान। भूपेऽमुष्मिञ्छ्यिा पावनयाऽनुरूपे। (सुद० १/२९), (जयो० १/६४) अहो किलाश्लेषि मनोरमायां त्वयाऽनुरूपेण मनो रमायाम्। अनुरूपता (क्रि०वि०) समनुरूपता, सादृश्यता, अनुकूलता। (दयो० १००) भार्यायामनुरूपताऽऽपि। (दयो० १००) अनुरूसादित (वि०) जघन स्थल। तावद्नुरूसादितः सुभगाद्। (सुद० १००) अनुरोधः (पुं०) [अनु+रुध्+घञ्] ०आग्रह, निवेदन, प्रार्थना, | याचना, (सम्य० १५६) आराधना, विनय, ०इच्छा, विचार। अनुरोधनं (नपुं०) निवेदन, विनय, प्रार्थना। अनुरोधिन् (वि०) [अनु+रुध्+णिनि] प्रार्थना करने वाला, | विनम्रशील। अनुलग्न (वि०) अन्तर, लगी हुई, संलग्न। (समु० २/२८, जयो० २१/७५) अनुलापः (पुं०) [अनु+लप्+घञ्] आवृत्ति, पुनरुक्ति । अनुलिङ्ग (वि०) अनुमान। (जयो० ६/१००) अनुलेपः (पुं०) [अनु+लिप्+घञ्] उपटन, मर्दन। अनुलोम (वि०) नियमित, स्वाभाविक, क्रमानुसार, अनुकूल। अनुलोमं मनोहारी। अजानुलोमस्थितिरिष्टवस्तु। (जयो० ११/८२) उक्त पंक्ति में 'अनुलोम' का अर्थ निर्लोम, रोम रहित है। जयकुमार की दृष्टि के सामने सुलोचना निर्लोम जङ्घाओं से युक्त है। अनुलोमिन् (वि०) निर्लोमला रहित, नियमित (सम्य० १८) अनुल्लङ्घय (वि०) अतिक्रम्य, आगे ले जाते हुए। अखिलानुल्लङ्घ्य जनान् सुलोचना। (जयो० ६/१०१) अनुल्वण (वि०) बहुत गम, अधिक नहीं। अनुवंशः (पुं०) वंशक्रम, वंशतालिका। अनुवक्र (वि०) अत्यन्त कुटिल, तिरछा, अधिक तिर्यग। अनुवचनं (नपुं०) आवृत्ति, पाठ, स्वाध्याय। अनुवर्त (अक०) [अनु+वृत्] पालन करना, अनुकरण करना। छायेव तं साऽप्यनुवर्तमाना। (सुद० प०११५) छाया की तरह अनुकरण करती हुई। पित्रोरनुज्ञामनुवर्तमाना। (समु० ६/१४) अनुवर्तनं (नपुं०) [अनु+वृत्+ल्युट] ०अनुगमन, ०अनुरूपता, स्वीकृति, आज्ञानुशीलता, प्रसन्न करना, संतुष्ट करना। अनुवर्तिन् (वि०) [अनु+वृत्+णिचि] अनुगामी, आज्ञाकारी, अनुकूल, अनुरूप। अनुवर्तिनी (वि०) अनुकूलवृत्ति, अनुगामिनी, आज्ञाकारिणी। (जयो० वृ० १२/९२) नानुवर्तिनी रवौ प्रतियाते। (जयो० ५/२५) सूर्येऽनुवर्तिनि सानुकूलवृत्ति। (जयो० वृ० ५/२५) अनुवद् (अक०) ०कहना, ०भाषण करना, सुनना (वृत्तं त्वनुवदन् २/१४३) प्रतिपादन करना, ०समझना, ०अनुमोदन करना। ध्यानं तदेवानुवदन्ति सन्तः। (समु० ८/३४) तद्दानमप्यनुवदामि पापकृत्। (जयो० २/१०३) अनुवदता (वि०) अनुमोदन करने वाले, समर्थन करने वाले, प्रशंसक, अनुवादक। आराम-रामणीयकमनुवदताऽदर्शि हर्षिताङ्गेन। (जयो० १/९०) अनुवश (वि०) आज्ञाकारी, अनुगामी। अनुवाकः (पुं०) [अनु+वच्+घञ्] आवृत्ति करना, स्वाध्याय करना, ०पाठ करना, ०याद करना। अनुवाचनं (नपुं०) [अनु+वच्+णिच्+ल्युट्] सस्वर पाठ करना, अध्यापन, शिक्षण। For Private and Personal Use Only Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अनुवादः अनुषक्त अनुवादः (पुं०) [अनु+वद्+घञ्] समर्थन, प्रातिनिध्य, व्याख्या, अनुवृत्त (वि०) [अनु+वृत्+क्त] आज्ञाकारी, अनुगामी, उदाहरण, दृष्टान्त, प्ररूपणा, निरूपणा। ढक्कानिनादस्तनितानुवादः प्रतिगामी। अनुकूल। (वीरो० १७/८) (जयो० ८/६७) उक्त पंक्ति में 'अनुवाद' का अर्थ अनुवृत्तबुद्धिः (वि०) अनुकूल आचरण। (वीरो० १७/८) 'प्रातिनिध्य' है, प्रतिध्वनि भी इसका अर्थ है। भवताद्भवतां अनुवृत्तिः (स्त्री०) [अनु+वृत्+क्तिन्] आज्ञाकारिता, अनुरूपता, प्रसन्नपाद-परिणेत्रीति वरं ममानुवादः। (जयो० १२/१६) अनुगामिता, अनुकूलाचरणकारिणी। (जयो० २२/२७) उक्त पंक्ति में अनुवाद' का अर्थ समर्थन है। दृढ़ संकल्प 'ते चानुवृत्ते अनुकूलाचरणकारिण्यौ' 'यथा राजा तथा भी इसका अर्थ है। प्रजा' इत्यादि सूक्ते, अनुवृत्ते: वर्तुलाकारे। (जयो० २२/२७) अनुवादक (वि०) [अनु+वद्+ण्वुक्] व्याख्याकार, वृत्तिकार, उक्त स्थान पर 'अनुवृत्ति' के दो अर्थ हैं। अनुकूलचारिणी अनुवाद करने वाला। और वर्तुलाकार। अनुवादिन् (वि०) [अनु+ वद्णिनि] अनुवादक, व्याख्याकार अनुविस्मय (वि०) अति विस्मय। (सुद० १२३) विवेचनकर्ता। अनुबंध (अक०) घुनना, खराब होना। (जयो० वृ० २/७७) अनुबाद्य (वि०) [अनु वद्+णिच् यत्] आख्येय, कथित, अनुशतं (नपुं०) सौ के साथ, सतसंख्या युक्त। प्रतिपाद्य। अनुशतिक (वि०) सौ रुपये सहित। अनुवासः (पुं०) सुगन्ध युक्त, सुरभि सम्पन्न, सुगन्धित बनाना। अनुशयः (पुं०) [अनु+श्री+अच्] रंज, खेद, पश्चात्ताप, __(जयो० १३/१९) संताप। अनुवासना (स्त्री०) सुगन्धदशा, सुगन्ध रूप वासना। (जयो० अनुशयान (वि०) [अनु+शी+शानच्] खेद प्रकट करता हुआ, १३/१९) दुःख व्यक्त करता हुआ। अनुवासित (वि०) सुवासित, सुगन्धित किया हुआ, धूपित। अनुशयिन् (वि०) [अनुशय+णिनि] अनुरक्त, श्रद्धालु, अनुवित्तिः (वि०) [अनु+विंद्+क्तिन्] निष्कर्ष, प्राप्ति। ... आस्थावान, पश्चात्ताप करने वाला। अनुविध् (सक०) जानना, समझना। तत्किमङ्गमिह नानुविधत्ते। अनुशयक मूल्यम् (नपुं०) एक रूपता का मूल्य (वीरो० (जयो० ४/३४) नानुविधत्ते नानुजानाति। (जयो० वृ० १७/२०) ४/३४) अनुशरः (पु०) [अनु+श+अच्] राक्षस, असुर। अनुबिद्ध (वि०) [अनु+व्यध्+क्त] ०आहत किया, घायल अनुशासक (वि०) [अनु+शास्+ण्वुण] शासक, निर्देशक, किया, ०भेदा गया, ०छेदित, मिश्रित, ०व्याप्त, विद्ध, शिक्षण, प्रशिक्षक, प्रशासक, नियन्त्रका पूर्ण, फैला हुआ, प्रसरिता कामशरैरनुविद्धान, सुगह्वराम्। | अनुशासनं (नपुं०) [अनु + शास्+ ल्युट्] प्रशासन, (जयो०६/४४) आत्मनियन्त्रण प्रोत्साहन, आदेश, नियामक, नीतिज्ञ, अनुविधानं (नपुं०) [अनु+वि+धा+ल्युट] आज्ञाकारिता, पितुः प्रसाद, विधिकर्ता। (हित०स००५) (जयो० वृ० आज्ञाशीलता। १/६७) नैवानुमन्यते धाष्ात्समाजस्यानुशासनम्। अनुविधापिन् (वि०) आज्ञाकारी, अनुगामी। अनुशिक्षिन् (वि०) [अनु+शिक्ष+णिनि] क्रियाशील, सीखने अनुविनाशः (वि०) [अनु+विनिश्+घञ्] पश्चात् नष्ट होना। | वाला। अनुविंद् (सक०) [अनु+विन्द्] ०लेना, ०देखना, ०धारण अनुशिष्टिः (स्त्री०) शिक्षण, अध्यापन। सूत्रानुसारेण शिक्षादानम्, करना वृत्तभावमनुविन्दति नित्यम्। (जयो० ५/४६) सदैव आज्ञा, आदेश। अनुशासनं शिक्षणं निर्यापकाचार्यस्य। वृत्तभाव को धारण करता है। अनुविन्दति सुन्दरे नवीनां (भ० आ०७०) दर- रूपोच्चकुचामितः प्रवीणा। (जयो० १२/११४) कामपि अनुशोकः (पुं०) [अनु+शुच्+घञ्] पश्चात्ताप, खेद, संताप। वधटीमनुविन्दति, पश्यति सति। (जयो० ४२/११४) उक्त अनुश्रेणि: (स्त्री०) अनुक्रम से अवस्थित। अनुशब्दस्य आनुपूर्वीण पंक्ति में 'अनुविंद्' का अर्थ ०देखना, ०अवलोकन करना वृत्तिः श्रेणेरानुपूयेणानुश्रेणीति। (स०सि०२/२६) भी है। तत्परस्य विधिनाभ्यनुविंदन्। (समु०५/१२) उक्त अनुश्रोत (पुं०) अतिशय बुद्धिधारक। पंक्ति में 'अनुविंद्' का अर्थ प्रतिकार करना भी है। अनुषक्त (वि०) [अनुषंज्+क्त] संबद्ध, संलग्न, संसक्त। For Private and Personal Use Only Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अनुषङ्गः अनुसूचिनी अनुषङ्गः (पुं०) [अनु+षंज्+घञ्] प्रसंग, संलग्न, ०सबद्ध। अनुगृह्णन्ननुषङ्गसम्भवम्। (जयो० १३/४४) ० प्रसङ्ग प्राप्त' अर्थ है। अशक्नुवन्तो युगपत्पतङ्गा इवाऽऽनिपेतर्दुहनेऽनुषङ्गात्। (जयो०८/५२) अनुषङ्गजन्मिन् (वि०) प्रसङ्ग प्राप्त/०संलग्न, तत्परता युक्त षडज्रिमाला ह्यनुषङ्गिजन्मिनाम्। (जयो० २४/८३) प्रसङ्गतः प्राप्तानामागसामपराधानाम्। (जयो० वृ० २४/८३) अनुषङ्गत् (वि०) प्रसङ्गवश। (जयो० ७/५९) हृष्यदङ्गमनुसङ्गतोऽङ्गना। अनुषङ्गिक (वि०) [अनुषङ्गठ] सहवर्ती, निकटवर्ती। अनुषङ्गिन् (वि०) [अनु+षंज्+णिनि] संबद्ध, अनुरक्त, संसक्त, ___ व्यावहारिक। अनुषङ्गजनीय (वि०) [अनु+षंज+अनीय] पूर्ववाक्य से ग्राह्य, पूर्वानुसार प्राप्त। अनुषेकः (पुं०) [अनु+सिच्+घञ्] अभिषेक, पुनः अभिषिञ्चित। अनुष्टुभ् (स्त्री०) [अनु+स्तुभ+क्विप] सरस्वती, भारती, वाणी। अनुष्ठ (सक०) [अनु+स्था] स्मरण करना, याद करना। ____अनुजायताम नुष्ठीयताम्। (जयो० वृ० २/३६) अनुष्ठातुम् (अनु+स्था+तुमुन्) स्मरण करने योग्य। (वीरो० १७/४०) अनुष्ठान (नुपं०) [अनु+स्था ल्युट्] कार्यनिष्पादन, आज्ञापालन, समीपवास। अनु समीपे स्थानं निवासं। (जयो० २२/२४) अध्ययन, बोध, आचरण और प्रचार इन चार अनुष्ठान से युक्त जयकुमार थे। (जयो० वृ० १/१३) अनुष्ठापनं (नपुं०) [अनु+स्था+णिच्+ल्युट] कार्य कराना, कार्य निष्पादन। अनुष्ठायिन् (वि०) कार्य कराने वाला। कार्यनिष्पन्नक, आज्ञापालक। सनाभयस्ते भय एव यज्ञानुष्ठापिनो वेदपदाऽऽशयज्ञाः। (वीरो० १४/३) अनुष्ठेय (वि०) अनुष्ठानवाला, यज्ञकर्ता। (जयो० वृ० १/२२) अनुष्ठेयता देखो-अनुष्ठेय। अनुष्णा (वि०) शिशिर, शीतल, ठंडा, शिथिल, वीतराग, गर्मी रहित। (जयो० वृ० १२/६) अनुष्णच्छायः (पुं०) शिशिरच्छाय, शीतल छाया। (जयो० वृ० १२/६) अनुष्यंदः (पुं०) [अनु+स्यन्द+घञ्] पिछला पहिया। अनुसज (वि०) संलग्न, तत्पर। स्वगनन्दिगन्धनेऽनुसजत्। (जयो० वृ० ६/१२७) अनुसज्ज (वि०) संलग्न हुआ, तत्पर हुआ। आकर्ण्य वर्णावनुसज्जकर्णा। (जयो० १/६५) अनुसन्दधान (वि०) विश्लेषण करने वाला। (सुद० ४/१०) अनुसन्ध् (सक०) [अनु+सम्+धा] अनुसन्धान करना, खोजना, अन्वेषण करना। (जयो० २/१५५) अनुसन्धानं (नपुं०) [अनुसम्+धा+ल्युट] अनुचिन्तन, विचार, विश्लेषण, पृच्छा, गवेषण, निरीक्षण, परीक्षण, क्रमबद्ध करना, खोज, तत्पर रहना। (सुद० १३२, दयो० ६५) इत्येवमनुसन्धानो धनादिषु। (सुद० १३२) अनुसन्धानकर (वि०) अन्वेषक, अनुचिन्तन करने वाला। (दयो० वृ० ८६) अनुसंधानधर (वि०) अनुसंधान करने वाला। (दयो० वृ० १/९) अनुसन्धानवंशगत (वि०) खोज में लीन हुआ। (दयो० वृ०६५) अनुसंहित (वि०) [अनु+सम्+धा+क्त] पूछ की गई, पृष्ठवान्। अनुसंबद्ध (वि०) [अनु+सम्+बंध+क्त] संयुक्त, संलग्न, तत्पर। अनुसंधत (वि०) धारण की गई। (वीरो० २२/३) अनुसन्धेय (वि०) [अनु+सम्+विधातृ] अनुसन्धान/खोज करने योग्य। (वीरो० १५/६३) अनुसम्बिधात्री (वि०) अनुसन्धान करती हुई, खोज करती हुई। (वीरो० ५/३७) विनोद वार्तामनुसम्बिधात्री। अनुसरः (पुं०) [अनु+सृ+अच्] अनुगामी, अनुचर, सेवक। अनुसरण (नपुं०) [अनु+सृ+ल्युट्] अनुगमन, समनुरूपता, . अग्रगामी। (जयो० वृ० ३/३३) (जयो० वृ० १/५७) अनुसर्पः (पुं०) [अनु+सृप+अच्] ०सरीसृप, ०सर्पसदृश चलने __ वाला जन्तु। अनुसवनं (अव्य०) प्रतिक्षण, हरक्षण। अनसारः (पं०) [अनु+सघञ] पीछे जाना, अनुगमन, अनुसरण। (सुद० १/३४) अनुसारः (पुं०) प्रथा, रीति, पद्धति। (जयो० अनुसारित्व (वि०) [अनु+सृ+णिनि] अनुसरण करने वाला। (सुद० १/३४) सुरतानुसारिसमयैर्वा। (जयो०६/९) 'सुरता देवत्वं तस्यानुसारिणः' इस व्याख्या के अनुसार 'अनुसारि' का अर्थ ०बराबरी, सादृश्यता है और सुरतं मैथुनं तस्यानुसारिभिः की व्याख्या से 'अनुसारि' का अर्थ कुशल है। अनुसिंच (सक०) [अनु+सिंच्] सींचना, प्रक्षेपण करना। अनुसिच्यमाना खलता प्रवर्धते। (वीरो० ९/११) अनुसुखं (नपुं०) यथासुख, प्रसन्न रखना। मुखं बभारानुसुखं __ च। (जयो० १/५७) अनुसूचिनी (वि०) सूचनाकारिणी, संदेशदायिनी। (जयो० ६/३९) गुण संश्रवणावसरे विजृम्भणेनानुसूचिनी शस्ताम्। (जयो० ६/३९) For Private and Personal Use Only Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अनु+सृ अनृजु अनु सृ (अक०) प्राप्त होना, अनुसरण करना, गमन करना, अनूचानत्व देखो ऊपर। पीछे जाना। (भक्ति ९) दौर्गत्यमेवानुसरन्ति सत्त्वा। (भक्ति अनुचानः (पुं०) अनूचानः प्रवचने साङ्गेऽधीती। (अमरकोश, ९) भूतात्मकमङ्गं भूतलके वारिणि बुद्-बुदतामनुसरतु। २,७, १०) श्रुते व्रते प्रसंख्याने संयमे नियमे यमे। यस्योच्चैः (सुद० १००) यथा रात्रिः सूर्यमनुसरति। (जयो० वृ० सर्वदा चेतः सोऽनूचानः प्रकीर्तितः। (उपासकः ८६८) २२/१) यहां 'अनुसरति' का अर्थ अनुगमन करना है। पुरापि श्रूयते पुत्री ब्राह्मी वा सुन्दरी पुरोः। अनुसृतिः (स्त्री०) [अनु+सृ+क्तिन्] अनुगमन होना, अनुसरण अनुचानत्वमापन्ना स्त्रीषु शस्यतमा मता।। (वीरो०८/३९) होना, पीछे जाना। अनूढ (वि०) अविवाहित स्त्री, न ले जाया गया। अनुस्कंदं (अव्य०) क्रमानुसार अन्दर होना। अनूढा (वि०) अनूढा, नवोढा, अविवाहित युवती। (सुद० अनु+स्था (अक०) बोलना, कहना। कर्त्तव्यमिति शिष्टस्य २/२१) करोत्यनूढा स्मयको तु कं न। सुद० २/२१) निमित्तं नानुतिष्ठतात्। (सुद० वृ० १२५) अनुरक्ते सुरक्तेन स्वीकृते स्वयमेव ये अनूढा परकीये ते अनु स्मृ (सक०) स्मरण करना, बार बार याद करना। नासौ भाषिते शिथिलव्रते।।(अलंकारचिन्तामणि ५/९२) दीर्घमनुस्मरेदपि मुनिर्दीव्यं न बोधं धरेत्। (मुनि०३१) अनूत (अव्य०) (अनु+उत) पुनरपि, फिर भी। (जयो० १७/८३) अनुस्मरणं (नपुं०) [अनु+स्मृ+ल्युट] स्मरण करना, पुनमरण, अनूत (वि०) अति नूतन। __अनुचिन्तन। अनूतना (वि०) यथोत्तर नूतन। नूतना नूतनायां रुचिरवश्यंभाविनी। अनुस्मृतिः (स्त्री०) [अनु+स्मृ+क्तिन] स्मृतिजन्य, स्मरण योग्य, अनूत (अनु+उत) पुनरपि तृप्ति यि न प्राप्ता बुद्धिस्थित तदालिङ्गनादीच्छानिवृत्ति भूत् किन्तु अनूतना वृप्तिरपि अनुस्यात् (वि०) आने नहीं देना। कदर्थिभाव: कमथाप्नयुष्यात्। यथोत्तरं नूतनापि नवीनेवानुभूता। (जयो० वृ० १७/८३) (वीरो० १८/३४) अनूदकं (नपुं०) [उदकस्य अभावः] जलाभाव, सूखा। अनुस्यूत (वि०) [अनु+सिव्+क्त+ऊ] नियमित/निर्वाध अनूद्देशः (पुं०) [अनु+उत्+दिश्+घञ्] अलंकार नाम, जिसमें रूप से मिला हुआ संसक्त। ०बंधा हुआ। ०ध्रुव। यह यथाक्रम पूर्ववर्ती शब्दों का उल्लेख होता है। यथासंख्यमनूद्देश: दार्शनिक शब्द है, पर्याय की अपेक्षा वस्तु में स्यूति उद्दिष्टानां क्रमेण यत्। (साहित्यदर्दण ७३२) (उत्पत्ति) और पराभूति विपत्ति/विनाश पाया जाता है। अनूद्य (वि०) सुनाकर, श्रवण कराकर। वृत्तोक्तिोऽनूद्य तदीयचेतः। ध्रुव भी वस्तु का एक कारण है, उत्पत्ति और विनाश में (सुद० ११६) बराबर अनुस्यूत रहता है। अनुस्यूत की अपेक्षा वस्तु न | अनून (वि०) ०अनल्प, पूर्ण, ०सम्पूर्ण, ०सम्मत, वृहद्, उत्पन्न होती है और न विनष्ट होती है। (वीरो० १९/१६) महान्, ०बड़ा बहुतर। वाक्यकौशलं किञ्च मदेन यूनाछिटा अनुस्वनः (पुं०) अनुकूल शब्द, अनुरूप शब्द। सज्ज- कटाक्ष दृशोरनूना। अनूना बहुतरा। (जयो० १६/४३) वारिनिधिरित्यनुस्वनः। (जयो० ७/५७) अनुस्वनोऽनुकूल: तपस्यताऽनेन पयस्यनूनममुष्य। (जयो० १/५४) ०अनूनमशब्दः । (जयो० वृ० ७/५७) नल्पं। (जयो० वृ० १/५४) ०कलश: कलशशर्मवागनून। अनुस्वानः (नपुं०) [अनु+स्वन्+घञ्] अनुरूप शब्द करना, (जयो० १२/५) अनूनेनानल्पेन। (जयो० वृ० १२/५) अनुरणन, अनुकरण रूप शब्द, प्रतिध्वनित शब्द। अनूप (वि०) [अनुगता: आपः यस्मिन् अनु+अप्+ अच्] अनुस्वारः (पुं०) [अनु+स्य+घञ्] बिन्दु, नासिक्य ध्वनि, जलीय, जल की बहुलता, दलदल प्रदेश। अनूपे सजले अनुनासिक शब्द। (दयो० वृ०७६) बिन्दुमनुस्वारमाप्नोति। देश। नद्यादिपानीय बहुलोऽ नूपः। (जैनलक्षणावली पृ० (जयो० ३/५१) ८१) जलप्रायमनूपं स्यात्। (अमरकोश २, १, १०) अनुहरणं (नपुं०) [अनु+ह+ल्युट्] नकल, मिलना, अनुकरण, अनूपः (पुं०) देश का नाम। समानता। अनूरु (वि०) जंघा रहित। अनूकः (पुं०) [अनु+उच्+क] कुल, वंश, मनोवृत्ति, स्वभाव, चरित्र। अनूर्जित (वि.) अशक्त, दर्परहित, दुर्बल। अनूचान (वि०) ब्रह्मचर्य, श्रुत, संयम, यम, नियम, संयत अनृच् (वि०) बंजर प्रदेश, अनुत्तम स्थान। आदि से युक्त। अनृजु (वि०) कुटिल, वक्र, अयोग्य। For Private and Personal Use Only Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org अनूप अनुणं (वि०) कर्जरहित, ऋण रहित । अनृत (वि०) अप्रशस्त वचन, असत् वचन, मिथ्या वचन, झूठ, असत्य । ऋतं सत्यार्थे न ऋतमनृतम्। (त०वा०७/१४) अनृत- भाषणं (नपुं०) मिथ्योपदेश । अनृतवादिन् (वि०) मिथ्यावादी । अनेक (वि०) विविध, नाना प्रकार, एक से अधिक, कई कई, कतिचित्, अलग अलग। कौतुकेन भरतेशसुतस्यैवं परस्परमनेक सदस्यैः। (जयो० ४/५०) 'अनेकसदस्य' से यहां 'कतिचित्सभासद' अर्थ किया गया। 'अनेकधान्यार्थ कृतप्रचारा ।' (सुद० १/८) ० विविधि प्रकार या अलग-अलग धान्य । अनेक कल्पांघ्रियान्यत्र सतां विवेक: । (सुद० १/ २०) नाना जाति के कल्पवृक्ष । अनेक - अध्याय (पुं०) पृथक्-पृथक् अध्याय, सर्ग (सुद० १/३२) अनेककालः (पुं०) अनेक समय (समु० ८/१४) अनेक गुणं (नपुं०) नाना गुण, पृथक्-पृथक् अस्तित्व | दार्शनिक दृष्टि में एक और अनेक का विशेष महत्त्व है। इसकी व्याख्या 'जयोदय' में विस्तार से की गई। 'सत्' सर्वथा एक नहीं है, क्योंकि वह अनेक गुणों का संग्रह रूप है। घृत, शक्कर और आटा आदि को मिलाकर लड्डू बनाया जाता है, अतः वह देखने में एक प्रतीत होता है। पर जिन पदार्थों के संग्रह से बना उसकी ओर दृष्टि देने से वह अनेक रूप हो जाता है। परन्तु जीवादि द्रव्य रूप 'सत्' अनेक गुणों के संग्रह रूप होने से लड्डू की तरह अनेक रूपता को प्राप्त नहीं होता, क्योंकि घृत, शर्करा आदि पदार्थ अपना पृथक्-पृथक् अस्तित्व लिए हुए 'लड्डू' में संगृहीत होकर एक रूप दिखते हैं, इस प्रकार जीवादि द्रव्यों में रहने वाले ज्ञान, दर्शन, सुख, वीर्य आदि गुण अपनी अपनी पृथक् सत्ता नहीं रखते और न कभी जीवादि द्रव्यों से पृथक् थे, इसलिए 'सत्' में जो अनेकत्व है, वह उसमें अनेक गुणों के साथ तादात्म्य होने से है, संग्रह रूप होने से नहीं । अनेकजन्मन् (नपुं०) अनेक जन्म, नाना प्रकार की उत्पत्ति । (सुद० १२८) अनेकजन्मबहुत मर्त्यभावोऽतिदुर्लभः । अनेकधा (अव्य० ) [ नञ्+एक+धा] विविध रीति से। अनेक धान्यार्थ (वि०) ०नाना प्रकार के धान्य के लिए, • अलग-अलग धान्य के प्रयोजन हेतु । अनेकधान्यार्थमुपायकर्महत्सु शीरोचितधाम - भर्त्री । (सुद०२/२९) ५८ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अनेकान्तप्रतिष्ठा " अनेकधान्यार्थ कृत प्रवृत्ति" - (जयो० १९ / २९ ) अनेक प्रकार के अनाजों के उत्पन्न करने में प्रवृत्ति है। अनेकधा अन्य अर्थ कृति - प्रवृत्ति अनेक प्रकार के अर्थ-अभिधेय, व्यङ्गय और ध्वन्य अथवा अनेक मनुष्यों के प्रयोजन सिद्ध करने में प्रवृत्त हैं। अनेक पदं (नपुं०) अनेक पद या समूह यह सामान्य अर्थ है। आचार्य ज्ञानसागर ने इसका 'अनेकान्तपद' अर्थ करके विस्तृत व्याख्या की है" अनेकपदेन अन्ततां यान्ति बहुलरूपेण भवन्तोऽपि सुन्दरतामनुभवन्ति, अन्तशब्दस्य सुन्दरता वाचकत्वात्। यद्वाऽनेकपदेन सार्धमन्ततामनेकान्ताम्, अनेकेऽन्ता धर्मा एकस्मिन्नित्यने कान्तस्तस्य भावं स्याद्वादरूपतामित्यर्थः । (जयो० वृ० ५/४४) अनेकरूपं (नपुं०) नाना प्रकार, पृथक्-पृथक् रूप । 'विचारजाते स्विदनेकरूपे' (सुद० ८/४) अनेकविध कारणं (नपुं०) अनेक साधन। (जयो० २ / १०५) अनेकविधरूपः (पुं०) नाना प्रकार के रूप (वीरो० २० / २१ ) अनेकविधा (स्त्री०) सर्व प्रकार । (सुद० वृ० ७२) विनाशमनेकविधायाः । (सुद० ७२ ) अनेकशः (अव्य०) ०कई प्रकार, ०बार-बार, ० विविधरीति से, ० नाना प्रकार से मुहुर्मुहुः। (जयो० २/२६) पद्मयोनिप्रभृतिष्वनेकशो देवतां परिपठन्ति सैनसः । (जयो० २ / २६ ) अनेकशक्त्यात्मक वस्तु (नपुं०) अनेक शक्ति वाली वस्तु (वीरो० १९/८) अनेक-सदस्यः (पुं०) कतिचित्सभासद। (जयो० ४/५०) अनेकाथता (वि०) अनेक विभाग, पृथक्-पृथक् अध्याय । (सुद० १/३२) यस्मिज्जनः संस्क्रियतां च तूर्णं योऽभूदनेकाथतया प्रपूर्ण: । (सुद० १ / ३२ ) अनेकान्तः (पुं०) दर्शन का प्रमुख विचार । " अनेकेऽन्ता धर्मा एकस्मिन्नित्येनकान्तः " (जयो० वृ० ५/४४) अनेक + अन्ता अर्थात् नाना प्रकार के धर्म जिसमें पाए जाते हैं, वह अनेकान्त है। एक वस्तु में मुख्य एवं गौण दोनों की अपेक्षा अस्तित्व नास्तित्व आदि परस्पर विरोधी धर्मों का प्रतिपादन जहां हो, वहां अनेकान्त है। "अनेके अन्ता धर्माः सामान्या विशेष - पर्याया गुणा यस्येति सिद्धोऽनेकान्तः । " ( न्यायदीपिका ३ / ७६) जिसमें सामान्य विशेष, पर्याय व गुण रूप अनेक अन्त या धर्म हैं, वह अनेकान्त है। अनेकान्तपदम (नपुं०) अनेकान्तवाद ( वीरो० १९/२२) अनेकान्तप्रतिष्ठा (स्त्री०) अनेकान्त सिद्धान्त की पुष्टि । अनेकान्त For Private and Personal Use Only Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अनेकान्तमतः अन्तक एकान्ते न भवतीति संकीर्णो देशः, तत्प्रतिष्ठाः सन् एकान्ते निर्जने देशे स्थितिमभ्यगाद् इति विरोधः, तस्मादनेकान्ते नाम स्याद्वाद सिद्धान्त प्रतिष्ठा यस्य स इत्यर्थः।। अनेकान्तमतः (पुं०) अनेकान्त मत, अनेकान्त विचार। "एकोऽपि सम्पातितमामनेकलोकाननेकान्तमतेन नेकः।" (वीरो० १/५) हे नेक/भद्र! आपने एक होकर भी अनेकान्त मत से अनेक विरोधियों को एकता के सूत्र में बांध दिया | है। अनेकान्तमताधीनोऽप्येकान्तं समुपाश्रयत्। (समु० ९/७) अनेकान्तसिद्धि (स्त्री०) अनेकान्त मत की पुष्टि। 'सुदर्शनोदय' में 'अनेकान्त सिद्धि' के 'सिद्धिरनेकान्तस्य' राग युक्त पंक्तियां दी हैं।" सा सुतरां सखि पश्य सिद्धिरनेकान्तस्य। (सुद० वृ० ९१) हे सखि! देख! अनेक धर्मात्मक वस्तु की सिद्धि स्वयं सिद्ध है अर्थात् कोई भी कथन सर्वथा एकान्त रूप नहीं है। प्रत्येक उत्सर्ग मार्ग के साथ अपवाद मार्ग का भी विधान पाया जाता है। इसलिए दोनों मार्गों से ही अनेकान्त रूप तत्त्व की सिद्धि होती है। देख-एक वेश्या से उत्पन्न हुए पुत्र-पुत्री कालान्तर में स्त्री-पुरुष बन जाते। पुनः उनसे उत्पन्न हुआ पुत्र उसी वेश्या के वश में हो गया अर्थात् अपने बाप की मां से रमने लगा। इस अठारह नाते की कथा में पिता के ही पुत्रपना स्पष्ट रूप से दृष्टिगोचर हो रहा है। फिर किस मनुष्य का किसके साथ तत्त्व रूप से सच्चा सम्बन्ध माना जाए। इसलिए अनेकान्त की सिद्धि अपने आप प्रकट है। बाजार में जब वस्तु सस्ती मिलती है, व्यापारी उसे खरीद लेता है और जब वह मंहगी हो जाती है, तब ग्राहक के मिलने पर उसे अवश्य बेच देता है, यही व्यापारी का कार्य है। अनेकान्तरङ्गस्थलं (नपुं०) अनेक द्वार वाले रङ्गस्थल, रङ्गस्थान/रङ्गभूमि। (सुद० १२२) अनेकान्तरङ्गस्थल-भोक्त्रीं किञ्चिद्वृत्तमुखामाश्रय। (सुद० १२२) जिनवाणी जैसे अनेकान्त सिद्धान्त की किञ्चिद् कथञ्चित् पद की प्रमुखता का आश्रय लेकर प्रतिपादन करती है उसी प्रकार यह देवदत्ता भी अनेक द्वार वाले रङ्गस्थल का उपभोग करती अनैकान्त (वि०) परिवर्त्य, अनिश्चित, अस्थिर, असहाय। अनैकान्तिक (वि०) [न+एकान्त-ठक्] अस्थिर। अनैक्यं (नपुं०) एकता का अभाव, अव्यवस्था अशान्ति, अराजकता। अनैतिचं (नपुं०) परम्परागत, प्रामाणिकता का अभाव। अनो (अव्य०) नहीं, न, न तो। " अनोकहः (०) [अनसः शकटस्य अकं गतिं हन्ति-हन्+ड] वृक्ष, तरु। पदे पदेऽनल्पजलास्तटाका अनोहका वा फलपुष्पपाकाः। (वीरो० २/१९) अनोकहस्य सुकृतसंगीति। (जयो० १४/६) . अनौचित्यं (नपुं०) [न+उचित+ण्यञ्] अनुपयुक्तता, अनुचितता। किमनौचित्यमत्र, किमहं भवतां पुत्रो नास्मि। (दयो० ८१) . अनौजस्यं (नपुं०) [न+ओजस्+ष्यञ्] शक्ति सामर्थ्य का अभाव, बल हीन। अनौहृत्यं (नपुं०) [न+उद्धत+ष्यञ्] शालीनता, उदारता, विनय, शान्ति। अनौरस्म (वि०) औरस न हो, विवाहिता स्त्री से न उत्पन्न, गोद लिया पुत्र। अन्त (वि०) [अम्+तन्] निकट, अन्तिम, सुन्दर, मनोहर, मध्य, छोर, मर्यादा, अन्तिम बिन्दु, परिसर, पराकाष्ठा, सामीप्यता, सन्निकता, परिसर, किनारा, सीमा, निकटवर्ती (जयो० १६/१५) श्रीमन्तमन्तः शयवैजयन्ती। (जयो० ३/८६) अन्ततां स्फुटमनेकपदेव। (जयो०५/४४) अन्तशब्दस्य सुन्दरतावाचकत्वात्। (जयो० वृ०५/४४) ० अन्त' शब्द धर्मवाचक भी है। अनेकेऽन्ता धर्मा। ०अन्तो भोगभृगुपरितु योगो। (सुद० १०५) उक्त पंक्ति में 'अन्त' का अर्थ अन्तरङ्ग है। ०अन्तः-भीतर/अन्दर-अन्तः समासाद्य। (सुद० ११९) (भीतर ले जाकर) प्रसरति किन्नहि जगदन्तः। (सुद०८१) अन्त-बाद में-पश्चात्-निर्धूमसप्तर्चिरिवान्ततस्तु। (सु०२/४०) (सम्य० ११०) अन्तः-आभ्यन्तर-अन्तर्विषमया नार्यो। (सुद० जयो० २/१४६) ०अन्तः-मध्य-आम्रस्य गुञ्जकलिकान्तरतो। (वीरो० ६/२) ०अन्तः-अवसान-(वीरो० वृ० ५/१९) अन्त:-अन्तरङ्ग-परस्य घोण्टाफलवत्कठोरान्तस्त्वेन वृत्तिर्बहिरस्त्वघोरा। (समु० १/२३) ०अन्तः-समाप्त-जड़तायाश्च भवत्यन्तः। (सुद० ८१) अन्तक (वि०) विघ्नविनाशक। (जयो० १०/२) [अन्तयति-अन्तं अनेडः (पुं०) [न एड:] मूर्ख पुरुष, अज्ञानी, मूढ। अनेनस् (वि०) निष्पाप, निष्कलङ्कक। अनेहलः (पुं०) [न हन्यते-हन्+असि-धातोः एहादेशा न+एह+अस्] समय, काल। For Private and Personal Use Only Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अन्तकः अन्तरात्मन् करोति-पवुल्] घातक, नाशक, संहारक, मारक, यम, मृत्यु। नाश करने वाला। (जयो० १/९४) समवेत्य तदात्ययान्तकं (जयो० १०/२) अन्तकः (पुं०) यमराज। (जयो० १२/८१) द्विषदने पुनरन्तकस्य जिह्वा। (जयो० १२/८१) अन्तकान्तिक समात्तशिक्षिणः। (जयो० २/१३४) अन्तकरी (वि०) दु:खकरी, दुःख उत्पन्न करने वाली। (जयो० वृ० ११/५६) अन्तकान्तिक (वि०) यमराज के निकट। मृत्यु के समीप अन्तकस्य यमस्यान्तिके (जयो० २/१३४) अन्ततः (अव्य०) [अन्त+तसिल्] किनारे से, अन्यत्र, कुछ, __ भीतर, नष्ट, अन्त। (जयो० वृ० १८/४८, सुद० २/४०) अन्ते (अव्य०) अन्त में, निकट, पास। (सम्य० ५७) अन्तर् (अव्य०) [अम्+अरन्+तुडामगश्च] बीच में, मध्य में, अन्दर, भीतर, आन्तरिक। 'लोकान्तरायाततमः प्रतीपे।' (सुद० २/३३) उक्त पंक्ति में 'अन्तर' का अर्थ अन्तरङ्ग है। 'रूपोऽहतो मे च किमन्तरा धी:।' (भक्ति०२८) यहां 'अन्तर' का अर्थ मध्य बीच है। अर्हत् और स्वभाव दोनों के मध्य कोई अन्तर नहीं है। 'अनुचक्रे स हि तीरमन्तरा' (जयो० २१/७५) इसमें 'अन्तर' का अर्थ 'अनुलग्न' है अन्तःकरणं (नपुं०) अन्त:स्थल, चेत, चित्त। (जयो० १६/१५) (जयो० ४/४४) अन्तःक्रिया (स्त्री०) मन की चेष्टा, चित्त की प्रवृत्ति। (जयो० १६/१५) अन्तर्घोषः (पुं०) अन्तर्ध्वनि, अन्तरंग स्वर। उद्योतयन्तोऽपि परार्थमन्तर्घोषा। (जयो० २/२२) अन्तर्दधाती (वि०) अन्दर छुपाती हुई, भीतर ले जाती हुई। (दयो० २/७) अन्तीति (स्त्री०) अन्तरङ्ग नीति, हृदयगतभाव। अन्तर्नीत्या ऽखिलं विश्वं वीर-वर्त्मभिधावति। दयते स्व- कुटुम्बादौ हिंसकादपि हिंसकः।। (वीरो० १५/५९) अन्तःपुरं (नुपं०) अन्तःपुर, राज्ञीप्रासाद, रनवास, अन्तःपुरे तीर्थकृतोऽवतारः। (वीरो० ५/५) अन्तः पुरप्रवेशायोद्यतसा। (सुद०७/१) अन्तःपुरं द्वाः स्थनिरन्तरापि। (८/१) जयोदय के दशमें सर्ग में अन्त:पुर का अर्थ अवरोध किया है। (जयो० १०/३) अवरोधमन्तः पुरमितः (जयो० १०/३) अन्तर्विशुद्धिः (वि०) अन्तरङ्ग की विशुद्धि। अन्तःशयः (पुं०) काम, कामदेव। (जयो० ३/८६) अन्तःशयं हृदि वर्तमान कामदेव स्वयं। (जयो० वृ० १४/१४) अन्तःस्तलं (नपुं०) अपना अन्तरंग, निज स्वभाव, आत्मभाव। (वीरो० १४/२४) अन्तस्त्रुटि (स्त्री०) आत्मत्रुटि, निजभूल। अन्तस्तले स्वामनुभाव यन्तस्त्रुटिं। (जयो० १४/१४) अन्तःस्फुरत (वि०) हृदयान्तर्गत शोभा। (जयो० ११/१९) तदन्तःस्फुरदम्बुजं च। (जयो०१/४९) तदन्तो हृदयान्तर्गत स्फुरच्छोभना अन्तरक्रिया (स्त्री०) ज्ञान क्रिया, आभ्यन्तर शक्ति। अन्तरङ्गच्छेदः (पुं०) अशुद्ध उपयोग, अशुद्धोपयोगो हि छेदः। (प्रवचनसार टी ३/१६) अन्तरङ्गज (वि०) आभ्यन्तर में उत्पन्न होने वाला। अन्तस्थ (वि०) प्रान्तभाग, हृदयभाग। अन्ते प्रान्त भागे तिष्ठति य-र-लवानां। (जयो० ११/७२) अन्तस्थ ध्वनियां-य, र, ल, व। गर्भस्था अन्तस्थ (वि०) गर्भस्थ। अन्तस्थ-तीर्थेश्वरः (पुं०) गर्भस्थ तीर्थकर। बभूव भूपस्य विवेकनाव: सोऽन्तस्थतीर्थेश्वरजः प्रभावः। (वीरो० ६/८) अन्तःस्थलं (नपुं०) ० अन्त:करण। ०अन्त:स्थलसत्। अन्तःकरण की शोभा। (जयो० १/६६) अन्तस्था (वि०) समीपवर्तिनी, प्रान्तवर्तिनी। (जयो० २०/४८) अन्त:स्थित (वि०) अन्तरंग में स्थित। (जयो० १३/१००) अन्तर (वि०) [अन्तराति ददाति-रा+क] अन्दर होने वाला, निकट, समीप, संबद्ध, घनिष्ट। (सम्य० ६५) अन्तरङ्ग (नपुं०) चित्त, हृदय, चित्त, अन्त:करण, मनसस्तत्त्व। मुकुरार्पितमुखवद् यदन्तरङ्गस्य हि तत्त्वम्। (जयो० २/१५४) अन्तरङ्गस्य मनसंस्तत्त्वं। (जयो० २/१५४) यस्यान्तरङ्गेऽद् भुतबोधदीपः। (जयो० १/८५) अन्तरङ्गस्थलं (नपुं०) आभ्यन्तर स्थान। (सुद० १२२) अन्तरतः (नपुं) अन्तराल, भीतर, आन्तरिक, मध्य, अन्त में (वीरो०) अन्तरतम (वि०) [अन्तर+तमप्] ०अत्यन्त निकट, निकटतम, अनिष्टतम। अन्तरन्वेष्टुम् (वि०) अन्तरङ्ग में प्रविष्ट हेतु। (वीरो० १०/२५) अन्तरलिः (पुं०) चित्त रूपी भ्रमर। (जयो० ९/९१) अन्तरा (अव्य०) [अन्तरेति-इण+डा] भीतर, अन्दर, बीच, मध्य। न तु इतरस्तरामन्तरा यामि (सुद० वृ०७३) अन्तरात्मन् (पुं०) [अन्तर्+आत्मन्] आत्मशुद्धिभाव, ज्ञान युक्त आत्मा। (सम्य० ११५) समस्ति देहात्मविवेकरूपः, For Private and Personal Use Only Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra अन्तराविष्ट www.kobatirth.org शुभोपयोगी गुणधर्मकृपः किलान्तरात्माऽयमनेन भाति परीत-संसार - समुद्र-तातिः ।। (समु० ८ / २२) शरीर को आत्मा से भिन्न मानते हुए विवेक रूप विचार होने का नाम शुभोपयोग है, इस शुभोपयोग से आत्मा गुणवान् और धर्मात्मा बन जाता है तथा अन्तरात्मा कहलाने लगता है। ० ज्ञानमयं परमात्मानं ये जानन्ति ते अन्तरात्मनः । (कार्तिकेयानुप्रेक्षा टी० १९२) ० सिद्धि स्यादनपायिनी " (हित०सं० ३) सिद्धि के सम्मुख जो होता है, वह अन्तरात्मा है। आत्मा के भेदों में एक भेद है, इसे'अन्तरात्मतामेति विवेकधामा' (सुद० वृ० १३५) ० विवेकधाम भी कहा है। अन्तराविष्ट (वि०) आभ्यन्तर प्रवेश अन्तरंग प्रविष्टि (जयो० १४/५८) चान्तराविष्टतया युवतिः (जयो० १४/५८) अन्तरायः (पुं०) विघ्न, बाधा, अवरोध, रूकावट । ज्ञानविच्छेदकरणमन्तरायः (स०सि० ६ / १०) किसी भी ज्ञान में बाधा पहुंचाना, या जो दाता और देय आदि के बीच में अवरोध आता है। 'अन्तरमेति गच्छतीत्वन्तरायम्' (धव०पु० १३ वृ० २०९) आठ कर्मों में अन्तिम तथा घातियां कर्मों में चतुर्थ कर्म । अन्तरालम् (वि०) ( अन्तरं व्यवधानसीमाम् आरति गृह्णातिअन्तर + आ + टा+क रस्य लत्वम् ] ०भाग, ० मध्यवर्ती प्रवेश, ०स्थान, ०काल, ०अवकाश ०भीतर, ०अन्दर (सुद० वृ० २६) पितामहस्तामरसान्तराले (जयो० १/८) अन्तराले मध्ये (जयो० वृ० १/८) शाखाभिराक्रान्तदिगन्तरालः । (जयो० २/१५) विशाल शाखाओं से दिशाओं को पूरित करने वाला। + अन्तरि (वि० ) [ अन्तः स्वर्गपृथिव्योर्मध्ये ईक्षते इति अन्तर् ] मध्यवर्ती प्रदेश, वायु, वातावरण, आकाश । अन्तरिक्षः (अन्तः स्वर्गपृथिव्योर्मध्ये ईक्षते - ईति अन्तर् + ईक्ष-पञ्) आकाश, वातावरण वायु आकाशगत सूर्य, चन्द्र, ग्रह, नक्षत्र और तारा आदि । 7 अन्तरित (वि० ) [ अन्तः+इ+क्त] ० भीतर, अन्तरङ्ग ०गुप्त, ० अन्तर्हित, ०छिपी हुई । (जयो० २६ / २५) ० समीपवर्ती (चीरो० २०/८) दद्यादन्तरिताऽन्धिका शिशुमती रूग्णा पिशाचान्विता (मुनि०११) स विरलो लभतेऽन्तरितं च य (जयो० ९/८६) योऽन्तरितमन्तर्हितं गुप्तरहस्यं लभते । (जयो० वृ० ९/८६) अम्भोजान्तरितोऽलिरेवेमधुना। (सुद० १२७) ६१ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अन्तिममनु अन्तरित शत्रु ( पुं०) आन्तरिक शत्रु, काम कोध आदि । अन्तरीषः (पुं०) ०टापू, द्वीप, समुद्र का जल विहीन उच्च स्थान । अन्तरीपि (स्त्री०) खपू द्वीप विभात एतावधुनान्तरीपी (जयो० ११ / ३५) अन्तरीपौ द्वीपौ विभात (जयो० वृ० ११ / ३५ ) अन्तरीयं ( नपुं० ) [ अन्तर छ] अधोवस्त्र निरस्य शैवाल दलान्तरीयं । (जयो० १८ / २७) समन्तरीयोद्भिदि । (जयो० १७/७४) अन्तरेण (अव्य० ) [ अन्तर + इण+ण] इसके बिना, सिवाय, अतिरिक्त, अन्य, इतर, पश्चात्। (दयो० वृ० २ / २६ ) त्रिवर्गसंसाधनमन्तरेण । (दयो० २ / २६) यहां 'अन्तरेण' का अर्थ 'व्यर्थ' भी है। अन्तर्गत ( वि० ) [ अन्तः+गम्+क्त] गया हुआ, समाहित, अन्तस्थित। (सम्य० ४६ ) अन्तर्गमिन् (वि० ) [ अन्तः+ गम् + णिनि] गुप्त रहस्यपूर्ण, मध्यगत, गूढ । | अन्तर्धा (वि०) आच्छादन, गोपन अर्धानं (नपुं०) अदृश्य, नहीं दिखना । अन्तर्भव (वि०) आन्तरिक आत्मगत अन्तर्भावः (पुं० ) अन्तर्भूत, आत्मगत । अन्तर्भावना ( स्त्री०) आत्मभावना, हृदयगत भावना । अन्तर्मुहूर्तः (पुं०) समय विशेष (सम्य० ५६ ) अन्तर्य (वि०) आन्तरिक । अन्तर्हृदयं (नपुं०) मनोमध्य, हृदन्त। (जयो० वृ० २३/४० ) अन्तर्व्याप्तिः (स्त्री०) साध्य के साथ साधन का होना। अन्तलता (स्त्री०) अन्तरता, आत्मगत (जयो० १७/ अन्तसमयः (पुं०) चेतनस्यात्मनोऽभावे । (जयो० २५/५६ ) अन्ति (अव्य० ) [ अन्त+इ) पास में, निकट, समीप अन्तिक ( वि० ) [ अन्तःसामीप्यमस्यतीतिअन्त+ठन् ] निकट, समीप (सम्य० ४३) जिनालयस्यान्तिकमेत्य मृत्यु (सुद० ४/१८) अन्तकान्तिक समात्त-शिक्षिण (जयो० २ / १३४ ) अन्तिम (वि० ) [ अन्त+ डिमच्] ०आखरी, चरम, ० सर्वोत्कृष्ट, । ० सम्पन्नावस्था कुजानातिगमन्तिमं स मनसा तेनार्जितः सिद्धये (जयो० २७/६६) तथान्तिमं सम्पन्नावस्थं (जयो० वृ० २७/६६) पौरुषोऽर्थ इति कथ्यतेऽन्तिमः। (जयो० २/ २२) अन्तिमश्चरमः पुरुषस्यायं पौरुषः (जयो० वृ० २/२२) सुदर्शनाख्यान्तिमकामदेव (सुद० १/४) अन्तिममनु (पुं० ) अन्तिम कुलकर। अन्तिम मनु-तेष्वान्तिमो नाभिमुख्य देवी प्रासूत पुत्रं जनतैक सेवी (वीरो० १८/१२) For Private and Personal Use Only Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अन्तिमाम्भोभिः ६२ अन्य अन्तिमाम्भोभिः (पुं०) पश्चिमादिशा समुद्र। (जयो० १५/१६) अन्ती (स्त्री०) चूल्हा, अंगीठी। अन्ते (अव्य०) अन्ततः, भीतर, निकट। अन्त्य (वि०) [अन्त+यत्] अन्तिम, चरम, आखिरी। (भक्ति०२) अन्त्यकः (पुं०) [अन्त्य एवेति स्वार्थ कन्] निम्न पुरुष। । (जयो० २८/२०, १/५४ अन्त्यजः देखो अन्त्यकः। अन्त्य-यमकालङ्कारः (पुं०) अन्तपद यमक। यदुपान्तिकेषु सरलाः सरला यदनूच्चलन्ति हरिणा हरिणा। तदिदं विभाति कमलं कमलं मुदमेत्यं यत्र परमाय रमा।। (वाग्भट्टा० ४/३३) जहां अन्त्य पदों की आवृत्ति हो वहां 'अन्त्य यमकालङ्कार' होता है। 'सौष्ठवं समभिवीक्ष्य सभाया यत्र रीतिरिति सारसभायाः। वैभवेन किल सज्जनताया। मोदसिन्धुरुद्भज्जनतायाः।। (जयो० ५/३४) अन्त्रं (नपुं०) अन्त्+ष्ट्रन्+अम्] आंत, अंतड़ी। अन्दुः (स्त्री०) [अन्द्+कु पक्षे ऊङ् स्वार्थे कन्] ०श्रृंखला, ०बेड़ी, आभूषण, विशेष अलंकृति। (जयो० १७/५२) 'अन्दुः स्त्रियामलङ्कार' इति विश्वलोचनः। अन्दुभिस्तु पुनरंशुकराजैः। (जयो० ५/५६) अन्दोलनं (नपुं०) [अन्दोल+ल्युट] झूलना, हिंडोलना। अन्ध् (सक०) अन्धा बनाना, अन्धा करना। अन्ध (वि०) [अन्ध+अच्] अन्धा, अनयन, नेत्रहीन। (जयो० वृ० २५/६८) अंधक (वि०) ०अन्धापन, दृष्टि हीनता। अन्धकरण (वि०) [अन्ध+कृ+ल्युट्] अन्धा करने वाला, दृष्टिहीन करने वाला। अन्धकलोष्ठः (पुं०) धूर्त पाषाण। (जयो० ९/२८) सफेद पत्थर जिसका उपयोग नहीं होता। अन्धकारः (पुं०) तिमिश, तमस्, ०अंधेरा, तिमिर, ०प्रकाशाभाव। (जयो० वृ० ११/९३, १५/९) अन्धं करोतीति अन्धकारो यं दृष्ट्वा। (जयो० वृ० १५/२४) हाहान्धकारोऽपि निशाचरों पि। (जयो० १५/२४) अन्धकारः (पुं०) अन्धकासुर दैत्य। हे धीरश्वरासुरहित सहसान्धकारम्। (जयो० १८/३०) अन्धकारः (पुं०) दिशाओं की प्रभा का शून्यता। दिगम्बर। अयं दिगम्बरोऽन्धकारश्चरति। (जयो० वृ० १३/४८) अन्धकार हाथियों के झुण्ड के बहाने विचरण कर रहा है। अन्धकाररूप (पुं०) अन्धकार स्वरूप। (जयो० वृ० १५/२६) अन्धकार-रूपधारक (वि०) अन्धकार के स्वरूप को धारण करने वाला। अन्धकार-रूपिणी (स्त्री०) तिमिर-रूपवाली, श्यामवर्णा। (जयो० १५/२७) तमोमयीमन्धकाररूपिणीं श्यामवर्णा। अन्धकार-सत्ता (स्त्री०) तमस्थितिः, अन्धकार परिणति। (वीरो० ५/२४) यथा प्रभातो दयतोऽन्धकारसत्ता विनश्येदयि बुद्धिधार। (वीरो०५/२४) अन्धकार-स्वरूपः (पुं०) श्यामशय, कलुषपरिणाम, कृष्णपक्ष। . (जयो० १/१०१) अन्धकारस्थित (वि०) तमोस्थित (वीरो० २०/२०) अन्धकारी (वि०) अन्धकार वाला, अन्धकार धारक। (सुद० २/२५) केशान्धकारीह शिरस्तिरोऽभूद। अन्धकूप (पुं०) खंडहर कूप, पानी से रहित कूप, गहरा कूप। (नाभिभ्रमणान्धकूपा। सुद० २/४) अन्धकूपा (वि०) अन्धविश्वासी। (सुद० २। अन्ध-तमस् (पुं०) अन्धकाराच्छन्न, गहन अन्धकार। (जयो० २।८६) दिक्षुचान्धतमसायते। अन्धता (वि०) अवलोक हीनता, दृष्टि हीनता (जयो० ९/२७) अन्धिका (वि०) अन्धी, रात्रि। [अन्ध+ण्वुल्। इत्वम् टाप्] दद्यादन्तरिताऽन्धिका। (मुनि०११) अन्धुः (स्त्री०) कूप, कुआं। [अन्ध कु] अन्नं (नपुं०) खाद्यान्न, चना, मूंग, गेहूं। सदन्नमातृप्ति तथोपभुज्य। (सुद० १३०) अन्नं करोतीत्यन्नकृद धान्य पाचको भवति। (जयो० २/३६) अन्नकृत (वि०) अन्न को पकाने वाला। अन्नं करोत्यन्नकृद धान्यपाचको भवति। (जयो० ० २/३६) यद्वदेव तपना तपोऽन्नकृच्छ्रीजिनानुशय)। (जयो० २/३६) अन्नकूटः (पुं०) खाद्यान्न समूह। अन्नकोष्ठः (पुं०) अनाज की कोठी। अन्नगंधिः (स्त्री०) पेचिश रोग। अन्नदोषः (पुं०) आहार दोष। अन्नशुद्धिः (स्त्री०) आहार शुद्धि। यदुद्दशादिदोषेभ्योऽतीतं स्वस्मै प्रसाधितम्। शोधिताऽन्नप्रदेयं स्यात्तद्देयं हि तपस्विने।। (हित०सं० १० १४०) अन्नोत्पादनं (नपुं०) खाद्यान्न उत्पादन। (जयो० वृ० २/५) अन्य (वि०) भिन्न, दूसरा, और, अनोखा, असाधारण, अतिरिक्त। (सम्य० २१) त्वममुष्यासि सवर्णाऽलमन्यया हे सुकेशि वर्णनया। (जयो० ६/८५) उक्त पंक्ति में 'अन्य' वर्णन "अर्थ को प्रकट कर रहा है। अधिक वर्णन करने से क्या For Private and Personal Use Only Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अन्यक अन्यपरिक्षणम् लाभ? विनाऽन्ये न जातुचित्। (सुद० ४/४०) यहां 'अन्य' अन्यतः (अव्य०) दूसरे से, अन्य से। शेष वाचक है। तमन्यचेतस्कमवेत्य तस्य। (सुद० ३/३९) अन्त्यत्वः (पुं०) ० भावना विशेष, जीव का किसी के साथ युधिष्ठिरो भीम इतीह मान्यः, सम्बन्ध नहीं है, ऐसा विचार।। शुभेगुणणैरर्जुन एव नान्यः, (जयो० १/१८) अन्यत्र (अव्य०) [अन्य+त्रल्] और स्थान, दूसरा, इसके अन्यक (वि०) अन्य, दूसरा, इतर, भिन्न। (जयो० वृ० १/७२) अतिरिक्त, सिवाय, अन्यथा, दूसरी अवस्था में। अन्य-कृति (स्त्री०) सर्वसाधारण बात। (जयो० वृ० १/७२) रुग्दारिद्रयमन्यत्र धनं यथारूक्। (सुद० वृ० १२१) (जयो० ४/२३) अभिधानेऽन्यत्राहो। (सुद० वृ० ८७) अन्यग (वि०) अन्य, दूसरे के पास जाने वाला। अन्यत्रगत (वि०) अन्य पदार्थों में संलग्न। प्रवृत्तिमन्यत्रगतामुदस्य। अन्यगत (वि०) दूसरे की ओर प्राप्त हुआ। (भक्ति सं० २९) समादरोऽल्पेऽन्यगतेऽप्यो । (समु० १/१८) अन्यत्रसंकल्प (वि०) अन्य पदार्थ में संकल्प। (भक्ति ३०) अन्यगामिन् (वि०) अन्यत्र जाने वाला। अन्यदशा (स्त्री०) अन्य पर्याय। (भक्ति वृ० ३) निरञ्जनोश्चान्यअन्यगोत्र (वि०) दूसरे वंश या कुल का। दशाप्रतीपान्। अन्यगुणं (नपुं०) परगुण (वीरो० , जयो० ४/६७) अन्यदा (अव्य०) किसी समय, अब, इस समय, अधुना, कभी। अन्यजन: (पुं०) भिन्न लोग। (वीरो० १६/३) समुदीक्ष्य मुदीरितोऽन्यदा। (सुद० ३/३४) जातोऽन्यदा अन्यज (वि०) अन्य जन्मगत। सम्बदा। (सुद० वृ० ९६) पुत्रः शत्रुत्वमन्यदा। (सुद० अन्जजात (वि०) अन्य जन्म को प्राप्त। (सम्य० १५४) ४/६० ४/९) अन्यच्च (अव्य०) अन्यत् भी, दूसरी ओर। तत्तत्सम्बन्धि अन्यथा (अव्य०) [अन्य+थाल्] क्योंकि, जो कि, अन्य रीति चान्यच्च। (सुद० ४/११) से, परथा। कामुकीनामन्यथापि, परिप्लावन दर्शनात्। (हित अन्यजन्मन् (वि०) भिन्न कुलोत्पन्न। मनोऽन्यजन्मादि यतः सं०१६) निर्बलस्य बलिना विदारणमन्यथा सहजकं सुधारण। समस्यते। (जयो० ३३/३९) अन्यज्जमान् (वि०) भवान्तर प्राप्त, पूर्व जन्म सम्बन्धी। (जयो० २/११२) यहां 'अन्यथा' का अर्थ क्योंकि है। (जयो० वृ० २३/३३) अन्यथा तु (अव्य०) क्योंकि, और भी। (जय वृ० १/२०) अन्यत् (वि०) अन्य, भिन्न, इतर, अपर, क्वचित्, पृथक्, अन्यलिङ्गः (नपुं०) अन्य वेश, विपरीत वेष। असाधारण। (सम्य० २३) (जयो० २/६२१) अन्यथानुपपत्तिः (स्त्री०) अर्थापत्तिप्रमाण। (जयो० ७/१५) शिखिाजनोऽन्यत एव तया स च। (जयो ० अन्यथानुपपत्त्याऽहं गतवान्स्त्व द्नुज्ञया। (जयो० वृ० ७/१५) ४/६७)यान्तोऽन्यतोऽभ्युद्धत (जयो० १३/८२) तत्स्वर्गतो 'अन्यथा साध्याभावप्रकारेण अनुपपत्तिः अन्यथानुपपत्तिः' नान्यदियाद्वदान्यः (सुद० १/६) मत्वा निजं परं (सिद्धिविनश्चय टी०वृ० ३५८) साध्य के अभाव में हेतु सर्वमन्यदित्येषु मन्यते। (सुद० ४/७) उक्त पंक्ति में का घटित न होना। 'अन्यत' भिन्न या पराए अर्थ को प्रतिपादित कर रहा है। | अन्यथानुपत्तिरलङ्कारः (पुं०) अलंकार नाम। (जयो० २४/१२०) साम्प्रतं धनिविमोचितं पटाद्यन्यतः श्रणति भूषणच्छटाम्। लताप्रताने गता महति या चकर्ष कान्तं परिरम्भधिया। (जयो० २/२८) मुमुदे साम्प्रतमितो वयस्या वलयस्वनेन वध्वास्तस्या।। अन्यत्किं (अव्य०) और दूसरा क्या? कलि-मल-धावनमतिशय (जयो० १४/२५) पावनमन्यत्किं निगदाम। (सुद० वृ०७०) अन्यदृष्टिः (स्त्री०) अन्य मत मतान्तरो में अनुराग। अन्यत्स्थानं (नपुं०) अन्य स्थान, दूसरा स्थान। (जयो० वृ० अन्यदृष्टि प्रशंसा (स्त्री०) मिथ्यादृष्टि के गुणों का गुणगान। ४/२६) अन्यधनं (स्त्री०) परधन, दूसरे का द्रव्य। हिंसामृषाऽन्यधन अन्यतम (वि०) [अन्य उतम्] बहुत में से एक। दार-परिग्रहेषु। (सुद० वृ० १२७) अन्यतर (वि०) [अन्य+तरफ] दोनों में से कोई एक। अन्यपरिक्षणम् (नपुं०) पररक्षण (वीरो० २२/२५) दूसरे की अन्यतंत्रः (पुं०) परतन्त्र। (सम्य० २१) रक्षा का विचार। For Private and Personal Use Only Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अन्यपुरुषः अन्वय अन्यपुरुषः (पुं०) ०परपुरुष, व्याकरण प्रसिद्ध क्रियात्मक अभिव्यक्ति का कारण। (जयो० वृ० १२/१४५) अन्यपुष्टः (पुं०) पर पुष्टि, दूसरे का पोषण। (मौन्यन्यपुष्टः स्वयमित्यनेन। (वीरो० ४/८) अन्यभावः (पुं०) दुर्वृत्ति, दुष्परिणाम, प्रजादुरीहाधिकृतान्यभावं। (वीरो० १८/४५) अन्यमनस्कता (वि०) अप्रस्तुत का आरोप, (जयो० वृ० १/२१) अन्यया (अव्य०) कदापि, कभी भी। (क्षेत्रेऽन्यया कान्तिझरैकयोग्ये) (जयो० वृ० १५/७७) अन्ययोग व्यवच्छेदः (पुं०) एक दार्शनिक दृष्टि। विशेष्य के साथ प्रयुक्त एवकार। ०पक्ष-प्रतिपक्ष के चिंतन के साथ अपना मत प्रस्तुत करना। अन्यविधिः (स्त्री०) अन्यथा विधि (वीरो० १८/५१) अन्यहितः (पुं०) परोपकार। (जयो० वृ० १८/१७) अन्या (वि०) अन्य, दूसरा, ऊपर। उदग्र-कुसुमोच्चिीषयान्या। अन्या-काचिन् (जयो० १४/२७) अन्यार्थ (वि०) परोपकारार्थ, अन्य पुरुष वाचक। अन्यार्थसाधक तया विचरन् सुवंशे। (जयो० १४/१४५) अन्यार्थस्य परोपकारस्यान्यपुरुष-वाच्यस्य। (जयो० वृ० १४/१४५) अन्यानपेक्षिन् (वि०) अन्य से निरपेक्ष। नित्यं पादप-कोटरादिषु वशेदन्यानपेक्षिष्वथा। (मुनि०३) अन्यापोहता (वि०) अन्य सांसारिक प्रपञ्च का अभाव। अन्यापोहतया चित्तलक्षणेऽथ क्षणे स्थितिम्। (जयो० २८/२४) अन्यस्य सांसारिकाप्रञ्चस्यापोहोऽसभावः। (जयो० वृ० २८/२४) अन्याय (वि०) न्यायरहित, अनुपयुक्त। अन्यायिन् (वि०) न्यायहीन, अनुचित। अन्याट्य (वि०) न्यायहीन, अनुचित। अन्येऽपि (अव्य०) और भी। अन्येऽपि बहवो जाता कुमारश्रमणा नरा। (वीरो० ८/४१) अन्योक्ति-भावः (पुं०) अन्य दूसरे के माध्यम से कथन। अन्योक्तिमानं (नपुं०) दूसरे की उक्तियों पर निर्भर। स्याणणमो संयबुद्धीणं नरो नान्योक्तिमानतः। अन्यस्येतरस्योक्तिमान्त भवति। (जयो० वृ० २१/६४) अन्योक्तिरलङ्कारः (पुं०) प्रत्येक्यश्येकाभिधयाथ मूर्च्छन्नारक्त फुल्लाक्षितयेक्षितः सन्। दरैक धातेत्यनुमन्यमानः कुजातितां पश्यति तस्य किन्न।। (वीरो०६/१५) यहां कु+जाति-भूमि से उत्पन्न, दूसरे पक्ष में खोटी जाति वाला अर्थ है। इसी प्रकार 'दरैकधाता' का अर्थ दर अर्थात् पत्रों पर अधिकार रखने वाला और दूसरे पक्ष में डर या भय को करने वाला है। अन्योन्य (वि०) [अन्य-कर्मव्यतिहारे द्वित्वम्, पूर्वपदे सुश्च] एक दूसरे को, परस्पर, प्रायः। (जयो० वृ० २/११५) (वीरो० २७/२०) अन्योन्यानुगुणैकमानसतया। (सुद० ४/४७) अन्योन्य-कलहः (पुं०) पारस्परिक द्वेष। अन्योन्यघातः (पुं०) आपस में ईर्ष्या। अन्योन्याभावः (पुं०) एक वस्तु में अन्य का अभाव। अन्योन्य सामाश्रय (वि०) एक दूसरों का आश्रय। (हित सं० २२) अन्योन्यानुकरणं (नपुं०) गतानुगति। (वीरो० वृ० ५/३३) अन्योन्यानुभावः (पुं०) एक पर्याय का दूसरी पर्याय में न होना। भावैकतायामखिलानुवृत्तिर्भवेदभावेऽथ कुतः प्रवृत्तिः। यतः परार्थी न घटं प्रयाति हे नाथ! तत्त्वं तदुभानुपाति।। (जयो० २६/८७) अन्योन्याश्रयः (पुं०) अन्योन्य समाश्रय, (हित सं० २२) अन्वक् (अव्य०) [अन+अञ्च+क्विप्] वाद में, पीछे, अनुकूल रूप। अन्वञ्च (वि०) [अनु+अञ्च+क्विप्] पीछे जाने वाला, पीछा करने वाला। अन्वक्ष (वि०) [अनुगत: अक्षम्-इन्द्रियम्] दृश्य, अवलोकित। अन्वतः (वि०) इधर उधर। मुहुरुदिगलनापदेशतस्त्वतिपातिस्तन जन्मनोऽन्वतः। (सुद० ३/१८) अन्वमं (नपुं०) निश्चित, सही, उचित, ठीक। (जयो० ४/३०) अन्वमानि रविणेदमयोग्य मित्यतोऽपयश एव हि भोग्यम्। अन्वय (वि०) अनूकूल्य, सम्बन्ध युक्त, (सुद० ३/१७) ०कुल परम्परा, ०अनुगमन, ०अनुगामी, ०अनुचर, ०सहभागी, तात्पर्य, अभिप्राय, प्रयोजन, समूह। (सम्य० २३) ०एक दार्शनिक विवेचन, जिसका तदङ्गजाप्यन्वयनीत्यधीना। (जयो० १/४०) यहां 'अन्वय' का अर्थ कुलाकूल या कुल परम्परा है। 'सदा सुलेखान्वयसेव्यमानः" (जयो० १/५१) यहां 'अन्वय' का अर्थआनुकूल्य है, दूसरा अर्थ, समूह भी है। सत्कर्माख्यदिनोदयात्प्रथमतो भूमण्डलास्यान्वये। (मुनि० पृ० १) उक्त पंक्ति में 'अन्वय' का अर्थ कुल है। अस्यां समानभावेन यतिवाचीन चान्वयः। (जयो० वृ० ४/६६) यहां 'अन्वय' का अर्थ विचार, है। अन्वयो विचारो भवति। (जयो० For Private and Personal Use Only Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अन्वयव्यतिरेकः अपकर्षणं - ४/६६) साभिधेयमभिधानमन्वयप्रायमाश्रयतु। (जयो० २/५५) अन्वासनम् (नपुं०) [अनु+आस्+ल्युट्] सेवा, परिचर्या, पूजा, यहां 'अन्वय' का अर्थ समन्वय, संबंध भी है। ___ शक्ति , शोक, खेद। अन्वयव्यतिरेकः (पुं०) विधायक और निषेधात्मक प्रतिज्ञा। | अन्वाहिक (वि०) प्रतिदिन का, नैमित्तिकता। अन्नयायाङ्क (वि०) समागम। सुदर्शनान्वयायाङ्का स्थापिता | अन्विचारः (पुं०) चिन्तन, विचार। (समु० ८/२१) शरीर कपिलाख्यया। (सुद० वृ०८६) | मेवाहमियान्विचारः। अन्वयी (वि०) अनुयायी, मंडाराने वाले। कमलान्वयिभ्रमरविस्तारा। | अन्वित (वि०) [अनु+इ+क्त] अनुगत, अनुष्ठित, सहित, (जयो० २२/१९) १. 'कमलेन संतोषेप्यान्वयी संयुक्तो', युक्त, अधिकार जन्य, संयुक्त, क्रमगत, परिपूर्ण, साथ। २. 'कमलानां' वारिजानामन्वयी अनुयायी' (जयो० २२/१९) शुचिबोधकदायतेऽन्वितः। (सुद० ३/२२) केयं दोनों भी पंक्तियों में 'अन्वयी' का अर्थ अलग-अलग है, केनान्विताऽनेन। (सुद० ० ८४) शुशुभे छविरस्य प्रथम में 'अन्वयी' का अर्थ 'संयुक्त' और द्वितीय में साऽन्विता। (सुद० ३/१९) तत्कुलक्लेदसम्भार धारान्वितम्। 'अनुयायी' अर्थ है। (जयो० २/१३०) अन्वर्थ (वि०) [अनुगत:+अर्थम्] सार्थक, अनुकूल। (जयो० अन्विततनुः (स्त्री०) पूर्ण शरीर। वैवयेनान्विततनुः। (सुद० १४/२९) पृ० ७९) अन्वर्थभावः (पुं०) सार्थकभाव, अनुकूल परिणाम। रुचात्मनस्तु अन्वितिः (स्त्री०) आदि, अनुसार। कन्यकाकनक-कम्बलान्विति। जगत्तिलकाया अन्वर्थभावमेवमथायात्। (जयो० १४/२९) (जयो० २/१००) अत्रान्वितिशब्दआदिवाचकोऽस्ति। (जयो० अन्वरक्षीत्-रक्षा करने लगा। (सुद० ४/२२) श्रेष्ठी मुहुः वृ० २/१००) स्वामिजनान्वितिरिति चरणेना (सुद०. वृ० स्नेहत्तयाऽन्वरक्षीत्। ९२) स्वामी की आज्ञानुसार चलना। अन्यवसित (वि०) [अनु+अव+सो+क्त] संयुक्त, संबद्ध, बंधा अन्वीक्षणं (नपुं) [अनु+ईक्ष् ल्युट्] गवेषणा, अनुसन्धान, खोज। हुआ। अन्ववायः (०) [अनु+अव+अय+घञ] कल, जाति, वंश। अन्वेषणं (नपुं०) विशोधन, गवेषणा, (वीरो० १८/२५) अनुसन्धान, खोज। (जयो० वृ० २/४५) अन्ववेक्षा (स्त्री०) (अनु+अव+ ईक्ष+अङ्+टाप्) विचार, अन्वेषणकारिन् (वि०) खोजकर्ता, अन्वेषण कर्ता, गवेषक, चिन्तन, मनन, अनुशीलन। अनुसन्धानका रत्नान्वेषणकारि एतदिति कृत्सम्बोधयुक्तात्मना। अन्वहं (अव्य०) [अनु+वहन्] प्रतिदिन, नित्यमेव, सदैव। वैरिषन् रसिति वैरिसंग्रहमव्यथेऽकथि पथि स्थितोऽन्वहम्। (मुनि०वृ०८) (जयो० ३/६) ऋद्धिं वारजनीव गच्छति वनी सैषान्वहं श्री | अन्वेषिणी (स्त्री०) एषणा, गवेषणा, खोजना। (जयो० ७० भुवम्। (वीरो० ६/३७) १३/४३) अन्वाख्यानं (नपुं०) [अनु+आ+ख्या ल्युट्] उल्लेख पूर्वक अप् (स्त्री०) [आप्+क्विप्न हृस्वश्च] जल, वारि। कथन, पूर्वानुसार विवेचना अप (अव्य०) विरोध, निषेध, अपवह। धातु से पूर्व लगने अन्वाचयः (पुं०) [अनु+आ+चि+अच्] जोड़ना, प्रधान के वाला एक उपसर्ग। अपकार्तुम्। (समु० २/११) साथ गौण का कथन। अपकरणं (नपुं०) [अप+कृ+ल्युट] अनुपयुक्त कार्य, अनुचित अन्वाजे (अव्य०) [अनु+आजि+डे] असहाय का उपकार। कार्य बिगाड़। पथप्रस्थायिनामपि किलापकरणम्। (दयो० अन्वादिष्ट (वि०) [अनु+आ+दिश्+क्त] पश्चात् कथित, वृ० १०१) प्रतिभाषित। अपकर्तृ (वि०) [अप्+कृ+तृच्] कष्टयुक्त, हानिसंयुक्त। अन्वादेशः (पुं०) [अनु+आ+दिश्+घञ्] पूर्वोक्त का कथन, अपकर्म (वि०) कर्त्तव्यविहीन। (जयो० १८/४) ___ पूर्व की पुनरुक्ति । अपकर्षः (पुं०) [अप+कृष्+घञ्] घाटा, नीचे करना, खींचना। अन्वाधानम् (नपुं०) [अनु+धा+ल्युट्] समिधा निक्षेपण। (सम्य० ९९) अन्वाधि: (स्त्री०) [अनु+आ+ धा+कि] पश्चाताप, खेद, यथार्थ | अपकर्षणं (नपुं०) [अप+कृष्+ ल्युट] ०दूर करना, ०खींचना, प्रतिदेय। ०वञ्चित करना, नीचे करना। For Private and Personal Use Only Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अपकर्षणकी अपट सत्तागते कर्मणि बुद्धिनावाऽपकर्षणोत्कर्षणसंक्रमा वा। (समु० | ८/१५) कम असर कर देने का नाम 'अपकर्षण' है। अपकर्षणकी (वि०) मायाजन्य विद्या। (जयो० वृ० ५/५) अपकर्षणविद्या (स्त्री०) माया, कपट विद्या। कन्यका यदपकर्षणविद्या। (जयो० ५/५) अपकारः (पुं०) [अप+कृ+घञ्] दुःखोत्पादन, आघात, कष्ट, अविनय, अपकारि, उत्पीड़न, दुष्टता। (वीरो० १/३३) अपकारक (वि०) [अप+कृ+ण्वुल] कष्टप्रद, हानिकारक, अपमानजन्य। अपकारणं (नपुं०) निवारण। (जयो० १९/७९) णमो वचबलीणं यदजममारीनिवारणम्। णमो काय बलीणं च गोरोगस्या पकारणम्॥ (जयो० १९/७९ अपकारपदा (वि०) अपकीं। (जयो० ५/५९) अपकारि (वि०) अपकार करने वाला, अपमान कर्ता। अपकारिणी (वि०) विनाशकारी। जडताया अपकारिणीमतः। 1 (सुद० वृ० ५४) अपकृ [अप+कृ] उपकार करना। अपकृति (स्त्री०) [अप+कृ+णिनि] आघात, कष्ट, दु:ख, अपमान। अपकृष (सक०) [अप+कृष्] ग्रहण करना, लेना। "लताप्रतानस्य भुवोऽपकृष्य" (जयो० १/५०) अपकृष्य गृहीत्वा। (जयो० वृ० १/५०) अपकृष् (सक०) [अप कृष्] हटाना, दूर करना, खींचना, अपकर्षण करना। 'अपकर्षति स्म शिविकावाह।' (जयो० ६/४९) 'समयं स्वरूत्पन्नरुचोऽपकृष्टम्' (वीरो० २/४२) अपकृष्ट (वि०) [अप+कृष+क्त] खींचा गया, बाहर निकाला, दूर हटाया गया। अपक्व (वि०) कच्चा, अपच, अजीर्ण। (जयो० २/१५२) अपक्वमृण्मयभाजनं (नपुं०) आमपात्र, कच्चापात्र। (जयो० वृ० २/१५२) अपक्रमः (पुं०) [अप+क्रम+घञ्] हटना, भागना, पलायन करना। अपक्रमः (पुं०) दुष्क्रम, दुर्मत। (जयो० १२/४) वृषचक्रम पक्रमप्रभाव। (जयो० वृ० १२/४) अपक्रमप्रभावः (पुं०) दुर्मतप्रभाव, दुष्क्रम प्रसार। (जयो० वृ० १२/४) अपकीर्तिः (स्त्री०) दुर्यश, दुष्प्रभाव। (जयो० २/९४) अपकोशः (पुं०) [अप्+कृश+घञ्] भर्त्सना, निन्दा, गाली, अपमान शब्द। अपक्ष (वि०) १. पक्षहीन, पंख रहित। २. पक्षाभाव, विपक्ष। ३. निष्पक्ष। अपक्षयः (पुं०) [अप+क्षि+अच्] ह्रास, नाश, विनाश, अभाव। अपक्षेपः (पुं०) [अप क्षिप्+घञ] नीचे फेंकना, नीचे रखना। अपगत (वि०) रहित, विहीन। (जयो० ११/५५) "आपगाऽपगत लज्जमिवाङ्कम्" अपगत-लज्ज (वि०) लज्जा रहित, निःसङ्कोच। (जयो० ४/५५) अपगतवेद (वि०) वेदन रहित, त्रिविध पुं०, नपुं०, स्त्री, वेद रहित। अपगति (स्त्री०) [अप+गम्+क्तिन्] अशोभन गति, दुर्भाग्य, अविनीता उद्धतामथापगतिं भगवदागमे तु॥ (जयो० २३/८७) अपगरः (अप+गृ+अप्), निन्दा, गर्हा। अपगुणं (नपुं०) दुर्गुण, खोटे परिणाम। नाबन्धमवाप सापगुणदस्यु। (जयो० ६/९७) अपगण दस्य (वि०) दुर्गणों को हरण करने वाली। 'अपगणानां दुर्गुणानां दस्युहीं'। (जयो० वृ०६/९७) अपघनं (नपुं०) १. मेघ रहित, मेघविरोधिनी, 'अपघन रुचोचिता या'। (जयो० ६/७६) अपघना धनहीना मेघविरोधिनी। (जयो० वृ० ६/७६) २. अवयवयुक्त-अवघनेषु सर्वेष्ववयेषु। अपडूपात्री (वि०) कीचड़ रहित। (वीरो०२१/६) अपचयः (पुं०) [अप+चि+अच्] ह्रास, न्यूनता, कमी, छीजन, गिरावट, परिश्रम हीन। अपचरितं (नपुं०) [अप+च+क्त] दोष, दुष्कृत्य, दुष्कर्म। अपचारः (पुं०) [अप+च+घञ्] मृत्यु, अपराध, दोष, अभाव। दुराचरण, क्षति। अपचारिन् (वि०) [अप+च+णिनि] दुष्ट, दुराग्रही, दुष्टकर्मी। अपचितिः (स्त्री०) [अप+चि+क्तिन्] १. हानि, नाश, व्यय। २. प्रायश्चित्त, सम्मानन, पूजन, आदर। अपच्छत्रं (वि०) छत्र विहीन, छतरी रहित। अपच्छाय (वि०) छाया रहित, कान्तिहीन। अपच्छेदः (पुं०) [अप+छिद्+घञ्] हानि, नाश, व्यय। अपजयः (पुं०) [अप+जि+अच्] हार, पजिय। अपजात (वि०) [अप+जन+क्त] कुपुत्र, माता-पिता से हीन। अपजित (वि०) पराभूत, पराजय। अपजितस्य ममेदमुपायन। (जयो० ९/२१) अपज्ञानं (नपुं०) छिपाना, गुप्त रखना, मेटना, मुकरना। अपट (वि०) पट रहित, पर्दा हीन। For Private and Personal Use Only Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अपटी ६७ अपनयः अपटी (स्त्री०) [अल्प: पटी] पर्दा, कनात। अपटु (वि०) मंद, अदक्ष, अनिपुण। अपठ (वि०) पढ़ने में असमर्थ। अपण्डित (वि०) मूर्ख, अज्ञानी, बुद्धिहीन। अपण्य (वि०).अमूल्य, बिक्री हीन। अपतनु (स्त्री०) कृश शरीर, शरीर रहित। अपगता दूरवर्तिनी तनुः शरीरं। (जयो० २२/५) अपतम (वि०) अन्धकार अभाव, अन्धकार रहित, प्रसूति स्थान में अन्धकार का अभाव। (सुद० ३/११) कुलदीपयशः प्रकाशितेऽपतमस्यत्र जनीजनैर्हिते। (सुद० ३/११) अपतानकः (पुं०) [अप+तन+ण्वुल्] मूर्छा रोग, मृगी रोग। अपति (वि०) अविवाहित, जो पति रहित हो। अपतुषार (वि०) हिम रहित, शीत रहित। (जयो० २२/८) अपतीर्थं (नपुं०) कुतीर्थ, खोटा तीर्थ स्थान, अपवित्र स्थान। अपत्यं (न०) [न पतन्ति पितरोऽनेन-न+पत्+यत्] संतति, सन्तान, प्रजा। अपत्रता (वि०) वाहनविहीनता। (जयो० वृ० १७/४८) दृढंच यून: करवारमाप्त्वाप्यपत्रतावापि किलाकुलेन। । अपत्रप (वि०) त्रपावर्जित। अपत्रपः पत्रं वाहनं पाति स पत्रपो न पत्रयोऽपत्रपः अथवा त्रपावर्जितः सन् (जयो० वृ०८/५१) अपत्रपः (पुं०) सन्नपरोऽत्र वीरः। जयो० ८/५१ कन्दर्प स्विदपत्रपाः। (जयो० ३/१०५) ०सत् रहित। अपनप (वि०) निर्लज्ज, लज्जाशून्य। (जयो० ३/१०५) अपनपत (वि०) निर्जल्लता, सङ्कोचवर्जितता। स्वयं तु पत्रं पातीति पत्रयो न पत्रयोऽ पत्रपस्तस्य भावस्तया युक्तोऽपि सन् पत्ररहितोऽपि भवन्। (जयो० वृ० ३/३५) अपनपता (वि०) १. लज्जालुभावता, निर्लज्जता। किलापत्रपतां लज्जालुभावं उमामवाप्य महादेवोऽपि च श्रयन्ति। (जयो० २४/२३) गत्वाऽपत्रपतायाम्। (सुद० वृ० ११२) अपत्रपा (वि०) लज्जाभाव निर्लज्जता, सोचता। (जयो० वृ० १७/१९, ६/११७) अपनपा (वि०) पल्लवभावरहित, पत्रविहीनता। त्रपापि न पत्राणि पाति रक्षतीत्यपत्रपा पल्लवभावरहिता स्यात्। (जयो० वृ० १७/१९) अपथ (वि०) मार्ग रहित, कुमार्ग, उत्पथगामी। किमुद्यपथो गुह्यलम्पटः सञ्चरत्यपि। (जयो० २/१३२) अपथ्य (वि०) ०अयोग्य, अनुचित, असंगत, (सम्य० ९०) अस्वास्थ्यकर, रोगजन्य, व्याधिजनक। अपथ्यवत् (वि०) व्याधिजनक के समान (सम्य० ९०) अपदः (पुं०) ०पैर का अभाव, अनुरुभंग। ०एक पैर। (सूतोऽपदो येन रथाङ्गमेक) (जयो० १/१९) अपदः (पुं०) १. अयोग्य स्थान, आवास का अभाव। (जयो० २/१०९) सहेत विद्वानपदे कुतो रतम्। (जयो० २/१४०) २. अनुचितमार्ग-नि:स्नेहतात्मनि संवुवाणस्तथापदे संकलित प्रयाणः। (जयो० ८/७०) अपदेऽनुचिमार्ग। (जयो० वृ० ८/७०) अपदक्षिणं (अव्य०) बाईं ओर, वामभूत। अपदम (वि०) आत्म संयम रहित। अपदानं (नपुं०) [अप+दा+ल्युट्] उत्तम कार्य, पवित्राचरण, स्वच्छ चर्या। अपक्षर्थः (पुं०) सत्ता का अभाव, वस्तु तत्त्व की कमी। अपदिशं (अव्य०) मध्यवर्ती प्रदेश में। अपदूषणं (नपुं०) दूषण का अभाव। (जयो० ७/२९) अपदूषत्व (वि०) दूषणता रहित, किसी प्रकार का दूषण नहीं। (जयो० १/२९) दयालुतां चाप्यपदूषणत्वं। अपदेशः (पुं०) [अप+दिश्+घञ्] ०उपदेश, ०बहाना, छल, ०कारण, ०ब्याज, चिह्न, स्थान, दिशा। (जयो० ११/४६) अपदेशतः (वि०) बहाने, ब्याज, कारण, चिह्न। (जयो० ११/४६) अपदेशतः (वि०) इधर-उधर। मुहुरुद्गिलनापदेशतस्त्वतिपातिः। (सुद० ३/१८) अपदोष (वि०) दोष रहित, दोष वर्जित। न त्वाप सापदोषाऽप्यनङ्गरुपाधियं भाभिः। (जयो० ६/३१) पुनरपि द्रष्टुमभूदपदोषा। (जयो० १४/८) अपदोष (वि०) निर्दोष, पक्षपातरहित। रोषो न तोषो जगदेकपोष ऋषेर्भवत्येव भवेऽपदोषः। (जयो० २७/२१) अपदोषः पक्षपातेन रहितो। (जयो० वृ० २७/२१) अपद्रव्यं (नपुं०) अनिष्ट वस्तु, कुपदार्थ। प्रदुषित पदार्थ, प्रदूषित। अपद्वारं (नपुं०) ०अतिरिक्त द्वार, ०अन्य द्वार। मलद्वार/वातावरण करने वाली वस्तु। अपधूम (वि०) धूम रहित। स्वच्छ, ०शुभ्रा अपध्यानं (नपुं०) आर्तध्यान। अपध्वंसः (पुं०) ०अध: पतन, गिरावट, लांछन, निम्नगति। अपध्वस्त (वि०) [अप+ध्वंस्+क्त] अतिपिष्ट, अभिशप्त, घृणित, निन्दित। अपनयः (पुं०) [अप+नी+अच] हटाना, निराकरण करना, दूर करना। For Private and Personal Use Only Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अपनयनं ६८ अपरदिशा अपनयन (नपुं०) [अप+नी+ल्युट] कर्त्तव्य निर्वाह, पकड़ना, ले जाना। अप+नी (सक०) दबाना, नष्ट करना, दूर करना, निराकरण करना। (जयो० ६/६३) पुरुषोत्तमयोग्यामपनिन्युः (जयो० ६/६३) अपनिन्यु:-अपनीतवंता। प्रतिष्ठितानात्मतमोऽपनेतुम। (भक्ति वृ० ३) अपनोदः (अप+नुद्+घञ्) हटाना, ले जाना, दूर करना। अपपाठः (पुं०) अशुद्ध पाठ, स्वररहित, पठन, अनुच्चारण। अपपात्र (वि०) अपात्र, निम्न पात्र। अपपात्रित (वि०) पात्रता रहित पात्र। अपपानं (नपुं०) [अप+पा+ल्युट] अपेय, अपान, पानयोग्य नहीं। प्रदूषित पेय पदार्थ, रस विकृत पेय। अपूत (वि०) अडोल। निश्चल, स्थिर। अपप्रजाता (वि०) [अपगतः प्रजातो यस्याः] गर्भपात युक्त स्त्री। अपभय (वि०) निडर, निर्भय, निश्शंक। अपभरणी (स्त्री०) [अप+भू+ल्यूट+ङीप्] अंतिम नक्षत्र पुंज। अपभाषणं (नपुं०) [अप+भाष+ल्युट्] अपयश, भर्त्सना, कुप्रवचन, कुवचन। अपभीतिः (स्त्री०) भयवर्जित, भयमुक्त, निर्भय। रङ्कः पापपवेरपभीतिस्तिष्ठति किमुत विचित्रम्। (जयो० २/१५७) अपभूषणं (नपुं०) अपदोष, दूषणाभरण (जयो० १/२९ अपभूषणत्व (वि०) भूषणता का अभाव। (जयो० १/२९) अपभ्रंशः (पुं०) [अप+ श+घञ्] गिरना, नीचे जाना, पतन, शिष्टाचार शून्य। अपभ्रंशः (पुं०) अपभ्रंश भाषा, जिसमें उकार की बहुलता होती है, यह प्राकृत के पश्चात् विकास को प्राप्त होती है, प्राचीन हिन्दी का विकास इसी से हुआ। अपभ्रंशवेदिन (वि०) अस्पष्टभाषी। (जयो० २८/२७) अपमः (पुं०) क्रान्तिवलय, घुमाव युक्त चक्र। अपमर्दः (पुं०) [अप+मृद्+घञ्] धूल, रज। अपमर्शः (पुं०) [अप+मृश्+घञ्] छूना, स्पर्श करना। अपमल (वि०) दोष रहित, मलयुक्त, निर्दोष। कमलामिवा पमलाम्। (जयो० ६/६३) अपमार्गः (पुं०) [अप+मृग+घञ्] लघुमार्ग, अपथ, लघुपथ, संकरा मार्ग, तंग गली, छोटा रास्ता। अपमार्जनं (नपुं०) [अप+मार्ज+ ल्युट्] मांजना, साफ करना, | स्वच्छ बनाना। अपमानः (पुं०) [अप+मन+घञ्] अनादर, असम्मान, निरादर। अतोऽपमानादतिदु:खितोमही सुरः-परित्यज्य तनुं वभावहिः। (समु० ४/५) अपमानित (वि०) निरादर युक्त। (समु० ४/५) अपमुख (वि०) नीचे की ओर मुंख, अधोमुख। अपमूर्धन् (वि०) शिर विहीन। अपमृत्युः (पुं०) असामयिक मरण। (जयो० १९/७७) अपमृत्युमंत्र (पुं०) मृत्यु निवारण मंत्र। णमो विडोसहिपत्ताणं (जयो० १९/७७) अपमृत्यु-विनाशन (वि०) मृत्य निवारण। णमोत्थु खिल्लोसहिप त्ताणं (जयो० १९/७६) अपमृषित (वि०) [अप+मृष+क्त] अस्पष्ट, अवकत्वता। अपयशस् (पुं०) अकीर्ति, दुर्यशस्, कलंक, (जयो० वृ० १२/८०) लाभालाभौ जनुमत्युर्यशोऽपयश एव च। (दयो०१०) अपयशः परिणति (स्त्री०) अपकीर्ति, अकीर्ति। वै-परिणाम कीर्तिरपयशः परिणतिः। (जयो० वृ० ६/४३) अपयानं (नपुं०) [अप+या+ल्युट] भागना, पलायन करना, वापस जाना, दूर होना। अपयोगः (पुं०) दुरुपयोग, उपयोग न होना। अपयोगो दुरुपयोग, स एव गहनं दुःखमेव। (जयो० वृ० ४/४३) अपर (वि०) १. अद्वितीय, अप्रतिद्वन्द्वी, अनुत्तर, अनुपमा तव शिक्षा समीक्षा परा नाभिन्। (सुद०७४) २. दूसरा, अन्य, इतर, अतिरिक्त, एक से एका किमपरैरधिकाधिककातरैर्विषयतापसमुत्थतृषातुरैः। (समु० ७/१०) मुखेसु सत्तां सुतरां समाप सदञ्जनं चापरपार्थिवानाम्। (जयो० ६/११३) अन्य-परकरोपलेखकोऽपरपुरुषस्य सहाय्येन लिखति। (जयो० २/१३) दूसरा-स्यादत्र कश्चित्त्व परो हि रोगः। अपरोऽत्र नृपः। (जयो० २३/५२) (सुद० १०७) पर-भुवि सत्या अलमपरेण। (सुद०८८) अपरक्त (वि०) [अप+र+क्त] रक्त रहित। अपरथा (अव्य०) पुनः, फिर से, ०पश्चात्, (वीरो० २/४७) अन्यथा। 'सर्वतो ह्यपरथाऽऽगसां निधिः। (जयो० २/८४) अपरत्र (कि०वि०) [अपर+त्रल] दूसरे स्थान पर, अन्यत्र, कहीं। अपरदिशा (स्त्री०) पश्चिमदिशा। न्यात्माधिपेऽपरदिशिं प्रतियादि राजन्। (जयो० १८/३६) For Private and Personal Use Only Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अपरपुरुषः अपराधिन् अपरपुरुषः (पुं०) अन्य पुरुष, दूसरा आदमी। अपरपुरुषस्य साहाय्येन। (जयो० वृ० २/१३) अपर-पार्थिवः (पुं०) इतर राजा, अन्य नरेश। सदञ्जनं चारपरपार्थिवानाम्। (जयो० ६/३१) अपरप्रणीति (वि०) अन्य ज्ञान (वीरो० २०/१९१) अपरम (वि०) विपत्ति, हानि। (सुद० १०४) किमु यावकलां कलामये परमस्यापरमस्य हानये। अपरत्व (वि०) ०अतिरिक्त, ०अन्य, दूसरा। प्रशस्त गुणों से विपरीतता, अधर्मजन्य तत्त्व। सिद्धान्त में परत्व और अपरत्व ये दो निमित्त भी हैं। अपरविदेहः (पुं०) विदेह क्षेत्र का आधा भाग, मेरु पर्वत से पश्चिम दिशा की ओर स्थित विदेह क्षेत्र का आधा भाग। अपरसंग्रहः (पुं०) भेदों की उपेक्षा रूप नय। अपरस्पर (वि०) [अपरंच परं च] एक के बाद अन्य, अनवरत। अपरस्मिन् (वि०) कस्मिञ्चित्, किसी से भी। (जयो० ६/२०) गिरमपरस्मिन्निष्टे महाशये।। अपरागः (वि०) १. रागाभाव, अरुचि, राग रहित, २. अनुराग रहित, असंतोष युक्त। अपराध-विहीन (वि०) दोष रहित, पाप रहित। मा स्म कच्चिदपराधविहीनः। (समु० ५/१३) रागाभावस्यात्साऽपरागस्य हृदीह शुद्धया, कुतोऽपरागः परमात्मबुद्धया। (वीरो० ५/२९) इह संसारे सा मोहक्षतिरपरागस्य विरक्तस्य पुरुषस्य हृदि चिते विशुद्धया चित्तशुद्धया स्यादित्युत्तरम्। अपरागो रागाभावः इति प्रश्न? उक्त पंक्ति में प्रथम 'अपराग' का अर्थ विरक्त और द्वितीय का 'रागाभाव' है। दोनों का अभिप्राय एक है, परन्तु एक से परमात्मविशुद्धि अर्थ का प्रतिबोध होता है और दूसरे से विरक्तपरिणाम। १. जयोदय (वृ० ६/८९) में अपराग का एक अर्थ 'अरुचि' भी है। परमापरागवतोऽपि जयंत। (जयो० २२/४३) ०अपराग-विराग या रागरहित भी अर्थ है। प्रोद्भिद्यमङ्क्षु कमलं स्फुरतापराग-भावेन भूरि-भरिताखिलभूमि भागः। (जयो० १८/५४) उक्त पंक्ति में 'अपराग' का अर्थ वीतराग भी है। अपरागभावः (पुं०) वीतराग परिणाम। (जयो० वृ० १८/५४) अपराञ्च (वि०) [अपर+अञ्च+क्विप्] दूर किया गया, विमुख हुआ। अपराञ्च (अव्य०) सामने, संमुख। अपराजित (वि०) अजेय, अखण्ड। जल्पान्तीमपराजित हृदि मुदा मन्त्रं मृधान्तार्थतः। (जयो० ८५८६) युद्ध से हुए पाप से दूर हटाने के लिए अर्हत् मन्त्र की आराधना। ०अभिलषित ०अपराजित मन्त्र, ०इष्टसिद्धि मन्त्र। अपराजितः (पुं०) अपराजित नाम का राजा, भरतक्षेत्र के चक्रपुर नगर का शासक। कदाचिदासीदपराजिताख्यः, पराजिताशेष नरेशवर्ग:। (समु० ६/९) एक विमान का नाम भी 'अपराजित' है। अपराजिता (स्त्री०) पार्वती, गौरी, महेश भार्या। (वीरो० वृ० ३/३४) अपराजितेशः (पुं०) शिव, शंकर, महादेव। (वीरो० ३/५) स चापराजितेशोऽपराजितायाः पार्वत्याः स्वामी महादेवः। (वीरो० वृ० ३/५) अपराजितेश्वरः (पुं०) महादेव, शिव। (वीरो० ३/५) अपराध (पुं०) [अप+राध्+घञ्] ०पाप, दोषोऽन्वित, ०दुष्कर्म। (सुद० ११०) 'मन्तु स्यादपराधेऽपि मानवे परमेष्ठिनि' इति विश्वलोचन। (जयो० वृ० १/३९) मन्तुमन्ति अपराधकारीणि अक्षराणीन्द्रियाणि लान्तीति। (जयो० वृ० १/३९) कोऽपराध इह मङ्गलेऽन्वितः। (जयो० ७/५८) o'अपराध' शब्द 'दोषोऽन्वित' दोष युक्त इस अभिप्राय को व्यक्त कर रहा है। चित्तेऽपराध-क्षमणादिवेदं' (भक्ति सं०९) इस पंक्ति में 'अपराध' शब्द प्रायश्चित्त वाचक है। अपगतो राधो यस्य भावस्य सोऽपराधः। (सम्य० ३३२) जो राध से रहित है, वह अपराध है। सुदर्शनोदय (वृ० १२४) में अपराध का अर्थ दोष भी है। कृतापराधाविव बद्धहस्तौ। (सुद० २/२६) आत्मापराधस्य नराः स्मरन्तु। (जयो० १५/९) अपराधस्य दुष्कर्मणः। (जयो० वृ० १५/९) अपराद्ध (वि०) ०अपराध, ०दोष, पाप करने वाला, दुष्टकर्म करने वाला। स्वामि स्त्वय्यपराद्धमेवमिह। (सुद० १२४) (जयो० वृ० १५/९) अपराद्धिः (स्त्री०) [अप+राध्+क्तिन्] पाप, दोष, दुष्टकर्म। अपराधकारी (वि०) दोषपूर्ण कार्य करने वाला, दोषी, दुष्टकर्मी। (जयो० १८/२४) निर्यातु जातु न तम्पेऽप्यपराधकारि। (जयो० १८/२४) यहां 'वियोगकारी' अर्थ भी है। अपराधिन् (वि०) [अप+राध्+णिनि] दोषी, अपराधी, दुष्ट। दण्डं चेदपराधिने न नृपतिः। (सुद० ११०) यद्वा राज्ञाऽपराधिन एवैते किलेति प्रतिज्ञायते। (दयो० ४९) संयोगतश्चासमिहापराधी। (भक्ति सं० २९) For Private and Personal Use Only Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अपराधित्व ७० अपलापः अपराधित्व (वि०) अपराधता, दोष करने वाला। (जयो० वृ० अपरिहारभृता (वि०) अपरिहरणीय, निषेधयनीय। (वीरो०६/३६) ११/२६) अपरीक्षित (वि०) १. अप्रमाणित, अविचारित, विचार रहित, अपराधीनः (पुं०) स्वतन्त्र न हो। न भवेदपराधीन: पराधीनश्च मूर्खतायुक्त। २. अपवाद् विशेष की प्रवृत्ति। मानवः। (जयो० १९/९१) अपरीक्षिन् (वि०) अविचरित, अप्रमाणित, योग्यायोग्य की अपरिग्रह (सक०) [अ-परि+ग्रह] पकड़ना, लेना, चढ़ना। परीक्षा रहित। (मुनि०११) निःश्रेव्यापरिगृह्य दत्तमपि नो गृह्णाति योगी स अपरुष (वि०) कुरूप, विरूपता जन्य, अशोभनीय। वा। (मुनि०११) अपरेधुः (अव्य०) [अपर+एद्युस] अगले दिन, दूसरे दिन, अपरिग्रहः (पुं०) पांच व्रतों में अन्तिम व्रत। अन्य दिवस। अपरिग्रहत्व (वि०) अपरिग्रहपना, वस्तु के प्रति ममत्वाभावपना। अपरोक्ष (वि०) दृश्य, प्रत्यक्ष। आत्मगत ज्ञान, आत्म दृष्टि। (सुद० १३२) सदुक्तिमस्तेयममैथुनञ्चापरिग्रहत्वं विटपप्रपञ्चः। अपरोचमान (वि०) अरुचिकर, अनुकूलता रहित। (सुद० १३२) आत्मनेऽपरोचमानमन्यस्मै नाऽऽचरेत् पुमान्। (सुद० १२५) अपरिघूर्ण (वि०) चिर अभिलषित की पूर्णता। पूर्णाऽऽशास्तु अपरोधः (वि०) [अप+रुध्+घञ्] निषेध, वर्जन। किलाऽपरिघूर्णोऽस्माकमहो तव सत्त्वात्। (सुद० ९९) अपर्ण (वि०) पर्ण विहीन, पत्रविहीन। अपरिचित (वि०) ०परिचय रहित, अनजान, अनुज्ञान। अपर्णा (स्त्री०) नाम विशेष, पार्वतीनाम, दुर्गा नाम। कस्य अपरिचितनामधेयस्य जनस्य करक्रीडन। (जयो० अपर्याप्त (वि०) ०अपूर्ण, पूर्णता रहित, व्यथेष्ट शून्य, वृ० ३/६९ जयो० वृ०३/२१) असीमित, अयोग्य, असमर्थ। अपरिच्छद (वि०) दरिद्र, निर्धन। परिचिंतित, मनोयोय अपर्याप्तः (पुं०) यथायोग्य पर्याप्ति का अभाव अपर्याप्त है। आदि से पीड़िता अपर्याप्तनामः (पुं०) जीव यथायोग्य पर्याप्तियों को पूर्ण न कर सके। अपरिच्छिन्न (वि०) सीमा रहित, अपर्याप्तिः (स्त्री०) [नञ्+परि+आप+क्तिन्] १. अयोग्य, अपरिणत (वि०) रूपादि से विकृत नहीं हुए, आहार का एक अपूर्ण, यथेष्टशून्य। २. अपर्याप्तीनार्धनिष्पन्नावस्था दोष। अपरिणय: (पुं०) ०ब्रह्मचर्य, बाल ब्रह्मचारी, परिणय शून्य। अपर्याप्तिः। (धव०पु०१ वृ० २५७) पर्याप्तियों की अपूर्णता अपरिणामः (पुं०) भाव रहित, विचार रहित, परिवर्तन रहित। या अर्धपूर्णता। (जयो० २६/८६) . अपर्याप्तिनामः (पुं०) छ: पर्याप्तियों के अभाव का कारण। अपरिणामक (वि०) यथा श्रद्धान रहित वाला। अपर्याय (वि०) परिवर्तन/परावर्तन रहित, क्रम रहित अपरिणामभृत (वि०) परिणाम के कारण बिना। एक दार्शनिक अपर्युषित (वि०) [न+परि+वस्+क्त] नूतन, नवीन, अद्यतन दृष्टि। परिणाम का कारण स्वीकृत किये बिना स्वयं निःसृत। परिणाम नहीं हो सकता और परिणाम को स्वीकत किया | अपर्वन् (वि०) अनुपयुक्त समय, पर्व से भिन्न। गांठ का जाए तो 'अद्वैतवाद' समाप्त हो जाएगा। अद्वैतवादोऽ अभाव, ०एक समानता। परिणामभृत्। (जयो० २६/८६) अपल (वि०) [नञ्+पल] मांस रहित। अपरिणीता (स्त्री०) अविवाहिता कन्या। अपलज्जा (वि०) निर्लज्जता, सङ्कोचता रहित, लज्जाविहीना। अपरिवर्तमान (पुं०) विशुद्ध परिणाम, प्रति समय वर्धमान, (जयो० १७/२०) लज्जाऽपलज्जा भवतीव कान्त। हीनमान, संक्लेश तथा विशुद्ध परिणामों को अपरिवर्तमान अपलपनं (नपुं०) [अप+लप्+ल्युट्] मुखरी, वाचाल, मुकरना, कहा जाता है। मेटना, टाल-मटोल करना, मुकरना। अपरिश्राविन् (वि०) १. दूसरों के दोषों को न कहने वाला, अपलापः (पुं०) [अप+लप्+घञ्] वाचाल, मेटना, मुकरना। २. कर्मास्रव से रहित अयोग केवली। अपलापः (पुं०) [अप+लप्+घञ्] अन्य का कथन, दूसरे का अपरिसंख्यानं (नपुं०) असीमता, अपरिमित, असंख्यता, कथन। कस्यचित्सकाशे श्रुतमधीत्यान्यो गुरुरित्यभिधानमअपरिहरणीय। पलापः। (भ०आ०टी० ११३) For Private and Personal Use Only Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org अपलापिन् , अपलापिन् (वि० ) [ अप-लप-णिनि] छिपाने वाला मेटने वाला अपलाषिका (स्त्री० ) [ अप + लष् ण्वुल स्त्रियां टाप्] अत्यधिक प्यासा अतिभिलाषी । अपलाषिन् (वि०) [ अप+लष्+ णिनि ] प्यासा, इच्छुक, अभिलषित। अपवन (वि०) वायु विहीन, पवन शून्य प्रशान्त भाव युक्त, ० शान्त वातावरण। । अपवनं (नपुं०) उपवन, उद्यान, बगीचा अपवरकः (पुं० ) [ अप + वृ + वुन्+घञ्] वातायन, शयनागार, आभ्यन्तर कक्ष । अपवरणं (नपुं०) [ अपवृ+ ल्युट् ] आच्छादन, पर्दा, आवरण अपवर्ग: (पुं०) [ अप-वृज् घञ्] मोक्ष (सुद० ११२) १. मुक्ति अथाऽपवर्ग परिणामपण्डिते (जयो० ३ / २०), २. निःश्रेयस् मृदुनिश्रेयसेऽपवर्ग रूपे (जयो० कृ० १२/२८), ३. मोक्ष- अपवर्ग प्रतिवददिव ताभिः (जयो० १२ / १०८ ) स्वर्गापवर्गाद्यभिधानशस्य । (जयो० २ / ६ ) अपवृज्यते उच्छिद्यन्ते जाति जरामरणादयो दोषा अस्मिन्नित्यपवर्गः मोक्षः (जैन०ल०पू० ९८ ) अपवर्गः (पुं०) [ अप+वृज्+घञ्] समाप्ति, पूर्ति, पूर्णता, निष्पन्नता, उपहार, त्याग, विसर्जन । अपवर्ग-पथः (पुं०) [ अप वृज् पथ+घञ्] मोक्षमार्ग, मुक्तिपथ । नापवर्गपथि चोपयोगिनी। (जयो० २ / ८८ ) अपवर्ग- परिणाम: (पुं०) मोक्षभाव। (जयो० ३ / २०) अपवर्गप्रतिपत्तिः (स्त्री०) मोक्ष पुरुषार्थ की भावना, मुक्ति का ज्ञान। यस्यापवर्गप्रतिपत्तिमत्त्वं (जयो० १/२४) अपवर्गप्रतिपत्तिमत्त्व (वि०) मोक्ष पुरुषार्थज्ञता । (जयो०१ / २४ ) अपवर्गमयी (वि०) अपवर्ग/मुक्ति का सेवन करने वाला। अपवर्गमयी साधो । ( हित सं० ७ ) - । अपवर्जनं (नपुं०) [ अप+ वृज् + ल्युट् ] छोड़ना, त्याग, विसर्जन । अपवर्त (पुं०) [ अपवृत्ञ्] १. निकालना, दूर करना, हटाना। २. आयु स्थिति में कमी हासोऽपवर्त (त०या० २/५३) अपवर्तनं (नपुं० ) [ अप + वृत् + ल्युट् ] १. स्थानान्तरण, हटाना, त्यागना, दूर करना, वञ्चित रखना। २. अपनी प्रकृति में ही स्थिति कम करना या अन्य प्रकृति में उस स्थिति को ले जाना। अपवर्तना (स्त्री० ) [ अप + वृत्+टाप्] अपकर्षण, कुछ किया जाना । अपवाद (पुं० ) [ अप+वद्+घञ्] निन्दा भिया चैव जनापवादः । (जयो० १/६७) लोकापवाद (जयो० वृ० १/६७) ७१ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अपशङ्क क्षीणता, कृशता बभूव यस्या उदरेऽपवादः । निन्दापरिणामोऽथवा (वीरो० ३/२३) नास्तीति वादो लोकोक्तिर्बभूव । यथायोग्य विशेषता भी अर्थ है (वीरो० ० ३ / २३) अपवादित (वि०) निन्दा करने वाला, दोषभाव लगाने वाला। निरौष्ठ्यकाव्येपवादिता तु (सुद० १/३३) अपवारित (वि०) (भूतकालिक कृदन्त ) [ अपवृक्ति] छिपा हुआ, आच्छादित । अपवाह : (पुं० ) [ अप+व्यध्+घञ्] हटाना, अलग करना, पृथक् करना। अपविघ्न (वि०) बाधा रहित, निर्विघ्न अपवित्व (वि० ) ० पवनाभाव, ०पक्षी अभाव । अपगता विनष्टा वयः पक्षिणो यत्र स अपविस्तस्याभावः अपवित्वम् अथवा न विद्यते यस्य पवनस्य निरवकाशो यत्र तस्य भावः । " (जयो० १४/४० वृ० ६८४ के नीचे ) अपविद्ध (वि० ) [ अप + व्यध् +क्त] ० त्यक्त, परित्यक्त, ०छोड़ा गया, मुक्त, ०उपेक्षित, ०अस्वीकृत, ०विहीन, ०अभाव। अपविद्या (स्त्री०) माया, ०अविद्या, ०अज्ञान, अध्यात्माभाव। ० कुविधा खोटा ज्ञान | अप वीण (वि०) वीणाशून्य । अपवेदनार्थ (वि०) निराकरणार्थ, खेदशमनार्थ, श्रमश्रान्तार्थ । (जयो० १३/८५) अपवृक्तिः (स्त्री० ) [ अप + वृज् + क्तिन्] पूर्ति, सम्पर्णता, निष्पत्ति । अपवृत्तिः (स्त्री० ) [ अप + वृत् + क्तिन्] वृत्ति रहित, ० आजीविका रहित, ०श्रम रहित, ०उपार्जन रहित, ०धनोपार्जन विहीन । नवीक्ष्यते योऽपिजनोऽपवृत्तिः । (समु० ६/८) अपवृत्तिः (स्त्री० ) [ अप + वृत्+क्तिन्] अन्त, समाप्ति, पूर्णता, निष्पन्नता। अपवृत्तिः (स्त्री०) १. जल युक्त, वारि सम्पन्न, जलवति । पतञ्जले मन्दकलेन, २. भूतलेऽपवृत्तिराप्तान्य दृश: किलामले । (जयो० १२/१३१) कवि ने 'अपवृत्ति' के दो अर्थ किए हैं- जलवति और जलपान दोनों ही श्लोक के भाव को स्पष्ट करते हैं। For Private and Personal Use Only अपवृद्धि (स्त्री०) अनन्त गुणित हानि रूप परिणाम अपव्ययः (नपुं०) अधिक खर्च, व्यर्थ व्यय निष्प्रयोजन खर्च । अपशकुनं (नपुं) अनर्थ सूचक संदेश, खोटा शकुन अपशङ्क (वि०) निःशङ्क, शङ्कारहित, आशङ्का मुक्त। | Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अपशब्दः ७२ अपहृत अपशब्दः (पुं०) दुर्वचन, निन्दा, अविनीत वचन, ग्राम्य "णमो आमोसहिपत्ताणं-" यह 'अपस्कार' रोग को दूर प्रयोग, असभ्यव्यवहार। दुष्ट वचन, ०अभद्र व्यवहार। करने वाला मन्त्र है। अपशिरस् (वि०) [अपगतं शिरः] शिर हीन, छिन्न शिर अपस्मारः (पुं०) मिरगी रोग, मूर्छा रोग। णमो मणवलीणं वाला। चापस्मारपरिहारभृत्। 'णमो मणवलीणं' इदं पदमपस्मारस्य अपशुच् (वि०) शोक रहित, आकुलता विहीन। नाम मृग्युन्मादेर्मलोविकारस्य परिहार भृद् भवति। (जयो० अपशैत्य (वि०) उष्णत्व, स्फूर्तिसत्करण। यथापशैत्यं जयराट् वृ० १९/७९) स तेन। (जयो० १७/३७) अपस्मारिन् (वि०) [अप+स्मृणिनि] मिरगी/मूर्छा रोग से अपर्शमन् (पुं०) [अप+शृ+मनिन्] ०लज्जाविहीन, प्रसन्नता पीड़िता का अभाव, आनन्दाभाव। (जयो० २/१९) अपगतं शर्म | अपस्मृति (वि०) विस्मरणशील, स्मृति विहीन। येषु तेषु तथा भूतेषु सत्सु तानि। (जयो० वृ० २/१९) । अपसृ (सक०) [अप+स] चुराना, अपहरण करना। (जयो० ६/३४) अपश्चिम (वि०) सर्वप्रथम, अन्तिम, जिसके पीछे अन्य अपह (वि०) [अप+हा+ड] ०दूर हटाना, नष्ट करना, ०क्षय कोई न हो। (जयो० १८/४३) 'ससू यते करना। तनयरत्नमपश्चिमातः।' अपहतिः (स्त्री०) [अप+हन्+क्तिन्] ०क्षय करना, नाश अपश्रयः (पुं०) [अप+श्रिय+अज्] उपधान, तकिया। करना, ०दूर हटाना। अपश्रम (वि०) सम्पन्न, समाप्त। अपूर्वमानन्दमगान्मनोरमा- अपहननं (नपुं०) [अप+हन+ल्युट] दूर करना, निवारण करना। सुदर्शनाख्यानकयोरपश्रमात्। (सुद० ३/४८) अपहरणं (नपुं०) [अप+ह ल्युट्] छीनना, चुराना, बलपूर्वक अपश्री (वि०) श्री विहीन, शोभा रहित। ले जाना। (सुद० ९२) । अपष्ठ (नपुं०) [अप+स्था+क] अंकुश की नोक। अपहसित (वि०) अट्टहास करना, अकारण हंसी। अपष्ठु (वि०) [अप+स्था+कु] विरुक्त, विपरीत, प्रतिकूल। अपहस्तित (वि०) [अप+हस्त+इतन्] ०परित्याज्य, त्याज्य, अपष्ठुर (वि०) विरुद्ध, विपरीत। ०छोड़ा गया। त्याग, छोड़ देना, निकालना। अपसदः (पुं०) [अप+सद्+अच्] बहिष्कृत, च्युत, पतित।। अपहानिः (स्त्री०) अपसरः [अप+सृ+अच्] पलायन, प्रस्थान, अनुगमन। अपहारः (पुं०) [अप+ह+घञ्] निरादर। (जयो० ५/९७) अपसरणं (नपुं०) [अप+सृ+ल्युट्] उत्सर्ग, त्याग, विसर्जन। चुराना, छिपाना, ०दूर ले जाना, ०अपहरण करना। अपस (अक०) [अप+सृ] दूर होना, हटना, अलग होना। (समु०४/१२) अपहरण करना। कुतोऽपहारो द्रविणस्य (जयो०१३/१३ किमु वर्त्मविरोधिनो जना अधुना चापसेरत् दृश्यते तथोपहारः स्ववचः प्रपश्यते। (वीरो० ९/१५) चैकतः। (जयो० १८/१३ अपसरेत्-एकपार्वे स्थितो भवेत्। अपहारिन् (वि०) अपहरण करने वाला। (सुद० २/२३) अपसर्पः (पुं०) [अप+सृप्+ण्वुल्] गुप्तचर, जासूस। निवारक (जयो० १९/४५) अपसर्पणं (नपुं०) [अप+सृप्+ल्युट्] ०लौटना, ०पीछे आना, अपह (सक) [अप ह] ०अपहरण करना, ०आधीन करना, दूर होना, पलायन। दर्पोऽपसर्पणमगात्स्विदनन्यगत्या। शान्त करना। (वीरो० १९/४०) जिनामवापजहार शुद्धचित्। (सुद०८०) दर्शकैरपि परैरपहर्तुम्। (वीरो० ७/१३) (जयो० ५/२) अपसव्य (वि०) विरुद्ध, विपरीत। श्रमं लुनीतेऽपहरति। (जयो० वृ० ८८२) उक्त पंक्ति में अपसव्यम् (अव्य०) दाई ओर, दाहिनी ओर। अपहरति का अर्थ शान्ति करना भी है। दृष्ट्या अपसारः (पुं०) [अप+स+घञ्] लौटना, बाहर जाना। याऽपहरेन्मनोऽपि। (सुद० १०२) दृष्टि से तो मनुष्य मन अपसारणं (नपुं०) हांकना, निकालना, बाहर करना। को हर लेता है। वश में कर लेता है। प्राह भो प्रतिभवाअपसिद्धान्त (वि०) सिद्धान्त च्युत, भ्रमयुक्त। नियम विरुद्ध भ्यपहर्तुम्। (जयो०४/२९) अपसृप्तिः (स्त्री०) [अप+सृप्+क्तिन्] दूर जाना। अपहृत (वि०) तोड़ लिया, ले लिया, विनाश किया। गणनातिगैः अपस्करः (पुं०) [अप+कृ] विष्ठा, मल। सहायस्यूतीत्यपहृता जनैर्वनस्य भूमि। (जयो० १४/२८) अपस्कारः (पुं०) रोग विशेष, मल-मूत्र रोग। (जयो० १९/७६) भूतिः सम्पत्तिरपहृता विनाशं लीला। (जयो० १४/२८) For Private and Personal Use Only Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अपहृषः ७३ अपाप अपहषः (पुं०) [अप+हषु+अप्] छिपाना, गुप्त रखना, ०अपनी भावना व्यक्त न करना। अपहिय (वि०) निर्लज्ज, अपत्रप। (जयो० ९/७५) अपह्नवोऽलंकारः (पुं०) जिसमें सत्य को छिपाया जाता है। (जयो० २६/५९, ६१, ६४, ६५-६६) मणसा वचसा च कर्मणाऽर्चनमिन्दुः। परिपूर्य शर्मणः। त्रिगुणं वपुराप्य घूर्णते क्षयजिच्छत्रतया जगत्पतेः।। (जयो० २६/६१) अपहृतिः (स्त्री०) [अप+हु+क्तिन्] १. सत्य को छिपाना, असत्य की स्थापना। २. अपह्वतिरलंकार-एक अलंकारइसमें दो वस्तुओं में साधर्म्य होने के कारण एक को छिपाकर कहा जाता है कि 'अमुक वस्तु यह नहीं है', अपितु यह है। नैतदेतदिदं ह्येतदित्यपह्नपूर्वकम्। उच्यते यत्र सादृश्यादयहृतिरियं यथा। (वाग्भटालङ्कार-४/८५) (जयो० ३/४९, २१/१५, २/५४, वीरो० ६/३७) मुहुर्मद्भङ्गिभिरङ्ग यत्र भ्रश्यद्रजा: श्रीस्थलपद्म आस्ते। समुद्वमन् सन् हुतभक्कणान् स शाणोपल: स्मारशिलीमुखानाम्।। (जयो० २४/१११) वायु के झोंको के कारण बार-बार पराग गिर रहा है, ऐसा शोभायमान गुलाब वहीं अग्नि-कणों को उगलने वाला कामदेव के बाणों को क्षीण करने का शाणोपलमसांण ही है। अपह्रासः (पुं०) [अप+हास्+घञ्] ०घटना, ०कम करना, ०क्षीण करना, ०क्षय करना। अपाकः (पुं०) १. अपच, २. अजीर्ण, ३. अपरिपभब, अपाकरणं (नपुं०) [अप+आ+कृ+ल्युट्] निराकरण, हटाना, ०समेटना, ०दूर करना। द्रुतं पुराऽऽप्त्वा वसतिं मनोज्ञामापात्य कापाकरणाकुलेन। (जयो० १३/८२) अपाकर्मन् (नपुं०) [अप+आ+कृ+मनिन्] चुकता करना। अपाकर्षम् (वि०) हटा लेना। (जयो० ६/९०) अपाकृतिः (स्त्री०) [अप+आ+कृ+क्तिन्] अस्वीकृति, संवेग, भयाकृति। अपाक्ष (वि०) [अपनतः अक्षमिन्द्रियम्] १. विद्यमान, प्रत्यक्ष, वर्तमान, अद्यतन। ३. नेत्रहीन। अपाङ्क्त (वि०) बहिष्कृत, पंक्ति में बैठने का अधिकारी यगोभिरुचितचित्त हृतः। (जयो० १५/८६) कवि वे उक्त पंक्ति में 'अपाङ्ग' के दो अर्थ है-१. कटाक्ष और २. काम/कामदेव/मद। तथापाङ्गो मदनः पक्षेऽपाङ्गाः नेत्रप्रान्ताः। (जयो० वृ० १५/८६) जयोदय के तृतीयसर्ग में 'अपाङ्ग' का अर्थ हीन अङ्ग भी किया है। हीनानामपाङ्गानाञ्च। (जयो० वृ० ३/६) अपाङ्गदर्शनं (नपुं०) तिर्यक् दृष्टि। अपाङ्गदृष्टिः (स्त्री०) तिर्यक् दृष्टि, तिरछी चितवन अपाङ्गदेशः (पुं०) नेत्रप्रान्त। अपाङ्गशरं (नपुं०) कटाक्ष-बाण, सा तस्या अपाङ्गशरसंहतिरप्यशेषा। (सुद० १२३) यस्या अपाङ्गशर-संकलितो जिनेशः। अपाङ्गसम्पदा (स्त्री०) कटाक्ष सम्पत्ति, कटाक्ष विक्षेप सम्पदा। धृत आसीत्तदपाङ्गसम्पदा। (सुद० ३४) अपाच् (वि०) [अपाञ्चति+अञ्च् क्विप्] पीछे की ओर जाने वाला, पश्चिमी। अपाची (स्त्री०) [अप+अञ्च+क्विन् स्त्रियां ङीप] दक्षिण या पश्चिम दिशा। अपाचीन (वि०) [अपाची+ख] पीछे स्थित, पश्चिमी, दक्षिणी। अपाच्य (वि०) [अपाची+यत्] पश्चिमी या दक्षिणी। अपाणनीय (वि०) पाणनीय-व्याकरण की सिद्धि का अभाव। अपात्रं (नपुं०) १. अयोग्य, ०अनधिकारी व्यक्ति, ०अयोग्य बर्तन। (दयो० ११८) जद्यन्यमन्य एताभ्यामपात्रं त्वतिगर्हितम्। (दयो० ११८ अपादानं (नपुं०) [अप+आ+दा+ल्युट्] (जयो० १९/९३) अपसरण ले जाना। * पञ्चमी विभक्ति-पृथक् होने के योग। अपादान-विहीन (वि.) कुत्सित आजीविका रहित, व्याकरण विहितादपदान कारणविहीना (जयो० १९/९३) अपाध्वन् (पुं०) [अपकृष्टा, अध्वा] कुमार्ग, कुपथ। अपानः (पुं०) श्वास लेने की क्रिया। नि:श्वास लक्षण आत्मना बाह्यो वायुरभ्यन्तरीक्रियमाणो नि:श्वासलक्षणोऽपानः। (स०सि०५/१९) अपानृत (वि०) मिथ्या रहित, सत्य। अपाप (वि०) निष्पाप, निर्दोष, कुटिलता रहित, पापा चाररहित ०सरलहृदय। (जयो० २४/१२३, २२/२४) वायुनाङिघ्रिप इवायमपापः। (जयो० ४/२२) प्रसञ्चरन् वात इवाप्यपापः। (सुद० ११९) नहीं। अपाङ्ग (पुं०) [अपाङ्गतिर्यक् चलति नेत्रं यत्र अप+अङ्ग+घञ्] १. कटाक्ष, नेत्रप्रान्त, आंख का कोर, नेत्र का बाहर भाग। २. कामदेव, मदन, प्रेमदेव। प्रणयविकाशविद: पुनरपाङ्गम For Private and Personal Use Only Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अपापिन् ७४ अपि तु लपल अपापिन् (वि०) क्षण निष्पापी, पुण्यात्मा, पापवर्जित। (जयो० २७/४७) (सम्य० ९८) 'कलङ्कयेन्मज्जनतोऽप्यपापिन्।' अपामार्गः (पुं०) [अप+मृज्+घञ्] अद्धाझारा, एक जड़ी बूटी, चिचड़ा। अपामार्जनं (नपुं०) [अप+मृज्+ल्युट्] शुद्धिकरण, प्रमार्जन। अपायः (पुं०) [अप+इ+अच्] अभाव, नाश, लोप, हानि, संहार, विनाश, अदृश्य। "लताङ्गि ते जातु न वास्त्वपायः।" (जयो० १७/२२) उक्ति पंक्ति में अपाय' का अर्थ हानि है। 'केशरेण सार्धं विसृजेयं पादयोर्जिनमुद्रायाः, न सन्तु कुतश्चापायाः। (सुद० ७१) उक्त पंक्ति में 'अपाय' का अर्थ विनष्ट या विनाश है। पापानि वापायभियोगिरन्तः। (जयो० १/८२) अपायस्य प्रत्यवायस्य। (जयो० वृ० १/७२) उसकी थकान से मेरा मन आकुलता का अनुभव कर रहा है। अपायः (पुं०) अभ्युदय और निःश्रेयस की सांधक क्रियाओं का विनाशक प्रयोग। अभ्युदय-निःश्रेयसार्थानां क्रियाणां विनाशक प्रयोगोऽपायः। (स०सि०७/९) अपाय को अवाय भी कहते हैं। भाषादि विशेष के ज्ञान से यथार्थरूप जानने का नाम अपाय/अवाय है। दार्शनिक दृष्टि यही कथन किया जाता है कि-यह दक्षिणी युवक है, यह पश्चिमी। अपाययुक्त (वि०) भयभीत, व्यपायि। (जयो० वृ० २/१३५) अपायविचयः (पुं०) धर्मध्यान का एक भेद-यह संसारी जीव अपने ही किए हुए कुकर्मों के द्वारा किस प्रकार की आपत्तियों में पड़ता है इत्यादि विचार का नाम अपाय विचय है। (समु०० १०३) "सन्मार्गापायचिन्तनमपाविचयः'। (त०वा०९/३६) असन्मार्गापायसमाधानं वा। जिनमत के कल्याणकारक-सम्यग्दर्शन, ज्ञान और चारित्र का चिन्तन अपायविचय है। स्थिति खण्डन, अनुभाग खण्डन, उत्कर्षण और अपकर्षण का चिन्तन तथा जीवों के सुख-दुःख का विचार करना अपायविचय है। 'अपाय' अनुप्रेक्षा भी है-जिसमें आश्रवद्वारों से उत्पन्न अनर्थों का बार-बार विचार/अनुचिन्तन किया जाता है। अपार (वि०) सीमा विहीन, पार न करने वाला, असमर्थ (सुद० २/१६) अपारयन् (वि०) पार को प्राप्त नहीं हुआ, असमर्थ "परिपातुम पारयश्च सोऽङ्गरुपामृतमद्भुतं दृशो।। (सुद० ३/९) "अपारयन् वेदनयान्वितत्वाच्चिक्षेप ता मूर्ध्नि विधिर्महत्त्वात्। । (जयो० १/५९) अपार्ण (वि०) [अप+अ+क्त] दूरस्थ, दूरवर्ती, निकटस्थ। अपार्थ (वि०) [अपगतः अर्थः यस्मात्] अकल्याणकर, निरर्थक, अर्थहीन। शिशोरिवान्यस्य वचोऽस्त्वार्थ। (जयो० २६/७४) अपार्थक (वि०) ०अकल्याणकर, निरर्थक, ०अर्थहीन, असबद्ध अर्थ। अपार्य (वि०) दुरभिप्रायः। (जयो० १६/६९) अपावरणं (नपुं०) [अप+आ+व+ल्युट] उद्घाटन, गोपन, लपेटना, छिपाना। अपावर्तनं (स्त्री०) [अप+आ+कृत ल्युट] अपकर्षण, परावर्तन, लौटना। अपावृत्तिः (स्त्री०) [अप+आ+वृत्+क्तिन्] परावर्तन, अपकर्षण, लौटना। अपाश्रय (वि०) आश्रयहीन, निरवलंब, असहाय। अपाश्रयः (पुं०) शरण, सहारा। अपांशु (वि०) निष्प्रभ, प्रभा हीन, किरण रहित, आभाविहीन। 'तद्योगयुक्त्या निवहेदपांशु"। (जयो० २७/४२) "अपगता अंशवः किरणा यस्मात्तथाभूतं निष्प्रभमित्यर्थः।" (जयो० वृ० २७/४२) अपासंगः (पुं०) [अप+आ+संज्+घञ्] तरकस। अपासनं (नपुं०) [अप+अस्+ल्युट्] समाप्त करना, हटाना, फेंकना, दूर करना। अपासरणं (नपुं०) [अप+आ+सृ+ल्युट्] लौटना, दूर हटना, विदाई। अपासु (वि०) निर्जीव, मृत, मरा हुआ, चेतना शून्य। अपास्त (वि०) विनष्ट, ०क्षयगत गिरी हुई। अपास्तमाल्यं च्युतयावकाधरं। (जयो० १४/८२) अपि (अव्य०) भी, एवं, पुनश्च, इसके अतिरिक्त, और भी, तथापि तो भी, बहुधा, प्रायः, संभावना आदि। 'अपि तु फलत्येवेति काकु:।' (जयो० २७/४) 'लावण्याङ्कोऽपि मधुरतनुः।' 'लावण्य का घर होकर भी मधुर है। 'विलसति सर्वतोऽपि मे' अपि इस प्रकार या 'एवं' को व्यक्त कर रहा है। 'नैव जात्वपि स दूषणतायाः' दूषणता का कदाचित् भी लेश नहीं है। आत्मानं सततं रक्षेद् दारेरपि धनैरपि। (जयो० २/४) श्रूयते हस्ति-हन्तापि। (दयो० वृ० ४६) अपि तु भवत्येवेति। (जयो० वृ० ५/१०४) अपिशब्दोऽवच्छेदार्थो वर्तते। (जयो०८७८) शरोऽपि नाम्नाऽवरोऽथ जीत्या बभूव भूत्याः प्रसरः प्रतीत्या। (जयो० ८/७८) अपि च (अव्य०) और भी। (जयो० अपि तु (अव्य०) और तो, फिर तो। For Private and Personal Use Only Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org अपिगीर्ण अपिगीर्ण (वि० ) [ अपि+गृ+क्त] कथित, प्रतिपादित, व्यक्त, अर्चित, ज्ञेय । अपच्छिल (वि०) स्वच्छ, गहरा । अपितृक (वि०) पितृविहीन | अपित्र्यः (वि०) अपैतृक । अपिधानं (नपुं० ) [ अपि+धा + ल्युट् ] ढकना, आवरण ! अपिव्रत (वि०) व्रत में सहभागी । अपिहित (वि० ) [ अपि+धा+क्त] बंद, आच्छादित, आवरण युक्त। अपीतिः (स्त्री० ) [ अपि+इ+क्तिन्] ० प्रवेश, ०उपागम, ० विघटन, ० नाश, ०बाधाकारक। "सपदि सोऽहमर्पातिकथाश्रितः " । (जयो० २५ / ७८ ) अपीति कथा (स्त्री०) बाधाकारकवार्ता। (जयो० वृ० २५/७८) अपीनसः (पुं०) जुकाम, नजला, सर्दी । अपुत्र: (पुं०) पुत्र अभाव। अपुनर् (अव्य० ) एक बार ही, फिर नहीं, सदा के लिए। अपुष्ट (वि०) दुबला, निर्बल, क्षीण देह, कृश शरीर । अपुष्पता (वि०) नहीं खिला हुआ। अपूपः (पुं०) [न पूयते विशीर्यते] माल पुआ, मिष्ट एवं स्वादिष्ट खाद्य पुड़ी। अपूपीय (वि०) आटा, भोजन । अपूर्ण (वि०) अधूरा, असम्पन्न । अपूती (वि०) अपवित्रता, कुवासनाजन्य। (समु० ३ / २१ ) अपूतीङ्गित (वि०) कुचेष्टायुक्त। (समु० ३ / २१ ) अपूर्व ( वि० ) ०अनन्य, ०अद्वितीय, ०असाधारण, अद्भुत, • अभूतपूर्व, ० अनिर्वचनीय, ०अलौकिक। (सुद० ३/४८) अनन्य- अपूर्वेषामनन्यसदृशानाम्। (जयो० वृ० १ / २ ) अद्भुत अपूर्वा छटा | (जयो० वृ० ३ / १६) सुन्दर - अपूर्वरूपाम्बुधितोऽपि । (जयो० ५ / ९३) अनिर्वचनीय श्रियोऽप्यपूर्वा इह सञ्जयन्तु । (जयो० ११ / ३८ ) अद्वितीय चरिष्णु सदृशोऽप्यपूर्वाम्। (जयो० ११ / ४) अलौकिक- प्रियामलब्धपूर्वामिन् सुन्दरीं श्रिया । (जयो० २३/११) अकार- सहित - पुनरकारः पूर्वस्मिन् यस्यास्तामपूर्वाम्। (जयो० वृ० १६/४९ ) अनुपम - बभौ पुरं पूर्वमपूर्वमेतत् । ( सुद० १/२५) अपूर्वकरणं (नपुं०) १. इन्द्रिय रहित, योग्य कार्य रहित । २. अपूर्वकरण- पृथक्त्व वितर्क विचार नामक शुक्लध्यान से अपूर्वकरण नामक अष्ठम् गुणस्थान। " आत्मानं अपूर्वं अकारः पूर्वस्मिन् यस्य तत्करणं अकरणं करणैरिन्द्रियैरहित ७५ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अपेक्षित मतीन्द्रिय कृतकृत्यं वा । (जयो० वृ० २८/१७) अपूर्वकरण गुणस्थान है, इसमें स्थितिघात, रसघात, गुणश्रेणि और स्थिति बन्ध आदि के निवर्तक अपूर्व कार्य होते हैं। अपूर्व: करणो येषां भिन्नं क्षणमुपेयुषाम्। (पंच संग्रह १ / ३५ ) अपूर्वकारण परिणाम भी होते हैं-" अपूर्वाः समये समये अन्ये शुद्धतराः कारणाः यत्र तदपूर्वकरणम्" (पं०सं० १/२८८) अपूर्वाश्च ते करणाश्चापूर्व करणा:। (धव०वृ० १८० ) अपूर्व- कल्पना ( स्त्री०) नूतन कल्पना, अद्वितीय कल्पना । (जयो० वृ० ३ / ११५) 'नवा नवा नूतना नूतनाऽपूर्वकल्नात्मिका' अपूर्वकृतिः (स्त्री०) अनुपम रचना (मुनि० ) अपूर्वगुण: (पुं०) अद्भुत गुण, विचित्र गुण। अपूर्वा अद्भुता गुणाः शौर्यादयो यस्य । (जयो० वृ० ६/८४) अपूर्वगुणवान् (वि०) अद्वितीय गुणों वाला, अनुपम गुण युक्त। अपूर्वेषामनन्यसदृशानां गुणानामुदयः । (जयो० १/२) अपूर्वगुणोदयः (पुं०) अनन्य गुणों से समन्वित, अद्वितीय गुणों से सम्पन्न। (जयो० वृ० १ / २ ) अपूर्वत्व (वि०) अद्भुतत्व, विचित्रता, अपूर्वता, अनिर्वचनीयता । (वीरो० वृ० ३ / ६) अपूर्वप्रतिमा (पुं०) अनन्य प्रतिमा, ०विशिष्ट प्रतिमा, ०अपूर्व प्रभाव। सक कोमलाङ्गी वलये धराया धाकोऽप्यपूर्वप्रतिमोSमुकायाः । (जयो० ५/८६ ) अपूर्वाऽनन्यसम्भवा प्रतिमा । ० अद्वितीय बिम्ब, ० अलौकिक मूर्ति । अपूर्वरूप (वि०) सुन्दर रूप। (जयो० ५ / ९३, सुद० ३/३७) अपूर्वरूपा (वि०) अनन्य सुन्दरी, परमसुन्दरी (जयो० ११/६२) अपृथक् (अव्य० ) साथ-साथ, एक साथ, अलग-अलग नहीं, सम्पूर्ण रूप से । अपेक्षणं (नपुं०) [अप + ईक्ष् + ल्युट् ] विचार, उल्लेख, आवश्यकता, सम्मान, समादर । अपेक्षा (स्त्री०) सम्बन्ध, आवश्यकता, विचार, उल्लेख, (वीरो० १९/१०) ? अपेक्षणीय (वि० ) [ अप + ईक्ष् + अनीयर् ] आवश्यकता योग, आशा योग्य। अपेक्षितव्य (वि०) आवश्यकता योग, आशा योग्य, वाञ्छनीय, इच्छुक | अपेक्षित (वि०) इच्छुक, विचारणीय । For Private and Personal Use Only Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अपेत ७६ अप्रतिरूप अपेत (भू०क्रि०) [अप+इ+क्त] गया हुआ, ०व्यतीत, अप्रज (वि०) सन्तान हीन, अजात। विमुक्त, विचलित, विरुद्ध, मुक्त, वंचित। अप्रजस् (वि०) सन्तान हीन, बांझ स्त्री। बन्ध्या। अपोढ (वि०) [अप+वह्+क्त] दूर हटाया गया। अप्रतिबद्ध (वि०) निर्मोही, अनासक्त। अपोहः (पुं०) [अप+व+घञ्] ०अभाव, विरोपण, ०हटाना, अप्रतिबुद्ध (वि०) बहिरात्म जीव, आत्मा के स्वभाव को न दूर करना, विनाश, ०असद्भाव। तर्कशक्ति विशेष। जानने वाला! अन्यापोहतया चित्तलक्षणेऽथक्षणे स्थितिम्। (जयो० २८/२४) अप्रदेश (वि०) प्रदेश रहित, एक प्रदेश मात्र। काल द्रव्य का अपोहोऽसद्भावः। (जयो० वृ० २८/२४) अपोहनं अपोहः, प्रदेश है। अपोह्यते संशय-निबन्धन-विकल्पः अनया इति अपोहा। अप्रदेशत्व (वि०) प्रदेश विहीनता, एक प्रदेशता। (धव०१३/२४२) जिससे संशय के कारणभूत विकल्प को अप्रतिकर्मन् (वि०) अनिवार्य, अद्वितीयकारक। दूर किया जाय, ऐसा ज्ञानविशेष 'अपोह' है। अप्रतिकार (वि०) असहाय, सहारा हीन। अपोहनं (नपुं०) [अप+व+ल्युट] हटाना, व्यावर्तन। अप्रतिघातः (वि०) व्याघात रहित, बाधा रहित। एक अपोहनीय (वि०) [अप+व+अनीयर] ०दूर हटाने योग, ऋद्धि-जिसके प्रभाव से बिना किसी व्याघात के पर्वत, प्रायश्चित्त योग्य, ०तर्क द्वारा स्थापित करने योग्य, भित्ति आदि को पार कर जाता है। व्यावर्तन योग्य। अप्रतिचक्रं (नपुं०) अप्रतिचक्र नामक मन्त्र। "ॐ ह्रीं अर्ह अपौरुषेय (वि.) [नास्ति पौरुषं यस्मिन्] अलौकिक, पुरुषकृत नमः" (जयो० १९/५४-५५) ओं ह्रां ह्रीं हूँ, ह्रौं ह्रः असि नहीं, ईश्वरकृत। आ उ सा अप्रतिचक्रे फट् विचक्राय झो झौं स्वाहा। अपकायः (पुं०) जलकाय, जलशरीर। एवमाप: अप्कायः। अप्रतिद्वन्द्व (वि०) अप्रतिरोध्य, जिसका प्रतिद्वन्द्वी न हो। (त०वा०२/१३) अप्रतिपक्ष (वि०) अप्रतियोगी, विपक्षशून्य, अनुपम। अप्कायिक (वि०) जल ही जिनका शरीर है अप्कायो विद्यते | अप्रतिपत्तिः (स्त्री०) ०अस्वीकृति, निश्चय का अभाव, यस्य स अप्कायिकः। उपेक्षा, अवहेलना, अव्यवस्था, विह्वलता। अप्जीवः (पुं०) अप्काय नामकर्म के उदय से युक्त जीव। अप्रतिपाति (स्त्री०) नहीं छूटने वाला। (वीरो० १०/२७) विग्रहगति प्राप्त जीव। अपः कायत्वेन यो गृहीष्यति विग्रहगति अप्रतिबन्ध (वि०) निर्बाध, अबोध। बिना रोकटोक। प्राप्तो जीवः सोऽप्जीवः। (जैन लक्षणावली पृ० १०३) अप्रतिबल (वि०) अनुपम बलशाली, अधिक शक्ति सम्पन्न। अप्ययः (पुं०) [अपि+इ+अच्] ०उपागमन, सम्मिलन, ०प्रवेश, अप्रतिनिवृित्तिः (स्त्री०) सन्मार्गमपरित्यज्य सन्मार्ग विहीन। ०अन्तर्धान। सन्मार्ग नहीं छोड़ता हुआ नहीं छोड़ना। अप्रकट (वि०) अव्यक्त, अकथित। (जयो० २/२३६) नित्यशोऽप्रतिनिवृत्त्य सत्पथात्। (जयो० २/४८) 'नूनमप्रकटरूपतो।' अप्रतिनिवृत्त्य-अपरित्यज्य। अप्रकम्प (वि०) अकम्पभाव/स्थिरता युक्त श्री देवाद्रिवदप्रक्रम्प।' अप्रतिभ (वि०) १. विनीत, विनम्र, २. विवेकहीन, मंदमति। (सुद० ९८) अप्रतिभट (वि०) अप्रतिद्वन्द्वी। अप्रकरणं (नपुं०) ०अप्रासंगिक, असम्बद्ध विषय, प्रधानता अप्रतिम (वि०) अतुलनीय, अनुपम, अप्रतिद्वन्द्वी। (जयो० का अभाव। १६/४४) अप्रकाश (वि०) प्रभाहीन, ०कान्तिहीन, आभा रहित, अप्रतिमा (स्त्री०) अतुलनीय, अनुपम 'रूपं सदेवाप्रतिमच्छवित्रं'। अन्धकार युक्त, तिमिराछन्न, ०अप्रकट। (जयो० १६/४४) 'न विद्यते प्रतिमा प्रतिरूपं यस्याः अप्रकृत (वि०) ० अप्रसंगिक, ०असम्बद्ध विषय, ०अप्रस्तुत, साऽप्रतिमा।' (जयो० वृ० १६/४४) ०अप्रकरण। अप्रतिरथ (वि०) अप्रतिद्वन्द्वी वीर, अनुपम योद्धा। अप्रगम (वि०) शीघ्रगामी, तीव्र गमनशील। अप्रतिरव (वि०) निर्विरोध, निर्विवाद। अप्रगल्भ (वि०) साहसहीन, लज्जालु। अप्रतिरूप (वि०) १. अयोग्य, अननुरूप, २. अनुपम रूप अप्रगुण (वि०) व्याकुल, आकुल, दुःखित। वाला। For Private and Personal Use Only Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अप्रतिलेरव ওও अप्रामाण्य विरल। अप्रतिलेरव (वि०) अप्रमार्जित विधि करना। अप्रयुक्त (वि०) प्रयोग रहित, अव्यहत, त्रुटिजन्य, असामान्य, अप्रतिवीर्य (वि०) प्रबल शक्ति सम्पन्न, उत्कृष्ट शक्तिमान्। अप्रतिशासन (वि०) अनुपम शासक, परम शासक। अप्रवृत्तिः (स्त्री०) कर्तव्य हीन, आलस्य, प्रमादजन्यवृत्ति। अप्रतिष्ठ (वि०) अस्थिर, सुदृढ़। अप्रसङ्गः (पुं०) सम्बन्ध का अभाव, अनुपयुक्त समय। अप्रतिष्ठापनं (नपुं०) दृढ़ता का अभाव, स्थिरता शून्य। अप्रसिद्ध (वि०) अविख्यात, असामान्य, अज्ञात, अनुभव हीन। अप्रतिहत (वि०) बाधा रहित, निर्बाध, अप्रतिरोध्य। अप्रशस्त (वि०) अयोग्य अंश, प्रशस्त/प्रशंसीनय गुण का अप्रतीत (वि०) अप्रसन्न, असंतुष्ट। अभाव। (जयो० वृ० १/२४, २/४४) अप्रत्यक्ष (वि०) अगोचर, अदृश्य। अप्रशस्तक (वि०) स्व विषय से अप्रशंसनीय। (जयो० २/४३) अप्रत्यय (वि०) आत्म विश्वास रहित, अनभिज्ञ, विश्वास नहीं शस्तमस्तु तदुताप्रशस्तकं, व्याकरोति विषयं सदा स्वकम्। करने वाला। व्यलीकिनोऽप्रत्ययसम्विघाऽतः। (समु० १/९, अप्रशस्तध्यानं (नपुं०) आर्त-रौद्र स्वरूप ध्यान, पापानव रूप वृ०८) ध्यान अप्रदक्षिणं (अव्य०) वाम ओर से दाहिनी ओर। अप्रशस्त-निदानं (नपुं०) मान से प्रेरित इष्ट की कामना, अप्रधान (वि०) अधीन, गौण, प्रमुखता रहित। तीर्थंकरादि की भावना। अप्रधृष्य (वि०) अजेय, अपराजित, जीतने में न आ सके। अप्रशस्त भावः (पुं०) अयोग्य का भाव, प्रशंसा विहीन का अप्रभु (वि.) ०शक्तिहीन, अशक्त, असमर्थ, ०अयोग्य, परिणाम। अक्षम, ०बलहीन, ०स्वामित्व रहित। अप्रशस्तरागः (पुं०) विकथाओं के प्रति आसक्ति। अप्रमत्त (वि०) प्रमाद रहित, संयत/सदध्यान लीन। एकाग्रचित्त। अप्रशस्त-वात्सल्यः (पुं०) अवसन्न के प्रति प्रीति, दुःख के (हि०स०५६) प्रति अनुराग, परित्यक्त के प्रति वात्सल्य। अप्रमत्तात्मक (वि०) एकाग्रात्मा, संयतात्मा, प्रमत्तविरतात्मा। अप्रशस्त विहायोगतिः (स्त्री०) निन्द्यनीय गमन। अप्रमत्तोगिरागेन हृदापि परमात्मनः। (हित०सं० वृ०५६) अप्रस्ताविक (वि०) असमर्थक, असंगत, अप्रसांगिक, गार्हस्थ्यतोऽभ्योतीतोऽपि द्वैधीभावमुपादधत्। प्रमत्तो हि भवेत् आकस्मिक, मूढजन्य। सोऽभिनन्दने परमात्मनः। (हि०सं० वृ० ५६, १४७) अप्रस्तुत (वि०) अप्रासङ्किकता, असंगत। (जयो० १६/४२) अप्रमद (वि०) अप्रसन्न, दु:खित, कष्टजन्य। "अप्रस्तुतत्त्वात्सुदृशां सदङ्गे।' अप्रमा (स्त्री०) संशय जन्य ज्ञान। अप्रहत (वि०) परतभूमि, खनन मुक्त क्षेत्र। अप्रमाण (वि०) ०अविश्वस्त, असीमित, अपरिमित, प्रमाण अप्राक (वि०) अपर्व, अद्वितीय. अनपम। 'न प्राग्भवन्निति की प्रस्तुति का अभाव। अप्राक्।' (जयो० वृ० १/५६) 'तत स्तद प्राक्सुकृतैकजातिः' अप्रमाद (वि०) समस्त कषायों का अभाव, प्रमाद रहित, (जयो० १/५६) आलस्य मुक्त, जागृत, प्रतिबुद्ध। अप्राकरणिक (वि०) प्रकरण विहीन, अप्रासंगिक, असंगत। अप्रमादिता (वि०) प्रसन्नता, आनन्ददायक। अप्रमादितया अप्राकृत (वि०) १. असाधारण, २. विशेष, ३. जो पूर्वकृत न पूर्णचन्द्रस्याह्लादकारिणः। (समु० ४/३९) । हो, मौलिकता का अभाव। अप्रमादी (वि०) पापाचार रहित, पापाचारविहीन। स्वान्त अप्राख्य (वि०) अविख्यात, अप्रधान, गौण, अप्रमिद्ध। इहाप्रमादी। (जयो० २७/५३) अप्राणक (वि०) प्राणवर्जित, चेतनाशून्य। अप्राणकैः प्राणभृतां अप्रमार्जनं (नपुं०) आगमोक्त विधि की उपेक्षा, विधिपूर्वक प्रतीकैः। (जयो० ८/३७) मांजना नहीं। अप्राप्त (वि०) अनुपलब्ध, प्राप्ति से परे। अप्रमेय (वि०) जिसका अच्छी तरह निश्चित न किया जा अप्राप्तिः (स्त्री०) अनुपलब्धि, न मिलना, सुलभ नहीं। सके, या जाना जा न सके। प्रमेय विहीनता, २. अपरिमित, अप्रामाणिक (वि०) मान्यता रहित, मूल्य विहीन, अयुक्तियुक्त, असीमित, असम्बद्धता। अविश्वसनीय। अप्रयाणं (नपुं०) प्रस्थान न किया गया, गमन न किया गया। | अप्रामाण्य (वि०) यथार्थता का अभाव। For Private and Personal Use Only Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अप्रिय ७८ अब्ज अप्रिय (वि०) अस्निग्ध, स्नेहरहित, अरुचिकर। प्रियोऽप्रियोऽथवा अबल (वि०) बलहीन, शक्ति रहित, दुर्बल। (जयो० ३/१२) स्त्रीणां कश्चनापि न विद्यते। (जयो० २/१४७) अबला (स्त्री०) सुकुमारी। (जयो० वृ० १/७१) अप्रासुकता (वि०) सजीवता, प्रासुकता का अभाव। (वीरो० अबला-मृषा साहसमूर्खत्वलौल्य कौटिल्यकादिकान्। सर्वानव१६/२४) गुणांल्लातीत्यबला प्रणिगद्यते।। (जयो० २/१४५) "झूठ अप्रियकर (वि०) अरुचिकर, निष्ठुर, कठोर। बोलना, दुस्ससाहसता, मूर्खता, चंचलता और कुटिलता अप्रियकारी (वि०) निष्ठुर/कठोर भाषी, अहित भाषी, अमृदुभाषी। आदि जितने भी अवगुण हैं, उन सभी को जो ग्रहण करती अप्रिय-वचनं (नपुं०) विरोध जन्य वचन। अरतिकरं भीतिकरं है, वह 'अबला' है। खेदकरं वैर-शोक-कलहकरम्। यदपरमपि तापकरं परस्य अबलाकुल (वि०) स्त्री जनासक्त। नित्यमत्रावसीदन्ति मादृशा तत्सर्वमप्रियं ज्ञेयम्॥ (पुरुषार्थसिद्धयाप ९८) अबलाकुलाः। (जयो० १/१०७) अप्रीतिः (स्त्री०) स्नेहशून्य, अरुचि। प्रायः प्राग्भव-भाविन्यौ अबलाधिकारी (वि०) १. बलहीनता का अधिकारी, २. प्रीतत्यप्रीती च देहिनाम्। (सुद० ४/१६) अबलाओं का अधिकारी "अबलस्य बलाभावस्य, अवलायाः अप्रीतिदायक (वि०) अरतिकर, अरुचिकर, अप्रसन्नता स्त्रियो वाऽधिकारी। (जयो ० उत्पादक। (जयो० वृ० ३/१२) ८/५९) बभूव भूयोऽबलाधिकारी। (जयो०८/५९) अप्रौढ़ (वि०) भीरु, असाहसी, अवयस्क। अबहु (वि०) कम, हीन। अप्लुत् (वि०) ध्वनि विशेष, वह स्वर जो दीर्घ न किया जा अबहुश्रुतं (नपुं०) अध्ययन का विस्मरण। अधीतं वा विस्मारितम्। सके। अबाध (वि०) ०बाधा रहित, ०अनियन्त्रित, ०पीड़ा मुक्त, अप्सरस (स्त्री०) [अद्भ्यः सरन्ति, उद्गच्छन्ति-अप+स+असुन्] रोग मुक्त। अप्सरा, स्वर्वेश्या, स्वर्गसुन्दरी, इन्द्रनर्तकी। जलक्रीड़ा अबाधा (स्त्री०) बंधने के पश्चात् कर्म का आवरण। (वीरो० रुचिकरा। (वीरो० २/१०) (जयो० वृ० ३/७९) "इय २०/५) उदय में न आना। मप्सरसामिवाधिका।" (समु २/१७) "अपां जलानां सरस्सु अबाधावृत्तिः (वि०) आवरण निवृत्ति (वीरो० २०/५ स्थानेषु विचरन्ति" अर्थात् जो जल/जलक्रीडा स्थानों में अबाधित (वि०) बाधा रहित, पीड़ा से मुक्त। विचरण करती है। ग्रामान् पवित्राप्सरसोऽप्यनेक। (सुद० अबाल (वि०) १. मूर्खता का अभाव, ज्ञानयुक्त, २. पूर्ण, १/०) यौवन रहित, युवक। ३. निर्लोभ युक्त। "बालो मूर्खः, न अप्सरः सारमयी (वि०) १. स्वर्ग सुन्दरियों में श्रेष्ठतम्-त्वं बालोऽबालस्तद्भावतो मूर्खत्वाभावाद् हेतोः।" (जयो० वृ० पुनरप्सरसां स्वर्गवेश्यानां सारमयी। (जयो० वृ० १६/१५) ३/४६) "अबालभावतो निर्लोमत्वात्।" (जयो० वृ० ३/४६) २. जलयुक्त सरोवरों में श्रेष्ठतम अप्सरसा अबाला (स्त्री०) न बाला अबाला, जो बालिका नहीं, सुदीर्घा, जलयुक्तसरोवराणां। अलध्वी। (जयो० वृ० ३/३९) अप्सरोमयी (वि०) १. स्वर्ग की अप्सरा रूपवाली। २. जल अबाह्य (वि०) आभ्यन्तर, आन्तरिक, भीतरी, अनुचित। (वीरो० के सरोवर रूपवाली। "स्वर्गीयवेश्यास दृशायां सरोमयी १८/४८) चाराच्छीघ्रमेवाभूत्।' (जयो० वृ० २२/६८) अबुद्ध (वि०) [न+बुध्] अज्ञानी, मूर्ख, अनभिज्ञ, मतिविहीन। अफल (वि०) निष्फल, निरर्थक, प्रयोजन रहित, पुरुषत्व | अबुद्धिः (स्त्री०) अज्ञान, मति हीन, मूर्खता। "आत्मस्थविहीन। दु:ख-बीजापायोपायचिन्ताशून्यत्वादनिवार्य-पर-दु:ख अफलत्व (वि०) फलाशय रहितपना, निरर्थकता (वीरो० १८/३६) शोचनानुचरणाच्चाबुद्धिः।" (भ०अ०टी० १/५४) अबद्ध (वि०) १. बन्ध मुक्त, बन्धन हीन, बन्ध रहित, २. अबोध (वि०) मूढ, मूर्ख, नादान, छोटा, लघु, अज्ञानी। स्वच्छंद, अर्थहीन, प्रयोजन रहित। (जयो० १७/९) अबन्ध (वि०) ०अनुराग रहित, प्रीति सम्बंध नहीं। सिद्ध, अबोधा (स्त्री०) बोधविहीना, ज्ञानशून्य। (जयो० १७/९) मुक्त (जयो० ) अब्ज (वि०) [अप्सु जायते-अप्+जन+उ] जल में उत्पन्न हुआ। अबन्धक (वि०) मित्र रहित, एकाकी, अकेला। अब्ज (नपुं०) [अप्सु जायते] कमल, अरविंद, पद्म, सरोज। For Private and Personal Use Only Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अब्जबुद्धिः ७९ अभावः (जयो० १/५४) “अन्ते भवतीत्यन्त्यो जकारो यस्य अब्जस्य, तस्यादौ प्रारम्भ मवर्णो यस्य तस्य भाव आदिमवर्णता किं स्यात् न स्यात् मुखभाव इत्यर्थः। (जयो० वृ० १/५४) आकर्षताब्जं च सहस्रपत्र। (सुद० ४/१९) * कमल। अब्जबुद्धिः (स्त्री०) पद्मबुद्धि, कमलबुद्धि। वध्वा स वध्वानयनेऽ ब्जबुद्धि। (जयो० १६/४८) अब्जयः (पुं०) सूर्य, दिनकर (वीरो० २/११) अब्जज (वि०) कमल को उत्पन्न करने वाला। अब्जनेतः (पुं०) सूर्य, दिनकर। (जयो० वृ० १५/४) अब्जा (स्त्री०) सीपी। अब्जिनी (स्त्री०) [अब्ज इनि स्त्रियां ङीप्] कमल वल्ली, कमलवेल, कमललता, कमलिनी। (वीरो० ६/३४) निमीलिताभ्भोजदृगब्जिनीति। (जयो० १५/८) अब्दः (पुं०) [अपो ददाति-दा+क] ०बादल, मेघ, वार्दर, | वर्ष। (जयो० २०/५) अब्दरम्य (वि०) रमणीय मेघ। 'अब्दो मेघस्तदिव रम्यः।' (जयो० वृ० २०/३२) अब्द-संकुलः (पुं०) वार्दर व्याप्त, मेघाच्छादित, मेघ समूह। (जयो० २०/५) अब्दैः संवत्सरैः संकुला षोडशवर्ष-वयस्क। (जयो० वृ० २०/५) अब्दसारः (पुं०) कर्पूर (जयो०) अब्धिः (पुं०) [आपः धीयन्ते अत्र अप+धा+कि] उदधि, सागर, वारिधि, समुद्र। परापराब्धी हि पुरा स्फुरन्तौ। (जयो० ८/१) भवाब्धितीरं गमितप्रजावान्। (जयो०सुद० १/१) अब्रह्म (वि०) न ब्रह्म अब्रह्म (स०सि०७/१७) ब्रह्म अभाव, मैथुन भाव। यद्वेदराग-योगान्मैथुनमभिधीयते तदब्रह्म। (पु०सि० १०७) स्त्री-पुरुष सम्बंधी राग चेष्टा। अब्रह्मचर्य (वि०) ब्रह्मभाव रहित, ब्रह्मचर्य से विहीन, __ अब्रह्म/मैथुन की अभिलाषी। अब्रह्म-वर्जनं (नपुं) अब्रह्म का त्याग, परस्त्री स्मरण का परित्याग। अभक्ति (स्त्री०) भक्ति विहीन, अविश्वास, संदिग्धता, ० अर्चना की हीनता। अभक्ष्य (वि०) भक्षण योग्य नहीं, खाने के लिए निषिद्ध। नरस्य दृष्टौ विष्भक्यवस्तु किरेस्तेदतदरऽभक्षमस्तु। सन्धानक त्यजेत्सर्वं, (वीरो० १९/४) दधि-तर्क, द्वयहोषितम्। दना तक्रेण वा मिश्र, द्विदलञ्च न भक्षयेत्।। पिप्पलोदुम्बर-प्लक्षवट-फल्गु-फलानि तु त्यजेदन्यफलं जन्तु शून्यं कृत्वा च संभवेत्।। (हि०सं० १२०-१२१ श्लोक०) अभक्षवृत्तिः (स्त्री०) अभक्ष्य प्रवृत्ति (समु० ४/४८) अभग (वि०) अभागा, भाग्यहीन, बेसहारा। अभङ्ग (वि०) नित्य, शाश्वत, स्थाई। न भङ्गा अभङ्गा प्रवाहयुक्ता। (जयो० १/८) "गङ्गामभङ्गां न जहात्यथाकी" अभद्र (वि०) अशुभ, अकल्याणकारी, कुत्सित, दुष्ट। अभद्रं हि संसारदु:खम्। अभय (वि०) निर्भय, भयमुक्त, सुरक्षित, निर्भयभाव, अभय___ दान। (जयो० १/९८) अभयमङ्गिजनाय नियच्छता। (जयो० १/९८) अभयंकर (वि०) भय रहित, निर्भयता जन्य। अभयकुमार (पुं०) राजा श्रेणिक का पुत्र, रानी ब्राह्मणी का तनय। अभयचन्द्रः (पुं०) आचार्य, गोमट्टसार के टीकाकार। अभयदान (नपुं०) अनुग्रह करने वाला दान, प्राणिमात्र का कृपा दान। अभयदेवः (पुं०) सन्मति तर्क के टीकाकार। अभयदेवी (स्त्री०) राजा दार्फ वाहन की रानी। दार्फवाहनभूपस्या भया नाम नितम्बिनी। (वीरो० १५/२८) अभयनन्दिः (पुं०) वीरनन्दि के शिक्षा गुरु। अभयप्रदः (वि०) अभयप्रदाता। अभयमति (स्त्री०) अभयमती रानी, राजा धारणीभूषण की रानी। (सुद० पृ० ८४) चम्पा नगरी के एक शासक धात्री वाहन की रानी का नाम भी अभयमती था। अभयमतीत्य भिधाऽभूद्भार्या। (सुद० १/४०) अभयमती देखो अभयमति। अभयमुद्रा (स्त्री०) ध्वाजाकार मुद्रा। अभवः (पुं०) ०अनुत्पन्न, अनुजाय, नहीं उत्पन्न। अभव्य (वि०) ०अनुपयुक्त, ०अशुभ, दुर्भाग्यपूर्ण, ०अभागा। सिद्धान्त में 'अभव्य' उसे कहा गया है जो सिद्धिगमन के लिए अयोग्य, सम्यग्दर्शनादि पर्याय से कभी भी परिणत न हो। 'निर्वाणपुरस्कृतो भव्यः, तद्विपरीतोऽभव्यः। (धव० १/५०-१५१) अभाग (वि०) अविभक्त, विभाज्य योग्य नहीं। अभागिनी (स्त्री०) भाग्य विहीन, सौभाग्य सुख हीन। राज्ञी प्राह किलाभागिन्यसि त्वं तु नगेष्वसौ। (सुद० वृ०८५) अभावः (पुं०) ०अनुपस्थिति, विमुक्त, ०हीन, ०रहित, असफलता, अनस्तित्व। निषेध, अपाय, प्रहानि। (जयो० १/२४) अतिरेकोऽभावस्तु। (जयो० वृ० १/१९) 'अभाव' अतिरेक को भी कहते हैं। 'अभाव' को अपाय भी कहा। (जयो० २४/३७) अभाव को 'प्रहाणि' भी कहा। (जयो० For Private and Personal Use Only Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अभावना अभिगृहीतः अभिकांक्षिन् (वि०) [अभि+कांक्ष+णिनि] कामना करने वाला, इच्छुक, अभिलाषी। अभिकाम (वि०) [अभिबृद्धः कामो यस्य-अभि+कम+अच्] ०इच्छुक, कामुक, वाञ्छाशील, ०अभिलाषी। अभिक्रमः (पुं०) [अभि क्रम्+घञ्] ०प्रयत्न, ०आरम्भ, ___०व्यवसाय, प्रयान, ०अभियान, ०आक्रमण। अभिक्रमणं (नपुं०) [अभि+क्रम ल्युट्] उपागमन, आरोहण। अभिक्रोशः (पुं०) [अभि क्रुश+घञ्] चिल्लाना, पुकारना, बुलाना, आह्वाहन करना, अपशब्द कहना। अभिक्रोशकः (वि०) [अभि+क्रुश+ण्वुल्] कोशने वाला, कलंक लगाने वाला। अभिख्या (स्त्री०) [अभि+ख्या+अङ्-टाप्] ०कांति, प्रभा, शोभा, आभा, कीर्ति, प्रसिद्धि, यश, ०ख्याति। अभिख्यानं (सक०) [अभि+ख्या ल्युट्] ख्याति, कीर्ति, प्रसिद्धि, यश। १८/३७) जैन दर्शन में 'अभाव' को निषेधकारी न मानकर कचित् रूप में स्वीकार किया है। 'भावान्तरस्वभावरूपी भवत्यभाव इति। (प्रव०वृ० १००) भावान्तर स्वभाव रूप ही अभाव है। जिस धर्मी जो धर्म नहीं रहता उस धर्मी में उस धर्म का अभाव। (जैनेन्द्र सि०१२७) महाकवि ज्ञानसागर ने जयोदय महाकाव्य के छब्बीसवें सर्ग में 'अभाव' की व्याख्या करते हुए कहा है कि-भावैकतायामखिलानुवृत्ति भवेदभावोऽथ कुतः प्रवृत्तिः। (जयो० २६/८७) यतः पटार्थी न घटं प्रयाति हे नाथ! तत्त्वं तदुभयानुपाति।।" (जयो० २६/८७) यदि भाव रूप ही पदार्थ की माना जावे तो सबकी सब पदार्थों में प्रवृत्ति होना चाहिए और सर्वथा अभाव रूप ही पदार्थ माना जाए तो प्रवृत्ति किस कारण होगी? क्योंकि वस्त्र का इच्छुक मनुष्य घट को प्राप्त नहीं होता। इसलिए-पदार्थ भाव और अभाव दोनों रूप हैं। इसके चार भेद किए हैं-१. अन्योन्याभाव, २. अत्यन्ताभाव, ३. प्रागभाव और प्रध्वंसाभाव। उपर्युक्त चारों अभावों को जिनागम में स्वीकृत किया गया है। अभावना (स्त्री०) अनुचिन्तन का अभाव, अनुप्रेक्षा का अभाव। अभाषित (वि०) अकथित, अनुच्चरित अभासिनी (वि०) १. न ज्ञानवती, २. प्रकाशहीन, प्रभाहीन। (जयो० २७/६) अभि (अव्य०) [न+भा+कि] धातु या शब्दों से पूर्व लगने वाला प्रत्यय। 'अभि' के लगने से की ओर के लिए आदि अर्थ का बोध होता है। 'गम्' धातु से पूर्व 'अभि' लगने से 'अभिगम्' का अर्थ चलना तो है, परन्तु किस ओर यह स्पष्ट हो जाता है। 'जाति' शब्द से पूर्व अभि' लगने से 'अभिजाति' प्रकृति या प्रशंसनीय अर्थ का बोध हो जाता है। अभि-अनुबध् (सक०) गूंथना, गुंफन करना। माला विशालाऽ भ्यनुबद्धयते सा (भक्ति०१३) अभिईप्स (सक०) जानना, समझना। "एवं सुविश्रान्तिम भीप्सुमेताम्।" (वीरो० ५/३४) अभिकंप (अक०) कांपना, हिलना, अभिकर (वि०) [अभि+कन्] अभिव्याप्त, वेष्ठित, लंपट, कामी। द्राक्षादिसार-रसनाद्रसनाभिकनाभिके सरसलेशे। (जयो० ६/४६) अभिकांक्षा (स्त्री०) [अभि+कांक्ष+अ+टाप्] कामना भावना, | ०इच्छा, ०अभिलाषा, लालसा, ०वाञ्छा। अभिगत (वि०) अभिमुख, सन्निकट। अभिगम् (सक०) ०पास जाना, चलना, ०पहुंचना। "फुल्लदानन इतोऽभिजगाम। (जयो० ४/४७) अभिगमनं (नपुं०) [अभिगम् ल्युट] पहुंचना, गमन करना, जाना, पास आना। अभिगम्य (सं० कृ) [अभि+गम्+य] अनुगम्य, उपागम्य, समीप जाकर, निकट पहुंचकर, अभिगम्य बिम्बुच्चै। (जयो० १४/९०) अभिगर्जनं (नपुं०) [अभि+ग ल्युट्] चीत्कार, चिंघाड़ भीषण गर्जना। अभिगामिन् (वि०) [अभि+गम्+णिनि] समीप पहुंचने वाला, संभोग करने वाला, निकट जाने वाला। अभिगुप्तिः (स्त्री०) [अभि+गुप्+क्तिन] संरक्षण, सुरक्षा, निग्रह, निरोध अभिगोप्त (वि०) [अपि+गुप्+तृच्] संरक्षक, निग्रहकर्ता। अभिग्रहः (पुं०) [अभि+ग्रह+अच्] १. अधिकार, प्रभाव, ठगना, धावा। २. जैन सिद्धान्त में 'अभिग्रह एक नियम विशेष माना गया है। 'अनगार' आहारार्थ गमन से पूर्व जो विधि लेता है, वह 'अभिग्रह' है। अभिग्रहणं (नपुं०) [अभि+ग्रह ल्युट्] निश्चित नियम, अभिग्रह। अभिगृहीतः (पुं०) [अभि+गृह ईत्] दूसरे के उपदेश से ग्रहण करना, मिथ्यावचनों पर श्रद्धान करना, यथार्थवस्तु के श्रद्धान से विमुख दृष्टि रखना। For Private and Personal Use Only Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अभिघातः अभिधा अभिघातः (पुं०) [अभि+हन्+घञ्] ०मारना, कष्ट पहुंचाना, घातना, ०ताड़ना, प्रताड़ना, प्रहार, ०आघात, विध्वंस, नाश, विनाश, विघात, विहनन। अभिघातक (वि०) विध्वंसक, विनाशक, प्रताड़क, विघातक। अभिघातिन् (वि०) विध्वंसक, शत्रु, बैरी, विनाशक। अभिघारः (अभि+घृ+णिच्+घञ्) घी की आहूति। अभिघ्राणं (नपुं०) [अभि+घ्रा+ल्युट्] मस्तक सूंघना, शिर चुम्बन। अभिचरणं (नपुं०) [अभि+ चर् + ल्युट्] ०मारना, झाड़ना-फूंकना। अभिचारः (पुं०) [अभि+च+घञ्] जादू करना, झाड़ना। अभिचारिन् (वि०) अभिचार करने वाला। अभिजन: (अभि+जन्+घञ्) स्व जन्म स्थान वंश, उत्पत्ति स्थान, जन्मभूमि, ०मातृभूमि कुटुम्ब, कुल अपने अपने स्थान। जनोऽभिजनसाम्प्राप्तो वर्धमानाभिधानतः। (जयो० ८/८३) अभिजनवत् (वि०) [अभिजन+मतुप्] उत्तम कुल का, श्रेष्ठ । कुटुम्ब में उत्पन्न। अभिजयः (पुं०) [अभि+जि+अच्] विजय, जीत। अभिजात (भूक०कृ०) [अभि+जन्+क्त] ०उत्कृष्ट कुलोत्पन्न, कुलीन, उच्चकुल, उन्नत वंश। (प्रवालोऽपि चाभिजातः) (जयो० ४१/१३) सद्योजात प्रवाल। सैवाभिजातोऽपि च नाभिजातः। (वीरो० १/२) अभिजातः सुभगोऽपि नाभिजातः सौन्दर्यरहित इति। (वीरो० वृ० १/२) 'अभिजात' का अर्थ उत्कृष्ट कुलोत्पन्न है। "अभिजातदपि नाभिजातकम्" (सुद० ३/१३) यहां 'अभिजात' का अर्थ तत्काल उत्पन्न है। हे नाभिजातासि किलाभिजातः। (जयो० १९/१७) ०अकुलीन होकर भी 'कुलीन' का बोधक है। २.०' अभिजात' का अर्थ सुन्दर, मनोहर, ०बुद्धिमान, ०श्रेष्ठ, मधुर, उपयुक्त विद्वान् भी किया जाता है। अभिजातत्व (वि०) विवक्षित अर्थ रूप कथन शैली। अभिजातिः (स्त्री०) [अभि+जन्+क्तिन्] प्रशंसनीय प्रकृति, उत्तम जाति, श्रेष्ठ कुल। भोगीन्द्रदीर्घाऽपि भुजाभिजातिः। (जयो० १/५२) आभजिघ्रणं (नपुं०) [अभि+घ्रा+ल्युट्] सिर का स्पर्श करना। अभिजित् (पुं०) [अभि+जि+क्विप] १. नक्षत्र, २. विष्णु। पराभिजिद् भूपतिरित्यनन्तानुरूपमेतन्नगरं समन्तात्। (सुद० १/२९) अभिज्ञ (वि०) [अभि+ज्ञा+क] ०जानने वाला, प्रमाण ज्ञाता, ज्ञानवान्, ज्ञानीजन। इत्येवमालोक्य भवेदभिज्ञः। (सुद० १२१) वनस्थानमभिज्ञोऽभूत् स एव प्रमोक्षोपसंग्रही। (जयो० २८/५९), २. कुशल, अनुभवशील, दक्ष,चतुर, निपुण। अभिज्ञा (स्त्री०) [अभि+ज्ञा] ०ज्ञाता, ज्ञायक कुशल, निपुण, दक्ष, प्रज्ञाशील। स्वनिन्दयेत्थं निगदन्त्यभिज्ञाः। (भक्ति सं० ३७) अभिज्ञा (नपुं०) [अभि+ ज्ञा+ल्युट्] दर्शन की परम्परा में 'अभिज्ञा' को प्रत्यभिज्ञा/प्रत्यभिज्ञान भी कहते हैं। 'तदेवेदम्' इति ज्ञानमभिज्ञा। (सिद्धि वि०२२६) 'यह वही है' इस प्रकार का ज्ञान 'अभिज्ञा है। अभिज्ञानं (नपुं०) [अभि+ज्ञा+ ल्युट्] प्रत्यभिज्ञान, स्मरण, स्मृति, पहचान। अभितः (अव्य०) पर्यन्ततः, (अभि+तसिल्) ०दोनों ओर। निकट, सब ओर, सभी तरफ। समस्त, चारों ओर। (सुद०३/८) अस्मिन् पर्वाणि तमसा रभसादसितोऽभितोऽर्कयशाः। (जयो०६/१९) अभितः समस्तभावतो। (जयो० वृ० ६/९) प्राचालि लोकैरभितोऽप्यशः। (वीरो० १/३०) श्रणनाङ्के मृदुतापुताऽभितः। (सुद० ३/२१) प्रमदाश्रुभिराप्लुतोऽभितः जिनपं। (सुद० ३/५) अभितापः (पुं०) [अभितप्+घञ्] ०अत्यन्त गर्मी, संताप, कष्ट, ०पीड़ा, भावावेश। अभिताम्र (वि०) प्रवल रक्त, पूर्ण राग। अभिदक्षिणं (अव्य०) दक्षिण की ओर। अभिद्रवः (पुं०) [अभि+अप+घञ्] आक्रमण, प्रहार। अभि+दा (अक०) प्रतीत होना, "अभिददतीत्यनुरक्तिम्"। (जयो० ४/१४) अभिद्रोहः (पुं०) [अभि+दुह्+घञ्] ०षड्यन्त्र रचना, हानि, ०क्रूरता, ०द्रोह, गाली, निन्दा। अभिद्वार (नपुं०) मुख्य द्वार, प्रवेशद्वार। देवांशे स्फुरदेव देवदिगभिद्वारे प्लवालम्बने। (जयो० ३/७१) अभिधं (नपुं०) पाप, दुष्टकर्म। "निरन्तर जन्तुबधाभिधेन।" (सुद० ४/१७) अभि+धा (सक०) कहना, बोलना। "नानैवमित्यभिधाय नागः।" (जयो० २/१५८) अभिधाय कथयित्वा। अभिधा (स्त्री०) [अभि+धा+अ+टाप्] १. स्मरण, स्मृति (जयो० १६/३) "रामाभिधामकलयन्ति नामाधुना।" स्त्री For Private and Personal Use Only Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अभिधा अभिनिबोधः के नाम स्मरण, २. नाम, संज्ञा, ध्वनि। "अभयमतीत्य- | अभिनन्दिनि (स्त्री०) [अभि+नन्द्+अनि] ०आनन्दकारिणी, भिधाऽभूद्भार्या" (सुद० १/४०) प्रहर्षिणी, प्रफुल्लमना। अभिधा (स्त्री०) शब्दशक्ति विशेष। स मुख्योर्थस्तत्र मुख्यो यो अभिनन्दिनि तदवसरे गगनं स्वगनन्दिगन्धनेऽनुसजत्। (जयो० व्यापारोऽस्याभिधोच्यते (काव्य० २) ६/१२७) अभिधात: (पुं०) संज्ञा, नाम। (वीरो० १/२) समागमान्यो । अभिनन्दनीय (वि०) [अभि+नन्द+अनीय] प्रशंसनीय, वन्दनीय, वृषभोऽभिधातः। ०सम्मानीय, आश्रयणीय। अभिधानं (नपुं०) [अभि+धा+ल्युट्] १. कहना, प्रतिपादित | अभिनन्द्य (वि.) [अभि+नन्द्+ण्यत्] प्रशंसनीय, वन्दनीय, करना, बोलना, संकेत करना। २. धारण करना, संज्ञा सम्माननीय, आश्रयणीय। युक्त, नाम वाला। विदेहदेशेत्युचिताभिधानः। (वीरो० २/९) अभिनम्र (वि०) पूर्णमत, विनम्र, प्रनत। ३. वाचक शब्द-साभिधेयमभिधानमन्वयप्रायमाश्रयतु तद्धि अभिनयः (पुं०) १. समारोह, सभासङ्गटन। "सारयति स्माऽभिनये वाङ्मयम्। (जयो० २/५५) अभिधान-वाचक शब्द (जयो० (जयो० ६/२०) अस्मिन्नभिनये समारोहे सभासङ्घटने।" वृ० २/५५) 'पादद्वयाग्रे नखलाभिधानो' (जयो० ११/१४) (जयो० वृ०८/२०) 'सोऽथ शुशुभेऽभिनयोऽपि।" (जयो० यहां 'अभिधान' का अर्थ पर्याय किया गया है। इसका ५/२६) सो अभिनयः सभासमारोहोऽपि। (जयो० वृ० सार्थकता भी अर्थ है। जो अपना ही बोध कराता है वह ५/२६) २. आश्चर्य स्थान-अभिनय आश्चर्यस्थानम्। 'अभिधान' है। (जयो० ४/९) २. उत्सव-(जयो० ४/९) अभिधायक (वि०) [अभि+धा+ण्वुल] नाम करने वाला, अभिनयः (पुं०) नाटक, अंग निक्षेप, नाटकीय प्रदर्शन। कहने वाला, निर्देश करने वाला। अभिनवः (पुं०) समारोह, अवसर। ईदृशेऽभिनयके प्रतियाति। (जयो० अभिधावनं (नपुं०) [अभि+धाव्+ल्युट्] पीछे पीछे दौड़ना, ४/१३) सार्वजनिकेभिनयके समारोहे। (जयो० वृ० ४/१३) अनुगमन, अनुसरण। अभिनयता (वि०) ले जाने वाला, अनुसरण कराने वाला। अभिधेय (स०कृ०) [अभि+धा+यत] कथनीय, प्रवचनीय, अभिनयन्तु (विधि०) ले जाएं। नाम योग्य। अभिनयानुरोधिनी (वि०) प्रसङ्गानुसारिणी। भूरिशो अभिध्या (स्त्री०) [अभि+ध्यै+अ+टाप्] चाह, इच्छा, ह्यभिनयनुरोधिनी। (जयो० २/५४) लालच, लोभ, आसक्ति। अभिनव (वि०) नवीन, नूतन, नए नए। पल्लवैरभिनअभिध्यानं (नपुं०) [अभि+ध्यै+ल्युट्] ०मनन-चिन्तन, वैरथाञ्चिता। (जयो०३/९) नव-नवै-अभिनवः। (जयो० ०अनुचिन्तन, ०अनुस्मरण। वृ० ३/९) नृवातोऽभिनवां मुदं। (जयो०६/१३२) अभिनन्द (अक०) [अभिनन्द्] अभिनन्दन करना, सम्मान अभिनव-वसनं (नपुं०) [अभि+ नहाल्युट्] आंख पर बांधने करना, प्रशंसा करना। "मालाञ्चोपैमि बाहां हि ___ की पट्टी, अंधा। नीतिविद्योऽभिसन्दति।" अभिनन्दति/प्रशंसति (जयो० ७/३१) अभिनियुक्त (वि०) [अभि+नि+युज्+क्त] ०संलग्न, कार्य अभिनन्दनः (पुं०) चतुर्थ तीर्थंकर का नाम अभिनन्दन नाथ। संयुक्त, ०व्यस्त। 'श्रीसम्भवं चाप्यभिनन्दनं च।' (भक्ति सं० १८) अभिनिर्याणं (नपुं०) [अभि+निर्+या+ल्युट] प्रयाण, प्रस्थान, अभिनन्दनः (पुं०) विदेह क्षेत्र के पुष्कल देश की नगरी अभिगमन, आक्रमण। छत्रपुरी का राजा अभिनन्दन। (वीरो० ११/३५) छत्राभिधे अभिनिविष्ट (भू०क०कृ०) [अभि+नि+विश्+क्त] ०संलग्न, पुर्यमुकुलस्थलस्य श्री वीरमत्यामभिनन्दस्य। (वीरो० ११/३५) तत्पर, ०लगा हुआ, ०कार्यशील। अभिनन्दन (नपुं०) [अभि+नन्द्+ल्युट्] अभिवादन सम्मान, अभिनिविष्टता (वि०) दृढ़ संकल्पता, पूर्ण निश्चय। प्रसन्नता, स्वागत, ०अनुमोदन करना। खुशी, आनंद, अभिनिवृत्तिः (स्त्री०) [अभि+नि+वृत्+क्तिन्] पूर्ति, संपन्नता, प्रहर्षण। निष्पन्नता। अभिनन्दि (वि०) आनन्दित, प्रहर्षित, प्रसन्नता। युक्त। अभिनिबोधः (पुं०) अनुमान का भेद। (जयो० ५/१७) "प्रवरमात्मवामभिनन्दिषु।" (सुद०४/२) 'अभिनिबोधनमभिनिबोधः। (स०सि०१/१३) 'अभिमुख्यं For Private and Personal Use Only Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अभिनिवेशः अभिप्रायवेदी नियतं बोधनमभिनिबोधः।' (त०वा०१/१३) अपने नियत | अभिन्नचेतस् (पुं०) स्थितचित्त, चित्त की स्थिरता। प्रार्थयेत् विषय का बोध-जैसे चक्षु से रूप का ज्ञान। सत्तरङ्गतर- प्रभुमभिन्नचेतसा। (जयो० २/१२२) लैर्निजकेन्द्राप्रादागता हयवरैस्तु नरेन्द्राः। तावतैव हि हयानन- अभिन्नाक्षरं (नपुं०) परिपूर्ण अक्षर, दशपूर्व का ज्ञान अभिन्नाक्षर वर्ग, प्राप्तवान भिनिबोध निसर्ग:।। वहां जितने भी पृथवीतल कहलाता है। के राजा थे, वे सब अपने अपने स्थान से तरंग के समान अभिन्नाचारः (पुं०) ०अतिचार/दोष रहित, आचार/आचरण। चंचल घोड़ों पर आरूढ़ होकर आये थे। अतः वहां निर्दोषाचार। हयानन आ गए, यह सहज ही अनुमान होता था। अर्थात् अभिपतनं (नपुं०) [अभि+पत्+ल्युट्] गिरना, ०टूटना, भंग जिससे अर्थाभिमुख होकर नियम विषय का ज्ञान किया | होना, ०उपागमन। जाता है, वह 'अभिनिबोध' है। अभिपत्तिः (स्त्री०) [अपि+पद्+क्तिन्] उपागमन, गिरना, अभिनिवेशः (पुं०) [अभि+नि+विश्+घञ्]०आग्रह, आसक्ति, निकट जाना। ०संलग्न, तत्पर, ०तैयार, ०एक निष्टता। "इत्येवमभिनिवेशा अभिपद (वि०) सुशोभित, व्याप्त, संयुक्त। "मृगमदाभिपदा द्वन्द्वमतिः।" (जयो० ६/२) दर्शन की दृष्टि से इसका अर्थ किल।" (जयो० २५/५६) यह है कि "नीतिमार्ग पर न चलते हुए भी दूसरे के अभिपन्न (भू०क०कृ०) [अभि+पद्+क्त] उपागत, समीपागत, तिरस्कार के विचार से कार्य प्रारम्भ करना। संन्निकट। अभिनिषेशिन् (वि०) [अभि+नि+विश् णिनि] आसक्त, तत्पर, अभिपरिप्लुत (वि०) [अभि+परि+प्लु+क्त] भरा हुआ, परिपूर्ण संलग्न। युक्त, डूबा हुआ। अभिनिष्क्रमणं (नपुं०) [अभि+निश्+क्रम ल्युट्] प्रयाण करना, अभिपूरणं (नपुं०) [अभि+पू+ल्युट्] परिपूर्ण, पूर्ण, संपन्न, बाहर निकलना। सिद्धान्त की दृष्टि से बाह्य और आभ्यन्तर भरा हुआ। परिग्रह का त्याग करके प्रव्रज्या की ओर अग्रसर होना। अभिपूर्व (अव्य०) क्रमशः, एक के बाद एक। अभिनिष्टानः (पुं०) [अभि+नि+स्तन्+घञ्] वर्णमाला का अभिप्रणयः (पुं०) [अभि+प्र+नी+अच्] प्रेम, कृपादृष्टि, अक्षर। स्नेह, परस्पर अनुरञ्जन, ०अनुरक्ति, लगाव। अभिनिष्यतनं (नपुं०) [अभि+निस्+पत्+ल्युट्] निकलना, टूट अभिप्रणीत (भू०क०कृ०) [अभि+प्र+नी+क्त] संस्कारित, पड़ना निर्मित, आनीत। अभिनिष्पत्तिः (स्त्री०) [अभि+निस+पत्+वितन] ०समाप्ति, | अभिप्रथनं (नपुं०) [अभि+प्रथ् ल्युट्] विस्तार युक्त, प्रतान, ०सम्पन्नता, पूर्ति, निष्पन्नता। व्यापकता। अभिनिह्नवः (पुं०) [अभि+नि+हु+अप्] छिपाना, मुकरना, अभिप्रदक्षिणं (अव्य०) दाहिनी ओर, दक्षिण ओर। मेटना। अभिप्रमाणक (वि०) प्रमाणानुसारी (जयो० २/६२) अभिनीत (भू०क०कृ०) [अभि+नी+क्त] अभिनय किया गया, अभिप्रवर्तनं (नपुं०) [अभि+प्र+वृत्+ल्युट्] १. प्रयाण, मंचित, अलंकृत, सुसज्जित, पहुंचाया गया, निकट प्रतिगमन, प्रस्थान, २. आचरण, प्रवाह। । लाया गया। अभिप्रायः (पुं०) [अभि+प्र+इ+अच] प्रयोजन, वाञ्छा, अभिनीतिः (स्त्री०) [अभि+नी+क्तिन] इंगित, मित्रता, ०इच्छा, ०कामना, आशय, तात्पर्य, अर्थ, भाव, सहितष्णुता। विचार, ०सम्मति, विश्वास, सम्बन्ध, उल्लेख। (जयो० अभिनेतु (पुं०) अभिनेता, नाटक का नायक। १/११) "नीरीतिभावाभिप्रायो निष्फलो बभूव।" (जयो० अभिनेय (सं० कृ०) [अभि+नी+यत] अभिनय योग्य मंच, वृ० १/११) दृश्य स्थान। अभिप्रायनेदिनी (वि०) अभिप्राय को जानने वाला, अन्तरंगअभिन्न (वि०) ०अखण्ड, पूर्ण, ०एक रूप, ०अपरिवर्तित, भावस्य वेदिकी। (जयो० १४/९) स्थिर। (जयो०२/१२२) दर्शन की दृष्टि में वस्तु वर्णन के अभिप्रायवेदी (वि.) अभिप्राय को जानने वाला। (जयो० ७० लिए भिन्न और अभिन्न दोनों का प्रयोग किया जाता है। १४/१०) For Private and Personal Use Only Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अभिप्रेत ८४ अभियुक्त अभिप्रेत (भू०क०कृ०) [अभि+प्र+इ+क्त] ०लक्षित, उद्दिष्ट, अभिमन्त्रणं (नपुं०) संस्कार जन्य, पवित्रीकरण, मनोरम, ____ अर्थपूर्ण, ०अभिप्रायजन्य, अभिलषित, ०इष्ट, स्वीकृत। आमन्त्रित, परामर्शित। अभिप्रोक्षणं (नपुं०) [अभि+प्र+उ+ ल्युट्] छिड़काव, अभिमरः (पुं०) [अभि+मृ+अच्] ०घात, प्रतिघात, नाश, छिड़कना, सिञ्चित करना। ___०हानि, क्षय। अभिप्लुतः (भू०क०कृ०) [अभि+प्लु+क्त] पराभूत, अभिभूत, | अभिमर्दः (पुं०) [अभि+मृद्+घञ्] ०मर्दन, गलन, उच्छेद, व्याकुल। कुचलना। अभिप्लुवः (पुं०) [अभि+प्लु+अप्] पीड़ा, दु:ख, बाधा, अभिमर्दनं (नपुं०) मद्रन, नाश, उच्छेद। रुकावट। अभिमादः (पुं०) [अभि+मद+घञ] मादकता, मदहोशी, नशा। अभिबुद्धिः (स्त्री०) १. ज्ञानेन्द्रिय। २. ज्ञान की ओर। अभिमानः (पुं०) [अभि+मन्+घञ्] १. अहंकार, गर्व, घमण्ड, अभिबोधितुम् (अभि+बुध+इ+तुमुन्) समझने के लिए, जानने दर्प। (मुनि०) मा चित्तेऽभिमानं भजे-२. स्वाभिमान, के लिए, ०ज्ञान के लिए। पूर्णचन्द्रमभिबोधितुम्' (समु० सम्मान, योग्य भावना। मानकषायोदयापादितोऽभिमानः। ५/१) (जयो० ५/१८) (स०वा०४/३१) अभिबोधिनी (वि०) ०बोधप्रध, ०बोधदायिनी, यथोचित बोध । अभिमानवंत (वि०) स्वाभिमानी, सम्मानीय। (जयो० ७० कारक। (जयो० २/५४) भूरिशो ह्यभिनयानुरोधिनी ५/९) वागलङ्करणतोऽभिबोधिनी।। (जयो० २/५४) अभिमानिन् (वि०) [अभि+मन्+णिनि] १. घमण्डी, अहंकारी, अभिभवः (पुं०) [अभि+भू+अप्] ०पराभव, हार, तिरस्कार, दी, गर्वीला, अहमन्यता। (जयो० १५/१५) प्रत्युपक्रिया ०अपमान, निरादर। बलिरत्नत्रयमृदुलोदरिणिं नाभिभवार्थी मिवाभमानी। (जयो० १४/३४) अभिमानी-मानस्य सुगुणाश्रय। (सुद० १२२) पराकाष्ठामितः। (जयो० वृ० १५/१५) २. समादर सहित, अभिभवनं (नपुं०) [अभि+भू+ल्युट्] पराजित करना, जीतना। सम्मानीय, योग्यता युक्त, पूजनीय, विश्वसनीय, स्नेही। अभिभावकः (वि०) ०रक्षक, प्रतिपालक, ०भाई-बन्धु, (जयो० वृ० १५/१५) ०माता-पिता। (जयो० ३० अभिमानिनी (स्त्री०) नायिका विशेष। [अभि+मन्+णिनि डीप्] अभिभावनं (नपुं०) [अभि+भू+णिच्+ ल्युट] विजयी कराना। वैमुख्यमप्यस्त्वभिमानिनीनामस्तीह यावन्न निशा सुपीना। अभिभाविन् (वि०) पराजित कराने वाला। (वीरो० ९/३९) अभिभाषणं (नपुं०) [अभि+भाष्+ल्युट्] सम्बोधन करना, अभिमुख (वि०) ०अनुकूल, सम्मुख, ०सामने, ० अग्रगण्य, समझाना, बोध देना, दिशानिर्देश देना। ०सन्निकट, ०समीपस्था (जयो० वृ० ६/११) अभिभूत (वि०) आक्रान्त, पराभूत, दुःखित, वेदनाशील। अभिमुख्य (वि०) प्रमुख, मुखिया, प्रधान, द्विरदेष्विव (जयो० ११/११) 'नतभुवो भोगभुजा भिभूतः।' (जयो० ११/११) मेदिनीपतिष्वभिमुख्यः। (समु० २/१६) उक्तवती सुगुणवती अभिभूतिः (स्त्री०) [अभि+भू+क्तिन्] १. प्रभुत्व, प्रधानता, दर-वलिताङ्ग तदाभिमुख्येन। (जयो० ६/३४) आधिपत्य, अधिकार, २. पराभव, जीतना, पराजित करना। "वर्ण्यमानजनस्याभिमुख्येन संमुखत्वेन।" (जयो० ६/३४) अभिभ्रमणं (नपुं०) परिभ्रमण, घूमना, चलना। वभूव उक्त पंक्ति में 'अभिमुख्य' का अर्थ सम्मुखत्व है। नाभिभ्रमणान्धकूपा। (सुद० २/४) । अभियाचनं (नपुं०) [अभि+याच्+युच्] निवेदन, अनुरोध, अभिमत (भू०क०कृ०) [अभि+मन्+क्त] १. इष्ट, वाञ्छनीय, प्रार्थना। ०रुचिकर, योग्य, प्रिय, स्नेही। २. सम्मत, स्वीकार, अभियातिः (पुं०) शत्रु, प्रतिपक्षी। इच्छित, "षट्पद-मत-गुञ्जाभिमता।" (सुद० ८२) अभियानं (नपुं०) [अभि+या+ल्युट्] ०उपगमन, चढ़ाई, अघ-भूराष्ट्र- कण्टकोऽयं खलु विपदे स्थितिरस्याभिमता। आरोहन, ऊपरी गमन। ० युद्धप्रस्थान। (सुद० १०५) जिनवोऽभिमतः पराजय। (जयो० २६/४५) अभियुक्त (भू०क०कृ०) (वि०) [अभि+युज्+क्त] १. अभिमतिः (स्त्री०) स्वीकृति, सम्मति। (सुद० ९१) परिवारित, परिवेष्टित, आच्छादित, २. दक्ष, कुशल, निपुण, अभिमनस् (वि०) उत्कठित, लालायित, आतुर, प्रतीक्षक। For Private and Personal Use Only Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org अभियुज् विज्ञ, प्रज्ञावन्त । ३. आक्रान्त, प्रहार, विघात । ४. प्रतिवादी, प्रतिपक्षी । 'वयोभियुक्तेयमहो नवा लता' (जयो० ५/८८) उक्त पंक्ति में 'अभियुक्त' का अर्थ रहित है। इसकी व्युत्पत्ति इस प्रकार की - "वयोभियुक्ता वयसा नवयौवनेमाभियुक्ता । (जयो० ५/८८) इसी का दूसरा अर्थ- परिवारित भी किया है- 'वयोभिः पक्षिभिरभियुक्ता परिवारिता ।" (जयो० वृ० ५/८८) अभियुज् (अक० ) ०दोष होना, ०वियोग होना, ० विरह होना । "तदथ कोकषयस्यभियुज्यते । " (जयो० ९ / ३८ ) 'अभियुज्यते दूषणं जायते" (जयो० वृ० ९/३८) अभियोक्तृ (वि० ) [ अभि+युज् + तृच् ] आक्रमण करने वाला, ० प्रहारक, ०दोषापकरण, ०आक्रमणकारी, ०आक्रान्ती, ० आरोपक । अभियोगः (पुं० ) [ अभि+युज्+घञ्] १. आरोप, ०दोषारोपण, आक्रान्तक। उपद्रवात्मक परिणाम । (जयो० २७/११ ) 'जनस्य तु स्याविजनेऽभियोगः । केवले नाभियोगस्य, ततः कार्या प्रतिक्रिया । (हि०सं० ३, श्लोक ३) अभियोगिन् (वि०) [ अभि+युज् + णिनि] आक्रमणकारी, दोषारोपक । अभिरक्षणं (नपुं० ) [ अभि + रक्ष् + ल्युट् ] सभी तरह से रक्षा, पूर्ण संरक्षण। अभिरक्षा (स्त्री०) सुरक्षा, पूर्णरक्षा । अभिरति: (स्त्री० ) [ अभि+रम्+ क्तिन्] ०संतोष, हर्ष, ० आनन्द, • लगन, ०अभिरुचि । अभिराम्- अनुचिंतन करें, आराधना करें। (जयो० ४ / ३३० ८५ अभिराम (पुं० ) [ अभि+रम्+घञ् ] ०आनन्ददायक, व्हर्षयुक्त, प्रसन्नतापूर्ण, मनोहर, सुन्दर, मनोरम, सत्समन्वित, प्रसन्नता । (जयो० १०/६६, ३/३३) ग्रहमाव्रजते सतेऽथ वामा क्रियते नाम मया सदाभिरामा । (जयो० १२ / ९१) सद्यभिरामा मनोहरा (जयो० वृ० १२ / ९१ ) समन्ताद् राभाऽभिरामा । (जयो० ६/८५) वसन्तवच्छ्रीसुमनोऽभिरामः । (जयो० १/७७) १० राम सहित । (जयो० १३ / ५९ ) अभिराम (पुं०) अभिराम नामक औषधी । अभिरुचिः (स्त्री० ) [ अभि+रुच्+इन् ] प्रवृत्ति, वाञ्छा, कामना, महत्त्वकांक्षा । नानाकुकर्माभिरुचिं समेति । (जयो० २ / १२७) नैसर्गिका मेऽभिरुचिर्वितर्के। (वीरो० ५ / २३) अभिरुचित (वि० ) [ अभि + रुच्+अच्] हर्षित, प्रेमासक्त, आनन्दित । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अभिलीन अभिरुढ (वि०) अर्थभेदक । अभिरूप (वि० ) [ अभि+रूप् +अच्] ० अनुरूप, ०उपयुक्त, ० योग्य, ०हितकर, आनन्ददायक । अभिलङ्घनं (नपुं०) कूदना, छलांग लगाना । अभिलभ् (सक०) प्राप्त करना, ग्रहण करना, लेना। (मुनि०३३) योगं यः परमात्मनाऽभिलभते योगीत्यसौ संमतः। (मुनि०३३) अभिलष् (सक० ) इच्छा करना, चाहना / अभिलषेत् (जयो० वृ० ३/८६ ) अभिलषित (वि० ) [ अभि + लष् +क्त] इच्छित, वाञ्छित, उत्कण्ठित, प्राप्त करने योग्य। (जयो० वृ० ४/४७) अभिलषितं वरमाप्तवान्, लोकः किन्न विमान । (सुद० ७३) अभिलापः (पुं० ) [ अभि+लप्+घञ् ] ०कथन, ०प्रतिपादन, ० प्रस्तुत, ०घोषण, वर्णन, ० विवेचन, ०प्ररूपण, ०निरूपण । अभिलावः (पुं०) [अभि+लू+घञ्] काटना, निकालना । अभिलाष: (पुं० ) [ अभि+लष्] इच्छा, कामना, उत्कण्ठा, अनुराग, मनोरम, सुन्दर, श्रेष्ठ, मनोरथ । जयस्य मनोरथोऽभिलाष एव। (जयो० वृ० १/९१) व्यर्थं च नार्थाय समर्थन तु पूर्णो यतश्चार्श्यभिलाषतन्तु। (जयो० १/१७) For Private and Personal Use Only अभिलाषक (वि० ) [ अभि+लष् + ण्वुल् ] इच्छा करने वाला, कामना करने वाला, मनोरथी, उत्कण्ठित। अभिलाषुक (वि०) इच्छुक, चाहने वाला। स्तनमदेनाभिलाषुक इति । (जयो० वृ० १२/११७) अभिलाषवती (वि०) उत्कण्ठित, आकांक्षाशीला, (जयो० वृ० १/७८) अभिलाषिन् (वि० ) [ अभि + लष् + णिनि ] इच्छुक, उत्कण्ठित, चाहने वाला। नाभिलाषी भवन् किञ्चिद्दत्तवानेकदा दिने । (समु० ९/९) भवानिनो वत्सलताभिलाषी । (सुद० १/२१) अभिलाषिणि (वि०) स्पृहणीय। (जयो० वृ० ३/६४ ) अभिलाषा ( स्त्री०) आशा, इच्छा, कामना । (जयो० वृ० ५/१०१) अभिलिखु (सक०) लिखना, प्रस्तुत करना, उत्कीर्ण करना, खुदवाना | अभिलिखित (वि० ) [ अभि + लिख+क्त] उत्कीर्ण किया, लिखा गया। अभिलीन (वि०) [ अभि+ली+क्त] आसक्त, संयुक्त, संलग्न, लिपटा हुआ। Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अभिलुलित अभिशस्त अभिलुलित (वि०) [अभि+लुड्+क्त] बाधित, क्षुभित, पीड़ित। अभिवद्धित (वि०) प्रमाण विशेष। अभिवदनं (नपुं०) [अभि+वद्+ल्युट्] नमन, प्रणमन। अभिवन्द् (सक०) वन्दन करना, नमन करना। (सुद० ४/२) अभिवन्दनं (नपुं०) नमन, प्रणमन। (जयो० वृ० २७/५३) अभिवह्निः (स्त्री०) यज्ञाग्नि, यज्ञ की आग। अभिवह्नि कृतप्रदक्षिणोऽसि। (जयो० १२/९५) अभिवर्द्धमान (वि.) बढ़ते हुए, आगे जाते हुए। मिथोऽभिवर्द्धमानतः। (जयो० २३/७८) । अभिवन्द्य (वि०) पूजनीय, समादरणीय। (वीरो० १७/२) अभिवाञ्छ (सक०) चाहना, कामना करना, इच्छा करना। (दयो० १०७) तव दर्शनमिति साऽभिवाञ्छतो। (जयो० १७/१०६) इष्टसिद्धिमभिवाञ्छतो। (जयो० वृ० २/३७) अभिवाञ्छित (वि०) ०अभिलषित, इच्छित, चाहा गया, | ०कामना जन्य। (समु०३/४४) संसिद्धत्यभिवाञ्छितं मनसि। (समु०३/४४) अभिवाञ्छितमग्रतो। (जयो० १०/६८) अभिवादः (पुं०) [अभि+वाद्+घञ्] बोलबाला, बातचीत, वार्तालाप। (जयो० ४/४५, समु० ८/२५) सत्तमोऽसि भवतामभिवाद:। (जयो० ४/४५) सत्यप्रतिज्ञावतोऽभिवादस्तथात्र मिथ्यावदतो विषादः। (समु० १/२८) द्वेधा जिनोयस्य वरोऽभिवाद:। (समु० ८/२५) जिन भगवान् ने बतलाया। अभिवादः (पुं०) प्रणाम, नमस्कार, एक-दूसरे को नमन। अभिवादक (वि०) नमस्कार करने वाला, प्रणामकर्ता। अभिवन्दनक (वि०) अभिवादी, प्रणामकर्ता, नमन करने वाला। (जयो० वृ० २७/५३) अभिवादिन् देखों नीचे। अभिवादी (वि०) वन्दना करने वाला, अभिवन्दनक। (वीरो० १९/४४), (जयो० २७/५३) गणाधीनतयाभिवादी। निराधार वचोऽभिलाषी। (वीरो० १७/२७) अभिविधिः (स्त्री०) [अभि+वि+धा+कि] पूर्णविधि, संबोध, सीमा का प्रारम्भ, प्रारम्भिक विधि। अभिविद् (सक०) प्रकट करना, कहना, व्यक्त करना। अभिविदित (वि०) प्रकट किया, प्रतिपादित, अभिव्यक्त, कथित ययाऽभिविदितो नरपो नार्या। (सुद० १/४०) अभिविश्रम्म (वि०) विश्वासपूर्वक, निष्ठाजन्य, संतोष युक्त। (जयो०१०/११९) ग्रहण ग्रहणस्यादौ परमो भविनोरभिविश्रम्म। (जयो० १०/११९) अभिविश्रुत (वि०) [अभि+वि+श्रु+क्त] सुविख्यात, प्रसिद्ध, अति व्यापक। अभिवीक्ष्य (सं० कृ०) देखकर, अवलोकनकर, निश्चेलक तमभिवीक्ष्य बभूव। (सुद० ४/२) अभिवृत्तिः (स्त्री०) अभिव्यक्ति (सम्य० १०२) अभिवृद्ध (वि.) अत्यन्त विस्तृत, अति विशाल, विशिष्ट। (सुद० ४/२१) सर्वेषामभिवृद्धाय जिनाय समहोत्सवम्। (सुद० ४/२१) 'निशङ्किताद्यष्टगुणाभिवृद्ध।" (भक्ति० ७) उक्त पद में 'अभिवृद्ध' का अर्थ परिपूर्ण, पूर्ण, सम्पूर्ण, परिपुष्ट भी है। अभिव्यक्तः (भू०क०कृ०) [अभि+वि+अंज्+क्त] १. उद्घोषित, प्रतिपादित, प्रकाशित, २. स्पष्ट, स्वच्छ, साफ। अभिव्यक्ति (स्त्री०) [अभि+वि+अं+क्तिन्] प्रदर्शन, स्पष्टीकरण, कथन, विवेचन। अकृत्या तदिभव्यक्ती (हितो०१४) अभिव्यक्तिः (स्त्री०) ०प्रकाशित होना, स्पष्ट दिखना, अभिव्यक्त करना। "सौभाग्यमाहत्सीयमभिव्यनक्ति" (वीरो० वृ० १२) अभिव्यञ्जनं (नपुं०) [अभि+वि+अञ्ज ल्युट्] प्रकट करना, अभिव्यक्त करना, प्रकाशन करना। अभिव्यापक (वि०) [अभि+वि+आप+ण्वुल्] १. प्रसार करने वाला, फैलाने वाला, २. समझने वाला, स्पष्ट करने वाला। अभिव्याप्तिः (स्त्री०) [अभि+वि+आप+क्तिन्] ०सम्मिलित करना, जोड़ना, ०व्यापक बनाना, सर्वत्र फैलाना। अभिव्यावहरणं (नपुं०) [अभि+वि+आ+ह+ल्युट्] ०उच्चारण करना, ०ध्वनित करना, ०बोलना कसना। अभिशंसक (वि०) [अभि+शंस्+ण्वुल] अपमानक, दोषारोपक, कलंककर। अभिशंसनं (नपुं०) [अभि+शंस्+ल्युट] दोषारोपण, आक्षेपक, अपमान, निरादर। अभिशङ्का (स्त्री०) [अभि+शङ्क+अ+टाप्] आशङ्का, संदेह, चिन्ता, भय। अभिशपनं (नपुं०) [अभि+शप् ल्युट्] ०शाप, दोषारोपण, आरोप, ०लाञ्छन, मिथ्याशङ्का। .. अभिशब्दः (पुं०) [अभि+शब्द] उद्घोष, ०कथन, प्रतिपादन, प्ररूपणा, निरूपण। अभिशब्दित (वि०) [अभि+शब्द+क्त] ०प्रकाशित, प्ररूपित, निरूपित, प्रतिपादित, कथित, भाषित। अभिशस्त (भू०क०कृ०) [अभि+शंस्+क्त] ०अलंकित, ०अपमानित, बाधित, ०दुःखित, ०अशुभी, पापी, दुष्ट। For Private and Personal Use Only Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अभिशस्तिः ८७ अभिसम्बन्धः अभिशस्तिः (स्त्री०) [अभि+शंस्+क्तिन्] ०अनिष्ट, हानिकर, कलंक, अपमान, दुष्ट, दुर्भाग्य, संकट। ) [अभि+शप्+णिच्+ ल्युट्] शाप देना, दोषारोपण, लाञ्छन। अभिशीत (वि०) [अभि+श्यैक्ति] शीतल, शदे, ठण्डा। अभिशोचनं (नपुं०) [अभि+शुच्+ ल्युट्] कष्ट, पीड़ा, ०अत्यन्त शोक, प्रगाढ़ व्याधि, तीव्र कष्ट। अभिश्रवणं (नपुं०) [अभि+श्रु+ल्युट्] उच्चारण, श्रुतश्रवण। अभिषङ्ग (पुं०) [अभि+ष+घञ्] १. आसक्ति, लगाव, संयोग, सम्पन। २. हार, पराजय। ३. वैराग्य, वियोग, ४. अभिशाप, लाञ्छन, आरोपण, ०अनादर। अभिषञ्जनं (नपुं०) आसक्ति, संयोग, सम्पर्क। अभिषवः (पुं०) द्रव या दृश्य द्रव्य। अभिषवः (पुं०) अभिषेक, स्नान “जिनेश्वरस्याभिषवं सुदर्शनः।" (सुद० ११४) अभिषिक्त (भू०क०कृ०) [अभि+सिंह+क्त] अभिषेक किया गया, स्नान युक्त (सम्य० ४१) अभिषिंच देखो नीचे। अभिषिञ्च (सक०) [अभि+सिंच] ०अभिषेक कराना, स्नान कराना, जलधारा छोड़ना। 'जिनपं चाभिषिषेच भक्तितः।' (सुद० ३/५) ०अभिषेक, जलाभिषेक का प्रयोग भगवन् प्रतिमा के लिए होता है। किन्तु राज्याभिषेक स्नान आदि के प्रयुक्त 'अभिषिञ्च' शब्द का अर्थ स्नान कराना, छिड़काव कराना, जल सिंचन करना, तिलक करते हुए संस्कार करना। 'अभिषिञ्च' अर्थात् अभिषेक के लिए प्रयुक्त जल शुद्ध, प्रासुक या पवित्र होता है। पञ्चम् सर्ग के (९८) श्लोक में 'अभिषिञ्चामि' क्रिया स्नान से सम्बन्धित है। अभिषेकः (पुं०) [अभि+सिंच्+घञ्] १. अभिषेक, पवित्र जलाभिषेक, प्रतिमाभिषेक। २. स्नान, सिञ्चन। शरीरि-वर्गस्य तमा विवेकहान्या महान्याग गुणाभिषेकः (जयो० १६/२५) उक्त पंक्ति में 'अभिषेक' का अर्थ समर्पित, संयमित, संस्कारित है। 'हे यागगुणाभिषेक! यागस्य हवनस्य गुणे वृद्धिकरणेऽभिषेको दीक्षाप्रयोगो यस्य तत्सम्बोधनम् अर्थात् हे यज्ञकर्तः।" (जयो० वृ० १६/२५) अभिषेचनं (नपुं०) [अभि+सिच्ल्यु ट्] प्रक्षालन, जलाभिसिंचन। (जयो० २२/२२) अभिषेचन-विधि (स्त्री०) प्रक्षालन विधि। (वीरो० २२/२२)। अभिषेणन (नपुं०) [अभि+सेना+णिच्+ल्युट] कूच करना, सैन्य ले जाना, शत्रु की ओर जाना। अभिष्टवः (पुं०) [अभि+स्तु+अप] प्रार्थना, अर्चना, पूजा, प्रशंसा, स्तुति। अभिष्यः (पुं०) [अभि+स्यन्द्+घञ्] १. टपकना, बहना, स्राव होना। २. अतिरेक, आधिक्य, विशेष वृद्धि। ३. नेत्र रोग होना। अभिष्वङ्गः (पुं०) [अभि+स्व+घञ्] सम्पर्क, संयोग, स्नेह, अनुराग। विषयसुखे राग आसक्तिः । (जै०११६) अभिसंश्रयः (पुं०) [अभि+सम्+श्रि+अच्] आश्रय, आधार, शरण। अभिसंस्तवः (पुं०) [अभि+सम्+स्तु+अप्] सुस्तवन, विशेष स्तुति, महगुणगान। अभिसंतापः (पुं०) [अभि+सम्+तप्+घञ्] ०संघर्ष, अति दुःख, विशेष व्याधि, ०पीड़ा, ०अधिक आकुलता। अभिसन्देहः (पुं०) [अभि+सम्+दिह्+घञ्] १. विनिमय, विनियोग, २. अति संदेह, अधिक संशय। अभिसन्दध्यात् (भू०) लगाना, व्यतीत करना। 'समयं सोऽभिस्सन्दध्यात्परमं।' (सुद० १३२) अभिसन्धः (पुं०) [अभि+सम्+धा] ०लाञ्छक, ०वञ्चक, निन्दक, छली, कपटी। अभिसंधा (स्त्री०) [अभि+सम्+धा+अ+टाप्] ०भाषण, उद्घोषण, प्रस्तुतिकरण, विवेचन, प्रतिज्ञा, कथन। अभिसन्धानं (नपुं०) [अभि+सम्+धा+ल्युट्] प्रतिज्ञा, उद्घोषण, ०कथन, ०प्रयोजन, उद्देश्य, लक्ष्य। अभिसन्धिः (स्त्री०) [अभि+सम्+धा+कि] विचारधारा, ०भाषण, उद्देश्य, प्रवचन ०अभिप्रेत, ०सम्मति, विश्वास, ०अनुबन्ध, प्रतिज्ञा, ०प्रस्ताव। 'कृताभिसन्धिरभ्यङ्गनीराग, महितोदय।" (जयो० २८०८) अभिसन्धित (वि०) [अभि+सम्+धा+णिनि+क्त] 'वञ्चकता, ठगीभावसा। रमन्ते प्राङ्गणेऽन्येनाहो विचित्राऽभिसन्धिता। (जयो० २/१४९) अभिसमवायः (पुं०) [अभि+सम्+अव+इ+अच्] एकता, संयोग, मेल, सम्बन्ध। अभिसम्पत्तिः (स्त्री०) [अभि+सम्+पद्+क्तिन्] परिवर्तन, बदलना, प्रभावित होना। अभिसम्पातः (पुं०) [ अभि+सम्+पत्+घञ्] ०समागम, संगम, संयोग, संघर्ष, ०युद्ध। अभिसम्बन्धः (वि०) [अभि+सम्ब न्ध+घञ्] १. संपर्क, सम्बन्ध, समवाय, एकरूपता, संयोजन। २. मैथुन, अब्रह्म For Private and Personal Use Only Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अभिसम्मुख ८८ अभीष्टदायक अभिसम्मुख (वि०) सम्मुख, सामने, प्रत्यक्ष। अभिसारः (पुं०) [अभि+सृ+अच्] अनुगामी, अनुचर, मित्र। अभिसरणं (नपुं०) [अभि+सृज्+घञ्] सृष्टि, रचना, निर्माण। अभिसर्जनं (नपुं०) [अभि+सृज+ल्युट्] उपगमन, सम्मिलन, सम्प्राप्ति, संयोग। अभिसर्ग (पुं०) उपहार भेंट, दान, प्रदान। अभिसात्वः (पुं०) [अभि+शान्त्व+घञ्] धैर्य, साहस बनाना। अभिसायं (अव्य०) सान्ध्य समय, सूर्यास्त काल। अभिसारः (पुं०) [अभि+सृ+घञ्] नियत मिलन, नायिका का नायक के प्रति मिलन, काम, इच्छा। अभिसारिन् (वि०) [अभि+स+णिनि] गमनशील, प्रयाणशील, उद्यत। चलने वाले। "शनकैः सम्प्रति सस्वजेऽभिसारी।" (जयो० १४/९१) अभिसरतीत्यभिसारी कामुकः (जयो० वृ० १४/१९) 'सैन्यसागर इहाभिसारिणः" (जयो० २१४८) सेनारूपसमुद्रेऽभिसारिणो-गमनशीलाः।" (जयो० वृ० २१/८) अभिसिञ्च (सक०) [अभि+सिच] छोड़ना, समर्पण करना। 'कर-वारिरूहेऽभ्यसिञ्चदारादिति" (जयो० १२/५३) कर कमल में जल की धारा समर्पण कर दी। अभिस (सक०) अभिसरण करना, गमन करना, ०अनुसरण करना, गावस्तृणमिवारण्येऽभिसरन्ति नवं नवम्। (जयो० २/१४७) अभिसरन्ति-गच्छन्ति। (जयो० वृ० २/१४७) अभिसरन्ति तरां कुसुमक्षणे समुचिताः सहकारगणाश्च। (वीरो० ६/३५) अभिसृत (वि०) सेवित, अनुसरित। भूराख्याता फलवत्ताया विलसति सद्विनयाभिसृता। (सुद०८२) अभिस्नेहः (पुं०) [अभि+स्निह+घञ्] आसक्ति, अनुराग, प्रेम, ०इच्छा, प्रीतिभाव। अभिस्फुरित (वि०) [अभि+स्फुर्+क्त] विकसित, प्रफुल्लित, विकासयुक्त। अभिहत (वि०) [अभि+हन्+क्त] घातक, प्रहत, विदारक. दु:खी, पीडित, शोक ग्रस्त।। अभिहतिः (स्त्री०) [अभि+हन्+क्तिन्] प्रहार, घात, चोट करना, प्रताड़ना, पीटना, घायल करना। अभिहरणं (नपुं०) [अभि+ह ल्युट्] सन्निकट/समीप लाना, जाकर लाना। अभिहवः (पुं०) [अभि-ह्वेअप्] आमन्त्रण, निमन्त्रण, आह्वानन अविहारः (पुं०) [अभि+हाघञ्] १. हरण करना, चुराना, ०ले जाना, छीनना, २. आक्रमण, आघात, प्रहार। अभिहासः (पुं०) [अभि-हस्+घञ्] ०परिहास, ०हंसी, विनोद अभिहित (भू०क०कृ०) [अभि+धा+क्त] ०कथित, प्रोक्त, ०भाषित, सम्बोधित उद्घोषित। सम्यक्त्वयाभिहितम स्मदुपक्रिया)। (जयो० १२/१४६) अभिहत (वि०) अभिघट, दोष विशेष, आहार दोष। अभी (वि०) निर्भय, निडर, भय मुक्त। स्वैः सहस्रतनयः सुराडभी:। (जयो० ७/८७) अभीक (वि०) [अभि+कन्] ०आतुर, ०इच्छुक, कामुक, ०अभिलाषी, ०लालसाजन्य, विलासी। अभीक्ष्ण (वि०) [अभि+क्ष्णु+ड] सतत्, निरन्तर, सदा ही, बार-बार। अभीक्ष्णं (अव्य०) निरन्तर, पुनः, सदैव, लगातार। अभीत (वि०) भयमुक्त, निडर, निर्भय। “यत्प्रतापतोऽभीतभी भावात्।" (जयो० ६/५९) अभीप्सव (वि०) वाञ्छक, इच्छुक, कामना जन्य, चाहने वाला। सर्वेऽप्यमी मङ्गलतामभीप्सवः। (जयो० ३/९) अभीप्सित (वि०) [अभि+आप+सन्+क्त] वाञ्छित, इच्छित, चाहा गया, अभिलषित। "हर्षत्तयाशु मुहरस्मदभीप्सितानि" (जयो० १२/१४६) 'अभिप्सितानि अस्मदभिषितानि।" (जयो० वृ० १२/१४६) अभीप्सिन् (वि०) [अभि आप्। सन् णिनि] इच्छुक, वाञ्छक, चाहने वाला। अभीरः (पुं०) [अभि+ईर्+अच्] अहीर, गोपाल, गडरिया। अभीशापः (पुं०) [अभि शप्+घञ्] दोषारोपण, लाञ्छन, कोसना। अभीशुः (पुं०) [अभि+अश्+उन्] लगाम, बागडोर। अभीष्ट (भू०क०कृ०) [अभि+इष्+क्त] १. वाञ्छित, इच्छित, अभिलषित, चाहा गया। (समु० २/१८, वीरो० ४/५३) "अभीष्ट-संभारती विशाला।" (जयो०८/३७) "स्फुटस्तनाभोग-मिषादभीष्टम्" (जयो० ११/३६) उक्त पंक्ति में 'अभीष्ट' का अर्थ सारभूत भी है। मङ्गलकर-'सुरभिर्नुरभीष्टदर्शना मे।" (जयो० १२/२३) ०अभीष्टं- मङ्गलकरं दर्शन यस्याः सा। (जयो० वृ० १२/२३) प्रमाणित-य: विज्ञैरभीष्ट: कुपलख्यया यः।' (जयो०११/४१) अभीष्टः (पुं०) प्रियतम, प्रिय। अभीष्टकृत्व (वि०) उचित फलदायी। "सम्पद्यते सपदि तद्वदभीष्टकृत्वम्।" (सुद० ४/३०) अभीष्टदायक (वि०) वरदायक, मङ्गलकारक। (जयो० २२/३) For Private and Personal Use Only Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अभीष्टपुष्टि ८९ अभ्यतीत अभीष्टपुष्टि (वि०) वाञ्छितसिद्धि। (जयो० २ । समान कह नहीं सकता है। तात्पर्य यह है कि पुरुष की अभीष्ट-संवदक (वि.) ज्ञाता, कुशलज्ञ, ज्ञानी। (जयो० पत्नी को पुत्र माता कहता है और पति पत्नी कहता है, वृ० १५/५३) प्रियवादी, यथेष्ट भाषी। उसे सर्वथा न माता रूप कहा जा सकता है और न पत्नी अभीष्टसिद्धिः (स्त्री०) वाञ्छितनिष्पत्ति, इच्छित अर्थ की रूप, क्योंकि उसमें माता और पत्नी का व्यवहार पुत्र और सिद्धि। (जयो० २३/३५) (वीरो० २०/१७) 'अभीष्टसिद्धेः पति की अपेक्षा से है, इसी तरह किसी वस्तु को भेद और सुतरामुपाय:।' (सुद० १०१) अभेद दोनों रूप कहा जाता है। प्रदेश भेद न होने के अभीष्टा (स्त्री०) प्रियतमा, प्रेमिका। कारण वस्तु अपने गुणों से अभेद रूप है और संज्ञा, अभुग्न (वि०) सीधा, सरल, एक सा, वक्रता रहित। लक्षण आदि की अपेक्षा भेद रूप हे। दो रूप वस्तु को अभुज (वि०) बाहुविहीन, खञ्ज, लूला, लंगड़ा। एकान्त रूप से एक रूप कहना तलवार आकाश को अभुजिष्या (स्त्री०) एकाकी स्त्री, अकेली नारी। खण्डित करने के समान अशक्य है। (जयो० २६/७६) अभूत (वि०) अविद्यमान, मिथ्या, सत्ताविहीन। (वीरो० १४/४७) अभेद-भेदात्मकमर्थमहंस्तवोदितं संकलयन् समर्हम्। शक्नोमि अभूतपूर्व (वि०) जो पहले न हुआ हो। "समागमः पत्नीसुतवन्न वक्तुं किलेह खड्गेन नभो विभक्तुम्।। क्षत्रिय-विप्र-बुद्ध्योरभूतपूर्वः।" (वीरो० १४/४७) अभेद-वृत्तिः (स्त्री०) व्यतिरेक न होना, द्रव्यार्थत्वेनाश्रयेण अभूतार्थ एक नय भी है। जिसका विषय विद्यमान न हो या तदव्यतिरेकादभेदवृत्तिः। (रा०वा०४/४२) असत्यार्थ हो। जैसे गधे के सींग विद्यमान न होने के अभेद-स्वभावः (पुं०) एक रूप परिणाम, एक रूप भाव। कारण अभूतार्थ है, और घट-पट आदि संयोगी पदार्थ गुण-गुणी आदि में एक रूप भाव अभेद स्वभाव है। असत्यार्थ होने के कारण अभूतार्थ है। अभेदोपचारः (पुं०) एकत्व का अध्यारोप। अभूतार्थता (वि०) अद्भुतरूपता। (जयो० १३/९९) अभेद्य (वि०) अविभाज्य, अविभक्त, अभिभाजित। अभूतिः (स्त्री०) १. सत्ताहीनता, अविद्यमानता।, २. विभूति रहित, धन रहित। अभोगः (पुं०) विस्तार, उन्नत। "बृहत्स्तनाभोगवशाद्विलग्नः।" अभूमिः (स्त्री०) अनुपयुक्त स्थान, पृथ्वी का अभाव, स्थान (जयो० ११/३४) ०(वि०) भोग रहित, ०भोग विहीन। रहित। अरीकिर्तापि सुरीतिकर्ताऽऽगसामभूमिः स तु भूमिकर्ता। अभोक्तृत्व नयः (पुं०) नय की एक दृष्टि। (जयो० १/१२) अभूमिः-स्थान रहित इति। (जयो० वृ० १/१२) अभोक्तृत्वशक्तिः (स्त्री०) उपरम स्वरूप, समस्त कर्मों से अभूषणत्व (वि०) शोभा विहीनता। (समु० ९/३) किये गए, ज्ञातृत्वमात्र से भिन्न परिणामों के अनुभव का अभेद (वि०) अविभक्त, समरूप, भेदाभाव, भिन्नता रहित। उपरमस्वरूप। अभेदः (पुं०) द्रव्यों और गुणों की युगपत् वृत्ति, प्रदेश भेद न अभोज्य (वि०) अभक्ष्य, खाने में अयोग्य। होने से गुण-गुणी में अभेद। (जयो० वृ० २६/८१) अभ्यगत (वि०) नष्ट हुआ, समाप्त हुआ, क्षीण हो गया। तमो अभेद-शतपत्र के समान सत्य है, सौ पत्र और कमल में विलयमभ्यगात्। (सुद० १०८) भेद नहीं है। अभ्यग्र (वि०) निकट, समीप, पास। अभेदनयः (पुं०) अभेदनय, गुण-गुणी/अवयव-अवयवी/अङ्ग अभ्यङ्क (वि०) तात्कालिक चिह्न से युक्त। अङ्गी सम्बन्ध विवक्षी। सदेतदेकं च नयादभेदाद् द्विधाऽभ्य- अभ्यङ्ग (वि०) [अभि+अञ्ज+घञ्] मालिश, उपटन, लेप। धास्त्वं चिदचित्सुप्रभेदात्।" (जयो० २६/९२) अभ्यङ्गं (नपुं०) शरीर के प्रति, देह प्रति। "अङ्गमभिव्याप्य अभेदभुज (वि०) एक रूपता, अनुकूलप्रतिकूल पदार्थों में वर्तत इत्यभ्यङ्ग शरीरं प्रति।" (जयो० वृ० २८/८) एक रूपता को धारण करने वाली। भूत्वा ममाभेदभुजः अभ्यङ्गनी-राग (पुं०) शरीर के प्रति रोग। समाधीः। (भक्ति०२६) अभ्यञ्जन (नपुं०) [अभि+अञ्ज ल्युट] मालिश करना, उपटन, अभेद-भेदात्मक (वि०) एक विचारात्मक दार्शनिक दृष्टि मर्दन। जब व्यक्ति अभेद और भेद रूप पदार्थ को पूर्ण रूप | अभ्यतीत (वि.) ०अतिक्रान्त, समाप्त हुआ, ०व्यतीत हुआ, ग्रहण करता हुआ कहना चाहता है, सब पत्नी के पुत्र के For Private and Personal Use Only Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अभ्यर्थना अभ्यागमः ०परित्यक्त। "मारवाराभ्यतीतः सन्नथो नोदलताश्रितः।" | अभ्यर्हित (वि०) [अभि+अ+क्त] १. समादरित, सम्मानित, (जयो० २८/११) 'स्वयं हि तावज्जडताभ्यतीत।' (जयो० पूजित, प्रतिष्ठित, २. योग्य, तुल्य, समीचीन, उपयुक्त। १/८५) अभ्यतीतः परित्यक्तः सन्। (जयो० वृ० १/८५) अभ्यवकर्षणं (नपुं०) [अभि+अव्+कृष्+ ल्युट्] अनुगमन अभ्यर्थना (स्त्री०) याचना, मांगना, चाहना। (जयो० वृ० करना, बहिर्निस्सरण, अभिगमन। १२/१४४) अभ्यवकाशः (पुं०) [अभि+अव+काश+घञ्] स्वच्छ स्थान, अभ्यधात् (वि०) दिखलाना, अवलोकन करना। 'तनुसौर- खुला स्थान। भतोऽभ्यधाद्वरं।' (सुद० ३/२५) अभ्यवस्कन्दः (पुं०) [अभि+अव्+स्कंद्+पञ्] शत्रु सन्निकट अभ्यधीत (वि०) अवलोकित (सम्य० ५/४) आना, भिड़ना, आक्रमण करना, प्रहार करना, आघात, अभ्यधिक (वि०) देखों अभ्यधिक। प्रतान। अभ्यधिका (वि०) ०अपेक्षाकृत अधिक, अत्यधिक, अभ्यवहरणं (नपुं०) [अभि+अव्+ह+ल्युट्] निम्नोक्षेपण, विशालतम, ०साधारण, अनुपम। 'इत्यमभ्यधिका अ:पतन, गिराना, फेंकना। ममास्त्य।' (जयो० १२/२२) अभ्यवहारः (पुं०) [अभि+अव+ह+घञ्] आहारग्रहण, भुंजन, अभ्यनुज्ञा (स्त्री०) [अभि+अनु+ज्ञा+अङ्ग+टाप्] सहमति, खादन, खाद्य-पेयन। अभ्यवहार्य (वि०) [अभि+अव+ह+ण्यत्] आहार्य, भोज्य, स्वीकृति, आदेश, आज्ञा। अभ्यनुयोक्त्री (वि०) निपुण बनाने वाली, योग्य करने वाली। खाद्य, खाने योग्य। अभ्यसनं (नपुं०) [अभि+अस्+ ल्युट्] ०अनु + अभ्यास, (सुद० १२२) "चतुराख्यानेष्वभ्यनुयोक्तीं।" (सुद० १२२) ०अनवरत पाठ, ०क्रमशः अध्ययन, निरन्तर-चिन्तन। अभ्यन्तर (वि०) [अभि+अन्तरः] भीतरी, आत्म सम्बन्धी, अभ्यसूचक (वि०) [अभि+असु+ण्वुल्] ईष्यालु, निंदक, आन्तरिक, निकटतम, घनिष्ट। आरोपक, दोषारोपक। अभ्यन्तर-इंद्रियं (नपुं०) मन। अभ्यसूया (स्त्री०) [अभि+असु+यक्+अ+टाप्] ईर्ष्या, डाह, अभ्यन्तर-करण (वि०) आन्तरिक कला। घृणा, द्वेष, आरोप, विरोध। अभ्यन्तर-कारण (वि०) आन्तरिक करण, मन का हेतु। अभ्यसिचि (वि०) अभिषिक्त, स्नापित। (जयो० ३/२२) अभ्यन्तरीकृ (सक०) [अभ्यन्तर+च्चि+कृ] दीक्षित करना, अभ्यस्त (भू०क०कृ०) उचित, अध्ययन युक्त, अभ्यास गत। परिचित करना। (जयो० वृ० २१/२४) विषय-वस्तु का अध्येता। अभ्यन्तरीकरणं (नपुं०) [अभ्यन्तर+च्चि+कृ+ल्युट्] दीक्षित अभ्याकर्षः (पुं०) [अभि+आ+कृष्+घञ्] ललकारना, करना, परिचित करना। आमना-सामना करना, भिड़ना।। अभ्यमनं (नपुं०) [अभि+अम्+ल्युट] प्रहार, घात, हानि। अभ्याकाक्षित (वि०) [अभि+आ+काङ्ख्+क्त] मिथ्या अभ्ययः (पुं०) [अभि+इ+अच्] जाना, पहुंचना। __ आरोप, निर्मूल कथन, निराधार प्रतिवेदन, इच्छा, आकांक्षा। अभ्यर्चनं (नपुं०) [अभि+अ+ ल्युट्] ०पूजन, ०अर्चन, | अभ्याख्यानं (नपुं०) [अभि+आ+ख्या+ल्युट्] ०आरोप लगाना, ० श्रद्धान, समादर, ०सम्मान। निन्दा, मिथ्या आरोप, ०असत्य-कथन, ०लाञ्छन। अभ्यर्ण (वि०) [अभि+अद्+क्त] सन्निकट, समीप, पास। अभ्यागत (वि०) (भू०क०कृ०) [अभि+आ+गम्+क्त] अभ्यर्णं (नपुं०) सान्निध्य, साथ, सहभागी, सामीप्य। ०सन्निकट गया, ०समीपस्थ, आगतस्थ, अतिथि भाव अभ्यर्थनं (नपुं०) [अभि+अर्थ+ ल्युट्] प्रार्थना, अनुरोध, निवेदन, प्राप्त, समागत। 'अभ्यागतानभ्युपगम्य सुभ्रवः।" (जयो० अनुयन। ५/९२) अभ्यागतानुपरिस्थतान्-(जयो० वृ० ५/९२) अभ्यर्थिन् (वि०) [अभि+अर्थ+णिनि] प्रार्थना करने वाला, "अभ्यागताय च मां लक्ष्मीमिवाभि लाषापूर्तिकर्ती।" (जयो० याचक, निवेदक, प्रतिवेदक, ०अनुरोधक। वृ० १२।९२) अतिथयेऽभ्यागताय। (जयो० वृ० १२/१२) अभ्यर्हणा (स्त्री०) [अभि+अ+युच्+गप्] प्रार्थना, पूजा, | अभ्यागमः (पुं०) [अभि+आ+गम्+घञ्] १. सन्निकट आना, अर्चना, सम्मान, समादर। सामीप्य, अनुगमन। २. युद्ध, संग्राम, विद्वेष, कलह। For Private and Personal Use Only Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अभ्यागमनं अभ्युदितातुकम्प अभ्यागमनं (नपुं०) [अभि+आ+गम्+ ल्युट्] अनुगमन, अभ्युक्षणं (नपुं०) [अभि+उ ल्युट्] अभिसिंचन, तर करना, __ उपागमन, प्राप्त होना, पहुंचना। छींटना। अभ्यागारिकः (पुं०) [अभि+आगार+ठन्] ०यत्नशील, | अभ्यचित (वि०) प्रचलित, समुचित, विशेष। अमितोन्नतिमन्ति परिवार-रक्षणशील। निर्मलान्यभ्युचितायत-विस्तराणि वा। (जयो० १३/६५) अभ्याघातः (पुं०) प्रहार, आक्रमण, हनन, विध्वंस। अभ्युच्चयः (पुं०) [अभि+उत्+चि+अच्] १. बुद्धि, आगम। अभ्याङ्गन (नपुं०) [अभि+अङ्ग ल्युट्] तैल मर्दन, शरीर २. समुन्नत, अतिशिष्टि। मालिश। (मुनि०११) अभ्युज्झित (वि०) त्यक्त, परित्यक्त, त्याज्या ‘स कोऽपि अभ्याइनकारिणी (वि०) तैल मालिश करने वाली। (मुनि०व० योऽभ्युज्झित-कामसत्कृतिः।" (वीरो० ९/६) ११) अभ्युत्क्रोशनं (नपुं०) [अभि+उत्+क्रुश्+ल्युट्] उच्चोचारण, अभ्यावदानं (नपुं०) [अभि+आ+दा+ल्युट्] उपक्रम, प्रारम्भ, उच्चीत्कार, उच्चोदघोष। सूत्रपात्र करण, समारम्भ। अभ्युत्थानं (नपुं०) [अभि+उद्+स्था ल्युट्] १. उठना, अभ्याधानं (नपुं०) [अभि+आ+धा+ल्युट्] डालना, रखना, सम्मानार्थ उठना, प्रस्थान करना, गमन करना, कूच प्रक्षेपण, निक्षेपण। करना। २. उन्नति, सम्पन्नता, मर्यादा। अभ्यान्त (वि०) [अभि+आ+अम्+क्त] व्याधिजन्य, रोगाक्रान्त, अभ्युत्पतनं (नपुं०) [अभि+उत्+पत्+ल्युट्] कूद पड़ना, रोगी, पीडित, रूग्ण। गिरना, ०आक्रमण करना, ०उत्क्रमण, अनुत्पतन, छलांग अभ्यापातः (पुं०) [अभि+आ+पत्+घञ्] सङ्कट, आपत्ति, लगाना। विपत्ति, दुर्भाग्य। अभ्युदयः (पुं०) [अभि+उद्+इ+घञ्] उद्गम, उदय, अभ्यामर्दः (पुं०) [अभि+आ+मृद+घञ्] आरोहण, चढ़ना, नि:सरण, उत्थान, उन्नति, सफलता। २. उपक्रम, सवार होना, ऊपरीगमन। उत्सव, आनंद। 'समुत्सवकरस्याऽस्याऽभ्युदयेन रवेरिव।' अभ्यावृत्तिः (स्त्री०) [अभि+आ+वृत्+क्तिन्] अनुचिन्तन, (जयो० १/१११) अभ्युदयेन-पुण्यपरिपाकेन। (जयो० वृ० पुनर्चिन्तन, दुहराना, बार-बार याद करना, ०अनुप्रेक्षण, अनुशीलन। १/१११) जयोदयं स्वाभ्युदयाय शक्त्या। (जयो० १/१) अभ्याश (वि०) [अभि+अश्+घञ्] व्याप्त, सन्निकता, अभ्युदयो-ज्ञानादिलक्षणः। (जयो० १/१) उक्त पंक्ति में समीपता, प्राप्त होना। अभ्युदय का अर्थ 'कल्याण' भी। 'कुतः परस्याभ्युदयं अभ्यासः (पुं०) [अभि+आ+अस्+घञ्] आवृत्ति, अध्ययन, सहेरन्।" (सुद० २/४४) 'भद्रस्याभ्युदयो यथा।' (समु० तल्लीन, अनवरत भाव, (जयो० वृ० ११/४५) ९/३१) (भद्र की उन्नति) अभ्यासगत (वि०) आवृत्ति प्राप्त, अध्ययन गत, मनन युक्त। अभ्यदुयभाजि (वि०) अभ्यदुय शील, उन्नतिशील, उदय अभ्यास-तत्पर (वि०) अभ्यास में लीन। ___ करने वाला। 'दृष्टिरभ्युदयभाजि जनानां।' (जयो० ५/२८) अभ्यास-तल्लीन (वि०) अभ्यास तत्पर, ०अध्ययनशील, मनन अभ्युदस्त (वि०) समुत्थापित, उठाता हुआ, ऊँचा करता भाव सहित। हुआ। 'कलितोष्ममिषोऽभ्युदस्त-वक्त्रो।' (जयो० १२/१२२) अभ्यासपर (वि०) अध्ययन में लीन, अभ्यासाग्रणी, प्रयत्नशील। अभ्युदारः (पुं०) अत्युत्कृष्ट, अत्यन्त उदार, प्रबलता युक्त। 'नरायितस्येवाभ्यासपरा।' (जयो० १४/२६) 'प्रमुक्तये सारतयाभ्युदारं।' (भक्ति०सं०१०) 'सारोऽभ्युदारो अभ्यासादनं (नपुं०) [अभि+आ+सद-णिच्+ल्युट्] शत्रु का दयिते।' (जयो० १७/३६) सामना करना, आक्रमण करना। अभ्युदाहरणं (नपुं०) [अभि+उद्+आ+ह ल्युट्] निदर्शन, अभ्याहननं (पुं०) [अभि+आ+हन्+ ल्युट्] उपघात, प्रहरन, उदाहरण, विपरीत युक्ति के लिए दृष्टान्त। पीडन, वाधन, हनन, प्रतिपीडन, प्रतिघातन। अभ्युदित (वि०) प्रकट हुई, व्यक्त हुई, निकली। स्वस्मिन् अभ्याहारः (पुं०) [अभि+आ+ह+घञ्] अपहरण, अनुग्रहण, __कला साभ्युदितास्तु यस्य। (भक्ति० सं० ३९) सं आनयन, बंधन बनाना, रोकना। अभ्युदितातुकम्प (वि०) दयाधारिन्, करुणाशील, अनुकम्पावान्। For Private and Personal Use Only Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अभ्युद् अभ्रमलोकता 'देवीति यासौ नवनीत-सम्पत्तयोदियायाभ्युदितानुकम्प! (जयो० ०प्रशंसक, समालोचक। उपासक ०देव्योऽभ्युपासन२०/८४) समर्थकारिपक्षाः' (वीरो० ५/४२) अभ्युद् (सक०) स्वीकारना, चलना, निकलना। 'इदं स्विदते | अभ्युपेत (भू०क०कृ०) [अभि+उप+इ+क्त] १. उपागत, प्राप्त, दुतमभ्युदेति।' (सुद० १/५) समागत, समीप जाना। (जयो० ४/३६) २. अङ्गीकृत, अभ्युद्गमः (पुं०) [अभि+उद्+गम्+घञ्] निकलना, स्वीकृत, ज्ञात, भिज्ञ, व्याकुलिता निर्वारिमीनमितमिङ्कितमभ्युपेता। सम्मानार्थ आना, उठना, आदर देना। (सुद० ८६) अभ्युद्गतिः (स्त्री०) उठना, आदरार्थ बाहर निकलना, अतिथि अभ्युपेत्य (अव्य०) [अभि-उप+इ+ल्यप्] प्राप्त करके, पहुंच सम्भावनार्थ जाना। करके, समीप जाकर। 'अभ्युपेत्य पुनराह तमेषा' (जयो० ४/३६) अभ्युद्धृतिः (स्त्री०) स्वीकार करना, अङ्गीकार करना। 'स्वामिन् अभ्युषः (पुं०) [अभितः उ ऊष्यते अग्निना दह्यते] खूवी रोटी। आज्ञाऽभ्युदृध्तये तु सेवकस्य चेष्टा सुखहेतुः। (सुद०१२) अभ्यूढ (वि०) विवाहित, परिणीत, परिणय युक्त। 'अस्ति अभ्युद्यत (भू०क०कृ०) [अभि+उद्य म्+क्त] १. तत्पर, तैयार, सुदर्शन-तरुणाऽभ्युढेयं।' संलग्न, लीन, प्रयत्नजन्य। २. आगे किया, उठाया, लाया। अभ्यूहः (पुं०) अनुमान, तर्क, (सुद० ८४) अभ्युन्नत (वि०) [अभि+उद्+नम्+क्त] अति ऊँचा, अभ्योबाधक (वि०) ०बाधा पहुंचाने वाला, विघ्नकर्ता, उन्नतशील, प्रगति वाला। अवरोधक। (समु० ९/१५) अभ्युन्नतिः (स्त्री०) [अभि+उद्+नम्+क्तिन्] तीव्र प्रगति, परेऽभ्योबाधकं नं स्यादेवमङ्ग स सन्दधत्। (समु० ९/१५) स्थल प्रगति, उन्नति स्थान। 'समेखलाभ्यन्नतिमन्नितम्बा।' अभ्र (अक) घूमना, जाना, भ्रमण करना। (सुद० २/५) अभ्रं (नपुं०) [अभ्र+अच्] मेघ, बादल अवारिषु मेघाः। अभ्युन्नमतिः (स्वी०) [अभि+उद्+नम् अति] अति उन्नत, अत्यन्त (धव०१४/३५) वर्षा से रहित मेघ को 'अभ्र' कहते हैं। उच्च, पूर्णता युक्त। पयोधरोऽभ्युन्नमतीह।' (जयो० ११/३३) रणभूमावभ्रे च खगस्ताक्ष्यप्राय। (जयो० ७/११३) अभ्युपगतः (वि०) [अभि+अ+गत्+क्त] प्राप्त होना, मिलना, सोऽभ्रेगगने। (जयो० वृ० ७/११३, वीरो० २/५०) मानना। (सुद० १२१) 'अभ्रमुवल्लभकमिमति' वा अधिकृत्येऽपि अधियोगे सप्तमी। अभ्युपगमः (पुं०) [अभि+उप्+गम्+घञ्] ०उपागमन, प्राप्त (जयो० वृ० ९/५२) वीक्ष्य मेलमनयोरिह शातमभ्रतस्ततिरहो होना, स्वीकारना, मिलना, ०मानना, समझना। निपपात। (जयो० ६/१३०) वहां आकाश से ऐसे फूलों अभ्युगम्य (सं० कृ०) [अभि+उप्+गम्+ ल्यप्] प्राप्त होकर की वर्षा हुई। 'अभ्र' का अर्थ गगन, आकाश भी है। ग्रहण करने। (सुद० १२१) कठोरतामभ्युपगम्य याऽसौ। अभ्रंलिह (वि०) [अभ्र+लिह+खस् मुमागमः] गगनप्रान्त (सुद० १२१) स्पर्शित, आकाश चुम्बित, ०अधिक उच्च। 'रात्रौ अभ्युपत्तिः (स्त्री०) [अभि+उप+पद+क्तिन्] सहायतार्थ जाना, यदभ्रंलिह-शालभृङ्ग समङ्कितः' (वीरो० २/२७) ०कृपा दृष्टि रखना, निकट जाना, रक्षा, धैर्य, साहस। अभ्रंलिह-शाल-शृंगारं (नपुं०) गगनचुम्बी शाल शिखर, अभ्युपलम्भः (पुं०) सहारा, सम्प्रयाण। आकाश स्पर्शित पर कोटे के शिखर। (वीरो० २/२७) अभ्युपलम्भनंः (पुं०) सहारा, सम्प्रयाण, प्रस्थान। "सुवर्णसूत्रा- अभ्रंलिहान-शिखरावलिः (स्त्री०) गगनचुम्बी शिखरावली। भ्युपलम्भनेन।" (जयो० ११/६) (वीरो० २/५०) अभ्युपायः (पुं०) [अभि उप+इ+अच्] साधन (जयो० ३/४८) अभ्रक (नपुं०) [अभ्र+कन्] अबरक, चिलचिल। विधिर्येनाभ्युपोयेन। प्रबन्ध, प्रतिज्ञा, उपचार, ०युक्ति। अभ्रकष (वि.) [अभ्र+कष्+खच् मुमागमः] बादलों को छूने 'विधेश्च संयोजयतोऽभ्युपाय:' (जयो० ३/८७) अभ्युपाय: वाला, मेघ स्पर्शित। प्रबन्धो। (जयो० वृ० ३/८७) अभ्रम (वि०) नि:संशय, संदेहरहित। (जयो० वृ० ५/१०१) अभ्युपायनं (नपुं०) [अभि+उप+अप्ल्यु ट्] १. उपहार, भेंट, अभ्रमरीतिकरी (वि०) निःसंदेहचेष्टाकारिणी १. भ्रमरियों को सम्मान प्रतीक। २. रिश्वत, घूस। बाधा न पहुंचाने वाली। (जयो० २०/८७) अभ्युपासनं (नपुं०) [अभि+उप+अस् ल्युट्] समर्थनकारी, | अभ्रमलोकता (वि०) नि:संशय परिज्ञानं १. भ्रम-रहित देखने For Private and Personal Use Only Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अभ्रमुः अमर्त्य वाली। २. आकाश की ओर देखने वाली। अभ्रमालोकतया अमनुष्य (वि०) अमानुषिक, मानवता रहित। चरिष्णोः।' (जयो०५/१०१) अभ्रमाकाशं चरिष्णोः (जयो० अमनोज्ञ (वि०) अप्रिय, अनिष्ट, घातक, हानिकारक, वृ० ५/१०१) ०बाधा जन्य। "अमनोज्ञं अप्रियं। 'कृत्वाऽन्यथाभावअभ्रमुः (स्त्री०) [अभ्र+मा+उ] हथिनी, हस्तिनी, ऐरावत मथामनोज्ञे।' (भक्ति सं०४८) हाथी की सहचरी। (जयो० २३/६६) गजस्येव कपटाभ्रमुकायां अमन्त्र (वि०) असंस्कारित, मन्त्रहीन, मन्त्रों से अनभिज्ञ। मनसो बहुलापाया। अमन्द (वि०) न्यूनता रहित, स्फूर्तिमान्, शक्तिसम्पन्न, बलयुक्त। अभ्रमुका देखों ऊपर। (जयो० वृ० १/३२) तेज, प्रबल, अधिक। "नटी मुदामन्दअभ्राभ्र-विधूदित (वि०) आकाश पटल पर अधिकार करने पदाममेयं।" (जयो० १/३२) अमन्दानि, न्यूनतारहितानि ___वाली। (वीरो० १३/७) "प्रत्येकमभ्राम्र-विधूदितानाम्।" प्रशस्तानि च। (जयो० वृ० १/३२) 'बभुः कन्दा इवामन्दाः।' अभ्रान्तर (वि०) मेघ के अन्तर, मेघमध्य, आकाश के बीच। (जयो० १०/८८) उक्त पंक्ति में 'अमन्द' का अर्थ ___'अभ्रान्तरमितमुपेत्य वारिभरं।' (जयो० ९/९४) प्रकाशमान है। अभ्रिः (स्त्री०) कुदाल, खुरपी। अमम (वि०) ०ममकार रहित, ०अहंकार रहित, ०आसक्तिअभ्रित (वि०) [अभ्रिइतच्] मेघाच्छादित, बादलों से आवृत्त। विहीन, ममत्वरहित, समत्वशील। अभ्रिय (वि०) [अभ+घ] मेघ सम्बन्ध, बादलों से उत्पन्न, मेधोत्पन्न। अममता (वि०) समत्वभावना, स्वार्थविमुक्त। इच्छाशून्य। अभ्रेष (वि०) योग्यता, उपयुक्तता। अमर (वि०) अविनाशी, मृत्यु रहित। अमरः (पुं०) देव, देवता। "सम्भृष्यमरवद्विसर्जनमतः।" (सुद० १०३) अम् (अव्य०) [अम्+क्विप्] शीघ्र, त्वरित, जल्दी। अमरगणः (पुं०) देवनिकाय, देवसमूह। 'अमरगणाश्च वदन्ति अम् (अक०) १. सेवा करना, सम्मान करना, शब्द करना, महोदयम्।' (जयो० १/९९) २. भोजन करना, ३. आक्रमण करना, टूट पड़ना, कष्ट अमर-कोषः (पुं०) अमरसिंह रचित कोष। होना, रोग होना। अमर-तरुः (पुं०) दिव्य तरु, कल्पवृक्षा अमः (पुं०) [अम+घञ्] १. कच्चा , अपरिपक्व, २. आमरोग, अमरता (वि०) अमरत्व, देवत्व। (वीरो० १४/२२) रुग्णता। ३. अनुचर, सेवक। अमरताभिलाषी (वि०) देवत्व का इच्छुक। (वीरो० १४/२२) अमङ्गल (वि०) ०अशुभ, ०अकल्याणकर, ०अहितकर, अमरपुरी (स्त्री०) देवपुरी, देवलोक। दुर्भाग्यपूर्ण, भाग्यहीन। अमर-वन्दित (वि०) देव पूजित। "तस्मै समस्तामर-वन्दिताया" अमण्ड (वि०) अनलंकृत, अविभूषित। (भक्ति वृ० २३) अमत (वि०) अज्ञात, असम्मत, अमान्य। अमरा (स्त्री०) देवाङ्गना, देवी। (जयो० २/१४) अमति (वि०) दुर्बुद्धिः, दुष्टमन, दुश्चरित्र। अमराङ्गना देखो अमरा। अमतिः (स्त्री०) अज्ञान, संज्ञाहीन, ज्ञानशून्य। अमरावती (स्त्री०) स्वर्गपुरी। (दयो० वृ०९) "तिपरिपूर्णतयाऽमअमत्त (वि०) उन्मत्त, धुत्त। रावतीमतलस्पर्शतया।' अमत्रं (नपुं०) [अमति भुक्ते अन्नमत्र-अम्+आधारे अत्रन्] अमरी (स्त्री०) देवाङ्गना, देवी। मितामरीभिर्मधुराधरीभिः। (जयो० पात्र, भाजन, वर्तन, भाण्ड। २७/१९) अमत्रं (नपुं०) बल, शक्ति, सामर्थ्य। 'अमत्रमत्र प्रदधार मातुः।' अमरीचय (वि०) देवाङ्गना समूह, देवीकुल। (जयो० २२/२३) (वीरो०५/३९) अमरेशः (पुं०) इन्द्र, शक्र, पुरन्दर, देवों का ईश। (वीरो० अमत्रगत (वि०) उदार, ईर्ष्या रहित, द्वेष हीन। ९/२६) प्रजल्पनेऽनल्पतयैव तत्परा इवामरेशस्य च चारणा अमनस् (वि०) मन विहीन, अनियन्त्रित। नराः।" (वीरो० ९/२६) अमनस्क (वि०) [न विद्यते मनो येषां ते] (स०सि०२/११) | अमरैकवेदी (वि०) अर्हत् स्वरूप के ज्ञाता, सर्वज्ञत्व वेत्ता। मनरहित, मन का अभाव। द्रव्यमन और भावमन से "वेदिरगुलिमुद्रायां बुधेः संस्कृत भूतले" इति विश्वरहित। (तत्त्वार्थसूत्र महा०वृ० ३४) लोचनः। अमनाक् (अव्य०) अत्यधिक, बहुत। अमत्य (वि०) अविनाशी, अक्षय, अजर, दिव्य अहीन। For Private and Personal Use Only Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अमर्त्यः अमित्रजित् (जयो०५/३१) पुनरमर्त्यहीनजनैश्च। अम]त्यत्र अकारस्य (त्रि०साल्टी० ६८३) सहचर, सचिव, अनुयायी। (जयो० ईषदर्थकत्वेन हीनार्थकत्वात्।' (जयो० वृ० ५/३१) ३/२०) अमर्त्यः (पुं०) देव, अमर। (नमा अमास्तैः देवैः (जयो० अमात्यवर्गः (पुं०) सहचरवर्ग, नतवर्ग, विनम्रवर्ग। (जयो० वृ०५/३१) ३/२०) अमर्मन् (नपुं०) मृदु, कोमल, मर्म रहित। अमानवं (वि०) विनम्र, क्षमाशील, विनीत। अमर्याद (वि०) मर्यादा रहित, प्रतिकूलता युक्त, अनादर अमानव (वि.) [न मानवोऽमानवो देवः] देवता, देव, अमर। कर्ता, सीमातिक्रान्तका (वीरो० १७/२४) मनुष्यों में असाधारण। (जयो० २८/१०) अमर्ष (वि.) असहनशील, धैर्यविहीन, शक्ति रहित, सहिष्णुता (जयो० ३/१०१) से रहित। अमानवचरित्रं (नपुं०) विशिष्ट चरित्र, उत्तम चरित्र, अमर्षण (वि०) असहिष्णु, धैर्यशून्य, क्षमा न करने वाला। ०असाधारण चरित्र। (जयो० ३/२७) अमषिन् (वि०) १. असहिष्णु, सहनशीलता रहित। २. क्रोधी, अमानुष (वि०) १. राक्षीस, अमानवीय, २. अलौकिक, अपार्थिव। प्रचण्ड। (दयो० ५१) अमल (वि०) निष्पाप, निर्मल, स्वच्छ, परिशुद्ध, मल रहित। | अमानुषोचित (वि०) राक्षसी प्रवृत्ति, अमानुषिक वृत्ति। (दयो० (जयो०७/२) 'नक्षत्रकमालिकाऽमला।' (जयो०१०/४८) वृ०१) (स्वच्छ एवं अति सुन्दर नक्षत्रमाला) अमानुष्य (वि०) अलौकिक, मानवीयता रहित। "अमले परिशुद्धे भूतले निश्चलामलजलवति।" (जयो० | अमाभिधान (नपुं०) अमावस्या की रात्रि। अमाभिधानेऽन्यत्राहो वृ० १२/१३१) प्रभावत्यधुनाऽमलार्या। (जयो० वृ० २३/६९) समुदासीनतामये। (सुद० ८७) प्रभावती चामला निष्पापाऽर्याभूत। (जयो० वृ० २३/६९) अमाम (स्त्री०) अमावस्या। अमलगुणः (वि०) निर्मल गुण, पवित्रगुण। (जयो० ७/२) अमाय (वि०) छल रहित, कपट विहीन, सरलता युक्त, अमलता (वि०) स्वच्छता, पवित्रता, निर्मलता। 'समेति निष्कपट, सौम्य। २. माप विहीन। यत्रामलतामनेन'। (वीरो०१/९) अमायिक (वि०) निश्छल, सरल, निष्कपटी। अमलतोयं (नपुं०) स्वच्छ जल, निर्मल जल। "दृष्ट्वा अमावस्या (स्त्री०) अमा, अमावसी, सूर्य और चन्द्र के संयोग समुद्रोमलतोयमिष्टः।" (जयो० २१/७८) अमलेन तोयेन का दिन। अमा च अमवस्यातिथिः। (जयो० वृ० ३/१०१) मिष्टोऽसौ 'समुद्रो। (जयो० वृ० २१/७८) अमावस्यां सूर्येन्दुसङ्गमो भवतीति ख्यातिः (जयो० वृ० अमला (स्त्री०) अमरा, देवी, लक्ष्मी। ३/१०१) अमलिन् (वि०) स्वच्छ, शुभ्र, श्वेत, पवित्र, निर्मल। अमावसी (स्त्री०) चन्द्रमा का दिन, अमा, अमावस्या। अमसः (पुं०) [अम्+असच्] रोग। अमित (वि०) अपरिमित, असीमित, सीमा रहित, विशाल, अमहेशः (पुं०) कामदेव, मदन। (जयो० ५/७५) अत्यधिक, पर्याप्त। 'परिवदामि सदाऽमित-शासन।' (जयो० अमा (स्त्री०) अमावस्या, नूतन चन्द्रमा का दिन, सूर्य और ९/१०) चन्द्र के संयोग का दिन। सूर्या चन्द्रमसावास्यं रेजाते अमित-शासनं (नपुं०) अपरिमित शासन, विशाल शासन। कुण्डल्छलात्। (जयो० ३/१०१) अमा च अमावस्यातिथिः। 'अमितमपरिमितं शासनं यस्या' (जयो० वृ० ९/१०) (जयो० वृ० ३/१०१) अमावस्यायां सूर्येन्दुसङ्गमो भवतीति अमितोन्नतिः (स्त्री०) पर्याप्तोच्चानि, अधिक उन्नति, बहत ख्यातिः। (जयो० वृ० ३/१०१) ऊँचे। अमितोन्नतिमन्ति निर्मलान्यभ्युचितायतविस्तराणि वा।' अमा (अव्य०) से, पास, सन्निकट, साथ, जैसा कि। (जयो० १३/६५) अमा (पुं०) १. आत्मा, २. व्यास। अमित्रः (पुं०) [अम्+इत्र] शत्रु, विरोधी, प्रतिद्वन्द्वी, विपक्षी। अमांस (वि०) जर्जरदेह, मांस रहित, क्षीण काय, मांस छोड़ने वाला। (जयो० २३/३) अमार्गः (पुं०) अनभिज्ञ, अनजान। अमित्रजित् (वि०) १. शत्रुपरिहारक, शत्रुजयी। अमिवजित् अमात्यः (पुं०) [अमा+त्यक्] मन्त्री, अमात्य: देशाधिकारीत्यर्थः शत्रुपरिहारकोऽसावेव-मित्रजिद-पीति विरोधस्तस्य परिहारो। For Private and Personal Use Only Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अमिथ्या अमृतं (जयो० वृ० २३/३) सूर्य को जीतने वाले नहीं। "मित्रं सख्यौ रवौ पुमान् इति विश्वलोचनः" अमिथ्या (क्रि०वि०) १. जो मिथ्या न हो, विपरीत न हो, अन्यथा न हो, २. सम्यक्, यथार्थ, उचित। . अमिन् (वि०).[अम्+णिनि] रोगी, व्याधी जनित, बीमार। | अमिषं (नपुं०) [अम्+इषन्] १. लौकिक पदार्थ, भोग सामग्री, २. निश्छलता, निष्कपटता, सत्यवादिता, हितवादिता। अमीर (वि०) धनाढ्य, धनी, वैभव सम्पन्न। वीर! त्वमानन्दभुवामवीरः मीरो गुणानां जगताममीरः। (वीरो० १/५) मीर होकर भी अमीर अर्थात् गुणों के मीर/समुद्र होकर भी जगत् के अमीर/सबसे बड़े धनाढ्य हो। "मीरोऽब्धि-शैल-नीरेषु" इति विश्वलोचनकोशः। समुद्र एव किन्तु जगतां प्राणिनो मध्ये अमीरः सर्वश्रेष्ठः। (वीरो० वृ० १/५) अमीवा (स्त्री०) [अम्वन् ईडागमः] रोग, व्याधि, बीमारी। अमु (सर्व०) इदम् सर्वनाम शब्द का 'अमु' आदेश हो जाता ____ है। अमुनादेश (जयो० १/९०) अमुस्मिन् (सुद० ४/२८) अमुक (वि०) इस तरह, ऐसा-ऐसा, व्याज से। "ममामुकं मेव-समूह-जेतो।" (सुद० २/१३) अमुकस्य बभूव दामिनीत्यभिधा भूमिपतेः सुभामिनी। (समु० २/१२) अमुक-गुण-गत (वि०) इस गुण-वर्णन युक्त। अमुकस्य कामरूपाधिपस्य गुणेषु गुणसंकीर्तन इत्यर्थः। (जयो० वृ० ६/३२) अमुक-संघः (पुं०) इस संघ, इस समूह। अमुक्त (वि०) ०बन्धन युक्त, ०बन्ध वाला, ०परतन्त्र, ०स्वाधीनता रहित। अमुक्तिः (स्त्री०) ०मोक्षाभाव, मुक्ति का अभाव, बन्धन, पराधीनता। अमुतः (अव्य०) [अदस्+तसल्] वहां, वहां से, उस स्थान पर, उस जगह, उस अवस्था में, ऊपर, उच्च स्थान पर! अमुद्रित (वि०) जाज्वल्यमान, विकसित, विकासशील, देदीप्यमान। "स्वयममुद्रित-शुद्धशिखाश्रयः।" (जयो० ९/२४) अमुत्र (अव्य०) [अदस्+त्रल] वहां उस स्थान पर, उस अवस्था में, वहां पर। अमुथा (अव्य०) [अदस्+थाल-उत्व-मत्व] इस तरह, इस रूप, इस रीति से। अमुष्य (वि०) ऐसे, इस तरह, उस 'प्रावर्तताऽमुष्य महीश्वरस्य।' (जयो० १/११) 'दृशोरमुष्या द्वितयेऽवतारं।' (सुद० २/४८) अमूदृश् (वि०) ऐसा, इस प्रकार का, इस तरह, इस रूप, इस रीति से। अमूढ (वि०) [न मूढो भवतीत्यमूढः] (जयो० वृ० १७/१७) अमूर्ख, मुग्धता रहित। 'नास्ति सा यस्य जीवस्य विख्यातः। सोऽस्त्यमूढदृक्। (लाटी०सं० ४/१११) अमूढ-दृष्टि: (स्त्री०) मिथ्यात्व अप्रशंसक, मुग्धता रहित दृष्टि। 'सर्वेषु भावेषु मोहाभावादमूढं दृष्टि।' (समय प्राभृत वृ० २५०) अमूर्त (वि०) अशरीरी, शरीर रहित, निराकार। (भक्ति०वृ० ___२७) अरूपी द्रव्य (वीरो० १९/३६) अमूर्तत्व (वि०) अशरीरीपना, मूर्तता का अभापना। अमूर्तद्रव्यं (नपुं०) निराकारी द्रव्य। अमूर्तरुच (वि०) अमूर्तिक स्वभाव वाले। एतैर्ममामूर्तरुचः किमधिः सम्पन्नतामेत्वधुना समाधिः।" (भक्ति सं० वृ० २७) अमूर्तिः (स्त्री०) रूप का न होना, मूर्त हीन। अमूर्ति (वि०) रूप रहित, निराकार। अमूर्तियोगिनी (वि०) अमूर्तविद्या। (जयो० वृ० २४/२) अमूल (वि०) निर्मूल, निराधार, ०आश्रय विहीन, प्रमाणाभाव युक्त। अमूल्य (वि) बहुमूल्य, अनमोल। हैमं तुलाकोटियुगं च कस्मान्ममाप्यमूलस्य निबद्धमस्मात्। (जयो० ११/१५) उक्त पंक्ति में 'अमूल्य' शब्द का अर्थ 'अतिमनोहर' रूप में है। 'अमूल्यातिमनोहरस्या' (जयो० वृ० ११/१५) अमृत (वि०) [न मृतोऽमृतः] १. जो मरा न हो, अविनाशी, अनिश्वरः, अजर (जयो० ११/७९) अमृतः (पुं०) अमर, देव, देवता। अमृतं (नपुं०) अमृत, पीयूष, जल, जीवन, भुवन, दुग्ध, घृत। (जयो० ९/१४) "पयः कीलालमृतं जीवनं भुवनं वनमित्यमरः। (अमरकोशः) "मम समस्तु महीवलेऽमृता" (जयो० ९/१४) उक्त पंक्ति में 'अमृत' का अर्थ 'सुन्दर' किया है। हे अमृत! सुन्दर। (जयो० वृ० ९/१४) "श्री कामधेनोरमृतप्रशस्तिः ।" (जयो० ११/८६) कामस्य सुरम्या वाञ्छितका यदेतदङ्गशरीरममृतस्य सर्वश्रेष्ठा। (जयो० वृ० ११/८६) "लोडयन्ति ललनाः स्म मन्दरप्रायमन्थ कलिनाऽमृताय ताम्। (जयो० २१/५७) उक्त पंक्ति में For Private and Personal Use Only Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अमृतकरः अमृतात्मन् 'अमृत' का अर्थ नवनीत/घृत है। 'अमृतन्तु घृते दुग्धे' इति विश्वलोचनोशः। 'अमृतममरण-कारणमितीष्टं।' (जयो० वृ० १४/७९) अमृत्यु का कारण होन से अमृत है अमृतकरः (पुं०) चन्द्र, शशि। अमृतकुण्डः (पुं०) अमृत पात्र। अमृतगुः (स्त्री०) पीयूषवाणी, अमृतवाणी, (जयो० १/९६) सुधारश्मि, चन्द्रकिरण। (जयो० १६/१९) अमृतगुत्व (वि०) चन्द्ररूपता, शशिरूपता। अमृतस्य गौ रश्मिर्यस्य तस्य भावम्। (जयो० वृ० २२/४८) (मधुरवाणी को धारण करना) अमृतस्य दुग्धस्य गोभूर्मिर्यत्र तस्य भावम्। (जयो० वृ० २२/४८) (गायपने को धारण करना) अमृतधामः (नपुं०) मोक्ष, मुक्ति पुरुषार्थ, चन्द्र। "धर्मार्थ-कामामृत-धाम बाहुचतुष्टयं।" (जयो० १९/१३) अमृतधाम मोक्षश्चेति। (जयो० वृ० १९/१३) "भिन्ने भवत्यमृतधामनि नाम शुभ्भत्।" (जयो० वृ० १८/४४) अमृतधामनि चन्द्रमसि। (जयो० वृ० १८/४४) उक्त पंक्ति में 'अमृतधाम' का अर्थ चन्द्र है। 'अमृतानां' देवानामाश्रमः स्वर्ग: इस व्युत्पत्ति से 'स्वर्ग' भी अर्थ है। अमृतधारा (स्त्री०) १. अमृत प्रवाह, २. औषधि विशेष, ३. छन्द विशेष। अमृतप (वि०) अमृत पान करने वाला। अमृतपुरधर (वि०) १. अमृतपूर्ण अधरों वाली। २. स्वर्गपुरी रूप धारिणी। ३. मङ्गलदर्शन वाली। धवलयति क्षमावलयं वृद्धद्वारास्य भो अमृतपुरधरे। (जयो० ६/१०५) अमृतपूः (वि०) अमृतस्थान। अमृतस्य पू: स्थानमधरो यस्याः सा। (जयो० ६/१०५) अमृतपूर्णः (वि०) अमृत से परिपूर्ण, पीयूष से भरी हुई। । 'पवित्ररूपामृतपूर्णकुल्या'। (सुद० २७) अमृतप्रदात्री (वि०) दुग्ध प्रदान करने वाली, वाक्कामधेनुः खलशीलनेनाऽमृतप्रदात्री सुतरामनेना। (समु० १/२६) अमृतप्रवाहित (वि०) सुधादानी। (जयो० १८८५) अमृतप्रशस्तिः (स्त्री०) १. सर्वश्रेष्ठपूर्ति, प्रशंसा, २. दुग्ध प्रशंसा, दुग्ध सम्पत्ति। 'अमृतस्य सर्वश्रेष्ठा प्रशस्तिः यस्येदृश।' अमृतं दुग्धमेव प्रशस्तिः सम्पत्तिर्यस्य। (जयो० वृ० २१/८६) अमृतफलं (नपुं०) द्राक्ष, अंगूर, दाख। अमृतबन्धुः (पुं०) देव, अमर, देवता। अमृतभुज् (पुं०) देव, अमर, देवता। अमृतभू (वि०) अमृतत्व को प्राप्त, जन्म-मरण से रहित। अमृतमंथनं (नपुं०) सिन्धु मंथन, समुद्र विलोडन। अमृतरसः (पुं०) पीयूष रस। अमृतलता (स्त्री०) अमृतदायी वल्लरी। अमृतलहरी (स्त्री०) पीयूष प्रवाह। (जयो० ७/६३) अमृतसार (वि०) १. निर्झर, झरना, २. अमृतमय, पीयूष युक्त। येन कर्णपथतो हृदुदारमेत्य पूरयति सोऽमृतसारः। (जयो० ४/५३) 'अमृतस्य सारो निर्झरः' (जयो० वृ० ४/५३) अमृतसारिणी (वि०) सञ्जीवनी सार, जीवनदायिनी तत्त्व। सुधावत् प्रसक्तिकारिणी। (जयो० वृ० १/८८) अमृतसिद्धिः (स्त्री०) अमृत की सिद्धि, अमृतपान, जल निष्पत्ति। "अमृतस्य जलस्य मरणाभावस्य च सिद्धिं निष्पत्ति।" (वीरो० वृ० ४/४८) अमृत-सूः (पुं०) चन्द्र। अमृतसूति (वि०) अमृत को प्रवाहित करने वाला। अमृत-सोदरः (पुं०) अमृत भाई। अमृतस्त्रवः (पुं०) अमृत प्रवाह, पीयूष धारा। अमृतवर्षिणी। (सुद० ४/१३) वागेव कौमुदी साधु-सुधाांशोरमृतस्रवा।" (सुद०४/१३) अमृतस्त्रवा (वि०) दुग्धदात्री, अमृत प्रदायी, अमृत वर्षाने वाली। विस्तारिणी कीर्तिरिवाथ यस्यामृतस्रवेन्दो रुचिवत्प्रशस्या। (वीरो० २/२०) अमृतस्राविणी (वि०) अमृत देने वाली, दुग्धदात्री, सुधा प्रदात्री। (दयो० वृ० ५३) अमृतस्रुतिः (स्त्री०) सुधास्रोत, पीयूषधारा। (दयो० वृ० ९) अमृतस्रुतिमयी (वि०) अमृतप्रवाहिणी, पीयूष प्रवाह वाली। (जयो० १८८५) तस्यामृतस्त्रुतिमयीं प्रतिपद्य हे गां। (जयो० १८४८५) अमृतस्त्रुतिमयी-पीयूषप्रवाहरूपामुत मोक्षप्राप्ति रूपाम्। (जयो० वृ० १८८५) अमृतस्त्रोत (वि०) पीयूष निर्झर, सुधा धारा। (दयो० वृ०९) अमृता (स्त्री०) शराब, मादक द्रव्य, मद्य। .. अमृतांशः (पुं०) पीयूषलव, अमृत अंश, सुधांश। (जयो० वृ० ११/६३) अमृतांशुः (पुं०) चन्द्र, शशि, इन्दु। (दयो० ८४) अमृतात्मन् (वि०) अमृत की तरह आनन्ददायिनी, अमृतवदा नन्ददायिनी। "चारुर्विधोः कारुरुतामृतात्मा।" (जयो० ११/९२) For Private and Personal Use Only Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अमृतायमान अम्बुज-कोष अमृतायमान (वि०) अमृत वाला, अमृत युक्त, अमृत की | अम्बरं (नपुं०) [अम्बः शब्दः तं राति धत्ते इति] मेघ, बादल, तरह आचरण करने वाले। "जगत्यमृतायमानेभ्यः।" (सुद० १२४) आकाश, अन्तरिक्षा रणे सम्भाषणे संबित तथा अम्बरं रसे अमृताशी (वि०) अमृत भोजी, सुधापानक, पीयूष पान करने कार्पासे 'इति-विश्व' (जयो० ६/१२) वाले। अम्बरं (नपुं०) १. वस्त्र, कपड़ा, परिधान। (जयो० १३/७१) तस्मादनल्पाप्सरसङ्गत्वाद्भुत्वाऽमृताशी सुख-संहितत्त्वात्। २. केसर, अवरक। (जयो० १/३७) (वीरो० ११/२४) अम्बरचारी (वि०) विद्याधर। (जयो० ६/१२) अमृतेशः (पुं०) चन्द्र। अम्बरीष (नपुं०) [अम्ब+अरिष्] १. सूर्य, रवि, शिव, विष्णु, अमृतेशयः (वि०) क्षीर सागर में शयन करने वाले विष्णु। २. कडाही, ३. खेद, दुःख, ४. युद्ध, संग्राम। अमृतोक्तिः (स्त्री०) अमृतवचन (वीरो० १८/२४) अम्बष्ठः (पुं०) [अम्ब+स्था+क] महावत। अमृतोर्मि (स्त्री०) अमृत लहर (जयो० ७/६३) मृदुता रहित अम्बा (स्त्री०) [अम्ब+घञ्+टाप्] १. जननी, माँ, माता। (वीरो० २०/२२) (जयो० ५/१००) २. सरस्वती-वचोऽभिदेवतेऽम्बा। (दयो० अमृषा (स्त्री०) सत्य। वृ० ३७) (जयो० १२/२) अमृषा (अव्य०) सचमुच, वास्तव में। अम्बिका (स्त्री०) [अम्बा+कन्+टाप्] सरस्वती, जननी, माँ, अमृष्ट (वि०) अक्षुण्ण, अखण्ड, मद्रित नहीं, विदीर्णता रहित। माता। (वीरो० १५/४०) (जयो० ६/१९) अमेचक (वि०) ज्ञायक स्वभावी। अम्बु (नपुं०) नीर, जल, वारि, उदक। तत्त्व-धर्माम्बुवाह अमेदस्क (वि०) चर्बी रहित, निर्बल। (सुद० ४/२२) (समु० २/१२) अमेधस् (वि०) मतिविहीन, ज्ञान हीन, बुद्धि रहित। अम्बुक् (पुं०) मेघ, बादल, जलद। (जयो० १२/९१) अमेध्य (वि०) अपवित्र, अयोग्य, अस्वच्छ, पवित्रता रहित। अम्बुकणः (पुं०) जल बिन्दु, नीरकण। अमेध्ययुक्त (वि०) अपवित्रता सहित, मल युक्त। अम्बुकष्टकः (पुं०) घडियाल। अमेय (वि०) १. अप्रमेय, एक दार्शनिक दृष्टि जो ज्ञान का अम्बुकिरातः (पुं०) घडियाल। विषय न हो। यन्मीयते वस्त्वखिलप्रमाता, भवेदमेयस्य तु अम्बुकूर्मः (पुं०) कच्छप, कछुआ। को विधाता। (जयो० २६/९८) जो वस्तु प्रमेय है-प्रमेयत्व अम्बुचर (वि०) जलचर जीव, जल में विचरण करने वाले का गुण का आधार है, वह अवश्य ही किसी के ज्ञान का जीव। विषय होता है, अमेय/अप्रमेय का ज्ञाता कौन हो सकता अम्बुजः (पुं०) १. चन्द्र, चन्द्रमा, २. कपूर। ३. सारसपक्षी, शंख। है? अर्थात् कोई नहीं? २. अज्ञेय, सीमा रहित, अपरिमित। अम्बुजं (नपुं०) कमल, इन्दीवर, अरविन्द। (सुद० ३/४५) अमेरिका (स्त्री०) अमेरिका देश। साऽमेरिकस्य तु मलिना (जयो० १/४९) "त्वदीय पादाम्बुजाले: सहचारिणीयम्। रुचिः सुमनसामस्ति यथा। (सुद० ५/३) (सुद० २/३४) अमोघ (वि०) अचूक, सफल, व्यर्थता रहित। "भो भो जना अम्बुज-कलिका (स्त्री०) कमल की कली, कमल पांखुरी, वीरविभोर्गुणौघानसौऽनुकूलं स्मरताममोघाः। (सुद० १/४) कमल-पत्र। जिनयज्ञमहिमा ख्यातः। जिनपूजा प्रसिद्ध है। अमोघ-बाणः (पुं०) सफलशर, लक्ष्यवेध करने में सफल। मनोवचकायैर्जिन पूजां प्रकुरु ज्ञानि भ्रातः। मन, वचन (जयो० ११/६१) 'जित्वा त्रिलोकी स्विदमोघबाणः।' और काय से जिनपूजा करें। (श्रेणिक राजा हाथी पर अम्ब् (सक०) जाना, शब्द करना। सवार होकर जिनपूजा के लिए जा रहा था) मुदाऽऽदाय अम्बः (पुं०) [अम्ब्+घञ्] पिता, जनक। मेकोऽम्बुज-कलिकां पूजनार्थमायातः। प्रमोद से मेंढक अम्बं (नपुं०) १. नेत्र, नयन, २० जल, नीर। कमल की कली मुख में दबाकर पूजन के लिए चला, अम्ब (अव्य०) हाँ! स्वीकृत करने के योग में। किन्तु मार्ग में हाथी के पैर के नीचे दबकर मर गया और अम्बकं (नपुं०) [अम्ब्+ण्वुल्] नेत्र, नयन। स्वर्ग को प्राप्त हुआ। अम्बधात्रीदोषः (पुं०) साधु का एक दोष, दाता बच्चे के | अम्बुज-कोष (वि०) जलजात कमल। (जयो० ११/४३) सुलाने का दोष। 'भुजो रुजोऽङ्कोऽम्बुजकोषकाय।' For Private and Personal Use Only Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अम्बुजट्टक अयः अम्बुजट्टक (नपुं०) कमललोचन, नेत्र रूपी वाले कमल। रूपमम्बुजदृशो ननु जात। (जयो० ५/६९) अम्बुज-जित् (वि०) कमलजयी। (वीरो० ६/३४) अम्बुजमाला (स्त्री०) कमल माला (जयो०६/५५) अम्बुजानां कमलानां माला। अम्बुजसङ्ग्रहं (नपुं०) कमल समूह। अम्बुजानां कमलानां संग्रहः। (जयो० वृ० १३/८०) अम्बुजसम्विहीन (वि.) कमल रहित। कृत्वाऽत्र मामम्बुज सम्विहीनां सरोवरीमङ्गज! किन्नुदीनां। (समु० ३/१३) अम्बुजामोद (वि०) पद्य आमोद, कमल की प्रफुल्लता। (जयो० १३/९४) अम्बुजोन्मीलन् (वि०) कमल को उन्मीलित करने वाला। (जयो० १६/६) अम्बुततिः (स्त्री०) जलधारा, नीर प्रवाह। कुसुमाञ्जलिबद्धभव ___साऽम्बुततिः पुष्टतमेऽति संरसात्। (वीरो० ७/३१) अम्बुद (वि०) जल देने वाला, नीरदायी। (सुद० ९९) अम्बुदः (पुं०) मेघ, बादल, जलद। शिखिनामम्बुदभांसि धूपजानि। (जयो० १२/६८) अम्बुदात्री (वि०) जलत्यज, जल देने वाला (जयो० १२/६८) अम्बुधरः (पुं०) मेघ, बादल, जलद। शृंगाग्रलग्नाम्बुधरस्य (जयो०८/८) अम्बुधरायणं (नपुं०) मेघ, बादल, जलद। (दयो० ४२) अम्बुधि: (पुं०) समुद्र, सागर। (सुद० १/१८) सुरवर्त्मवदिन्दु मम्बुधेः। (सुद०३/१०) अम्बुधिवत् (वि०) समुद्र के समान। कुशलसद्भावनोऽम्बुधिवत् सकलविद्यासरित्सचिवः। (सुद० ३/३०) अम्बुनिधि (नपुं०) जल गृह, समुद्र, वारिधि। 'नि:शेषयत्य म्बुनिधीन् स्म्।' (जयो० १/२६) दुरन्त दु:खाम्बुनिधौ तु सेतुः। (सुद० १/२) अम्बुप (वि०) जल पीने वाला। अम्बुपः (वि०) सागर, समुद्र। अम्बुपात: (पुं०) जलप्रपात, जलधारा। अम्बुप्रसादः (पुं०) कतकवृक्ष, निर्मली वृक्ष। अम्बुभवं (नपुं०) कमल, नीरज। अम्बुभूत् (पुं०) जलवाहक, मेघ, बादल, नीरज। अम्बुमुक्षण (वि०) जल के गिरने के समय, वर्षाकाल। मेघस्य क्षणे वर्षाकाले। (जयो० १२/९१) अम्बुमुच् (पुं०) मेघ, नीरद, बादल। 'रुचिरम्बुमुचोऽनुगामिनी।' (समु० २/१२) अम्बुराजः (पुं०) समुद्र, सागर। अम्बुरुह् (पुं०) कमल, सरोज, जलज। अम्बुवाहः (पुं०) १. वर्षाकाल, वर्षासमय। २. मेघ, बादल। बकाः पताकाः करिणोऽम्बुवाहाः। (जयो० ८/६२) अम्बुरोहिणी (वि०) जल में उत्पन्न होने वाला, कमल। अम्बुवाहिन् (पुं०) मेघ, बादल। अम्बुवाहिनी (स्त्री०) पानी निकालने का लकड़ी पात्र। अम्बुविहारः (पुं०) जलक्रीड़ा, जलविहार। अम्भ (अक०) शब्द करना, आवाज करना। अम्भज् (वि०) जल में उत्पन्न होने वाला। अम्भजः (पुं०) चन्द्र, सारस पक्षी। अम्भ (नपुं०) कमल, अरविंद, नीरज। अम्भस् (नपुं०) [अम्भ+असुन] जल, नीर। 'गोदोहनाम्भो भरणादिकार्य' (सुद० ४/२२) अम्भसा समुचितेन चांशुकक्षालनादि परिपढ्यतेऽनकम्। (जयो० २/८०) अम्भस्यमल (वि०) निर्मल। (जयो० १३/९३) अम्भोज (नपुं०) कमल, नीरज, जलज। 'श्रीमन्मुखाम्भोजवती बभार।' (सुद०३/२०) अम्भोजदूशी (वि०) कमलाक्षी कमलनयनी। अम्भोजमुखी (वि०) कमलमुखी (जयो० ६/१४) (जयो० १६/४०) अम्भोजिनी (स्त्री०) कमल वल्ली, जलज वल्लरी (जयो० १८/३२) अम्भोदः (पुं०) मेघ, बादल, नीरद। (जयो० २४/२२) अम्भोदसमूहः (पुं०) मेघ समूह, बादल समूह। अम्भोधर (वि०) मेघ धारक (वीरो० २१/११) अम्भोभरण (नपुं०) जल भरना, नीर वाहक। 'गोदोहनाम्भो भरणादिकार्य' (सुद०४/२२) अम्भोनिधिः (पुं०) समुद्र। अम्भोराशिः (पुं०) समुद्र, क्षीरधि। अम्भोरुह (नपुं०) कमल, जलज, नीरज। विमुद्गिताम्भोरुहनेत्र विन्दुमुख। (जयो० १५/४९) अम्मय (वि०) जलीय। अम्ल (वि०) [अम्+क्ल्+अच्] खट्टा, तीखा। अम्लकः (पुं०) बड़हट, लकुच। अम्लानि (वि०) सशक्त। अय् (अक०) प्रवेश करना, जाना, हस्तक्षेप करना। अयः (पुं०) शुभावह, श्रेष्ठ, मुख्य, प्रशस्त। (जयो० १४/४) For Private and Personal Use Only Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra अयः www.kobatirth.org अयः शुभावहो विधि: इति कोशात् सुष्टुः अयः स्वयः । (जयो० ७/६२) "चेद्वीतरागस्तवइत्युताय ।" (भक्ति सं० वृ० २५) वीतराग स्तवन करना पुण्य है। मतल्लिकामचर्चिका प्रकाण्डशुद्धतल्लजी प्रशस्तवाचकाम्यमून्ययः शुभावही विधि:' इत्यमरः । अव (पुं०) जाना, चलना, परिभ्रमण करना । अयज्ञ (वि०) यज्ञ नहीं करने वाला। अयन (वि०) यत्न नहीं करने वाला, परिश्रम रहित, उद्यमविहीन । अयत्नः (वि०) श्रमाभाव, उद्यम अभाव | अयथा ( अव्य० ) अनुपयुक्त रूप से, अनुचित रूप से, त्रुटिजन्य, जैसा होना चाहिए वैसा नहीं। अयथार्थ (वि०) अर्थहीन, असंगत, अशुद्ध, त्रुटिपूर्ण, व्यर्थ । अयथेष्ट (वि०) अपर्याप्त कम, अल्प अयथोचित (वि०) अयुक्त, अनुपयुक्त, अयोग्य, अर्थहीन, लाभरहित। } 3 अयनं (नपुं० ) [ अय् + ल्युट् ] १. स्थान, मार्ग, अवकाश, घर, राह पथ (जयो० १६/५९) रसायनं काव्यमिदं श्रयामः।' (वीरो० १/२२) 'रसानांशृङ्गारादीनामयनं स्थानं वर्त्म वा । (वीरो० वृ० १/२२) अयनं अवकाशं मार्ग वा दातुं (वीरो० वृ० ५/२०) 'नेतुमासीत्सुवचोऽयने।' (जयो० १७/२२) विश्वासमयेऽयने मार्गे कर्त्तव्यपथे। (जयो० वृ० १७/२२) 'ऋतुवस्त्रयोऽयनम्' (त०वा०३/३८) अयनं (नपुं०) जाना, परिभ्रमण करना, हिलना। अयनकाल: (पुं०) सन्धिकाल, दोनों समय की मध्य अवधि । अयनकोविंदु (वि०) सन्मार्ग ज्ञाता, अवनस्य सन्मार्गस्य कोविदो " विद्वान् आसीदित्यर्थः । (जयो० वृ०९/५६ ) अयन्त्रित (वि०) अनियन्त्रित, प्रतिबन्ध रहित । अयशस् (वि०) ० कीर्तिरहित ०प्रभावविहीन ० अपकीर्ति, ० अपमान, ०निन्दा ०प्रशंसा, अयशकीर्ति। अवशकर (वि०) यश नहीं करने वाला, कलंकी, अपमानजनित। अवस् (नपुं०) लोहा, इस्पात, धातु विशेष | अयस्काण्डः (पुं०) लोह शर, लोह बाण। अयस्कान्तः (पुं०) चुम्बक मूल्यवान् पत्थर, लोहकण (जयो० २३/४१) 1 अवस्कारः (पुं०) लुहार । अयस्कीर्तिः (स्त्री० ) अवगुण उद्भावन, ०अपकीर्ति, ०अपयश । अयस्कुंभ: (पुं०) लोहघट | अयस् निर्मित (वि०) लोहनिर्मित (वीरो० १६ / ३० ) ९९ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अयस्पात्र (नपुं०) लोह - पात्र । अयस्प्रतिमा ( स्त्री०) लोहमूर्ति । अयस्मकं (नपुं०) लोहमल, जंग। अयस् रजः (पुं०) लोह भस्म । अयस्थूलं (नपुं०) लोह त्रिशूल, लोहे का भाला । अयस्हृदय (वि०) कठोर हृदय । अयाचित (वि०) अप्रार्थित, बिना मांगे। अयान्य (वि०) बहिष्कृत, त्याज्य अयात (वि०) नहीं प्राप्त, न गया हुआ। अयाथार्थिक (वि०) विरुद्ध, अनुचित असंगत, तक्रहीन। अयानं (नपुं०) ठहरना, स्थिर होना। अयि (अव्य०) ओह, ए, अरे हे अयि जिनप तेच्छविरविकलभावा । (सुद० वृ० ७४) अयि जिनप गिरेवाऽऽसीत्। (वीरो० ३/३३) अयि मञ्जुलपाश्रितं (चीरो० ७/२४) १. यह अव्यय प्रार्थना, गुणगान बोधक रूप में प्राय होता है। " अथि काविलराजोऽयं (जयो० ६/४२) २. प्रोत्साहन, अनुनय, विनय, नम्रतादि भी इसका प्रयोग होता है । ३. पृच्छा अर्थ में भी इसका प्रयोग होता है। 'अयि: चेतसि जेमनोतिचारः । ' (जयो० १२ / ११५ ) अयुक्त (वि०) पृथक, अलग, भिन्न, विषम । अयुग (वि०) पृथक्, अलग, भिन्न, विषम। अयुगपद् (अव्य०) एक साथ नहीं, यथाक्रम क्रमशः। अयुग्म (वि०) एकाकी, अकेला, पृथक, विषमसंख्या, युगल रहित। अयोध्या अयुज् (वि०) विषम संख्या, युगल रहित । अयुत (वि०) पृथक् कृत, असंबद्ध असंयुत। (सम्य० १०० ) 'ललनानामयुतानि षट् पुनः ।" (समु० २/१७) अये! (अव्य०) सम्बोधनात्मक अव्यय, अरे ए, ओह यह । उदासीनता, खिन्नता, खेदादि अर्थ में होता है। अयोगः (पुं०) असंगति, अन्तराल, वियोग, अनौचित्य । अयोग्य (वि०) अनुचित, अनुपयुक्त, उपेक्षणीय, ० निरर्थक। अन्वमानि रविणेदमयोग्यमित्यतोऽपयश एव हि भोग्यम् । (जयो० ४/३०) For Private and Personal Use Only " अयोग्यस्थान (नपुं०) अनुचित स्थान, अपद, अनुपयुक्त स्थान (जयो० वृ० २/४० ) अयोध्य (वि०) जिस पर युद्ध न किया जा सके। अयोध्या ( स्त्री०) अयोध्या नगरी, सरयू तट पर स्थित नगरी । (समु० ४/२५) (दयो:००९) Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अयोध्यापतिः १०० अरविन्द अयोध्यापतिः (पुं०) अयोध्या का राजा। (समु० ४/२५) 'अथाप्ययोध्याधिपतेः सुवल्लभा।' अयोध्याधीशः (पुं०) अयोध्या के अधिपति, राजा रामचन्द्र। (दयो० वृ०८) अयोनि (वि०) अजन्मा, नित्य। अयोनिज (वि०) जन्मपद्धति से जन्म न लेने वाला। अयोग (वि०) योगों से रहित, 'न विद्यते योगो यस्य स भवत्योगा' (धव०१/१९२) अयोगकेवली (वि०) कर्मों के नष्ट करने वाले योग रहित केवली। अयोगंश्चासौ केवली अयोग केवली। (धव०१/१९२) अयोगव्यवच्छेदः (पुं०) विशेषण का साथ प्रयुक्त एवकार। अयोगि (वि०) योग से रहित। अयोगिकेवली (वि०) कर्मों को नष्ट करने वाले योग रहित। चौदह गुणस्थानवर्ती। अयोगिजिनः (पुं०) योग रहित जिन। अयोगी (वि०) जो योग युक्त नहीं। न योगी अयोगी। (धव०१/२८०) अयोगपद्य (नपुं०) युग का अभाव, समकालीनता का अभाव। अयौगिक (वि०) व्याकरण से व्युत्पन्न न हो। अरः (पुं०) अरनाथ, अठारहवें तीर्थंकर का नाम। (भक्ति०१९) अरः (पुं०) पहिए का व्यास, धुरी की परिधि। अरं (नपुं०) आकाश, गगन। विहाय सारं विहरंतमेव। (सुद० ७/१८) अरघट्टः (पुं०) चक्की। राजमाप इव चारघट्टतो। (जयो० ७/८९) अरजस् (वि०) निर्मल, स्वच्छ, रजोवर्जित, वासनामुक्त, रजरहित, ०कर्मरज रहितः हासस्वरं त्वरजः। (जयो० ६/१२७) 'अरजो रजोवर्जितं निर्मलं भवत्।' (जयो० वृ० ६/१२७) अरजा (स्त्री०) मासिक धर्म से रहित स्त्री, मासिक धर्म | जिसको न हुआ हो। अरज्जु (वि०) रस्सी रहित, जिसमें रस्सियां न हों। अरणिः (पुं०) लकड़ी, जलाउ लकड़ी। वह्निं च पश्यन्नरणे प्रमादी। (जयो० २६/९४) अरणिः (पुं०) सूर्य, तपन, ०वहि, तेज। अरणी (स्त्री०) लकड़ी, जलाउ लकड़ी। अरण्यं (नपुं०) [अर्यते गम्यते शेषं वयसि-ऋ+अन्य] वन, | जंगल, मनुष्यसंचार शून्य। गावस्तृणमिवारण्येऽभिसरन्ति नवं नवम्। (जयो० २/१४७) जहां वृक्ष, बेलि, लता एवं गुल्मादि की बहुलता होती है। अरण्यगजः (पुं०) जंगली हाथी, वन में विचरण करने वाला गज/हस्ती। अरण्यगत (वि०) वन को प्राप्त। अरण्यगामिन् (वि०) अरण्य में जाने वाली। अरण्यचंद्रिका (स्त्री०) निरर्थकशृंगार। अरण्यचर (वि०) वनचर। अरण्यचारिन् (वि०) वनचारी, एकाकी अरण्य में विचरण करने वाले। अरण्यजीवः (वि०) वनचर जीव, जंगली प्राणी। अरण्यदेशः (पुं०) वन प्रान्त, वन भाग। 'सौधमरण्यदेशेऽस्य पुरप्रबोधः।' (सुद० ११७) अरत (वि०) ०अपरिचित, ०अनासक्त, विरक्त, ०असंतुष्ट, ०पराङ्गमुख। रताविरक्ताप्यनुरतिमायात्यरते जगतश्छाया। (जयो० २८/६८) अरति (वि०) १. अनुत्सुकता, अप्रेम, रागाभाव, २. कष्ट, पीडा, चिन्ता, खेद, क्षोभ, असंतोष। बाह्याभ्यन्तरेषु वस्तुषु अप्रीतिरतिः। अरतिपरीषहः (पुं०) अरति नामक परीषह, कामकथादि से विरति। अरतिवाक् (पुं०) शब्दादि वचन। अरम् (अव्य०) [ऋ+अम्] शीघ्र, तुरन्त, पास ही, निकट, तत्परता से। 'त्वगाद्गर्भवती स्वतोऽरम्' (सुद० २/४६) (अरं शीघ्रम्। (जयो० वृ० २/१७) अरम (वि०) रमता नहीं, संतुष्ट नहीं। 'मनोऽरमायाति ममाकुलत्वं।' अरमण (वि०) अरुचिकर, असंतोषजनक, सुख रहित। अरमणीय (वि०) शोभा रहित। अरम्य (वि.) अशोभनीय, कान्तिहीन। 'का सावरम्या स्मरसारवास्तु।' 'अरम्या रमणीया न भवति' (जयो० ३/६३) अररं (नपुं०) कपाट, किवाड। उपहतः पुनरुक्तपरिश्रमैरररवत्। ___ अररवत्-कपाटवत्। (जयो० २५/७८) अररे (अव्य०) [अर+रा के] घृणा सूचक अव्यय, अवज्ञा सूचक। अरविन्दं (नपुं०) [अरान् चक्राङ्गानीव पत्राणि विन्दते-अर+ विन्दु । श] लालकमल, रक्तकमल। म्लायन्ति तद्वधूनां For Private and Personal Use Only Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अरविन्दः १०१ अरुचिता मुखारविन्दानि यात्रासु। (जयो० ६/५३) 'अरविन्दधिया अरिनारीनिकर (वि०) शत्रुस्त्रीसमूह। 'किलारिनारीनिकरस्य दधद्रवि।' (वीरो० ७/१०) नूनं वैधव्यदानादयशोऽप्यनूनम्।' (जयो० १/६०) अरविन्दः (पुं०) सारस पक्षी। अरित्रं (नपुं०) [ऋ+इत्र] १. कवच, शत्रु रक्षक कवच, २. अरविन्दाक्ष (वि०) कमल सदृश नेत्र। पतवार, डांड, लंगर। "नरतिलको रणजलधिं युक्तोऽरित्रेण अरविन्दिनी (स्त्री०) [अरविन्द इनि+डीप] कमल नाल, विशदमति।" (जयो० वृ०६/६६) "अरित्रेण कवचेन, पक्षे कमलदण्ड। मत्स्यादिभ्यः परित्रायक-काष्ठेन युक्तः सन्।" (जयो० वृ० अरस (वि०) रसाभाव, नीरस, रसविहीन। ६/६६) 'कृतासु दैवेन विपत्स्वरित्रम्।' (भक्ति०सं०९) अरसिक (वि०) रसकता रहित, राग विहीन, अनुरागक्षीण।। अरिभावः (पुं०) षष्ठस्थान, चंद्रमा रूप जन्मपत्र के अराग (वि०) राग मुक्त, विरागजन्य, प्रशान्त, सौम्य, सरस। अरिभाव/शत्रुभाव। 'यस्यारिभावे गुरुशुक्लतास्ति।' (जयो० अरागता (वि०) राग की शून्यता, सौम्यता, सरसता, शान्तभावता। १५/६९) अराजक (वि०) प्रभुत्वहीन, राजसत्ता रहित, राजा विहीन। अरियौवति (स्त्री०) शत्रु नारी, वैरियों की स्त्रियां। निज-निजअराजन् (वि०) जो राजा न हो। कराग्र-टङ्कोट्टङ्गैररियौवतैर्यस्य। (जयो० ६/६०) अरातिः (पुं०) वैरी, शत्रु, दुश्मन। 'अरातिवर्गस्तृणतां बभारं।' अरिवर्ग (वि०) शत्रु समूह, वैरी समूह। 'स्वर्णे तृणे (जयो०८/४७) मित्रगणेऽरिवर्गे'। (भक्ति०सं० २६) अरातिवर्ग (वि०) शत्रुसमूह, वैरिसमूह। (जयो०८/४७) अरिवर (वि०) शत्रुजन, वैरी विशेष। 'यमुनमारिवरेण समर्पितां।' अरादक (वि०) अनर्थ, अनिष्टकारी। (समु० ७/११) (समु० ७/११) अरादक-सन्तति (वि०) अनिष्टकारी परम्परा। (समु० ७/११) अरिव्रज (वि०) शत्रु समूह। “अरीणां शत्रूणां व्रजः समूह:।'' अरिः (पुं०) शत्रु, वैरी, दुश्मन। (सम्य० १५३) (जयो० (समु० १/७) १/२) दधुर्नार्योऽरयश्चैव। (जयो० ३/१०५) 'कस्य अरिष्ट (वि०) सम्पूर्ण, पूर्ण, ०अविनाशी, अक्षत, निरापद। करेऽसिररेरिति सम्प्रति।' (सुद० ७४) गत्वाऽरिरप्यस्य न विद्यते अरिष्टं अकल्याणं येषां ते अरिष्टा: कथोपगामी। (जयो० १/२५) अरिष्टः (पुं०) बगुला, अरण्यवायस्। अरिकर्षण (वि०) शत्रु-पीड़ित। अरिष्टं (पुं०) अनिष्ट, अहित। अरिकुल (वि०) वैरी समूह। अरिष्टः (पुं०) अरिष्टनेमि, बाइसवें तीर्थंकर। 'अरिष्टनेमि अरिक्त (वि०) ०व्यर्थ नहीं 'कम नहीं, ०क्षीण नहीं।' पृतनजिमाशु।' (दयो० वृ० २८) अनि:शेषित (जयो० २/१०७) (जयो० वृ० १/१७) अरिष्टनेमि देखो अरिष्टः। अरिचिन्तनं (नपुं०) शत्रु विचार, शत्रु योजना। अरिष्टमथनः (पुं०) शिव, विष्णु। अरिता (वि०) शत्रुता, वैमनस्वता। 'नाम्बुधौ मकरतोऽरिता अरिष्टसूदनः (पुं०) विष्णु का उपनाम। हिता।' (जयो० २/७०) अरीतिः (स्त्री०) दुर्नीति, दुर्व्यवहार, दुराचरण, दुष्प्रवृत्ति। अरि-तिरीटज (वि०) शत्रुभूपकिरीटज, शत्रु मुकुटों की मणियां। । 'अरीतिकर्तापि सुरीतिकर्ता।' (जयो० १/१२) चरणयोर्मणयोऽरितिरीटजाः। (जयो० ९/६३) अरीतिकर्ता (वि०) १. वैरियों के लिए उपद्रव करने वाला। अरिञ्जयः (पुं०) अरिञ्जय नामक रथ, जयकुमार का रथ। "अरिषु शत्रषु ईतिर्व्यथा तस्याः कर्तेति।" (जयो० वृ० (जयो०८/६९) अङ्गीचकाराध्व-कलङ्कलोपी ह्यरिञ्जयं नाम १/१२) २. दुर्नीतिकर्ता-'अरीतिदुर्नीतिस्तस्याः कर्तेति। (जयो० रथं जयोऽपि। (जयो० ८/६९) वृ० १/१२) अरिदारा (स्त्री०) ०शत्रु स्त्री, वैरी नारी कुल-कलंकिनी। | अरुचिः (स्त्री०) उदासीन, अपराग, अनिच्छा, अहितकर। 'स 'क्षालितमरिदारदृग्जलौघेन।' (जयो० ६/३८) दानधर्मेकृतवान्पुनारुचितम्।" (समु० ४/६) अरिनन्दन (वि०) शत्रु को प्रसन्न करने वाला। अरुचिता (वि०) अपरागता, अरुचि प्रकट करने वाला, अरिनारी (स्त्री०) शत्रु नारी, वैरी स्त्रियां। 'तकाञ्छतत्वेन अनेच्छुक। तद्गुणश्रवण-सम्भवदरुचितया कर्णकण्तिम्। किलारिनार्यः।' (जयो० १/२६) (जयो० ६/८९) For Private and Personal Use Only Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अरुचिधारिणी १०२ अकीर्तिः अरुचिधारिणी (वि०) उदासीन, आलस्यचिह्न, विजृम्भण। (जयो० | अरुणोपभासि (वि०) ०महदी, मेंहदी, लालिमा, रागिमा। वृ० ६/३९) अरुणया महदींति नामिकयोपभासि रक्तं लोहितं महदी/मेंहदी। अरुचिर् (वि०) अरुचिकर। (जयो० वृ० १५/७५) अरुज् (वि०) स्वस्थ, नीरोग। अरुद्र (वि०) सौम्याकृति, सौम्य् रूपवान्। ०रौद्र रहित, अरुज (वि०) स्थस्थ, नीरोग। "शिवतातिं गुरुतात्तरामरुद्रः।" (जयो० वृ० १२/५) अरुण (वि०) सन्ध्याराग, सन्ध्यारक्तिम्, सन्ध्या की लालिमा। अरुन्तुद (वि०) [अरुषि मर्माणि तुदादि इति-अरुस्+तुद्+ (जयो० १५/२४) "पातुं किलात्रारूणम नमेषं।।""अरुणोऽ- खश्+मुम च] पीड़ाजनक, कष्टदायक। नुरुसूर्ययोः, कुष्ठे चाव्यक्त रागे च सन्ध्यारागे च पुंस्यम्।" अरुन्धती (स्त्री०) [न रुन्धती प्रतिरोषकारिणी] प्रभात कालीन इति विश्वलोचनः। तारा। अरुण (वि०) व्याकुल, दुःखी, (जयो० २७/४७) 'अरुणो अरुष (वि०) शान्त, कुद्ध। कान्तिमान, प्रभाजन्य। विस्मित, व्याकुलेऽपि च' इति विश्वलोचनः। अरुष देखें ऊपर। अरुण (वि०) राग, अनुराग, लालिमा। (जयो० २५/६०) अरुस् (वि०) [ऋ+उसि] घायल, चोटग्रस्त। "अरुणतो गुणतः स्वयमात्मनः विरम्।" "नीरवारक्त- अरुह (वि०) अरहन्त, अर्हत्, संसार रहित। कपिल-व्याकुलष्वरुणोऽन्यवदिति विश्वलोचनः। अरूप (वि०) १. रूप रहित, कुरूप, २. अमूर्तिक, आकार अरुणः (पुं०) १. अरुण देव। 'अरुणः उद्यद् भास्करः, रहित, निराकार, निर्मल, शुद्ध रूप, रूपातीत। तद्वतेजोविराजमाना:। २. सूर्य का सारथि। (जयो० १२/८२) अरूपक (वि०) आकृति रहितता, रूप रहिता, रूपक रहित। अरुणं (नपुं०) १. लाल रंग, २. केसर, ३. सोना। अरूपी (वि०) रूप रहित, शब्द, गन्धादि रहित, अमूर्तिक अरुणदम्य (वि०) सूर्य के घोड़ों को जीतने वाला। 'अरुणस्य द्रव्य। अमूर्त द्रव्य (वीरो० १९/३६) न विद्यते रूपमेषामित्य सूर्यसारथेदेम्यान् घोटकाञ्जितवान्।" (जयो० वृ० १२/८२) रूपाणि। (स०सि०५/४) अरुणप्रियः (पुं०) सूर्य, दिनकर।। अरे (अव्य०) [ऋ+ए] ०अपने से छोटे को बुलाने के लिए अरुणमाणिक्य (वि०) लाल माणिक से युक्त। (सुद० ३/१९) प्रयुक्त अव्यय, ईर्ष्या प्रकट करने के लिए भी 'अरे' का "शुशुभे छविरस्य साऽन्विताऽरुणमाणिक्य-सुकुण्डलोदिता।' प्रयोग किया जाता है। "अरे राम रेऽहं हता निर्निमित्तं (सुद० ३/९) हता।" (सुद० ९५) अरे राम रे! मैं बिना कारण मारी गई। अरुणा (स्त्री०) मेहंदी। अरुणया महदीति नामिकयोपभासि अरेपस् (वि०) निष्पाप, निष्कलंक, निर्मल, पवित्र। रक्त-लोहित। अरे रे (अव्य०) विस्मयादि बोधक अव्यय, घृणात्मक आह्वानन अरुणाग्रजः (पुं०) गरुड। के लिए प्रयुक्त। अरुणानुजः (पुं०) गरुड। अरोक (वि०) कान्तिहीन, प्रभारहित, मलिन। अरुणाम्बर (वि०) लोहिताम्बर, आकाश को लाल बनाने अरोग (वि०) रोग रहित, व्याधि विहीन। वाला। ओष्ठ एवमरुणाम्बर-जल्पः। (जयो० वृ०६/४२) अरोगिन् (वि०) रोग से रहित, नीरोग, स्वस्थ, तंदुरुस्त। 'ओष्ठोऽरुणं लोहितमम्बरमाकाशं जल्पतीति।' (जयो० अरोचक (वि०) अरुचिकर, जुगुप्सा। वृ०५/४२) अर्क (सक०) प्रकाशित करना, उष्ण करना, स्तुति करना। अरुणित (वि०) लाल किया गया, रक्तिम, अनुरागित, अनुरञ्जित। अर्क् (पुं०) [अ+घञ्] १. सूर्य, दिनकर, रवि। (जयो० अरुणिम (वि०) अरुणिमा, लालिमा। (जयो० २५/५) ८/२२) २. किरण, प्रभा, चमक, ३. वह्नि, स्फटिक, अरुणिमा देखो अरुणिम। तांबा, ४. आक का पौधा, मदार। अर्क : क्षुद्र वृक्ष विशेष। अरुणिमान (वि.) लोहित भाव, आरक्तवर्ण लालिमागत। (जयो० वृ०७/६९) (जयो० १५/१) अर्क् (पुं०) अर्ककीर्ति राजा, चक्रवर्ती पुत्र, भरतपुत्र। (जयो० अरुणीकृत (वि०) अरुणिमा, लालिमा, अनुराग युक्त किया ५७/५६, जयो० ८/२०) गया। अर्ककीर्तिः (पुं०) अर्ककीर्ति राजा, चक्रवर्ती पुत्र। आदिराज For Private and Personal Use Only Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अर्ककीर्तिः १०३ अर्तिः इदमाह सुरम्यककीर्तिमचिरादुपगम्य।' अर्कस्य कीर्ते सूर्यस्य अर्चासमयः (पुं०) पूजन समय, पूजनकाल, आराधनाकाल, वा। (जयोल वृ० ७/६४) स्तवन काल। 'तत्राहतोऽर्चासमयेऽर्चनाय।' (वीरा० ५/१६ ) अर्ककीर्तिः (पुं०) सूर्यकान्ति, रविप्रभा। अर्चासमये/पूजाकाले तदा अर्चनायपूजनाय योग्यान्युचितानि अर्कता (वि०) आक वृक्षत्व पना, क्षुद्रवक्ष विशेषता। (जयोल वस्तूनि प्रदाय। (वीरो० वृ० ५/१६) ७/६४) अर्चिः (स्त्री०) ज्वाला, किरण, स्फुलिंग, ज्योति, प्रभा, कान्ति। अर्कपद (वि०) अर्ककीर्ति के समीप। (जयो० ७/५६) (जयो० १२/६९) अर्कराजन् (पुं०) अर्ककीर्ति राजा। अर्चिष (वि०) प्रज्वलित अग्नि, प्रदीप्ताग्नि। 'नाद्रिताय तु अर्कयशः (पुं०) अर्ककीर्ति का यश। सदर्चिप घृता' (जयो० २/१०३) सम्यक्त्वेन निरीहताचिर्षि अर्गलः (पुं०) सांकल, सिटकनी, व्योंडा। तपत्येवं तपस्वी भवेत्। (मुनि०३३) अर्गला (स्त्री०) आगल, किल्ली, अगड़ी। अचिस् (पुं०) सूर्य, अग्नि, तेज, प्रकाश, चमक, प्रभा। अर्गलिका (स्त्री०) छोटी आगल, सांकल। अर्ज (अक०) उपार्जन करना, उपलब्ध करना, प्राप्त करना, कमाना, संग्रहण करना। "अर्जयन्ति ततः ताभ्यां परमार्थ अर्घ (अक०) ०मूल्यवान् होना, मूल्य रखना, ०मूल्य लगाना अर्घः (पुं) मूल्य, कीमता यः क्रीणाति सममितीदं। (सुद०९१) मनीषिणः।" (दयो० वृ० १२३) "स्वदोभ्यामर्जयेद्वृत्तिं" अर्घः (पु०) पूजा, आहूति। जल, चन्दनादि का एकत्रितकर (समु० २/३४) (अपने हाथों से अपनी अजीविका करें।) अर्जक् (वि०) [अण्वुल्] संग्रहण कर्ता, उपार्जन करने पूजना। स्थल स्यामनर्घतायाः (सुद० ७० ७२) वाला, प्राप्तकर्ता। अर्ध्य (वि.) १. मूल्यवान्, अत्यधिक कीमती। २. पूज्य अर्जनं (नपुं०) [अ+ ल्युट्] संग्रहण, उपार्जन, अधिग्रहण, भावना. ममप्रणता। ३. उपहारत्व, प्राभृतत्व। प्राप्त करना। हलिजनो बुधान्य-गुणार्जने।' (जयो० ४/६७) अy (नपुं०) अर्चनभाव, पूजनभाव, समादरभाव। किसान बहुधान्य अर्जन/संग्रहण/इकट्ठा करते हैं। अर्च् (अक०) पूजा करना, अर्चना करना, स्मरण करना, अर्जित (वि०) उपर्जित, संग्रहीत। सत्कार करना, अभिवादन करना। "श्रीमतां चरितमर्चतः अर्जुनः (पुं०) १. अर्जुन-नाम, कुन्ती पुत्र, पाण्डुपुत्र, तृतीय सताम।" (जयो० २/४६) अर्चत: स्तुवतः स्तवन। 'पर्वाणि पाण्डु। (जयो० १/१८) युधिष्ठिरो भीम इतीह मान्यः विशेषतोऽर्चयेत,' (जयो० २/३८) अर्चयेत्-पूजयेत्। पर्व शुभैर्गुणैरर्जुन एव नान्यः। (वि) २. [अर्ज उनन्+णिलुक् के दिनों में जिन भगवान् का स्मरण किया करें। च] धवल, निर्मल, स्वच्छ, उज्ज्वल, प्रभा युक्त, चमक अर्चक (वि०) [अण्वुल] स्मरण करने वाला, स्तुति करने युक्त। (जयो० १/१८) अर्जुनोधवलो। (जयो० वृ० १/१८) वाला, पृजक। ३. अर्जुन नामक वृक्ष, धन्वि, कीहा वृक्ष। (जयो० २४.१०६) अर्चन (वि०) [अङ्घ ल्युट्] स्मरण करने वाला, स्तुति करने (जयो० वृ० २१/२४) (धन्विभिरर्जुनवृक्षैर्बल) वाला. पूजा करने वाला, समाराधन, पूजन, स्मरण। अर्जुनवृक्षः (पुं०) कीहावृक्ष, धन्विवृक्ष। (जयो० २१/२४) 'महामते: श्रीपुरुपर्वतार्चने।" (जयो० २४/१६) (अर्चने अर्णः (पुं०) [ऋ+न] सागवान वृक्षा वर्णमाला का अक्षर। समाराधने-पूजा करने में) अर्णवः (पुं०) [अर्णासि सन्ति यस्मिन् अर्णस्व सलोपः] अर्चना (स्त्री०) पूजा, आराधना। (वीरो० ५/१६) समुद्र, उदधि, सागर। अर्चनीय (वि०) [अर्च+अनीय] पूजनीय, स्मरणीय, सम्माननीय, अर्णस् (नपुं०) [ऋ+असुन्। नुट् च] जन, नीर, वारि। "करिष्णवो आराधनीय, आदरणीय। दुग्धमिवार्णसोऽशात्।" अर्घ्य (वि०) [अर्च+ ण्यत्] पूजनीय, स्मरणीय, अर्चनीय। । अर्णसांश (वि०) जलांश (भक्ति० सं०६) अर्चा (स्त्री०) [ अर्च अङ्कटाप्] आराधना, पूजा, अर्चना। अर्णस्वत् (वि०) [अर्णस्+मतुप] गहरा जल, अधिक पानी। (वीरो० ५/१९) अर्तनं (नपुं०) [ऋत्+ल्युट्] आर्त, रुदन, शोक, कष्ट। अर्चावसानं (नपुं०) पूजा का अन्त, पूजा समाप्ति। आचार्याः | अर्तिः (स्त्री०) [अर्द क्तिन्] दुःख, शोक, पीड़ा, व्याधि। पूजाया अवसाने अन्ते गुरुरूपयोश्चर्चाद्वाराहतो। (वीरो० अशान्ति (भक्ति २४) 'न्यासीत्प्रहर्तुं भवसम्भवार्तिम्।' ५/१९) (समु० १/११) For Private and Personal Use Only Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अर्तिकथाविधानम् १०४ अर्थवेत्ता अर्तिकथाविधानम् (नपुं०) पीडाकारक कथा का कथन। स्यादर्थस्तत्समुच्चयः। (सुद० ) काम-भोग तो रस है और (वीरो० १२/३६) धन-सम्पदादि पदार्थों का समुदाय है। अर्तितोदयः (पुं०) दुःख से दूर (वीरो० १८/३३) अर्थ-ओघः (पुं०) धन का भण्डार। अर्तिका (स्त्री०) नाम विशेष, बड़ी बहिन। अर्थकर (वि०) लाभदायक, धनसम्पन्न करने वाला। अर्तिहानि (वि०) आकुलता को दूर करने वाला। (सुद० अर्थकृत (वि०) १. लाभ पहुंचाने वाला, लाभदायक, २. १२८) पाठक, मत्तहस्तिभिरमुष्य हेऽर्थकृत्। (जयो०७/१००) हे अर्थ (सक०) ०प्रार्थना करना, ०मांगना, ०याचना करना, अर्थकृत/पाठक। ०अनुरोध करना, ०प्रयत्न करना, ०चाहना, ०इच्छा करना, अर्थकाम (वि०) धनेच्छुक, धनाभिलाषी। ०समर्थन करना 'शास्त्रमर्थयतु सम्पदास्पद।' (जयो० २/४२) अर्थकामपुरुषार्थी (वि०) रमारती 'रमा' च रतिश्च रमारती, यत्प्रसङ्गजनितार्थदं पदम्।' अर्थकाम-पुरुषार्थी। (जयो० वृ० २/१०) अर्थः (पुं०) इच्छा, प्रयोजन, हेतुभाव, अभिप्राय, लक्ष्य, अर्थकुलः (पुं०) अर्थसमुदाय। (जयो० २/११०) उद्देश्य। अर्थक्रिया (स्त्री०) सार्थक, काम नहीं आना। (वीरो० १९/१२१), १. प्रयोजन-शिशोरिवान्यस्य वचोऽस्त्वपार्थः। मोहाय (वीरो० १९/१) सम्मोहवतां धृतार्थम्। (जयो० २८/२४) 'अर्थः प्रयोजने अर्थक्रियाकर (वि०) सार्थक, काम नहीं आने वाला। विने हेत्वभिप्राय वस्तुषु' इति विश्वलोचना, नार्थक्रियाकरो वीरपट्टो माणवसिंहवत्। (जयो० ७/२८) २. उद्देश्य/लक्ष्य-त्यजेदेकं कुलस्यार्थे ग्रामस्यार्थे कुलं । अर्थ-क्रिया-कारिन् देखें नीचे त्यजेत् ग्राम देशकृते त्यक्त्वाप्यात्मार्थ पृथिवीं त्यजेत्। - अर्थक्रियाकारिणी (वि०) अर्थ क्रिया करने वाली। (जयो० (दयो० २/३), १९/१) ३. अभिप्राय/रहस्य/ज्ञान-'कलङ्कमेत्वङ्कदलं तदर्थ-' अर्थगौरवं (नपुं०) अर्थ की गम्भीरता, वस्तु की गहराई। (जयो० १/१४), अर्थन (वि०) व्ययशालिनी, अतिव्ययकर्ती, अपव्ययी। ४. निमित्त-नो सुलोचनया नोऽर्थो व्यथमेव न पौरुषम्। अर्थजात (वि०) अर्थ से परिपूर्ण, रहस्यगत। (जयो० ७/५०), अर्थजातिः (स्त्री०) पदार्थ समूह (वीरो० २९/६१) ५. रहस्य/जहासि मत्तोऽपि न किन्नु मायां चिदेति अर्थद (वि०) अर्थप्रदाता, धनदाता। मेऽत्यर्थमकिन्नु मात्याम्। (सुद० ३/३८), अर्थदूषणं (नपुं०) अन्याय युक्त अर्थोपार्जन, अर्थ दोष। ६. अभीष्ट, इष्ट-अस्याः क आस्ता प्रियएवमर्थः। (सुद० अर्थदोषः (पुं०) अर्थ दूषण, तत्त्व रहस्य दोष, धन व्यय, २/२२), अपव्यय। ७. वस्तुतत्त्व का बोध-"शब्दस्य चार्थस्य तयोर्द्वयस्या" अर्थनयः (पं०) भेद से अभिन्न वस्तु का ग्रहण। शब्दाचार और अर्थाचार तथा उभयाचार ये ज्ञानाचार के अर्थनिबन्धनं (नपुं०) अर्थाश्रय, अर्थसंग्रह। भेद हैं। (भक्ति०८) पद को पढ़ना, अर्थ लगाना, मेल अर्थ-निश्चयः (पुं०) अर्थ निर्धारण, रहस्य विवेचन, रहस्य मिलाना दोनों का।, निर्णय। ८. पुरुषार्थ-विशेष-द्वितीय पुरुषार्थ-त्रिवर्ग- निष्पन्नतया- अर्थपतिः (पुं०) धनपति, कुबेर। ऽखिलार्थानमनुष्य मेधा लभतामिहार्थात्। (जयो० २/२८) अर्थपदः (पुं०) अर्थ परिज्ञान। धर्मश्चार्थश्च कामश्च वर्गत्रितयमदः। (जयो० वृ० १/२८) अर्थभारः (पुं०) सम्पत्ति का भार (सम्य० ७४) धर्मार्थ-काम-मोक्षाणामनध्ययनशीलः। (जयो० वृ० १/२४) अर्थरुचिः (स्त्री०) तत्त्वरुचि। (सुद० ३/१२) कारणार्थ के योग-धर्मोऽप्यधर्मोऽपि नभश्चकाल: अर्थलोभः (पुं०) धन की लालसा, सम्पत्ति की इच्छा। स्वाभाविकार्थक्रिय- योक्तचालः। (सम्यवृ० २२) अर्थविकल्पः (पुं०) अर्थ को तोड़ना, अर्थ दूषण। अर्थ (नपुं०) धन, कोष, भण्डार, खजाना, सम्पत्ति। 'व्यर्थं च | अर्थविनयं (नपुं०) आसन देना। नार्थाय समर्थनं तु। (जयो० १/१७) कामनामरसो यस्य अर्थवेत्ता (वि०) अर्थ/पदार्थ का ज्ञाता। (वीरो० २२/३) For Private and Personal Use Only Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अर्थ-व्ययः १०५ अर्धनाराचः का। अर्थ-व्यय: (०) धन व्यय, धनखर्च। अर्थित (भू०क०कृ०) प्रार्थित, याचित, इच्छित। अर्थशास्त्र (पुं०) अर्थशास्त्र, विशेष। (वीरो० १८/१४) अर्थित्व (वि०) चाहने वाला, इच्छा करने वाला। अर्थी दोषं अर्थशास्त्रज्ञ (वि०) अर्थशास्त्रज्ञाता। अर्थशास्त्र को नीतिशास्त्र न पश्यति। (जयो० ७० २०/२९) अर्थित्वतः परवशा: भी कहा-प्रत्युवाच वचो व्यर्थमर्थशास्त्रज्ञतास्मयी। (जयो० समिता नवीनाम्। (जयो० २०/२९) ७/४५) अर्थशास्त्रज्ञतास्मयी-नीतिशास्त्रज्ञताभिमानी। (जयो० अर्थिन् (वि०) [अर्थ इनि] अर्थ्यभिलप्प, इच्छुक, प्रार्थित, वृ० ७/८५) याचित, चाहने वाला। अर्थिनां याचकानामभिलाषो: मनोरथ। अर्थशुद्धि (वि०) शुद्धार्थ, शुद्धिविधायक विनिमय नीति शास्त्र। (जयो० १/१७) सम्यक् सूत्रार्थ निरूपण। (जयो० २/५२) अर्थिनी (वि०) ०प्रार्थिनी, ०इच्छिनी, ०अभिलाषिनी। तामाह अर्थशुद्धिदा (वि०) अर्थ की विशुद्धता दिखलाने वाला। पुनरप्येवं कामातुरतयार्थिनी। (सुद० वृ० ९०) अर्थस्य शुद्धिरर्थशुद्धिस्तां ददातीति अर्थशुद्धिदा- अर्थी (वि०) इच्छुक, अभिलाषी। (जयो० २६/७९) सम्प्रत्यर्थी शुद्धार्थप्रतिपादिका। (जयो० वृ० २/५२) च भूभागे। (जयो०७/२१) अर्थशौचं (नपुं०) अर्थ/लेन-देन में शुचिता, धन के प्रति अर्थीय (वि०) पूर्वनिर्दिष्ट, अभिप्रेत। उचित भाव। अर्थय् (वि०) [अर्थ+ ण्यत्] योग्य, उचित, यथेष्ट। (जयो० अर्थ-सम्बन्धः (पुं०) वाक्य से प्रयोजन, अर्थ के प्रति उचित भाव। १/१७) अर्थाचारः (पुं०) नयनाश्रित शास्त्राभ्यास। अर्थ्यभिलाषता (वि०) याचक की अभिलाषा वाला। (जयो० अर्थात् (अव्य०) नि:संदेह, वस्तुतः, यथार्थतः, ऐसा, इस तरह १/१७) 'पूर्णो यतश्चार्थ्य भिलाषतन्तुः।' अर्द (अक०) दुःख देना, पीड़ित करना, प्रहार करना, मारना, अर्थातिशय (वि०) गम्भीरार्थवती, गुर्वी, (जयो० वृ० २०/८१) घायल करना। अर्थानुबन्ध अर्थ नाम की सार्थकता, अर्थ का सम्बन्ध। । अर्दन (वि०) [अर्द+ ल्युट] क्षुभितकर्ता, दु:ख करने वाला, अर्थाजनसार्थकत्व। (जयो० वृ० २/११०) सताने वाला। अर्थान्तरन्यासः (पुं०) अर्थान्तरन्यास नामक अलंकार। (जयो० अर्दनं (नपुं०) दुःख बाधा, पीड़ा, उत्तेजना। ३/१०२, २/४, ३/७०) ७/९१, ७/७८, ५/२५, ३/३१, अर्दित (वि०) रुग्ण, रोगी, व्याकुलित। नार्दिताय तु सदर्चिषे ३/४७, २३/७०) (वीरो० ५/९४, जयो० १४/३९, १६/४८) घृतम्। (जयो० २/१०३) अर्दिताय रुग्णाय-रोगी के लिए। उक्तसिद्ध्यर्थमन्यार्थन्योव्याप्तिपुरः सर:। कथ्यतेऽर्थान्तरन्यासः अर्ध (वि०) [ऋध् णिच्+अच्] अर्ध, आधा, एक के दो श्लिष्टोऽश्लिष्टश्च स द्विधा।। (वाग्भहालङ्कार ४/९१) भाग। स गौरीं जिनामधर्मभङ्गम्। (वीरो० ४/३०) किसी उक्ति को सिद्ध करने के लिए जहां युक्तिपूर्वक अर्धक (वि०) आधा, अर्धभाग। समुदीक्ष्य जिनासनार्धके स्म। किसी अन्य अर्थ को प्रस्तुत किया जाता है वहां | (वीरो०४/३०) 'अर्थान्तरन्यास' अलंकार होता है। तदधीशाज्ञयाऽयातः - अर्धकृत (वि०) आधा किया गया। कुशलं वः पदाजयोः विसारसन्ततेः किं स्याज्जीवनं जीवन अर्धगुच्छः (पुं०) चौबीस लड़ियों का हार। विना।। (जयो० ३/३१) उस नगरी के स्वामी की आज्ञा अर्धचन्द्रः (पुं०) बाण/अर्धचन्द्र नामक हार 'सनागपाशं से मैं आया हूं। मेरा कुशल तो आपके चरणों में है, शरमर्धचन्द्रम्।' (जयो० ८/७७) क्योंकि जल के बिना मछली का जीवन कैसे? एवं अर्धचन्द्राकार (वि०) आधे चन्द्र के आकार वाला। (जयो० सुविश्रान्तिमभीप्सुमेतां विज्ञाय विज्ञा रुचिवेदने ता:। विशश्रमुः वृ० १९/२) साम्प्रतमत्र देव्यः। मितो हि भूयादगदोऽपि सेव्यः।। (जयो० अर्धचन्द्रकृति (वि०) अर्धचन्द्र रूपी आकृति। ५/३४) अर्धचोलक (पुं०) अंगिया, चोली। अर्थापत्तिः (स्त्री०) संजात अदृष्ट दृष्टि की कल्पना। अर्धराजदानम् (नपुं०) आधे राज्य का दान। (वीरो० १७/३९) अर्थिक (वि०) [अर्थयते इत्यर्थी कन] चिल्लाने वाला, घोषणा अर्धदिनं (नपुं०) आधा दिन, अर्ध दिवस। करने वाला। अर्धनाराचः (पुं०) अर्धचन्द्रकार बाण। For Private and Personal Use Only Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org अर्धनारीश्वरः अर्धनारीश्वर : (पुं०) शिव, शंकर । अर्धनिशा ( स्त्री०) आधी रात। अर्धपञ्चाशत् (वि०) पच्चीस, पचास का आधा । अर्धपथं (नपुं०) नीचमार्ग । अर्धपथाच्चपलताऽऽलस्यात् । (जयो० ६/११९) अर्धप्रहरः (पुं०) अधा प्रहर, डेढ़ घण्टे का समय । अर्धभागः (पुं०) आधा हिस्सा | अर्धभाज् (वि०) आधे भाग का हिस्सेदार | अर्ध - भास्करः (पुं०) दोपहर दिन का मध्य भाग । अर्धमाणवः (पुं०) १२ लड़ियों का हार । अर्धमागधी (स्त्री० ) अर्धमागधी भाषा, जो अर्ध मागध में बोली जाती थी। अर्धमार्गे (अव्य०) मार्ग के मध्य में। अर्धमासः (पुं०) एक पक्ष, आधा महिना । अर्धमासिक (वि०) एक पक्ष तक रहने वाला। अर्धमृष्टिः (स्त्री०) आधा बंद हाथ । अर्धयामः (पुं०) आधा प्रहर । अर्धरात्र: (पुं०) आधीरात | १०६ अर्धविसर्गः (पुं०) अर्धध्वनि, व्यञ्जन से पूर्व विसर्ग क् ख् एवं प् फ् से पूर्व विसर्ग । अर्धवीक्षणं (नपुं० ) ०अर्ध दृष्टि, ०तिरछी ०दृष्टि, ० तिरछी चितवन, ० कनखी । अर्धव्यासः (पुं०) वृत्त में केन्द्र से परिधि तक की दूरी । अर्धशतं (नपुं०) पचास । अर्धशेष (वि०) आधा भाग, श्लोक का आधा हिस्सा, अर्धपाद । अर्धश्लोकः (पुं० ) अर्धपाद का श्लोक | अर्धसहित (वि०) आधे से युक्त । (जयो० १ / ३७) अर्धसम्पूरित (वि० ) अर्ध भरे हुए। मत्वाऽर्धसम्पूरित गर्ततुल्यामुवाह। (सुद० २/४७) अर्धाक्षि (नपुं०) अपांग दृष्टि, नेत्र फड़कना । अर्धाङ्गं (नपुं०) अर्ध शरीर, आधा शरीर । अर्धाङ्गि (वि०) अर्ध अंग वाली। (जयो० १/७३) अर्धाङ्गिता (वि०) अर्ध अंग से युक्त । यदज्ञयार्धाङ्गितया समेति । (जयो० १/७३) पार्वतीमर्धाङ्गितया । (जयो० वृ० १/७३) अर्धाङ्गिनी (स्त्री०) प्रिया, पति का अर्ध हिस्सा, " अर्धाङ्गिन्या त्वया सार्धम् ।" (सुद० ११३) अर्धांश: (पुं०) आधा भाग । अर्धांशिन् (वि०) अर्ध भाग धारी । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अर्पितसंविधानम् अर्धासनं (वि०) आधा आसन, आसन का आधा भाग, अतिथि हेतु देना । अर्धेन्दुः (स्त्री०) अर्धचन्द्र । (जयो० १९ / २ ) अर्धेन्दु- समन्वयः (पुं०) अर्धचन्द्रकार लेखकृतार्धेन्दुसमन्वयेन । (जयो० १९ / २ ) अर्धोक्त (वि०) अर्ध कथित, अर्ध प्रतिपादित। अर्द्धः (पुं०) आधा । (दयो० ९१) अर्द्धमङ्गं (नपुं०) अर्ध शरीर । नारी नामार्द्धमङ्गं चेन्नरस्य भवति प्रभोः (दयो० ९१ ) अर्द्धराज्यदानं (नपुं०) आधे राज्य का दान । "निजार्द्धराज्यदानेन पुपोष।" (दयो० ११३) अर्द्धाङ्गिनी (स्त्री०) पत्नी, प्रिया । (जयो० वृ० १२/२१) अर्द्धाङ्गभावः (पुं०) सार्द्धभाव। (जयो० २२ / ५५ ) अर्द्धावशिष्ट (वि०) अर्ध रूप में व्याप्त। (जयो० २४ / ११९ ) अर्पू (सक०) देना, रखना, समर्पित करना । अर्पयामि निर्दर्पयतयाऽहं पदोयजिनमुद्रायाः । (सुद० वृ० ७१ ) सम्बलमादायार्पये यमहमग्रे जिनमुद्रायाः । रदांशुपुष्पाञ्जलिमर्पयन्ती । (सुद० २/१२) वास्तुमुखमर्पयन् । (जयो० २/९७) अर्पयन्- यच्छन्- अर्पयित्वा दत्वा (जयो० वृ० ३/५८) अर्पणं (नपुं०) [ऋ + णिच् + ल्युट् पुकागमः ] रखना, स्थिर करना, डालना। (जयो० ४ / ३२) अर्पणा (वि०) प्रोत्क्षिप्ति पटकना, रखना । अर्पणीय (वि०) क्षेपणीय, निषेपणीय, डालने योग्य। (जयो० ८/१४) तत्तदाप्य निगले हि विभूनामर्पणीयमिति युक्तिरनूना । (जयो० ४ / ३२ ) अर्दित (वि०) समर्पित, प्रतिबिम्बित, दिया जाने वाला। (जयो० २/ १३४) स्थापित, निक्षिप्त, निदर्शित, प्रयोजन वश मुख्यता प्राप्त होना, भक्त्याऽर्पितं बह्रयुपकल्पिशाकं (सुद० ४/३४) सन् स्यात्किन्तु तदर्पितेन शमनं कुर्यात्क्षुधोऽस्वादुलः । (मुनि ०१०) मुकुरार्पितमुखवद् यदन्तरङ्गस्य हि तत्त्वं (जयो० २/१५४) अर्पितवती (वि०) समर्पित करने वाली । (जयो० २९ / ६९ ) अर्पितवत्यहमेषा दासीह। (जयो० २०/६९) अर्पितशाप (वि०) आविद्ध, घायल हुआ। तादृशी स्मरशरार्पितशापे । (जयो० ५/३) अर्पिस (ऋ + णिच् + इसुन् पुकागमः) हृदय, कलेजा । अर्पितसंविधानम् (नपुं०) समर्पित विधान। (वीरो० १८/७) For Private and Personal Use Only Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अर्ब १०७ अलकावलिः | अर्ब (अक०) बध करना, चोट मारना, आघात करना। अर्बुदः (पुं०) सृजन, १. दस करोड़ की संख्या। २. सर्प, ३. मेघ, बादल। अर्भक (वि०) [अर्भकन्] १. छोटा, सूक्ष्म, थोड़ा। २. क्षीण, कृश, मूर्ख, बाल, बौना। ३. बालक, बच्चा, शिशु। अर्य (वि०) [ऋ+यत्] श्रेष्ठ, उत्तम, अच्छा, उचित। अर्यः (पुं०) प्रभु, स्वामी। अर्यमन् (पुं०) [अयं श्रेष्ठं मिमीते-मा-कनिन्] १. सूर्य, रवि। २. मदारलता। (भक्ति २५) अर्यमा (पुं०) सूर्य, राजा, रवि। (समु० ७/८८) यत्रोदयं यातिकिलार्यमायः। (भक्ति २५) (सूर्य उदय को प्राप्त हो रहा है) अर्याणी (स्त्री०) वैश्य स्त्री। अर्वन् (पुं०) १. इन्द्र, शक्र। २. घोड़ा, अश्व। (जयो० १८/९२) अर्ववरः (पुं०) उत्तम घोड़ा, श्रेष्ठ अश्व। अश्वेऽवन् कुत्सितेऽन्यवदिति विश्वलोचनः। अर्वताभश्वानां मध्ये वराः श्रेष्ठाः । (जयो० वृ० १३/१२) अर्वाच् (वि०) [अवरे देशे काले वा अञ्चति-अञ्च क्विन्] इसी ओर आते हुए, इसकी ओर मुख किए हुए। अर्वाचीन (वि०) [अर्वाच्+ख] १. अद्यतन, आधुनिक, वर्तमान कालिका, २. उलटा, विरोधी। अर्वाचीनं (अव्य०) इस ओर, इस तरफ। अर्शस् (वि०) [अर्शस्+अच्] बवासीर अर्ह (अक०) १. योग्य होना, पूज्य होना, समर्थ, ०शक्य, ०शक्त (जयो० ३/३८) ०सम्मानित होना। २. रहना। योऽर्हतीह। ३. बैठना, स्थिर होना, अामि-(दयो० वृ० १०६) ४. चाहना--(सुद० १२९) अर्ह (वि०)अर्ह अच्] पूजनीय, सम्माननीय, आदर योग्य, अधिकार योग्य, उपयुक्त, उचित, (सुद० ७५) मतो भक्तुिमर्हति। (सुद० ७७) अह-ऊँ ही अहँ नमः' इत्येवं पवित्रमंत्रम्। (जयो०८/) अर्हच्छरणं (नपुं०) अरहंतशरण। कुतोऽर्तिरर्हच्छरणं गताय। (भक्ति० २५) अर्हणं (नपुं०) [अर्ह + भावे-ल्युट] पूजा, अर्चना, आराधना, समादर, सम्मान। अर्हत्स्तवनं (नपुं०) वीतराग स्तवन, जिन पूजन। (भक्ति०२५) अर्हदार्यः (पुं०) अर्हद्देव, अरहत। (वीरो० १९/३७) अर्हत् (वि०) [अर्ह शतृ] १. पूजनीय, योग्य, (सुद० ४/४७) सम्मानीय, समादरणीय, २. अर्हन्तपद, विनायक (जयो० ८/८६) अर्हत् प्रभु, अरहंत। (भक्ति०वृ० ४) ओ शिव-जयो० (जयो० १२/१) विनिर्गताऽहत्तुहिनाद्रितो या। (भक्ति०४) अर्हत्त्वाय न शक्तोऽभूत्तपस्यन्नपि दो बलिः । (वीरो० १७/४३) अर्हतः (पुं०) १. अरहंत भगवान, पंच परमेष्ठियों में प्रथम। अर्हत्सु (सुद० २/२९) २. पात्र (दयो० वृ० १०६) अर्हन् (वि०) [भू०क०कृ०] अ- अर्हत् अरहन्त, ३. योग्य, पूजनीय, सर्वश्रेष्ठ, समा ददत्तदुचिताय सदार्हन्। (जयो० ४/४०) अर्हणीय (वि०) पूजनीय, सेवा योग्य। (सुद० २/४२) अर्हन्त (वि०) [अर्ह झ] योग्य, पूजनीय, आदरणीय। अर्हन्तः (पुं०) अरहन्त प्रभु। अभ्यच्चाहन्तमयान्तं। (सुद० ७६) अर्हन्ती (स्त्री०) पूजा, अर्चना। अर्हदुपाश्रयः (पुं०) समवसरण, तीर्थसभामण्डप। केवल ज्ञान प्राप्ति के समय की जाने वाली सभामंडप। (जयो० २६/५७) अर्हद्दासः (पुं०) जम्बूकुमार के पिता, नगर सेठ (वीरो० १५/२५) अय (स०कृ०) पूजा के योग्य, आदरणीय, पूजनीय। अहार्यः (पुं०) पर्वत, गिरि। अहार्यः पर्वते पुसि इति विश्वलोचनः अल् (सक०) सजाना, अलंकृत करना, विभूषित करना। सरिताभरण-भूषण-सारैर्मण्डयोऽप्यलमकारि कुमारैः। (जयो० ५/११) अलका (स्त्री०) केश, धुंघराले बाल। (१४/१५) अलका (स्त्री०) अलकापुरी, कुबेरपुरी। दर्शकोऽधिपतिरत्र गतयाः सन्मनुष्यवसतेरलकायाः। (समु०५/२०) (विजयार्धपर्वत पर स्थित नगरी) अलका नाम कुबेरपुरी। (जयो० वृ० २२/२२) ललितालकां मूर्धभुवमस्या (जयो० २२/२२) अलकानगरी (स्त्री०) कुबेरपुरी। अलकानगरी गरीयसीह। गिरावुत्तरो नदीदृशी। धनदस्य पुरी परीक्ष्यते प्रतिभूषेव समस्तु साक्षितेः। (समु० २/१०) अलकापुर (नपुं०) अलकापुर नामक नगर। अलकावलिः (स्त्री०) १. केशावली, केशराजित, केशपंक्ति। (जयो० १४/१५) ललितामलकावलिं दधान। (जयो० १४/१५) ललितां सुन्दराकारम् अलकानां केशानामावलि पंक्ति दधाम:। (जयो० वृ० १४/१५) २. धात्रीरस की पंक्ति। धात्रीवृक्षाणामावलि। (जयो० वृ० १४/१५) For Private and Personal Use Only Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अल् १०८ अलबालं अल् (अक०) योग्य होना, सक्षम होना, समर्थ होना। 'कवितां (वीरो० ५/१४)शृंगारित करना। (जयो० १।८६) अलङ्करोमुदाऽलम्।' (सुद० १/७) त्याम्रतरुर्विशेष। अलङ्करोति भूषयति पूरयति चेति। (जयो० अलकः (पुं०) ०केश, ०बाल, धुंघराले बाल। कथमप्युदिताल- वृ० १/८६) कालिभिः। (जयो० १३/७१) अलङ्कृतवान् (वि०) शोभा जन्य। (सुद० ३/१८) अलक्त (वि०) [न रक्तोऽस्मात्, यस्य लत्वं-स्वार्थे कन्] अलङ्कृतिः (स्त्री०) [अलंकृ+क्तिन्] १. आभूषण, आभरण, महावर, रागिमा लालिमा। शोभा, रम्यता, सजावट, २. साहित्यिक विभूषण, रस, अलक्षण (वि०) लक्षण रहित, चिह्नविहीन अशुभ, अपशकुन। छन्द, अलंकार पूर्णाकृति। अलंकारशास्त्र। (जयो० २/५५) अलक्षणं (नपुं०) अपशकुन, अशुभ, अशुभ चिह्न। श्रीमतों भगवती सरस्वती सागलङ्कृति विधी वपुष्मतीम्। अलक्षित (वि०) अनवलोकित, अदृष्ट, अदर्शित। (जयो० २/४१) व्याकृति शुचिमलङ्कृतिं पुनश्छन्दसां अलक्ष्मी (स्त्री०) दरिद्रता, निर्धनता, लक्ष्मी अभाव। ततिमिति त्रयं जनः। (जयो० २/५५) (अलंकृतिमलङ्कारशास्त्रम्) अलक्ष्य (वि०) अज्ञात, उद्देश्यविहीन। अलक्रिया (स्त्री०) [अलम् कृ+श+टाप्] विभूषित करना, अलक्ष्यगतिः (स्त्री०) उद्देश्यहीन गति। सजाना, आभूषण धारण करना। अलगर्दः (पु०) [लगति स्पर्शति इति लग्+क्विप्, लग् अर्दयति अलङ्घनीय (वि०) उल्लंघन करने में असमर्थ, अपारनीय, इति। अर्द। अच्, स्पृशन्, सन् अर्दो न भवति) पानी का पार नहीं करने योग्य। सर्प। अलजः (पुं०) [अल+जन्ड] पक्षी विशेष। अलघु (वि०) महत्, बड़ा, भारी, अधिक, जो छोटा न हो, अलञ्जर: (पुं०) [अलं सामर्थ्य जणाति] मर्तबान, मिट्टी का अनल्प। (जयो० १/९३) बर्तन, घड़ा। अलघु-वृक्षः (पुं०) बृहत् वृक्ष, महान् व तरु, उन्नत वृक्षा अलम् (अव्य०) १. पर्याप्त, अधिक, यथेष्ट, काफी। (सुद० (जयो० १/९३) ८८) २. योग्य, सक्षम, ३. कोई प्रयोजन नहीं, बस, इतना अलङ्करणं (नपुं०) [अलं+कृ+ ल्युट्] १. आभूषण, आभरण, ही, बहुत हो चुका, कोई लाभ नहीं। ४. पूर्ण रूप से, पूरी २. सजाना, शोभित करना, विभूषण,श्रृंगार। (दयो० ३) तरह से। अलमिति पर्याप्तम्। (जयो० वृ० १३/०७) "कि अलङ्करणभूत (वि०) सुरम्य, रमणीय, सजे हुए। (दयो०३) प्रयोजनं किमपि साध्यं नास्तीत्यर्थ।" (जयो० वृ०५/९८) महीमण्डलालङ्करणभूतः सुमृदुलसन्निवेशः। भुवि सत्या अलमपरेण। (सुद० ८८) अधिक कहने से अलङ्करिष्णु (वि०) [अलम्। कृ+ इष्णु च] श्रृंगार करने वाला, क्या? विचारसारे भुवनेऽपि साऽलङ्कारामुदारां कवितां विभूषित करने वाला। मुदाऽलम्। (सुद० १/७) अलंकार युक्त उदार कविता अलङ्कारः (०) [अलम्+कृ+घञ्] आभूषण, आभरण, विभूषण। भली भांति सेवन योग्य है। यहां सक्षम, समर्थ के योग में साहित्य की शोभा, शब्द, अर्थ और शब्दार्थ की रमणीयता। 'अलम्' का प्रयोग है। नाहं त्वत्सहयोगमुज्झितुमल। (सुद० अङ्ग को विभूषित करने वाले वस्त्र, आभरणशृंगार प्रसाधन वृ० ११३) आदि। विचारस्य हारो हृदयालङ्कारो यस्य। (जयो० वृ० अलम्पट (वि०) छल रहित, लोभ रहित, पवित्र विचारवाला। ११८६) अलम्बि (वि०) धारण किया, देखा गया, ०अवलम्बित, अलङ्कारकः (पुं०) [अलम्+कृ+घञ्स्वार्थेकन्] आभूषण, आधारिता पुरन्दरेणोदयिन। समुत्तरमकम्पनेऽलम्बि विभूषण, आभरण। पुलोममादरः। (जयो० ५/८९) अलङ्कारपूर्ण (पुं०) अलङ्कार सहित, काव्य लक्षणों से परिपूर्ण। | अमल्बुष (पुं०) [अलं पुष्णाति इति] १. वमन, छर्दि। २. अलंकारिपूर्णा कविता (सुद० २/६) हथेली। अलङ्कारमाश्रितवती (वि०) अलंकार के आश्रय रहने वाली अलय (वि०) १. अविनश्वर, नित्य, शाश्वत, २. गृहविहीन, कामिनी। (जयो० वृ० ३/११) इधर-उधर रहने वाला। अलकुर्वन् (वि०) अलंकृत करता हुआ। (वीरो० १५/१४) अलले (नपुं०) [अर+रा+के रस्य लः] शब्द विशेष। अलङ्क (सक०) अंलकृत करना, सुशोभित करना, सजाना, | अलबालं (नपुं०) क्यारी का स्थान, पानी देने का स्थान। For Private and Personal Use Only Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अलस् १०९ अले अलेले अलस् (अक०) [अ+लस्] कान्तिहीन होना, अप्रभा होना। अलिजिह्वा (स्त्री०) कोमल तालु, घांटी, गले के अन्दर कौवा। अलस (वि०) [न लसति व्याप्रियते-लस्+अच्] १. आलसी, अलिन् (पुं०) १. भ्रमर, भौरा, २. बिच्छु। उदासीन, सुस्त, क्रियाहीन, अनुद्यमी, स्फूर्तिरहित, २. अलिगर्दः (पुं०) सर्प, अहि।।। थका हुआ, श्रमवियुक्त। अलिङ्ग (वि०) लक्षण विहीन, चिह्न रहित। अलसक (वि०) [अलस कन्] ०अकर्मण्य, कर्त्तव्य रहित, अलिञ्जरः (पुं०) [अलनम्-अलिः अल्-अन् तं जरयति उदासीन, परिश्रम रहित। इति-जृ+अच्] जलपात्र। अलसज्ञा (वि०) आलस्य को प्राप्त हुई, रसज्ञता रहित। अलिनागः (पुं०) भ्रमरराज, श्रेष्ठ शृंग। "वारिजे आलस्य (वीरो० ५/२०) गुणांस्तु सूक्ष्मानपि सालसज्ञा। कमलिनीमलिनागो।" (जयो० ४/५६) अलिर्धमर एव (जयो० २४/८७) नागः श्रेष्ठ,गः। (जयो० वृ० ४/५६) अलसत्व (वि०) आलस्य, उदासीनता, स्फूर्ति का कमी, अलिनिनादः (पुं०) भ्रमर गुन गुन (वीरो० ६/१४) ० श्रम विहीनता। (जयो० १/६) “विद्याऽनवद्याऽऽपं अलिपकः (पुं०) १. कोयल, २. भ्रमर, ३. कुत्ता। 'पिकेऽपिकस्तु बालसत्वं'। दधाम्यहं तम्प्रति बालसत्वं। (वीरो० १/७) स्यात्पिकालिरतहिण्डके' इति विश्वलोचन:। अलब्ध (वि०) अनुपलब्ध, उपलब्धि रहित। (जयो० २३/११) अलिबलं (नपुं०) भ्रमर सामर्थ्य, भ्रमरशक्ति। अलब्धपूर्व (वि०) अलौकिक, पूर्व में नहीं प्राप्त हुई। अलाभ (वि०) इच्छित की प्राप्ति न होना, अलाभ नामक प्रियामलब्धपूर्वामिव सुन्दरी श्रिया। (जयो० २३२११) परीषह। अलातः (पुं०) अंगार, इंगाल। अलिमाला (स्त्री०) भ्रमरतति, भ्रमरपंक्ति, भौंरों का समूह। अलाबुः (स्त्री०) [न लम्बते, न लम्ब्+उ णित्, न लोपश्च "अनयोः करकुङ्मलेऽलिमाला। (जयो० १२/१०१) बृद्धि:] लम्बी चौकी, आल, गडेलू, तुम्बी। (जयो० अलिसमूहः (पुं०) भ्रमर समूह, भ्रमरपंक्ति। अलीक (वि०) [अल+वीकन्] १. मिथ्या, असत्य, अलाबुफलं (नपुं०) तुम्बीफल, लौकी उरोजयुगलं तत्सहकारि | असत्प्रलापी। २. अरुचिकर, अप्रिय, अहितकर। (मुनि०२) सहाजालाबुफलप्रतिहारि। (जयो० १४/६५) अलीक-कथा (स्त्री०) असत्यभाषण, मिथ्या कथन, झूठ अलारम् (नपुं०) [ऋ+यङ् लुक्+अच् रस्य ल:] द्वार, दरवाजा। प्रतिपादन, मिथ्याव्यापार। चौर्यालीककथाकृतोऽपि न भवेत् अलि: (पुं०) १. भौंरा, २. भ्रमर, षट्पट। २. बिच्छु, ३. कौवा, सा कामिनी कामिनः। (मुनि०२) । कोयल, ४. मदिरा, शराब। त्वदीय-पादाम्बुजालेः । अलीक-भाषणं (नपुं०) मृषाभाषण, मिथ्याकथन, झूठारोपण। सहचारिणीयम्। (सुद० २/३४) तुम्हारे चरण-कमलों में | मृषानयोऽलीकभाषणप्रमुखा दोषा। (जयो० वृ० २/१४४) भ्रमर के समान। "अम्भोजान्तरितोऽलिरेवमधुना। (सुद० | अलीकवचनं (नपुं०) मिथ्यावचन, मृषा कथन, मिथ्यारोप। १२७) गन्ध का लोलुपी भौंरा कमल के अन्दर ही बन्द | अलीकवाक् (पुं०) मिथ्यावाणी, झूठाकथन। 'नालीकवागित्यसको होकर मरण को प्राप्त होता है। धाराया' (समु० ३/२३) अलिकं (नपुं०) [अल्यते भूष्यते-अल+कर्मणि इकन्] शिर, | अलीकवादी (वि०) झूठ बोलने वाला, मिथ्या-अभिभाषक, मस्तक, ललाट। अलिके ललाटे च तिलकापित। (जयो० मृणावाची। दत्वा समाने तुमगांकुलादीन्वुतो १२/१०१) भवानेवमलीकवादी। (समु० ३/३१) अलिकः (पुं०) भ्रमर, भौंरा, अलि, षट्पद। ये अलय एवालिया अलीकिन् (वि०) मिथ्यावादिता, अप्रियता। भ्रमरास्तेषां।'' (जयो० १/८२) अलुः (पुं०) छोटा पात्र, कलशी। अलिकुटुम्बिनी (स्त्री०) भौंरी, भ्रमरी, भ्रमर की गृहिणी। अलुक् (पुं०) [नास्ति विभक्तेः लुक् लोपो यत्र] अलुक् समास 'वलाहक-कुलमलिकुटुम्बिनीव।" (दयो० ५३) विशेष, जिसमें पूर्वपद की विभक्ति का लोप नहीं होता। अलिकुलं (नपुं०) भ्रमर समूह, भ्रमर समुदाय, भ्रमर झुण्ड। अलुब्धकः (पुं०) १. बहेलिया (सुद० ७/८), २. लोभ रहित। अलिकोचितः (पु०) ललाट प्रान्त, मस्तक भाग। अले अलेले (अव्य०) अरे, अए, ए। मागधी, पैशाची प्राकृत "अलिकोचितसीम्नि कुन्तला।" (जयो० १०/३३) में प्रयुक्त। १४/६५) For Private and Personal Use Only Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अलेपक ११० अल्पायुस् अलेपक (वि०) निष्कलंक, कलंकरहित। अल्पज्ञ (वि०) स्वल्प ज्ञायक, कम जानने वाला। अलेवडं (नपुं० ) छांछ आदि। 'अलेवढं यच्च हस्ते न सज्जति।' अल्प-तनु (वि०) कृशकाय, क्षीणदेह। (भ०आ० टी०२२०) अल्पतर (वि०) स्वल्प, अधिक कम। अल्पादल्पतरं अलेश (वि०) ०लेश्या रहित, कृष्ण-नीलादि लेश्या रहित। गृह्णन्वरेचनमिव क्रमात्। (समु० ९/२८) अयोगकेबली, सिद्ध। अल्पद्वारः (नपुं०) लघु दरवाजा, छोटा द्वार। अल्पद्वारत इत्यदो अलेश्य देखो अलेश। वदितवान् श्रीनाभिराजात्मजः। (मुनि०१०) अलोक (पु०) लोक के बाहिर का भाग (न लोक्यते इति । अल्पदृष्टिः (वि०) १. सूक्ष्म दुष्टि। २. अदूरदर्शी, कम उदार! अलोक:) शुद्धैकाकाशवृत्तिरूपोऽलोकः। (पंचा०व० ३४/वृ० अल्पधन (वि०) निधन, धनहीन। ७५) अल्पधी (वि०) मूढ, मूर्ख, अज्ञानी। अलोकाकाशः (पुं०) लोक के बाहर सब अनन्त आकाश। अल्पप्रसज् (वि०) कम सन्तान वाला। लोक्यन्ते उपलभ्यन्ते यस्मिन, जीवादिद्रव्याणि स लोकः, अल्पप्रमाण (वि०) हल्के वचन का, कम वजन का, लघु तद्धिपरीतोऽलोकः। (धव०४/पृ० ९) प्रमाणा अलोकनं (नपुं०) अदर्शन, अन्तर्ध्यान, अदृश्यता। अल्पप्रयोग (वि०) कदाचित प्रयुक्त, कम प्रयोग। अलोल (वि०) ०लोभ रहित, ०लालच हीन, शान्त, ०इच्छा अल्पप्राण (वि०) १. स्वल्प श्वास, स्वर, ०अर्धस्वर, रहित। चपलता विमुक्त। ०अनुनासिक अक्षर, ०हलन्ताक्षर। अलोलुप (वि०) ०आशाओं से रहित, अभिलाषा विमुक्त, अल्पबत (वि०) निर्बल, बलहीन, शक्ति रहित। निष्पह। विषयेच्छा विहीन. ०सांसारिक इच्छाओं से अल्पबहुत्व (वि०) परस्पर एक-दूसरे से हीनाधिकता। रहित। अल्पबुद्धि (वि०) अज्ञानी, मूर्ख, बुद्धि विहीन। अलौकिक (वि०) असाधारण, लोकोत्तर, लोक में सर्वश्रेष्ठ, अल्पमति (वि०) अज्ञानी, मृर्ख, बुद्धिहीन। जो लोक में प्रचलित न हो। (जयो० २७/८) अल्पमात्रं (वि०) छोटी मात्रा, लघु, थोड़ी मात्रा, कम से कम। अलौकिकी (वि०) लोकोत्तरा, लोक में उत्तम-(जयो० २७/८) अल्पमूर्ति (वि०) छोटा कद, ठिगना। लौकिकहित सहित प्रवृत्ति-(वीरो० १८/१८) अल्पमूल्य (वि०) किञ्चित् मूल्य, कम मूल्य 'दुग्धस्य धारेव अलौक्य (वि०) अलोलुप. अभिलाषा रहित। अलौक्यं किलाल्पमूल्य:।' (जयो० २०/८४) सांसारिकफलानपेक्षा। अल्पमेधा (वि०) कमबुद्धि, मूर्ख, अज्ञानी। अल्प (त्रि०) [अल्प+प] १. कम, थोड़ा, किञ्चित्, ०कुछ, | अल्पवयस् (वि०) कम उम्र, लघुवय, छोटा। छोटा, सूक्ष्म, लघु, परिमित। ('जयो० वृ० १/६) अल्पवादिन् (वि०) अल्पभाषी, कम बोलने वाला। परिमितानामल्पानां। (जयो०व० ५/५८) अन्त्याच्छरी- अल्पविद्य (वि०) मूर्ख, अज्ञानी, निरक्षर, अनपढ, अशिक्षित। रादपि किञ्चिदल्पा। (भक्ति०२) अल्पविषय (वि०) सीमित इच्छा। अल्पं (कि०वि०) जरा सा, थोड़ा सा। अल्पशक्ति (वि०) दुर्बल, बलहीन, शक्ति की कमी वाला। अल्पक (वि०) [अल्प+कन्] १. थोड़ा, कम, सूक्ष्म, छोटा, अल्पसरस् (नपुं०) छोटा तालाब, पोखर। लघु। २. क्षुद्र, नीचा अल्पश्रुत (वि०) अल्प श्रुतज्ञान वाला। अल्पकामः (पुं०) स्वल्प काम, थोड़ी इच्छा। नरोऽल्पकामेन अल्पाकाक्षिन् (वि०) संतुष्ट, आशा रहित, आकांक्षा रहित। भवन्फलत्रतामुपैति। (समु० ४/३०) अल्पागम (वि०) आगम से अनभिज्ञ, ०आगम ज्ञान विहीन, अल्पगंध (वि०) थोड़ी गंध युक्त, कम सुरभि वाला। श्रुत विहीन। अल्पचेता (वि०) व्याकुल चित्तवाली। प्रालेय-कल्प अल्पाधार (वि०) आधार की कमी, आश्रय से रहित। धृतवीरुधिवाल्पचेताः। (सुद० वृ०८६) अल्पाख्यायिवादिकरण (वि०) कम कथन करने वाला। अल्पचेष्टित (वि०) क्रियाशून्यता, इच्छाशक्ति रहित। (जयो० वृ० १/६) अल्पछद (वि०) स्वल्पवस्त्रधारी। अल्पायुस् (वि०) छोटी अवस्था वाला, कम उम्र वाला। For Private and Personal Use Only Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अल्पाहारिन् १११ अवक्वणः अल्पाहारिन् (वि०) अल्प भोजी, कम भोजन करने वाला, अवकुण्ठनं (नपुं०) [अव+कुण्ठ्+ल्युट्] घेरना, आकृष्ट करना, आहार परिमितता, ऊनोदरी। परिधि बनाना। अल्पेतर (वि०) बड़ा, महत्। अवकुण्ठित (वि०) [अव कुण्ठ्+क्त] परिवेष्टित, घेरा हुआ, अल्पोपाय (वि०) छोटे साधन वाला। आकृष्ट। अव् (सक०) बचाना, रक्षा करना, समझना, पसंद करना, अवकृष्ट (भू०क०कृ०) [अव+ कृष्+क्त] निष्कासित, संतुष्ट करना, इच्छा करना, भावना करना, उन्नत करना, बहिष्कृत, निकाले हुए, ०उपेक्षित, ०बहिर्भूत, बाहर "स्वागच्छ गच्छ प्रसादोपरिसप्तमवेहि तम्'। जो प्रसाद किया, दूर हटाया। (जयो० १५/८०) अवकृष्टमिवाशु के ऊपर सो रहे हैं, उन्हें ही अपना मित्र समझिए! 'अवेहि कोषतो विजिगीषो स्मरचक्रवर्तिनः। नित्यं विषयेषु कष्टम्' (सुद० पृ० १२१) अवेत्य भुक्तेः अवक्तृप्तिः (स्त्री०) [अव क्लृप्+क्तिन् सम्भावना, सभाव्यता, समयं विवेकात्। (वीरो० ५/३५) । उपयुक्तता। अव (अव्य०) [ अव अच् ] यह क्रिया से पूर्व उपसर्ग रूप में | अवकेशिन् (वि.) [अवच्युतं कं सुखं यस्मात्] फलविमुक्त, प्रयुक्त होता है। जिसका अर्थ-दृढ़, संकल्प, निश्चय बंजर, सुख विहीन, आधार हीन। परिव्याप्ति, अनादर, ०आश्रय, ०अवमूल्यन, आदेश अवकोकिल (वि०) [अवक्रष्टः कोकिलया] कोकिल द्वारा आदि अर्थ निकलता है। 'अवागमिष्यमेवचेदागमिष्यम्।' न तिरस्कृत। किं स्वयम् (सुद० ७७) मया नवागतं भद्रे। सुहृद्यापतितं अवक्र (वि०) सीधा, अनुकूल, सच्चा। (जयो० २२/६५) गदम्। दर्पवतः सर्पस्येवास्य तु वक्रगतिः सहसाऽवगता। ___ वक्रभूः किल विधाववक्रे। (जयो० २२/६५) (सुद० पृ० १०५) दर्प से फुकार करने वाले सर्प के अवक्रविधिः (स्त्री०) अनुकूल शुभ आचार, भाग्यानुकूल। समान इसकी कुटिल गति का आज सहसा पता चल गया। (जयो० २२/६५) अवकट (वि०) [अव-स्वार्थ-कटच्] नीचे की ओर, पीछे की अवक्रन्द (वि०) [अव+क्रन्द्+घञ्] क्रन्दन करने वाला, तीव्र ___ ओर, विपरीत, विरोधी। रुदन वाला। अवकट (नपुं०) विरोध, विपरीत। अवक्रन्दनं (नपुं०) [अव क्रन्द ल्युट्] अतिक्रन्दन्, तीव्र रुदन, अवकर: (पु० [अव कृ अप] रज साफ करना, धूल उच्चक्रन्दन। झकटना। अवक्रमः (नपुं०) [अव+क्रम्+घञ्] नीचे उतारना, अधाक्रम, अवकर्तः (पुं०) [अव कृत्+घञ्] टुकड़ा, धज्जी, वस्त्र के उतार, ढलान। छोटे हिस्से। अवक्रमः (पुं०) [अव+की+अच्] १. कर, राजस्व वसूली, २. अवकर्तनं (नपुं०) [अव+कृत्+ल्युट्] काटना, टुकड़ा करना। उधार देना। अवकर्षणं (अव कृष्+ ल्युट) खींचना, निकालना, बाहर करना, अवक्रान्तिः (स्त्री०) [अव+क्रम्+क्तिन्] उतार, उपागम। निष्कासन। अवक्रिया (स्त्री०) [अव+कृ+श+टाप्] भूल, विस्मरण, स्मृति अवकलित (वि०) [अव कल्+क्त] १. अवलोकित, दर्शित. में न रहना, चूक जाना। दृष्टिगत। २. ज्ञात, गृहीत, लिया हुआ। अवक्रोशः (पुं०) [अव+क्रुश्+घञ्] १. दुर्वचन, निन्दा, अपशब्द, अवकाश: (पुं०) [अव काश्+घञ्] समय, अवसर, मौका। २. अपध्वनि, ग्लानि युक्त वचन। नावकाशममुकान्तृकलाप: क्वापि सम्यगिति पातुमवाप। अवक्तव्य (वि०) एक साथ द्रव्य का कथन, स्वकीय द्रव्य, "अवकाशे सुखे वीचिः इति विश्व०) (जयो० ५/६२) क्षेत्र, काल, भाव और परकीय काल भावादि के साथ (जयो० १५/६) कथन। स्यादवक्तव्य स्याद्वाद की एक दृष्टि। (वीरो० अवकीर्णिन् (वि०) [अवकीर्ण इनि] संयमघातक, ब्रह्मचर्य १९/६) का दोषी। अवक्लेदः (नपुं०) [अवः क्लिद्ः ल्युट्] टपकना, गिरना, कुहरा अवकुञ्चनं (नपुं०) [अव कुञ्च+ ल्युट्] झुकाव, ०मोड़, छाना। ०परावर्त, सिकुड़न, ०आकुञ्चन, अप्रसारण। अवक्वणः (अव+क्वण+अच्) व्यर्थ आलाप, स्वरविहीन रूघ्न। For Private and Personal Use Only Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra अवक्वाथः www.kobatirth.org अवक्वाथः (पुं० ) [ अव + क्वथ्+घञ् ] ०कच्छा, ०पकाना, ०कम उबालना, ०कच्चा पाक, ०अपरिपक्व । अवक्षय: (पुं० ) [ अव+क्षि+क्षच्] नाश, ध्वंस, विनाश, हानि, तबाही। अवक्षयणं (नपुं०) [ अव+क्षि + ल्युट् ] वह्नि शमन साधन, अग्निशमनक। अवक्षेप: (पुं० ) [ अव+क्षिप्+घञ] ०निन्दा, आक्षेप, ०लाञ्छन, ० आरोप। + अवखण्डनं (नपुं० ) [ अव• खण्ड ल्युट् ] विभक्त करना, विभाग करना, खण्ड करना, बांटना, नष्ट करना । अवखात (वि०) गहरा खण्ड, खाई खातिका । अवगणनं (नपुं०) (अवगण ल्युट् ] अवज्ञा, तिरस्कार, अपमान, असम्मान, आरोप, लांछन, मान, निन्दा, घृणा । अवगण्ड: (पुं०) कपोल फुंसी, फोड़ा। अवगत (वि०) प्राप्त, पहुंचा, चल गया, ज्ञात हुआ 'वक्रगतिः सहसाऽवगता।' (सुद० पृ० १०५) मया नावगतं भद्रे ! (सुद० ७३) हे भद्रे ! तुझे कुछ भी ज्ञात नहीं। अवगतिः (स्त्री० ) [ अव + गम् + क्तिन्] दृढ़ता, उचित गति, अच्छा ज्ञान प्रत्यक्षीकरण, समझ, सम्मुख | अवगम (पुं०) [ अव+गम्+घञ्] प्रत्यक्षीकरण, समझना, जानना, अधोगमन, नीचे की ओर अग्रसर । । " अवगाव (भू०क०कृ०) १. प्रगाढ़, गहरा ० अत्यधिक घनीभूत ०२. प्रविष्ट, निवड, डूबा हुआ, आविष्ट निबद्ध, अवगाढरुचिः (स्त्री०) दृद्धान, यथार्थरुचि (त०वा०३/३६) अवगाढ सम्यक्त्व (वि०) दृढ़ प्रतीति, श्रुत आस्था / आगम श्रद्धान्। ( महापुराण ७४ /४४८) अवगाह: (पुं० ) [ अव+गाह्+घञ्] निमग्न, स्नान, दुबकी लगाना, प्रविष्ट होना। अवगाहनं (नपुं०) निमग्न, स्नान, प्रविष्ट होना । अवगाहित (वि०) आलोचित मान्य अहहमूढतया न मया हितं सुमतिभाषितमप्यवगाहितम्। (जयो० ९/३१) अवग्गा (सं० कृ०) अवगाह्य करके (जयो० वृ० २ / १५ ) निगग्न होकर, प्रविष्ट होकर । · अवगीत (भू०क० कृ० ) [ अव+क्त] १. निन्दा, आरोप, घृणा, अपमान, कोसना, चोट पहुंचाना, हृदयघात करना । २. परिहास, धिक्कार, उपहास। अवगुण (सक० ) [ अवगुणय्] खोलना, उद्घाटन करना। अवगुणः (पुं०) अपराध, दोष, लाञ्छन, आरोप, आक्षेप, ११२ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir दुर्गुण । सर्वानवगुणांल्लातीत्यबला प्रणिगद्यते । (जयो० २/१४५) अ-वचनीयः अवगुण्ठ (नपुं० ) [ अव+गुण्ठ ल्युट् ] घूंघट, वस्त्राच्छादन, छिपाना, बुर्का ओढ़ना, पर्दा करना। अवगुण्ठनं देखो अवगुण्ठ । अवगुण्ठनवत् (वि०) वस्त्राच्छादित किया, घूंघट किया, पर्दा किया गया। अवगुण्ठिका (स्त्री०) घूंघट, पर्दा, आवरण, आच्छादन । अवगुण्ठित (वि० ) [ भू०क०कृ०] [ अवगुण्ठ+क्त] आच्छादित पर्दा किया गया, घूंघट लिया, आवृत किया। अवगूढ (वि०) आलिंगित, व्याप्त, ० आवृत । अवगोरणं (नपुं० ) [ अव+गर्ल्युट्] आक्रमण करना, प्रहार करना, धमकाना । अवगूहनं (नपुं० ) [ अव+गृह् + ल्युट् ] छिपाना, आच्छादन, आवरण, प्रच्छन्न करना। अवगूहित (वि०) आश्लेषित, आच्छादित। अवग्रह (सक०) ग्रहण करना, लेना। (वीरो० १८/४७) अवग्रह: (पुं० ) [ अव + ग्रह+घञ्] १. आलोचन, अवधारण, वस्तु का बोध होना, २. साधु की आहार क्रिया की अवधारणा अवगृह्यते अनेन घटाद्यर्था इत्यवग्रहः । (धव० ९ / १४४) वस्तुभेदस्य ग्रहणं तदवग्रहः । (त० श्लो०१/१५) ३. सन्धिच्छेद करना अलग-अलग करना, पद विभाजन करना, पृथक्ता के लिए विराम लगाना, ४. बाधा, रोक, दण्ड | अवग्रहणं (नपुं०) रुकावट, बाधा, अवरोध, विराम | अवग्राहः (पुं० ) [ अव+ग्रह-घव्] वियोजन, टूटना, नष्ट होना, अवखण्डन, विखण्डन । अवघट्ट (पुं० ) [ अव घट्ट घञ्] १. गुहा, बिल, मांद, २. चक्की, घरघट्टी, आटा चक्की अवघर्षण (नपुं० ) [ अव-पृष्+घञ्] रगड़ना, मलना, पीसना । अवघातः (पुं० ) [ अव+हन्+घञ् ] पीड़ा पहुंचाना, मारना, घात करना आरम्भ करना, तीव्र प्रहार | अवघूर्णनं (नपुं० ) [ अव+घूर्ण+ ल्युट् ] घूमना, चक्कर लगाना, परिभ्रमण । अवघ्राणं (नपुं० ) [ अव +घ्रा+ ल्युट् ] सूंघने का भाव, सुरभिग्राहक । अवचन (वि०) १. मूक, मुखरी, मौन, २. वाणी रहित, वचनाभाव । For Private and Personal Use Only अ-वचनीयः (वि०) अशिष्ट, अश्लील, ० अकथनीय, ० अभाषणीय, अनौचित्य । o Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra अवचयः अवचयः (पुं० ) [ अव+चि+घञ्] इकट्ठा करना, चयन, चुनना, तोड़ना, ग्रहण करना 'कुसुमावचयार्थमिहाऽऽगता।' (दयो० पू० ६३) अवचारणं (नपुं०) इकट्ठा करना। अवचूड (पु० ) [ अवनता चूडा अग्रं यस्य वा डो लः] ऊपरी वस्त्र, ध्वज - वस्त्र, लहराता हुआ वस्त्र । अवचूल देखो ऊपर। विश्लेषण, विवेचन। अवचूर्णनं (नपुं०) [ अवचूर्ण ल्युट् ] पीसना, चूर्ण करना, विभक्त करना, पृथक-पृथक करना। अवचूर्णिन् (वि०) चूर चूर किया गया, पृथक्-पृथक् किया गया, पीसा गया। * www.kobatirth.org अवचूलक: (पुं० ) [ अवनता चूडा यस्य, डस्य लत्वम् ] चंवर, उड़ाने का पंखा । + , अवच्छ (वि० ) [ अव+छद्+क] आवरण, ढक्कन । अवच्छिन्न (भू०क०कृ० ) [ अव छिद्+क्त] पृथक किया, विनष्ट किया, विकृत, सीमित निश्चित अवच्छेदः (पुं०) [ अब छिन्] १. बिच्छेद, भेद, विभाजन, खण्ड, भाग, सीमा, विवेचन, २. निर्णीत, निश्चय, दृढ़, स्थितिकरण। + अवच्छेदक (वि० ) [ अव+छि+ण्वुल्] १. विवेचक, वियोजक, प्रतिपादक २. सीमा बांधने वाला, निर्धारक । अवजय ( पुं० ) [ अव+जि+अच्] पराजय पराभूत, दूसरों पर विजय। अवीजति (स्त्री०) [ अवि.जि. क्तिन्] विजय पराजय अवज्ञा ( स्त्री० ) [ अव+ज्ञा+क] अनादर, असम्मान, अपमान, तिरस्कार अवहेलना, अवमति (जयो० २७/४५) 'अवज्ञानेक हेतुतया ।' (जयो० ६ / ७० ) + अवज्ञान (नपुं०) अनादर असम्मान, तिरस्कार, अपमान। अवज्ञायक (वि०) अनभिज्ञ, अनजान, नहीं जानने वाला। (जयो० वृ० १/४० ) अवट (पुं०) [ अव अटन्] १. अघटनीय 'विज्ञैरवाचीत्यवट: प्रयोग: । ' ( सुद० १०७) २. कूप, गर्त, ०गुफा, ०गड्ढा, ० वियर, ३. देहव्रत आच्छादितव्रण "तिरोभवत्येव भुवोऽवटे च वटे" (पृथ्वी के रूप में तिरोहित हो रहा है।) अवटि ( स्त्री०) [अव्+अटि-डीप] कूप, गुहा, ०गर्त, ०विवर, ० छिद्र । अवटी देखो अवटः । अवटुः (पुं० ) [ अव + टीक्+ङ] कूप, गुहा, गर्त, विवर । + 7 ११३ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अवडीनं (नपुं० ) [ अव + डी+क्त] पक्षी उड़ान, खग विचरण। अवत् ( अक० ) रक्षा करना, सम्भालना देख-रेख करना। (जयो० २/९७) कार्यपात्रमवताद्यथोचितं। (जयो० २/९७) कार्यपात्रं भृत्यभवताद् रक्षते (जयो० वृ० २/९७) 'न कलितं किल गर्वबतावता' (जयो० ९/७६) तेन अवता रक्षकेण (जयो० वृ० ३ / ७६ ) अवतंसः (पुं०) [ अवतंस्+घञ्] (सुद०२/१) व्हार, • कर्णाभूषण, आभूषण, ०मुकुट । समङ्गनावर्गशिरोऽवतंसो । (जयो० १/६९) शिरांसि मस्तकानि तेषु अवतंसो मुकुटरूपो गुण: । (जयो० वृ० १/६९) अवतंसकः (पुं० ) [ अव+तंस् + ण्वुल् ] कर्णाभूषण, आभूषण । अवतंसोत्पादक : (पुं०) कर्णाभूषण । (जयो० ६ / ६५ ) अवततिः (स्त्री० ) [ अव+सम्+ क्तिन्] प्रसार, फैलाव, विस्तार, o अवतानः व्यापक । अवतप्त (भू०क० कृ० ) [ अव राप्क्त] चमकाया गया, संतप्त किया, तपाया, गरम किया। अवतमसं (नपुं०) अन्धकार । अवतर् (सक०) उतारना, उद्धृत करना, आना। अवतरन्ती (जयो० ३ / ११२) (जयो० वृ० ८०) अवतर : (पुं०) १. विरत, निर्वाह, २. उतारना । मकरतोऽवतरस्य सरस्वति भवितुमर्हति। (जयो० ९/६१) अवतरणं (नपुं०) १. उत्तारना, उद्धृत करना, अनुवाद करना, उद्धरण, २. अवतार, स्नान के लिए उतरना । ३. कार्य, पद्धति "प्रक्रियावतरणं न दोषभाक" (जयां० २ / २९) अवरतणपद्धति (स्त्री०) ०निःश्रेणी, ०सीढ़ी, ०सोपान (जयो० वृ० १२/५) अवतरणिका (स्त्री० ) [ अवतरणी+कन्+हस्व: टाप्] ग्रंथारंभ मंगलाचरण, भूमिका, प्रस्तावना, प्रारम्भिकी। अवतरित (वि०) [ अव+तृ+क्त] व्याप्त, जन्म लिया, 'अवतरिता सर्वत्र व्याप्तास्तीत्यर्थः' (जयो० वृ० ६/६५) उदरे तवावतरितो (चीरो० ४/४०) (दयो० ४३) अवतरणी (स्वी०) [ अवतरित ग्रन्थोऽनया अवतु करणे ल्युट् ] भूमिका, प्रस्तावना, प्रारम्भिकी। अवतर्पणं (नपुं०) [ अव तृप+ ल्युट् ] शान्तिभाव, आनन्दभाव, + For Private and Personal Use Only तृप्तभावा अवताडनं (नपुं० ) [ अव तद् णिच् ल्युट् ] कुचलना, रौंदना, + प्रहार करना, मारना । अवतानः (पुं० ) [ अव + त् + घञ्] १. समागमन, समागम, २. Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अवतारक ११४ अवनं उदय, आरम्भ, अवतरण, प्रकट, ३. अनुवाद, भूमिका, प्रस्तावना। 'सतृष्णया नाभिसरस्य वापि किलावतार: शतकस्तयापि। (जयो० ११/५) 'जलाशये ऽवतार: समागमनमपि।' (जयो० वृ० ११/५) "दृशोरमुष्या द्वितयेऽवतारं।" (सुद० २/४८) अवतारक (वि०) जन्म लेने वाला। अवतारणं (नपुं०) [अव+त+णिच्+ल्युट्] अवतरण करना, उतारना, पूजा करना, शान्त करना, आराधना करना। "अवतारस्यावतरणस्य तं ज्ञानं तदवतारणं" (जयो० वृ० २४/८२) प्रेषितश्चर इतोऽवतारण हेतवेऽर्कपदयोः सुधारणः। (जयो० ७/५६) अवतारविधिः (स्त्री०) जन्मविधि, जन्मधारण करना। (वीरो० १९/१८) अवतीर्ण (भू०क०कृ०) [अव+तृ+क्त] १. अनुरक्त, नीचे आया, उतरा हुआ, २. पार हुआ, पार प्राप्त। "सा श्रवणेऽवतीर्णा" (जयो० १/६५) "राजसभायामवतीर्णा प्राप्ता।" (जयो० वृ० १/६५) अवतृ (सक०) [अव+तृ] उतारना, अवसरित आना, जन्म लेना। अवतारयति (जयो० २६/२१ अवतरन्ती (जयो० ३/११२) अवतोका (स्त्री०) गर्भपात युक्त गाय। अवत्तिन् (वि०) [अव+दो+इनि] विभाजित, पृथक्करण अवदंश: (पुं०) [अव+दंश्+घञ्] उत्तेजक आहार, चटपटा भोजन, चटपटी खाद्यवस्तु।। अवदा (सक०) देना, बिठाना, स्थित करना। द्वास्थितो रविकरानवदात उत्पलेषु सरसीव विभातः। (जयो०५/२२) अवदाघः (पुं०) [अव+दह्+घञ्] ०ग्रीष्म, गर्मी, तपन, तेज, निदाघ, अग्नि, ज्वाला। अवदात (वि०) [अव+दै+क्त] शुक्ल, निर्मल, पवित्र, स्वच्छ, उज्ज्वला 'गुणावदाता सुवयः स्वरूपा।' (जयो० १/७४) गुणैः सौन्दर्यादिभिः अवदाता निर्मला शुक्ला च। (जयो० वृ० १/७४) अवदानं (नपुं०) [अव+दो+ल्युट] प्रदान, अवग्रहज्ञान, शौर्य सम्पन्न, प्रशस्त दान, बोध 'अवदीयते खण्ड्यते परिच्छिते अन्येभ्यः अर्थः अनेनेति अवदानम्।' (धव०१३/२४२) अवदारणं (नपुं०) [अव+दृ+णिच्+ ल्युट्] विदारण, फाड़ना, चीरना, विभाजन, खनन। अवदाहः (पुं०) [अव+दह्+घञ्] उष्ण, गर्मी, जलन, तपन। अवदीर्ण (भू०क०कृ०) [अव दृ+क्त] खण्डित, विभाजित, विदीर्ण, टूटा हुआ, विनष्ट। अवदोहः (पुं०) [अव+दुह्+घञ्] दुहन, दूध, दुग्ध। अवद्य (वि०) १. त्याज्य, निद्य, प्रशसनीय। १. सदोष, निन्दाह, अप्रिय, घृणित, २. अधम, नीच, निम्न। अवद्योतनं (नपुं०) [अव+द्युत ल्युट्] प्रकाश, चमक, कान्ति, प्रभा। अवधानं (नपुं०) [अवधा+ ल्युट्] ध्यान, सकर्तका, लगन, रुचिपूर्ण, हर्षसहित। (जयो० वृ० ३/३८) अवधानपूर्वक (वि०) ध्यानपूर्वक, तल्लीनतापूर्वक। (जयो० वृ० ३/३८) अवधारः (पुं०) [अवधि+णिच+घञ] निर्धारण, निश्चय, प्रतिबन्ध, सीमा बन्धन। अवधारक (वि०) [अव++णिच्+ण्वुल] निश्चय करने वाला, दृढ़पकल्पी, उचित निर्णयक। अवधारणं (नपुं०) [अव+ धृ+णिच्+ल्युट] सीमाकरण, प्रतिबन्धन, निश्चय, निर्धारण। अवधि: (स्त्री०) [अवधा+णि] १. सीमा, मर्यादा, २. प्रयोग, ध्यान, ३. उपसंहार। ४. अवधिज्ञान-अवधिं प्रति यत्नवान्। (वीरो० ७/४) अवधिज्ञानं (नपुं०) अवधिज्ञान, मर्यादित ज्ञान पांच ज्ञानों में तीसरा ज्ञान, जो परिमित विषय में प्रवृत्त हो। अवधीर (अक०) अनादर करना, अवहेलना करना, अपमान करना। अवधीरणं (नपुं०) [अव+धीर+ल्युट्] अनादर भाव, अपमान भाव, प्रलोपक। (जयो० २/८३) अवधीरणा (स्त्री०) [अव+धीर+ल्युट्टाप्] अनादर, अपमान, असम्मान। अवधूत (भू०क०कृ०) [अव+धू+ क्त] १. लहराया/फहराया हुआ, हिलाया हुआ, २. अस्वीकृत, घृणित, अपमानित, तिरस्कृत। अवधूननं (नपुं०) [अव+धू+ल्युट्] १. हिलाना, ठहराना, २. तिरस्कार, अपमान, ३. क्षोभ, आकुलता। अवध्य (वि०) मारने के अयोग्य, वध न करने याग्य। अवध्वंस: (पुं०) १. परित्याग, विमोचन, २. नाश, चूर्ण करना, खण्ड-खण्ड। ३. निन्दा, घृणा, लांछन। अवनं (नपुं०) १. रक्षा, सुरक्षा, प्रतिरक्षा, २. कल्याण, हित। "वाससोऽहि भुवि जायतेऽवनम्।" (जयो० २/५०) "अवनं/रक्षणार्थ, परिधानानुकूल्यार्थमेवा" (जयो० वृ० For Private and Personal Use Only Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra अवनत www.kobatirth.org २ / ५० ) उक्त पंक्ति में 'अवन' का अर्थ रक्षण और अनुकूल योग्य भी है। भावनाऽपि तु सदावनाय (जयो० २/७५) उक्त पंक्ति में 'अवन' का अर्थ कल्याण है। 'अवनस्य संरक्षणस्यानन्दस्य च' (जयो० वृ० २६ / २३ ) अवनत (भू० क०कु० ) [ अव-नम्+क्त] १. विनय, नम्र, नम्रीभूत २. झुका हुआ, नीचे गिरता हुआ, ३ हर्ष, संतोष, आनन्द, प्रसन्नता । ४. कामना, इच्छा, वाञ्छा। अवनति (स्त्री०) [ अवनम्+ क्तिन्] १. नमना, झुकना, सम्मान देना, प्रणाम, "कृतावनत्या अपि सम्वयोभुजः । " (जयो० १२ / १३१) कृताऽवनतिर्देहनामनं (जयो० वृ० १२/१३१) २. छिपना डूबना । अवनद्ध (वि० ) ०अवनत, ०विनत, ०विनम्रता, नम्रीभूतता; ० झुका हुआ, ० नीचे की ओर अग्रसर । अवना (पुं०) [ अवनी. पञ्] शुका, नम्र, नीचे उतारना। अवनाट (वि०) [नतं नासिकायाः, अव+नाट] चपटी नाक अवनाम (पुं० ) [ अवनम् घञ्] विनम्र झुकना, नमन। अवनावित (वि०) अवगुणी, विनम्रता रहित। गताऽऽर्यिकात्वं , गुणिसम्प्रयोगतः गुणी भवेदेव जनोऽवनावितः। (समु० ४/१६) अवनावह (वि०) आसक्त लीन (सुद० ३/१७) अवनाविह (वि०) कितने ही कोई भी चेष्टा स्त्रियां काचिद चिन्तनीयाऽवनाविहान्यो निजगौ महीयान् (सुद० ८/३) अवनाहः (पुं० ) [ अव+नह्+घञ्] बांधना, कसना, जकड़ना, दृढ़ करना, फेंट लगाना । अवनिः (स्त्री० ) [ अव् + अनि] १. भूमि, भू, पृथ्वी, धरा, धरणी, धरती (वीरो० ३/१) २. आकृति ३. सरिता, सरि। अवनिकूर्चन् (वि०) पृथ्वी खनन करने वाला । अवनेः पृथिव्याः कूर्बनलः क्षोदनतः (जयो० २/१५८) अवनितल (पुं०) भू-भाग (जयो० ६/३०) } अवनिनाथ (पुं०) राजा नृप भूस्वामी अवनिप (पुं०) राजा, अधिपति, स्वामी। अवनिपति: (पुं०) राजा, नृप, भूपति परमपरमवनिपतिं यान्ती । (जयो० ६/८४) अवनिश (पुं०) नरपतिप्रधान (जयो० २८/८७) अवनिपाल (पुं०) राजा, नृप, पृथ्वीपाल (वीरो० ३/१) 'निःशेषनम्नावनिपालमौलि' अवनिभाज: (पुं०) पृथ्वी मण्डल, भूपात्र, भूनिवासी। (जयो० ६/१५) नास्य समोऽवनिभाजाम् (सुद० १/३८) अवनिमण्डनं (नपुं०) भूभूषण, पृथ्वीकरण, भूशोभा । 'अवनिमण्डन नः सुतरां (जयो० ९/१६ ) ११५ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अवबुद्ध अवनिमण्डल (नपुं०) पृथ्वीमण्डल भूभाग अवनिमहेश्वरी (स्त्री०) भूराज्ञि, पटरानी, महारानी । श्राद्धे यथावनिमहेश्वरि ! विप्रजात (जयो० १८/१५) अवनियोगिन् (वि०) पृथ्वी का योगी राजा । अवनियोगीवन्द्यो न नियोगिवन्द्य इत्यर्थः । अवशब्दस्याभावार्थकत्वात् अवगुणवत्। " अवनेर्योगिनो भूमिपतयः । " (जयो० वृ० १/१२) अवनिरुहः (पुं०) वृक्ष। अवनीश्वरि (स्त्री०) पृथ्वीवरि ! महारानी । पृथ्वीश्वरी, महाराज्ञि । कपिलाऽऽहावनीश्वरीम् (सुद० पृ० ८४) हेऽवनीश्वरि सम्वच्मि । (सुद० ८५) अवनीश्वरी देखो अवनीश्वरि । " अवन्ति ( स्त्री० ) [ अव्+क्षिच्+ ङीप्] अवन्ती नगरी उज्जयिनी नगरी क्षिप्रा / क्षिप्रा नदी के तट पर स्थित नगरी (दयो० १०९) 3 अवन्ती (स्त्री०) उज्जायिनी, अर्वोतका अवन्तीप्रदेशः (पुं०) अवन्ती प्रान्त (दयो० पृ० ९) अवन्ध्य (वि०) १. फलवती, फलदायी २. उपजाऊ, उर्वर उन्नत भू रदच्छदाभोगमिषादवन्ध्या (जयो० ११/५४) अवन्ध्या फलवती सती समुदेति (जयो० वृ० ११/५४) अवपतनं (नपुं० ) [ अव+पत् + ल्युट् ] अध: पतन, निम्नपतन, नीचे गिरना । अवपाक (वि०) [ अवकृष्टः पाको यस्य) अतिपाक, अधिक पकाया गया। अवपातनं (नपुं० ) [ अव+पत् णिच् + ल्युट् ] गिराना, फेंकना, ठुकराना। अवपात्र (वि०) अमान्य पात्र, निम्न पात्र । अवपात्रित (वि० ) [ अवपात्र + णिच्+क्त] बहिस्कृत, जाति से बाहर किया गया। अवपीडः (पुं० ) [ अव+पीड् + णिच्+घञ् ] दबाना, पीड़ित करना। अवपीडनं (नपुं०) [ अव+पीड्+ णिच् + ल्युट् ] दबाना, आघात, पीड़न For Private and Personal Use Only अवबुधू (अक० ) जागना, सचेत होना, प्रबुद्ध होना, समझना, जानना। (वोरो० ७/४) 'अवबुध्य मुमोचासाविह' (जयो० ६/४७) अवबुध्य जनुर्जिनेशिनः पुनरुत्याय ततः क्षणादिनः । (वीरो० ७/३) " अवधिं प्रति यत्नवान भूवबोद्ध अवबन्धः (पुं० ) बन्ध, बन्धन। अवबद्ध (वि०) नियन्त्रित, बंधा हुआ। अवबुद्ध (वि०) ज्ञात, अवज्ञात। (वीरो० ७/४) (जयो० १२/४५) Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अवबोध: ११६ अवरुद्धिः अवबोधः (पुं०) [अव+बुध+घञ्] १. ज्ञान, जानना. समझना, अवमानः (पुं०) [अव• मन्+घञ्] १. प्रमाण विशेष, अवमित प्रबुद्ध होना, बोध, २. जागना, जागृत होना, ३. संसूचन, किया जाना, प्रमाण जन्य, माप-तौल। शिक्षण। अवमान (नपुं०) अनादर, अवज्ञा, अपमान, निरादर। (जयो० अवबोधक (वि०) [अव+बुध+ण्वुल्] जागृति, ज्ञान संकेत। ७/५) अवमानं तिरस्कारं कृतवान्। (जयो० पृ०७/५) अवबोधनं (नपुं०) बोध, ज्ञान, जागृति, प्रकाशन, प्रत्यक्षीकरण। अवमाननं (नपुं०) [अव+मन्+णिच्+ ल्युट्] अनादर, तिरस्कार, (सम्य०८२) अपमान, अवज्ञा। अवबोधि (पुं०) १. ज्ञान, २. निश्चय, निर्णय। अवमानना (स्त्री०) अवगणना, अवज्ञा। अवभङ्गः (पुं०) [अव+भङ्ग्+घञ्] १. जीतना, हराना, नीचा | अवमानिन् (वि०) [अव+मन् णिच्+णिनि] अवज्ञाकर्ता, अनादर दिखाना, २. तोड़ना, अलग-अलग करना। करने वाला, अपमान करने वाला, तिरस्कार कर्ता। अवभा (अक०) चमकना, सुशोभित होना। (जयो० ३/१६) अवमानित (वि०) अवज्ञात, अनाहत, अवहेलक, अपमानित, उपेक्षित। अवभान्ति स्म/शुशुभिरे। (जयो० पृ० ३/१६) अवमारुत (पुं०) नीचे चलने वाली हवा।। अवभावः (पुं०) विशेष भाव। अवमूर्धन् (वि०) [अवनतो मूर्धाऽस्य] नम्रीभूत, नम्रगत। अवभावित (वि०) प्रभावित, सुशोभित। मधुनोद्यानभिवावभावितः। । अवमोचक (वि०) मुक्त कर्ता, स्वतंत्र। करने वाला। अवभास् (अक०) शोभित होना, चमकना। अवमोचनं (नपुं०) [अव मुच्+ ल्युट्] मुक्त करना, स्वतंत्र अवभासः (पुं०) [अव+भास्+घञ्] १. चमक, प्रभा, कान्ति। करना, छोड़ना। प्रकाश, २. ज्ञान, प्रत्यक्षीकरण। अवमौदर्य (नपुं०) कम आहार ग्रहण करना, अवमोदरस्यभाव: अवभासक (वि०) [अव+ भास्+ण्वुल] प्रकाशक, प्रभावान्, अवमौदर्यम्/न्यनोदरता। (भ० आ०टी०४८७) कान्तिमय। अवमृत्युः (पुं०) अकाल मृत्यु, अकारण मृत्यु। अवभासण (वि०) प्रकाशक, प्रभावान्, कान्तिमय, प्रभाकर्ता। अवयवः (पुं०) १. पर्व, सन्धि, ग्रन्थि, गांठ। (पर्वेति अवयवअवभासिन् (वि०) देदीप्यमान्, प्रभावान्। सन्धिम्रन्थि। (जयो० पृ० ३/४०) २., शरीर, व्यञ्जन, अवभासित (वि०) प्रकाशित, कान्तियुक्त। स्वररहित अक्षर। (जयो० पृ० ३/४९), ३. तर्कसंगत, अवभुग्न (वि०) [अव+भुज्+क्त] झुका, वशीभूत, आकुञ्चित। युक्ति युक्त, अनुमान घटक। न मनसीति भजे: किमु अवभूथः (पुं०) शुद्धि स्नान। 'विन्दुनाप्यवयवावयवित्वमिहाधुना।' (जयो० ९/४६) अवम (वि०) [अव्+अमच्] १. पापपूर्ण। २. घृणित, अपमानित, अवयवावयवित्व (वि०) अवयव अवयविभावत्व, अनुमान निन्दनीय। ३. खोटा, घटिया, निम्न, अधम। प्रयोग का वाक्यांश। (जयो० ९/४६) अवमत (भू०क०कृ०) [अव+मन्+क्त] घृणित, अपमानित, | अवयाविनी (वि०) अवयव युक्त। निन्दनीय। १. अवज्ञान, अवगणित। 'विद्यातन्मयावयविनी विरवद्या।' (जयो० ५/४०) अवमतिः (स्त्री०) [अव मत् क्तिन्] अनादर, अपमान, घृणा, | अवर (वि०) [न वरः इति अवर:] १. आयु में छोटा, २. अरुचि। पश्चात्वर्ती, अन्य, दूसरा, तद्भिन्न, ३. अनुवर्ती, उत्तरवर्ती, अवमर्दः (पुं०) [अव+मुद्+घञ्] कुचलना, मर्दन करना, महत्त्वहीन। मसलना, विनाश, नाश। अवरतः (अव्य०) पश्चात्वर्ती, अन्य, तद्भिन्न। अवमर्दक (वि०) विनाशक, घातक, मसलने वाला। अवरतिः (स्त्री०) [अव+रम क्तिन्] १. विरम, विश्राम, आराम, अवमन् (सक०) अवज्ञा करना, निरादर करना, अपमान २. रुकना, स्थिर होना, ठहरना। करना। अवरीण (वि.) खोटा, मिला हुआ। अवमन्य (वि.) त्याज्य, छोड़ने योग्य। 'तत्कशास्त्रमवमन्यतमिति।' अवरुग्ण (वि०) [अव+रुज्+क्त] १. रोगी, व्याधि युक्त, २. (जयो० २/६६) त्रुटित, भग्न। अवमल (वि०) मल रहित, निर्दोष। 'बहुसञ्चरितदमवमलं भुवः।' अवरुद्धिः (स्त्री०) [अवरुध्+क्तिन्] ०प्रतिबन्ध, प्रतिरोध, (जयो०१४/४६) ०अवरोध, ०रुकावट। For Private and Personal Use Only Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अवरूप ११७ अवलेपः अवरूप (वि०) कुरूप, विकलांग, ०रूपहीन, असुन्दर, (जयो० ११/७१) अवर्णनीयोऽकथनीयो भास्करः। (जयो० ___०अमनोरम, अरम्य, अमनोज्ञ। पृ० ११/७१) अवरोचकः (पुं०) [अवारुच्+ण्वुल्] रुचि का अभाव, क्षुधा अवर्णवादः (पुं०) घोरनिन्दा, व्यर्थ निन्दा। (सम्य० ७५) का अभाव। अवर्णवादाख्यपयोनिधिं तु। (जयो० ३/९०) निन्दाकरणं न अवरोधः (पुं०) [अवरुध्+घञ्] १. प्रतिबन्ध, प्रतिरोध, प्रतिपादितः। जातिवर्णरहितत्व। (जयो० वृ० २८/२५) बाधा, रुकावट। २. अन्तःपुर, रनवास, रानियों का निवास। 'गुणवत्सु महत्सु असद्भूतदोषोद्भावनवर्णवादः। (स० ३. रानिया, रानी। “अवरोधिमितोऽवदत् पदम्।" (जयो० सि०६/१३) अन्त:कलुषदोषोद सद्भूतमलोद्भावनमवर्णवादः। १०/३) अवरोधमन्तःपुरम्। (जयो० पृ० १०/३), ५. (स०सि०६/१३) अर्थात् गुणी। महापुरुषों में जो दोष नहीं बन्दीकरण, नाकेबन्दी, घेरा, किलाबन्दी, आवृत्तिकरण, उनका अन्तरंग की कलुषता से प्रकट करना अवर्णवाद आवरण। अवरोधक (वि०) [अवरुध्+ण्वुल] प्रतिरोधक, प्रतिबन्धक, अवलक्ष (वि०) [अव+लक्ष्+घञ्] श्वेत, शुभ्र। रोकने वाला, घेरा डालने वाला, अर्गल। (जयो० पृ० अवलग्न (वि०) [अव+लग्+क्त] ०तत्पर, ०संलग्न, ०तल्लीन, ३/१०९) बाधक। सटा हुआ, चिपका हुआ, ०मध्यगत। माभूक्षमाभूलभतेऽवलग्नं। अवरोधकः (पु०) पहरेदार, द्वारपाल। (जयो० ११/२४) स्वच्छ-रक्षणावलग्नायाप्युच्चैः (जयो० अवरोधनं (नपुं०) [अवरुध्+ ल्युट्] १. अन्त:पुर, २. बाधा, ११/९६) अवलग्नो मध्यदेशः (जयो० वृ० ११/९५) प्रतिरोध, अड़चन। (जयो० १३/३१) अवलग्नकः (पुं०) कटिभाग। (जयो० १०/५९) अवरोधनभाजि (स्त्री०) अन्त:पुरसम्बाहका, अन्त:पुर स्त्री। अवलम्बः (पुं०) आश्रय, आधार, सहारा, आड, स्तम्भ। (जयो० १३/३१) अवरोधनभाञ्जि राजितो नरयानानि चलंति (सुद० १२१६, पृ० १४१) 'स्वावलम्ब उपदेश कर" विस्तृते। (जयो० १३/३१) अवलम्बनं (स्त्री०) [अवलम्ब्+क्त] आश्रित, आधारित। न अवरोध-वधू (स्त्री०) अन्त:पुर की स्त्री, "अवरोधस्यान्तः विलम्बित-शीघ्रमेव निर्गतम्। (जयो० ९/५३) पुरस्य वधूः स्त्रीरवतारयन्।" (जयो० पृ० १३/८१) अवलम्बिन् (वि०) [अव+लम्ब्+इनि] आश्रित, आधारित, अवरोधयनं (नपुं०) अन्त:पुर। 'तदवरोधायने मरुदेव्या।' (दयो० गतिर्ममैतस्मरणैकहस्तावलम्बिनः काव्यपथे प्रशस्ता। (सुद० पृ० ३१) १/३) अवरोधिक (वि०) [अवरोध+ठन्] प्रतिरोध जन्य, गतिरोधयुक्त अवलिप्त (भू०क०कृ०) [अव+लिह्+क्त] १. आसक्त, बाधाजनक, आवरण युक्त। तल्लीन, तत्पर, २. अभिमानी, घमण्डी, अहंकारी। ३. अवरोधिकः (पुं०) द्वारपाल, पहरेदार। सना हुआ, आबद्ध, घिरा हुआ, लिप्त हुआ। अवरोधिन् (वि०) [अवरोध+ इनि] प्रतिरोधक, गतिरोधक, | अवलीढ (भू०क०कृ०) [अव+लिह्+क्त] १. स्पृष्ट, व्याप्त, बरधक। संरुद्ध। (वीरो० , २. खाद्य, भुक्त, चर्बित किया, अवलेह्य। अवरोपणं (नपुं०) उन्मूलन, घटाना, कम करना, नीचे उतरना। अवलीला (स्त्री०) क्रीड़ा, खेल, प्रमोद १. तिरस्कार, अपमान। अवरोहः (पुं०) [अव रुह घञ्] उतार, अध: पतन, अधोरुह। अवलुञ्चनं (नपुं०) [अव+लुञ्च+ ल्युट्] १. लोंच करना, केश अवरोहणं (नपुं०) १. चढ़ना, आरुढ़ होना। २. उतरना, नीचे लुंचन, उन्मूलन, उत्खनन, उखाड़ना, निकालना। जाना। अवलुण्ठनं (नपुं०) [अव लुण्ठ्+ल्युट्] लोटना, लुढ़कना, भू अवर्ण (वि०) १. वर्ण रहित, कुरूप, २. रंग विहीन, बदरंग, पर लोटना। ३. कलंक, लोकापवाद। ४. वर्ण-स्वर एवं व्यञ्जन की अवलेखः (पुं०) [अव+लिख्+घञ्] टंकन, उत्कीर्ण, उल्लेख, हीनता। ५. निन्दा, घृणा, लांछन। (जयो० ३/५०) कुरेदना, खुरचना। अवर्णनीय (वि०) अकल्पनीय, ०कथनीय, वर्णन से रहित | अवलेखा (स्त्री०) [अव+लिख्+अटाप्] ०रेखांकित करना, अनिर्वचनीय, ०वचनागोचर। अवर्णनीयप्रभयान्विता मेहवर्णनीयाङ्ग सुसज्जित करना, विभूषित, रगड़ना, ०साफ करना। मिताभिरामे। (जयो० ११/८०) अवर्णनीयोत्तमभास्करा वा। | अवलेपः (पुं०) [अव+लिप्+घञ्] १. विभूषण, अलंकरण। For Private and Personal Use Only Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra अवलेपनं www.kobatirth.org २. लिप्त करना, लीपना। ३. अत्याचार, अनाचार, अपमान, बलात्कार । ४. संघ, समाज । ५. अहंकार, अभिमान । अवलेपनं (नपुं० ) [ अव+लिप् + ल्युट् ] अलंकरण, विभूषण सुसज्जीकरण, आलिप्त। अवलेह (पुं०) [ अव+लिह्+घञ्] १. चटनी, अर्की २. चाटना, लपलपाना। अवलेहिका ( सक० ) चटनी, अर्क । 4 अवलोक् (सक०) देखना, अवलोकन करना । अवलोकयितुं तदा धनी । (सुद० ३/८) 'अर्थशास्त्रभवलोकयन्नृराट् । ' (जयो० २/५९) उक्त पंक्ति में आवलोक' का अर्थ पढ़ना, अध्ययन करना भी है। अर्थशास्त्रमवलोकयेत् पठेदित्यर्थः (जयो० वृ० २५९) दोष नहीं, उनको अन्तरंग की कलुषता से प्रकट करना अवर्णवाद है। अवलोकः (पुं०) [ अवलोक्+घञ्] देखना, दर्शन, दृष्टि अवलोकनं (नपुं० ) [ अव + लोक् + ल्युट् ] चक्षुःक्षेप, दर्शन, दृष्टि, पर्यवेक्षण (जयो० ३/६१) गात्रावलोकनैर्लब्धफला विधात्रा ।' (जयो० ३/९१) 'अवलोकनैः दर्शनोत्सवैः । ' (जयो० वृ० ३० ९१) चक्षुत्क्षेपो ऽवलोकनमभवत्' (जयो० वृ० १६ / २२) 'साम्प्रतं कुशल तेऽवलोकनादञ्चनैः।' (जयो० ३/३४) २. स्थान विशेष अन्वेषण, पूछताछ। अवलोकन कर्त्री (स्त्री०) पारदर्शिका देखने वाली दृष्टिशीला , | नित्यमेतदवलोकनकर्त्री दृष्टिरस्तु नविकारविभर्त्री । (जयो० " - ५/६६) अवलोकनार्थ (वि०) दर्शनार्थ देखने के प्रयोजन के लिए। (जयो० ८९ ) अवलोकनीयका ( वि०) दर्शनार्हा, दर्शन के योग्य दर्शनीय। सुतनोऽस्तु विभूषणैर्यका खलु लोकैरवलोकनीयका। (जयो० १०/३९) 7 अवलोकित (वि०) दृष्टिपथगत देखा गया, दृष्टियुक्त (जयो० वृ० १/७९) अवलोकिता (वि०) देखती हुई। आलोकितवती (वि०) दृष्टि गत होती हुई दिखाई देती हुई। (जयो० वृ०५/९०) 1 अवलोचिक (वि०) यथार्थ संवेदनकारिणी, यथार्थ ज्ञान कराने वाले (जयो० ११/५६) सकज्जले रम्य दृशौ तु तत्त्वावलोचिके अप्यतिचञ्चलत्वात् (जयो० ११ / ६६ ) अवरकः (पुं०) [ अव+ वृ+अप् ततः संज्ञायां वुन्] १. रन्ध्र छिद्र, छेद, २. खिड़की। ११८ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अववादः (पु० ) [ अव+वद्+घञ्] १. घृणा, निन्दा, उपेक्षा, अपमान, अनादर, अवहेलना। २. आदेश, आज्ञा, आश्रय । अवव्रश्च : (पुं० ) [ अव + व्रश्च + अच्] खपची, छिपटी । अवश (वि०) १. अवज्ञाकारी उपेक्षाशीलक, स्वेच्छाचारी, लाचार, स्वतन्त्र, मुक्त। २. न वशो अवश:- जो वश में नहीं, पराधीन, पराश्रित, असह्य शक्तिहीन । , अवसण्डीनं 1 " अवशङ्गमः (पुं०) स्वतंत्र, जो दूसरे के अधीन न हो। अवशिष्टः (पुं०) १. शेष बचा हुआ । (जयो० ३/५०) उद्धरित (जयो० ११२३६) किं वावशिष्टमिह शिष्टसमीक्षणीयम्।” (जयो० १२/१४२) २. जूठन थूक । श्रुत्वास्य समुद्दिष्टं खलु ताम्बूलावशिष्टमच्छिम् ।" (जयो० ६/८२) ३. अन्त्य, अन्य। (जयो० ४/६५, जयो० १/८१ अवशेष: (पुं०) [ अवशिष्पत्र] १. अवशिष्ट, बच्चा, बाकी, शेष २. असमाप्त, शेष युक्त। अवश्य (वि०) नियत आवश्यक । नपुंसकस्वभावस्य स्वभावश्यमियं तु किम् (सुद० ८४) बालिकयोरतनुज वेश्यावश्यः । ( सुद० ९१) "न वश्यमवश्यं चञ्चलम् । " (जयो० १२ / ७४) अवश्यं (अव्य०) निश्चय, जरूर | + अवश्यक (वि०) [ अवश्य कन्] आवश्यक, नियत, करणीय कार्य, श्रमण एवं श्रावक के कर्तव्य । अवश्यकरणीय (वि०) अवश्य करने योग्य, आवश्यक कर्तव्य For Private and Personal Use Only योग्य। (जयो० वृ० १ / १०९ ) अवश्यम्भाविन (वि०) [ अवश्यं भू. इनि] अनिवार्य, आवश्यक, निश्चत ही, अवश्य होने वाला। + अवश्या (स्त्री०) [ अवश्यैक] कुहरा, पाला, धुंधा अवश्याय: (पुं० ) ओस, कुहरा, पाला। अवश्रयणं नपुं० [अव श्रि ल्युट्] उतारना, लेना। अवष्टब्ध (भू०क० कृ० ) [ अव + स्तम्भ + क्त] १. आश्रयवंत, गृहीत पकड़ा गया। २. बाधायुक्त, शुका हुआ। अवष्टम्भ: (पुं० ) [ अव + स्तम्भ+घञ् ] आश्रय, आधार, सहारा। अवष्टम्भनं (नपुं० ) [ अव + स्तम्भ + ल्युट् ] स्तम्भ, आश्रय, टेका, आधार अवसक्त (भू०क० कृ० ) [ अव+सञ्जु + क्त ] प्रस्तुत, स्थित, संपर्कशील अवसक्थिका (स्त्री०) वेष्टन, पट्टी, कमर में विशेष रूप से बांधी जाने वाली पट्टी । । अवसण्डीन (नपुं०) [ अव+सम.डी. क्त] उड़ान, पक्षि समूह का गमन, ऊँचे की ओर गति। Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra अवसथः www.kobatirth.org अवसथः (पुं० ) [ अव+सो + कथन् ] गृह, निवास स्थान । अवसथ्यः (पुं० ) [ अवसथ यत्] विद्यालय, महाविद्यालय, शिक्षा स्थान । अवसन्न (भू०क० कृ० ) [ अवसद् क्त] च्युत। (वीरो० १७/१० ) । १. उदास, शिथिल, जिनवचनानभिज्ञः । २. समाप्त, अवसित, अवगत ३. मोक्षगमन का साधु हीनता। अवसंज्ञा ( स्त्री०) १. अनन्तानंत परमाणुओं का समुदाय । १. संज्ञा रहित, चेतना शून्य, २. आहारादि संज्ञा का अभाव। अवसंश्रय (पुं० ) निवास, घर। (सुद० १/१५) अवसर (पुं० ) [ अव+स्+अच्] १. समय मौका, सुयोग, अवकाश स्थान। (जयो० वृ० १/२) १/६९ ) सम्प्रेरित: श्रीमुनिराजपाद- सरोजयोः सावसरं जगाद । (सुद०२ / ३२ ) । २. परामर्श, गुप्त, अवस्था, क्षेत्र। अवसरणं (नपुं०) अवसर, काल, समय 'तन्मयाऽवसरणं बहुभव्यम् ।' (जयो० ४/७ ) अवसराभाव: (पुं०) असमय, अकाण्ड (जयो० २४/२२) अवसर्ग: (पुं०) [ अव+सृज्+घञ्] मुक्त करना, छोड़ना, स्वतंत्र अवसर्प (पुं०) [ अवसृप घञ्] भेदिया, गुप्तचर | अवसर्पणं (नपुं० ) [ अवसृप्ल्युट् ] नीचे जाना, नीचे उतारना। । अवसर्पिणी (स्त्री०) काल विशेष, आयुप्रमाण आदि के घटने का काम। अवसर्पयति वस्तूनां शक्तियंत्र क्रमेण सा प्रोक्ताऽवसर्पिणी साथ.... ।। हरिवंश पुराण ७ / ५७ ) अवसादः (पुं० ) [ अव+सद्+घञ्] १. मूर्च्छा, उदासी, ममत्व । २. विनाश, क्षय हानि। ३. पराजय, हार। ४. थकावट, थकान, श्रमक्षीणा + अवसादनं (नपुं० ) [ अवसद्+ णिच्+ल्युट्] १. क्षय, हानि, पतन २ उत्पीड़न, आपात अवसानं (नपुं० ) [ अब सोल्युट्] १. उपसंहार समा रुकना, अन्त, विराम, गतिरोध (जयो० ३/१) २. सीमा, परिधि, मर्यादा | (जयो० वृ० ३/४९) ३. मृत्यु, नाश, क्षय, हानि विश्रामस्थल निवास स्थान। अवसानकः (पुं० ) [ अव+सो कन्] परिणाम, सीमा, मर्यादा । व्यञ्जनेष्विव सौन्दर्यमात्रारोपावसानको (जयो० ३/४९) , अवसाय: (पुं०) उपसंहार, समाप्त। अवसित (भू०क०कृ० ) [ अव+सो+क्त] ० अवशिष्ट, ०शेष, ०बचा हुआ ०पूरा किया गया, अन्त किया गया। अवसेक (पुं०) [ अवसिच्+घञ्] अभिसिचेन छिड़कना ११९ · Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अवसेचनं (नपुं० ) [ अव+सिच् + ल्युट् ] अभिसिंचन, छिड़कना, अभिषिक्त करना। अवस्कंदः (पुं० ) [ अव + स्कन्द +घञ्] १. आक्रमण, प्रहार, घात २. शिविर, पड़ाव, छावनी । । अवस्कन्दिन् (वि० ) [ अव + स्कन्द् + णिन् ] ०आक्रमण करने ०वाला ०प्रहारक, ०घातक, ०विध्वसंक ०नाशक । अवस्कर (पुं०) [ अब कौयते इति अवस्कर ] १. मल निष्ठा, पुरीष। २. गुह्यदेश, गुदा अवस्तरणं (नपुं०) [ अबस्तु ल्युट् ] शय्या, बिछौना विछावन अवस्तात् (अव्य० ) [ अवरस्मिन् अवस्मात् अवरमित्यर्थे- अवर+ अस्ताति अवादेशः ] नीचे से नीचे अधोगत | अवस्तार (पुं० ) [ अवस्तृ+घञ्] कनात पर्दा, चादर, चटाई अवस्तु (नपुं०) तुच्छ वस्तु, निम्न पदार्थ, अप्रमाण- अनुमान ज्ञान भी अवस्तु है अप्रमाणरूप है (वीरो० २० / १६ ) अवस्तोभनं (नपुं० ) थू थू करण, ग्लानिकरण | अवस्था (स्त्री०) [ अवस्था अड्] दशा स्थिति, परिस्थिति। अवस्था ( अक० ) ठहरना, आश्रय लेना, आधार होना। (वीरो० १७/४१) संश्रयेत् कमथैकं साऽवस्थातुं स्थानभूषणा । (जयो० ३/६५) अवस्थातुमाश्रयितुम् । (जयो० वृ० ३/६५) अवस्था (स्त्री०) स्थिति, आश्रय , अवस्थानं (नपुं० ) [ अव + स्था + ल्युट् ] १. स्थिति, दशा। (जयो० वृ० १५/१५) (सम्य० ८४) २. निवासस्थान, घर, आश्रय, आधार । ३. स्थितियों में बंधने का स्थान । अवस्थान्तर (नपुं०) स्थिति, अवस्था, दशा। "सहसैव तदिदमवस्थान्तरं पितृर्दृष्ट्वा" (दयो० ९५) अवस्थित (भू०क० कृ० ) [ अव + स्था+क्त] १. दृढ़, स्थिर, निश्चयी । २. प्रमाणभूत बना रखा, जो मात्रा है, उसको नहीं छोड़ना । ३. ठहरा हुआ, आश्रय प्राप्त । अवस्थितिः (स्त्री० ) [ अव + स्था + क्तिन्] निवास, आश्रयस्थान, गृह, आवास, अवस्था । " अवरहणं " For Private and Personal Use Only अवस्यन्दनं (नपुं० ) [ अव+स्यन्द् + ल्युट् ] बूंद, टपकना, रिसना । अवस्रंसनं (नपुं० ) [ अव+स्रंस् + ल्युट् ] नीचे गिरना, अध: पतन, अधःपात। अवहति (स्वी० ) [ अवहन्- तिन्] कुचलना, पीटना, घायल करना। अवहननं (नपुं० ) [ अवहन ल्युट्] १. मारना, प्रहार, घात २. कूटना, पीटना । + अवरहणं (नपुं० ) [ अव+ह+ ल्युट् ] हटाना, अपहरण करना, ले जाना, छीनना, लूटना। Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra अवहस्तः www.kobatirth.org अवहस्तः (पुं० ) [ अवरं हस्तस्य इति ] हथेली का उन्नत भाग । अवहानि: (पुं०) हानि, क्षीण, क्षय, अवचव। अवहारः (पुं० ) [ अव+हण] १. चोर, २. मछली, (शार्क मछली), ३. सन्धि, विराम, ४. आमन्त्रण, ५. त्याग । अवहारक (वि०) [ अव इण्यत्] ले जाने योग्य हटाने लायक, दण्ड देने योग्य। + अवहार्य (स०कृ० ) [ अव ह ण्यत्] हटाकर, दण्ड देकर । अवहालिका (स्त्री० ) [ अव+हल् + ण्वुल्+टाप्] १. दीवा, ०भित्ति, २. अवरोध ०बाधा, ३. ओट, ०ऊंचाई युक्त अवरोध अवहास: (पुं० ) [ अव+हस् घञ्] हंसी, मुस्कान, मंद | · ० हंसी, ० उपहास | अवहेल (अक० ) ० अनादर करना, ०उपेक्षा करना, ० तिरस्कार करना, अपमान करना । कस्यापि प्रार्थनां कश्चिदित्येवमहेलयेत् । (सुद० पृ० १३४) अवहेल: (पुं०) तिरस्कार, अपमान। अवान्तसत्ता (स्त्री०) प्रतिवस्तु व्यापिनी सत्ता, अपने स्वरूप के अस्तित्व की सूचना देना (पञ्चास्तिकाय पृ० ८) अवहेलन (वि०) उपेक्षक, तिरस्कारकर्ता । अवहेला (स्त्री० ) ० तिरस्कार, अपमान, ०अनादर, ०असम्मान। शुचस्तु भवतादवला। (जयो० ५/५३) अवहोलय (अक० ) भूलना, सन्देह करना। अवाक् (अव्य० ) [ अव+अच्+क्विन] 'नीचे की ओर दक्षिण की ओर' 3 अवाक् (वि०) तूणी ० चुप रहने वाला बालग्रमितोदारकान्तिमवाक् (जयो० ६/७८) १. मूक, चुप। २. मौन । अवाक्ष (वि०) [ अवनतान्यक्षाणि इन्द्रियाणि यस्य ] अभिभावक, संरक्षक | अवागम् (अक० ) आक्रमण करना, आक्रान्त करना। अवाग्गोचरकृत् (वि०) अवक्तव्य रूप। (वीरो० १९ / ६ ) अवाग्र (वि० ) [ अवनतमग्रयस्य] नम्रीभूत, झुका हुआ। अवाच् (वि०) मूक, तूष्णी, मौन (वीरो० पृ० ३८) चुप रहने वाला, बाणी विहीन दृष्ट्वाऽवाचि महाशयासि । ( सुद० ९८ ) अवाची (स्त्री० ) [ अवाच+रव] दक्षिण दिशा दक्षिणी । राहोरनेनैव रविस्तु साचि श्रयत्युदीचीमथवाऽप्यवाचीम् (वीरो० २ / २९) अवाचीन (वि०) १. अधोगत, निम्नभूत, नम्रीभूत। २. उतरा हुआ। अवाच्य (वि०) १. दुष्ट, निकृष्ट, अस्पष्ट बोले जाने वाला, ० अस्पष्ट कथन, ० ० अकनीय। अवांचित (वि०) [ अव+अ+क्त] निम्न मात्र झुका हुआ। " " १२० Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अविकल - कुशल अवादि (वि०) अकथित (जयो० २ / १२६ ) अवान (पुं०) [ अव+अन्-अच्] श्वास लेना। अवान्तर (वि०) अतिरिक्त, असम्बद्ध अधीन, सम्मिलित, अन्तर्गत। अवान्तसत्ता (स्त्री०) प्रतिवस्तुव्यापिनी सत्ता, अपने स्वरूप को सूचना देना (पञ्चा०] वृ० ८) " अवाप (भू०) प्राप्त उपलब्ध गृहीत । पुत्तलं स्फुटित भावमचापातो (सुद० ९५ ) । अवाप्ति (स्त्री०) [ अव+आप् क्तिन्] प्राप्त ग्रहण स्वीकार अवाप्य (सं० कृ० ) [ अव + आप् + ण्यत् ] प्राप्त करके, ग्रहण करके यामवाप्य पुरुषोत्तमः स्म (सुद० ११२) उमामवाप्य महादेवोऽपि (सुद० ११२) | अवाम: (पुं०) सरलस्वभाव (जयो० १/१०८) सरल चित मृदुस्वभाव सत्यधर्ममयाऽवाममक्षमाक्ष क्षमाक्षक (जयो० १ / १०८) अवामं सरलस्वभावं मां (जयो० ० १ / १०८) अवायः (पुं०) १. अपाय, निश्चय, दृढ़, भाषादि विशेष के ज्ञान से यथार्थ रूप में जानना 'तत्वप्रतिपत्तिरवायः' (सिद्धि वि०२/९) For Private and Personal Use Only " अवारः (पुं०) किनारा, तट अवारीण (वि०) नदी पार करने वाला | अवावट (पुं०) दूसरी स्त्री से उत्पन्न पुत्र अवावन् (पुं०) चोर । अवासस् (वि०) वस्त्र विहीन, वस्त्ररहित, नग्न । अवास्तव (वि०) अवास्तविक, विवेक रहित, निराधार, निराश्रय, निर्मूल । अवि: (पुं०) १. मेंढा, मेष । कस्येति यमस्याविलान्तीत्येतेषु वरमिमं सारात् (जयो० ६/४७) अवि वाहनरूपं मेघ लान्तीति । (जयो० वृ० ६/४७ ) । २. सूर्य, ३. पर्वत, ४. वायु, हवा, पवन। (जयो० २२/५) ५. ऊनी कम्बल। अवि: (स्त्री०) रजस्वला स्त्री । अविक : (पुं०) भेड। अविकत्व (वि०) अहंकार नहीं करने वाला। अविकत्थन (वि०) अभिमान पूर्वक नहीं कहने वाला । अविकल (वि०) अक्षत, पूर्ण, पूरा पद समयना व्यञ्जनमदलमविकलमपि च सुधाया (सुद० ७२ ) । अविकल - कुशल (वि०) १. बुद्धिमती सम्पूर्ण कुशलक्षेम त्वं चाविकल कुशला बुद्धिमती (जयो० वृ० १४/५५) २. पूर्ण जल वाली, निरन्तर जल प्रवाहित करने वाली । Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अविकलगिरा १२१ अविधुरा 'अविकलमनल्पं कुशं जलं लाति।' (जयो० वृ० १४/५५) अविघ्न (वि०) निर्बाध, बाधा रहित। 'सुकाञ्चीगुणतो ह्यविघ्नम्।' 'शरं वनं कुशं नीरम्।' इति धनञ्जयः। (जयो० ११/२४) अविकलगिरा (स्त्री०) निर्दोषवाणी, सरलवाणी। श्रुत्वा तथ्यामवि- अविचार (वि०) १. विवेक रहित, विचारशून्य। २. परिवर्तन कलगिरा हर्षणैर्मन्थराङ्ग। (वीरो० ४/३७) अविकलया रहित ध्यान। गिरा प्रस्पष्टरूपया वाचा। (वीरो० वृ० ४/३७) अविचारः (पुं०) अविवेक, अज्ञान. मूढ। (जयो० २/१४५) अविकला (स्त्री०) अन्यून कला, निर्दोष विकास। अविचारकारित्व (वि०) विवेकता रहित। कारणजन्यकला। (जयो० ३/६४) अविचारिन् (वि०) विवेक हीन, उचित-अनुचित का ज्ञान न स्पृहयति न कं चन्द्रकलाप्यविकलाशया। अविकलोऽयूना करने वाला। निर्दूषण आशयो। (जयो० ३/६४) अविचार्य (वि०) विचार न करते हुए. नहीं सोचते हुए। यस्याः सा चन्द्रस्य कला। (जयो० वृ० ३/६४) (जयो० वृ०२/१४२) अविकलित (वि०) १. सर्वाङ्ग सुन्दर, पूर्ण रम्य, सम्पूर्ण कला अविच्युत (वि०) अपतित, अभ्रष्ट, योग्य। युक्त। अविकलिताम्बर मणिमयभूषालपितापि रवलतापतनुः अविच्छिन्न (वि०) निरन्तर, सदैव, परम्परा। (वीरो० वृ० सा। (जयो० २२/५) २. सूर्यरूपी आभूषणों से युक्त। २/१२) (जयो० २२/५) अविच्छिन्नप्रवाहः (पुं०) सन्तान, परम्परा, (जयो० वृ० ३/१०३) अविकल्प (वि.) १. विधि, नियम, इच्छा। २. सूर्यरूपी अविच्छिन्नता (वि०) परम्परागत। (दयो० ४५) आभूषणों से युक्त। (जयो० २२/५) अविच्युतिः (स्त्री०) १. अवाय ज्ञान भेद। २. धारणा, वासना। अविकल्प (अव्य०) नि:संकोच, नि:संदेह। ३. धारणा बनी रहना, उपयोग से च्युत नहीं होना। अवि-कल्प (वि०) भेड़ समूह, मेंढा, मेष। (सुद० १/२२) अविज्ञातृ (वि०) अनभिज्ञ, अनजान। यत्रस्था ग्रामा अविकल्पप्रत्यक्षतया। (जयो० ४) अविहीनं (नपुं०) उडान, सीधी उडान। अविकल्पभाव (वि०) संकल्प-विकल्प भाव से रहित। (सुद० अवित (वि०) रक्षित, संरक्षित। (जयो० ७० ३/५) अवितः १/२२) यतित्वभञ्चन्त्यविकल्पभावात्। संरक्षित। (जयो० वृ० ३/५) अविकार (वि०) निर्विकार. राग द्वेप विकार रहित। (जयो० १३/५) अवितथ (वि०) सत्य, सम्यक्, समीचीन. उत्कृष्ट, उत्तम। अविकारः (पुं०) अविकृति, अनुकूल। (जयो० १३/५) वितथमसत्यम्, न विद्यते यस्मिन् श्रुतज्ञाने तदवितथम्, अविकारगामिन् (वि०) अनुकूल गमित, अच्छी तरह चलने तत्थमित्यर्थः। (धव०१३/२८६) वाले। 'अविकाम-विकारगामिनां। (जयो० १३/५) अवितथं (अव्य०) जो सत्य हो, असत्य न हो, मिथ्या न हो। अविकारिन् (वि०) निर्विकारी, विकारभाव को प्राप्त नहीं होने अवितर (वि०) सुरक्षित। _वाले। (सुद०४/१५) 'हे नाथ! मे नाथ! मनोऽविकारि।' अविदूर (वि०) समीपस्थ, निकटस्थ, समीप में, निकट अविकृतिः (स्त्री०) अनुकूल, अविकार। ०सन्निकट। अविक्रम (वि०) दुर्बल, शक्तिहीन, क्रमाभाव। अविद्य (वि०) शिक्षाभाव, मूर्ख, अज्ञानी। अविक्रिय (वि.) निर्विकार, अविकार, अनुकूल, अविद्या (स्त्री०) शिक्षा का अभाव, अज्ञान, मूर्ख। १. अपरिवर्तनशील। असंस्कार, अध्यात्म विद्या का अभाव ०भ्रम, मोह, अविक्षत (वि०) पूर्ण, अक्षत, अक्षय, समस्त। ०माया (भ्रम को उत्पन्न करने वाली। 'अविद्या विप्लवज्ञानम्' अविग्रह (वि०) शरीर रहित, व्याघात रहित। विग्रहो व्याघात: (सिद्धि विन्टी० ७४७) कोटिल्यमित्यर्थः स यस्यां न विद्यतेऽसावविग्रहा गतिः। अविद्यामय (वि०) भ्रमोत्पादक। वक्रता, कुटिलता या मोड़ से रहित। ( स०सि०२/२७) । अविधा (अव्य०) विस्मयादिबोधक अव्यय, सहायतार्थ प्रयुक्त अविघात (वि०) बाधा रहित, घात रहित, अक्षत, पूर्ण। होने वाला अव्यय। अविघुष्ट (वि०) वि-स्वरता रहित, विक्रोश रहित, चिल्लाहट | अविधरा (वि०) १. सौभाग्यवती, सौभाग्यशाली। २. दोष रहित रहित। धुरी, रथ की निर्दोश स्थिति थी। गन्तुमेव सुखतो For Private and Personal Use Only Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अविधेय १२२ अविलम्ब रथस्थिति-मात्मवानविधुरां वधूमिति। (जयो० २१/२०) । अविभा (स्त्री०) प्रभा का अभाव, रात्रि का अन्त, प्रातः, दिन। 'अविधुरां धुराया दोषेण रहितां पक्षे सौभाग्यवतीति। (जयो० | अविभागः (वि०) १. अविभक्त, अविनाशी, अक्षय, अखण्ड, वृ० २१/२०) अन्तिम अंश। २. अनुभाग की बुद्धि। अविधेय (वि०) विपरीत, उलटा, आधीनता रहित। अविभाज्य (वि०) अविभक्त, अविनाशी, जो बांटा न जा सके। अविनत (वि०) नम्रता रहित, अहंकारी। अविभाजित (वि०) विभाग रहित, अविनाशी। अविनय (वि०) १. अविनीत, आज्ञा निर्देश को नहीं पालने अविरत (वि०) १. इन्द्रियों से विरत नहीं, जीव रक्षण नहीं वाला, ०अशिष्ट। २. अनादर, अपमान, अपराध। करने वाला। २. निरन्तर, सदैव, विरामरहित, गतिवान्। अविनाभावः (पुं०) १. सम्बन्ध विशेष, वियुक्त न होने जैनदर्शन में 'अविरत' चतुर्थगुणस्थावर्ती को भी माना गया योग्य सम्बन्ध। २. वियोगाभाव।। है, उसे अविरतसम्यग्दृष्टि कहा गया। जिनवाणी पर श्रद्धा अविनाभावीसम्बंध: (पुं०) कार्य-कारण के अविनाश की रखने वाला भी ‘अविरत' कहलाता है। सम्बंध के स्मरणपूर्वक ही तो अनुमान ज्ञान उत्पन्न होता | अविरतिः (स्त्री०) १. हिंसादि पापों से विरति न हो, असंयम, है। (वीरो० २०/६६) लोभ परिणाम, तल्लीनता, आसक्ति, आतुरता। 'विरमणं अविनाभूस्मृतिः (स्त्री०) अविनाभाव सम्बंधी स्मृति। (वीरो० २०/१७) विरति, न विद्यते विरतिरस्येत्यविरतिः।' (धव०वृ० ७७७) अविनाशी (वि०) नाशरहित, क्षय रहित, अक्षत, अखण्ड। | अविरल (वि०) १. सघन, घना, प्रगाढ़, अत्यधिक। २. वस्तुतो यदि चिन्त्येत चिन्तेतः कीदृशी पुनः। अविनाशी निरन्तर, लगातार, निर्बाध। 'दधुरविरलवारीत्येवमााणि।' ममात्मायं दृश्यमेतद्विनश्वरम्।। (वीरो० १०/३०) (जयो० १४/३४) अविनीत (वि०) ०अशिष्टता, ०अभद्रता, विनय रहित, अविराधना (स्त्री०) अपराध सेवन, अपराध नहीं करना। दुःशील, प्रतिकूल ०अनाज्ञाशील. धृष्ट। 'अविनीता सा अविरामः (पुं०) विश्रान्ति शून्य, विश्राम नहीं, श्रमशील, कुतः कदापि।' (जयो० २२/३१) अविनीता विनयवर्जिता। प्रयत्नजन्य। (जयो० २३/६१) निद्रापि क्षुद्राऽभवद् भुवि (जयो० २२/३१) नक्तदिवमविराम। (जयो० २३/६१) अविनेय (वि०) विनीतता रहित, अनम्रता, अशिष्टता, सद्गुण अविराम कृ (सक०) प्रकट करना, कहना, प्रतिपादन करना। असम्पन्न। "तत्त्वार्थ-श्रवण-ग्रहणाभ्यामसम्पादित गुणा त्रपयेव सम्भवन्ती द्रागाशयमाविराञ्चके। अविनेया।" (स०सि०७/११) न विनेतुं शिक्षयितुं शक्यन्ते अविरुद्ध (वि०) १. विचार रहित, विरोध को नहीं प्राप्त। ये ते अविनेया:। (त०वृ० ७/११) (सुद० २/२) २. शान्त, सरल, मृदु, प्रसन्न। रागद्वेषरहिता अविपन्नः (पुं०) अविपत्ति, सुख, अच्छा, इष्ट, मनोरम, सती सा छविरविरुद्धा यस्य। (सुद० पृ० ७०) विपत्तिशून्य। 'छन्नमित्यविपन्नसमया।' (सुद९०) अविरोधः (पुं०) विरोध का अभाव, अनुकूलता, संगत, अविपाक (नपुं०) कच्चा, बिना पका। अन्नेन नाधुर्द्विदलेन शान्त, सरला (वीरो० ५/३३) 'न विरोधोऽविरोध:' (वीरो० साकमामं पयोऽध्यापि चाविपाकम्।' (सुद० पृ० १३०) वृ० ५/३३) अविपाकः (पुं०) निर्जरा का एक भेद। जिस कर्म का अविरोधक (वि०) विरोध नहीं करने वाला। उदयकाल अभी प्राप्त न हुआ हो। अविरोधकर्ता (वि०) १. विरोध नहीं करने वाला। पक्षियों को अविपाकज (वि०) तपश्चरणादि से विपाक को प्राप्त कराने रोध का कर्ता नहीं, पक्षियों के संचार को करने वाला। वाली क्रिया। 'कारणवशात् कर्मविनाशंः' (अमितगति 'एवं विरुद्धभवनोऽप्यविरोधकर्ता।' (जयो० १८/७६) श्रावकाचार ३/६५) "उपक्रमेण दत्तफलानां कर्मणां अविरोधभावः (पुं०) संगतभाव, उचित परिणाम, शान्त परिणाम। गलनमविपाकजा। (भ०आ०टी०१८४७) 'उक्ते तदीये न विरोधभावः। (जयो० ५/३२) 'किं तत्र अविप्लुतः (पुं०) अन्य जातिक, सज्जातिक अभाव, विलक्षण। जीयादविरोधभावः विज्ञानतः सन्तुलितः प्रभावः। (वीरो० ५/३३) (हित संपाक १७) अविलम्ब (वि०) शीघ्रता, तत्कालिक, आशुकारिता। अविभक्त (वि०) अविभागी, खण्ड रहित, अक्षय, अविनाशी, निष्कासयताऽविलम्बमेनमिदमस्माकं चित्तमनेन। (सुद० पृ० संयुक्त। १०४) For Private and Personal Use Only Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अविलम्बित १२३ अव्यथ अविलम्बित (वि०) शीघ्रकारिता, तात्कालिकता, क्षिप्र, आशुकारी। | अवृथा (अव्य०) निरर्थकता रहित, व्यर्थ न, सफलता पूर्वक। अविला (स्त्री०) भेड़। (सुद० ११८) अविवक्षित (वि०) अनभिप्राय युक्त, अनभिप्रेत, अनुद्दिष्ट। । अवृष्टि (वि०) वर्षाभाव, बारिश का न होना। अविवाद (वि० ) १. विसंवाद रहित, एक दूसरे के विवाद से | अवेक्षक (नपुं०) [अव ईक्ष् ल्युट] परिदर्शन, अन्य दर्शन। रहित, परस्पर सहयोगिता। (जयो० २६/५८) २. मेषादि- अवेक्षणीय (वि०) [अव+ईक्ष+अनीयर] अदर्शनीय, राशियुक्त। अविर्मेषस्तस्य वादं धरन्ति। (जयो० वृ० २६/५८) अवलोकनीय, देखने में अयोग्य, ध्यान योग्य। अविवादधर (वि०) विसंवाद रहित भाव के धारक। (जयो० अवेक्षा (स्त्री०) [अव ईक्ष् अङ्-टाप्] ०आंख से देखना, ०दृष्टि २६/५८) डालना, ०ध्यान देना, विचारना। अवेक्षा जन्तवः सन्ति न सन्तीति अविविक्त (वि०) १. विस्मित, आश्चर्यजनक। २. अविचारित, वा चक्षुषा अवलोकनम्।' जैन लक्षावली (१४.५) अचिन्तनीय। अवेद्य (वि०) ०अनभिज्ञ, नहीं जानने योग्य, गुप्त, रहस्यपूर्ण। अविवेक (वि०) अज्ञान, मूढ, ज्ञानाभाव, विचारशून्य। अवेद्यः (पुं०) वत्स, बछड़ा। "कुतोऽविवेकः स च मोहशापात् मोहक्षतिः किं जगतां अवेल (वि०) १. असीम, अनन्त, असामयिक। दुरापा। (वीरो० ५/२८) अवेला (स्त्री०) विकाल, समय की प्रतिकूलता। अविशङ्क (वि०) शङ्कारहित, संदेहरहित, निडर, साहसी। अवैद्य (वि०) अवैधानिक, संविधान के विरुद्ध, नियम विरुद्ध। अवैशद्य (वि.) विशदता रहित, विशेष रहित, स्पष्टता का अविशङ्कित (वि०) ०शङ्कारहित, नि:शंकित, निडरता युक्त, अभाव। साहसताधारी। अवोक्षणं (नपुं०) [अव+उ+ ल्युट्] झुककर सिंचन। अविशेष (वि०) १. सामान्य, भेद रहित। २. समानता, एकरूपता, अवोदः (पुं०) [अव+उंद्+घञ्] जल सिंचन्, गीला करना, सादृश्यता। आर्दकरण। अविश्रान्त (वि०) विश्राम रहित, निरन्तर, गमनशील। अव्यक्त (वि०) ०अस्पष्ट, अप्रकट, अदर्शनीय, अकथनीय, अन्यातिशायी ग्थ एकचक्रो, रवेरविश्रान्त इतीमशक्रः। __०अनुच्चरित। (जयो० वृ० ४/६०) (जयो० ११/२२) कदाचिदपि विश्रामं नैति। (जयो० ७० अव्यक्तकारणं (नपुं०) अस्पष्टकारण, अप्रकट हेतु। (जयो० ४/६०) ११/२२) अव्यक्तलेखाडित (वि०) अस्पष्ट लेखा से अङ्कित। (जयो० अविश्रान्तता (वि०) निरन्तरता, गमनशीलता, प्रगतित्व। ११/५८) ०धुंधली रेखा युक्त। (अविश्रान्तया निरन्तररूपेण भवित्री।' (जयो० १/११) अव्यक्तदोषः (पुं०) अनुमत दोष, अलोचनात्मक दोष। अविष (वि०) जहरशून्य, विषरहित।। ___ 'अव्यक्तः प्रायश्चित्ताद्यकुशलो। (मूल०११/१५) अविषः (पुं०) समुद्र, नदी, राजा, पर्वत, आकाश। अव्यक्तमनस् (नपुं०) संशय, विपर्यय युक्त मन। अविषय (वि०) १. अगोचर, अदर्शित, अदृश्य, अविद्यमान। अव्यक्तमिथ्यात्वः (पुं०) मोह स्वरूप मिथ्यात्व। २. न विद्यते विषयाणि इन्द्रियजन्य प्रवृत्तिः। जहां इन्द्रियों अव्यग्र (वि०) ०अक्षुब्ध, अनाकुल, स्थिर, प्रशान्त, सौम्य, का योग नहीं, आत्मजन्म। ०सरल, शान्त, ०सीधा, स्पष्ट। अविसंवादः (पुं०) १. परस्पर बाधा न पहुंचाना, पूर्वापर अव्यङ्क (वि०) दोष विवर्जित, निर्दोष। विरोध न करना। २. विच्छेद भाव। (जयो० २६/७४) अव्यञ्जन (वि०) •लक्षण विहीन, चिह्न रहित, ०अस्पष्ट, अविसंवादता (वि०) विच्छेद भावता। (जयो० २६/७४) लांछन युक्त। अवी (स्त्री०) [अवत्यात्मानं लज्जया इति अव्-ई] रजस्वला स्त्री। । अव्यत्यय (वि०) संज्ञा परिवर्तन, परस्पर बदलना। 'कुर्यात् अवीचि (वि०) तरंगशून्य, तरंग रहित। कौतुकतस्तन्नामव्यत्ययमथो शस्तम्।' (जयो० ६/६९) अवीर (वि.) कायर, बलहीन, शक्तिशून्य। अव्यथ (वि०) व्यथा रहित, पीड़ा मुक्त। 'वैरिषन् रसिति अवृत्ति (वि०) १. अविद्यानता, सत्ताविहीनता। २. वृत्ति/अजीविका वैरिसंग्रहमव्यथेकथि पथि स्थितोऽन्वहम्।' (जयो० ३/६) का अभाव, अपर्याप्त आश्रय। 'अव्यथे व्यथारहिते पथिमार्गे कष्टवर्जिते। (जयो० वृ० ३/६) For Private and Personal Use Only Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अव्यधिषः १२४ अशङ्किताकारित अखाडता अव्यधिषः (पुं०) १. सूर्य, २. समुद्र। अव्यभिचार: (पुं०) वियोग का अभाव, व्यभिचार का अभाव। अव्यभिचारिन् (वि०) ०अविरोधी, ०अप्रतिकूल, ०अपवाद ०रहित, ०कलंकमुक्त, सदाचारी, सद्गुणी, ०ब्रह्मनिष्ट। अव्यय (वि०) ०व्यय रहित, विनाश रहित, ० ध्रुव. ०ध्रौव्य, शाश्वत, नित्य, अविनश्वर, अखंडित। अव्ययः (पुं०) १. अनन्त चतुष्टय को प्राप्त, अच्युत। २. शिव, विष्णु। अव्ययशील (पुं०) व्यय रहित। (जयो० १/९५) अव्ययीभावः (पुं०) अनव्ययमव्यं भवत्यनेन, अव्ययच्चि भू+ घञ्। १. समास विशेष, जिसमें अव्यय को प्रधानता होती है। २. व्ययरहित भाव, अविनश्वर भाव। अव्यलीक (वि.) ०सत्य, प्रिय, यथार्थ झूठ से रहित, असत्यहीन, ०सत्यार्थ, उचित। अव्यवधान (वि०) व्यधानरहित, बाधा रहित, खुला हुआ, अन्तर रहित, मिला हुआ। अव्यवस्थ (वि०) ०अस्थिर, ०अदृढ़, चलमान, ०अनियमित, ० अनिश्चित। अव्यवस्था (वि०) अनियमितता, अनिश्चितता। अव्यवस्थित (वि०) ०अनियमित, अनिश्चित, विनिमय रहित, अयोग्यता युक्त। अव्यवहारः (पुं०) अनिवार्य, आवश्यक। 'व्यवहारोऽव्यवहार एव भोः!' (जयो० १३/५) अव्यवहार्य (वि०) व्यवहार के अयोग्य। अव्यवहित (वि०) व्यधान रहित, बाधा रहित, सुयोग, सुव्यवस्थित। अव्याकृत (वि०) अविकसित, अस्पष्ट, अप्रफुल्लित, हर्ष रहित, अप्रकट। अव्याजः (पुं०) मायाचार रहित, छलरहित, निश्छल, शुचि। अव्याघात (वि०) घात रहित, बाधा रहित। अव्यापक (वि०) विशेष, व्यापकता का अभाव, विस्तार रहित। अव्यापार (वि०) १. क्रियाशीलता रहित, अव्यवहारिक। २. व्यापार का अभाव। अव्याप्त (वि०) जो लक्षण एक देश रहे। अव्याप्तिः (स्त्री०) लक्षण घटित न होना, एक दोष विशेष। अध्ययनादि-सर्वञ्चाव्याप्त्यति व्याप्तिदोषतः। (हित०पृ० १७) अव्याप्य (वि०) सीमित, समस्त क्षेत्र के विस्तार से रहित। आंशिक विद्यमानता। अव्याबाध (वि०) काम-विकारादि बाधा रहित, लौकान्तिक देव 'अव्याबाध' कह जाते हैं। 'न विद्यते विविधा कामादिजनिता आ समन्ताद् बाधा दुःखं येषां ते अव्याबाधाः।' अव्याहत (वि०) विरोध से रहित, निर्वाध। अव्युच्छेद (वि०) विवक्षित अर्थ को सिद्धि करने वाले वचन। अव्युच्छेदित्व देखें अव्युच्छेद। अव्युत्पन्न (वि०) यथार्थ स्वरूप का अभाव, अनिर्णीत, अकुशल, अनुभव रहित। अवणी (वि०) व्रण रहित, घावविहीन, दोपरहित। "अव्रणी व्रणेन दूषणेन रहितः" (जयो० वृ० ७/८९) अव्रत (वि०) व्रत का अभाव, नियम का पालन नहीं करने वाला। अश् (सक०) भोजन करना, आहार करना, उपभोग करना। "यावन्नाग्निपक्वतां याति तावन्नहि संयमि अश्नाति।" (सुद० पृ० १३१) खर-रुचिरिन्दु-बिन्दुमश्नाति। (सुद० पृ० १०४) 'सकृत्समश्नातु यथा न दातुः।' (जयो० २७/४६) अश् (सक०) १. व्याप्त करना, ग्रहण करना, आनन्द लेना, जाना, पहुंचना। २. उपस्थित होना, रस लेना। अशकुनः (पुं०) अशुभ शकुन, अशुभ सूचना। अशक्तः (पुं०) अक्षम। (सम्य० ९४) अशक्तिः (स्त्री०) १. अक्षमता, बलहीनता। २. अयोग्यता। अशक्य (वि०) असंभव, असमर्थ। निखिलेऽप्याकाशे मातुशक्यमासीत्। (जयो० वृ० १/२३) 'नागशक्यमपि शक्यते' (जयो० २/५९) अशक्यता (वि०) असमर्थता, असंभवता। (जयो० वृ०५/१५) अशमनं (नपुं०) जिसके शमन नहीं, रोप, कोध "न शमनमशमनं रोषः' (जयो० वृ० १०/९६) "तुभ्यं नमोऽशमन-- संशमनोदमाय" (जयो० १०/९६) अशक्नुवंत (वि०) असमर्थता युक्त, असहनीय, असंभवता वाला। असोढम् (जयो० वृ० १४/२७) अशक्नुवंतो युगपत्पतङ्गा (जयो० ८/५२) अशक्नुवान् देखें ऊपर अशक्नुवंत। अशङ्क (वि०) निडर, निर्भय, आशंका रहित. निश्शंक। अशङ्कित (वि०) आशङ्का नहीं करने वाला। (जयां० २/१२६) अशङ्किताकारित (वि०) आशंका नहीं करने वाला (विद्वान्), निरर्गलप्रवृत्तिकारिणी। कुत्सिताचरणेवशङ्किताकारिता स्फुटमवादि नास्तिता। (जयो वृ० २/१२६) For Private and Personal Use Only Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अशठतावान १२५ अशुद्ध-ऋजुसूत्रनयः अशठतावान (वि०) स्खलता रहित, ज्ञान युक्त (जयो० वृ० अशस्त (वि०) असुन्दर, कुरूप। 'न वपुषि अशस्ताः ' (सुद० १/५६) १/२९) अर्थात् शरीर में भद्दी और असुन्दर नहीं थी। २. अशनं (नपु०) [अश्+ ल्युट्] खाना, भोजन, स्वाद लेना, रस अप्रशस्त। (वीरो० १८/४८) लेना, आहार। 'राक्षसाशनमुपात्ततामसं।' (जयो० २/१०९) अशास्त्र (वि०) कुशास्त्र, आत्मज्ञान को नहीं देने वाले शास्त्र। सुरसनमशनं लब्ध्वा । (सुद० पृ० ७४) अशनं कस्य न अशास्त्रीय (वि०) आगम विरुद्ध, श्रुत के विपरीत, शास्त्र के धनतृष्णा वा। (सुद०७४) एतावती स्यादुदरेऽभिवृद्धिम॑ष्टेऽशने प्रतिकूल। सत्यशनेऽतिगृद्धिः । (जयो० २७/४५) अशित (भू०क०कृ०) भुक्त, खाया हुआ। आममन्नमतिमात्रअशनक (वि०) १. भोजी, भोजन करने वाला। २. रात्रि का याऽशितं चास्तु भस्मकरुजे परं हितम्। (जयो० २/६३) नाश। सवृत्तिरश्चति निशाशनकैः प्रहाणि। (जयो० १८/३७) अशितः (पुं०) गौरवर्ण। (जयो० १०/२८) अशनस्थानम् (नपुं०) आहारस्थान। (हित ४३) अशितड़वीन (वि०) चरगाह स्थान। अशना (स्त्री०) (अशनमिच्छति) [अशन क्यच स्त्रियां भावे] अशिता (स्त्री०) गौरवर्णा। (जयो० १०/२८) क्षुधा, भूख। अशित्रः (पुं०) १. चोर, २. चावल की आहूति। १. वज्र-'सो जयज्जयनृपः कृपाशनेः।' (जयो० ३/१९) अशिरः (पुं०) [अश्+इरच्] आग, सूर्य, वायु, राक्षस। २. विद्युत, विद्युतप्रभा-'अशनिशनिपितृप्रमुखान्।' (जयो० अशिरं (नपुं०) वज्र, हीरक। ६/३६) अशिरस् (पुं०) धड़, तना। अशनिघोषः (पुं०) अशनिघोष नामक हस्ति। (समु० ४/३३) अशिव (वि०) अमङ्गल, अकल्याणकारी, अशुभ, भाग्यहीन। 'महीमहेन्द्रोऽशनिघोष सद् द्वीप:। (समु० ४/१५) अशिष्ट (वि०) असंस्कृत, संस्कारविहीन, गंवार, ०उजड्ड, अशबलः (पुं०) स्नातक मुनि, निरतिचार रहित मुनि। ० उपद्रवी, ० असभ्य, ०अयोग्य, ० अप्रामाणिक, अशबलाचारः (पुं०) चारित्र युक्त साधु, अभ्याहत दोषों का ०अशास्त्रीयज्ञ। परिहारक श्रमण। अशिष्य (वि०) अयोग्य, असंस्कृत, संस्कारहीन। 'शिक्षा योग्यो अशब्द (वि०) शब्द विहीन, शब्द से रहित। न भवति।' (जयो० ११/८७) अशब्दलिंगज (वि०) अन्यथानुपपत्ति रूप लिंग से होने वाला अशीत (वि०) उष्ण, गर्म। ज्ञान। (धव०पु०१३/२४५) अशीतकरः (पुं०) सूर्य, रवि, सूर्यरश्मि। अशमनं (नपुं०) जिसका शमन नहीं, रोष, ०क्रोध। न अशीतिः (स्त्री०) अस्सी, संख्या विशेष। शमनमशमनं रोषः (जयो० वृ० १०/१५) अशीना (वि०) कर्त्तव्यविचारशीला, 'कलैः कृतातिथ्यकअशरण (वि०) १. शरण रहित, आधार विहीन, आश्रयमुक्त, थाप्यशीना।' (जयो०१५/६) असहाय। २. 'अशरण' अनुप्रेक्षा या भावना का नाम है, अशीर्षक (वि०) अशिरस्, धड़, तना, मस्तिष्क रहित। इसमें यह भावना की जाती है कि संसार में कोई भी विद्या अशुचिः (स्त्री०) १. अपवित्र, मल। २. अशुचि-अनुप्रेक्षा या मरण के समय सहायक नहीं हो सकती। 'नान्यत् भावना। इसे अशुचित्व भी कहा है। (त०सू०९/७) किञ्चिच्छरणमिति' (त०वा०९/७) आपत्तियों के घिराव में "अशुभ-कारणत्वादिभिरशुचित्वम्।" (त०वा०९/७) भटकने वाले इस प्राणी को धर्म के सिवा और दूसरा कोई | अशुचि (वि०) अपवित्रता, अशुचिकरण, मलिनता, मल, विष्ठा। भी सहारा नहीं। (ता०सू०९/७) अशुद्ध (वि०) १. अपवित्र, शुद्धता रहित, धरां समारब्धुमथ अशरीर (वि०) १. शरीर रहित, देहमुक्त। प्रबुद्धस्तदीयसंपर्क इतोऽस्त्वशुद्धः। (जयो० १९/१) अशरीरः (पुं०) सिद्ध, मुक्तजीव, परमात्मा। 'जेसिं शरीरं 'सोऽशुद्धः परस्त्रियाः परपुरुषकरेण स्पर्शो वर्जनीय इति णत्थि ते असरीरा।' 'अट्ठ-कम्म-कवचादो णिग्गया' हेतोः।' (जयो० वृ० १९/१) २. पर द्रव्य के संयोग के (धव०१४/२३९) कारण भूत। अशरीरी (वि०) १. शरीर रहित, अपार्थिव/ २. सिद्धपुरुष, अशुद्ध-उपयोगः (पुं०) अशुद्ध उपयोग। सिद्धि के प्राप्त जीव, अष्टकर्म विमुक्त जीव। अशुद्ध-ऋजुसूत्रनयः (पुं०) व्यञ्जन पर्याय रूप। For Private and Personal Use Only Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org अशुद्ध-चेतना अशुद्ध चेतना (स्त्री०) कार्यानुभूति और कर्मफलानुभूति अशुद्ध चेतना | अशुद्ध द्रव्यं (नपुं०) द्रव्य उपाधि जन्य। अशुद्ध पर्याय: (पुं०) व्यञ्जन पर्याय का विषय । अशुद्धभाव: (पुं०) अस्वाभाविक परिणाम, अन्योपाधिक भाव, बाह्यभाव। अशुद्धसंग्रह: (पुं०) जाति विशेष ग्राहक । अशुद्धि (स्त्री०) मलिनता, अपवित्रता । अशुद्धि (वि०) अपवित्र, मलिन कर्मबद्ध । अशुभ (नपुं०) पाप, अनिष्ट। अशुभ (वि०) १. अकल्याणकारी, अमांगलिक, अनिष्टकारी, अहितकर । २. विषय कषाय से आविष्ट, राग-द्वेषात्मक वृत्ति। अशुभ - काय योग: (पुं०) काय सम्बंधी प्राणातिपात जन्य योग । अशुभक्रिया (स्त्री०) अशुभ अतिचार, ज्ञान, दर्शन, चरित्र और तप में दोष । अशुभयोग (पुं०) मारन ताड़न का योग । (समु० ८/२८) अशुभोदय (पुं०) पापोदय पापकर्म का उदय नहि विषादमियादशुभोदये। (जयो० २५/६४) अशुभस्य पापस्योदये' (जयो० ० २५/६४) अशुभोपयोगः (पुं०) विषय - कषायादि जन्य उपयोग । "शरीरमेवाहमियान्विचारोऽशुभोपयोगो जगदेककारो।" (समु० ८/२१) "दुष्टाच्चयोगादशुभोपयोगे पापं महत्स्यादमुकप्रयोगे । (समु० ८/३२) अशुभोपयोगी (वि०) अशुभ योग वाला जीव, शुभाच्चयोगादशुभोपयोगी यदेति पुण्यं च ततः च सभोगी (समु० ८/३१) अशून्य (वि०) पूरा किया गया, निष्पादित अभाव रहित । अशूद्र (वि०) अछूत अस्पृश्य जन्मना खलु शूद्रः सन्कुलीनस्यात्सुचेष्टया (हित०सं० २६/ अशृत (वि०) अपरिपक्व, कच्चा नहीं पकाया गया। अशेष (वि०) समग्र सम्पूर्ण समस्त सभी तस्या अपाङ्ग शर-संहतिरप्यशेषा ।' (सुद० १२४) इत्येव मोहं क्षपयत्रशेषं । (भक्ति०३१) प्रतिदेशमशेषवेशिनः' (जयो० १०/७०) पराजिताशेषनरेशवर्गः । (समु० ६ / ९ ) अशेषपरिच्छद (वि०) सर्वथा त्याग (वीरो० १८/४० ) अशेष मानव (पुं०) सम्पूर्ण नृप समूह 'अशेषा चासौ भूः पृथिवी तस्या मानवा नराः।" (जयो० १/५७) १२६ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अश्वग्रीवः 1 P अशोक (वि०) [न शोको अशोकः] जिसे शोक नहीं, शोकरहित, प्रसन्न हर्षित आमोद युक्त' निश्चिन्त । 'अशोक आलोक्य पतिं ह्यशोकं प्रशान्तचित्तं व्यकसत्सुरोकम्' (जयो० १/८४) अशोकं / शोकवर्जितम्, अशोको / निश्चन्तो । (जयो० वृ० १/८४) स कोकयत्किन्त्रिस्त्रशोक' (मुद० १/१०) अशोकः (पुं०) सम्राट अशोक, मौर्यवंश का प्रसिद्ध शासक । चन्द्रगुप्त मौर्य का पौत्र (वीरो० २२/१२) । अशोकः (पुं०) अशोक वृक्ष। (जयो० १ / ८४) अशोकनामा वृक्षो व्यकसत् (जयो० १ / ८४ ) अशोकं (नपुं०) कामदेव का एक बाण, पांच बाणों में अशोक याण भी कामातुर का घातक है। अशोकतरुः (पुं०) अशोकवृक्ष | अशोकचित्त (नपुं०) शोक रहित हृदय वाला। अशोच्य (वि०) अनुचित शोक | अशोभनीय (वि०) शोभा के योग्य नहीं, कुरूपता युक्त अकान्त (जयो० वृ० ११/५६ ) अशौचं (नपुं०) अशुचिता, अपवित्रता, अस्पृश्य, मैल (जयो० १९/५) अशीच क्रिया (स्त्री०) मलोत्सर्जन क्रिया (जयां०] १९/५) अशौचविधि (स्त्री०) अशोचक्रिया, मलिन परिणाम । अश्नं (नपुं०) भोजन, खाना, आहार । धात्रीफलं केवलमश्नुवानः । (जयो० १/३८) अश्नीत (वि०) खाने योग्य। अश्नुवान (वि०) भुआन, भोगने वाला। अश्मन (पुं० ) [ अश्+मनिन्] रत्न, प्रस्तर। 'भूषणेष्वरुणनीलसितामश्मनां'। (जयो० ५ / ६१ ) अश्मानि रत्नानि तेषां भूषणेषु ।' (जयो० वृ० ५/६१) अश्मन्तकः (पुं० ) [ अश्मानमन्तयति इति अश्मन् + अंत + णिच्ण्वुल्] अलाव, अंगीठी। + अश्मरी (स्त्री० ) [ अश्मानं राति इति रा.क. डीप] पथरी, रोग विशेष अश्व (पुं०) तुरंग, घोड़ा, अवंबर, उत्तम घोड़ा (जयो० १३ / ९२ ) किं छाग एवं महिषः किमश्वः ।' (वीरो० १/३१) अतामश्वानां मध्ये वराः श्रेठा (जय० कृ० १३/९२) अश्वग्रीवः (पुं०) अलकापुरी के राजा मयूर और रानी नीलंयशा का पुत्र, जो प्रतिनारायण वनकर तीनखण्ड के आधिपत्य को प्राप्त हुआ। For Private and Personal Use Only Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अश्ववार: १२७ अष्टम अश्ववारः (पुं०) घुड़सवार, अश्वारोही, अश्वाधिगत। (जयो० अश्रुप्रवाह (वि०) अश्रुसन्तान, अश्रुधारा। (जयो० वृ० ५/१०४) ८/११) अश्रुवार्हा (वि०) आंसुओं से युक्त। (जयो० ५/१०४) हर्ष के अ-श्वसंत (वि०) निरुद्धश्वास, श्वास नहीं लेते हुए। आंसुओं से युक्त। अश्व-समुदाय: (पुं०) घोटक समूह, सप्तिसमूह। (जयो० । अश्रुसंतानं (नपुं०) अश्रुधारा, आंसुओं का प्रवाह। अश्रूणां ३/११०) सन्तान। (जयो० ५/१०४) अवस्थितः (वि०) अश्वारुढ, घुड़ सवार। अश्रुसंविद् (वि०) अश्रु समूह। (जयो० २६/१४) अश्वाधिगत (वि०) अश्वारुढ, तुरगारुढ, अवस्थित, अश्ववार। अश्रुसिक्त (वि०) आंसुओं से सिञ्चित। 'अश्रुसिक्तयोगीन्द्रपदो अश्वारुढ (वि०) तुरगारुढ, घुड़सवार। निरेनाः।' (वीरो० ११/२३) अश्वारोह (वि०) घुड़ सवार, तुरगारुढ। अश्रोत (वि०) आगमिक विहीन, श्रुतविहीन। अश्विनी (स्त्री०) अश्विनी नक्षत्र। अश्रेयस् (वि०) अकल्याण, अहित, अनिष्ट, दु:ख। अश्विनीकुमारः (पुं०) अश्विनीसुत, वैद्य पुत्र। (दयो०६८) अषड (वि०) छह रहित। _ 'इत्यश्विनीसुतसमानयनाय नाम।' (७/१०९) असाढ़ः (पुं०) आषाढ़ मास, वर्षा का प्रारंभिक मास। अश्विनीसुतः (पुं०) अश्विनीकुमार वैद्यराज। (जयो० १०/७९) अष्ट (वि०) आठ प्रकार, आठ भागों वाला। अश्रं (नपुं०) [अश्नुते नेत्रम्-अश्+टक्] १. आंसू, अश्रु। २. अष्टक (वि०) [अष्टन्क न्] आठ भागों वाला, आठ प्रकार रुधिर। का, आठ समूह युक्त। (सम्य०८८) अश्रद्दधत (वि०) अश्रद्धान करता हुआ (सम्य० ७४) अष्टकं (नपुं०) आठ छन्द युक्त, महावीराष्टक। (भक्ति०२१) अश्रवण (वि०) श्रवणहीन, बहरा, नहीं सुनने वाला। अष्टकर्मन् (नपुं०) आठ कर्म। अश्रान्त (वि०) १. श्रमशील, थकान रहित, उद्यमी। २. शान्ति वाला। अष्टकुमारिका (स्त्री०) आठ कुमारियां। अश्रि (स्त्री०) [अश् क्रि+पक्षे ङीष्] किनारा, घर का एक । अष्टकृत्वस् (अव्य०) आठ वार। त्रिकोण भाग। अष्ठकोण (वि०) आठ कोने वाला। अश्रीक (वि०) श्री विहीन, कुरूप, सौन्दर्य रहित। अष्टग (संख्यावाची विशेषण) आठ। अश्रु (नपुं०) [अश्नुते व्याप्नोति नेत्रमदर्शनाय-अश्+क्रुन्] अष्टगुण (पु०) आठ गुण, सम्यक्त्व के गुण। __ आंसू, वाण। नि:शङ्किताद्यष्टगुणाभिवृद्ध।' (भक्ति०७) अश्रुजलं (नपुं०) अश्रुवीर, (जयो० ९/५४) 'मुदुदिताश्रुजलै- अष्टचन्द्रः (पुं०) अष्टचन्द्र राजा। (जयो० ८/६४) 'निपेतुः ___रनुभावित।' पुनरष्टचन्द्राः।" अश्रुजात (वि०) आंसुओं की उत्पत्ति। सात्त्विकमेतदश्रुजातम्। अष्टचन्दनरपः (पुं०) अष्टचन्द्र नामक राजा। 'सोऽष्टचन्द्रनरपो (जयो० १२/६७) ग्रहयुक्तिः ।' (जयो० ४/१४) अश्रुत (वि०) १. श्रुत विहीन, आगमशास्त्र विहीन। १. श्रुतज्ञान अष्टत्रिंशत् (वि०) अड़तीस। रहित। (जयो० वृ० १।३४) २. नहीं हुई, अनसुनी, श्रवणा अष्टत्रिक (वि०) चौबीस। रहित। (सुद० २/२६) श्रुतमश्रुपूर्वमिदं तु कुतः। (सुद० अष्टदलं (नपुं०) कमल, आठ पंखुरियों युक्त। पृ० ८४) अष्टदिश् (स्त्री०) आठ दिशा। अ-श्रुपात (वि०) शोकाकुलजात अश्रु। अष्टधा (वि०) आठ प्रकार का, आठ भागों का। ऐहिकव्यवहृतौ अ-श्रुतपूर्व (वि०) श्रुत परम्परा से रहित। (जयो० १/३४) तु संविधाकारिणी परिविशुद्धरष्टधा। (जयो० २/७६) अश्रुतपूर्विका (वि०) सुनने में नहीं आता। अष्टधातुः (स्त्री०) आठ धातु। 'वार्ताऽप्यदृष्ट श्रुतपूर्विका व:।' (सुद० २/२१) अष्टपद (वि०) आठ पैर वाला, शरभ जन्तु। अश्रुपद (वि०) आंसू समूह। (जयो० वृ० ३/३९) अष्टपत्रं (नपुं०) स्वर्ण पट्टिका। अश्रुयुक्त (वि०) वाष्पधारा, अश्रुधारा, नयनोत्पलवासिजल। अष्टम-प्रतिमा (स्त्री०) आठ प्रतिमा। (जयो० वृ० ६/८६) अष्टम (वि०) आठवां, आठ भाग। For Private and Personal Use Only Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra अष्टमदेवधामः www.kobatirth.org अष्टमदेवधाम (पुं०) अष्टम स्वर्ग श्रियोधरा थाष्टमदेव धाम।' (समु० ६ / २६) अष्टम सर्गः (पं० ) आठवां सर्ग, आठवां अध्याय । अष्टशती (स्त्री०) अकलंकदेव कृत न्याय ग्रन्थ अष्टसहस्वी (स्त्री०) जैन न्याय का प्रसिद्ध ग्रन्थ, इसके रचनाकार आचार्य विद्यानन्द हैं, इसका मूलाधार देवागम स्तोत्र है, जिस पर अष्टशती की व्याख्या अष्टसाही है। (वीरां०] १९/१११ अष्टाङ्ग (वि०) आठ अंगों वाली। अष्टागमः (पुं०) आठ आगम । अष्टाङ्गमयी (वि०) अष्टद्रव्यमयी पूजा, अष्टपूजा अंग युक्त। आठ अंगों सहित । 'मनोहराष्टाङ्गमयीं प्रभोर्जयः । ' (जयो० २४/८१) अष्टाङ्ग सिद्धिः (स्त्री०) अष्ट विभूति। अणिमा, महिमा, गरिमा लघिमा प्राप्ति, प्राकम्य, ईशत्व और वशित्व ये आठ प्रकार की विभूतियां हैं। अष्टादशम् (नपुं०) अठारह (वीरो० १ अष्टाधिक (वि०) आठों से अधिक। 'अष्टाधिकानां परितो ध्वजानाम्।' (वीरो० १३ / ७) 'अष्टाधिकं सहस्रं सुलक्षणानाम्।' (वीरो० ४/५०) अष्टाविध (वि०) आठ प्रकार ( सम्य० ८८) अष्टाश्रयः (वि०) आठ आश्रय, आठ आधार । अष्टिः (स्त्री०) १. पासा, खेल का अक्ष। २. बीज, गुठली । अष्ठीला (स्त्री०) गिरी, गुठली अस् (अक० ) होना, रहना, विद्यमान रहना। 'वाग्यस्यास्ति न शास्ति कवित्वगावा।' (सुद० १/१) 'स केवलं स्यात् परिफुल्ल गण्ड: । ' (सुद० १/७) 'कृपाङ्कुराः सन्तु सतां यथैव।' (सुद० १/९) 'श्रिये जिनः सोऽस्तुं यदीयसेवा।' (वीरो० १/१ ) असे कदाचिद्यदि सोऽस्तु कोपी (वीरो० १/१०) वाणीव याऽऽसीत् परमार्थदात्री। (वीरो० १ / १८ ) सा पश्यति स्मेति पण्डिता 'यद्यसि शान्तिसमिच्छ्कस्त्वं' (सुद० ७१) लयोऽस्तु कलङ्ककलायाः (सुद० ७१) अस् (सक०) फेंकना, छोड़ना, विसर्जित करना । अस्यति, अस्ता अस् ( सक०) १. जाना, लेना, ग्रहण करना। २. चमकना, दीप्त करना । असंकुचित (वि०) अक्लिष्ट, आयत, विस्तृत (जयो० ५/४७) असंकुट (वि०) सर्वलोकाकाश व्याप्त । १२८ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir असंक्लिष्ट (वि०) अधिक, बहुत, संक्षिप्तता रहित असंख्येय (वि०) संख्या रहित गणनातीत 'संख्याविशेषातीतत्वादसंख्येयः । ' असंघात (वि०) संघात रहित, एक सा। असंदिग्ध (वि०) स्पष्ट (जयो० १४/६६ असंदिग्धकथनं (नपुं०) स्पष्ट कथन। (जयो० २/१३७) असंभव (वि०) अशक्य, असमर्थ (जयो० २/५८) (दयो० ४६) असङ्गत असंमूढ (वि०) विचारशील, बुद्धिमान असंमूढमतिमर्हद्भिः । (जयो० १५/२२) असंयत (वि०) १. संयम विहीन, यम-नियम से रहित महता तपसा युक्तो मिथ्यादृष्टिर- संयतः । ( वरांग २६/२७) २. अनियन्त्रित, स्वच्छंद । असंयमः (पुं०) संयम का अभाव, पदकाय जीवों का घातक, इन्द्रिय एवं मन से संयमित नहीं। (सम्य० ८७/) असंशय (वि०) संदेहजनक संशय से युक्तः असंश्रव (वि०) अअवित नहीं सुनाई दिया। असंसृष्ट (वि०) अमिश्रित, अयुक्ता असंस्कृत (वि०) संस्कारविहीन, तुच्छ असंस्तुत (वि०) अप्रार्थित, अपूजित, असम्मानित पूजा रहित। असंस्थानं (नपुं०) संस्थानाभाव, संसति विहीनता । असंस्थित (वि०) अव्यवस्थित क्रम विमुक्त। असंस्थिति (स्त्री०) परम्परामुक्त, अव्यवस्था । असंहत (वि०) असंयुक्त विदीर्ण, फैला हुआ। असकृत् (अव्य०) बार बार, एक बार नहीं, पुनः पुनः, बहुधा, · प्रायः । असक्त (वि०) अनासक्त, निःस्पृही। असखि (वि०) अमित्र विरोधी For Private and Personal Use Only असख्य (वि०) शत्रुता, परस्परप्रेम्णा संयुक्तो न। (वीरो० २/३८) असङ्ग (वि०) १. परिग्रहरहित, अपरिग्रह, निर्ग्रन्थ फुल्लत्य सङ्गाधिपतिं मुनीनम् । (जयो० वृ० १/८१) असङ्गानां परिग्रहरहितानाम् (जयो० ० १/८१) २. अनासक्त, सांसारिक बन्धनों से रहित, निर्लिप्त, असंयुक्त, आसक्ति रहित। ३. अकुण्ठित, निर्वाध शान्त मोक्तुमदेत्यसङ्गः।' (जयो० २७/६०) असङ्गः संयतो जन। (जयो० वृ० २७/६०) असङ्गत ( वि०) अनुचित, प्रतिकूल, मेल रहित अशिष्ट, अभद्र, असंयुक्त २. परिग्रहरहित, निर्ग्रन्थ वाला इवासङ्गतयोपरिष्टात् (भक्ति ०१/५) Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir असङ्गतिः १२९ असत्यस्मरणं असङ्गतिः (स्त्री०) असयुक्त, अमेलित, असम्बद्ध, अनौचित्य। 'असत्' का अर्थ अधिकता भी है। 'दुःखमुच्चलति जायते असङ्गतिनामालंकारः (पुं०) असङ्गति नामक अलंकार - सुखं दर्पणे सदसदीयते मुखम्।' (जयो० २/४६) उक्त अन्वाननं पानकपात्रमाशा समन्विताया वितरन्विलासात्। पंक्ति में 'असत्' का अर्थ मलिनता, कुरूपता एवं हस्तेन शस्तस्तनमण्डलान्त मालिङ्गय सम्यङ्गमदमाप कान्तः। असुन्दरता भी है। (जयो० १६/२९) कोई स्त्री मदिरा पीना चाहती थी, पर असत्कर्त्तव्यः (पुं०) असत् कार्य। (वीरो० ६/२०) पीने में असमर्थ थी. उसका पति कौतुकपूर्वक मदिरा का असत्कर्मन् (वि०) अनिष्टकर्म, अहितकारी कर्म। पात्र उसके मुख के पास ले जा रहा था और हाथ से असक्रिया (स्त्री०) अनर्थोत्पादक क्रिया, व्यर्थ की क्रिया। स्तनमण्डल का स्पर्शकर रहा था. इस तरह वह मदिरा असत्यग्रहः (पुं०) अहितकर ग्रह, अनिष्टकारी दशा। पान के बिना ही महहर्षरूप नशा को प्राप्त हो रहा था। असत्चेष्टा (स्त्री०) अधार्मिक भाव, धर्मविहीन चेष्टा। संगति न होने पर सङ्ग का आभास। असत्सङ्गम (वि०) असत् योग। (जयो० वृ०६/२५) आर्तध्यान असङ्गमः (पुं०) वियोग, विछोह, अमिलन। और रौद्रध्यान का संयोग। असङ्गम (वि०) नहीं मिला हुआ, असमबद्ध। असत्त्वेष्टित (वि०) मलिन चेष्टा वाला, अपवित्र चेष्टा युक्त। असङ्गिन् (वि०) असम्बद्ध, अमेलित। असत्ता (वि०) १. अनस्तित्व, अस्तित्व का अभाव, सत्ता का असड़कीर्णः (पुं०) १. विशद, स्पष्ट, २. अक्षत, अखण्ड, ३. | लोप। संकीर्णता रहित। (वीरो० २/२६) असन्तप्त (वि०) संताप रहित, शान्त, प्रशान्त। (जयो० २८/३८) असङ्ककीर्णपदः (पुं०) विशदपद, स्पष्टपद। श्रीमान सङ्कीर्ण असत्पथः (पुं०) दुष्टमार्ग, कुमार्ग, निम्नगति, अधर्ममार्ग, पदप्रणीतिः। (वीरो० ७/२६) अनिष्टपथ। असंज्ञ (वि०) संज्ञा रहित, चैतन्य विहीन। असत्परिग्रहः (पुं०) अनिष्टकारक संग्रह। असंज्ञा (स्त्री०) संज्ञा का अभाव, चैतन्यता का अभाव। असत्भावः (पुं०) इष्ट परिणाम का अभाव। असंज्ञित्व (वि०) मन बिना, शिक्षा उपदेशादि न ग्रहण करने असत्य (वि०) मिथ्या, झूठा, काल्पनिक, अप्रमाणिक। वाला। 'मनोऽनपेक्ष्य ज्ञानोत्पत्तिमात्रमाश्रित्यासंज्ञित्वस्य (वीरो० २०/१६) अवास्तविक, झूठ बोलने वाला। निबन्धनमिति।' (धव०१/४०९) असत्यवक्तुर्नरके निपातश्चासत्यवक्तुः स्वयमेव घातः। असंज्ञि-श्रुत (वि०) असंजियों का श्रुत। व्यलीकिनोऽप्रत्यय- सम्बिघाऽतः प्रोत्पादयेस्तं न कदापि असंज्ञी (वि०) अनमस्क, मन रहित जीव। (सम्य० ४१) मातः।। (समु० १/९) सम्यक् जानातीति संज्ञं मनं, तदस्यातीति संज्ञी, असत्यः (पुं०) अलीक, झूठ, ०व्यतीक, अनृत, गर्हित। सद्विपरीतोऽसंजी। (धव०१/१५२) जो जीव मन के न होने (वीरो० १४/३८) मृषा, मिथ्या। से शिक्षा, उपदेश आदि को ग्रहण न कर सके। असत्यपक्ष (वि०) मिथ्यामार्ग, मृषा कथन, मिथ्यात्व का असती (वि०) दु:शीला. उद्दण्ड। (जयो० १४२०, २/११९) पोषक पक्ष। असत् (वि०) १. अविद्यमान्, अस्तित्व हीन। २. सत्ताहीन, असत्यमनोयोगः (पुं०) असत्य जनित के प्रति मन का भाव। अवास्तविक। २. अनुचित, प्रतिकूल, अव्यवहारिक। ४. असत्यवचनं (नपुं०) असत्य/मिथ्यापोषक वचन। एक दार्शनिक दृष्टिकोण-उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य रूप असत्यवक्ता (वि०) असत्य बोलने वाला, असत्य प्रतिपादक। सत् से विपरीत। साध्य के अभाव का निश्चय करने वाला। 'असत्यवक्ताऽनवधानतोऽपि' (समु०३/२२) तत्त्वं त्वदुक्तं सदसत्स्वरूपं तथापि धत्ते परमेव रूपम्। असत्यवक्तु (वि०) असत्य भाषक, मिथ्या बोलने वाला, युक्ताप्यहो जम्भरसेन हि द्रागुपैति सा कुकुमतां हरिद्रा।। अनृतभाषी। 'असत्यवक्तुः परिहारपूर्वम्।' (समु०१/१०) (जयो० २६/८०) ५. दुर्जन, दुष्ट, पापी, ०अशुभ- 'असत्यवक्तुः स्वयमेव घात:।' (समु० १/९) परिणामी, अनिष्ट। 'यस्यासतां निग्रहणे च निष्ठा मता असत्यवादिन् (वि०) असत्य भाषक, मिथ्या कथन करने वाला। सता संग्रहणे धनिष्ठा।'' (जयो० १/१६) 'इक्षो असत्यस्मरणं (नपुं०) ०असत्य कथन, ०असत्य भाषण, सदीक्षाऽस्यसतः सतेति।' (सुद० १/१६) उक्त पंक्ति में ०अलीक स्मरण, मिथ्याजन्य स्मरण। For Private and Personal Use Only Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir असदृश १३० असहन असदृश (वि०) ०असमान, अयोग्य, ० अनुपयुक्त, प्रतिकूल, | असमानगुणः (पुं०) असदृश गुण, विलक्षण गुण, विषम गुण। असंबद्ध। असमानगुणोऽन्येषां। (समु० ९/२१) असदृश-अनुभागः (पुं०) अनेक वर्गणाओं की उदीरणा। असम्पत्ति (वि०) १. सम्पत्ति रहित, निर्धनता युक्त, दरिद्र। २. असदृशवेष (वि०) अनार्यवेष धारक, ०अभद्र परिधान, दुर्भाग्य, सौभाग्यहीन। अशोभनीय परिवेश। असम्पूर्ण (वि०) अधूरा, अपूर्ण, कम, हीन, ०आंशिक। असद्ध्यानं (नपुं०) वस्तु स्वरूप का जानना, दुर्ध्यान असम्बद्ध (वि०) ०असंगत, निरर्थक, ०व्यर्थ, ०बेकार, आर्त-रौद्रध्यान। ०अनुपयोगी, ०अनुचित, ०अर्थविहीन। असद्पः (पुं०) मिथ्यारूप, असत् प्रदर्शित। (वीरो० २९/६) असम्बन्ध (वि०) सम्बन्ध विहीन, अनुपकारी, विच्छेद युक्त। असद्भावः (पु०) दुर्भाव, मिथ्या परिणाम। असम्बाध (वि०) १. विस्तृत, व्यापक, विस्तार युक्त। २. बाधा असद्भूत-व्यवहारः (पुं०) अन्य अर्थ में प्रसिद्ध धर्म के अन्य रहित, एकान्त, निर्जन, सुगम। अर्थ में समारोप, अविद्यमानता का समारोप। असम्भव (वि०) सम्भव नहीं, उत्पत्ति रहित, अस्तित्व विहीन, असद्यस् (अव्य०) शीघ्रता न करके, बहुत समय व्यतीतकर। सम्भावना मुक्त! असन् (नपुं०) रुधिर। असम्भव्य (वि०) अशक्य, अबोध्य, असमर्थ। असनं (नपुं०) [अस्+ ल्युट्] फेंकना, दूर करना, हटाना। असम्भावना (वि०) अशक्यता, असमर्थता। असन्दिग्ध (वि०) स्पष्ट, स्वच्छ, निरापद, ०सार्थक, असम्भृत (वि०) प्राकृतिक, स्वाभाविक, अप्रकाशमान, उपायों ०संदेह रहित, सभ्यक्, उचित, मंगलकारी। से रहित। असन्धि (वि०) १. सन्धि रहित, मेल रहित। २. बन्धनमुक्त, असम्मत (वि०) १. तर्क विहीन, पक्ष रहित, स्वपक्ष अबद्ध, स्वतन्त्र। बाधक, २. अनुमोदन रहित, अस्वीकृत। ३. अरुचिकर, असन्नद्ध (वि०) १. असम्बद्ध, सम्बन्ध रहित। २. धूर्त, अहंकारी। घृणास्पद। ४. असहमत, भिन्न-भिन्न मत वाले। असन्निकर्षः (पुं०) मन से वस्तुओं का गोचर न होना, पदार्थों असम्मतिः (स्त्री०) असहमति, अस्वीकृति। का आभास न होना। असम्मोहः (पुं०) ०मोह का अभाव, शान्तचित्त, प्रशान्त, असन्निवृत्तिः (स्त्री०) मुड़ना नहीं, लौटना नहीं, परावर्तन नहीं करना। धीर, ०शुद्धहृदय। असफलता (वि०) सफलता रहित। (सुद०७२) असम्यक् (वि०) अशोभन्, ठीक नहीं। साम्प्रत सुमतिराह असभ्य (वि०) ०अशिक्षित, ०अनपढ़, शिक्षा विहीन, असदृश, निशम्य स्वामिभाषितमिवेदसम्यक। (जयो०४/१२) असमान, ०अयोग्य, अशिष्ट, अनघट, ०अभद्र। असम्यक्त्व (वि०) ०सर्व पापों से विरत, ०अदर्शन, ज्ञानातिशय असम (वि०) विलक्षण, विषम, विसदृश, समानता न होना, ऋद्धि प्राप्त नहीं होना, सभ्यग्दर्शन का रहित। 'बहिरमीष्वसमेषु विकारतः।' (जयो० २६/६२) अभाव। असमञ्जस (वि०) विसंवाद, वितर्क, अस्पष्ट, अयुक्त, असलं (नपुं०) (अस्+कलच्) अयस्क, लोह। ०अनुचित, निरर्थक (जयो० १२) असवर्ण (वि०) भिन्न जाति वाला. भिन्न वर्ण वाला। असमवायिन् (वि०) ०आनुषंगिक, विच्छेद्य, ०अन्तर्हित रहित, 'असवर्णविवाहश्च प्रभवत्यार्षसम्मत:।' (हितसंपादक पृ० ०प्रगाढ़ता विहीन। असमस्त (वि०) अपूर्ण, अधूरा, वियुक्त, असम्बद्ध। असवर्ण विवाहः (पुं०) सज्जाति के अभाव वाला विवाह, असमर्थ (वि०) अनीश्वर, सामर्थ्य रहित। (जयो० वृ०८/१६) विजाति विवाह। 'असवर्णविवाहोऽस्तु, काऽस्माकं अर्थ/रहस्य को नहीं जानने वाला। कलङ्कमेत्वङ्कदलं तदर्थ क्षतिरित्यतः।' (हि०सं० पृ० २१) विभावनायामिह योऽसमर्थः। (जयो० १/१४) असह (वि०) ०अधीर, ०अशान्त, असहिष्णु, असहा, सहन असमाप्त (वि०) अपूर्ण, अधूरा, पूर्णतारहित। करने में असमर्थ। (वीरो० ११/३८) असमान (वि०) ०अतुल्य, समानता रहित, सदृश्यता विहीन। असहन (वि०) ०अधीर, ०अशान्त, असहिष्णु, ०असा, (जयो० वृ० १/५३) ०ईष्यालु, ०द्रोहजन्य, ०दूसरे की उन्नति न सहने वाला। १९) For Private and Personal Use Only Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra असहनीय www.kobatirth.org तेन सोऽस्य लघिमापि परेषामुन्नतेरसहनात् स्वयमेषः (जयो० ४/६१) असहनीय (वि०) दु:सह, असह्य, अक्षन्तव्य, क्षमा योग्य नहीं। असह्य (वि०) दु:सह, असहनीय, अक्षन्तव्य । "त्यजामि यद्धयः स्खलितं ह्याम्" (जयो० २७/५६) असारंहस (वि०) समधिक वेगशाली, आसन नहीं पाने से शीघ्रगामी व्युत्थिता द्रुतमसाहसश्चेलुराशुकरभाः सहस्रशः। (जयो० २१/२१) असहाय (वि०) एकाकी. अकेला, सहयोग रहित, सहभागिता मुक्त। असहयोगः (पं०) १. सहयोग नहीं करना, सहायता नहीं देना। २. वस्तु के प्रति उपेक्षा भाव। "सिद्धिमिच्छन् भजेदेवासहयोगं धनादिभिः।" (वीरो० ११ / ३८ ) बहुकृत्व: किलोपात्तो ऽसहयोगो मया पुरा । न हि किन्तु बहिष्कारस्तेन सीदामि साम्प्रतम् (वीरो० ११/४० ) असहिष्णुता (वि०) दुस्थिति, अधीरता, ईष्यालुता, द्रोहता । (जयो० कृ० १/३०) असा (वि०) लज्जिता, लज्जित हुई। 'असा हसेन तत्रापि साहसेन तदाऽवदत्।' (सुद० पृ० ८५) असाक्षात् (अव्य०) अप्रत्यक्ष रूप से, अदर्शन रूप से, अदृश्य रूप से। असाक्षिक (नि०) साक्षी के अभाव वाला। असाक्षिन् (वि०) साक्ष्य से शून्य हुआ। असात (वि०) दुःख, पीड़ा, कष्ट, व्याधि असतं दुःखम् । (धव०६ / ३५) अनारोग्यादिजनितं दुःखमसातम्।' असात वेदनीय (वि०) असाता वेदनीय कर्म ०परिताप जन्य अनुभवन, ०शारीरिक मानसिक दुःख | असाता (स्त्री०) परिताप, ०दुःख, पीड़ा, ०कष्ट, व्याधि, ०दुःख का वेदन असाता कर्म, दुःखजन्य भाव। असाधनं (नपुं०) साधन रहित, वस्तु अभाव युक्त, सम्पन्नता न होना। असाधनीय (वि०) पूर्णता के योग्य न हो प्रमाणित न किया जा सके। असाध्य (वि०) १. पूर्ण ठीक नहीं होने वाला, रोगी । २. सम्यक् अर्थवान्। समर्थशक्तिमान् (जयो० वृ० १/७२ ) असाध्यसाधकः (पुं०) समर्थ युक्त साधक । (जयो० वृ० १/७२) असाधारण ( वि० ) ०अनन्यभव, ०विशेष, ० विशिष्ट, ०असामान्य, १३१ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir असिकोषः ० अनोखा । 'सुरम्यसाधारण शक्तितान' (जयो० २/४२ ) असाधारण अनन्यभवाशक्ति सामर्थ्य (जयो० १० १/४२) असाधारण सौन्दर्य (वि०) अनोखे रूप वाली, असामान्य रूप युक्त । (दयो० पृ० १६८) असाधु (वि०) १ अप्रिय, ०अस्नेही, घृणास्पद, ग्लानिजन्यः २. जो साधु/मुनि न हो, ढोंगी असामयिक (वि०) अनुकूलता रहित, प्रतिकूल, समय विहीनता । असामान्य (वि०) १. समय प्रबद्धता रहित । २. विशिष्ट, विशेष, असाधारण । असाम्प्रत (वि०) अनुचित अनुपयुक्त, अभद्र, अकल्याणकारी । असार (वि०) ०सारहीन, नीरस, रहस्य रहित, ०निरर्थक, ० अशक्त, ०शक्तिविहीन, ०रसाभाव जन्य। 'पपावदः सत्वरमप्यसारम्' (जयो० १६ / ३३) असार: (पुं०) महत्त्वहीन, रहस्याभाव। असारं (नपुं०) अनावश्यक । असारता (स्त्री० ) [ असार तत्+टाप्] १. नीरसता, निस्सारता, निरर्थकता, निस्सारपरिणति । २. क्षणभंगुरता, विनाशशीलता । 'जायते पुनरसारता रयात्।' (जयो० २/१४) प्राप्य यामपि तु तामसारतां संसृतिस्त्यजति तामसारनाम् (जयो० ११ / ९४ ) असारतीर : (पुं०) निःसारप्रान्त, सारविहीन । भारती स्वयमसारतीरया शर्करेच तव तकरखया (जयो० ७/६२) असारतीरया निःसारप्रान्तया (जयो० वृ० ७/६२) असावा (वि०) सावद्य कर्मों से रहित, असि मसि आदि कर्मों से रहित। असाहस (नपुं०) सुशीलता, साहस का अभाव, शक्तिक्षीणता। असि (पुं०) (अस्+इन्] ०तलवार ०खड्ग किलासिनामा नृपतेः सुचङ्गः । (जयो० १/७) नाभिराज के पुत्र आदिनाथ, ऋषभ में समाज व्यवस्था के लिए जिन कर्मों की व्यवस्था की थी, उनमें 'असि' कर्म का प्रथम उल्लेख आता है। 'कस्ये करेऽसिररेरिति सम्प्रति।' (सुद० पृ० ७४) असि (अव्य० ) जिसका अर्थ तू या तुम है। शयनीयोऽसि किलेति शापित: । (सुद० पृ० ५२) यद्यसि शान्तिसमिच्छकस्त्वं । (सुद० ७१ ) असिकः (पुं०) तलवार, खड्ग । असिकर्मा (पुं०) असिकर्म में कुशल आर्य । असिकोषः (पुं०) म्यान (समु० ७/२०) असिरिवातिशयादसिकोषत: । ' For Private and Personal Use Only Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir असिगंडः १३२ अ-सुदृक् असिगंडः (पुं०) तकिया, उपधान। असिलतिका (स्त्री०) खड्गयष्टि, तलवार। 'जयश्रियोऽर्पितासि असिजीविन् (वि०) असि से जीविका चलाने वाले। लतिका।' (जयो० १२/८१) असित (वि०) १. श्याम, कृष्ण, अत्यन्त, कृष्ण। | असि-व्यसनं (नपुं०) खड्ग-अभ्यास, असिकला अभ्यास। "सितासितप्रायमुतात्मकायम्' (जयो० १५/६१) २. मलिन, 'चिरोच्चितासि-व्यसनापदे तुक।' (जयो० १/७५) असि: (न सितोऽसितो मलिन इति) (जयो० ६/१९) खड्गस्तस्य व्यसनमभ्यासस्तस्य। (जयो० वृ० १/७५) असितः (पु०) कृष्ण सर्प। असीम (वि०) ०अपूर्व, अत्यधिक, प्रगाढ़, विशेष, विशिष्ट, असितकेशि (वि०) श्लामलकधारिणी। (जयो० १७/५६) अनुपम, अगाधा 'दासीमिवासीमयशास्तथैनाम्।' (जयो० श्याम केशा, ०अत्यंत काले बाल वाली। १/२१) असीम/सीमातीत। (जयो० वृ० १/२१) असिदंष्ट्रकः (पुं०) घड़ियाल, मगरमच्छ। असीम-यशः (पुं०) सीमातीत यश, अपूर्वयश। (जयो० १/२१) असिदंत: (पुं०) घड़ियाल। असीमशोकचिह्न (नपुं०) अपूर्व पश्चात्ताप के लक्षण, अत्यधिक असिद्ध (वि०) अप्रमाणित, अपूर्ण, पूर्णता रहित। शोकभाव। प्रतीपपत्न्यास्तदेव किन्न समभृत्स्विदसीमशोकअसिद्ध (पुं०) हेत्वाभास का एक भेद जिसका स्वरूप सिद्ध चिह्नम्।' (जयो० १४/३०) न हो। "संशयादिव्यवच्छेदेन हि प्रतिपन्नमर्थस्वरूपं सिद्धम्।' असुः (पुं०) १. प्राण, जीव, श्वास (जयो० १६/४९) (जयो तद्विपरीमसिद्धम्। (प्रमेयकमलमार्तण्ड ३/२०/३६९) २०/७३) 'असुप्ताणमे वेति कृत्वा स्थित्यर्थ असिद्धत्व (वि०) जीव की अवस्था विशेष, अष्टकर्मोदय का जीवनसम्पत्यर्थम्।" (जयो० वृ० १६/४९) सामान्य उदय। 'कर्ममात्रोदयादेवासिद्धत्वम्।' (त०श्लोक २/६) असुं (नपुं० ) शोक, दुःख, कष्ट। 'सूक्तिर्भवत्यासुतरामवापि।' असिद्धत्वपर्यायः (पुं०) १. कर्मोदय सामान्य के होने पर (जयो० २०/७३) असिद्धत्व पर्याय होती है। २. औदयिक भाव। असुख (वि०) दु:खी, व्याकुल, कष्टजन्य। असिद्धहेत्वाभासः (पुं०) पक्ष में हेतु का न रहना। असुखं (नपुं०) ०दुःख, ०पीड़ा, कष्ट, ०बाधा, ०व्याधि, 'असिद्धस्त्वप्रतीतो यः।' (न्यायावतार-७३) अन्यथा च ०सुखाभाव। संभूष्णुसिद्धः। (सिद्धि०वि०६/३२) असत्सत्तानिश्चयोऽसिद्धः। असुख-करुणा (स्त्री०) दुःखी जीवों पर करुणा/अनुकम्पा। (परीक्षामुख०६/२२) 'असुखं सुखाभावः यस्मिन् प्राणिनि दु:खिते सुखं नास्ति असिधारा (स्त्री०) खड्गधार। तस्मिन् याऽनुकम्पा। (जैनलक्षणावली पृ० १६०) असिधाराव्रतं (नपुं०) दृढ़प्रतिज्ञ व्रत। असुखित (वि०) दु:खित, पीड़ित। (जयो० ९/७२) असिधावः (पुं०) शस्त्रकार, सिकलीकर। असुखिन् (वि०) दु:खी, व्याकुल, पीड़ित, आघात जन्य। असिधेनु (स्त्री०) चाकू, चक्कू, छोटा चाकू। छुरी। (वीरो० १६/१) असिपत्रकः (पुं०) ईख, गन्ना। असुत (वि०) नि:संतान, पुत्रहीन। असिपुच्छः (पुं०) सूंस, सिंसुमार। असुदर्शनं (नपुं०) प्राणाधार, प्राण युक्त दृष्टि। 'सुदर्शननअसिपुच्छकः देखो-असिपुच्छः। भूत्कर्तुमदसुदर्शनमादरात्।' (सुद० पृ० ७६ ) असिपुत्रिका (स्त्री०) छुरी। (जयो वृ० २७/२०) धियोऽसिपुत्र्या दुरितिच्छदर्थमुत्तेजनायातितरां समर्थः। (समु०१/१) ममेति असुदा (वि०) प्राणदात्री, जीवन देने वाली। 'न दासि अस्माक मिहासुदासि।' (जयो० २०/७३) कण्ठे विधृताऽसिपुत्री। (समु० ३/२२) असिपुत्री (स्त्री०) छूरी, चाकू। असुदेवता (वि०) प्राण संरक्षण करने वाला देव, प्राण संरक्षक देव। (जयो० २०/८३) “असुदेवता/प्राण संपादनकीं। असिप्रहारः (पुं०) खड्गप्रहार, तलवार घात। तावदेवासिप्रहारेण ___जीवननिः शेषतामनुबभूव। (दयो०८४) (जयो० वृ० २०/८३) असियष्टिः (पुं०) खड्ग, तलवार। (जयो० ८/२६) अ-सुदृक् (वि०) उत्तम दृष्टि से रहित। २. प्राण दर्शन।" असिलतिका, खड्गयष्टि। असूनां प्राणानां 'दृक् दर्शनं तस्याः सिद्धान्तशालिनाऽभिअसिरः (पुं०) [अस्+किरच्] किरण, ०तीर सिटकनी, | प्रायधारकेण सुलोचनोपलम्भेनैव जीविष्यामीति।' (जयो० शहतीर। पृ० ३/९७) For Private and Personal Use Only Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir असुनाथ: १३३ अस्तगत असुनाथः (पुं०) प्राणनाथ, स्वामी। 'तवासुनाथोऽशनि- असूनु (पुं०) अपुत्र, पुत्र नहीं, सन्तान अभाव। "यूनोऽप्यसूनोरपि।' घोषहस्तितां।' (समु० ४/३३) (जयो०८/३) असुधारणं (नपुं०) जीवन धारण, प्राण धारण। असूय (अक०) ईर्ष्या करना, द्वेष करना, अप्रसन्न होना, घृणा असुपवनं (नपुं०) प्राणवायु। 'भुजगोऽस्य च करवीरो० करना, असम्मान करना। द्विषदसुपवनं निपीय पीनतया।' (जयो० ६/१०६) असूयक (वि०) [असूय्+ण्वुल] ईर्ष्यालु, द्रोही, घृणाकरी, अ-सुभग (वि०) ०असुन्दर, कुरूप, ०रूपहीन, बुरा, अपमानी। अशोभनीय, अदर्शनीय। 'श्रवणासुभगं सतां हृदयविदारक असूयनं (नपुं०) घृणा, द्वेष, ईर्ष्या, अपमान, निन्दा, डाह। वृत्तं लिखितं कुतः सम्भव्यताम्।' (दयो० पृ०६४) असूया (स्त्री०) क्रोधपरिणाम, कुपितभाव, क्रुद्धता, ईर्ष्या, असुभंग (वि०) प्राणघात, जीवननाश। घृणा, द्वेष, अपमान, निन्दा, डाह, स्पर्धा। 'तदसूयाफलमस्य असुभृत् (पुं०) जीवित प्राणी, जीवनयुक्त जीव। सद्रदा।' (जयो० १९/६३) असूया/स्पर्धा। (जयो० वृ० असुमतः (पुं०) वैर, द्वेष, वैमनस्व। (जयो० ९) १०/६३) वाचा वा श्रुतवाचने निरतया भूया असूयाघृणी। असुमतिः (वि०) शरीरधारिणी, जीवनधारिणी। (मुनि०८) सदा हे साधो प्रभवति असुमति कर्म। (जयो० २३/७६) असूयाघणी (वि०) ईर्ष्या उत्पन्न करने वाले। (मुनि०८) असुरः (पुं०) १. दैत्य, राक्षस। (सम्य० ८४) २. अनुराग जन्य असूर्य (वि०) सूर्य रहित, रविविहीन। देव, सुरों से विपरीत। अहिंसाद्यनुष्ठानरतयः सुरा नाम, असूर्यम्पश्य (वि.) [सूर्यमपि न पश्यति-दृश्+खश्+मुम् च] तविपरीता: असुराः। (धव०१३/३९१) सूर्य दर्शन को नहीं करने वाला, चक्षुविहीन। असुर-कुमारः (पुं०) असुर कुमार जाति का देव। अस्रः (पुं०) शोणित। अनं तु शोणिते लोभे। 'इति वि०' अ-सुरभी (स्त्री०) १. सुगन्ध का अभाव, सुरभी का लोप। (जयो० १५/२४) असुरभी (स्त्री०) प्राणवायु रहित, भयरहित, भय-वर्जित। असृक् (नपुं०) रक्त, रुधिर। मनुष्यं परासक् पिपासुम्। (जयो० प्राणवायुश्चाभीर्भय- वर्जितः। (जयो० १९/९०) २/१२८) असुर-हित (वि०) असुरों के लिए हितकारी। 'हे धीश्वरासुररहित असृज् (नपुं०) परेषाभसृजं रक्तं पिपासु-जयो० वृ० २/१२८) __ सहसान्धकारम्।' (जयो० १८/२०) 'असृग् रक्तं रससम्भवो धातुः।' रस से उत्पन्न होने वाली असु-रहित (वि०) प्राणरहित, निष्प्राण, जीव शून्य। (जयो० रक्त रूप धातु। वृ० १८/३०) 'असुरहितमसुभिः प्राणैर्ररहितमुतासुरेभ्यो। | असेचन् (वि०) मनोहर, रमणीय, सुन्दर, रम्य। असु-राजिः (स्त्री०) प्राणपंक्ति, जीवन धारा, प्राण परम्परा। असोढुं (वि०) असमर्थ, अशक्नुवान्। असोढुमीशेवोरोजभर ___ "श्वशुराश्वसुराजिरेषका" (जयो० १२/२०) निपपातोपरि धवस्य त्वरम्। (जयो० १४/२७) असुर-रिपुः (पुं०) राक्षसों का शत्रु। असौष्ठव (वि०) सौन्दर्यविहीन, रमणीयता रहित, कुरूप, असुरसा (स्त्री०) तुलसी का पौधा। लावण्यता मुक्त, सौम्यता रहित। असुरहन् (पुं०) राक्षसों का हननकर्ता, इन्द्र। अस्खलित (वि०) ०दृढ़, स्थिर, निश्चल, अकम्प, अक्षत, असुलभ (वि०) ०अप्राप्त, ०कठिनाई से प्राप्त होने वाला, अटल। ० अलब्ध, ० अनुपलब्ध, ० अप्राप्त। क्षणिकनर्मणि अस्त (भू०क०कृ०) [अस्+क्त] ०फेंका गया, क्षिप्त, निजयशोमणिमसुलभं च जहातु। (सुद० पृ० ९८) निक्षिप्त, परित्यक्त, समाप्त, पूर्ण। असुलोपी (वि०) प्राणलोपी, प्राणनाशक, जीवन नष्टकर्ता। | अस्तः (पुं०) [अस्यन्ते सूर्यकिरणा यत्र-अस् आधारे क्त] १. असत्यवक्ताऽनवधानतोऽपि, स्यां चेद्भवेयं त्वनयाऽसुलोपी। अस्ताचल, पश्चिमाचल। २. नाश, समाप्त, पूर्ण, विराम। (समु० ३/२२) (जयो० १५/८) ३. सूर्य छिपना, अस्त हो जाना। असुहतिः (वि०) प्राण घातक जीवनक्षति. कारक, अस्तगत (वि०) १. नष्ट, नाश, समाप्त, क्षय। (जयो० वृ० "असुहतिष्वपि दीपशिखास्वरम्।' (जयो० २५/२४) १५/८) २. सूर्यपतन, अस्ताचल की ओर गया, भङ्ग। सूर्ये असूतिः (स्त्री०) प्रसूति अभाव। (वीरो० १६/२५) भङ्गं परिप्राप्तवति सति अस्तगते। (जयो० पृ० १५/८) For Private and Personal Use Only Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अस्तगम् १३४ अस्पष्ट मन्त्र। अस्तगम् (वि०) डूबा, रुका, समाप्त हुआ। अस्तेयं (नपुं०) अचौर्य, चोरी का अभाव, स्तेयाभावः, दूसरे अस्तगामिन् (वि०) अस्तगत. सूर्य छिपता हुआ अस्त प्राप्त की वस्तु का न ग्रहण करना। १. श्रावक अस्तेय और. २. होता है। १. क्षीण होता हुआ। श्रमण अस्तेय। श्रावक एक अंश का त्यागी होने के "रवेरथो बिम्बमितोऽस्तगामि।" (जयो० १५/१०) अचौर्याणुव्रती और श्रमण 'स्तेय' का पूर्ण त्यागी होने से अस्तभावः (पुं०) समाप्त पूर्ण। (सुद० १३३) अस्तेयमहाव्रती। अस्तराग (वि०) अनुराग रहित. ०क्षीण राग, राग की | अस्त्रं (नपुं०) आयुध, तलवार, हस्तक्षेपण से किया गया समाप्ति वाला। 'संशोधयत्यध्वविदस्तरागः।' (जयो०१/५१) प्रहार। अस्तरागो/विषयेष्वनुरागरहितः। (जयो० वृ० २७/५१) अस्त्रकारः (वि०) अस्त्र बनाने वाला, आयुध निर्माता। अस्ताचल: (पुं०) १. अस्ताचल पर्वत. सन्ध्या होना। २. सूर्य अस्वगारं (नपुं०) आयुध शाला, तोपखाना, शस्त्रगृह, शस्त्रशाला। का अस्त होना। (दयो०१८) पश्चिमाचल। अस्त्रचिकित्सकः (पुं) शल्य चिकित्सक, चीर-फाड़ करने अस्ताद्रिः (पुं०) अस्ताचल पर्वत। वाला चिकित्सक। अस्तामित (वि०) समाप्त, पूर्ण, नाशगत। 'अस्तामितः कष्टत अस्त्रचिकित्सा (स्त्री०) शल्य क्रिया। एव मुक्तिः ।' (समु० ३/३७) अस्त्रधारिन् (पुं०) सैनिक, सिपाही, योद्धा। अस्ति (अव्य०) [अस्+श्तिप्] १. ०है, होना, ०सत, विद्यमान, अस्त्रमंत्रं (नपुं०) आयुध मन्त्र, शस्त्र संचालन के समय का जैसा कि, प्रायः। (वीरो० २०/१६) २. स्याद्वाद सिद्धान्त की दृष्टि से 'अस्ति' का विशेष महत्त्व है, इसमें स्वद्रव्य, अस्त्रमार्जकः (पुं०) सिकलीगर। क्षेत्र, काल और भाव की अपेक्षा वस्तु है ऐसा प्रयोग अस्त्रमुद्रा (स्त्री०) अंगुलियों को फैलाने की मुद्रा, शस्त्रकार किया जाता है। 'अहो यदेवास्ति तदेव नास्ति, तवाद्भुतेयं मुद्रा, आयुध सदृश आवृति। प्रतिभाति शास्ति। (जयो० २६/७७) अस्त्रविद् (वि०) शस्त्रवेत्ता, आयुधज्ञाता। अस्ति-अवक्तव्यं (नपुं) स्व-पर-द्रव्यादिचतुष्टय से विवक्षित अस्त्रवेदः (पुं०) अस्त्रविद्या, शस्त्रज्ञान। द्रव्य। अस्त्रवृष्टिः (स्त्री०) शस्त्र वर्षा, लगातार शस्त्र प्रक्षेपण। अस्तिकायः (पुं०) अस्ति स्वभाव, प्रदेश भाव, प्रदेश, प्रचय। अस्त्रिन् (वि०) [अस्त्र+इन] अस्त्र से युद्ध करने वाला। "प्रदेशप्रचयो हि कायः स एषामस्ति ते अस्तिकायाः अ-स्त्री (वि०) स्त्रियत्व का अभाव, नपुंसकपना। जीवादयः। (त०व०४/१४) जिनमें अनेक प्रदेश विद्यमान अस्थानं (नपुं०) अनुचित स्थान, अयोग्य स्थान। हैं। (त०सू०पृ०७४) गुण एवं पर्यायों के साथ अभेद एवं अस्थाने (अव्य०) विना अवसर के, ऋतु बिना, प्रयोजन बिना। तद्रूपता। अस्थावर (वि.) चर, जंगम। अस्तित्व (वि०) १. पदार्थों का सत्ता रूप धर्म, अनादि अस्थि (नपुं०) [अस्यते-अस्+कथिन् ] हड्डी, मेद से उत्पन्न परिणाम भाव, २. (वीरो० १९/१३) सत्ता, विद्यमानता। होने वाली कीकस धातु। 'अस्थि कीकसं मेदसम्भवम्।' अस्तिद्रव्यं (नपुं०) स्वकीय द्रव्यादि को अपेक्षा से विवक्षित द्रव्य। 'यतपूतिमांसास्थिवसादिझुण्डम्।' (सुद० १०१) अस्ति-नास्ति-अवक्तव्यं (नपुं०) है, नहीं है, ऐसा स्व-पर अस्थियुक् (वि०) हड्डी चबाने वाला। (सुद० १२१) द्रव्यादि विवक्षित युगपद भाव। अस्थुत्थ (वि०) छुट्टी से निकला, आया। (सुद० १२१) अस्ति-नास्ति द्रव्यं (नपुं०) स्व-पर द्रव्यादि की अपेक्षा क्रम रक्तमस्थ्युत्थमेतीति तदेकभक्तः। से विवक्षित द्रव्य। अस्पर्शनं (नपुं०) स्पर्शित न होना, स्पष्ट न हो, अछूत। अस्ति-नास्तिप्रवादपूर्वः (पुं०) उभय नय पर आधारित ग्रन्थ, अस्पष्ट (वि०) धुंधला. अदृश्य, अस्वच्छ, संदिग्ध, मलिन, द्रव्यार्थिक एवं पर्यायार्थिक नय युक्त विवेचन करने वाला अव्यक्त। (जयो० ११५८) जन आत्मसुखं दृष्ट्वा ग्रन्थ/जिसके पदों की संख्या आठ लाख है। स्पष्टमस्पष्टमेव वा। (सुद० १२५) व्यक्ति अपना स्वच्छ अस्तिस्वभावः (पुं०) अस्ति ग्राहक नय। मुख देखकर प्रसन्न होता है और मलिन को देखकर अस्तु (नपुं०) हो, होवे (दयो० ३२) किन्तु (सुद० ९८) दुखी होता है। For Private and Personal Use Only Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अस्पृश्य १३५ अहर्निश अस्पृश्य (वि०) अस्पर्शित, अछूत, नहीं छूने योग्य, अशुचि, अस्वादुल (वि.) ०स्वाद न लेने वाले, रस विमुक्त, आहार अपवित्रा में रस पर विचार करने वाले। सन् स्यात्किन्तु सदर्पितेन अस्फुट (वि०) दुरुह, अस्पष्ट, अव्यक्त, अस्वच्छ। शमनं कुर्यात्क्षुधोऽस्वादुल:। (मुनि० पृ० १०) अस्मद् (सर्वः) [ अस्मदिक्] इसका प्रयोग तीनों लिंगों में अस्वाध्यायः (पुं०) [न स्वाध्यायो अंगग्रंथानाम्] स्वाध्याय होता है। वयं भवामः। ( सुद० ७०) वयं वदामः (सुद० रहित, पठन-मनन मुक्त। २/२३) मयैकाकी किलैकदा। (सुद० ८५) रे युवते रते अस्वास्थ्य (वि०) रोग, पीड़ा, बाधा, दु:ख। मयाऽधीतारे। (सुद० ८) ममामुक मेवसमूहजेतो। (सुद० अस्वास्थ्यकर (वि०) रुज, रोग। (जयो० ११/५३) २/१३) वाग्यस्यास्ति नः शस्ति कवित्व गावा। (सुद० अह (अव्य०) स्तुति, वियोग, दृढ़ संकल्प, निश्चय, १/१) कथा पथायातरथा मुदे वः।। (सु०१/४) निषेवमाणे अस्वीकृति आदि के अर्थ में 'अह' का प्रयोग होता है। मयि यस्तु षण्डः (सुद० १/७) मातः स्तवस्तु पदयोस्तव अहहेति सहर्षाश्चर्य। (वीरो० २/४९) मे स एष। (जयो० १०/९७) अहं (नपुं०) अहंकार, अभिमान, अहंभाव। अस्मत्क्रम (नपुं०) हमारा क्रम, हमारा काम। अस्मत्क्रमो अहम्मन्यता (वि०) अहंकार दोष वश। (वीरो० १५/५६) गोनिवहार्जनाय। (समु० १/१९) अहङ्कारित (वि०) अभिमान जनित। (वीरो०) अस्मदीय (वि०) मेरे, हमारे, हम सबके। अस्मदीय- अहंकरः (नपुं०) अहंकार, अहंभाव, आश्चर्यकारक, (जयो० करकार्यमनुस्यात्। (जयो० ४/४२) किमस्मदीय-बाहुभ्यां १०/९५) (वीरो० ८/२९) अहङ्कारः (पुं०) ०अहंकार, ०अभिमान, ०अहंभाव, गर्व, अस्मयी (वि०) अभिमानी. अहंकारी। स्मयोऽस्यास्तीति अस्मयी। घमण्ड। निजाहङ्कारतो व्याजोऽकम्पनेनायमूर्जितः। (जयो० ७/४५) निजाहङ्करिता स्वर्गकारणात्। (जयो०७/४) आश्चर्य भाव, अस्माकं (सर्व०) हमारे लिए, मेरे लिए। (वीरो० १९/२२) किं अहंभाव अहंकृतिरहंकारोऽहमस्य स्वामीति जीवपरिणाम:। तस्य कथयाऽस्माक सिद्धिः। (दयो० पृ० ३२) (युक्त्यानुशासन-१३२) अपने दुराग्रह का नाम भी अहंकार अस्मात् (सर्व०) इमलिए, इस प्रकरण, इस हेतु। है। ममकार, मम आदि को भी अहंकार कहा गया। स्वान्वयकर्मकृदरमादस्तु। (जयो० २/११६) अहन्त (वि०) अहम्भाव रहित-मुञ्चेदहन्ता परतां समञ्चेत् (वीरो० अस्मादृश (वि०) हमारे जैसा, हम जैसा। अस्मादृशां भवितुमर्हति १८/३८) भिक्षां। (जयो० ४/४१) अस्मादृशा अपि दृशा बिबभुर्विहीना। अहंयु (वि०) [अहम् युस्] अहंकारी, अभिमानी, घमण्डी, (जयो० २०४२९) स्वार्थी, लोलुपी। अस्मि (अव्य०) [अस्+मिन्] मैं हूँ। अहस्करः (पुं०) सूर्य रवि। (वीरो० १४/१८) अस्मिता (स्त्री०) [अस्मि तत्+टाप्] अहंकार, अभिमान, अहत (वि०) क्षय रहित, घात रहित, अक्षत। गर्व, घमण्ड। अहन् (नपुं०) [न जहाति त्यजति सर्वथा परिवर्तनम अस्मृतिः (स्त्री०) अस्मरण, विस्मरण, भूलना, याद न रहना। न+हा+कनिन्] दिन, दिवस। यद्वा निशाऽह:स्थितिवद्विपत्ति। अम्रः (पुं०) [अस्+रन्] १. किनारा, तट। २. कोश, ३. सिर (सुद० १११) के बाल। अहम् (सर्व०) अस्मद् शब्द के कर्ता एकवचन में 'अहम्' का अस्व (वि०) १. अकिंचन, कुछ भी नहीं, त्यागजन्य अवस्था। प्रयोग होता है। त्वामहं न तनोमि जानामि विवृणोमि। २. निर्धन, दरिद्र। (जयो० वृ० १/१) जवनिनाशकृदेवमहं वृक्षा। (जयो० अस्वतंत्र (वि०) परातंत्र, पराधीन, पराश्रित। ९/३०) अस्वप्न (वि०) जागृत, स्वप्न रहित, निन्द्रा मुक्त, सचेत, | अहंस् (नपुं०) पाप, अशुभक्रिया। 'मम शान्तिविकृद्धयंहसां तु चेष्टावंत। प्रलयः।' (जयो० १२/१०२) अहंश्च तेषां शान्तिवृद्धिअस्वरः (पुं०) मन्दस्वर, क्षीणस्वर, स्वराभाव। पापानाम्।' (जयो० वृ० १२/१०२) अस्वस्थ (वि०) रोगी, व्याधि जन्य। अहर्निश (नपुं०) रात-दन, नक्तदिवस। निदापि क्षुद्राऽभवद् For Private and Personal Use Only Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अर्हत्परमागम १३६ अहिंसाव्रतः भुवि नक्तंदिवमविराम! नक्तंदिवमहर्निशमविराम। (जयो० । अहिन्दु (पुं०) हिंसकत्वाभाव। (जयो० २८/२२) ०अनार्य, वृ० २३/६१) हिंसकजन। 'अहिंदुरयताऽवापि हिन्दुजातेन धीमता।' अर्हत्परमागम (पुं०) जिनागम, सर्वज्ञ प्रणीत शास्त्र (वीरो० | अहिपः (पुं०) शेष नाग, शेष राज, सर्पराज। 'प्रासादशृङ्गेऽहि१९/२८) जिनवाणी, जिन-वचन। ___ पहारवैरिणः। (जयो० १५/७६) अहरणीय (वि०) पूजनीय, सम्मानीय। अहिपतिः (पुं०) सांपों का स्वामी, वासुकी, सपेरा। अहार्य (वि०) पूजनीय, सम्मानीय, श्रद्धावंत, सम्मानित। अहि-पुत्रकः (पुं०) सर्पाकार छोटी नाव, किश्ती। अहह (अव्य०) [अहं जहाति इति हा+क] यह विस्मयादिबोधक अहिफेनः (पुं०) अफीम। अव्यय है, जिसके विविध अर्थ हैं-१. आश्चर्य-अहह अहिभयं (नपुं०) सर्प की आशंका, सर्प का भय। पार्श्वमिते दयिते द्रुतम्। (जयो ० २/१५६) अहिभुज् (पुं०) १. गरुड़, २. नेवला, ३. मोर। अहहाग्रहाभावधात्री- (जयो० १२/२१) अहह मूढतया न अहिभूत् (पुं०) शिव, शङ्कर। मया (जयो० ९/३) खेद अर्थे-अहह धर्ममृतेऽति पुमान्। अहिशय्या (स्त्री०) नागशय्या। 'यामवाप्य पुरुषोत्तमः स्म (जयो० २५/८२) अहहे ति खो दे - जयो० वृ० संशेतेऽप्यहिशय्याम्। (सुद० १२२) २५/८२) अहह/महदाश्चर्यस्थानमेतत्। (जयो० पृ० । अहिंसनं (नपुं०) अहिंसा, न हिंसा अहिंसा। किसी प्राणी का २५/८३) वध नहीं करना। अहिंसनं मूलमहो वृषस्य। (सुद० १३२) अहा (अव्य०) प्रसन्नता द्योतक अव्यय। 'सन्ति गेहिषु च अहिंसा (स्त्री०) प्राणी वध का अभाव, प्राणिदया, प्राणिकरुणा सज्जना अहा।' (जयो० २/१२) 'देववादमुपशम्प तन्महा जीवघात का निषेध। अहिंसा वर्त्म सत्यस्य, त्यागस्तस्याः देवतामुपगतो भवानहा।' (जयो० वृ० ७/५९) परिस्थितिः। (वीरो० १३/३६) अहिंसा भूतानां जगति अहार्यः (पुं०) पर्वत, गिरि। (जयो० १५/३६) अहार्यः पर्वते विदितं ब्रह्म परमम्। (दयो० पृ० ११) अहिंसाव्रत भी पुंसि इति विश्वलोचना। है-श्रमण, अहिंसाव्रत और श्रावक अहिंसाव्रत। मूलतः अहि (पुं०) [आहन्ति-आ+हन्+इण् स च डित आङ्गो हृश्वश्च] रागादि भावों की अनुभूति या अनुत्पत्ति का नाम अहिंसा सर्प, सांप, अजगर, नाग। सङ्गीतैक वशङ्गतोऽहिरपि भो तिष्ठेत्करण्डं गतः। (सुद० पृ० १२७) अहीनां सर्पाणामिनः अहिंसाधर्म (पुं०) अहिंसा धर्म, रक्षा, जीवरक्षा का कर्त्तव्य। स्वामी। (जयो० पृ० १/२५) उक्त पंक्ति में 'अहि' के (दयो० ३३) स्थान पर 'अही' का प्रयोग भी होता है ऐसा अभिप्राय भी | अहिंसाधर्मोपदेशक (वि०) अहिंसाधर्म का उपदेश देने वाला, जीव रक्षा/प्राणी का उपदेश। (जयो० पृ० १/९६) अहिकांत: (पुं०) वायु, पवन। अहिंसाधिपः (पुं०) प्राणि रक्षणाधिपति।। अहिकोषः (पुं०) सर्प केंचुली। अहिंसायाः प्राणिरक्षणलक्षणाया अधिपतिः। (जयो० पृ० अहिचरः (पुं०) नागचर देव, नागदेव। 'स्थानं चकम्पेऽहिचरस्य। १/११३) (जयो० ८.७६) अहिचरस्य नाम द्वितीयसर्गोकस्य स्थानम्। अंहिसापरक (वि०) अहिंसात्मक। (वीरो० १८/५९) (जयो० पृ०८/७६) अहिंसा-परमब्रह्मः (पुं०) अहिंसा उत्कृष्ट ब्रह्म। (दयो० ११) अहिछत्रकं (नपुं०) कुकुरमुत्ता। अहिंसामहाव्रतः (पुं०) महाव्रती श्रमण का व्रत। चेतो अहिजित् (पुं०) कृष्ण। निग्रहकारितामनुभवन्वाचं यमी सम्भवेत्। संगच्छेच्छयनाअहित (वि०) अशुभकर, अनिष्टकारी। (जयो० २/३) सनादिषु दृढं यत्नं स्वकीये भवे। दृक्पूताशन- पान-स्फुटतया अहितत्त्व (नपुं०) सर्प तत्त्व, नाग सार। अहीनां सर्पाणां तत्त्वं ही समित्या श्रयः हिंसातीत्यधिदेवताभिरूचये स्वरूपं यत्तद्दर्प विषभुज्झित्य पलायते। अहितस्य शत्रो श्रीमान्प्रशस्तोदय:। (मुनि०श्लो०४) र्भावोऽहितत्त्वम्। (जयो० पृ० ६/७९) अहिंसावतः (पुं०) प्राणिरक्षा व्रत, पांव व्रतों में इसका महत्त्वपूर्ण अहिनील (वि०) सर्प सदृश कृष्ण। दीर्घोऽहिनीलः किल के स्थान है, इसके सद्भाव में अन्य व्रत समुत्पन्न होते हैं शपाश:। (सुद० २/८) प्रमाद से प्राणों का निष्पात करना हिंसा है, ऐसी हिंसा For Private and Personal Use Only Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अहिंम्र १३७ क्या पञ्चसमितियों के पालक पुरुष के समीचीन प्रवृत्ति से हो सकती है? अर्थात् नहीं? तात्पर्य यह है कि पंच समिति पालक के हिंसा संभव नहीं। इसे धर्मवृक्ष का मूल कहा है-मूलं धर्मतरोरवेहि मतिमन्यत्नादहिंसाव्रतम्। (मुनि श्लो ११) अहिंस्र (वि०) अहिंसक, निर्दोष, प्राणिरक्षक। अहिन् (नपुं०) दिन, दिवस। 'पादार्दितामहिरवेस्तुदीनां।' (जयो० १५/७२) अहिम (वि०) गर्म, उष्ण। अहीन (वि०) १. उच्च, विशाल, विराट, 'उत्थाय सूत्थान भृतामहीन:।' (जयो० १/७९) अहीन उन्नतिशालिनाम्। (जयो० पृ० १/७९) २. पवित्र, श्रेष्ठ, अच्छा, उत्तम-तममुचकार पथीहाहीने। (जयो० २२/३६) हीने पवित्रे पथीह मार्ग। (जयो० वृ० २२/३६) अहीनः (पुं०) १. सर्प, द्विजिह्वातीरितगुणोऽप्यहीनः। (जयो० २/२) अहीनक (वि०) समुत्कृष्ट, उत्तम। हृदि सम्पदिवाथ दीपकः समभात् सोऽवधिरप्यहीनक:। (जयो०२३/३८) अहीनगुणः (पुं०) उत्कृष्ट गुण, त्रुटिरहित गुण। सदहीन गुणस्थानमञ्चकादभिनिर्वृतः। (जयो० १८/९७) अहीनानां मध्ये त्रुटिरहितानां गुणानां तन्तूनां स्थानात्। (जयो० वृ० १८/९६) अहीनानि यानि गुणानि। अहीन गुणस्थानं (नपुं०) आगमोक्त गुणस्थान, चौदह गुणस्थान। __ (जयो० १८/९६) अहीनधुरी (वि०) उत्कृष्टशोभा सम्पन्नता, अतिशय सुशोभित। ___ अम्भोरुहि स्फुरणतः स्विदहीनधुयें। (जयो० १८/९) अहीननय (वि०) अन्यूनत्व, न्यूनता रहित। (जयो० १/२५) अहीनभाव (पुं०) उत्कृष्टभाव, उचित परिणाम। (जयो० १/२) अहीनभृत्व (वि०) प्रशंसनीय, सराहनीय। बभार च श्रीमदहीन भृत्वम्। (जयो० १/३०) अहीनलम्ब (वि०) सर्प सदृश लम्बे। अहीनलम्बे भुजम दण्डे। (जयो० १/२५) अहीनां सर्पाणामिनः स्वामी तद्वद् वा लम्बे दी। (जयो० वृ० १/२५) अहीन-सन्तानः (पुं०) सर्प संकुल, सर्प समूह। अहीन-सन्तान समर्थितत्वात्। (वीरो० २/२३) न हीना अहीना: सद्गुणसम्पन्नास्तेषां सन्तानैर्यद्वाऽहीनामिनः शेष। (वीरो० पृ०२/२३) अहीरः (पुं०) अभीर, अहीर जाति. ग्वाल जाति। अहुत (वि०) अप्रार्थित, आहूति रहित। अहे (अव्य०) वियोग सूचक। जिसमें भर्त्सना, निन्दा प्रकट की जाती है। अहेतु (वि०) निष्कारण, निष्प्रयोजन, बिना कारण। (जयो० वृ० १९/२६) | अहेतुवादः (पुं०) अयुक्तिगम्य सिद्धान्त। अहेतुवादस्तु गुरुमुखादेवागम्यते। तत्र युक्तिः प्रवर्तते। (जयो० १९/२६) निःशङ्क और निष्कलङ्क निर्देश युक्त कथन। अहो (अव्य०) हेलया, प्रंशसा, आश्चर्य, विस्मय, विचारविमर्श, प्रसक्ति हे सम्बोधन, इत्यादि कर्म अर्थों में प्रयुक्त होता है। (जयो० १५/८१, ११/१७, १/१९, सुद० ३/३२, ३/१७ १. प्रसक्ति-व्यधापि अस्माभिरहो-(जयो० २०/८०) अहो इति प्रसक्तिः। (जयो० पृ० २०/८०) आश्चर्याभिव्यक्ति (वीरो० १/२०) २. आश्चर्य-सौवर्ण्यमुवीक्ष्य च धैर्यमस्य दूरं गतो मेरुरहो नृपस्य। (वीरो० ३/२) इत्याश्चर्ये (वीरो० १/३२) ३. विचार-विमर्श-विद्यद्य च व्याधि अभूदहो रुषा। (समु० ४/८) हृदि चिन्तामणिमित्यगादहो। (जयो० २५/८५) वृत्तिकार 'अहो' के विषय में स्वयं कहता है-अहो विचारविमर्श (जयो० पृ० २५/८५) ४. हे अर्थे-तुगहो गुणसंग्रहोचिते। (सुद० ३/२२) (अहो प्रभातो जातो-(सुद० ५/१) ५. विस्मयार्थ- अहो किलश्लेषि मनोरमायाम्। (सुद० ३/३८) ६. हेलयार्थे-अहो पुनः प्रत्युपकर्तुमुव। (जयो० ८/६५) ७. खेदार्थे-का दृशा पुनरहो जनमञ्चे। (जयो० ४/२८) अहो किमु (अव्य०) अरे क्या? राज्ञीहाऽहं द्वारिखलु तामीहे गामधिपस्य। अहो किमु। (सुद० ९१! अहोरात्रक (वि०) रात्रिदिवस् वाला। (जयो० १८/५) अह्राय (अव्य०) शीघ्र, त्वरित, तुरंत। अह्नीक (वि०) निर्लज्ज, ढीठ। आ आ-देवनागरी लिपि का द्वितीय वर्ण। यह दीर्ध स्वर है। आ (अव्य०) १. मर्यादा, सीमा, पर्यन्त, तक। आकण्ठमाश्लेषि (जयो० १७/३६) निकट, पास, चारों ओर, ०समन्तात् "नाऽऽमासमापक्षमुताश्वनुवानः।" (सुद० ११८) 'आङ्' अयमभिविध्यर्थ। (स०सि०५/६) 'आ' वा अभिविधि अर्थ For Private and Personal Use Only Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आं १३८ आकाश: में भी प्रयोग होता है। प्रयत्नवानादशमस्थलन्तु। (सम्य० आकर्षिक (वि०) सम्मोहक, प्रलोभक। पृ० १२६) २. अल्पता, लघुता, थोड़ा। ३. अधिकता, आकर्षिन् (वि०) [आ• कृष् णिनि | सम्मोहक, प्रलोभक, विशेषता, बहुत। तदाऽऽव्रजताऽऽव्रजत त्वरितमितः। (सुद० | खींचने वाला। १०४) ४. विस्मय आश्चर्य, स्मरण। आस्तदा सुलुलितं आकर्षिक (वि०) सम्मोहक, प्रलोभक। चलितव्यं। (जयो० ४/७) ५. खेद, खिन्नता, कुछ। ओह। | आकर्षिन् (वि०) [आ कृष् णिनि] सम्मोहक, प्रलोभक, आः स्मृतम्। (दयो० पृ० १५) आः किमासीत्। (सुद० खींचने वाला। १०८) इसके अतिरिक्त 'आ' का प्रयोग वाक्य की शोभा आकलनं (नपुं०) [आ+कल्ल्यु ट] स्वीकार, प्रतिग्रहण। हेतु भी प्रयोग किया जाता है। आकल्पितं (वि०) निर्मित, उपयोग युक्त। 'आकल्पितं क्वापि आं-हाँ! शिवाध्वनेतः' (भक्ति० ४६) गर्भार्भकस्येव यशः आंशिक (वि०) एकदेश, एक स्थान, थोड़ा। (जयो० ११/१३) प्रसारैराकल्पितं वा घनसारसारैः। (वीरो० ६/३) (हित० २३) किलांशिकेषाश्विति तेन मुक्ता। (सुद० २/२०) । आकलितुम् (आ+ कल्+तुमुन्) स्वीकर्तुम् स्वीकार करने के आ: (स्त्री०) लक्ष्मी। लिए। (जयो० ९/३४) आकः (पुं०) अकौआ, मदार, आकड़ा। आकल्पः (पुं०) [आ+कृप्+णिच्+घञ्] आभूषण, अलंकरण। आकड़ा (स्त्री०) मदार, आक। (वीरो० १९/११) आकल्पकः (पुं०) [आ+कृप्+णिच्+ण्वुल] दुःखपूर्ण स्मृति, आकथनं (नपुं०) [आ+कत्थ ल्युट्] अतिकथन, बहुआलाप, ___मूर्छा, मुग्धता। प्रशंसात्मक विवेचना आकषः (पुं०) [आ+कष्+अच्] कसौटी। आकण्ठ (वि०) कण्ठपर्यन्त, गले तक। 'सम्यगाकण्ठमाश्लेषि आकषिक (वि०) [आकर्षण चरति इति आकष•ष्ठल्] परखने वधूर्विनम्या' (जयो० १७/३६) वाला, कसने वाला। आकम्पः (पुं०) [आ+ कम्प्+घञ्] हिलना, कांपना। आकस्मिक (वि०) [अकस्मात् ष्ठक टि लोप:] १. अप्रत्याश्रित, आकम्पनं (नपुं०) [आ+ कम्प्+ ल्युट्] हिलना, कांपना, सहसा, अचानक, एकाएक। २. निष्कारण, निराधार, संचालन, गति। निर्मूल। आकम्पित (वि०) [आ+ कम्प्क्त ] संचालित, कम्पिता, आकाङ्क्षा (स्त्री०) कामना, इच्छा, वाञ्छा, अभिलाषा। गति करता हुआ, कम्पायनाम, विक्षुब्ध। २. आलोचना आकायः (पुं०) [आ+चि+कर्मणि+घञ् चितौकृत्वम्] चिता, का एक दोष, अल्प प्रायश्चित्त। 'प्रायश्चित्त-लघु-करणार्थ चिता पर क्षेपित अग्नि। मुपकरणदानम्।' (त०श्लोक ९/२२) आकारः (पुं०) [आ+कृ+घञ्] आकृति, रूप, संकेत। मम वा आकरः (पुं०) [आकुर्वन्त्यस्मिन्-आ+कृ+घ] खान, खनिक। यमवाक् सन्धाकारयाऽऽयुधधारया। (जयो० ७/२९) जहां से सोना, चांदी आदि की उत्पत्ति होती है। 'अनिरुत्पत्ति आकार: (पुं०) आ कार, आवर्ण, मात्रा विशेष। यत्किलानुस्वारस्य स्थानम्। (जयो० २/१४४) स्थाने स्फुटमाकारस्य। (दयो० पृ० ७६) आकरिक (वि०) [आकर ठन्] खान की देख रेख करने आकारणं (नपुं०) [आ+कृ णिच्+ल्यूट] आमन्त्रण, निमन्त्रण, वाला। आह्वानन। आकर्ण (सक०) [आ+कर्णय] सुनना, श्रवण करना। (जयो० आकालः (पुं०) [आ+कु अल्+अच्] उचितकाल, यथेष्ट पृ० ४/२) समय। आकर्णनं (नपुं०) [आ+कर्ण+ ल्युट्] श्रवण, सुनना, कान आकालिक (वि०) [अकाल+ठ] अल्पकालिक, किञ्चित् लगाना, ध्यान देना। (जयो० १/६५) (सुद० ३/४२) समय, कुछ समय। आकर्षः (पुं०) [आ+ कृष्+घञ्] खींचना, तानना, पीछे ले जाना। २. प्रलोभन, सम्मोहन, आकृष्ट, वशीकरण। आकारूण्य (वि०) निर्दयत्व। (जयो० २/१३० ) आकर्षक (वि०) प्रलोभक, सम्मोहक, वशीकरणकर्ता। आकाशः (पुं०) [आकाश् घञ्] गगन, नभ। आकर्षणं (नपुं०) [आ+कृष्+ ल्युट] सम्मोहन, वशीकरण, आकाशः (नपुं०) [ आकाश। ल्युट्] १. गगन, खे, आसमान, नभ, अन्तरिक्ष। प्रलोभन। शशकृतसिंहाकर्षण-विषये। (सुद० ९२) For Private and Personal Use Only Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra आकाश- ईश: २. आकाश तत्त्व विशेष-वैशेषिक दृष्टि । ३. स्थान, जगह, अवकाश-जैनदृष्टि । ४. ओगाहन, अवगाहन जैन दृष्टि नभोऽवकाशाय किलाखिलेभ्यः (वीरो० १९/३८) अवगाहलक्षणमाकशम्। (पंचा० टी० ३) आकाशस्य अवकाशदानलक्षणमेव विशेषगुण:। (निय० वृ० १/३०) आकाशस्यावगाह: । (त० ०५/१८) सम्पूर्ण पदार्थों का जगह देना (त०] वृ० पू० w ७७) आकाश- ईशः (पुं०) इन्द्र, शक्र । आकाश कक्षा (स्त्री०) क्षितिज । www.kobatirth.org आकाशकल्प: (पुं०) ब्रह्म। आकाशग: (पुं०) पक्षी, नभचर जीव । आकाश गंगा (स्त्री० ) ०स्वर्गगंगा, ०स्वर्णनदी, सुरगंगा देवगङ्गत। (जयो० कृ० ३/१०४) आकाशगता (स्त्री०) आकाशगामिनी विद्या, ऋद्धि विशेष, जिसमें आकाश मार्ग को प्राप्त किया जाता है। आकाश गमनं (नपुं०) आकाशगामिनी विद्या। आकाश में गमन के लिए णमो आगासगामिणं मंत्र का जाप (जयो० वृ० १९/१०) आकाशगतेन्दु (स्त्री०) आकाश को प्राप्त चन्द्र । (सुद० १११ ) आकाशगामिनी (स्त्री०) नभोगा, आकाशगमनशील नभसि गच्छन्तीति न भोगाः आकाशगामिनी देवविद्याधराः । (भक्ति पृ० २५) आकाशगामी (वि०) आकाश में गमन करने वाले विद्याधर, गगनाञ्च । (जयो० ६/७) > आकाशगृहं (नपुं०) विहाय सदन, गगनगृह (जयो० १५/३०) आकाशचमस: (पुं०) चन्द्र, शशि, चन्द्रमा । आकाशचारणं (नपुं०) भूमि के ऊपर चार अंगुल ऊपर चलने वाली शक्ति प्राणिघात विना पादक्षेप रूप शक्ति | आकाश जननिन् (पुं०) गवाक्ष, झरोखा, छोटी खिड़की। आकशतति (स्वी०) ० आकाश पंक्ति, गगनसता (समु०३ / ११) आकाशदेश: (पुं०) आकाश प्रदेश, नभदेश। (जयो० १/२३) आकाशभाषित (वि०) उच्चासन से कथित । आकाशमंडल (नपुं०) गगन मण्डल, खगोल । आकाशयानं (नपुं०) हवाई यान, हवाई जहाज। आकाशरक्षिन् (वि०) गगन रक्षक, किले की रक्षा करने वाली दीवार | आकाशवचनं (नपुं०) आकाशवाणी। १३९ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आकुलक्षणं आकाशवाणी (स्त्री०) गगन शब्द । आकाश-व्यायिनी (स्त्री०) व्योमसर्पिणी (जयो० वृ० ५/५७) आकाशातिपाती (स्त्री०) आकाश गमन की विद्या । आकाशास्तिकाय: (पुं०) आकाश प्रदेश, छह द्रव्यों में पंचम आकाशास्तिकाय द्रव्य । आकिञ्चनं (नपुं० ) [ आकिञ्चन+अण्] १. निराकुल, निर्द्वन्द्व रहित, संक्लेश रहित (जयो० २८/३९) त्यागयुक्त, परिग्रहमुक्त | 'आकिञ्चनता सकलग्रन्थत्यागः (भ० आ० टी० ४६) २. निर्धन, धन हीना आकिञ्चन्यं (नपुं०) ० परिग्रह रहित, ०निराकुल, ० निर्द्वन्दरहित. ०संक्लेशरहित जन्य निर्मन्थवृत्ति आकिञ्चन्यविदास्वपूर्वकृतये व्याक्ताश्रुता सुश्रुता (मुनि श्लो० २) नास्य किञ्चनास्तीत्यकिञ्चनः तस्य भावः कर्म वाकिञ्चन्यम् (स० सि० ९/६) ममेदमित्यभिसन्धि-निवृत्तिराकिञ्चन्यम्।' (तo वा० ९/६ ) आकिञ्चन्यधर्म: (पुं० ) ०सकलत्यागधर्म, ० सम्पूर्ण संग रहित धर्म, बाह्य एवं आभ्यन्तर संग/ आसक्ति / परिग्रह रहित धर्म । (जयो० २८/३९) आकिञ्चन्यविद (वि०) सकलत्याग के ज्ञाता। (मुनि श्लोक २) आकीर्ण (भू० क० कृ०) १. व्याप्त, पूर्ण भरा हुआ, परिपूर्ण । २. विक्षिप्त, बिखरा हुआ, फैला हुआ। 'खदिरादि समाकीर्णे चन्दनद्रुमवने (सुद० पृ० १२८० आकीर्यते व्याप्यते J विनयादिभिर्गुणैरिति आकीर्ण:' (जैन लक्षणावली वृ० १९६) आकुञ्चनं (नपुं०) [आ+ कुञ्च् + ल्युट् ] १. संकोचन, प्रसारमुक्त, संकुचित, एकत्रित । २. सुकड़ा एकत्रित होना। 'आकुञ्चनं जङ्घादे: सङ्कोचनम्।' (प्रव०वृ० २०६ ) आकुञ्चित (वि०) संकुचित, एकत्रित । (जयो० १८ / ९४ ) आकुट्ट (नपुं०) छेदन - भेदन । आकुट्टनं देखो ऊपर आकुट्ट । अकुम्भ: (पुं०) गण्डस्थलपर्यन्त। (जयो० १३/९९) आकुल (वि०) [आ+कुल्+क] आसक्त, संलग्न, ०तत्पर । For Private and Personal Use Only (जयो० १२ / ६५) नित्यमत्रावसीदन्ति मादृशा अबलाकुलाः । ' (जयो० १ / १०७) २ विक्षुब्ध, उद्विग्न, थका हुआ। ३. आहत, पीड़ित, दुःखित, निराश, टूटा हुआ, विक्षिप्त, हर्षादि रहित । ४. किं कर्त्तव्यविमूढ़, अनिर्धारित, अव्यवस्थित। आकुलक्षणं (नपुं०) आसक्ति के क्षण (जयो० १२ / ६५ ) 'स्वकुले सति नाकुलेक्षणेन।' ०दुःख का समय, ० विक्षिप्त काल। Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आकुलता १४० आक्षपाटिकः आकुलता (वि० ) व्याकुलता, आसक्ति भावता, आहत, पीड़ित, आक्रमः (पुं०) [आक्रम्+घञ्] १. उपागमन, सन्निकट। २. दुःखित। अपवर्गस्य विरोधकारिणी जनिभूराकुलतायाः। (सुद० आक्रमण। 'यतश्च भूतले त्वदङ्गजात आक्रमः कृतः। वृ० ११२, पृ० ७२) (जयो० २०/२५) आकुलत्व (वि०) ०आकुलता, निराशता, निराशा भाव, आक्रमणं (नपुं०) [आ+क्रम्+ ल्युट] १. आक्रमण, घात, ०दु:खत्व. ०भयत्व। निराधारत्व। (सुद० ३/३७) प्रहार, टूट पड़ना। अन्योऽन्यजीविकास आक्रमणं न मनोऽरमायाति ममाकुलत्वम्। (सुद० ३/३७) कुर्वन्त्वित्यर्थः। (जयो० वृ० २/११५) २. भयनाशकआकुलित (वि०) १. व्याप्त, परिपूर्णता युक्त, भरे हुए। श्री पशुपक्ष्याक्रमण भरनाशकं। (जयो० वृ० २/३१) पयोधरभराकुलितायाः।' (जयो० ५/५५) २. पीड़ित, व्यथित, आक्रान्त (भृ० क० कृ०) [आक्रम् क्त] पराभूत, अधिकृत. दु:खित, उद्विग्न, अभिभूत। पकड़ा गया, गृहीत। (जयो० वृ० ११/१२. वीरो० ८/२५) आकूणित (वि०) [आ-कूण+क्त] संकुचित, सुकड़े हुए। 'न स्यात्कोपि कदापि दु:खिततयाऽऽक्रान्तस्तथात्मभरी।' आकृतं (नपुं०) [आ-कू+क्त] प्रयोजन, अभिप्राय, कामना, (मुनि० १६) २. पूरित, भरा हुआ-'शाखाभिराक्रान्त०भावना, विचार। 'स्वाकूतसङ्केतपरिस्पृशपि।' (सुद० दिगन्तराल:।' (सुद० २/१५) २/३२) इति श्रष्ठिसमाकूतं निशम्याह यतीश्वरः। आक्रान्तिः (स्त्री०) [आ+ क्रम्+क्तिन] ०पराभूत, तिरस्कृत, आकृति (स्त्री०) [आ+कृ+क्तिन्] ०आकार, ०रूप, ०तदर्थ ०बहिष्कृत, पराजित, ऊपर किया गया, ०आरोहण। रुप, तदाकार, प्रतिमा, प्रतिबिम्ब। २. लक्षण, चिह्न। आक्राम् (अक०) आक्रमण करना, मारना, घात करना। आकृष् (सक०) (आ+कृष्] ०खींचना, ०तोड़ना, भग्न 'आक्रामतश्चक्रपतेस्तुजी' (जयो० ८/६४) करना, बनाना, ०हरण करना (जयो० वृ० ३/४६) आक्रामकः (पुं०) [आक्रम् एल् । आक्रमणकर्ता, प्रहारक, आकर्षताजं च सहस्रपत्रम्। (सुद० ४/१५) अभिघातक, विध्वसंक। आकृष्ट (वि०) बलाद्वशीकृत्, आकर्षित, खिंचा हुआ, तत्पर | आक्रीडः (पं०) [आ क्रीड्। घन] खेल, क्रीड़ा, आमोद, हुआ। (जयो० वृ० १४८९) इति तच्चिन्तनेनैवाऽऽकृष्टः। ०प्रमदवन, उद्यान, आरामा रतेरिवाक्रीडधरौ धवन। (सुद० ३/४३) (जयो० १७/४५) आकृष्टिः (स्त्री०) [आ+ कृष् क्तिन्] समाकर्षण, तन्मयता, आक्रीडकः (पुं०) [आ+ क्रीट् घन स्वार्थ कन] उद्यान, तल्लीनता, आसक्ति, झुकाव। "दृष्टिः सृष्टिरपूर्वैवाकृष्टिः।" आरामगृह, बगीचा, उपवन, क्रीड़ी स्थल, विश्राम स्थान। (जयो० ३/५४) आकृष्टिराकर्षरूपा अपूर्वैव सृष्टिवर्तते। (जयो० १५/२०) (जयो० वृ० ३/५४) आक्रीडधर (वि०) क्रीड़ा को धारण करने वाले, क्रीड़ा पर्वत। आकृष्टिकृत् (वि०) समाकर्षण युक्त, आकृष्ट करने वाला, (जयो० १७/४५) रतेरिवाक्रीडधरौ स्म भातः। (सुद० प्र० लुभाने वाला। बभाज भाजन्मभुवं तु बन्धुरं स्वरिन्दिराकृष्टिकृतः १००) करं वरम्। (जयो० २४/८४) आक्रीडनं (नपुं०) उद्यान, खेल स्थान। (जयो० १५/२०) आकृष्टुम् (विध्यर्थक) हर्तुम, हरण करने के लिए, खींचने के आक्रीडकद्रोनिलयः (पुं०) उद्यान वृक्षा (जयो० १५/२०) लिए, आसक्ति के लिए। (जयो० वृ० ३/४६) आऋष्ट (भू० क० कृ०) [आश्क्ति ] निन्दित, तिरस्कृत, आकेकर (वि०) [आके अन्तिके कीर्यते इति वा आ+कृ+अप्+ अपमानित। टाप् -आकेकरा] अर्धनिमीलित, अर्ध प्रसारित अक्षि। आक्रोश (पुं०) [आक्रश घज] क्रोध, उच्च-रुदन, अभिशप्त। आक्रन्दः (नपुं०) [आ+ क्रन्द्+घञ्] रोना, चिल्लाना, शब्द अधिक कोप, परीपह। करना, आर्तशब्द करण, रुदन। आक्लेदः (पु०) [आ+ क्लिद्घञ्] गीलापन, आर्द्रता, आक्रन्दनं (नपुं०) रुदन, शब्दकरण, चिल्लाहट। आक्रन्द्यते सिञ्चित क्षेत्र। आक्रन्दनम्। आक्षयूतिक (वि०) १. जुएं से प्रभावित। २. द्यूत क्रीड़ा से आक्रन्दित (वि०) शब्दित, रुदित। एवं रत्नविनिर्मितैश्च युक्त। वलयैराक्रन्दितं वेगतः। (जयो० १७/१२९) आक्षपाटिकः (पुं०) [अक्षपट ठक् ) घृतक्रीड़ा का निर्णायक। For Private and Personal Use Only Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आक्षपाद १४१ आगत-समीरणं आक्षपाद (वि०) नैयायिक, तार्किक। आक्षार: (पुं०) [आ+ क्षर+णिच् घञ्] दोषरोपण, आक्षेप। आक्षारणं (नपुं०) दोषारोपण, आक्षेप। आक्षारित (वि०) कलंकित, दोषित, आक्षेपित। आक्षिक (वि०) [अक्षेण दीव्यति जयति जितं वा-अक्ष+इक्] पांसों से खेलने वाला। आक्षिप्तिका (स्त्री०) [आ+क्षिप्+क्त+टाप्] गायन विशेष, रंगमंचीय प्रस्तुतीकरण। आक्षीव (वि०) [आ क्षीव् क्त] उन्मत्त, शराबी, उन्मादी। आक्षेपः (पुं०) [आ+क्षिप्+घञ्] १. दोषारोपण, कलंग, भर्त्सना, निन्दा, अपमान, अवज्ञा, अवहेलना। (जयो० ७० २०/६२) २. प्रयुक्त करना, भरना, लगाना, कहना, पीछे हटना। (जयो० २०/६२) आक्षेपक (वि०) निन्दक, दोषारोपक। आक्षेपकः (पुं) [आ+क्षिप्+ण्वुल्] फेंकने वाला, निन्दन, अपमानका | आक्षेपणं (पुं०) [आ+क्षिप्ल्युट्फेंकना, उछालना। आक्षेपिणी (0) आक्षेपिणी कथा, दृष्टान्त युक्त कथा। आक्षोटः (पुं०) [आ+ अक्ष ओट्] अखरोट की लकड़ी। आखः (पुं०) [ आखिन्+ड] फाबड़ा, खुर्पा। आखण्डलः (पुं०) [आखण्डयति भेदयति पर्वतान्-आ+ खण्ड डलच] १. इन्द्र (जयो० १/२५) (दयो० १०८) आखनिक (वि०) [आखिन्। इकन्] खनिक, खोदने वाला। आखनिकः (पुं०) [आ+ खन् इकन्] चूहा, मूषक, सूअर, चोर, कुदाल। आखरः (पुं०) [आखन्डर] फावड़ा। आखातः (पुं०) जलाशय, तालाब। आखान: (पुं०) कुदाल, फाबड़ा। आखुः (पुं०) [आ+खन्+कु डिच्च] १. मूषक, चूहा, | छछंदर। (सुद०) 'आखुः प्रवृत्तौ न कदापि तुल्यः।' (वीरो० १७/३४) (वीरो० १/१९, १७/३०) २. चोर, ३. फाबड़ा, ४. सूअर। आखेट: (पुं०) [आखिट्यन्ते त्रास्यन्ते प्राणिनो ऽत्र] [आ+खिट्। घञ्] शिकार, पीछा करना, अनुगच्छन। (जयो० वृ० २/३४) मृगया। आखेटक (वि०) [आखेट+कन्] शिकार करने वाला। आखेटकः (पुं०) शिकारी। आखेटिकः (पुं०) [आखेटे कुशल+ठक्] शिकारी, शिकारी कुत्ता। आखोटः (पुं०) [आखः खनित्रमिव जटानि पर्णानि अस्य। अखरोट का वृक्षा आख्यः (पुं०) १. नाम, अभिधान (जयो० पृ० १/२) १. कथन। (जयो० १/४, सम्य० ९) ३. विशेषण रूप में संयुक्त होने पर इसका नाम वाला, नामधारी। आख्यात (भू० क० कृ०) [आ+ख्या+क्त] (जयो० ३/३६) धर्म एवाद्य अख्यातः (सुद० ४/४०) कथित, भाषित, प्रतिपादित, निरूपित। (वीरो० १४/५) आख्यात कुलप्रतीतिः (स्त्री०) कुल प्रसिद्धि का निरूपण। कोल्लागवासी भुवि वारुणीति माता द्विजाऽऽख्यात कुलप्रतीतिः। आख्यातिः (स्त्री०) [आख्या+क्तिन्] प्रकाशन, कथन, प्रतिपादन, प्ररूपण। मृदुसुक्तात्मकताख्याति-सुद० १२२, जयो० २७/२२॥ आख्यानं (नपुं०) कथन, निरूपण, प्रतिपादन। चतुराख्यानेष्व भ्यनुयोक्त्रीं। (सुद० पृ० १२२) आख्यानकं (नपुं०) [आ+ख्या+ ल्युट्] निरूपण कथन, प्रतिपादन, विवेचना आख्यनकः (पुं०) कथानक, कथांश। आख्यायक (वि०) [आ ख्या+ण्वुल] निरूपण करने वाला, प्रतिपादक, विवेचक। आख्यायकः (पुं०) दूत, संदेशवाक। आख्यायि (वि०) कथा (जयो० पृ० १/६) आख्यायिका (स्त्री०) [आख्यायक+टाप्] कथा, कहानी, गद्यांश प्रस्तुति, गद्य कथा रचना, वार्ता। (जयो० पृ० १/३९) आख्यायिन् (वि०) [आ+ख्या+णिनि] सूचित, प्ररूपित, संदेशित, प्रतिपादित। (जयो० वृ० १/६) आख्येय (सं०कृ०) [आ ख्या+यत्] कहकर, प्रतिपादितकर, निरूपित कर। आग (वि०) पाप, घृणा। प्रकाशि यावत्तु तयाऽथवाऽऽगः। (सुद० १०१) आगत (वि०) समागत, आया हुआ, प्राप्त, सम्प्राप्त। (५/८८) उपलब्ध। (सुद० पृ० ७८) पृतनापतिपार्श्वमागतः। (जयो० १३/६९) आगतानुपचचार विशेषमेष। (जयो० ५/६) आगतवान् (वि०) आया हुआ, प्राप्त हुआ। (जयो० १/८१) आगत-समीरणं (नपुं०) आई हुई मंद-मंद पवन। मंदमंदरूपेण गतेन समीरणेन। (जयो० १४/२) For Private and Personal Use Only Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra आगति आगति (स्त्री०) [आगम क्तिन्] १. अन्य गति से इच्छित गति में आना। २. उद्गम, अधिग्रहण, उपगम प्राप्त। आगतोकृत् (वि०) अभ्यागत उपकार, अतिथि सत्कार। (जयो० २१ / २३) आगन्तु (वि०) [आगम-तुम्] १. आने वाला पहुंचने वाला । २. नैमित्तिक, आनुषंगिक आकस्मिक। आगन्तुक (वि०) आने वाला आया हुआ, सोत्सुक आगतः (जयो० ३०३/२८ ) आगम् (सक० ) [ आ + गम् ] आना, पहुंचना जाना प्राप्त अवागमिष्यमेवं चेदागमिष्यं न किं स्वयम् (सुद० ७७) किमिहाऽऽगत्य स्थितः किं तया (सुद० ९८ ) स्वयमेवाऽऽजगामाहो। (सुद० ३/४३) आगच्छताऽऽगच्छत भो। (सुद० ५ / पृ० ६९) कालः पुनर्द्वापर आजगाम्। (वीरां० (१६/४) www.kobatirth.org " आगम: (पुं० ) [ आ + गम् + घञ्] आना प्राप्त होना, समागत, अधिग्रहण, दर्शन। आगमद्रव्यकर्मन् (नपुं०) कर्मागम का जाता। आगमद्रव्यकालः (पुं०) कालविषयक ज्ञाता । आगम: (पुं० ) निर्दोष शिक्षण । (सम्य० ९२ ) परम्परा से आगत शिक्षा सर्वत्र देवागमभिः । (९२) आगम: (पुं०) १. आप्तवचन, ०वीतरागवचन. ०श्रुत. ० सिद्धान्त. ० प्रवचन, ०निरूपण, ० आख्यान० प्रतिपादन. ०प्ररूपणा, उपादे य तत्त्व ख्यापक। 'आगम्यन्ते परिच्छिद्यन्ते अर्था अनेने त्यागमः।' (जयो० २/८५) आप्त-व्याहृति, तत्त्वोपदेशकृत शास्त्र २. दार्शनिक प्रतिपादन में साधन भूत प्रमाण, आगम प्रमाण । (जयां ० २६/९९) युक्त्यागमाभ्यामविरुद्धकोष ! (जयो० २६/९९) आगमद्रव्यं (नपुं०) विवधित जाता आगमनं (नपुं० ) [ आ + गम् + ल्युट् ] आना, पहुंचना, प्रस्थान, अधिग्रहण (जयो० १/७८) आगमनसंदेश: (पुं०) अधिग्रहण सूचना (जयो० ० १/७८) आगमाश्रयः (पुं) आगम का आधार । (हित० सं० ३) आगमसिद्धि: (पुं०) आगम प्रमाणित | आगमिन् (वि०) [आगम् णिनि] आने वाला। निकटस्थ पहुंचने वाला। आगमोक्तपथ (पुं०) शास्त्रकथितमार्ग। आगमोक्तपथतो यथापदं सावधानक उपैति सम्पदम्। (जयो० २/८५) आगमोपलब्धिः (स्त्री०) आगम कथित अक्षर लाभ। १४२ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आघट्टना आगमोल्लंघनं (नपुं०) आगम का उल्लंघन / अतिक्रमण। ( भक्ति० ३९) 7 आगस् (नपुं०) (इ+ असन्+ आगादेश: ] दोष, अपराध, पाप, बुरा निन्दनीय आगस्त्यक्तोऽस्मि संसारसागरश्चुलुकायते । (जयो० १ / १०३) समुपभान्ति लवा अथवागस (जयो० १/९२) आगस: पानस्य लवा अंशा (१ / ९२) आगसाम्अपराधानाम् (जयो० ० २/१२) आगसाग अपराधानां निधि: स्थानम् । (जयो० वृ० २/८४ ) आगस्ती (स्त्री०) दक्षिण दिशा आगस्त्य ( वि०) दक्षिणी, दक्षिण प्रान्त वाला। आगाध (वि० ) [ अगाध एवं स्वार्थे अण्] अधिक गहरा, अथाह । आगामिक (वि० [आगमण] अतीति (सम्य० ९१ ) भविष्यत्कालीन आगे वाली भावी (जयो० ० २०६६) आगमी देखो आगमिक। आगामुक (वि०) [आ-गम् उकञ] आने वाला पहुंचने वाला। आगारं (नपुं०) [आगमृच्छति + ऋ + अण् ] घर, आवास, निवास, स्थल, स्थान, रुकने का स्थान। (वीरो० २७/१८) आगारवर्तिन् (वि०) घर में रहने वाला। (वीरो० २२८ ) आगारवर्तिन् (पुं०) श्रावक (वोरो० २२/२९) + + आगुर् (स्त्री०) [आ.गुरव) स्वीकृति, सहमति, प्रतिज्ञा । आगृ (स्त्री०) सहमति, स्वीकृति। आगोहर (वि०) पापनाशक (जयो० ८/९४) आनिक (वि०) अग्नि से सम्बन्ध रखने वाला, यज्ञकर्ता । आग्नेय (वि०) अग्नि से सम्बन्ध रखने, प्रचण्ड, जाज्ज्वल्यमान । आग्नेय अस्त्र । आग्रह (पुं०) ( आग्रह अच्] अभिनिवेश, प्रयत्न, निवेदन, कृपा, दृढ़ता। (जयो० वृ० ६ / २) आग्रह धर (वि०) प्रयत्नशील, उतावली । युग्यसंयुतयुगा अथी रथा गन्तुमाग्रहधराः सता पथा (जयो० २१/२) आग्रह हाव-भाव धात्री (वि०) आग्रह हाव एवं भाव को धारण करने वाली । (जयां० १२/२१) आग्रहश्च हावश्च भावश्च तेषां धात्री (जयो० ० १२२/२१) आग्रहायणः (पुं०) मार्ग शीर्ष का माह। आग्राहारिक (वि०) दान दी जाने वाली। For Private and Personal Use Only आघट्टना ( स्त्री० ) [ आ+घट्ट+ णिच् + युच्+टाप] कांपना, हिलना, घर्षण | Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आघर्षः १४३ आचारिक आघर्षः (पुं०) [आ। घृष्। घञ्] ०मर्दन, मालिश. उपटन, संमार्जन, प्रमार्जन। आघाट: (पुं०) [आ हन्। घञ्] सीमा. परिधि, परिकर, परिषद। आघात: (पुं०) आ+ हन्+घञ्] प्रहार, चोट, मारना, घायल करना, दु:ख पहुंचना। आघार: (पुं०) [आ++घञ्] सिञ्चन, आद्रीकरण। आघूर्णनं (नपुं०) [आ+ घूर्ण+ल्युट] लोटना, घूमना, परिभ्रमण करना, ०परिवर्तन करना, उछालना। आघोषः (पुं०) [आ+ घुष्+घञ्] आह्वानन, आहृत, बुलाना। आघोषणं (नपुं०) उद्घोषणा, हिंढोरा, शब्द करना, संकेत करना। आघ्राणं (नपुं०) [आघ्रा+ ल्युट्] सूंघना, सुगंध लेना। २. तृप्ति, संतोष। आख्य (वि०) कथित, प्रतिपादित। (सम्य० १०२) आङ्गणं (नपुं०) आंगन, गृह का खुला चौक। क्षणं संशोच्याऽऽङ्गणतो बहिवर्जत्। आङथ्री (स्त्री०) चरण (जयो० वृ० १/५) (दयो० पृ० १६७) आङ्गारं (नपुं०) [आङ्गाराणां समूहः-अण] अंगारों का समूह। आङ्गिक (वि०) शारीरिक, कायिक, शरीर सम्बन्धी। आङ्गिरसः (पुं०) [अंगिरस्। अण] बृहस्पति। आङ्गोपाङ्ग (पुं०) अङ्ग एवं उपाङ्ग। यावत्तावदेवाङ्गोपाङ्गानि तानयित्वा। (दयो० पृ० ९५) आचक्षुस् (पुं०) [आ+ चक्षु+ उणि वा] प्रज्ञा पुरुष, ज्ञानी पुरुष। आचमः (पुं०) [आ+चम्। घञ्] कुल्ला करना, हथेली में जल लेकर पान करना, आचमन करना। आचमनं (नपुं०) कुल्ला करना, हथेली में जल लेकर पान करना। आचमनकं (नपुं०) पीक दान, थूकदान। आचारभृष्ट (वि०) आचरण/संयम से पतित। आचयः (पुं०) [आ+चि+अच्] इकट्ठा करना, बीनना, एकत्रित करना। आचर (अक०) आचरण करना, अभ्यास करना, पालना। (जयो० २।८, २/७०) (वीरो० ५/७) स्त्रीरूपं न विलोकयेत्र च तथा संलापमेवाचरेत्। (मुनि० ३) आचरणं (नपुं०) अभ्यास करना, अनुकरण करना, २. चाल चलन, व्यवहार, अनुष्ठान। (जयो० वृ० १/१३) आवश्यक कर्त्तव्य, मर्यादा, सीमा। चारित्रमिन्द्रियनिरोधादिलक्षणम्। (जयो० पृ० १०/८४) सन्निवेद्य च कुलकरैः कुलान्येतदाचरणमिङ्गितं बलात्। (जयो० २१८) अधीत- बोधाचरण प्रचारैः। (जयो० १/१३) आचरणमनुष्ठानम्। (जयो० पृ० १/१३) आचरणशास्त्रं (नपुं०) आचारशास्त्र, इसे आचार्य ज्ञानसागर ने वृत्तशास्त्र भी कहा है। (वीरो० १/२६) आचरित (वि०) १. आचरण किया गया. २. आचरित दोष, वसतिका, उद्गम दोष। तच्च-कुट्टी-कटकादिकं दूर देशादानीतमाचरितम्। (भ० आ० टी० २३०) आचान्त (वि०) [आ+चम्+क्त] आचमन के योग्य। आचामः (पुं०) [आ+चम्+घब] आचमन, कुल्ला । आचारः (पुं०) १. व्यवहार, चाल-चलन, प्रथा, परम्परा। आचारव्यवहारवतो-(जयो० वृ० १८/१६) आचारे व्यवहारे च चुल्लावक्षः समिष्यते इति विश्वनोचनः।। २. आचारांग-आगम आचरणमाचारः, आर्चयत इति ३.आचार:। आचार-गुण विशेष के लिए प्रयुक्त-(सम्य० ९८) चरन्ति चाचारमिषुप्रकारम्। (भक्ति पृ० १६) आचारे चर्याविधानं शुद्धयष्टक-पञ्चसमिति- त्रिगुप्तिविकल्पं कथ्यते। (धव० ९/२७) आचरन्ति समन्ततोऽनुतिष्ठन्ति मोक्षमार्गमाराधयन्ति अस्मिन्नने नेति वा आचार:। (गो०जीव०३५६) आचारः (पुं०) मुरब्वा, संधान, आमादिक अचार। (हित०४६) आचारगुणः (पुं०) सदाचार गुण, व्यवहार गुण। आचारगृहं (नपुं०) सद्व्यवहार गृह, आश्रम, ०उपाश्रय। आचरणं (नपुं०) आचरण। (सम्य० १५५) योग्य चरण, समीचीन व्यवाहार अचारपथः (पुं०) आचारमार्ग,)आनुपूर्वी मार्ग। आचारभावः (पुं०) आचरण परिणाम, अनुष्ठान भाव। आचमनक्रिया (स्त्री०) चलने की क्रिया। (वीरो० २२/१६) आचारमार्गः (पुं०) व्यवहारमार्ग। आचारवर (वि०) आचरण में श्रेष्ठ, आचरण को धारण करने वाले। इत्युक्तामाचारवरं दधानः। (सुद० ११८) आचारवान् (वि०) आचरण करने, कराने वाला। आचारविनयः (पुं०) समाचारी का गुण, संयम स्थान का विशेष गुण, ० श्रमण का विशेष गुण। आचाराङ्गः (पुं०) आचाराङ्ग आगम, प्रथम श्रुत, प्रथम अङ्ग ग्रन्थ। आचारिक (वि०) [आचार+ठक्] नियम पालक। For Private and Personal Use Only Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra आचार्यः आचार्य: (पुं० ) [ आ + चर्+ण्यत्] १. संघ नायक, अध्यात्म के पद पर प्रतिष्ठित गुरु (जयो० वृ० १/२) २. पञ्च परमेष्ठियों में तृतीय स्थान। ३. पञ्चाचार से पूर्ण पंचेन्द्रिय दान्त, धीर, वीर गुणों में गम्भीर, नाना गुण से युक्त । आचरन्ति तस्माद् व्रतानीत्याचार्य: । (स० सि० ९ / २२४ ) पृथक्तये सारतयाभ्युदारं चरन्ति चाचारमिषुप्रकारम् । आचारयन्तोऽत्र यतींश्च शेषान् सङ्गस्य ते सन्तु मुदे गणेशाः।। (भक्ति० १० ) आचार्यता (वि०) आचार्यपना, आचार्यगुणयुक्त, आचार्य के गुणों वाला वीरो० १४/१३) आचार्यतां बुद्धिधरेषु याताः । (वीरो० १४/१३) आचार्यपद (पुं०) आचार्य का पद (वोरो० १७/२०) आचार्यभक्तिः (स्त्री०) आचार्य की भक्ति, भावविशुद्धियुक्त भक्ति (भक्ति १०) 'आचार्येषु भावविशुद्धियुक्तनुराग आचार्यभक्ति (स०] सि० ६/२४ १० वा० ६/२४) आचार्यवर्णः (पुं०) आचार्य प्रशंसा आचलित (वि०) उत्सुक, चलायमान। वाचमाचलितचित्त इवारात्। (जयो० ४/६ ) आसमन्ताच्चलि (जयो० वृ० ४/६ ) आचलित-चित्तं (नपुं०) चंचल चित्त, विक्षिप्त उत्साह युक्त मना (जयो० ४/६) आसमन्ताच्चलितं वित्तं यस्य स आचलितचित्तो' (जयो० पृ० ४/६ ) आचीर्णः (पुं०) आहार दोष। (मूला०वृ० ६/२०) आचलेक्य (वि०) निर्ग्रन्थपना, दिगम्बर रूपता (जयो० पृ० १/२२) 4 www.kobatirth.org 2 आचेलक्य (वि०) दिगम्बरत्व निर्ग्रन्थता सकलपरिग्रहत्यागः सकलपरिग्रहत्याग आचेलक्यम्। (भ० आ० टी० ४२१ ) आच्छपाषाण: (पुं०) स्फटिक मणि, स्फटिक पत्थर (जयो० ० १२ / ११६) , आच्छादः (पुं०) [ आ+छद्+ णिच्+घञ्] वस्त्र, कपड़ा, का परिधान। पहनने आच्छादयत् (भू०) संवृतचकार, ढंक लिया आवृत किया। (जयो० ४/२९) आच्छादयत्तावदुपेत्य वक्रम्। आच्छादनं (नपुं० ) [ आ+छद् + णिच् + ल्युट् ] आंख-मिचौली, छिपाना, ढकना, आवृत्त करना। तमोवगुश्ठातिमता (जयो० १५/५०) । आच्छादयन् (सं०कु० ) ढंककर आवृत्तकर वस्त्रेणाऽऽच्छाद्य निर्माय (सुद० ९४) १४४ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आज्यं + + आच्छुरित (वि०) [ आर्क्त] मिला गया. खुरचा गया, खुजलाया गया। आच्छेद (पं०) आदि काटना, छंदना। आच्छेद्य (वि०) भयभीत करके दान देना संत का दोष परकीयं यद्दीयते तदाच्छेद्यम्। (भ० आ० टी० २३०) आच्छोदनं (नपुं०) [आ-छिंद्-ल्युट् शिकार करना, अनुगमन + करना। आजके (नपुं०) बकरों का झुण्ड । आजगवं (नपुं०) शिव धनुष आजननं (नपुं०) ( आजन् ल्युट् ] प्रसिद्धकुल, ख्यानकुलः। आजन्म (वि०) उत्पत्तिकालादद्यावधि उत्पत्ति से अब तक। (जयो० १३/२२) आजानुबाहु (पुं०) घुटने तक बाहु चौरो० ३/११) लम्बी भुजाएं । आजि: (स्त्री०) युद्धभूमि, रणक्षेत्र, रणस्थल, समरस्थान, युद्धस्थान वाजिः प्रतता सतीके (जयो० ८३७) आजिपु तत्करवाल (जयो० ६/८०) आजिए / रणभूमिपु । आजिर्युद्ध (पुं०) रणभूमि (जयो० १ आजीव: (पुं० ) [ आ+जीव्+घञ्] १. आजीविका, वृत्ति, व्यापार, २. आजीव नामक दोष जाति, कुल गण, कर्म और शिल्प इस प्रकार पांच आजीव हैं। आजीवकुशील (पुं०) अपनी जाति को प्रकट कर मिश्राचर्या करना। (भ० आ० टी० १९५०) आजीवन (नपुं०) आजीविका व्यापार व्यवसाय वृत्ति। आजीवनं यन्निगदाभि नाम तदङ्गभृज्जीवननाशधाम (दयो० ३५) आजीवनदायिनी (वि०) प्राणप्रदा, जीवनदायक, आजीविका प्रदायक। For Private and Personal Use Only आजीविका (स्त्री०) आय, व्यापार वृत्ति कला बहत्तर पुरुष की उनमें दो सरदार । प्रथम जीव की जीविका, दुजो जीव उद्धार ।। आजीविका (स्त्री०) वृत्ति, व्यापार (द०३५) आजुहाव (भू० ) मन्त्रयतिस्म आमंत्रित किया. प्रकट किया। (जयो० २२/६) नवधान्यस्य मुदं सौभाग्यमाजुहाव सहजेन हि राज्ञः ।। आजू (स्त्री०) व्यर्थ, बेकार, परिश्रम रहित । आज्यं (नपुं०) घृत पात्रस्थितमाज्यं घृतम् (जयो० १२/११७) यदमत्रगतं बुभुक्षराज्यं । Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आज्ञा १४५ आतविनाशिन् आज्ञा (स्त्री०) [आ+ज्ञा+अङ्टाप्] (सुद० ९२) आदेश, अनुमति, अनुज्ञा, शासन। (जयो० ३/७३) तदधीशाज्ञया ऽऽयातः। (जयो०३/३) आज्ञाकर (वि०) आज्ञा पालक, आज्ञा मानने वाला। आज्ञाकारिन् (वि०) आज्ञा मानने वाला, अनुचर। (जयो० वृ० ४/१०) आज्ञापनं (नपुं०) [आ+ज्ञा+णिच् ल्युट] शासन, अनुमति, आदेश, इङ्गित, संकेत। (जयो० ५/३८) आज्ञाकारिन् (वि०) आज्ञा मानने वाला, अनुशासन युक्त (वीरो० १/३८) आज्ञात (वि०) अनुभृत, अनुभव जन्या 'नाज्ञातमाज्ञातरणोत्थशर्म।' (जयो० ८/१३) आज्ञारुचिः (स्त्री०) सर्वज्ञ के प्रति श्रद्धा। आज्ञाविचयः (नपुं०) आगमानुसार चिन्तन, आगमानुकूल विचार, धर्मध्यान का एक भेद, निजात्मा में लीन। जिनाभ्यनुज्ञातनुभागपाय, विपाकसंस्थानचयाय धर्म्यम्। (समु०८/३९) 'श्रद्धानादर्थावरधारणमाज्ञाविचयः।' (स० सि० ९/३६) 'सर्वज्ञाज्ञाप्रकाशनार्थत्वादाज्ञाविचयः।' (भ०आ० १७०८) आज्ञानुसारिणी (वि०) १. आज्ञा के अनुसार चलने वाली अनुचरी, आज्ञासीला। (दयो० ११२) २. छन्दोनुगामिनी। (जयो० वृ० २७/२) छन्दोऽनुग! विरुद्धवृत्तौरुषमेति लोकश्छन्दोऽनुगे तर्षनिदर्शनौकः। आच्छादन को अवगुण्ठन भी कहते हैं। अवगुण्ठनमाच्छादनम् (जयो० १० १५/५०) तत्र तल्पे नभः कल्पे घनाच्छादनमन्तरा। (सुद० ७८) आञ्चनं (नपुं०) [आ+अञ्च् ल्युट] सींग, शस्त्र विशेष। आञ्छ (अक०) लम्बा करना, विस्तार करना, बढ़ाना। आञ्छनं (नपुं०) [आञ्छ+ ल्युट] ठीक बैठना, एक सा होना। आञ्जनं (पुं०) अञ्जन। आञ्जनः (पुं०) मारुति. हनुमान। आञ्जनी (स्त्री०) अञ्जन, मरहम, सुरमा। आञ्जनेयः (पुं०) मारुति, हनुमान, पवनपुत्र। आटविकः [अटव्यां चरति भवो वा] वनवासी। आटिः (स्त्री०) पक्षी विशेष। आटीकनं (नपुं०) [आटीक्ल्यु ट्] बछड़े की उछल कूद। आटीकरः (पुं०) [आ+कृ+अप्] सांड। आटोपः (पुं०) [आ+तुप्+घञ्] अहंकार, अभिमान, गर्व। आडम्बरः (पुं०) [आ+डम्ब+अरन्] दिखावा, परिग्रह, सम्पत्ति आम्बरिन् (पुं०) [आ+डम्बर+इनि] संपत्ति वाला, अभिमानी। आढकः (पुं०) [आ+ ढौक घञ्] माप विशेष, जिससे धान्य मापा जाए। आढ्य (वि०) १. सम्पन्न, पूर्ण, २. धनी। आढ्यङ्ककरण (वि०) सम्पन्नता युक्त। आढ्यता (वि०) परिपूर्णता, सम्पन्नता। भयाढ्यतामम्युपगम्य शिष्टाः। (जयो० १७/१) सर्वे युवानो रहसि प्रविष्टाः। आणः (पुं०) शब्द, स्वर, आवाज। सुष्ठ पस्य पवनस्याण: शब्दो यत्र। (जयो० वृ० २७/७) आणक (वि०) १. शब्द युक्त, आवाज रहित। २. नीच अधम। आणव (वि०) अत्यन्त छोटा। आणि: (पुं०स्त्री०) [अण+इणि] धुरे की कील, अक्षकील। १. घुटने के ऊपर का भाग, २. सीमा, परिधि। २. तलवार की धार। आण्ड (वि०) [अण्डे-भव:-अण] अण्डे से पैदा होने वाला। आण्डीर (वि०) [आण्डमस्ति अस्य--ईरच्] १. वयस्क, युवावस्था वाला। २. अण्डेधारी। आतः (पुं०) आघात, घात, हानि। (सुद० ४/२६) काष्ठसङ्घाततो मृत्यु मन्त्रस्मरणपूर्वकम्। आतङ्कः (पुं०) [आ+तङ्क घञ्] ०रोग, ०व्याधि, ०पीड़ा, ०कष्ट, ०व्यथा, वेदना, भय, त्रास, दु:ख जन्मातङ्कजरादित: स। (जयो० २५/८७) आतञ्चनं (आ+ तञ्च+ ल्युट्) १. गाढ़ा दूध, छांछ। २. वेग गति। आतत (वि०) [आ+तन्+क्त] विस्तृत, फैला हुआ, प्रसरित। आततायिन् (वि०) १. साहसी, बलिष्ट, २. अत्याचारी, आतंक फैलाने वाला हत्यारा। 'आततेन विस्तीर्णेन शस्त्रादिना अयितुं शीलमस्य' आतपः (पुं०) १. पर्मी, उष्णता। २. प्रचण्ड, प्रकाश। 'न पूज्यो महात्माऽतपदेकतान।' (सुद० ११८) आतपत्रं (नपुं०) छाता, छत्र। (जयो० १६/१५) आतपनं (नपुं०) गर्मी, प्रकाश। आतपलङ्घनं (नपुं०) लू में रहना। आतप-वारणं (नपुं०) छत्र, छाता। त्रितयं चातपवारणोक्तमेतत्। (जयो० १२/६) आतप-विनाशि (वि०) गर्मी नाशक। आतविनाशिन् (वि०) संताप विनाशिनी, दु:ख विध्वंसिनी। (सुद०) अन्धकार शील प्रकाश से रहित। For Private and Personal Use Only Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आताप: १४६ आत्मत्राणं आताप: (पुं०) [आतप्+घञ्] १. सन्ताप, दुःख, कष्ट, पीडित। (भक्ति० २४) २. गर्मी, उष्णता, तपन। आतापिन् (वि०) [आ+तप्। णिनि] १. संतप्त किया गया। (पुं०) पक्षी विशेष, गृद्ध, चील। आतिथेय (वि०) [अतिथिषु साधुः-ढञ् अतिथये इदं ढक् वा] अतिथियों के अनुकूल, अतिथि सत्कार। 'आतिथेयेन विलसन्ती करुणा येषां ने तेषामातिथेय। ' (जयो० ५/२९) आतिथ्य (वि०) [अतिथि ष्य] सत्कारशील, अतिथि सत्कार। ___ 'आतिथ्ये वस्त्रुटिरेव तु न:।' (जयो० १२/१३६) आतिथ्यविधिः (स्त्री०) अतिथि सत्कार, सत्कारशील विधि। तासां किलाऽऽतिथ्यविधौ नरेश। (वीरो०५/२) आतिथ्यविधानं (नपुं०) अतिथि सत्कार, स्वागताचरण। पति यतीनां समुतिं प्रतीक्ष्य तदा तदातिथ्य-विधानदीक्षम्। (जयो० १४८०) आतिथ्यरूपः (पुं०) अतिथि सत्कार। (दयो० २४) आतिथ्यसत्कार: (पुं०) स्वागताचरण, अतिथि सेवा, अतिथि सम्मान। सुदर्शनपिताऽप्यत्राऽऽतिथ्यसत्कार तत्परः। (सुद० ३/४४) आतिदेशिक (वि०) [अतिदेश:+ठक्] उपदेश से सम्बन्धित, अतिदेश से सम्बन्धित। आतिरेक्यं (नपुं०) अधिकता, विशालता, अत्यधिक, बृहत्तर। आतिशय्यं (नपुं०) [अतिशय+ष्यञ्] अतिशयता युक्त, विशालतम, बहुत्व परिणाम। आतुः (स्त्री०) बेड़ा, वांसादि का बनाया गया घेरा, बाँड। आतुलित (वि०) आगे-पीछे होने वाली। (वीरो० १९/१९) आतुरः (वि०) [ईषदर्थ आ+ अत्+ उरच्] १. उत्कण्ठापूर्ण-पातुं नृपातुरतया तु न यातु कश्चिद्। (जयो० २७/६४) २. कष्टानुभवी, कष्ट को अनुभव करने वाला-'तनये मन एतदातुरं तव।' (जयो० १३/९) ३. घायल, ०पीड़ित, ०दु:खी, त्रस्त, प्रभावित। ४. उत्सुक, तत्पर, ०सन्नद्ध, क्रियाशील। आतुरः (पुं०) रोगी, व्याधिग्रस्त मनुष्य। आतोद्यं (नपुं०) यन्त्र विशेष, वाद्य यन्त्र। (वीरो० २/३३) आतोद्यनाद (पुं०) भेरी शब्द। वाद्यं वादित्रमातोद्यं काहलादि निरुच्यते इति विश्व० आत्त (भू० क० कृ०) [आ+दा+क्त] ०समागत, प्राप्त, ०लब्ध, उपार्जित, ०आया हुआ, प्रतिगृहीत, ०स्वीकृत, ०अंगीकृत्। जगाम मैरेयभृते त्वमत्र आघ्रातुमात्तप्रतिमेऽलिरत्र। । (जयो० १६/४८) आत्तानां समागतानामलीनाम्। (वीरो० वृ०२/१२) आत्त-कल्मष (वि०) मलिनता युक्त, पाप जन्य। तुरगा अपि ते रजस्वलावनि संपर्कत आत्तकल्मषा:। (जयो० २१/६५) आत्तनयी (वि०) गृहीत, लिया गया, समागता। स्वयमिति यावदुपेत्य महीश: मरणार्थमस्यात्तनयी सः। (सुद० १०८) आत्तमूर्ति (स्त्री०) साक्षात् प्रतिमा। (सुद० २/२४) आत्तवरद (वि०) लाना, प्राप्त होना। आत्ता वरदा कन्या येन सा। (जयो० वृ० ३/११६) आत्मक (वि०) [आत्मन् कन्] ०स्वाभाविक, आत्मजन्य, स्वभाव स्वरूप। आत्म-कर्त्तव्यः (पुं०) अपना कार्य। (दयो० ३२) आत्म-कल्याण (नपुं०) आत्म कल्याण, अपना हित, निज रक्षा। (जयो० वृ० २/५०) निजहित। आत्मकाम (वि०) परमात्मा इच्छुक, आत्म इच्छुक। आत्मकारिणी (वि०) आदरकी, सम्मानदात्री। (जयो० ३/११) आत्मकृत् (वि०) निजकृत, स्वकृत। आत्मखेदी (वि०) दु:खी, मन से दुःखी। (वीरो० १६/८) आत्मगत (वि०) मनोगत, अपने द्वारा उत्पन्न। आत्मगुणी (वि०) स्वाभाविक गुणी, सहज स्वभावी। (हित० सं०पृ० १) विशुद्ध स्वभावी, आत्म परिणामी आत्म-गेहं (नपुं०) मनः कुटीर। ममात्मनो गेहमेतत् मदीयं मन: कुटीरकं मनोरमत्वम्। (जयो० १/१०४) आत्मगोत्रं (नपुं०) स्वकुल, निजकुल। (जयो० १/१३३) आत्मज्ञ (वि०) आत्मज्ञानी, तत्त्वज्ञ, स्व स्वरूप ज्ञाता। आत्मज्ञान (नपुं०) स्वज्ञान, निजज्ञान। आत्म-ज्ञानी (वि०) स्वभाव जानकार। आत्मचिन्तनं (नपुं०) स्वकीय ध्यान, आत्मध्यान। (जयो० २२।८६) आत्मज् (पुं०) पुत्र, तनय, सुत। दक्षतरावंचरात्मजास्तु सती। (जयो० ६/६) आत्मजम्मन् (पुं०) पुत्र, तनय, सुत। आत्मतम (वि०) स्वकीय ज्ञान (भक्ति० ३) ०आत्म-बोध। आत्म-तत्त्वं (वि०) स्वभावलीनता, अपनी समाधि (जयो० १/१) आत्म-त्यागः (नपुं०) निज-कल्याण त्याग, स्वार्थ त्याग। आत्मत्यागिन् (वि०) आत्मघाती, निज स्वरूप विध्वंसी। आत्मत्राणं (नपुं०) आत्मरक्षा, स्वरक्षा, अपना हित। For Private and Personal Use Only Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आत्म-दर्शन १४७ आत्मवत् आत्म-दर्शनं (नपुं०) निज दृष्टा, आत्म दर्शक, स्वभाव अवलोकन, स्वमत परिदर्शक। आत्मदृष्टि (स्त्री०) आत्म दर्शन। (दयो० १००) आत्म-द्रोहिन (वि०) अपने आपको पीडित करने वाला। आत्मधी: (स्त्री०) स्वकीय बुद्धि। (सुद० १२७) आत्मध्यान परायण (वि०) आत्म-स्वरूप चिंतन करने वाला। (सुदः १३३) आत्मन् (पुं०) १. आत्मा, जीव, चैतन्य, २. इव, निज, अपना, आत्मीय, ३. मन, बुद्धि। (सम्य० १३८. १३१) ४. आत्मा, परमात्मा, बहिरात्मा, अन्तरात्मा। ५. निज-स्वस्यात्मनोऽभ्युदयो यस्य। जीव-आत्माऽनात्मपरिज्ञानसहितस्य। (सुद० पृ० १३३) अपना-परमप्यनुगृह्णीयादात्मने पक्षपातवान्। (सुद०४/४४) ज्ञानेनाद्याऽऽत्मनश्चित (सुद० ४/३६) आत्मा-सच्चिदानन्दमात्मानं ज्ञानी ज्ञात्वाऽङ्गतः पृथक्। (सुद० ४/११) तत्तत्सम्बन्धि चान्यच्च त्यक्त्वाऽऽत्मन्यनुरज्यते।। (सुद० ४/११) स्व-सुस्थितिं समयरीतिमात्मनः सङ्गतिं परिणति तथा जनः। (जयो० २४४७) देहं वदेत्स्वं वहिरात्मनामाऽन्तरात्मतामेति विवेकधामा। विभिद्य देहात्परमात्मतत्त्वं प्राप्नोति सद्योऽस्तकलङ्कसत्त्वम्।। (सुद० १३३) आत्मन्येवाऽऽत्मना। चिन्तयतोऽस्य धीमतः। (सुद० १३५) आदर्श इव तस्यात्मन्यखिलं बिम्बितं जगत्। (सुद० १३५) 'आत्मास्ति ज्ञानसम्पन्नोऽप्यभियुक्तोऽप्यनादितः। (हित० सं०१) आत्मने हितमुशन्ति निश्चयम्। (जयो० २/३) आत्मनाथ: (पुं०) प्राणेश्वर, प्राणप्रिय। (जयो० १२/१०) आत्मनिन् (वि०) आत्महित युक्त। (सुद० ११९) आत्मनीन् (वि०) आत्महितकारी, आत्मकल्याणकारी। (भक्ति० ४) स्वभावभूतं सुखमात्मनीनम्। (भक्ति० ४) आत्मपथं (नपुं०) आत्ममार्ग। (वीरो० १६/१५) ०स्वपथ, ०कल्याणपथ। आत्म-परिणामः (पुं०) आत्म स्वरूप, आत्म स्वभाव। (जयो० वृ० १/७४) निजभाव, आत्म-भाव। आत्मपुरुषः (पुं०) निज व्यक्ति, स्वकीय पुरुष। (मुनि० २९) आत्मप्रतिष्ठ (वि०) आत्मनिष्ट, आत्माधीन। योगे नियोगेन मुनिः प्रवृत्त आत्मप्रविष्ठः खलु तन्निवृत्तः। (जयो० २७/१०) आत्मनि प्रतिष्ठा स्थितिर्यस्य स। आत्मप्रथा (स्त्री०) आत्मा की स्थिति। आत्मनः स्वस्य प्रथा। (जयो० २/११०) आत्मप्रिया (स्त्री०) प्राणप्रिया। (वीरो० २२१/१९) आत्म-फल (वि०) आत्म परिणाम, आत्म स्थिति। उदोर्य कर्मानुदय-प्रणाशात्तदग्रतोबन्धविधे, समासात्। यथोत्तरं हीनतयानुभावादजन्ममृत्योरयमीक्षिता वा।। (समु० ८/१७) कर्मों के अभाव से जन्म-मृत्यु रहितपना की प्राप्ति आत्मा के प्रयत्न का फल है। आत्मबलं (नपुं०) आत्मशक्ति, आत्मप्रभुत्व, आत्म तेजस्। (जयो० १/११३) बलमखिलं निष्फलं च तच्चेदात्मबलं नहि यस्य। (सुद०७०) आत्मभावः (पुं०) अन्तर्भाव, आत्मबुद्धि। (सम्य० ११/४५) आभ्यन्तर परिणाम, आत्मशक्ति। आत्मभूः (पुं०) १. प्रज्ञ पुरुष, विद्वान्। २. ब्रह्मा, ब्रह्मदेव। मासि मासि सकलान्विधु बिम्बानात्मभूस्तिरयते श्रितडिम्बान्। आत्मभूः ब्रह्मा, यः खलु लोकैः सृष्टिकर्ता कथ्यते। (जयो० वृ०५/२३) आत्मभूत (वि०) आत्मने यो भूतो हितकरः। आत्म हितकारी। 'आत्मभूतनयताऽधिगमाया' (जयो० १४/१) आत्म-मानिन् (वि०) स्व उपयोगशाली। (जयो० २४/१२९) आत्ममित्रमय (वि०) स्वकीय सखा वत्। (जयो० १/२३) आत्ममुखं (नपुं०) अपना मुख, निजानन। (सुद० १२५) आत्ममत्रि (वि०) स्वामात्य। (जयो० ३/६६) निजीय, आत्म दृष्टि युक्त। आत्मयुत् (वि०) आत्म सहित। आत्मयुक्तिः (स्त्री०) आत्म-उपाय। (जयो० १/१) आत्म-रत (वि०) आत्मतल्लीनता। आत्मति (स्त्री०) आत्म राग। आत्मरमा (स्त्री०) प्राणप्रिया, मनोरमा। (सुद० ११३) एवं विचिन्तयन् गत्वा पुनरात्मरमा प्रति। (सुद० ११३) आत्म-रश्मिः (स्त्री०) अक्षि किरण, आंख का प्रकाश। आत्मनः स्वस्य रश्मि अक्षिकिरण। (जयो० १०/११९) आत्मरीतिः (स्त्री०) स्वकुलाचारनियम। सम्पठेत् प्रथमतो ह्युपासकाधीतिगीतिमुचितात्मरीतिकाम्। (जयो० २/४५) आत्म-वञ्चित (वि.) आत्म वंचिता, निज ठगित, अपने आप ठगा गया। विश्व-विश्वसनमात्मवञ्चितिः। (जयो० २/५१) आत्मनो वञ्चितिर्वञ्चना भवति। आत्मवत् (वि०) आत्म तुल्य, निजात्म स्वरूप। शवभूरात्मवता वितता। (सुद० ९२) For Private and Personal Use Only Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आत्म-वपु १४८ आत्मापराध: आत्म-वपु (नपुं०) अपना शरीर, स्वदेह। आत्मनो वपुः शरीरं। । (जयो० १३/७३) आत्मवश (वि०) जितेन्द्रिय, इन्द्रियजयी। (जयो० २/२३) जगाम मोदेन युतो जिनस्य महालयं वन्दितुमात्म-वश्यः। आत्मवादः (पुं०) आत्मकथन, चेतन विचार। स्वा-स्वरूप विवेचना आत्मविकासः (पुं०) अपना विकास, निज कल्याण। धर्मेऽथात्मविकासे नैकस्यैवास्ति नियतमधिकारः। योऽनुष्ठातुं यतते सम्भाल्यतमस्तु स उदारः। (वीरो० १७/४०) आत्मविचारकेन्द्र (पुं०) अपने विचारों का केन्द्र 'आत्मा भवत्यात्म विचारकेन्द्रः' (वीरो० १८/५) आत्म-विनाश (वि०) अपना अहित। कूपे निपत्य तेनात्मविनाशः। (दयो० ४७) आत्मविदः (वि०) आत्मचिंतक। आत्म-वेदी (वि०) आत्मवेत्ता, निज स्वरूप ज्ञाता। (सम्य० १०७/६९) प्रदोषतोऽस्मात् समुपैति खेदमिहायमस्यास्ति न चात्मवेदः। (जयो० २६/९६) आत्मवेशित (वि०) आत्मजयी। ०आत्माधीन। आत्म-संयमी (वि०) आत्माधीन, आत्मजयी। साम्प्रतमात्मसंयमी (समु० ४/२) आत्म-सज्जातिक (वि०) तन्मयता से युक्त। आत्मनः सज्जातिकयोस्तन्मनसोऽपि (जयो० २४/७६) आत्म-सदन (नपुं०) अपना घर, निज गृह। अज्ञता हि. जगतो विशोधने स्यादनात्म-सदन-बोधने। (जयो० २/४५) आत्मनः सदनं आत्मसदनं। आत्म-समय (पुं०) आत्म भाव, आत्म स्वभाव, निजात्मसार। आत्मसमयानुसारः (पुं०) देश कालानुसार। इत्थमात्म समयानुसारतः। (जयो० २/१२२) आत्मसाक्षिन् (वि०) निज साक्षात्, आत्म प्रतीति। (वीरो० ४/१४) आत्मसात् (अव्य०) [आत्मन् साति] अपना जिन स्वरूप। झेलना। (वीरो० २२/२९) अपना बनाना, अनुकूल करना, आत्मधीन। आत्मसादुपनयन्निह भूपान्। (जयो० ५/१२) त्वं कृतावान् भूपमात्मसात्। (सुद० १३४) तूने राजा को अपने अनुकूल किया। दौरात्म्यमात्मसात् कुर्वन्नाह। (जयो० आत्मसुख (नपुं०) निजात्म सुख, स्व सुख, सहज सुख, इष्ट सुख। धन्यः स एवात्मसुखैकवस्तु। (सुद० ११७) आत्मसुताः (पुं०) निजपुत्र। (वीरो० १७/३९) आत्मस्फूर्तिः (स्त्री०) निज शक्ति, आत्मबल। जिनमृर्तिमात्मस्फूर्ति (सुद० ५/१) आत्मशक्तिः (स्त्री०) आत्मोत्कर्ष, निजबल, स्वात्मोत्कर्ष। आत्मशक्त्या खलु मूर्तया तम्। (जयो० १/७०) यां वीक्ष्य वैनतेयस्य सर्पस्येव परस्य च! क्रूरता दूरतामञ्चेच्छूरता शक्तिरात्मनः।। (वीरो० १०/३२) आत्महित (नपुं०) आत्म-कल्याण, आत्म रक्षा। (सम्य० ४२/२३) आत्मनो हितमात्महितम्। (जयो० २/४६) आत्महित-भावना (स्त्री०) सन्मार्ग भावना, अपने कल्याण की इच्छा । (जयो० २/४८) आत्मश्री: (स्त्री०) आत्मशोभा, आत्म लक्ष्मी। (सुद० १/२३) विसर्गमात्मश्रियः ईहमानः। आत्मार्थ (वि०) आत्म प्रयोजन। (दयो० ७) आत्माधिपः (पुं०) राजन्, राजा। (जयो० १८/३६) आत्माधीन (वि०) अपने आधीन, स्वाधीन। (मुनि २७) आत्माङ्गीकरणं (नपुं०) अपना स्वीकार करना, अपना बनाना। (जयो० ६/१२३) आत्मनोऽङ्गीकरणस्याक्षराणाम्। (जयो० वृ० ६/१२३) आत्मानुभव (वि०) आत्म अनुभूति जन्य। आत्मानं पश्यतोऽपि तस्य नान्यः कोऽपि वभूव दृशि यस्य। आत्मवत् सर्वभूतेषु य पश्यति स पण्डितः 'इति' (जयो० २२/२६) आत्मानं पश्यतः स्वात्मानुभवं कुर्वतः। (जयो० वृ० २२/२६) आत्मानुसन्धानं (नपुं०) अपनी परितृप्त चित्तवृत्तिा (जयोल वृ० ६/९०) ०आत्म परिचय, आत्मावलोकन।। आत्मादरयुत (वि०) आत्म सम्मान सहित। आत्मनि स्वरूपे आदरयुतेन तल्लीनेन। (जयो० वृ० २८/२६) आत् अकारात्समारभ्य सकारे आदरयुतेन सम्पूर्णानामक्षराणां समक्षराणां क्षणः। (जयो० वृ० २८/२६) आत्मानुभवकारिणी (वि०) आत्म बुद्धिशाली। (जयो० २७/४९) आत्मानुभूति (स्त्री०) आत्म अनुभव। आत्मानुरूप (नपुं०) आत्मा के अनुरूप, आत्मा अनुकूलता, अपने लिए अभीष्ट। (जयो० वृ० ३/६६) आत्मापराधः (पुं०) अपने अपराध, स्वयं के अवगुण। "स्वेनानु ष्ठितस्यापराधस्य दुष्कर्मण:।" (जयो० १५/९) आत्म-साधन (नपुं०) आत्म ध्यान, आत्म तल्लीनता। (सुद० ११४) ददर्श योगीश्वरमात्मसाधनम्। आत्मसारिन् (वि०) आत्म रहस्य वाला। For Private and Personal Use Only Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आत्मानुशासनं १४९ आदरार्ह आत्मानुशासनं (नपुं०) आचार्य गुणभद्र की रचना, संस्कृत रचना। आत्मिक (वि०) स्वात्म सम्बंधी, निजात्मक। (जयो० वृ० आत्मिकसुखं (नपुं०) निजात्मानुभूति जन्य सुख। (मुनि० २६) आत्मीय (वि०) स्वकीय, निजात्मक, आत्मिक, अपनी। 'इत्यात्मीयमलोत्कारं च भवतैकान्ते तथा त्यज्यताम्।' (मुनि १३) आत्मीयमञ्चेदथसन्निधानम्। (भक्ति० २९) आत्मीयगुणं (नपुं०) निजात्मक भाव। (सुद० १२१) आत्मीय-निन्दा (स्त्री०) ०अपनी गर्हा, अपनी निन्दा स्वकीय गुणों की आलोचना। (सुद० १२४) आत्मीयपदं (नपुं०) निजात्मक पद, स्वकीय चरण। (वीरो० १/३) सुखञ्जनं संलभते प्रणश्यत्तमस्तयाऽऽत्मीयपदं समस्य। (वीरो० १/३) आत्मीयभावः (पुं०) स्वकीय भाव, मैत्री भाव। सिंहो गजेनाखुरथौतुकेन वृकेण चाजो नकुलोऽहिजेन स्म स्नेहमासाद्य वसंति तत्र चात्मीय भावेन परेण सत्ता। (वीरो० १४/५१) आत्मोपयोगः (पुं०) आत्म उपयोग, निज उपयोग। (जयो० १/ मुनि०) आत्मैक कविः (पुं०) आत्मध्यानी/रवेरिवात्मैककवेरुदारभूते स मुदोऽधिकारः। (समु० ६/३४) आत्मोकर्षि (वि०) आत्म विस्तार। (जयो० १/६०) आत्मन उत्कर्ष आत्मोकर्ष। (धव० ७७३) आत्मोपासित (वि०) आत्मा से उपासित, अपने निजभाव से आराधित। (मुनि० १) आत्मोपासितयैहिकेषु विषयेष्वाशाधुता साधुता। (मुनि० २) आत्यंतिक (वि०) [अत्यन्त ठन्] १. निरंतर, अबाध, प्रवाह युक्त, स्थायी, अनंत, २. मरण विशेष। ३. अत्यधिक, प्रचुर, सर्वाधिक। ४. सर्वोच्च, सम्पूर्ण, पूर्ण। आत्ययिक (वि०) [अत्यय+ठक्] १. नाशकारी, घातक, विध्वसंक, विनाशक। २. पीडाजन्य, दु:ख युक्त अशुभकारक, हानिकारक, आत्रिक (वि०) ऐहिक, लौकिक। (जयो२/३९, २/९८) आत्रिकस्थितिः (स्त्री०) अत्र भवा आत्रिकी स्थितिर्ययोस्तौ लौकिक सौख्यसम्पादकौ स्तः। (जयो० २/१०) आत्रिकेष्ट (वि.) लौकिकेप्सित, लौकिक सफलता। (जयो० २/३९) आत्रिकेष्टिनिरत (वि०) व्यावहारिक नीति से युक्त, गृहस्था (जयो० २/११) आत्रेय (वि.) [अत्रि ढक्] अत्रि का वंशज। आत्रेय (पुं०) आर्यखण्ड का एक देश। आत्रेयिका (स्त्री०) [आत्रेयी+कन्+टाप्] रजस्वला स्त्री। आथर्वण (वि०) [अथर्वन्+अण] अथर्ववेद ज्ञाता, अथर्ववेदी, अथर्वविद। आथर्वणः (पुं०) अथर्ववेदरध्यायी विप्रा आदंशः (पुं०) [आ+दंश्+घञ्] डंक, घाव. दांत। आदत्त (वि.) अप्रदत्त, बिना दी गई। न चादत्त मधावृत्तिम्। (समु० ९/५) स हितस्करतां गतः। आदरः (पुं०) [आ+दु+अप्] १. सम्मान, पूजाभाव, २. व्यन्तरदेव। २. प्रीतिभाव-कोमुदादरपदाति शयायां, प्रेक्षिणी नतु नृणामुदितायाम्। हर्षसम्मान स्थानस्य। (जयो० १०५/६७) नानुयोगसमयेष्विवादरः। (जयो० २/६४) क्षणादुरीरयन्नेवं करव्यापारमादरात्। (सुद० ७८) आदरणं (नपुं०) ०आदर, सम्मान, सत्कार, ०सेवा पूजा। (जयो० वृ० १/१६) आदरणविषय (नपुं०) सर्वोत्तम पूजनीय, ०भाव (जयो० १/१६) आदरणीय (वि०) सम्माननीय, पूजनीय, अहयोग्य। वासनाभरणौरादरणीयाः सन्तु मूर्तयः किन्तु न हीयान्। (सुद० ७५) आदरदा (वि०) प्रतिष्ठाप्रदायिनी, सम्मान देने वाली। 'नापि नाथ दरदाऽऽदरदा।" (जयो० २०/२६) 'आदरं ददातीत्याद रदा' (जयो० वृ९२०/२६) आदर-भाव-कर्ता (वि०) सम्मान प्रकट करने वाला। प्रत्यादरस्य भावस्य प्रकटयिता। (जयो० १७/११) आदरवादः (पुं०) नम्रवचन, पूज्यवाद, सम्माननीय वाणी। साम-दाम-विनयादर-वादैर्धामनाम च वितीर्य तदादैः। (जयो० आदरशालिनी (वि०) विनयान्वित, नम्रस्वभाविनी। (जयो० ७० १२/३०) आदरसात् (अव्य०) नम्रतापूर्वक, विनयगत। चक्रिसुतादींश्च रसाद् राजतुजो भूचरानथाऽऽदरसात्। (जयो० ६/१३) आदरिणी (वि०) सम्मान प्रकट करती हुई, पूज्यभाविनी। (सुद० १२४) 'सम्प्राहाऽऽदरिणी गुणेषु।' आदरी (वि०) समादरी, आदर योग्य। (सुद० १/५) यदादरी तच्छिशुको मुदेति। आदरार्ह (वि०) समादर योग्य, पूज्य। (जयो० ५/१०४) For Private and Personal Use Only Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आदर्शः १५० आदिपर्वन् ३/३) आदर्शः (पुं०) [आ+दृश्+घञ्] दर्पण, शीशा, आईना। आदर्श २. प्रधान, प्रमुख। सुरादिरेवाद्रियते मयाऽऽदौ। (सुद० इव तस्यात्मन्यखिलं बिम्बितं जगत्। (सुद० १३५) २/१४) ०ग्रहण ग्रहणस्यादौ परमो भविनोरभिविश्रम्भम। आदर्शः (पुं०) १. प्रशस्त, योग्य, उचित, प्रामाणिक। (सुद० (जयो० ११/११९) ७६) २. छवि, अनुसरणस्थान। निजमादर्श इवाङ्गजन्मनि। । आदि (पुं०) आदिनाथ, आदिब्रह्मा, नाभिराय पत्र ऋषभ। श्री (सुद० ३/८) आदर्शमङ्गष्ठनखं च। (जयो० १/५७) प्रजाकृति निरीक्षणे न्वतः। (जयो० ३/३) 'प्रातः काले आदर्शतलं (नपुं०) दर्पण प्रान्त, दर्पण भाग। स्वमास्यमादर्शत आदिपुरुषस्य ऋषभ तीर्थंकरस्य पद- पदायाः। (जयो० वृ० लेऽभिपश्यस्तल्पोत्थितो नैश्यरहस्यमस्यन्। (जयो० २७/५०) आदर्श-दर्शनं (नपुं०) अनुकरणीय दर्शन, उचित अवलोकन। आदिक (वि०) ०अन्तिम, प्रधान, प्रमुख, प्रारम्भिक 'आदर्शस्य अनुकरणीयस्य महर्षेर्दशनेऽवलोकने जाते सति।' (सुद० ३/३) (जयो० वृ० १/९१) आदिकर (वि०) आदिकर्ता. प्रारम्भिक प्रतिपादन करने आदर्शनं (नपुं०) [आ+ दृश्+ल्युट] प्रदर्शन, दिखावा। वाला। आदर्श-वर्मन् (पुं०) प्रशस्त मार्ग, अनुकरणीय पथा (जयोल आदिकविः (पुं०) आदिकवि, प्रथम कवि, ऋषभदेव। २/११९) आदिकाण्डं (नपु०) प्रथमकाण्ड, प्रारंभकाण्ड। आदहनं (नपुं०) [आ दह् ल्युट] १. जलन, तपन, २. पीड़ा, आदिकरणं (नपुं०) प्रथम परिणाम। कष्ट, ३. प्रतिघात। आदिकाव्यं (नपुं०) प्रथम भाग, पहला हिस्सा। आदानं (नपुं०) [आ+दा+ल्युट्] १. लेना, स्वीकार करना, आदिज (वि०) प्रथम वर्गोत्पन्न। अशिष्टमन्त्यजं स्पृष्ट्वा वर्णतो (सम्य० १९) ग्रहण करना, उठाना। (मुनि० १२), २. यस्तदादिमः। (जयो० २८/२०) "आदौ जकारो यस्य एतादृशो उपार्जन करना, ३. उच्चारण का पद, ४. समिति विशेष। य: यकारोऽर्थात् जयः।" (जयो० वृ० २८/२०) आदान-निक्षेपण-समिति (स्त्री०) ग्रहण एवं निक्षेपण में | आदितः (अव्य०) [आदि+ तसिल] आरंभ से लेकर, सबसे समभाव। साधु की क्रिया। जिसमें वह शस्त्र रखते, उठाते पहले। समय यत्नाभाव धारण करता है। रात्रेया॑ग-निमित्तमासनमपि आदित्यः (पुं०) १. सूर्य, रवि. दिनकर। ( २, देवता, ३. राजा, संशोधयेद्योगिराट् सूर्यास्तात्प्रथमं ततश्च तदसौ प्रातः ४. लौकान्तिक देव। आदौ भव आदित्या। प्रकाशेऽचिरात्। आदानेऽप्युपरक्षणेऽपि कुरुताद् ग्रंथादिकानां आदित्यगतिः (पुं०) राजा. पुण्डरीकिणी नगर के विजयार्ध तथा, यत्नं यत्नवतो हि संवर इति प्राप्ताः प्रणीतेः पृथा।। पर्वत का एक राजा। (जयो० २३/५) तद्गत-खगसानुमति (मुनि० १२) धर्मोपकरणानां ग्रहणं विसर्जन प्रति ह्यादित्यगतिनगतिः। (जयो० २३/५) यतनमादाननिक्षेपणसमितिः। (त० वा० ९/५) आदित्यवारः (पुं०) रविवार, सूर्यवार। (जयो० ११/७२) आदानपदं (नपुं०) विवक्षा में जो पद दिया जाए, आगम आदित्यवेगः (पुं०) धरणीतिलक नाम के नगर का राजा, अध्ययन्त का प्रारम्भिक पद। आदानपदं नाम आत्तद्रव्यनिबन्धनम्। जिसकी रानी सुलक्षणा थी। पत्तनस्य धरणीतिलकम्या(धवला १/७५) दित्यवेगनरपो विजयाद्धे। (समुः ५/१७) आदानभयं (नपुं०) जो ग्रहण किया जाता है, इसके लिए भय। आदित्यसूक्तं (नपुं०) सूर्यस्तवन। आदित्यस्य सूर्यस्य सूक्तं आदीयत इत्यादानम् इत्यर्थं चौरादिभ्यो यदुभयं तदादानभयम्। - स्तवनं विपदोपहतप्रकार:। (जयो० १८ आदासादित (वि०) प्राप्त, उपलब्ध, गृहीत। एतद् | आदिदेवः (पुं०) १. आदिब्रह्मा, आदिनाथ, आदिपुरुप, गुणानुवादादासादितसम्मदेव सा तनया। (जयो०६/७०) | २. जैनधर्म के प्रथम प्रवर्तक ऋषभदेव, जो नाभिराय के आदाय (सं०कृ०) लेकर, ग्रहणकर। (जयो० वृ० १/१९) पुत्र थे। (जयो० ४/४६) आदिप्रभु, नाभेयज। आदायिन् (वि०) [आ+ दा+णिनि] ग्रहण करने वाला, प्राप्त | आदिदृष्टा (वि०) प्रथम दृष्टा, प्रारंभ उपदेष्टा। (सुद० २/१९) करने वाला। यदादिदृष्टाः सम दृष्टसारा:। (सुद० २/१९) आदि (वि०) [आ+दा कि] १. प्रारम्भ, (सम्य० ११०) आदिनाथः (पुं०) आदिपुरुष, प्रथम तीर्थकर। प्रथम, प्राथमिक, ०पहला, आदिपर्वन् (पुं०) आदिखण्ड, प्रथम अंश। For Private and Personal Use Only Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आदिपुरुषः १५१ आद्योतः आदिपुरुषः (पुं०) आदिब्रह्मा, आदिनाथ, जैनधर्म के आदिसृष्टा (वि०) प्रारंभिक सृष्टि वाला। (सुद० २/१९) आद्य प्रवर्तक, प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव। (जयो० पृ० आदीपनं (नपुं०) [आ+दीप्+ ल्युट्] ज्वलन पैदा करना, आग ३/३) लगाना। आदिपरं (नपुं०) प्रथम स्थान। (सम्य० ११०) आदीनव (वि०) संक्लिष्ट। (जयो० २७/५३) 'आदीनवस्तु आदिबलं (नपुं०) प्रारम्भिक शक्ति। दोषे स्यात् परिक्लिष्टदुरन्नयोः' इति विश्वलोचनः। आदिबन्धुः (पुं०) बड़ा भाई, ज्येष्ट भ्राता। स आदि आदीश: (पुं०) आदीश्वर, आदिनाथ, प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव। प्रथमजातश्चासौ बन्धू(ता। (जयो० ३० ३/६८) (वीरो० ११/२१) आदिभव (वि०) सर्वप्रथम उत्पन्न, पहले उत्पन्न, प्रथमजात। आदीशपौत्रः (पुं०) मरीचि जीव। स आह भो भव्य। पुरूरवाङ्गआदिभृत् (वि०) प्रथमजात। (जयो० वृ० १/१) भिल्लोऽपि सद्धर्मवशादिहाङ्ग। आदीशपौत्रत्वमुपागतोऽपि आदिम (वि०) [आदौ भव:-आदि डिमच्] प्रथम, आदि, कुदृक्प्रभावेण सुधर्मलोपी। (वीरो० ११/२) ०प्रारंभिक, पुरातन, प्राचीन, ०पुरा, ०पहला आद्य। आदेर्नः (पुं०) श्री नाभेय, नाभिराज, आदिनाथ के पिता। "द्राक्षेवमृद्धी प्रथिताऽऽदिमस्य।" (समु० १/२३) प्रधान. (जयो० २६/७०) सर्वप्रथम आदेवनं (नपुं०) [आ+दिव्+ ल्युट्] जुआ खेलना, जुआ खेलने आदिमतीर्थनाथः (पुं०) आद्य तीर्थकर, प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव, का पासा। जैनधर्म के आद्य प्रवर्तक। जयत्यहो आदिमतीर्थनाथ। आदेश: (पुं०) [आ+दिश+घञ्] भेद, अपरः (धव० १/१६०) (जयो० २७/७१) निर्देश: आदेशेन भेदेन विशेषेण प्ररूपणं। आज्ञा, निर्देश, आदिमवर्णता (वि०) ब्रह्मणवर्णयुक्त। (जयो० १/५४) उपदेश, विवरण, सूचना, संकेत, कथन। (जयो० आदिराजः (पु०) अर्ककीर्ति राजा। अकंपनदेश के आदिराज १/९०) आदेश एवास्ति यतो गुरुणा अर्ककीर्ति। (जयो० ४/१) फलप्रदोऽस्मभयमहापुरूणाम्। (समु० ३/२) बड़े लोगों आदिवर्णः (पुं०) क्षत्रियवर्ण, प्रथम वर्ण, वर्ण व्यवस्था का का आशीर्वाद ही हम लोगों को सफल बनाने वाला होता प्रारम्भिक चरण क्षत्रिया "आदिवर्ण-क्षत्रियभावाद् अस्यापि है। उक्त पंक्ति में 'आदेश' का अर्थ आशीर्वाद है। आदेशं क्षत्रियत्वाद् अयमिवैवास्ति।" (जयो० पृ० ४.१०८) कुरुतान्महन् भो सुखप्रवेशनकस्य। (सुद० ७/४) आदिश् (सक०) ०कहना. संकेत करना, प्रदान करना. आदेशो भवतामस्ति, न परप्रत्यवायकृत्। (समु०७/३४) ०अर्पण करना, ०आदेश देना, ०आज्ञा देना, ०सौंपना। 'आदेश' का अर्थ अनुशासन भी है। पृष्ठवानिति सप्ततमाय, आदिश त्वदनुकूलकराय। (समु० आदेश-युत् (वि०) अनुशासन सहित, निर्देश, उपदेश। ५/२) स्वावलम्बनं ह्यादिशंस्तवं शान्तये सुवेश। (सुद०७४) आदेशविधिः (स्त्री०) आज्ञा का पालन। त्वदादेशविधिं कर्तुं आदिष्ट (भृ०कृ०) [आ+दिश् क्त] दिखलाया, ०संकेत कातरोऽस्मीति वस्तुतः। (सुद० ७९) किया, प्रदर्शन किया, निर्दिष्ट किया। स्मरादिष्टमथाह | आदेशिन् (वि.) [आदिश् णिनि] आज्ञा देने वाला, अनुशासित शस्तम्। (जयो० १/७५) क्षेमप्रश्नानन्तरं बूहि करने वाला। कार्यमित्यादिष्टः। प्रोक्तवान् सागरायः। (सुद० ३/४५) आदोहणात्मक (वि०) दोहन करने योग्य। आदिसुतः (पुं०) आदिनाथ का पुत्र भरत, जिसके नाम से इस | आद्य (वि०) [आदौ भव-यत्] प्रथम, (दयो० ३४) प्रधान, देश का नाम भारत पड़ा। आगमों, पुराणों में जंबूद्वीप में पुरातन, प्राचीन, प्रमुख, नायकः (मुनि० २) आग्रणी। भरतक्षेत्र या भारतवर्ष का नाम विशेष उल्लेखनीय है। (सुद०४/४०) (जयो० ४/४६) आदिदेवस्य सुतो भरतसम्राडपि। (जयो० आद्यक्रिया (स्त्री०) प्रारंभिक क्रिया। (जयो० २१) वृ० ४/४६) आद्यदेवः (पुं०) आदिदेव, प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव। आदिसुनूः (पुं०) आदिनाथ का पुत्र भरत। भरतचक्रवर्ती। आद्यमूलगुण (नपुं०) प्रथममूलगुण। (मुनि० २) (जयो० २४/४५) 'किमादिसूनोः सुकृतोच्चमोदयः।' (जयो० आधून (वि०) [आ+दिव्+क्त] बहुभोजी, अधिक भुंजी। २४/४५) 'आदिसूनोर्भरतमहाराजस्य-' (जयो० वृ०२४/४५) | आद्योतः (पुं०) [आ+द्युत+घञ्] कान्ति, प्रभा, चमक, प्रकाश। For Private and Personal Use Only Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra आधमनं www.kobatirth.org आधमनं (नपुं०) [आ+घा+कमनम् ] धरोहर, निक्षेप राशि। आधमर्यं (वि० ) [ अधमर्ण+ ष्यञ् ] कर्जदारी, ऋणता । आधर्मिक (वि०) [ अधर्म+ठञ् ] अन्यायी वचनविरुद्ध, बेइमानी। धर्म विरुद्ध होने वाला । + आधर्षः (पुं०) [आ+ पृष्+घञ्] घृणा निन्दा, दोष आघर्षण (नपुं०) (आ+धृष्+ ल्युट्] " दोष, अपराध, घृणा, निराकरण अपमान । आधर्षित (भू० कृ० ) [ आ + धृष्+क्त] तिरस्कृत, अपमानित, निंदित, घृणित, दोषासक्त। आधाकर्मन् (नपुं०) प्राणियों को बाधा पहुंचाना। आहा अहे य कम्मे आहाकम्मे आधा अर्थ य कर्म आधाकमे आधानं आधा साधुनिमित्तं चेतसः प्राणिधानम् । या षट्जीवनिकायानां विराधनोद्रापनादि आधाकर्यं नाम । आधाकर्मिक (वि०) साधुओं के निमित्त बनाया गया आहार । आधाकर्मिका (वि० ) अधः कर्म वाला | आधारः (पुं०) [आघञ्] आश्रय, स्तंभ, टेक, सहारा। आधारि (वि०) आश्रयजन्य (सुद० २ / ३० ) आधि (स्त्री०) [आधा कि] मानसिक खेद, मानसिक व्याधि, ० पीड़ा. ० वेदना, ०दुःख, ०सन्ताप, ०विपत्ति, ० अभिशाप, रुज (जयो० ६/३१) (जयो० २४/८९) पुंस्याधिर्मानसी व्यथा 'इत्यमरः । ' आधिकरणिकः (पुं०) न्यायधीश। आधिकरिणिकी (स्त्री०) अधिकरण क्रिया, हिंसा जन्य क्रिया । आधिकारिक (वि०) अधिकारी, सर्वोच्च, सर्वश्रेष्ठ प्रधान आधिक्य (वि०) [ अधिक+ध्यञ्] बहुलता, बहुतायत, भारी, अधिकता। आधिदैनिक ( वि० ) [ अधिदेव+ठञ् ] दैवकृत, भाग्याधीन । आधिपत्यं (नपुं० ) [ अधिपति+ यक्] सर्वोच्चता शक्ति, प्रभुता, अधिकार। आधिभौतिक (वि० ) [ अधिभूतञ्] प्रारंभिक, भौतिक, सांसारिक पीड़ा। आधिराज्यं (नपुं० ) [ अधिराज्+ष्यज्] अधिकार, प्रभुता, शक्ति । आधिवेदनिकं (नपुं० ) [ अधिवेदनाय हितं] संतोष युक्त, ०संतोष प्रदान, ०प्रारम्भिक संतोष आधीनं (वि०) आश्रय आधार । 'तदङ्गजाप्यन्वयनीत्यधीना' (जयो० १/४०) आधीनता (वि.) दासता (जयो० वृ० २/२०) (सुद० १००) आधुनिक (वि०) [ अधुना ज्]]] [[अचेतन, नूतन नवीन, १५२ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आनद्ध ० नया, ० आज का । सुखैकसिद्धयै सुदृशोऽत्र हेतुः श्रद्धामहो, नाधुनिक : स्विदेतु। (जयो० २ / ६६ ) आधोरण ( पं० ) ( आधोरल्यूट महावत, हरित आरोहका आध्यात्म (वि०) आत्म सम्बन्धी । आध्यात्मनिष्ठ (वि०) आत्म सम्बन्धी विचार से परिपूर्ण 'शुक्ल ध्यानपरायणोऽऽध्यात्मनिष्ठ' (दयो० २२) ० शुक्लध्यान परायण । ० विशुद्ध स्वभाव वाला। आध्यात्मिक ( वि० ) [ अध्यात्म + ठञ् ] आत्मा से सम्बन्ध रखने वाला, परमात्म दृष्टि वाला। आध्यानं (नपुं० ) [ आ+ध्या+ ल्युट्] संसार, शरीर, भोगादि का बार-बार चिन्तन, मनन, चिन्ता | आध्यापकः (पुं०) १. उपदेष्टा, उपाध्याय, जो स्वयं अध्ययन करता या कराता हो। (अध्यापक + अण्) २. शिक्षक, गुरु, दीक्षा गुरु । आध्यासिक (वि० ) [ अध्यास ठक्] वस्तु आरोपण, एक दूसरे पर आक्षेप आधृ (सक० ) [ आ + धृ] धारण करना, आधार बनाना, उपाय करना सारवन् पथि निजं परानऽऽ धारयेन्नृपतिरीतिहत्कथाः। (जयो० २ / ११८) आध्वनिक (वि०) [ अध्यन्+ठक्] यात्री, प्रवासी। आन (पुं० ) [ आ+अन् विव] १. श्वांस लेना, फूंक मारना। २. उच्छवास जो संख्यात आवली प्रमाण है। संख्येया आवलिका आन: एक उच्छवास इत्यर्थः । आनकः (पुं० ) [ आनयति उत्साहवतः करोति अल्ि ०ढक्का, ०पटह, ०दुन्दुभी, ढोल, ०नगाड़ा. ० भेरी 'आनकः पटो ढक्का' इत्यमरः । आनकोऽप्येष पुनः प्रवीणः (सुद० २/ २१) अहो यदीयानकतानकेन रवेः सवेगं गमनं च तेन । (जयो० १/१९) आनकतानं (नपुं०) प्रयाण की आवाज, 'आनको जयकुमारस्य प्रयाणवादित्रं तस्य तानकेन शब्देन भयभीतः' (जयां० वृ० १ / १९ ) आनणीय (वि०) हितकारी (वीरो० २२/२६ ) आनत (वि० ) [ आ + नम्+क्त] नम्रीभृत, नमित, झुका हुआ। (जयो० ६/३) आनतिः (स्त्री०) [आ+नम्+क्तिन्] पञ्चाङ्गप्रणामकरणम्। For Private and Personal Use Only ० प्रणाम, नमन, नमस्कार, ०झुकाव, झुकना, ०नम्रता, ० अभिवादन, ०सत्कार ० श्रद्धा । आनद्ध (वि० ) [ आ + नह्+क्त] बांधा गया, मढ़ा हुआ, अवरुद्ध | Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra आनद्धः www.kobatirth.org आनद्धः (पुं०) वाद्य विशेष, ढोल, नगाड़ा। (जयो० १०/१६) आननं (नपुं०) मुख, बदन। [ आ+अन् + ल्युट् ] 'फुल्लदानन इतोऽभिजगाम ।' (जयो० ४/४७) रामामानने सपदि कामुकनामा।' (जयो० ४/५६ ) आननदेशः (पुं०) मुखभाग, मुखमण्डल। 'पीतिमानमिममाननदेर्श' (जयो० ५/८) आनन्तर्य (नपुं० ) [ अनन्तरः ष्यञ् ] उत्तराधिकारी, व्यधान रहित आसन्नता । आनन्त्य ( नपुं०) शाश्वत, नित्य, अनश्वर । ( भक्ति० २० ) आनन्दः (पुं० ) [ आ+नन्द्+घञ्] हर्ष, प्रसन्नता, आत्मिक सुख। आनन्ददशा (स्त्री०) सुख की अवस्था । आनपानं (नपुं०) उच्छवास शक्ति । आनपान पर्याप्तिः (स्त्री०) श्वासोच्छवास से निकलने वाली शक्ति। आनपानप्राण: (पुं०) उच्छवास, निःश्वास की कारणभूत शक्ति (० दुव्य संग्रह ३) आनप्राण: (पुं०) उच्छवास, निःश्वास, इसका काल असंख्यात आवलियों का होता है। आनमंती (वि०) नमन करती हुई (सुद०२ / २६ ) आनय (५०) लाना, भिजवाना (जयो० २/११३) बन्धामि भुजपाशेन उपाशनमिहानय (सुद० पृ० ७६ ) आनयनं (नपुं०) मंगवाना, मर्यादित क्षेत्र से वस्तु का मंगवाना । 'प्रयोजनवशाद्यत्कि दानयेत्याज्ञापनमानयनम् (स०] सिं० ७/३, त० वा० ७/३१) 'अन्यमानयेत्याज्ञापनमानयनम्' (त०व० ७/३) आनयनप्रयोग (पुं०) क्षेत्र से वस्तु मंगवाने का प्रयोग। ( भक्ति श्लोक ३) आनन्दक (वि०) सुखदाता। (वीरो० १०/२१ ) आनन्दकर (वि०) सुख प्रदान करने वाला विमानमानन्दकरं च देव। (सुद० २/१८) । आनन्दगिरा ( स्त्री०) प्रसन्नवाचा, सुख प्रदान करने वाली वाणी 'अस्मदानन्दगिरामस्माकं प्रसन्नवाचाम् (जयो० (१/४३) नाभेयमानन्दगिराऽजितं च' (भक्ति पृ० ७) आनंददायिनी (वि०) आनन्ददायक। आनन्ददायी (वि०) प्रसन्नता प्रदायी (दयो० ५८) (जयो० कृ० ३/११५ ) आनन्ददृ ( नपुं०) आनन्दृष्टि, सुख का विशेषता, प्रसन्नता भाव। 'तमानन्ददृगेकदृश्यम् ।' (जयो० १ / ७७) १५३ आनुकूल्यं आनन्दनिबन्धन: ( नपुं०) आनन्द की धारणा, प्रसन्नता का कारण। किन्त्वानन्दनिबन्धनस्तवदपर को मे कुलीनस्थितेः । (मुद० ११३) आनन्दप्रदः (५०) प्रसन्नचित्त (जयो० ८/६३) आनन्दप्रदकला ( स्त्री०) नन्दक-कला, सुख प्रदान करने वाली कला। (जयो० ८ /६३) आनन्दमय (वि०) सुखमय, प्रसन्नता युक्त श्रेयांसमानन्दमयं च वासु।' (भक्ति पृ० १९ ) आनन्दवती (वि०) आह्वलाद उत्पन्न करने वाली, सुखदायिनी, प्रसन्न्ताप्रदायिनी । (सुद० १/४१) आनन्दवारिधिः (पुं०) सुख सागर, प्रसन्नोदधि । (जयो० १ / १०२) आनन्दसंधानं (नपुं०) आत्मिक सुख, आभ्यन्तर आनन्द । ( मुनि० २६) आनन्दिः (स्त्री० ) [ आ+नन्द्+इन् ] हर्ष, प्रसन्नता, सुख। आनन्दित (भू० क० कृ०) [आनन्द+क्त] आनन्द करने वाला, हर्षित, प्रफुल्लित। आनन्दिन् (वि०) [आनन्द णिनि] प्रसन्न, खुशी, हर्ष, प्रफुल्लता। | आनर्त (पुं०) [आ+नृत् घञ्] नाट्यशाला, नृत्यगृह, रंगमंच आनर्थक्यं (नपुं० ) [ अनर्थस्य भावः ष्यञ् ] निरर्थकता, अनुपयुक्तता, अयोग्यता । आनाय: (पुं० ) [आ+नी+घञ्] जाल। आनायिन् (पुं० ) [ आनाय इनि] धीवर, मछुवारा। आनाय्य (वि०) [आ+नी+ण्यत् ] सन्निकटता के योग्य । आनाहः (पुं०) [आ+न+घञ्] १. बन्धन, मलावरोध, कब्ज आनिप् (सक०) दबाना, पीड़ित करना। (जयो० ८/४८) आनिल (वि०) [ अनिल अणू] वायु से उत्पन्न आनीय (सक०) प्राप्त होना, उपस्थित होना। आनीयते प्राप्यते माक्षिकं माक्षिकाव्रातपातोत्थितं तत्कुल-क्लेद सम्भार धारान्वितम्। पीडयित्वाऽप्यकारुण्यमानीयते साशिभिर्वशिभिः किन्नु तत्पीयते। (जयो० २ / १३० ) आनील (वि०) नीलापन । + Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir + आनुकूलिक (वि०) [ अनुकूल ठक्] हितकारी, अनुकूलता युक्त, उपयुक्त आनुकूल्यं (वि०) [ अनुकूल प्यञ्] उपयोगी, + ० उपयुक्त, ० हितकर, आश्वासन कारक, ०समीचीन, व्यथेष्ठ । (जयो० पृ० १/५१) कारुण्यमौदार्यमिद् दा चानुकूल्यसम्वादविधिश्च वाचा। (समु० ८ / २९ ) For Private and Personal Use Only Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आनुगत्यं १५४ आपण: आनुगत्यं (वि०) [अनुगत+ध्यञ्] परिचय, पहचान। आनुगामिक (वि०) अनुगामी, देशान्तर या भवान्तर में जाता हुआ, अवधिज्ञान विशेष। 'अनुगमनशीलं आनुगामिकम्।' आनुगुण्य (वि०) हितकर, सुखकर, गुणों के योग्य। आनुग्रामिक (वि०) [अनुग्राम+ठञ्] ग्रामीण, देहाती, गंवार। आनुनासिक्य (वि०) [अनुनासिक+ष्यञ्] अनुनासिकता।। आनुपदिक (वि०) [अनुपद ठक्] अनुसरणकर्ता, पदचिह्नगामी। आनुपूर्वं (नपुं०) [अनुपूर्वस्य भावः ष्यञ्] क्रम, परम्परा, विधिक्रम। आनुपूर्वी (वि०) क्रम, परम्परा, विधिक्रम अभीष्ट स्थान को प्राप्त करना। २. अंग एवं उपांग आगम के क्रम का नियामक। आनुमानिक (वि०) [अनुमान+ठक्] अनुमान प्राप्त। आनुयात्रिकः (०) [अनुयात्रा+ ठक्] सेवक, अनुचर, अनुयायी। आनुरक्तिः (स्त्री०) [आ+अनु+रज्ज्+क्तिन्] राग, स्नेह, अनुराग, प्रीति। आनुलोमिक (वि०) [अनुलोम ठक्] नियमित, क्रमबद्ध, अनुक्रम। आनुलोम्य (वि०) [अनुलोम+ष्यज्] उपयुक्त, उचित, नैसर्गिक, सीधा। आनुवेश्य (वि०) पड़ौसी, समीपवर्ती, गृह के समीप रहने वाला। आनुषङ्गिक (वि०) [अनुषङ्ग ठक्] १. सहवर्ती, सहयोगी, २. आवश्यक, अनिवार्य, आपेक्षिक, आनुपातिक। आनूप (वि०) आर्द्र, गीला, जलीय। आनूण्य (वि०) दायित्व युक्त। आनृशंस (वि०) [अनुशंस्+अण्] मृदु, कोमल, दयालु। आनैपुणं (नपुं०) [अनिपुण+अण्] मूर्ख, मूढ, जाड्य। आन्त (वि०) [अन्त+अण्] अन्तिम, अन्त का। आन्तर (वि०) [आन्तर्+अण्] १. आभ्यन्तिर, आत्म सम्बंधी, २. गुप्त, छिपा, अन्दर। आन्तर-तपः (पुं०) आभ्यन्तर तप, आन्तरि (स्त्री०) अन्तरिक्ष युक्त, दिव्य, स्वर्गीय। आन्तरिक्ष (वि०) दिव्य सम्बन्धी, आकाश प्रदेशी, स्वर्ग सम्बन्धी। आन्तर्गणिक (वि०) [अन्तर्गण+ठक्] सम्मिलित। आन्तर्गेहिक (वि०) [अन्तर्गह्+ठक्] गृहान्तर युक्त, घर में स्थित। आन्तिका (स्त्री०) ज्येष्ठ भगिनी, बड़ी बहिन। आन्दोल् (अक०) झूलना, हिलना, स्पन्दन करना। आन्दोल: (पुं०) [आंदोल+घञ्] झूला, हिंडोला, झूलना। आन्दोलनं (नपुं०) [आन्दोल+ ल्युट्] झूलना, हिलना, स्पंदन करना, कांपना। आन्धसः (०) [अन्धस्+अण्] मांड, चांवल मांड। आन्धसिकः (पुं०) [अन्धस्+ ठक्] रसोइया, आहारपाचक। आन्ध्यं (वि०) अन्धापन। आन्वयिक (वि०) [अन्वय ठक्] सुजात, अभिजात, उत्तम कुल वाला। आन्वीक्षिकी (स्त्री०) [अन्वीक्षा+ठञ्ङीप्] आत्मविद्या विशेष, युक्तिसंगत तर्क, विद्या नीति। (वीरो० कृ० ३/१४) आप् (सक०) प्राप्त करना, ग्रहण करना, उपलब्ध करना, स्वीकार करना। आप (अक०) प्राप्त होना, उपलब्ध होना। सम्भवित्री समाहाहो विपदाप्ताऽपि सम्पदि। (सुद० १०३) शीतरश्मिरिह तां रुचिरमाप या पुरा नहि कदाचिवाप। (जयो० ४/६०) प्राप्तवानिति वर्तमानार्थे भूतकालक्रिया। (जयो० वृ० ४/६०) काशिकापतिरितो नतिमाप। नतिमाप-लज्जितोऽभूत्। (जयो० वृ० ४/२०) आपि-प्राप्ता (जयो० वृ० ११/८५) विद्याऽनवद्याऽऽप। (जयो० १/६) उक्त पंक्ति में 'आप' का अर्थ व्याप्त होना है। अभिलषितं वरमाप्तवान् (सुद० पृ० ७३) (३/२९) आप्य (सं०कृ०) (सुद० पृ० ५३) प्राप्तकर। आप्य (सं०कृ०) (जयो० २/६३) स्वीकार्य। 'आप' क्रिया के कई अर्थ हैं-जाना, पहुंचना, पकड़ लेना, मिलना, व्याप्त होना आदि। आप (नपुं०) जल, नीर। (वीरो० २/१०) आपकर (वि०) [अपकर+अण] अनिष्टजन्य, दूषण युक्त, दोषकर, अशुभगत। आपक्व (वि०) [आ। पच्+क्त] १. पक्व रहित, सचित्तगत, २. रोटी, चपाती। आपक्ष (वि०) पक्ष पर्यन्त, एक पक्ष तक। (जयो० २७/३२, सुद० पृ० ११८) आपगा (स्त्री०) [अपां समूहः आपम् तेन गच्छति गम इ] नदी, सरिता। (जयो० २०/४७. सुद०१/१५) आपगाऽपगत लज्जमिवाङ्क।' (जयो० ४/५५) आपगेयः (पुं०) सरित् पुत्र। आपणः (पुं०) [आपण+घञ्] दुकान, विक्रय वस्तु स्थान। For Private and Personal Use Only Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra आपणिक www.kobatirth.org 'अगण्यानां पण्यानां क्रय-विक्रय-योग्य वस्तूनामापणः ।' (जयो० १३/८७) आपणिक (वि०) | आपण-ठक] वणिक, दुकानदार, व्यापारी। आपणिकः (पुं०) दुकानदार, सौदागर, विक्रेता, वितरक । तत्कालमेवापणिका: क्षणेन। (जयो० १३/८७) 'आपणिका वणिजो जनाः।' आपणिका ( स्त्री०) हाट बाजार, विक्रयस्थान (जयो० २/१८३) गणिकाऽऽपणिका किलैनसाम्।' आपत्तिकर (वि०) आपत्तिजन्य। (वीरो० १८/२८) आपनिनिबन्धनं (नपुं०) संकटमोचन, दुःखहरण। णमो अमियसव्वीणं । (जयो० १९/८१ ) आपत्रता (वि०) पत्ररहिता, पतझड़ पत्राणि दलानि याति रक्षीति पत्रया तस्याभाव पत्रयता, सा न भवतीति आपत्रता । (जयो० २२/९) आपत् (अक० ) [ आपत्] निकट आना पास होना, घटना, मया नावगतं भद्रे सुहृद्यापतितं गतम् (सुद० ७७) कुत्राप्यापतिते ददाति न पदं चेदस्ति शुद्धा मतिः। (मुनि) ९) उक्त पक्ति में 'आपत् क्रिया का अर्थ 'भरना' घटित होना है। आपतन (नपुं०) (आ+पत्] निकट आना, टूट पड़ना, गिरना आपतिक (वि०) आपत्+इकन् ] आकस्मिक घटित, उपस्थित । आपनि (स्त्री० ) [ आपद् क्तिन्) (जयो० १८/८१) १. संकट, अनिष्ट प्रसंग । २. परिवर्तित होना, प्राप्त करना, उपलब्ध होना। आपत्त्रा (स्त्री०) आपत्ति, विपत्ति। (जयो० २२ / ९ ) आपद (स्त्री०) [ आपद् क्विप्] ० निरापद हित, दुःख, ०संकट, ०कष्ट, ०पीड़ा, ०विपद, ० विपत्ति । कण्टकितं पदम नेतुः समधिकृत्य चाऽऽपदमपनेतुम् (जयो० १४/११) 'जयोदय' के आठवें सर्ग में 'आद्' (८/७०) शब्द का अर्थ 'विपद भी किया है। इसी के प्रथम सर्ग में (१/७५) 'विपत्ति' अर्थ है। 'चिरोच्चितासिव्यसनापदे' (जयो० १/७५) , १५५ आपदर्तः (पुं०) [आ+पद्+अत्+घञ्] आपत्ति से दुःखी, विपत से पीड़ित आपदतें धनं रक्षेद्दारान् रक्षेद्धनैरपि । आत्मनं सततं रक्षेद् दारेरपि धनैरपि ।। (दयो० २/४) आपदन्त ( वि०) १. दन्त रहित, २. आपत्ति रहित। (जयो० ४/५७) वाऽऽपदन्तवचना जरतीवाऽऽराद घावृतपयधरसेवा। (जयो० ४/५७) Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आपात्यक आपदा ( स्त्री० ) [ आपद्+टाप्] ०संकट, दुःख, ० विपत्ति, ० आपत्ति ०कष्ट हृदियदि क्षणमेकमयं यदा जगति अस्य भवेत् कुत आपदा (समु० ७/२१) व्याधा व्रोक ० अशुभा आपदाधारः (पुं० ) ० विपत्तिनामाधार, ० विपत्तिस्थान, ० अशुभ स्थान, ०कष्टजन्य आश्रय आपदानां विपत्तिनामाधार: स्थानम्। (जयो० वृ० १६/१३) आपदस्य नाप्रत्ययस्याधारस्तस्मिन् । आपदुदीरिण (वि०) आपत्ति नाशको दुःख संहरिणी, ० विपत्ति विघातिनी । " आपत् तामुदीरयति यस्तस्य हृदयसार एव गम्भीरः ।" (जयो० वृ० २५/२) ० विपद हारिणी । आपदुद्धर्ता (वि०) आपत्ति निवारक, विपत्ति नाशक 'आपदो विपत्तेरद्धर्ता निवारकः।' (जयो० वृ० २३/४२) अहो तज्जनसमायोगो हि जगतामापदुद्धर्ता ।' (जयो० २३/४२) आपनिक (पुं०) [आ+पन्+इकन्] १. पन्ना, नीलम २. । किरात, चिलात, झिल्ल / भील या असभ्य। आपन्न (भू० क० कृ० ) [ आ+पद्+क्त] १. लब्ध, ० प्राप्त, ० सम्पन्न, ०गत, ०ग्रस्त, ०समाप्त। (जयो० वृ० ३/६३) २. ० पीड़ित ०कष्टजन्य । आपमित्यक (वि० ) [ अपमित्य, परिवर्त्य, निर्वृत्तम्+कक् ] विनियम द्वारा उपलब्ध। आपयामासु (भू०) समर्पण करवा दिया। (सु०४/२१) आपराह्निक ( वि०) [अपराह उम्) तीसरा प्रहर आपaर्गिक (वि०) मोक्षवर्ती मुक्ति की ओर अग्रसर (जयो० + For Private and Personal Use Only २/६८) आपवर्गिक पन्थाग्रवर्तिन् (वि०) मोक्ष पथ की ओर अग्रसर । मोक्षमार्गस्तस्याप्रे वर्तते तस्य मोक्षमार्गग्रेसरस्य (जयो० २/६८) आपस् (नपुं०) [आप् + असुन्] १. जल, वारि २. पाप, अशुभ। आपात् (सक०) जागृत करना आपादयितुम् (सुद० १२३ ) आपातः (पुं० ) [आ+पत्+घञ्] टूटना, गिरना, घायल करना, टूट पड़ना, आ धमकना, उतरना, नीचे फेंकना। (जयो० २७/६४) 'आपातमात्ररमणीयमणीय एतत् । ' आपातमात्रं (नपुं०) गिरनामात्र (जयो० २७/६४) आपाततः (अव्य० ) [ आपात+तसिल्] शीघ्र टूट पड़ना, तुरन्त आ गिरना । आपात्यक (सं०कृ०) आगत्य - आकर, उतरकर, उपस्थित होकर । (जयो० १३/८२) "द्रुतं पुराऽऽप्त्वा वसतिं मनोज्ञामापात्यकापाकरणाकुलेन।" Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra आपादः www.kobatirth.org आपादः (पुं०) [आ+पद्+घञ्] प्राप्ति, उपलब्धि, पारितोषिक, पारिश्रमिक आपादनं (नपुं० ) [ आपद्+ णिच् + ल्युट्] १. पहुंचाना, उपस्थित करवाना। २. प्रकाशित करना, तल्लीनता होना। आपाद्य (सं०कु०) बैठकर स्थित होकर उपस्थित होकर। 'भास्वानासनमापाद्य' (सुद० वृ० ७८) + + आपालि (स्त्री०) [आ.पा. क्विप् आपा, तदर्थमलतिअल+इन] जूं, बालों में पड़ने वाला कीड़ा, द्वीन्द्रिय जीव । आपीडः (पुं०) [आ+पीड्घञ्] पीड़ा देना, कष्ट पहुंचाना, 4 दुःख उत्पन्न करना, मसलना। आपीन (भू० क० कृ० ) [आप्यै का] पुष्ट, बलिष्ट शक्तिमान्, मोटा, स्थूला + आपूतिक (वि०) [अपूप ठक] पुए बनाने वाला। आपूपिक: (पुं०) हलवाई। आपूपिकं (नपुं०) पूओं का समूह। आपूण्य (पुं०) (अपूपाय साधु] आटा " आपूर (पुं०) [आ+पृ+घञ्] १. धारा प्रवाह, २. भरना, पूरा करना, पूर्ण रखना । आपूरणं (नपुं० ) [ आ+पृ+ ल्युट् ] भरना, पूर्ण करना । आपूरयन (वि०) पूर्ण करने वाला। (सुद० २/१५) आपूर्ति (स्त्री०) पूरा करना, पूर्ण करना। तद्वाच्छापूर्ति वितरामि । (सुद० ९२) वस्तु की पूर्ति करना। आपूषं (नपुं० ) [ आ + पूष्+घञ् ] धातु विशेष | आपृच्छ ( सक०) १. पूछना, वार्तालाप करना, २. विदा करना, विसर्जन करना। ३. अनुमति चाहना समं समालोच्य स आत्ममन्त्रिभिस्तदेवमापृच्छय निमित्ततन्त्रिभिः (जयो० ३/६६ ) आपृच्छा (स्त्री० [आ+पृच्छ-टाप्] ०पूछना, ०संलाप करना, • वार्तालाप करना, ० अनुमति लेना, आपृच्छा-प्रतिप्रश्नः (भ० आ० टी० ६९ ) ' आपृच्छा स्वकार्यं प्रति गुर्वाद्यभिप्रायग्रहणम्' (मूला०वृ० ४/४) आपेक्षिक (वि०) अपेक्षा कृत, एक-दूसरे की विशेषता युक्त। आपेक्षिकं बदरामलक-बिल्वतालादिषु।" (स० सि० ५/२४) आपेक्ष्य (वि०) अपेक्षा युक्त। (वीरो० २०/२० ) आ... (पुं०) सर्वज्ञ, ०ईश्वर, ०वीतरागी पुरुष, ० हितोपदेशी । 'यो यत्राऽविसंवादकः स तत्राऽऽप्तः (अष्टशती ७८) जागमो ह्याप्तवचनमाप्तं दोषक्षायाद् विदुः ।' वीतरागोऽनृतं वाक्यं न यूवार्द्धत्वसम्भवात्।' (धव० ३/१२) १५६ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आप्रदक्षिणं आप्त (भू० क० कृ० ) [ आप् + क्त ] १. प्राप्त किया, ०उपलब्ध किया, पहुंचा, ०उपस्थित हुआ। २. विश्वसनीय, प्रामाणिक, पूजनीय, निष्ठावान्, विश्वस्त पुरुष, योग्य पुरुष । आप्तडिम्बं (नपुं०) लब्ध प्रमाण, प्राप्त प्रमाण, आप्तनयः (पुं०) समुपलब्ध नय, नीतिमार्ग। (जयो० ९/३०) आप्तपथरीतिः (स्त्री०) सर्वज्ञमार्ग परम्परा समन्ताद्भद्रविख्याता, सटीक प्रमाण । श्रियो भूराप्तपथरीति: । ' (सुद० ८३) आप्तपीक्षा (स्त्री०) आचार्य समन्त भद्र की एक रचना। (वीरो० १९ / ४४ ) आप्तपुरुषः (पुं०) सर्वज्ञ। (जयो० वृ० ३/५) आप्तमार्ग: (पं०) सर्वज्ञपथ आप्तलोकः (पुं०) कल्याणमार्ग, ईशपथ, हितकारी दर्शन । लोकस्य य करुणयाभयमाप्तलोकमात्यन्नमो भगवते ऋषभाय तस्मै । (दयो० पृ० ३०) आप्तशाखा (स्त्री०) व्याप्तकीर्ति शाखाओं से व्याप्त (सुद० ४/२) समन्तादाप्तशाखाय प्रस्तुताऽस्मै सदा स्फीति: । आप्तशुद्धिः (स्त्री०) शुद्धि प्राप्त हित प्राप्त 'व्यंपायतः पूर्णतयाऽऽप्तशुद्धेः । ' ( भक्ति० २८) आप्तोक्ति (स्त्री०) आप्त कथन, सर्वज्ञ निरूपण । आप्तोक्ति परम्परा (स्त्री०) आप्तकथन की परिपाटी, सर्वज्ञवाणी का क्रम (जयो० वृ० ३ / ११५) आप्तोक्ति-विशेषः (पुं०) आप्तकथन विशेष, सर्वज्ञवाणी विशेष | (जयो० वृ० ३/११५) आप्तोपज्ञः (पुं०) आप्तागम, सर्वज्ञवाणी । 'श्रीयुक्तः सम्यगागम आप्तोपज्ञो ग्रन्थः' (जयो० पृ० ३ / ११५) आप्तिः (स्त्री० ) [ आप् + क्तिन्] प्राप्ति, अधिग्रहण, सम्पूर्ति, आपूर्ति । आप्य (वि०) [ अपाम् इदम्- अणू ततः स्वार्थे प्यब्] जलमय, नीरयुक्त । आप्य (वि० ) [ आप् + ण्यत् ] उपलब्धि योग्य, प्राप्ति योग्य। आप्यान (भू० क० कृ० ) [ आ + प्याय क्त ] १. स्थूल, मोटा, बलिष्ट, पुष्ट । २. प्रसन्न, संतुष्ट, हर्पित। आप्यायनं (नपुं० ) [ आ+प्याय् + ल्युट्] १. तृप्त, संतुष्ट, प्रसन्न । २. पूर्ण, पूरित, भरना, मोटा करना, पुष्ट करना । आप्रच्छनं (नपुं०) [आपृच्छ ल्युट्] १. विसर्जन, विदा करना। २. स्वागत करना, पूछना, सम्मान करना । आप्रदक्षिणं (नपुं०) १. हंसी उड़ाना, २ . चक्कर लगाना, For Private and Personal Use Only Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आप्रदोषः १५७ आभियोग्यः घूमना। समभान्मृदुकेशलक्षणं प्रति राहं हसदाप्रदक्षिणम्। आ-भरणं (नपुं०) पालन-पोषण। (जयो० २६/१५) आ-भद्र-बाहुः (पुं०) भद्रबाहु आचार्य पर्यन्त। (वीरो० २२/५) आप्रदोषः (पुं०) सायंकाल तक, सन्ध्या समय तक। "सम्प्रवृत्तिपर आभा (स्त्री०) [आ+भा अङ्] प्रभा, कान्ति, चमक, वर्ण, आप्रदोषतः।'' (जयो० २/१२२) रूप। (सुद० १०४) प्रतिबिम्ब छाया। आप्रपदीन (वि० ). [आप्रपदं व्याप्नोति] पाद पर्यंत जाना, आभान्त (वि०) प्रतिभासित, चमकीले, प्रभावान्। चरण तक वस्त्र फैलना। 'सन्निधानमिवाऽऽभान्तम्।' (सुद० १०४) आप्लवः (पुं०) [आ+प्लु अप्] स्नान, नहाना, अभिसिंचित आभाणक: (पु०) कहावत, लोकोक्ति, लोककथानका होना। आप्लवस्य अम्बु स्नान जलम्। हरत्याप्लबाम्बु तु आभाष: (पुं०) [आ+भाष्+घञ्] सम्बोधन, प्रस्तावना, भूमिका, पुनाति सच्छिर:। (जयो० २/२८) प्राक्कथन, प्रारम्भिक उद्बोध। आप्लवनं (नपुं०) नहाना, स्नान, अभिसिंचन। आभाषणं (पुं०) [आ+भाष ल्युट्] सम्बोधन, कथन, संलाप। आप्लावः (पुं०) [आ+प्लु+घञ्] स्नान, नहाना, अभिसिंचन आभासः (पुं०) [आ+भास्+अच्] १. प्रभा, चमक, कान्ति, करना। दीप्ति, २. प्रतिबिम्ब, छाया, परछाई। आप्लावनं (नपुं०) १. स्नान, अभिसिंचन, (जयो० १/५८, आभासुर (वि०) उज्जवल, प्रभावान्। सुद० १०१) २. जल प्लावन, जलपूर, जलप्रवाह। आभिग्रहिक (वि०) कदाग्रह से निर्मित। 'अभिग्रहेण निवृतं आप्लुत (भू०) नहाए हुए। (सुद० ३/५) तत्राभिग्रहिकं स्मृतम्।' आफूकं (नपुं०) (ईषत्फुत्कार इव फेनोऽत्र) अफीम, मादक आभिचारिक (वि०) [अभिचार+ठक ] अभिशापित, __ पदार्थ। ___अभिशापपूर्ण। आबद्ध (भू० क० कृ०) बन्धा हुआ, निर्मित। आभिजन (वि०) [अभिजन+अण] जन्म सम्बन्धी, वंशसूचक, आबद्धं (नपुं०) बांधना, जोड़ना, संयुक्त करना। कुलात्मजा आबन्धः (पुं०) [आबध्। घन] बन्ध, मिलान, संयुक्त। आभिजात्यं (नपुं०) [अभिजात ष्यञ्] १. कलीनता, वंश आबर्हः (पुं०) [आ• बह घञ्] फाड़ डालना, विदीर्ण करना, की श्रेष्ठता। २. पाण्डित्य, प्रज्ञा युक्त। छिन्न-भिन्न करना। आभिधा (स्त्री०) [अभिधा+अण] ध्वनि, शब्दशक्ति। आबाधः (पुं०) [आ+बा+घञ्] कष्ट, दुःख, पीड़ा, चोट। आभिधानिक (वि०) [अभिधान ठक्] अभिधान सम्बन्धी, आबाधा (स्त्री०) न बाधा अबाधा। अबाधा चेव आबाधा। कोश सम्बन्धी। (धव० ५/१४८) १. पीड़ा, दुःख, कष्ट। २. कर्मबन्ध को आभिनिबोधिक (वि०) मतिज्ञान का नाम, इन्द्रिय और मन प्राप्त हुआ द्रव्य, जितने समय तक उदय या उदीरणा को द्वारा जानने योग्य। 'अभिनिबुध्यते वाऽनेनेत्याभिनिबोधिकः।' नहीं प्राप्त होता वह आबाधाकाल है। इंदिय-मणोणिमित्तं तं आभिणिबोहिगंवेत। आबाधाकाण्डकः (पुं०) प्रमाण विशेष, जिससे विवक्षित । आभिनिवेशिक (वि०) दुराग्रह रूप प्रतिपादन। 'अभिनिवेशे कर्म की उत्कृष्ट स्थिति ज्ञात हो। भवं आभिनिवेशिकम्।' आबोधनं (नपुं०) [आ+बुध+ ल्युट] ज्ञान, सम्बोध, अनुभव, आभिमुख्यं (नपुं०) [अभिमुख+ष्यञ्] सम्मुख होना, सामना सूचन। करना, समीप उपस्थित होना, अपनी बात के लिए आब्द (वि०) [अब्द+अण] बादल से उत्पन्न। आमने-सामने आना। आब्दय (वि.) [अब्द+अण+क] बादल से उत्पन्न। (सम्य० | आभियोगिक (वि०) पराधीनता युक्त कार्य करने वाला। १५५) अभियोग: पारवश्यम्, स प्रयोजनं येषां ते आभियोगिकाः। आब्दिक (वि०) [अब्द+ ठञ् ] वार्षिक, सम्वत्सरिक, सालाना। आभियोगिकभावना (स्त्री०) गौरवपूर्ण प्रवृत्ति की भावना। आभरणं (नपुं०) [आ। भृल्युट्] आभूषण, अलंकरण, आभियोगिकी (स्त्री०) सेवा युक्त भावना। 'आ समन्तात् विभूषण, गहना, सौन्दर्य के कारण। 'सरिताभरणभूषणसारैः।' आभिमुख्येन युज्यन्ते प्रेष्यकर्मणि व्यापार्यन्त'। (जयो० ५/११) आभियोग्यः (पुं०) दास स्थान, 'आभियोग्या दाससमाना, For Private and Personal Use Only Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आभियोग्यभावना १५८ आमपात्रं वाहनादि कर्मणि प्रवृत्ताः।' (स० सि०४/४) 'अभियुज्यन्त इत्याभियोग्या: वाहनादौ। दासप्राया आभियोग्या। (लक्षणावली पृ० २०३) आभियोग्यभावना (स्त्री०) भूतिकर्म की भावना, सेवाकर्म की दृष्टि। आभिरूपकं (नपुं०) [अभिरूप+वुञ्] लावण्य, सौन्दर्य, रूप। आभिरूप्यं (नपुं०) [अभिरूप ष्यञ्] लावण्य, सौन्दर्य, रूप। आभिषेचनिक (वि०) [अभिषेचन ठ] राज्याभिषेक सम्बन्धी। आभिहारिक (वि०) [अभिहार+ठब] उपहार योग्य, प्रदान योग्य, देय योग्य वस्तु। आभीक्ष्ण्यं (नपुं०) [अभीक्ष्ण्यस्य भावः] सतत् आवृत्ति, निरन्तर प्रयास। आभीरः (पुं०) [आ समन्तात् भियं राति] ग्वाला, अहीर, अमीर। आभीरी (स्त्री०) अहीरनी, ग्वालिनी। आभीरीपल्ली (स्त्री०) अहीरों का स्थान। आभील (वि०) [आभियं लाति ददाति ला+क] भयानक, भीषण। आभूषणं (नपुं०) अलंकरण, गहना। (जयो० वृ० २२/५) आभूषणता (वि०) अलंकरणपन। (वीरो० २/२१) आभोगः (पुं०) [आ+भुज+घञ्] १. परिसर, पर्यावरण। २. विस्तारण, परिधि, घेरा, विस्तार। ३. लम्बाई-चौड़ाई परिमाण। ४. उपभोग, तृप्ति, विषय भोग। ५. सर्प का फन। ६. अकार्य का सेवन। आभोगनमाभोगः, आभोगो उपयोगा ज्ञात्वाप्यकार्यासेवनमाभोगः। (ल०२०३) ७. परिपूर्ण"आभोगस्य परिपूर्णत्वस्य विस्तारस्या" (जयो० वृ० २४/३५) आमन्त्रणदाता (वि०) आमन्त्रणकी, निमन्त्रण देने वाला। 'आमन्त्रदाता किमु देवताहमहो।' (जयो० २६/८३) आमन्त्रणार्थ (वि०) सम्बोधनार्थ, निमन्त्रणार्थ, आह्वानार्थ। आमन्त्रणार्थमिति चन्द्रमसो रसेन। (जयो० १८/४९) आभ्यन्तर (वि०) [अभ्यन्तर+अण्] आत्मभूत, आत्मगत. __अन्तर्भूत, भीतरी, आन्तरिक। आभ्यन्तर-तपः (पुं०) ०अन्तरतप ०आत्मसम्बन्धी तप, ० अन्त:करण के तप। प्रायश्चित्तादितप। 'अन्त:करण व्यापारात् प्रायश्चित्तादितपः अन्त:करण व्यापारालम्बनम् ततोऽस्याभ्यन्तरत्वम्।' (त० वा० ९/२०) आभ्यन्तरनिर्वृत्तिः (स्त्री०) आन्तरिक अवस्थान, आत्मप्रदेशों का अवस्थान। आभ्यन्तरप्रत्ययः (पुं०) जीव प्रदेशों के साथ एकता। आभ्यन्तर-प्रवेशः (पुं०) अन्तर प्रवेश, हृदय प्रवेश। (जयो० वृ० १४/५८) आभ्यवहारिक (वि०) [अभ्यव्यहार+ठक] भोज्य, खाने योग्य। आभ्यासिक (वि०) [अभ्यास-ठक] अभ्यासजन्य, संलग्नता युक्त। आभ्युदयिक (वि०) [अभ्युदय ठक्] १. मांगलिक, शुभकारी, कल्याणकारक। २. गौरवमयी, महत्त्वपूर्ण, उन्नतशील। आमः (पुं०) आम्र, रसाल। (दयो० ५३) आम् (अव्य०) [अम्+णिच] अंगों के विविध भाव से युक्त अव्यय। १. अङ्गीकृत, स्वीकरण, ओह, हाँ, अब पता लगा, अवश्य ही। आम (वि०) [आम्यते ईषत् पच्यते -आ+अम्। कर्मणि। घञ्] कच्चा, अपक्व, विपाक, पाक रहित, अनपका। आमः (पुं०) आमरोग, अजीर्ण, कब्ज। (वीरो० १९/३) पेट विकार अजीर्णकर। (जयो० ६/६३) आममन्नमतिमात्रयाऽ शित। आमञ्ज (वि०) प्रिय, इष्ट, रमणीय, रम्य, मनोहर। आमंडः (पुं०) एरंड वृक्ष, अरण्डीतरु। आमन् (सक०) उतारना, आगे करना। आमनस्य (नपुं०) [अमनस्+घ्यञ्] दुःख, पीड़ा, कष्ट, शोक, मानसिक व्याकुलता, थकान। आमन्त्र्य (सक०) निमन्त्रण देना, बुलाना। (जयो० ४/२४) आमन्त्रणं (नपुं०) [आ+मन्त्र+णिच्+ ल्युट्] अनुज्ञा देना, बुलाना, अभिवादन, अनुमति, निमन्त्रण। (जयो० ४/१३) कामधारानुज्ञा। आमन्त्रणपत्रिका (स्त्री०) निमन्त्रणनातिः निवेदन पत्र (जयो० १/१९) आमन्त्रणी भाषा (स्त्री०) अभिमुख करने की भाषा। 'आगच्छ भो देवदत्त' इत्याद्याह्वान भाषा आमन्त्रणी।' (गो०जीव०२२५) 'यथा वाचा परोऽभिमुखीक्रियते सा आमन्त्रणी' (भ०मा० ११९५) 'गृहीत-वाच्य-वाचक-सम्बन्धो व्यापारान्तरं प्रत्यभिमुखीक्रियते यया आमन्त्रणीभाषा।' (मूला० ११८) आममौरः (पुं०) रसालकोरक आम्र गुच्छक आम्र तरु में लगने वाले पुष्प। (दयो० ५३) आमंद्र (वि०) [आ+मन्द्र+अच्] गम्भीर स्वर। आमपात्रं (पुं०) [आ+मी-करणे अच्] १. रोग, आमय-पेट For Private and Personal Use Only Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आमयाविन् १५९ आमोषः की बीमारी, मनोव्यथा। (जयो० ६/५८, वीरो० ३/२) २. आमिषं (नपुं०) १. मांस, (जयो० २५/२०) 'अपि तु पूतिपरं क्षति, हानि, कष्ट, पीड़ा। वनितावणं यदसृगामिषकीकश यन्त्रणम्।' (जयो० २५/२०) आमयाविन् (वि०) [आमय विन्] मन्दाग्नि से पीड़ित, बीमार आमीलनं (नपुं०) [आ+मील+ ल्युट्] उन्मीलन, अक्षि मीलन, रोगग्रस्त। आंख बन्द होना। आमरणान्त (वि०) [आमरणे अन्तो यस्य] मृत्यु पर्यन्त रहने । आमुक्तिः (स्त्री०) [आ+मुच्+क्तिन्] १. मुक्ति पर्यन्त, २. वाला, आजीवन। ग्रहण/धारण करना, पहनना। आमरणान्त दोषः (पुं०) हिंसादि पापों में प्रवृत्ति। मरणेवान्तो आमुखं (नपुं०) प्राक्कथन, प्रस्तावना, भूमिका, प्रारंभिकी, मरणान्तः, आ मरणान्तात् आमरणन्तम् हिंसादिषु प्रवृत्ति नाटक का प्रारंभिक विवेचन, उद्घोषणा। सैव दोषाः। आमुखं (अव्य०) सामने, मुंह के सामने। आमरसं (नपुं०) रसाल रस, आम्र रस। (जयो० ४/३९) आमुष्मिक (वि०) परलोक सम्बन्धी। आमर्जनं (नपुं०) लीपना, साफ करना, स्वच्छ बनाना। 'आमर्जनं आमुष्यायण (वि०) प्रसिद्ध कुलात्मक, ख्यात कुल में उत्पन्न। मृदुगोमयादिना लिम्पनम्।' आमूल (वि०) पूर्णरूप, सम्पूर्ण, सभी। (जयो० १४/३३) आमर्त्य (वि०) देव सम्बन्धित। (वीरो० ७/७) आमेनिर (वि०) सादृश्य, सघन। (सुद० ८३) आमर्दः (पुं०) [आ+ मृद्+घञ्] मसलना, कुचलना, मर्दन आमोचनं (नपुं०) [आ+मुच्+ल्युट] छुड़ाना, मुक्त करना, करना, निचोड़ना। स्वतन्त्र करना. निकालना, ढीला करना। आमर्शः (पुं०) [ आ+मृश्+घञ्] रगड़ना, घर्पण करना, स्पर्श आमोटनं (नपुं०) [आ+मुट्+ल्यट] विदीर्ण करना, कुचलना। करना। आमोदः (पुं०) [आ+ मुद्+घञ्] १. प्रसन्नता, हर्ष, विनोद, २. आमर्शनं (नपुं०) शरीर स्पर्शन, रगड़ना। 'शरीरैकदेशस्पर्शनम्' सुरभि, सुगन्ध। समुच्चलत्पल्लव-पाणिलेशमशेष(भ० आ० टी०६४९) मामोदमहारयेण। (समु० ६/३३) आमर्शलब्धिः (स्त्री०) स्पर्शमात्र की ऋद्धि, स्पर्श से रोग | आमोददा (वि०) १. सुगन्धदात्री, सुगन्ध देने वाली। २. विनोद शान्ति वाली ऋद्धि, इसे आमीषधि ऋद्धि भी कहते हैं। स्वभावी। आमोददा सुगन्धदात्री 'आ समन्तात् मोदं हर्ष आम”षधि-ऋद्धिः (स्त्री०) स्पर्शमात्र की ऋद्धि जिसके ददातित्यामोददा।' (जयो० पृ० ४/१५) कारण साधक स्पर्श से रोग शान्त करता है। आमोदनं (नपुं०) [आ+मुद्+ल्युट्] प्रसन्नता, हर्ष, विमोद। आमर्षः (पुं०) [आ+मृष्+घञ्] क्रोध, कोप, गुस्सा। आमोदपूरित (वि०) १. हर्षयुक्त, विनोदभावी, २. सुगन्ध से आमल (वि०) निर्मल, मलरहित। 'शुशुभे प्रचलन्निवामल:।' व्याप्त। कौतुकानकलितालिकलापाऽऽमोदपूरिधरामृदुरुपा। (सुद० ३/७) (जयो० ५/६४) 'आमोदेन हर्षभावेन पूरितम्' आमोदेन आमलकः (पुं०) आंवला तरु। १. धात्रीफल। (जयो० १४/७५) सुगन्धेन व्याप्तम्। (जयो० पृ० ५/६४) आमलकं (नपु०) आंवला फल। (मुनि० २६) आमोदपूर्ण (वि०) १. हर्षयुक्त, विनोद स्वभावी 'आमोदपूर्णआमलकी (स्त्री०) १. आंवला वृक्षा २. धात्रीफल। मखिलं जगदेतदुक्तात्।' (जयो० १८/४३) २. सुगन्ध से आमलकीफलं (नपुं०) धात्री फल। (जयो० वृ० १/३८) परिपूर्ण। आमोदेन सुगन्धेन आमोदेन प्रसन्न-भावेन वा आम-शक्तिः (स्त्री०) आमाशयशक्ति (वीरो० १९/३) पूर्ण सम्भृतमिति। (जयो० वृ० १८/४३) आमात्यः (पुं०) [अमात्य+अप] सचिव, परामर्शदाता, मन्त्री। | आमोदमयी (वि०) १. प्रसन्नदात्री, हर्ष प्रदात्री, विनोद स्वभावमयी। (जयो० वृ० १/१२) २. सुगन्धसहिता। मम वृत्त-कुसुम-मालाऽऽमोदमयी। (जयो० आमानस्यं (नपुं०) [अमानस्। ष्यञ्] दुःख, मनोव्यथा, २४/१०३) व्याकुलता. कष्ट, शोक आर्त, पीड़ा। आमोदिन् (वि०) [आ+मुद्+णिनि] १. प्रसन्न, हर्षयुक्त, आमासः (पुं०) आपक्ष, पक्षपर्यन्त, माह पर्वत। (सुद० ११८) विनोद सहित। २. सुगन्धित। आमिक्षा (स्त्री०) [आमिष्यते सिच्यते-मिप् सक्] छाछ, । आमोषः (पुं०) [आ+मुष्+घञ्] चोरी, अस्तेय, तस्करी, जमा हुआ दूध, छेना। अपहरण। For Private and Personal Use Only Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आमोषिन् १६० आयय आमोषिन् (पुं०) [आ+मुष्+णिनि] चोर। आम्नात (भू० क० कृ०) [आ+म्ना+क्त] १. कथित, प्रतिपादित, विचारित, चिंतित। २. अधीत, परम्परा प्राप्त। आम्नानं (नपुं०) [आ+म्ना+ ल्युट्] सस्वर स्मरण, सस्वर अध्ययन। आम्नायः (पुं०) [आ+म्ना+घञ्] १. सिद्धान्त, शिक्षण, आगम। २. परम्परा प्राप्त, कुलगत, ०वंशानुपूर्वी ०आनुपूर्वी, ० परिवर्तन। ३. स्वाध्याय का एक भेद। घोषविशुद्धपरिवर्तनमाम्नायः (त० वा० ९/२५) आम्नायो गुणना। (भ०आ०१०४) आम्नायो स्वाध्यायो भवत्येव। (भ० आ०१३९) आम्नायार्थवाचकः (पुं०) आगम प्ररूपित आचार्य, परमागमार्थ वाचक। आम्रः (पुं०) रसाल, आम। आनं नारंग पनसं वा। (सुद०७२) | आम्रकाम्रता (वि०) आम्र सरसता। (जयो० १२/१२७) आम्रकटः (पुं०) आम्रकूट नामक पर्वत।। आम्रतरु (पुं०) आम्रवृक्ष, रसालतरु। (जयो० १४८६) आम्रतरुस्थ (वि०) आम्रवृक्ष गत, आम्रवृक्षाधीन। (जयो० ९/६९) 'द्युतिरुताम्रतरुस्थपिकानने।' (जयो० ९/६९) आम्रदायिनी (वि०) चूतदा, आम्रदात्री, रसालप्रदायिनी। (जयो० वृ० १२/१२७) आम्रपेशी (स्त्री०) आमचूर, अमावट। आम्रमञ्जरी (स्त्री०) माकन्दक्षारक, रसाल वौर, आम्रकोरक। (जयो० १०६/१०१) आम्रवृक्षः (पुं०) ०आम्रतरु, रसालवृक्ष ०मञ्जरीङ्गित। 'आम्रवृक्ष-- वत्सरसता सम्पादकतया।' (जयो० वृ० २०/८५) सद्रसालेनामवृक्षण सहितो अवलोयते। (जयो० वृ० २१/३१) आम्रातः (पुं०) [आनं आम्रारसं अतति अत्+अच्] अमरतरु, आम्र की तरह खट्टा वृक्ष, जिसे राजस्थान में 'केर' कहते हैं। आम्रस्तकः (पुं०) [आ+मिड्+णिच्+ क्त] ध्वनि आवृत्ति, शब्द गुञ्जार। आमेडनं (नपुं०) [आ+म्रिड्णिच्+ल्युट] पुनरुक्ति, शब्द प्रतिध्वनि, गूंज। आमेडितं (नपुं०) [आ+म्रिड्+णिच्+क्त] शब्द प्रतिध्वनि, आम्लिक (स्त्री०) देखो ऊपर। आयः (पुं०) [आ+ इ+अच् अय+घञ् वा] १. आ जाना, पहुचना, २. सम्यग्दर्शनाद्यवाप्तिलक्षण: आय:। ३. धनागम, राजस्व प्राप्ति, द्रव्य लाभ, धन उपलब्धिा (जयो० ११/३८) आयषष्ठांशं वा समर्पयिष्यतीति। (जयो० वृ० ११/३८) आय (सक०) [आ+इ] प्राप्त होना, पहुंचना। (सुद० ५.१) (जयो०२/२३) 'अभ्यच्यार्हन्तमायान्तम्।' (सुद० ७६) बलाहकबलाधानान्मयूरा-मदमाययुः। (जयो० ३/१११) आययुः प्रापुः। 'पिता पुत्रत्वमायाति' (सुद० ४/९) आयकः (पुं०) उद्देश सिद्धिधारक, शुभावह, शुभभाग्य धारक। सहसैवाभिललाष चायक:। (जयो० २५/८६) 'चन्द्रमस इवाय एवायकाशुभावहो विधिर्यस्य स चन्द्र इवाह्लादकः।' (जयो० वृ० २५/८६) आयत (भू० क० कृ०) [आ यम् + क्त ] सविस्तार, विस्तार, लम्बा, विशाल, बड़ा, विस्तृत, बृहत्। "तरलायतवर्तिरागता सा" (जयो० १८/११४) मौक्तिकालिरिवायतवृत्ता। (जयो० वृ० २५/८६) आयतनं (नपुं०) [आयतन्तेऽत्र आयत्+ ल्युट्] १. घर, स्थान, ०आवास, निवास, आश्रय, आधार, सहारा, निमित्त। (भक्ति० १६) २. देवायतन, देवगृह। ३. सम्यक्त्वादिगुणों का आधार। आयतनेत्रं (नपुं०) विस्तृत आंखें। आयत-लोचनं (नपुं०) विस्तारजनित नयन। आयत-विस्तारः (पुं०) लम्बाई-चौड़ाई। अमितोन्नतिमन्ति निर्मलान्यभ्युचितायत-विस्तराणि वा। (जयो० १३/६५) आयतवृत्तः (पुं०) १. वर्तुलाकार, २. श्रेष्ठाचरण। 'आयतं विस्तृतं चरित्रं यस्याः।' 'आयताः सविस्तारा चासौ वृत्ता वर्तुलाकारा चेति।' (जयो० वृ० ५/५/३१) आयता (वि०) दीर्घता, विस्तृत युक्ता। (जयो०१३/४६) आयताभ्युदित (वि०) असमुचित। (जयो० ५/४७) आयतिः (स्त्री०) [आ+ यत् क्त] आश्रित, आधीन, आधारित। आयतिक (वि०) आधीन, आश्रित। आयत्त [आ+ यत्+क्त] आश्रित, आधीन, आधारित। आयत्तिः (स्त्री०) [आ-यत्+क्तिन्] आधीनता, आश्रयभूत। आयथातथ्यं (नपुं०) [अयथा तथा प्यञ्] अनुपयुक्त, अनुचित, अयोग्य। आयनं (नपुं०) गमन, विचरण। (जयो० वृ० १८/४६) आयय (भू०) आए, पधारे। 'वसन्तवदाययावुपनं' (सुद०४/१) आम्लः (पुं०) इमली का वृक्ष। आम्लिः (स्त्री०) १. इमली का वृक्ष। २. पेट का विकार। For Private and Personal Use Only Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आय-व्ययः १६१ आरण्य | आय-व्ययः (पुं०) आय व्यय, खर्च। (जयो०२/११३) आयस (वि०) लोह, धातुविशेष। (जयो० ४/६६) आयासस्थितिः (स्त्री०) लोहसत्ता। (जयो० ४/६६) आयानं (नपुं०) [आ+या+ ल्युट्] आना, पहुंचना, जाना। आयात (भू०) आया, पहुंचा। (जयो० ३/३) आयात-तमस् (नपुं०) आया हुआ अन्धकार, व्याप्त अन्धकार। (सुद० २/३३) आयामः (पुं०) [आ+यम्+घञ्] विस्तृत, विस्तार, प्रसार, फैलाव। आयामवत् (वि०) [आयाम-मतुप्] विस्तारित, लम्बित, विस्तारयुक्त आयासः (पुं०) [आ+यश्+घञ्] प्रयास, प्रयत्न, श्रम, उपयोग, दु:ख युक्त चेप्टा। आयासिन् (वि०) परिश्रान्त, थकावट, प्रयत्नशील, प्रयासरत। आयित (वि०) आया, प्राप्त हुआ। (सुद० १०७) आयुः (पुं०) भव, कर्मागत जन्म, जीवन। (जयो० १/७६) आयुक्त (भू० क० कृ०) [आयुज्+क्त] नियुक्त, कार्यरत। आयुक्तः (पुं०) १. मन्त्री, सचिव। २. अभिकर्ता, कमिश्नर। आयुकर्म (पुं०) आयुकर्म, नारकादि भव को प्राप्त कराने वाला कर्म, अवधारण। नारकादिभवमिति आयुः। (स० सि० ८/४) यस्य भावात् आत्मनः जीवितं भवति। (त० वा० ८/१०) आयुरिति अवस्थितिः। भवधारणं प्रतीति आयुः। (धव० १३/३६२) आयुतनेत्रिन् (वि०) सहस्त्र नेत्रधारी। (सुद० ३/९) आयुधः (पुं०) शस्त्र, हथियार, अस्त्र [आ+युध्+घञ्] प्रपक्षयोरायुधसन्निनाद। (जयो० ८/१२) आयुधिन् (वि०) आयुध धारक, शस्त्री, शस्त्रधारक। (जयो० २/४१) शाणतो हि कृतकार्य आयुधी। (जयो० २/४१) आयुधान्यस्य सन्तीत्यायुधी। (जयो० वृ० २/४१) आयुर्विगत (वि०) आयु समाप्ति, विगतजीवन। तम मम तव __ मम लपननियुक्त्याऽखिलमायुर्विगतम्। (जयो० २३/५६) आयुवेदिक (वि०) चरककार्य में तत्पर। (जयो० वृ०८/१६) आयुर्वेदः (पुं०) व्याधि प्रतिकारक शास्त्र, शरीरसम्बन्धीशास्त्र। (जयो० २/५६) ०शरीर शास्त्र, कायिक विधि ग्रन्थ। आयुर्वेदशास्त्रं (नपुं०) शरीर सम्बन्धी शास्त्र। आयुर्वेदिन् (वि०) आयुर्वेदज्ञ, शरीरशास्त्रज्ञ। भालानलप्लुष्ट मुमाधवस्य स्वात्मानमुज्जीवयतीति शस्य। प्रसूनवाणः स कुतो न वायुर्वेदी त्रिवेदी विकल्पनायुः। (जयो० १/७६) आयुष् (वि०) प्रमाणा (जयो० पृ० १/५) आयुष्मत् (वि०) [आयुस्+मतुप्] जीवित, जीता हुआ, जीवन युक्त, दीर्घायु वाला। आयुष्य (वि०) [आयुस्+यत्] जीवन युक्त, प्राणधारक। आयुस् (नपुं०) [आ+इ+उस्] जीवन, प्राण, भव। आये (अव्य०) सम्बोधनात्मक अव्यय। आयोगः (पुं०) [आ। युज्+घञ्] कार्य सम्पादन, नियुक्ति, क्रिया। आयोच्चाल (भू०) पहुंचाया, भेजा गया। (सुद० १२५) सम्पतति शिरस्येव सूर्यायोच्चालितं रजः। (सुद० १२५) आयोजनं (नपुं०) [आ+ युज्+ ल्युट्] १. प्रयत्न, प्रयास। २. ग्रहण करना, पकड़ना। ३. सम्मिलित होना, एकत्रित। आयोधनं (नपुं०) युद्धस्थल, संग्राम। 'आयोधनं धीरबुधाधिवासम्।' (जयो०८/७) आरः (पुं०) [आ+ऋ+घञ्] १. पीतल, अशोचित लोहा। २. कोण, किनारा। आरः (पुं०) ग्रह विशेष, मंगल ग्रह। शनि 'आरः शनिस्तस्य'। (जयो० पृ० ११/५२) आरक्तः (पुं०) लोहित, रक्त, लाल। (वीरो० ६/१५) (जयो० १५/) आरक्तवर्णं (नपुं०) लालवर्ण, लोहित रूप। अरविंदस्य रक्तकमलस्य वेष इव लोहितभावमुपैति प्राप्नोति आरक्तवर्णोऽवलोक्यते। (जयो० वृ० १५/१) आरक्ष (वि०) [आ+र+अच्] परिरक्षित, रक्षा युक्त। आरक्षः (पुं०) रक्षण, संरक्षण, सुरक्षा। आरक्षक (वि०) [आ+रक्ष्+ण्वुल] ०पहरेदार, ०सन्तरी, द्वारपाल, सिपाही, सुरक्षाकर्मी, आरक्षी। आरघट्ट (वि०) कसाई। (दयो० ५७) आरटः (पुं०) [आ+रट्+अच्] नट, पात्र विशेष, जो हास्य, नृत्यादि में प्रवीण हो। आरण (वि०) नाशक, घातक, विध्वंसक, नाश करने वाला। (जयो० वृ० १९/८०) आरणिः (नपुं०) [आ+ ऋ+अनि] भंवर, जलावर्त। आरण्य (वि०) [अरण्य+अण] जंगली, वनोत्पन्न, वनोपगत। 'अरण्यस्य भाव आरण्यम्। 'अरण्यमेवारण्यं' जंगल में रहने वाला। "आरण्यमुपविष्टोऽपिश्रीमान् समरसङ्गतः।" उक्त पंक्ति में कवि ने 'आरण्य' की दो निरुक्ति की हैं, दोनों ही समभावधारी के समत्व का निर्देश करती हैं। For Private and Personal Use Only Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आरता १६२ आराध्यतम आरता (वि०) कोप रहित, क्रोधमुक्ता। (जाये०११/९४) आराडटती (वि०) उतरी हुई, नीचे आगत। (दयो० ४२) आरतिः (स्त्री०) [आ+रम् क्तिन्] १. विश्राम, रोक, आराम। आरात् (अव्य०) इस समय, अब। 'आराम आरात्परिणामधाम' २. रतिजन्य। ३. आरती। (जयो० १९८३) आरनालः (पुं०) [आ+ऋ+नल+घञ्] मांड। शीघ्र ‘पय आरात्स्तनयोस्तु पायित।' (सुद० ३/२६) आरब्धः (पुं०) [आ+रभ्+क्त] प्रारम्भ, शुरु, समारब्ध, रचित 'आरादघावृतपयोधरसेवा।' (जयो० ४/५७) कृपालतात: आरब्धं तस्येदं मम कौतुकम्। (सुद० १३६) तभी से-' यदादिदृष्टाः समदष्टसारास्तदादिसृष्टा हृदि कृपा रूप लता से रचित यह भी निबन्ध कौतुक बढ़ाएगा। मुन्ममारात्। (सुद० २/१९) 'आरात्' का अर्थ दूर, दूरस्थ, समारब्धः आरब्धः पापपथस्य। (जयो० वृ० २/११६) दूर से निकट, समीप आदि भी है। (जयो० १/४, १/३) आरब्धवती (वि०) प्रारम्भ करने वाली, प्रयत्नशील। आरातिः (पुं०) [आ+रा+क्तिच्] शत्रु, प्रतिपक्षी, वैरी। __'उपसर्गमुपारब्धवती कुर्वतिहासती।' (सुद० १३३) आरातीय (वि०) [आरात् छ] निकट, समीप, आसन्न, आरभटः (पुं०) [आरभ+ अट] विश्वास, दृढ़ प्रतीति। दूर का। आरभटा (स्त्री०) दोष विशेष, उपेक्षणीय क्रिया, विधिवत आरात्रिकं (नपुं०) [आरात्रवपि निर्वृत्तम् ठञ् | रात्री सम्बन्धी क्रिया न करना। आरती, उपासना के लिए भगवत् आरती। आरम्भः (पुं०) [आ+र+घञ्] ०प्रारम्भ, समारम्भ, रचित, आराध् (सक०) ० आराधना करना, सेवा करना, संतोष ० शुरु क्रियाशील, कार्य, व्यवसाय, व्यापार। करना, उपासना करना, पूजा करना, अर्चना करना। 'सदारम्भादनारम्भाद- घादप्यतिवर्तिनी।' (सुद० ४/३२) (वीरो०८/४३) आराधयामि 'परोपकारैक-विचार हाराग्रन्थारम्भसमये- परिग्रहव्यापाररूपे।' (जयो० वृ०१/११०) त्कारामिवाराध्य गुणाधिकाराम्।' (जयो० १/८६) आराध्यप्रक्रमः आरंभः (स० सि० ६/८) आरम्भः प्राणि संपूज्य आराधयेत् (जयो० वृ० २/४१) पीडाहेतुव्यापारः। (स० सि० ६/१५) प्राणि-प्राण-वियोज- आराधक (वि०) उपासक, सेवक। (भक्ति०२४) नमारम्भो नाम। (धव० १३/४६) प्राणियों के प्राणों का आराधनं (नपुं०) आराधना, अर्चना, पूजा, सत्कार, उपासना। वियोजन/घात का नाम आरम्भ है। (सुद० २/३०) आरम्भ-कथा (स्त्री०) प्राणिविघात सम्बन्धी कथा। आराधनकाक (वि०) भटकने वाला पर सेवा तत्पर। स आरम्भकोपदेशः (पुं०) पाप जन्य क्रियाओं का उपदेश, प्रतिहारमाराधनकारक। (जयो० २/३१) आराधनकारकं पर 'अनर्थदण्ड' सम्बन्धी कथन। सेवा तत्पर। आरम्भक्रिया (स्त्री०) छेदन, भेदनादि की क्रिया, प्राणिघात आराधना (स्त्री०) उपासना, अर्चन, भक्ति, सेवा। पारणमस्याः का कार्य। पाप जन्य क्रियाओं का देखकर हर्षित होना। किं भवेत्तामाराधनामुदस्य। (सुद० ९४) आराध्यन्ते सेव्यन्ते आरम्भणीय (वि०) हिंसाजनीय, प्राणिघात उत्पन्न करने स्वार्थप्रसाधनकानि क्रियते। (भ० आ०१) वाली। (दयो०६) आराधना-कथाकोषः (पुं०) एक कथा ग्रन्थ का नाम। (वीरो० आरम्भिक (वि०) संहारक, दूषित, विघात। जिससे घर के १७/२०) खान-पान, लेन-देन, वाणिज्य-व्यापार आदि के करने से | आराधनीय (वि०) सेवनीय, पूजनीय, अर्चनीय। (जयो० वृ० होने वाली हिंसा हो। (सुद० ४/३२) २७/८) सम्मानीय। आरम्भिकी (स्त्री०) प्राणिघातक क्रिया। आरम्भः प्रयोजन | आराधनीयदलं (नपुं०) समाराध्य समूह, पूजनीय दल। (जयो० __ कारणं यस्याः सा आरम्भिकी। १२/१३४) सुखादि समाराध्यं सौधसम्पद्दलं कया। आरम्भ-विरत (वि०) हिंसा रहित, प्राणिघात रहित, आरम्भ आराधित (वि०) वंदित, पूजित, सेवित, समाराधित। (जयो० परित्याग ०'अष्टम प्रतिमा विशेष'-सर्वतो देशतश्चापि १२/१, जयो० ३/५) वदितमाराधितं भवति। (जयो० वृ० १२/१) यत्रारम्भस्य वर्जनम्। अष्टमी प्रतिमा सा (ला०संहिता आराध्य (वि०) सेवनीय, पूजनीय, वंदनीय। (जयो० १/६२) ७/३१) आराध्यतम (वि०) अत्यन्त आराधनीय, विशेष वंदित। (जयो० आरा (स्त्री०) आवाज, चिल्लाना। चीखना। २७/८) For Private and Personal Use Only Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आरामः १६३ आर्तध्यानं आरामः (पुं०) [आ+रम्+घञ्] आगत्य रमन्तेऽत्र स आरामः। १. बगीचा, उद्यान, उपवन। कदाचिदा रामममुष्य। (जयो० १/७७) २. प्रीति, स्नेह, रुचि, प्रसन्नता, हर्ष, प्रमोद। (सुद० ८३) 'आसीत्तदाराम-ललाममञ्चमहो' (जयो० १/४९) उक्त पंक्ति में 'आराम' का अर्थ 'विश्राम' है। लक्ष्मी के विश्राम करने का सुन्दर मञ्च। आराम-धाम (नपुं०) १. बगोचा, उद्यान, उपवन। 'आराम धामधनतो धरणीं समस्तां।' (सुद० १/३५) २. विश्राम स्थान, आरामगृह। आराम-रामणीयक (वि०) उद्यान की रमणीयता। 'आरामस्य उद्यानस्य रामणीयकं सौन्दर्यमनुवदता वनपालेन। (जयो० पृ० १/९०) आराम-वर (वि०) उत्तम बगीचा 'यस्मैकिलारामवरेण' हर्ष-वरेण पुष्पाञ्जलिरर्पितोऽपि। (समु० ६/३२) आरामिकः (पुं०) माली, बगीचे का रक्षक। आरालिकः (पुं०) रसोइय। पाचक। आरार्तिकावतरणं (नपुं०) नीराजन पात्र, आरती भाजन। (जयो० वृ० १२/१०५) आरु (पुं०) [ऋ+उण] १. सूअर, सूकर। २. केकड़ा। आरु (अक०) बैठना, स्थापित होना, पहुंचना। (जयो० ११/३) आरुह (अक०) बैठना, स्थापित होना, पहुंचना। (जयो० ११/३) आरू (वि०) [ऋ+ऊ+णित्] भूरे रंग का। आरूढ (भू० क० कृ०) [आ+रूह्+क्त] सवार, चढ़ा हुआ, बैठा, हस्ति आदि पर स्थित। 'हस्त्यारूढः।' (जयो० वृ० ८/११) 'रुढमक्रमामत्' (जयो० वृ०८/११) आरूढिः (स्त्री०) [आ+रूहक्तिन्] स्थित, आरोपित, उन्नयन। आरेकः (पुं०) [आ+रिच्+घञ्] रिक्त करना, संकुचित करना। आरेचित (वि०) [आरिच्+ णिच्+क्त] संकुचित, उदासीन, उन्मीलित, निमीलित भौंह। आरोग्यं (नपुं०) [आरोग्+ष्यञ्] स्वस्थ, निरोग, हृस्ट-पुष्ट रोग मुक्त। 'औदार्य रूपमारोग्यं दृढत्वं पटुवाक्यता।' (दयो० पृ०७०) आरोप (सक०) ०डालना, निक्षेप करना, ०मान लेना, ० मढ ना, रोपना, गाड़ ना। व्यञ्जने विव सौन्दर्यमात्रारोपावसानकौ।' (जयो० ३/४९) 'तत्करोमि किल सा सहजेनारोपयेद्विभुगले तदनेना।' (जयो० ४/३३) 'आरोपयेत् निक्षिपेत्।' (जयो० वृ०४/३३) 'चापार्थमारोपितशस्यनासा' (जयो० ५/८४) आरोपणं (नपुं०) [आ+रूह+णिच्+ ल्युट्] रखना, जमाना, डालना, रोपना। आरोपण-परिणामः (पुं०) निक्षेपण भाव। (जयो० पृ० ३/४९) आरोपित (वि०) उपात्त, समङ्कित, स्थापित, रखा गया, अंकित किया गया। (जयो० वृ० ३/७४) 'आरोपितोऽन्येन च दन्तमूले।' (जयो० वृ० १३/१०१) आरोपितवती (वि०) स्थापित करने वाली। (वीरो० ३/२२) आरोहः (पुं०) [आ रूह्+घञ्] १. सवार, बैठा हुआ, स्थित, आरूढ। २. संगीतविधा का एक स्वर, जिसमें ऊपर की ओर तान लिया जाता है। ३. ऊभार, ऊँचा स्थल, पहाड़। ४. आरोहः शरीरोच्छ्रायः शरीर की ऊँचाई। आरोहकः (पुं०) [आ+रूह्+ण्वुल्] सवार, चालक, रथ या अश्व सवार। आरोहणं (नपुं०) [आ+रूह+ल्युट्] ऊपर चढ़ने की क्रिया 'कुरुतात् सदनुग्रहं हि तु, स्वयमारोहणतः परीक्षितम्।' (समु० २/२३) आर्किः (पुं०) शनिग्रह, अर्कपुत्र। आर्भ (वि०) [ऋक्षा अण्] तारकीय, नक्षत्र सम्बन्धी। आर्गड (वि.पुं०) सांकल, आगल। (जयो०८१) आy (नपुं०) [आर्घा+यत्] जंगली शहर। आर्च (वि०) भक्त, पूजक, आराधक। आर्चिक (वि०) [ऋच्+ठञ्] पूजक, वंदक। आर्जवं (नपुं०) १. सरलता, मृदुता ०ऋजुभाव, निर्मल प्रवृत्ति। (त० सू० ९/६)। योगस्यावक्रता आर्जवम्। (त० वा० ९/६) ऋजो वं आर्जवम्। (मूला०वृ० ११/५) २. स्पष्टता, सद्व्यवहार, ०सदाचरण, निष्कपटा, ०अवक्रता, ०अकुटिलता। आई (वि०) उत्कण्ठित, द्रवीभूत। 'आर्द्र भूमिपतेर्मनस्थलमलं काशीति संस्त्रोतसा।' (जयो० ३/९८) आर्त (वि०) [आ+ऋ+क्त] १. पीड़ित, बाधा, दुःखित, कष्ट। २. आर्तध्यान विशेष, जिसमें अनिष्ट का संयोग होने पर पीड़ा होती है। 'ऋतं दु:खम्, अर्दनमतिर्वा, तत्र भवमार्तम्।' (स० सि० ९/२५) ३. रोग, दु:खजन्य। ४. नाद विशेष, जिसमें कष्टदायी स्वर ध्वनित हो। आर्तदीनं (नपुं०) पीडाजन्य। (समु० ३/३६) आर्तध्यानं (नपुं०) ध्यान का एक भेद, जिसमें अनिष्ट का संयोग होने पर पीड़ा होती है। (समु०८/३५) आर्तध्यानमिदं समाह भगवास्त्याज्यं सदा योगिता। (मुनि० २१) For Private and Personal Use Only Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आर्तभाव: १६४ आर्यावर्त जन्य। आर्तभावः (पुं०) चिन्तातुर, कष्टयुक्त। (समु० ४/५) अध्यापक, आदि सभी हो सकता है, क्योंकि इस आर्तव (वि०) [ऋतुरस्य प्राप्त-अण्] ऋतु सम्बंधी, ऋतुकाल विशेषण में सम्पूर्ण संस्कृति का समावेश है। गुणैर्गुणवद्भिर्वा अर्यन्त-इत्यार्यः (त० वा० ३/३६, स० सि० ३/३६) आर्तिः (स्त्री०) [आ+ऋ+क्तिन्] १. पीड़ा, व्यथा, दु:ख, सद्गुणैरर्यमाणत्वाद गुणवद्भिश्च मानवैः। (त०श्लोक ३/३७) कष्ट, बाधा। (मुनि० २१) २. मानसिक कष्ट, अत्यधिक आर्यकार्यः (पुं०) श्रेष्ठ कार्य, पुनीत कार्य. उत्तम कर्म। वेदना। 'आर्यकार्यमपवर्गवर्त्मनः। (जयो० २/१३६) आर्थ (वि०) अर्थाधीन, अर्थ सम्बन्धी, धन का प्रयोजन। - आर्यखण्डं (नपुं०) आर्यावर्त, आर्यक्षेत्र, सभ्यजनों का क्षेत्र। (जयो० १०/४७) (सुद० १/१४) (वीरो० २/९) आर्थसार्थक (वि०) याचक समूह। (जयो० १०/४७) आर्यगृह्य (वि०) आर्यों से पूजित। आर्थिक (वि०) [अर्थ ठक्] १. सार्थक, २. धनयुक्त, ३.. आर्यजनः (पुं०) आर्यलोग, उत्तम लोग। (सुद० १/१४) प्रयोजन भूत, आधारभूत। तथ्यपूर्ण, वास्तविक। आर्यदेशः (पुं०) आर्यदेश, सभ्य संस्कृति का प्रदेश। आर्द्र (वि०) [अर्दु रक्] १. गीला, नमीयुक्त, अशुष्क। २. | आर्यता (वि०) महापुरुषता! (जयो० वृ० २६/३६) मृदु, कोमल, रस युक्त। उच्चकुलीनता-(वीरो०९/५) आर्द्रकं (नपुं०) [आर्द्रा+वुन] अदरक। आर्यपुत्रः (पुं०) सभ्य संस्कृति का सुत। आर्द्रता (वि०) कोमल, सुकुमार। (जयो०२/९९) आर्य-प्रकृतिः (स्त्री०) सभ्य स्वभाव, उत्तम प्रकृति। तुङ्ग पुनः आर्दचेतस् (पुं०) करुणाशीला (जयो० २४/१२०) सा परिधाय कायमहार्यमार्यप्रकृतेः समायम्। (११/६) आर्द्रता (वि०) उत्कण्ठता, द्रवीभूतता। (समु० ७/१६) 'अहार्यः पर्वते पुंनि' इति विश्वलोचनः। आर्दभावः (पु०) करुणभाव। (वीरो०४/३) आर्यप्राय (वि०) आर्यों की बहुलता। आद्रिय (वि०) उत्कण्ठित। आर्यमन् (वि०) सज्जन, श्रेष्ठ पुरुष। (समु० ४/२०) आद्रीकरणं (नपुं०) परिषेचन, द्रवीभूतीकरण। (जयो० २/९३) आर्यमिश्र (वि०) आदरणीय पुरुष, मुक्त, सभ्य जन युक्त। आर्द्रय (सक०) गीला करना, अशुष्क बनाना। आद्रियते (सुद० आर्यलिंगिन् (पुं०) पाखंडी। २/१४) आर्यवर्तः (पुं०) आर्यखण्ड, आर्यक्षेत्र। आर्ध (वि०) [अर्ध+अण्] आधा, अर्धभाग। आर्यवृत्ताविन (वि०) भद्र. सदाचारी, योग्य, श्रेष्ठ। आर्धिक (वि०) अधिक से सम्बन्ध रखने वाला। आर्यव्यक्त (वि०) आर्य द्वारा कथित। (वीरो० १४/५) आर्य (वि०) [ऋ ण्यत्] १. श्रेष्ठ, ०उत्तम, ०समादरणीय, आर्यसत्यं (नपुं०) उत्कृष्ट सत्य, अलौकिक सत्य, दिव्य सत्य। सम्मानीय, पूज्य, कुलीन। 'गुणप्रसक्त्याऽतिथये विभज्य आर्यशस्ति (वि.) आर्य खण्ड। (वीरो० २।८) सदन्नमातृप्ति तथोपभुज्य। हितं हृदा स्वेतरयोर्विचार्य, आर्यशिरोमणि (वि०) महापुरुषों की मुखिया, अग्रणीजन। तिष्ठेस्सदाचार पर: सदाऽऽर्यः। (सुद० १३०) 'वृथा साऽऽर्य (दयो० १०९) सुधासुधारा' (जयो० १/३) उक्त पंक्ति में 'आर्य' शब्द आर्या (वि०) १. सम्मानीय, पूजनीया, प्रशंसनीया। (वीरो० सज्जन पुरुष का वाचक है। 'आर्य' सम्य जाति विशेष के १/२७) मनोरमाऽभूदधुनेयमार्या न नग्नभावोऽयमवाचि नार्याः। लिए भी प्रयोग किया जाता है। व्यशेषयन् वा द्रुतमीर्षयार्य (सुद० ११५) २. आर्या-आर्यिका, दिगम्बर सम्प्रदाय में तकाञ्छतत्त्वेन किलारिनार्यः।' (जयो० १/२६) चतुर्थ सर्ग व्रत अङ्गीकार करके जो सर्व परिग्रह त्यागी बन जाती है में भी 'आर्य' शब्द को सभ्य व्यक्ति के लिए प्रयुक्त किया वह आर्यिका कहलाती है। आर्यिका व्रत अंगीकार करके गया। (जयो० ४/४८)० 'आर्य' का श्रेष्ठ अर्थ (२२/८३) समस्त परिग्रह का त्याग करती है तथा श्वेत वस्त्र को ०'आर्य' का सेठ-क्षेमप्रश्नानन्तरं ब्रूहि कार्यमित्यादिष्टः धारण करती है। आर्यिका उपचरितमहाव्रतधराः स्त्रियः। प्रोक्तवान् सागरायः। (सुद० ३/४९) सुदर्शनोदय (४/२२, (सा०ध० २/७३) ९/१४) में यही अर्थ है। 'बाल्येऽपि लब्धस्त्वकया वदाऽऽर्य'। आर्यात्व (वि०) आर्यिकापद वाली। (सुद० (सुद० ९/१४) 'आर्य' का अर्थ स्वामी, नायक, गुरु आर्यावर्त (पुं०) आर्यक्षेत्र, आर्य खण्ड। (दयो०३) For Private and Personal Use Only Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आर्यिका १६५ आलानिक आलम्बः (पुं०) [आ+लम्ब्+घञ्] आधार, आश्रय, सहारा। (वीरो० २२/३६) आलम्बनं (नपुं०) [आ+लम्ब्ल्यु ट्] आलम्बन बाह्यो विषयः। १. आश्रय, आधार, सहारा, आशय, आवास, स्थान, वास, निवास। (जयो० वृ० ३/७१) २. कारण, हेतु, निमित्त। आलम्बनभूत (वि०) आधारभूत, आश्रयजन्य। 'शाखाचरणा-- लम्बनभूतैः।' (जयो० १२/१३७) आलम्बनसम्पदा (वि०) आधारभूत। (समु० १/३) भवान्धुगर्ते पतते जनायाऽनुकीर्तिताऽऽलम्बनसम्प्रदा सा। आलम्बनशुद्धिः (स्त्री०) शास्त्रशुद्धि। आलम्बिन् (वि०) [आ+लम्ब+णिनि] आधारित, आश्रित, पकड़े हुए, गृहीत जन्य, थामने वाला, पहने हुए, लटकते आर्यिका (स्त्री०) आर्यिका (समु० ४/१६) महाव्रतधारी पूज्या नारी। आर्यिका उपचरित महाव्रतधराः स्त्रियः। (सा०ध० २/७३) आर्यिकाचर्या (स्त्री०) आर्यिका व्रत चर्या। साध्वीनामपि एतदेव चरणं नाग्न्यं बिना जायते यासां क्वापि नहि त्रपाभरजुषामेकाकिता ख्यायते दिवाणामशनं च गेहिसदने चैकत्र गत्वा भवेत्तच्च स्यादुपविश्य मौनत इति दृग्दृश्यते संस्तवे। (मुनि० श्लोक ६२) आर्यिकासङ्घ (वि०) आर्यिका समूह। (सुद० ४/२९) आर्यितत्त्व (वि०) पाण्डित्य। (सुद० १०८) आर्ष (वि०) [ऋपेरिदम् अण। ऋषि सम्बन्धी, ऋषिवाक्य। मा हिंस्यात्सर्वभूतानीत्या धर्मे प्रमाणयन्। (सुद० ४/४१) आर्ष का पवित्र, पूत, पावन, योग्य, आदि भी अर्थ है। आर्षप्रणीतिः (स्त्री०) आर्ष नीति, आर्ष नियम। (जयो० २/६) 'लोकरीतिरिति नीतिरङ्किताऽऽर्षप्रणीतिरथ निर्णयाञ्चिता।' (जयो० २/६) आर्षरीति (स्त्री०) वैदिक नियम, आगमिक नियम, आर्षनियम। 'आर्षा चासौ रीतिर्वैदिकनियमः। (जयो० वृ० २/४) आर्षवाक् (पुं०) आर्षवचन, आर्षसृक्ति, आगामिक वचन, ऋषिवचन। आर्पवाच्यपि दुःश्रुतीरिमाः किन्न पश्यतु गृहे नियुक्तिमान्। (जयो० २/६३) आहेत् (वि०) योग्य, पूज्य। (सुद० ९६) आहेत (वि०) अर्हत् मत से सम्बन्धित, जिन प्रणीत वचन से युक्त। आर्हत (वि०) योग्यता, पूज्यता। (सुद० ९६) आर्हतमतानुयायिन् (वि०) अर्हतमत वाले जैन (वीरो० २२/१६) आर्हन्त्य क्रिया (स्त्री०) अरहन्त सम्बन्धी क्रिया, अर्हन्तपद सम्बन्धी, कल्याणकारी क्रिया। (सम्य० १८/३) आर्हन्त्यमहतो भावो कर्म वेति परा क्रिया। (महापुराण ३९/३०९) आहती (वि०) आर्हतमतानुयायी। (वीरो० १५/३३) आलः (आ+अक्त्+अच्) संखिया। आलगर्दः (पुं०) कथन, बातचीत, विचार। आलपद् (वि०) अपशब्द करना, बुरा कथन। किलाऽऽलपद भिर्बहुशः समैतैः। (सुद० १०५) आलपित (वि०) कथित, प्रतिपादित, निरूपित। (जयो० ९/२०) तदालपितेन जयद्विपः। आलभनं (नपुं०) [आलिभल्युट्] ग्रहण करना, पकड़ना, लेना। आलम्भः (पुं०) [आ+लभ+घञ्] १. ग्रहण करना, लेना, उठाना, पकड़ना। २. डालना, पटकना, रखना। आलयः (पुं०) [आ+ली+अच्] देखो आलयां आलयं (नपुं०) स्थान, वास, आश्रय, निवास, घर, गेह, आसन, जगह। 'सुरालयं तावदतीत्य दूरात्।' (सुद० १/२७) आलवण्यं (नपुं०) [अलवणस्य भावः] १. लवणशून्य, स्वादहीन, नीरस। २. लावण्य रहित, सौन्दर्यविहीन, कुरूपता। आलवालं (नपुं०) [आसतन्तात् लवं जललवं आलाति आ+ला+क] ०क्यारी, ०खाई, ०पोखर, ०पानी भरने का स्थान। आलस (वि०) [आलसति ईषत् व्याप्रियक्ते-अच्] उदासीनता, प्रमाद, सुस्त, शिथिलता। 'विद्याऽनवद्याऽऽप न वालसत्वं'। (जयो० १/६) 'समाजन इवाऽऽरामः सालसङ्गममादधत्।" (सुद०८३) आलसता-व्याज (वि०) क्लममिष, आलस्य के बहाने, प्रमाद के कारण। (जयो० १४/३२) आलस्य (वि०) [अलसस्य भावः] प्रमाद, उदासीनता, सुस्ती। (जयो०१/६) आलस्य-कला (स्त्री०) प्रमाद जन्यता। आलस्यचिह्न (नपुं०) विजृम्भण। (जयो० ६/३९) आलातं (नपुं०) जलती हुई लकड़ी। आलानं (नपुं०) [आ+ली+ल्युट] हस्ति बांधने का खम्भा, रस्सा । आलानिक (वि०) [आलान+ठज] हस्ति बांधने का साधन। For Private and Personal Use Only Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आलापः १६६ आलोचना आलापः (नपुं०) [आ+ लप्+घञ्] वार्तालाप, अभिभाषण, संलाप, परस्पर बातचीत। 'यदद्य वाऽऽलापि जिनार्चनायाम्।' (सुद० ३/३७) आलापनं (नपुं०) [आ+लप्+णिच्+ल्युट] बातचीत, संलाप, अभिभाषण, परस्पर संवाद। आलापन-बन्धं (नपुं०) दूसरे द्रव्यों का सम्बन्ध, दर्भादि से परस्पर बन्धन करना, बांधना। आलाबुः (स्त्री०) आल, लौकी, घीया, पेठा, कद्दू, कुम्हड़ा। आलावर्त (नपुं०) [आलं पर्याप्तमावर्त्यते इति-आल+आ+ वृत्+णिच्+अच्] बिजना, कपड़े का पंखा। आलि (वि०) [आ+अल्+इन्] १. प्रमादी, आलसी, सुस्त। २. वचनबद्ध, सत्य युक्त। आलि: (स्त्री०) १. बिच्छु, मधुमक्खी। २. सखी। (वीरो० ४/२९) संतति, तति, ३. पंक्ति-'शालिकालिभिरुपाद्रियते वा। आलिभिः पङिक्तभिः। (जयो० वृ० ४/५७) आलि-कलापः (पुं०) सखि कौतुक। (जयो० ६/६५) आलिकुलं (नपुं०) सखी समूह। (वीरो० ४/२९) आलिका (स्त्री०) सखि, मित्र, सहेली। 'चितमूहे ऽमुकमालिके सितम्।' (जयो० १८/७२) 'पथभ्रष्टा इवालिकाः' (जयो० २३/८१) आलिका-वयस्या (जयो० वृ० २८.८१) आलिङ्गनं (नपुं०) [आ+लिङ्ग ल्युट्] समालिंगन, कण्ठालिंगन, वक्षाधार, गले लगाना। (जयो० वृ० ११/३८) 'आलिङ्गन् प्रयों सप्तिसमूहोऽनुनयन्निवा' (जयो० ३/११०) 'तथाऽऽलिङ्गचुम्बनादिक।' (सुद० पृ० ९९) आलिङ्य (सक०) आलिंगन करना, गले लगाना। 'आलिङ्गयोर्वी विशश्राम।' (समु० ९/१६) आलिजन (वि०) सखी समूह। (जयो० २२/७६) 'सालिजने किमु मुद्रणमगात्।' (जयो० २२/७६) आलिञ्जरः (पुं०) मिट्टी का घर। आलिन्दः (पुं०) चबूतरा, ऊँचा स्थान, मचान। आलिम्पनं (नपुं०) [आ+लिप्+ल्युट्] लीपना, सफेदी करना, सफाई करना। आलिविधान (वि०) सखि-संगति, मित्रों का साथ। पार्श्वतः परिमितालिविधाना देवतेव हि विमानसुयाना। (जयो० ९/५८) आली (स्त्री०) सहचरी, सखी, वयस्या, सहेली, सहयारी। (जयो० ५/७३) आलीढं (नपुं०) [आ+लिह+क्त] बैठना, आसीन. निशान बनाने के लिए स्थित होना, प्रत्यञ्चा खींचना, दाहिने पैर को आगे करके और बाएं पैर को पांच पादों के अन्तर से पीछे फैलाकर बाएं हाथ में धनुष लेकर दाहिने हाथ से खींचकर खड़ा होना। (वीरो० २/१०) आलीढस्थानं (नपुं०) शस्त्रादि को चलाने के लिए किया गया हाथ पैरादि का प्रयास स्थान। आलीयकं (नपुं०) ताड़ी, शराब, तालवृक्ष रस। 'नालीयकं सौधमिवास्तु।' (जयो० १६/२६) आलीयकं तालवृक्षरसः सुधाविकारः (जयो० १६/२६) आलुः (पुं०) [आ+लु+डु] उल्लू। आलुकः (०) आलु, रतालु, ०एक अभक्ष्य जमीकंद। (वीरो० २२/२३) आलुञ्चनं (नपुं०) [आ+लुञ्च+ ल्युट्] केशलुंचन, उखाड़ना, फेंकना, निकालना। आलुञ्छनं (नपुं०) समभाव परिणाम। साहीणो समभावो __ आलुंछणमिदि समुद्दिट्ठ। (निय० सा० ११) आलुब्धक (वि०) शिकारी, लोभी, लालची, आसक्तिजन्य। जह्मालुब्धक, खट्टिकादि-रविणां दुष्कर्माणो वेश्म यद्येन। (मुनि० १०) आलेखनं (नपुं०) [आ+लिख्+ल्युट्] लिखना, चित्रण करना। आलेख्य (वि०) [आ+लिख+ ण्यत्] चित्रण, प्रस्तुतिकरण, चित्रांकन। आलेपः (पुं०) [आ+लिए+घञ्] उबटन, मर्दन, तेल लगाना। आलेपनं (नपुं०) [आ+लिप्+ ल्युट्] उबटन, लेपन, मर्दन, तेल लगाना। आलोकः (पुं०) १. प्रकाश, प्रभा, कान्ति, आभा। २. दृष्टि, दर्शन, देखना, अवलोकन। (वीरो० २०/२०) तमेनं विधुमालोक्य स उत्तस्थौ समुद्रवत्। (सुद० ३/४४) आलोकनं (नपुं०) १. अवलोकन, दर्शन, देखना। २. दृष्टि, __ पहलू, विविध विचार दृष्टि। आलोचक (वि०) [आ+लोच्+ण्वुल्] आलोचना करने वाला, समीक्षक, विचारक। आलोचनं (नपुं०) समीक्षक, सर्वेक्षा दर्शन, विचार-विमर्श विवरण, प्रकाशन, आख्यान, निवेदन। 'आलोचनं विवरणं प्रकाशनमारख्यानं विवर्जितमालोचनम्। (त०भा०९/२२) 'गुरवे प्रमादनिवेदनमालोचनम्।' (मूला०११/१६) आलोचना (स्त्री०) अपराध गहन, त्यजन, वस्तु सामान्य का मर्यादित बोध, 'स्वापराध निवेदनं गुरुणामालोचन। (भ०अ० ६९) For Private and Personal Use Only Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org आलोचनाशुद्धिः आलोचनाशुद्धिः (स्त्री०) राग-द्वेष रहितभाव करना। 'मायामृष्ठरहितता आलोचनाशुद्धिः । ' आलोचनीय (स०कृ०) आलोचना योग्य (वीरां० १७/२१) (भ० आ० टी० १६६ ) आलोडनं (नपुं० ) [ आ + लुड्+ णिच् + ल्युट्] १. बिलोना, हिलाना, घुमाना। २. क्षुब्ध करना। ३. मिश्रित करना । आलोल (वि०) कांपने वाला, घूमने वाला, हिलने वाला विक्षुब्ध हुआ, लोलुपी। आवन्त्य (वि०) [ अवन्ति यङ् ] अवन्ती से आने वाला, अवन्ती से सम्बन्ध रखने वाला। आवन्त्यः (पुं०) अवन्ती का राजा । आवद्धकटिः (स्त्री०) हर समय तत्पर (समु० १/१६) आवद्य (वि०) दोष (३/६६) आवपनं (नपुं० ) [ आ + वप् + ल्युट् ] १. बोना, खेत में रोपना, बिखेरना, डालना, फेंकना, निक्षेपण, बीज बौना। २. हजामत करना। ३. वर्तन पात्र मर्तबान। आवरकं (नपुं०) (आ+वृ+ण्वुल्] ढक्कन, पर्दा । आवरणं (नुपं०) [आवृल्युट्] १. आच्छादन, पर्दा, ढक्कन, बाधा, बाड़, दीवार । (जयो० २६/९७) आव्रियते आच्छाद्यतेऽनेनेत्यावरणम् २. अज्ञानादि दोष भाव, मिथ्यात्व समूह, कर्माच्छादन। • " आवरण कर्त्री (वि०) आवारा, भ्रमणशील (जयो० ३/३९) आवराङ्गपानं (नपुं०) मस्तक पर्यंत । वरागपर्यन्ताङ्गस्वादन अङ्गपान। वराङ्गमूर्धगुह्ययो रित्यमरः । वराङ्ग मस्तके योनी इति विश्वलोचनः। आवर्जन (नपुं०) १. उपयोग, व्यापार, कर्मस्थिति का व्यापार २. निषेधा आवर्जित (वि०) शुभ भोगों का व्यापार १. प्रोच्छ, पछा गया, प्रमार्जित । (जयो० १९/१०) २. निषेधित, प्रतिबाधित, निरोधित। आवर्त (वि०) [आवृत् पञ्] १. भंवर, घेरा, चक्कर, घुमाव २. पर्यालोचन, परिभ्रमण आवर्तकः (पुं०) [आवर्त कन्] भंवर, जलावर्त, घुमाव, चक्कर। आवर्तनं (नपुं०) चक्कर, घुमाव (जयो० २४/२२) आवर्तवती (वि०) चक्करशील, भ्रमणयुक्त, घुमावदार (जयो० १७/६९) आवर्तवत्या (जयो० १७ /६९) आवलिः (स्त्री०) [आ+व+इन्] तति, रेखा, पंक्ति । १६७ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आवापः 'लोमलाजिच्छलेनैतत्पर्यन्ते शावलावलिः' (जयो० ३/४७) २. असंख्यात समय-आवलि असंख्यातसमयः । आवलित (वि०) [आवल्क्त] घेरि घिरा हुआ, परिधि संयुक्त | आवश्यकः (पुं०) अवश्य करणीय कार्य, (जयो० १२ / १४४ ) अनिवार्य क्रिया, महाव्रती की क्रिया । 'ण वसो अवसो अवसस्सं कम्ममावासयं ति बोद्धव्वा' (मूला०७/११४) १. महाव्रती के करने योग्य आवश्यक षट्कर्म। २. श्रावक या साधु के उपयोग रक्षक गुण सामायिक, चतुर्विंशतिस्तव, वेदना, प्रतिक्रमण और कार्योत्सर्ग (राज० वा०६/२२) 'जयोदय' में मुनि की वृत्ति का नाम आवश्यक है। न वशोऽक्षमनसामित्यवश, अवश एवावश्यकस्तस्य भाव आवश्यकं तेन सहिता सावश्यकस्तस्येन्द्रियजयिनो मुनेः । ' (जयो० वृ० २७ / २३) आवश्यक करणं (नपुं०) अनिवार्य क्रिया ० साधु या श्रावक की नित्य प्रति करने योग्य क्रिया । आवश्यक - कर्म (नपुं०) षडावश्यक कर्म, पूजादिकर्म । (जयो० २२/३५) आवश्यक निर्युक्तिः (स्त्री०) अखण्डित उपाय की युक्ति । 'जत्ति त्ति उपाय ति य रियवा होदि णिज्जुती (मूला०७/१४) आवश्यक कर्त्तव्यों के प्रतिपादन करने वाले शास्त्र आवश्यकनियुक्ति है। आवश्यकापरिहाणि: (स्त्री०) आवश्यक क्रियाओं का यथा समय पालन आवश्यक क्रियाणां तु यथा कालं प्रवर्तना।' ( त० श्लोक ६ / २४) आवश्यकीक्रिया (स्त्री०) कारणसापेक्ष जन्य आवश्यक क्रिया । आवसति: (स्त्री०) रजनी, रात्रि विश्राम। आवसथः (पुं० ) [आ+वस्+अथच्] स्थान, निवास, घर, आवास, पड़ाव, घेरा, विश्रामस्थल। आवसथ्य (वि०) [आवसथ ज्य] गृहस्थी, घर में रहने वाला। आवसित (वि०) [आवसूसोक्त] १ स्थित ठहरा हुआ। २. समाप्त, निश्चित निर्णीत, निर्धारित आवह् (अक० ) प्राप्त होना, उत्पन्न होना। (सुद०४/२९) आवह (वि०) [आ वह अच्] उत्पन्न करने वाला, जनक, मार्ग दृष्टा पथप्रदर्शक । For Private and Personal Use Only आवाप [आ+वप्+घञ्] बीज बौना १ रोपना, डालना, निक्षेपण, फेंकना। २. बर्तन, कोटी। ३. उपयोग जन्य चर्चा। Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra आवापकः www.kobatirth.org आवापकः (पुं०) [आवाप+कन्] कंकण | आवापनं (पुं०) [आ.वप् णिच् + ल्युट् ] करथा, खड्डी | आवार (पुं०) आवरण, पर्दा पाश्वं यस्य पवित्रावारा' (जयो० २२/८) आवालं (नपुं० ) ( आ.व. णिच्-अच्] थांबला, आलवाल, क्यारी । । आवास (पुं०) [आ+वस्+घञ्] १. पर, निवास, स्थान, आश्रम, आराम। २. भवनवासी और व्यञ्तर देवों के निवास स्थान । ३. निगोदजीव के आश्रय भूत स्थान । ४. पूजा के निमित्त 'देव' को बुलाना आविक (वि०) १. भेड़, मेष । २. मेष संबंधी। किन्नु गल्यमिव चाविकं पयः । (जयो० २ / ७८) आविग्न (वि०) [आ-विज्-क्त] दुःखी, पीड़ित कष्टजन्य आविद्ध (भू० क० कृ० ) [ आ + व्यध् +क्त] १. वेधित, वाधित, छेदित २ गतिजन्य फेंका गया। आविर्भूत (वि०) प्रकटीजन्य आविर्भाव: (पुं०) [आविस्+भू+घञ्] १. अवतार, प्रकट, उपस्थित। २. अभिव्यक्ति । आविल (वि० ) [ अविलति दृष्टिस्तृणाति विल+क] मलिन, ० मैला, ०पंकित, ० कीचड़जन्य, ०अपवित्र, ०घनीभूत, ० अनुलिप्त (जयो० ६/४२) लालाविलोष्ठयादि निचृष्य ।' (जयो० २७/३५) आविल ( सक०) अपवित्र करना, कलंकित करना। आविष्करणं (नपुं०) [आविस्+कृ+ ल्युट् ] प्रकटीकरण, दर्शन, अभिव्यक्त । आविष्कार : ( पुं० ) [ आविस्+कृ+घञ् ] अभिव्यक्ति, रचना, चित्रण, प्रस्तुतीकरण | आविष्ट (भू० क० कृ० ) [ आविश्क्त] प्रविष्ट, समाविष्ट, ग्रस्त वशीकृत, निमग्न, तल्लीन । आविस् ( अव्य० ) [ आ + अव् + इस्] प्रत्यक्ष भूत, आंखों के समक्ष, सम्मुख । आविश् (सक० ) [ आ + विश्] प्रविष्ट करना, आना। 'विशेष रसायितं मानसमाविवेश' (जयो० १/७४) मानसं हृदयं सरश्च आविवेश, प्राविशत्।' (जयो० वृ० १/७४) आवृत् (स्त्री० ) [ आ + वृत् + क्विप्] १. प्रविष्ट होती हुई, समाहित। २. पद्धति, रीति, मुड़ा हुआ। आवृत्त (भू० क० कृ० ) घिरा हुआ, मुड़ा हुआ। आवृत्ति (स्त्री०) [आवृत् वितन्] ० आना, ०लौटना, ०मुड़ना, १६८ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आशङ्कित ● प्रत्यावर्तन प्रतिनिवर्तन, एक जन्म से दूसरे जन्म को प्राप्त होना । + आवृष्टिः (स्त्री० ) [आ] वृष् क्तिन् वारिश, पानी गिरना । आव्रज् (सक०) जाना, प्रस्थान करना । आव्रजंतु (जयो० ४/१८, आव्रजति (जयो० २१/५) आव्रजत् आव्रजता । (सुद० १०४) आव्रजति-समागच्छति (जयो० ४/९७) आवेगः (पुं०) [आ+ विज्+घञ् ] क्षोभ, उत्तेजना, चिन्ता, बेचैनी, घबराहट आवेदनं (नपुं०) [आ+विद्+ णिच् + ल्युट् ] सूचना, निवेदन, वर्णन, अपना पक्ष प्रस्तुत करना । आवेल (अक० ) हिलना, कंपित होना, 'मरुदावेल्लिताग्राभिस्त्कानितिसमन्ततः । ' (जयो० ३/७४) आवेश: (पुं० ) [ आ + विश्+घञ्] १. प्रवेश, समाहित, घुसना, आना। २. एकाग्रता, अनुरक्ति । आवेल्कता (वि०) हिलती हुई, सञ्चलता। 'वायुनाऽऽवेल्लतां सञ्चलसां' (जयो० ३ / ११२) आवेल्लित (वि०) हिलती हुई, कंपित, लुलित (जयो० ३/७४) आवेशिक (वि०) अन्तर्हित, प्रविष्ट, समाहित आवेष्टकः (पुं०) [आवेष्ट् णिच्ण्वुल्] दीवार, आड़, बाह, मेरा परिधि आवेष्टनं (नपुं० ) | आवेष्ट् णिन् युट्] बांधना, लपेटना, ढकना, भेरनाः। आश (वि०) [ अश. अण्] खाने वाला, भोक्ता । आशंस् ( अक० ) प्रशंसा करना। (जयो० ६/ ) 'आकाङ् क्षणभाशंसा' (रा०वा० ७३७) आशंसनं (नपुं०) [आशंस ल्युद] ०अभिलाषा, वाच्छा आशा ०इच्छा ०अभिरुचि । अशंसा ( स्त्री०) ( आ-शंम्-अ] १. इच्छा, अभिलाषा, ० चाह वाञ्छा, आशा २. अभिकथन, अभिभाषण। आशंसा (स्त्री०) इच्छा, अभिलाषा आशंसन‌मा शंसा (तसि० · ७/३७) आशंसु (वि०) [आशंस्+उ] इच्छुक, आशावान्, अभिलाषी । आशङ्का (स्त्री०) [आ+शङ्क+अ] १. संदेह, संशय, शङ्का। २. भय, डर | आशङ्कित (वि०) [आ+शङ्क+क्त] भय युक्त, भीत, संदेहजन्य, शङ्काशीत, संशयपूर्ण । ( भक्ति ४१ ) For Private and Personal Use Only Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आशयः १६९ आशीविष १७) आशयः (पुं०) [आ+शी+अच्] १. स्थान, आश्रय, शयनशाला, आशासित (वि.) आश्चर्यचकित, आशाजन्य। (जयो० आसन। (सम्य० ११५, जयो०) 'बभौ समुद्रोऽत्त्यजडाश्यश्च' १६/७५) 'आशासितेति वदनोदलवैश्च शस्यैः' (जयोः (सुद० २/३०) २. अभिप्राय, हृदयगतभाव, इच्छा, मन, १६/७५) प्रयोजन, भाव। आशास्य (सम्बन्धः कृ०) [ आ+शास्+ण्यत्] आशा करके आशयज्ञ (वि०) ज्ञाना, जानकार। (वीरो० १४/३) सनाभयस्ते वाञ्छनीय, अभिलषणीय चाह/इच्छा करके। त्रय एव यज्ञानुष्ठायिनो वेद पदाऽऽशयज्ञाः। आशिञ्जित (वि०) मनोरम ध्वनि, झंकार, आभूषणों की आशरः (पुं०) [आ+श+अच्] १. अग्नि, बह्नि। २. असुर, रुन-झुन। राक्षस। ३. पवन, वायु। आशिका (स्त्री०) आशा, ०अभिलाषा, ०इच्छा, ०वाञ्छा आशवं (नपुं०) [आशोर्भाव:--अण] १. गति, आवेग, तीव्रता, ०चाह। शुभाशंसा, आर्शीवाद। (वीरो०८/३४) (मुनि० स्फूर्ति। २. शराब, अरिष्ट। आशा (स्त्री०) १. इच्छा, वाञ्छा, अभिलाषा। 'सम्भेदमापादर- आशिकाधारः (पुं०) आर्शीवाद दायक, आशीष जन्य। मुद्रणाशा' (जयो० ५/१०) 'आशाऽभिलाषा यस्याः सा' 'आशिकाधारभूतेभ्यः शालिवृत्तेभ्य उत्तमम्' (जयो० २८/३४) (जयो० वृ०५/१०१) २. दिशा, प्रदेश, दिग्भाग, 'बहुविभ्रम आशिकाधारभूतेभ्य:-आशीर्वाददायकेभ्यः, आशामात्रस्यापूरिताश्या' (जयो० १०/१४) आशा दिशतया। (जयो० धारेभ्यः। (जयो० वृ० २८/९४) वृ० १०/१४) २. सफलता, प्रत्याशा। नैराग्यमाशा मम आशित (वि०) [आ+अश्+क्त] भुंजित, खाया हुआ, भुक्त। सम्मुदे सः' (सुद० ११७) 'सुचिरक्षुधितजनाशा' (सुद० 'तिक्तायते यन्मरिचाशिनस्तु' (सुद० १११) ७४) १, लोभ, तृष्णा, लालच। 'आश्यति तनूकरोत्यात्मान- आशितङ्गवीन (वि०) चर्वित, चबाया हुआ। मित्याशा लोभ इति। 'अविद्यमानस्यार्थ- स्याशासनमाशेत्य- आशितंभव (वि०) [ आशित+भू-खच्] संतोष युक्त, तृप्त, परलोभपर्याय:' (जय०ध०) संतृप्त। आशाढः (पुं०) आशाढ। आशिर (वि०) [आ+अश्+इरच] भोजनाभिलाषी, आहारार्थी। आशातीत (वि०) पराकाष्ठा गत। (जयो० २२/६५) आशिरः (पुं०) १. तेज। अग्नि। २. सूर्य, दिवाकर, आदित्य। आशाधिकर्तृ (वि०) बेलाधिकारिणी, प्रतीक्षा करने वाली। ३. राक्षस। 'आशाधिकर्त-आशाधिको वेलाया अधिकारिण्यः' (जयो० आशिस् (स्त्री०) [आ+शास्+क्विप्-इत्वम्] आशीर्वाद, वृ० ३/६३) मंगलकामना, शुभ-भावना। शिवमाशिषि वर्तते च येषां आशाधुत (वि०) आशाओं से रहित, इच्छाओं से मुक्त, गुरवः श्रीपुरवर्तिनोऽपि शेषाः। (जयो० १२/८) विषयाभिलाषा से रहित। 'आत्मोपासितयै हिकेगु | आशी (स्त्री०) [आ+7+क्विप्] (आशीर्यते अनया) १. विषयेष्वाशाधुता साधुता' (मुनि० श्लोक २) शुभाशंसन, शुभाशीष, आर्शीवाद, शुभ-कामना, प्रार्थना, आशापाशः (नपुं०) तृष्णा का बंधन, लोभासक्ति, विषयाभिलाष चाह। २. दाढ ‘सा च कस्यात्मन आशी: शुभाशंसन का जाल। 'आशापाशविलासतो द्रुतमधिकर्तृ धनधाम। वर्तते।' (जयो० वृ० ३/३०) 'साशीर्वा व्यक्तमङ्गला' (जयो० २१/६१) 'आशा तृष्णैव पाशो बन्धन-रज्जुस्तस्य।' (जयो० ३/८४) 'याऽऽशी: शुभाशंसा' (जयो० वृ० ३/१०७) (जयो० वृ० २३/६१) आशीतिका (स्त्री०) प्रायश्चित्त निरूपिका, प्रायश्चित्त निरूपक। आशाम्बरः (पुं०) दिगम्बर, इच्छा एवं संग रहित साधु। यो आशीर्वादः (पुं०) आशीर्वचन, मंगलवचन, कल्याणकारी हताशः प्रशान्ताशस्तमाशाम्बरमूचिरे (उपासकाध्ययन ८६) भाव। (जयो० वृ० २७/२१) आशालकः (पुं०) आसन, स्थान। आशीर्वादसूचिनी (वि०) सम्वादकरी, 'सम्वादकरीराशीर्वादआशावती (वि०) आशिका, मङ्गलवाहिनी आशा करने वाली। सूचिनी:' (जयो० वृ० १२/९७) । (जयो० वृ० ३/८९) आशीविष (पुं०) एक ऋद्धि विशेष, जो दुश्चरण तप से आशासमन्वित (वि०) तृष्णा जन्य, इच्छा युक्त। (जयो० प्राप्त होती है, जो ऋद्धिधारकमुनि इसे प्राप्त करके 'मर जा' ऐसा कहने पर जीव सहसा मरण को प्राप्त हो जाता For Private and Personal Use Only Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आशीविषः आश्रममान् है। 'आविद्यमानस्यार्थस्य आशंसमाशी:, आशीविषं येषां ते आशेकुटिन् (पुं०) [आशेतेऽस्मिन् इति-आ+शी-विच् स इव आशीर्विषः।' (धव० ८५) ___ कुटति इति णिनि ] पर्वत, गिरि, पहाड़। आशीविषः (पुं०) दाढका विष. सर्प। 'आश्यो दंष्ट्रास्तासु विषं आशौचः (पुं०) सूतक नामा शुद्धि। (जयो० २८/३६) येषां ते आशीविषा:' वृश्चिकादयः। 'अहोममासिः प्रतिपक्ष- आशौच-परायण (वि०) १. सूतक नामक अशुद्धि से युक्त। नाशी किलाहिराशीविष आ: किमासीत्।' (सुद० १०८) २. शौचकर्मयुस्संतोषशीलस्सन्।' (जयो० वृ० २८/३६) आशु (वि०) [अश+उण्] शीघ्रता युक्त, वेगशील, त्वरित गतिवान्। आश्चर्य (वि०) [आ+ चर् + ण्यत् सुट्] अद्भुत, असाधारण, आशु (नपुं०) १. शीघ्र, जल्दी, सत्वर 'आशीहौ क्लीबं त विश्मय, चमत्कारजन्य, विलक्षण। (दयो० ६६) सत्वर' इति विश्वलोचनः।' (जयो० ९१८/१७) २. | आश्चर्य (नपुं०) अद्भुत, असाधारण, चमत्कार, कौतुक. अनायास-अथ धराभवमाशुरसातल' (जयो०१/९७) 'आशु कौतूहल। अनायासेन' (जयो० वृ० १/७७) आश्चर्यकर (वि०) [आश्चर्यं करोत्याश्चर्यकर:] आशु-पूर्णतया (वीरो० २/३४) आशु-शीघ्रमेव-(जयो० वृ० विस्मयोत्पादक , चमत्कार जन्य। ( ज या ० ४.६५) ८/७३) समुत्स्फुरद्विक्र- मयोरखण्डवृत्त्या तदाश्चर्यकर: आशुकारी (वि०) नाना प्रकार के धान्य। (वीरो० ४/१३) प्रचण्डः ।' (जयो० ८/७३) आशुकृत् (वि०) शीघ्रता करने वाली वेगशील, शीघ्रगामी, चुस्त। | आश्चर्य-चकित (वि०) विस्मित, चमत्कारित। (जयो० वृ० आशुग (वि०) वेगशाली, तीव्रताजन्य। १५/५) 'दृष्ट्वा च साश्चर्य चकितमानसस्तत्र' (दयो० आशुगः (पुं०) १. बाण 'आशुगो बाण स्तेन। कुसुमस्य आशुगो बाणो यस्य। (जयो वृ० ६/६६) २. पवन, वायु, 'आशुगेन, | आश्चर्यसमन्वित (वि०) विश्मय युक्त, कौतुक से परिपूर्ण, वायुना। ( वीरो० ४/१९) संतरति। (जयो० ० ६/६६) ३. अचम्भे से युक्त। 'सहसाश्चर्यसमन्वितोऽभवत्।' (समु० सूर्य, दिनकर। २/१९) आशुचित्व (वि०) शीघ्रवेदित्व, शीघ्रविचारक। (जयो० १९/४४) आश्चर्यस्थलं (नपुं०) अभिनय स्थान, आश्चर्य स्थान 'अभिनयं "स्विदाशुचित्वं च सदा शुचित्वम्।' (जयो० १९/४४) आश्चर्यस्थानम्' (जयो० वृ० ४/५) आ-शुचित्व (वि०) शुचिता सहित, पवित्रता जन्य। (जयो० आश्चर्यस्थानं (नपुं०) आश्चर्य स्थल, चमत्कार जन्य स्थान। वृ० १५/४४) (दयो० ८) 'न किञ्चिदपि किलाश्चर्यस्थानम्।' आशुतोष (वि०) शीघ्र संतुष्ट होने वाला. प्रसन्नताभाव जन्य। आश्चर्यान्वित (वि०) आश्चर्य समन्वित, विस्मययुक्त, आशुतोष: (पुं०) शिव, कल्याण। आश्चर्यचकित। (जयो० वृ० २२/७) आशुभावः (पुं०) १. शुभपरिणाम, २. शीघ्रपरिणाम। "रूपस्य आश्यान (भू० क० कृ०) [आ+श्यै क्त ] संलग्न, जमा हुआ। पश्य कथमद्य किलाशु भाव:।' 'आशु भाव : आश्रपणं (नपुं०) [आ+ श्रा+णिच्+ ल्युट] पकाना, उबालना। शीघ्रपरिणामोऽथवा व्रीहिभावः' (जयो० वृ० १८/१७) आश्रम् (नपुं०) अश्रु, आंसु। 'आशु/हिक्लीवे तु सत्वरे' इति विश्वलोचनः।' (जयो० आश्रमः (पुं०) आवासकक्ष, निवास स्थान, विद्या स्थान, वृ० १८/१७) ब्रह्मणादि स्थान। (जयो० वृ० ३।८१) * उत्तम आवास। आशुमतिः (स्त्री०) शीघ्रविचारकारी बुद्धि, तीव्रबुद्धि, तीक्षबुद्धि, आश्रमगुरु (नपुं०) विद्या गुरु, प्रशिक्षिक, आश्रम का अध्यापक। श्रेष्ठधी। (जयो० वृ० १३/८) 'स्मर आशुमतिश्चकार' आश्रमगृहं (नपुं०) विद्या स्थान। (जयो० १३.) आश्रमधर्मः (पुं०) विशिष्ट कर्त्तव्य। आशुमुखं (नपुं०) शीघ्रता जन्य। (जयो० १७/२८) आश्रमपदं (नपुं०) आश्रम स्थान, विद्या स्थान, पावनभूमि। आशुव्रीहिः (स्त्री०) आशुधान्य, शीघ्र पकने वाली धान्य।। आश्रमभित्तिः (स्त्री०) नृपप्रसाद कुञ्ज। (जयो० १०/१०) आशुशुक्षणिः (स्त्री०) [आ+शुष्+सन्+अनि] १. पवन, वायु, आश्रममण्डलं (नपुं०) तपोवन, तप स्थान, संयमभूमि, पावन क्षेत्र। हवा। २. अन्नि, वह्नि। 'स्वयमाशु पुनः प्रदक्षिणीकृत' आश्रममान् (वि०) आश्रमवाला, आश्रम के नियमों का पूर्ण आभ्याममधुनाशुशुक्षिणिः। (जयो.०१२/७५) पालन करने वाला। (जयो० २/११७) For Private and Personal Use Only Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आश्रम-स्थान १७१ आश्विनः आश्रम-स्थान (नपुं०) 'कोऽथ तत्र किमितीक्षक्षमो यत्न एव भविनां शुभाश्रम:।' (नयो० २।८५) 'शुभास्याश्रमः स्थान-- मस्ति।' (जयो० वृ०२/८५) २. जिनाश्रम- 'वर्णि-गेहिवनवासि-योगिनामाश्रमान् परिपठन्ति ते जिना:।' (जयो० २/११७) वर्णि ब्रह्मचर्य-आश्रम, गेहि-गृहस्थाश्रम्, वन वासि वानप्रस्थाश्रम और योगी-संन्यास-आश्रम। आश्रमवासिन् (पृ०) आश्रम निवासी। आश्रमिक (वि०) [आश्रम+ठन्] संयममार्ग से सम्बन्ध रखने वाला। आश्रमित (वि०) स्थित, बहरा हुआ। 'क्षणमिहाश्रमितोऽस्मि' (जयो० ५/६८) आश्रमित्व (वि०) आश्रम में रहने वाले १. अनिल ज्ञानमथाश्रमित्वम् (भक्ति०८) . आश्रय (सक०) १. प्राप्त करना, ग्रहण करना। 'चदाश्रयिष्यदास्वादियष्यता' (जयो० वृ० ११/५६) २. सेवन करना. आचरण करना। 'को नु नाश्रयति वा स्वतो हितम्।' (जयो० २/१८) ३. रहना, निवास करना- 'किं जीवनोपायमिश्रयामि प्राणाः पुनः सन्तु कुतो वतामो।' (दयो०२/५) आश्रय् (सक०) अनुकरण करना। सेवन करना। आश्रयेत्-सेवेत (जयो०२/४०) आश्रयः (पुं०) [आश्रि+अच्] अवलम्वन। १. निवास, घर, स्थान, आवास, मदना 'चम्पापुरी नाम जनाश्रयं तं' (सुद० १/२४) २.. विश्रामस्थल, शरणस्थान। ३. अधिकार, सम्बन्ध। (जनो० २/११०) आश्रयणं (नपुं०) [आश्रि ल्युट] युक्त प्राना (तीरा० ६/१६) (जयो०४/१८) संरक्षण प्राप्त, शामत आधारभूत। आश्रयत्व (वि०) आश्रयता, आधारभूत-शदेव गत्वा सुहृदाश्रयत्वम्। (जयो० ३/३७) आश्रयदानं (नपुं०) आधारभृत धन, मननीय धनः (दयो० ११२) आश्रयिन् (वि०) [आश्रय इनि] आश्रित, संबद्ध एक-दूसरे के आधीन रहने वाला। आश्रव (वि०) [आ+श्रुअच] आज्ञाकारी, प्रतिज्ञाबद्ध, नियम युक्त। 'आत्मविधानकथाश्रवः' (जयो० ॥७) आश्रित (भृ० क० कृ.) [आश्रि+क्त] अधिकृत। १. आधारभृत, अनुरत्त, आश्रय जन्या 'स पाशुपत्यं महदाश्रितोऽपि' (सुद० २/३) २. स्वीकृत 'आश्रितं स्वीकृत हदयतः।' मान लिया ( जया वृ० ४/२५) ३. युक्त-'श्रियाश्रितं सन्मतिमात्य युक्त्या ' (जया० १/१) आश्रितः (पुं०) अनुचर, भृत्य, सेवक। आश्रित कामः (पुं०) काम-वासनातुर, कामासक्त। (जयो० २३/६२) आश्रितिः (स्त्री०) अवलम्बन, आश्रय, आधार, स्थान। (जयोल ९/९) 'निपतते हततेजस. आश्रितिः।' (जयो० ९/८) आश्रित्य (संकृ०) अवलम्बन करके, आधार बनाकर। (जयो० वृ० १/२२) आश्रुत (भू० क० कृ०) [आ+श्रु+क्त] १. स्वीकृत अंगीकृत, मान्य, प्राप्त, प्रतिज्ञात, सहमत। २. सुना हुआ। आश्रुत-चारुवारि (नपुं०) स्नेहसूचक जल, नेत्रजल, अश्रुप्रवाह, आंखों में आंसुओं का क्रम। (जयो० १३/१७) आश्लिष्ट (वि०) आलिंगित। (सुद० ८५) सुदर्शन भुजाश्लिष्टा। आश्लिष्टवती (वि०) लिपटी हुई, आलिंगित। 'पादमाश्लिष्टवतो वल्ली' (जयो० १४/१७) आश्रुतिः (स्त्री०) [आ+श्रु+क्तिन्] १. सुनना, २. अंगीकृत, स्वीकृत। आलेण (स्त्री०) एक नक्षत्र। आश्लेषः (पुं०) [आ+श्लिष्+घञ्] १. आलिंगन, मिलन, ___ एक दूसरे के गले मिलना। (सुद० ३/३८) अहो किलाश्लेषि मनोरमायाम। २. संपर्क, सम्बन्ध। आश्लेषि (वि०) समालिंगित। (जयो० १७/३६) आश्व (वि०) [अश्व+अण] घोड़े से सम्बंधित। आश्वभू (स्त्री०) अनुभाग। (वीरो० २२/८) आश्वयुज (वि०) [अश्वयुज्+अण्] आश्विन मास से सम्बंधित। आश्वसित (वि०) आश्वासन युक्त, प्रोत्साहन जन्य। (जयो० वृ० २६/२४) आश्वासः (पुं०) [आ+श्वस्+घञ्] १. सांस लेना, २. प्रोत्साहन, ३. अनुच्छेद, अनुभाग, गद्य पुस्तक का एक अंश। आश्वासनं (नपुं०) [आश्वस् णिच् ल्युट्] १. प्रोत्साहन। (वीरो० १९/४०) २. समाश्वास, उत्साहित करना। (जयो० वृ० २६/२४) आश्वासनावस्था (स्त्री०) आशा, इच्छा, अभिलाषा, वाञ्छा। (जयो० वृ० २३/६५) आश्वित (वि०) आशीर्वाद युक्त, प्रोत्साहन युक्त। _ 'किलांशिकवाश्विति तेन मुक्ता।' (सुद० २/२०) आश्विनः (पुं०) [अश्+विनि ततः अण] आश्विनमास। 'तमाश्विनं मेघहरं' (सुद० ४/१४) श्रितस्तदाऽधियोऽपि दासांवृषभस्य सम्पदाम्। मयूरमन्मौनपदाय भन्दतां जगाम दृष्ट्वा जगतोऽप्यकन्दताम्। For Private and Personal Use Only Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आश्विनकृष्ण पक्षः १७२ आसादनं आश्विनकृष्ण पक्षः (पुं०) पूजित श्राद्धपक्ष। (जयो० ४/६४) आश्विनमासः (पुं०) शरदकाल का प्रारंभिक महिना। (जयो० वृ० ४/६५) आश्विनसमयः (पुं०) आश्विन मास का अवसर। (जयो० १२/१३९) आश्विनेयः (पुं०) अश्विनीकुमार 'आश्विनेयोऽद्वितीयत्वान्ने द्रोऽवृद्धश्रवस्त्वतः। (दयो०६८) आर्षवर्मन् (पुं०) आर्षमार्ग। (जयो० २/१०८) आषाढः (पुं०) १. आषाढमास। (वीरो० ४/२) २. विजयार्ध की दक्षिणा श्रेणी का एक नगर, विद्याधर नगर। आषाढमासः (पुं०) आषाढ महिना। (वीरो० ४/२) आषढीगुरुपूर्णिमा (स्त्री०) (वीरो० १३/३४) आस् आ: (अव्य०) प्रत्यास्मरण, पुनः पुनः स्मरण। आस् (अक०) बैठना, रहना, स्थित होना, ठहरना, स्थान लेना, रखना, परिणत होना। 'आस्तां मद् विषये देवि' (सुद० ८५) 'अस्याः क आस्तां प्रिय एवमर्थः।' (सुद० २/२२) आसः (पुं०) [आस्+घञ्] आसन, स्थान, आसक (अव्यक्त) इस तरह, इस प्रकार। आसकि (अव्य०) इस प्रकार, इस तरह। यह प्रयोग 'प्रत्यास्मरण' अर्थ में प्रयुक्त हुआ। अङ्गाभिधानः समयः समस्ति यस्यासको पुण्यमयी प्रशस्ति। (सुद० १/१५) आसक्त (भू० क० कृ०) [आ+सञ्+क्त] १. अनुरक्त, । संलग्न, तत्पर, उद्यत, जुटा हुआ, लगा हुआ, 'आसक्त-संलग्नम्। (जयो०६/१०८) २. स्थिर, शाश्वत, रहने वाला- 'दर्पासक्तमना:।' (जयो० वृ०६/१०८) ३. नपुंसकता का एक लक्षण) आसक्तचित्तं (नपुं०) अनुरक्त मना। 'आसक्तं संलग्नं मनो यस्य सः' (जयो० वृ० ६/१०८) त्वय्याऽऽसतमना नरेश' (सुद० ९८) आसक्तिः (स्त्री०) [आ+ सञ्+क्तिन्] अनुरक्ति, अनुराग, अभिलाषा, वाञ्छा। १. भक्ति, गुणानुराग। आसङ्गः (पुं०) अनुराग, आसक्ति, अनुरक्ति, भक्ति, सम्पर्क, बन्धन। आसङ्गिनी (स्त्री०) [आसङ्ग इनिङीप्] १. अनुरक्त भाव वाली, २. चक्रवात, वर्तुलाकार पवन, बबूला। आसञ्जनं (नपुं०) [आ+सञ्ज ल्युट्] १. मेल, आसक्ति, अनुराग। २. बांधना, मिलाना, चिपकाना। आसतिः (स्त्री०) दुराचारिणी (सुद०) आसत्ति (स्त्री०) [आ+सद् क्तिन्] १. संयोग, मिलन, बन्धन। ३. लाभ, उपलब्धि, उपार्जन। आसन् (नपुं०) मुख, मुंह, बदन। आसनं (नपुं०) १. स्थान, बैठक, डाभ/दर्भ, आसिका (जयो० ३ (वीरो० ४/३१) कुशासन। २. ध्यान की प्रक्रिया, पद्मासन पर्यंकासन, कायोत्सर्गासन। अर्धपर्यंकासन, वज्र, वीर, मुख, कमल। 'भास्वानासनमायाद्याथो-दयाद्रिमिवोन्नतम्। (सुद० ७८) २. शय्या, बैठने या शयन करने का स्थान। (जयो० वृ० १/७९) ३. अवस्थान। आसनक्रिया (स्त्री०) आसन उपयोग। आसना (स्त्री०) चटाई, शय्या, सहारा, आश्रय स्थान। आसानाख्यानं (नपुं०) आसनाभिधान, १ आसन नामक वन अथासनाख्यान-वनेकृतिस्थिति, निषेव्य भद्रोवरधर्मकं यतिम्। (समु० ४/६) आसन्दी (स्त्री०) [आसद्यतेऽस्याम् आ सद्-ट] तकिया, आराम । कुर्सी, टेकने की तकिया। आसन्न (वि०) दुषित चरित्र वाले। 'संयतसाद् यो हीन:' (भ० आ० टी० २५) आसमन्नतात् -चारों ओर से (जयो० ४/६) आसन्नकालः (पुं०) मृत्यु की निकटता का समय। आसन्नतात्र (वि०) निकटता। (वीरो०२०/२०) आसन्नपरिचायकः (पुं०) सेवक, निकटस्थ, रक्षक। आसन्नभव्यता (वि०) निकट भव्यता, रत्नत्रय विषयक योग्यता। आसन्नमरणं (नपुं०) दृषित मरण, चारित्रविमुखमरण। आसम्बाध (वि०) [आसमन्तात् सम्बाधा यत्र) रोका गया, अवरुद्ध किया। आसवः (पुं०) [आ+सु+अण] अर्क, काढ़ा. मद्य, शराब। 'अधोऽथ पीतासव-सुन्दरेभ्यः' (जयो० १६/३७) 'अथासव पानान्तरं पीतेनास्वादितेन तेनासवेन द्राक्षादिसमुत्थेन मद्येन।' (जयो० वृ० १६/३७) मद्य-'आसवं मद्यं प्रसन्नतयाश्नुते' (जयो० २५/६५) 'ययुर्यदा यान्ति ममासवो ननु जनुष्मता सन्ध्रियते मुहस्तनुः।' (दयो० ३९) 'दयोदय की उक्त पंक्ति में 'आमव' का अर्थ 'प्राण' भी है। आसादनं (नपुं०) [आ+सद्+णिच्+ ल्युट] १. प्राप्त करना, ग्रहण करना, उपलब्ध करना। २. वेदन, रोकना, निरोधा ३. द्वितीय गुणस्थान का नाम 'वाक्काभ्यां ज्ञानवर्जन For Private and Personal Use Only Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आसाद्य १७३ आस्था मासादनम्।' (त० वा० ६/१०) 'आयं सादयतीति आसादनम्' | आसेधः (पुं०) [आ+ सिध्+घञ्] प्रतिबन्ध, रोक, बन्धन। (जैन०लः २२०) आसेव (अक०) विपरीत आराधना करना। (वीरो० २२/३६) आसाद्य (सं०कृ०) प्राप्तकर, ग्रहणकर। (सुद०३/१०, २/२८) आसेवनं (नपुं०) १. असंयम का सेवन, विपरीत आराधना, आसाम्परायः (पुं०) कषाय अवस्था तक। आसाम्पराय कुशील भावना। 'आसेवना संयमस्य विपरीताराधना तया सदृशोप्यबोधसंचेतनेत्यर्हदधीतिबोधः (सम्य० ११७) १. कुशील आसेवनाकुशी:।' २. क्रियाशीलता, अभ्यास जन्य अपगत, प्राप्त, निकट, सन्निहित। प्रवृत्ति, सतत् अभ्यास। आसारः (पुं०) [आ+स+घञ्] १. अत्यधिक वर्षा, धारावाहिक | आसेवना (स्त्री०) विपरीत आराधना। वृष्टि। १. आक्रमण, धावा, आघात। २. प्रसार-प्रसरण आसेवित (वि०) पूजित, सेवा जन्य। (भक्ति० २२) समूह, पंक्ति-(जयो० ३/७६, ६/५१)। 'कर्बुरासारसम्भूतं आस्कन्दः (पुं०) [आ+स्कन्द्+घञ्] १. आक्रमण, धावा, पद्मरागगुणान्वितम्।' (जयो० ३/७६) 'आसारस्तु प्रसरणे आघात। २. चढ़ना, आरोहण करना। ३. दुर्वचन, निन्दा। धारावृष्टौ सुहृदयबले' इति विश्वलोचनः। (जयो० ६/२१) आस्कन्दन (नपुं०) [आ+स्कन्द्+ल्युट] १. आक्रमण, धावा, आसिक (वि०) [असि ठक्] असिधारी, तलवार युक्त, आघात। २. आरोहण, चढ़ना, सवारी करना। खङ्गधारी। आस्कंदित (वि०) आरोहित, चढ़ा हुआ, सवारी जन्य। आसिका (स्त्री०) आसन। (जयो० ३/२२) आस्तरः (पुं०) [आ+स्तृ+अप्] १. चादर, २. दरी, ओढ़ने का आसिधारं (नपुं०) [असिधारां इव अस्यत्र अण] असिधाराव्रत, वस्त्र। ३. विस्तरण, प्रसरण, फैलाव। कठिन व्रत, दृढ़ नियम। आस्तरणं (नपुं०) १. झूल, हस्तिकुथ। पथि सादिवरः कृतेक्षण: आसी (स्त्री०) आशीष, आशीर्वाद। 'उत्तमाङ्ग सुवंशस्य हस्तिपोष, हाथी की जीन, हस्ति पर लटकती हुई झूल। यदासीद्दपिपादयो:।' (सुद० ४/४) कृतवानास्तरणं तु वारणे।' (जयो० १३/४) २. बिछावन, आसीविषः (पुं०) दंत विष, दाढ विष, भुजंगविष। 'आस्यो दरी, साज, सामान। 'आस्तरणं संस्तरोपक्रमणम्' दंष्ट्रास्तास विप येषां ते आसीविष:।' (जैन ल०२२०) (सा०ध०५/४०) 'णमो आसीविसाणं. इदं चिद्वेषनाशनार्थम्।' (जयो० ७० आस्तारः (पुं०) [आ+ स्तृ+घञ्] बिछाना, फैलाना, प्रसारण। १९/१७) जो विद्वेष को दूर करने वाला है वह 'आसीविष' आस्तिक (वि०) ईश्वर या पूर्वजों पर विश्वास नहीं करने कहलाता है। वाले। (जयो० वृ० ४/६४) आसुतिः (स्त्री०) [आ+सु+क्तिन्] अर्क, काढा, रस, निचोढ़। आस्तिकजनः (पुं०) पूर्वज, पितर लोग। 'आश्विनकृष्णपक्षे आसुरः (पुं०) राक्षस। पूर्वजानां प्रीत्यर्थमास्तिकजनैः श्राद्धानि विधीयन्ते' (जयो० आसुर (वि०) असुर से सम्बन्ध रखने वाला, राक्षसी, अमानवीय। ४/६४) * श्रद्धाशील व्यक्ति। आसुर-विवाहः (पुं०) वर से द्रव्य लेकर कन्या का विवाह आस्तिकता (वि०) विश्वास करने वाला, श्रद्धास्पद जन्य। ___ अमानवीय विवाह। आस्तिक्य (वि०) आस्तिक्य बुद्धि विशेष। ईश्वर-परलोका दौ आसुरिकी (वि०) प्राणि पीड़न की दृष्टि रखने वाला, दया विश्वासः। (जयो० वृ० २/७४) जीवादि पदार्थ यथायोग्य रहित भावना वाला। अपने स्वभाव से संयुक्त हैं, इस प्रकार की बुद्धि। आसुरी (स्त्री०) शल्यचिकित्सा। 'जीवादयोऽर्था यथास्वं भावैः सन्तीति मतिरास्तिक्यम्।' आसूचन (नपुं०) विशेष सूचना। (त० वा० १/२) आसूत्रं (नपुं०) १. सूत्र पर्यन्त, आगम विषय पर्यन्त। २. सूत्र युक्त। | आस्था (स्त्री०) [आ+स्था+अङ्] श्रद्धा, पूजा, आदर, सम्मान। आसूत्रिक (वि०) [आ सूत्र+ क्त] सूत्रधारक। 'सोमे सुदर्शने काऽऽस्था समुदासीनतामये' (सुद० ८७) आसेकः (पुं०) [आ सिच्+घञ्] खींचना, 'डालना, ऊपर 'त्वमिमां शेचनीयास्थामाप्तो नैष्ठुर्ययोगतः।' (सुद० १३४) फेंकना। नवें सर्ग की उक्त पंक्ति में 'आस्था' का अर्थ 'अवस्था' आसेचनं (नपुं०) [आ+सिप्ल्यु ट] सिंचन करना, छिड़कना, है। २. आशा, दशा, अवस्था, परिणति भाव। आस्थातुमबिखेरना, सींचना। निवस्तुम्। स्थान पाने के लिए For Private and Personal Use Only Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra आस्थानं www.kobatirth.org आस्थानं (नपुं० ) [आ+स्था+ ल्युट् ] स्थान, जगह, डेरा, तम्बू, आलप (वीरो० १५/३९) आधार, आश्रय, ठहरने का स्थान, विश्रामस्थल, (जयो० १३ / १६ ) आस्थानशालिनी (वि०) निवेश युक्त (८/१६) आस्थित (भू० क० कृ० ) निवसित, स्थित, रहने वाला । आस्थिति (स्त्री०) योग क्षेम, अप्राप्त की प्राप्ति । आस्पदं (नपुं०) स्थान, निवास, डेरा, आवास, स्थान। १. आसन, मदास्पदोऽसावधुनोदियाय' (जयो० १६ / ४० ) २. मर्यादा, उचित पद, विशेष आश्रय । आस्पन्दनं (नपुं० ) [ आ स्पन्द्• ल्युट् ] कांपना, धड़कना, हिलना। आस्पर्धा (स्त्री०) प्रतिद्वंद्विता, टक्कर समान द्वंद्विता, परस्पर समान भिड़ंत । + आस्फाल: (पुं० ) [ आ + स्फल् + णिच्+अच्] १. स्खलिन्, टूटना, गिरना। २. मारना आस्फालनं (नपुं०) [आ+स्फल् + णिच् + ल्युट् ] हिलना, टूटना, गिरना, नष्ट होना, फड़फड़ाना, घर्षण करना, रगड़ना । आस्फोट: (पुं०) (आ+स्फुट्+अच्] १. आक वृक्ष, मदार वृक्ष। २. ताल पीटना । आस्फोटन (नर्पु० ) [आस्युष्ट्-ल्युट् ] आस्फालन, फड़फड़ाना, फटकना, उड़ाना, फुलाना, शब्द करना। 'स्वीय बाहुबलगर्विता भुजास्फोटनेन परिवर्तितस्वजाः।' (जयो० ७/९३) आस्माक (वि० ) [ अस्मद् +अण्] हमारा, हम सभी का । आस्माकी (स्त्री०) हमारी, हम सब की । आस्माकीन् (वि०) हमारा सभी का । १७४ आस्यं (नपुं० ) [ अस्ण्वत् ] मुंह, जबड़ा चेहरा बदन आस्यन्दनं (नपुं० ) [आ+स्यन्द्+ ल्युट् ] बहना, झरना, टपकना, रिसना आस्यन्धय (वि०) [आस्यं धयति] मुख चुम्बन करने वाला। आस्यविषः (पुं०) आसीविष, उत्कृष्ट ऋद्धि या तप बल से प्राप्त बल, जिसमे कहने से व्यक्ति मरण को प्राप्त हो जाता है। 'प्रकृष्ट- तपोबला यतयो यं ब्रवते मियस्वेति स तत्क्षण एवं महाविषपरीतो म्रियते ते आस्याविषाः' (To वा० ३/३६) आस्या (स्त्री०) [आस्+क्यप्] आसना। आस्रवः (पुं० ) [ आ + सु + अप्] १. बहाव, आना, बहना, टपकना। २. दुःख, पीड़ा, कष्ट, व्याधि ३. अपराध, आक्रमण। ४. मन, वचन और काय की क्रिया का योग । 'काय वाङ्मनः कर्मयोग' (१० सू० ६/९) । ५. नवीन कर्मों के आगमन का रास्ता । (त० सू० ६) आस्र - १. Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आहार: कषायसहित और २ अकपाय रहित आस्रवन्ति समागच्छन्ति संसारिणां जीवानां कर्माणि यैः येम्यो वा ते आम्रवा रागादयः' (सिद्धिविनश्चयः पृ० २५६) आस्रवति अनेन आस्रवणमात्रं वा आस्रवः' (त० वा० १/४) आस्रवनिरोधः (पुं०) कर्मागम के कारणों का अप्रादुर्भाव आस्रव-भावना (स्त्री०) आर्त- रौद्र परिणाम रूप भावना । आम्रवानुप्रेक्षा (स्त्री०) दोषानुचिन्तन (स० सि० ९/७ ) आस्राव (पुं०) [आ+सुधञ्] १. घाव, छिद्र २. बहना, झरना, टपकना। आस्वादः (पुं० ) [आ+स्वद्+घञ्] चखना, चबाना । (दयो० १/४ ) आस्वादु (वि०) चखने योग्य। (वीरो० २२/३४) आस्वाद्य (पुं०कु० ) [आस्वद् क्यप्] आस्वादन करके, चख करके (दयो० १/४) (जयो० ९/१७) आस्वादन (नपुं०) चखना, खाना, (जयो० ३/६१) मिष्टं सितास्वादन आस्यमस्तु' (सुद० १११ ) आश्वादनार्थ (वि०) चखने योग्य ( चीरों० २ / १३) आश्वासित (वि०) रसित, स्वाद युक्त। आश्वासित (भू० क० कृ०) चखा, आस्वादन किया। 'सा यावद्रसिताऽऽरवादिता श्रुता" (जयो० वृ० ३/२९) आह (अव्य०) (आ+हन्+इ] १. कठोरता, कर्कशता, २. आजा, कहना, निर्देश करना 'आदिराज इदमाह' (जया० ४ / १) आहत (भू० क० कृ०) [आन्क्त] १. घायल पीड़ित, दु:खित ताडित (जयो० २/१४१) २. पीटा गया, रौंदा गया, विक्षिप्त किया गया। + " आहतिः (स्त्री० ) [ आ + न् + क्तिन्] १. घात, प्रहार, हनन, दुःख, पीड़ा। २. हत्या करना, मारना पीटना । आहर (वि०) [आहअच्] ग्रहण करने वाला पकड़ने वाला, ले जाने वाला । For Private and Personal Use Only आहरणं (नपुं०) [आ+ह+ ल्युट् ] १. ग्रहण करना, पकड़ना। २. दृष्टान्त - साध्य-साधन के अन्वयव्यतिरेक के दिखलाने का साधन । २. निकालना, दूर हटाना। ३. आभूषण, आभरण। आहरत्व (वि०) आहरण करने वाला (जयो० २/१०८) आहव: (पुं०) [आ+ह्न+अप्] युद्ध, संग्राम, लड़ाई, ललकार. चुनौती, चेतावनी आह्वानं (नपुं० ) [आ+हु+ ल्युट् ] आहूति, निक्षेपण | आनीय (सं०कृ०) आहूति देने योग्य। आहार (पुं०) [आह+घञ्] लाना, ले जाना, निकट आना, समीप जाना। Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra आहार: www.kobatirth.org आहार : ( पुं०) भोजन, भूख शान्ति का उपाय । आहार : ( पुं०) शरीर क्रिया, औदारिक, पारिणामिकादि तीन शरीर और छह पर्याप्तियों के योग्य पुद्गलों के ग्रहण करने को 'आहार' कहते हैं। १. जिसके आश्रय से श्रमण सूक्ष्म तत्त्वों को आत्मसात् करता है। 'शरीर प्रायोग्य- - पुद्गल-1 -पिण्ड-ग्रहण माहारः । (धव० ७/पृ० ७) शरीर रचना, संक्लेश रहित शरीर । आहारकं (नपुं०) सूक्ष्म पदार्थों के निर्धारण के लिए जो शरीर रचा जाता है। 'प्रमत्तसंयतेनाहिते निर्वर्त्यते तदित्याहरकम्' (स० सि० २३/३६) शुभं विशुद्धमव्याघाति चाहारकम् । (त० सू० २ / ४९ ) आहारक - जीव: (पुं०) आहार को ग्रहण करने वाला जीव । आहारक-बन्धनं (नपुं०) आहारक शरीर के योग्य सम्बन्ध । आहारक-योगः (पुं०) तत्त्व विषयक योग, संदेह के निर्णय हेतु योग । आहारपर्याप्तिः (पुं०) आहार वर्गणा को परिणमन कराने वाली शक्ति आहारय् (अक० ) भोजन करना, आहार लेना। (मुनि० ३) आहारशरीर (नपुं०) नौकर्म प्रदेश समूह | आहारसंज्ञा (स्त्री०) आहार की अभिलाषा ( भक्ति० ४७) 'आहाराभिलाष आहारसंज्ञा आहारसंज्ञाऽऽपि किलोपवासे (भक्ति० ४७) आहारे या तृष्णा काङ्क्षा सा आहार संज्ञा' (व० २/४१४) आहारसंपदा (वि०) आहार सामग्री, भोजन सामग्री (जयो० २२/४९) आहार्य (सं०कु० ) [आ.ह. ण्यत्] १. ग्रहण करने योग्य, पकड़ने योग। २. नैमित्तिक, कृत्रिम । आहाव: (पुं० ) [ आ + ह्वे+घञ्] १. कुंड, नाद, जो पशुओं के पानी पिलाने के लिए बनाई जाती है। २. संग्राम, युद्ध । ३. आह्वान निमन्त्रण। 6 + आहिण्डिक (०) [आहिण्ड ठक्] परिभ्रमण । आहित (भू० क० कृ० ) [आ+घा+क्त] १. आसक्त, प्राप्त, स्थापित निरूपित (जयो० ४५) २. सम्पन्न किया, अनुभूत आहितुण्डिकः (पुं० ) [ अहितुण्डेन दीव्यति ठक् ] बाजीगर, ऐन्द्रजालिक जागूदर सपेरा आहुति: (स्त्री०) [आ+हु+क्तिन्] पूजासामग्री निक्षेपण, देव समीप पुण्य एवं पूज्य भाव व्यक्त करना। आहुति: (स्त्री० ) [ आ + + क्तिन्] आह्वान, आमन्त्रण। आहेतु (वि०) प्रयोजन सहित । , १७५ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आहो (अव्य०) संदेह, विकल्प प्रायः आत्मप्रशंसा । आनं (नपुं० ) [ अह्नां समूहः -अञ्] बहुत दिवस दिवस ओघ । " इ • आह्निक ( वि०) दैनिक प्रतिदिन का किया गया कार्य, धार्मिक दिवस रूप कार्य । For Private and Personal Use Only अल: (पुं०) सुन्दर, उचित, ठीक। (जयो० १ / ६१ ) आह्लादः (पुं०) [आ + हलाद् + ल्युट् ] हर्ष, प्रसन्नता, खुशी, आनन्द | 'आह्लाद - मधुरताभ्यामनुगृहीतो द्वितीय' (दयो० ५५) आह्लाद - कारिन् (वि० ) प्रसन्नता देने वाला। 'अप्रमादितया पूर्णचन्द्रस्याह्लादकारिणः' (समु० ४/३९) आह्लाद कारिणी (वि०) प्रसत्ति - विधायिनी, आनन्दायिनी, हर्षप्रदात्री (जयो० ३/४१) प्रसन्न करने वाली 'अधासी चन्द्रलेखेव जगादाह्लादकारिणी (जयो० ३/४१ ) आह्लादित (वि०) हर्षित, आनंदित, प्रफुल्लित, हर्ष जन्य (जयो० ० १/१० ) आह्लादित चित्तं (नपुं०) हर्षितमानस | आह्न (वि०) [आहे ] बुलाने वाला आह्वय आहे) बुलाना, आमन्त्रण देना। शृङ्गोपात्त-पताकाभिराह्वयन् स्फुटमङ्गिनः । (जयो० ३ / ७४ ) आह्वयत्- आमन्त्रयदिति' (जयो० वृ० ३/७४) स्त्रैणं तृणं तुल्यमुपाश्रयन्तः शत्रुं तथा मित्रतयाऽऽह्वयन्तः' (सुद० ११८ ) आयनं (नपुं० [आ+हे+णिच् + ल्युट्] १. नाम अभिधान २. आमन्त्रण। आह्वानं (नपुं०) [आ+हे+ ल्युट् ] आमन्त्रण निमन्त्रण, प्रसत्ति (जयो० वृ० ५ / ११) आह्वाननं (नपुं०) आमन्त्रण, निमन्त्रण (जयो० २४/१२१ ) आह्वाय: (पुं० ) [आ+ह्न+घञ्] बुलाना, आमन्त्रण करना। आह्वायक: (पुं० ) [ आ + + ण्वुल्] दूत, संदेशवाहक । 9 इ इ (पुं०) वर्णमाला का तीसरा स्वर है। इसका उच्चारण स्थान तालु है तथा प्रयत्न विवृत है। इ (अव्य०) १. वाक्य की शोभा हेतु इसका प्रयोग किया जाता है, इसके विविध अर्थ हैं तथा, और या, किन्तु परन्तु आदि । २. क्रोध, सन्तापादि के रूप में भी इसका प्रयोग होता है। Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १७६ इच्छाफलं इ (सक०) जाना, गमन करना, पहुंचना, प्राप्त होना, चलना। इः (पुं०) [अइञ्] कामदेव, मदन। इ एव इक: कामः खेदो वा न विद्यते यस्य स नेकस्तस्य सम्बोधनम्। (वीरो० १/५) 'इ' का अर्थ काम एवं खेद भी है। इक्षुः (पुं०) [इष्यतेऽसौ माधुर्यात्-इष्+क्सु] पौण्ड्, गन्ना, ईख(जयो० २१/४६) इक्षुकः (पुं०) गन्ना, ईख। इक्षुकाण्डः (पुं०) ईख खण्ड, ईख की जाति। (जयो० १३/१०८) इक्षुकीया (स्त्री०) [इक्षुक छस्त्रियां टाप्] गन्ने की क्यारी। इक्षुकुट्टक (वि०) ईख एकत्रित करने वाला। इक्षुदीक्षा (स्त्री०) आत्मलाभ। इक्षो पौण्ड्रस्य या दीक्षा (जयो० २४/४२) इक्षुधनुधरः (पुं०) कामदेवा (सुद० ११/४७) इक्षुपाकः (पुं०) शर्करा, शक्कर, गुड़, शीरा, सव। इक्षभक्षिका (स्त्री०) शर्करा युक्त भोज्य पदार्थ। इक्षुमालिनी (स्त्री०) एक नदी। इक्षुमेहः (पु०) मधुमेह, मधुरोग, शर्करा रोग। इक्षुयन्त्रः (पुं०) कोल्हू, इक्षु रस निकालने का साधन। इक्षयष्टि: (स्त्री०) पौण्ङ्गविटपिन। (जयो० ३/३९) इक्षुरः (पुं०) गन्ना, ईख। इक्षुरस: (पुं०) इक्षुईख/गन्ने का रस। इक्षुवमं (नपुं०) गन्ने का खेत। इङ्गवशी (वि०) चेष्टा जन्य। 'कामोऽपि नामास्तु यदिङ्गवश्यः' (सुद० २४४) इक्षुवाटः (पुं०) गन्ने का खेत। इक्षुवाटिका (स्त्री०) गन्ने का खेत। इक्षुविकारः (पुं०) गन्ने से बना गुड़, शर्करा, शक्कर, राव। इक्षुसारः (पुं०) शर्करा, शक्कर, गुड़, राव, शीरा। इक्ष्वाकुः (पुं०) इक्षुम् इच्छाम, आकरोति इति इक्षु+आ+कृ+डु। १. सूर्यवंशी राजाओं का वंश। २. कर्मभूमि के प्रारम्भ में आदिब्रा आदिनाथ, प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव ने सर्वप्रथम इक्षुरस के संग्रह का उपदेश दिया था, अतएव उन्हें इक्ष्वाकु कहा गया। इक्ष्वाकु-कुल (नपुं०) कथमिक्ष्वाकुकुलाद्भा वयम्। (समु० २/२७) इक्ष्वाकुवंशिन् (वि०) इक्ष्वाकुवंश वाला। इक्ष्वाकुवंशिपद्मस्य पत्नी धनवती च या। मौर्यस्य चन्द्रगुप्तस्य सुषमाऽऽसीदथाऽऽहती। (वीरो० १५/३३) इख, इंङ्घ (अक०) १. हिलना, कांपना। २. क्षुब्ध होना, दु:खी होना। इङ्ग (वि०) [इङ्गग क] कांपने योग्य, हिलने योग्य। इङ्गगः (पुं०) संकेत. इशारा। इङ्गनं (नपुं०) [इङ्गग्ल्यु ट] कांपना, हिलना। इङ्गालः (पुं०) अंगार। इंगाल सरागप्रशंसनम्। इङ्गित (वि०) [इङग् क्त] १. कांपना, हिलना, धड़कना, चलायमान। २. व्याकुलित, दु:खित। 'निर्वारि- मीनमितमिङ्गितमभ्युपेता' (सुद० ८६) ३. चेष्टा-दीयतां हीङ्गितं स्व-पर-शर्मणे सताम्। ४. संकेतित- कुलान्येतदाचरणमिङ्गित बलात्। (जयो० २।८) संज्ञासंकेत-'इङ्गितेषु विफलीकृतो युवान्ते' (जयो० १२/३२) 'इङ्गितेषु संज्ञासङ्कतादिना'-जयो० वृ० १२/१३२) शारीरिक संकेत-प्रवृत्ति-निवृत्ति! जन्य सूचना, इशारा। इङ्गिनी (स्त्री०) १. अभिप्राय का संकेत। (वीरो० २१/२४) 'इङ्गिनीशब्देन इङ्गितमात्मनो भण्यते।' (भ० आ० टी० २९) २. आगम कथित एक क्रिया विशेष, आयु के अन्त में क्रमश: ध्यान की ओर प्रवृत्ति। इङ्गिनी-अनशनं (नपुं०) चारों प्रकार के आहार का परित्याग इङ्गिनीमरणं (नपु०) स्वयं परिचर्या करते हुए मरण। 'स्वाभिप्रायानुसारेण स्थित्वा प्रवर्त्यमानं मरणं इङ्गिनीमरणम्' (भ० आ० टी० २१) इङ्गदः (पुं०) औषधि वृक्षा इच्छा (स्त्री०) [इप्+श+टाप्] १. इच्छा, अभिलाषा, चाह, वाञ्छा, तृष्णा, आसक्तिा विषयीकृत अभिलाषा। (जयो० १/२) कृतापराधाविव बद्धहस्तौ जगद्धितेच्छोद्रुर्तमग्रतस्तौ' (सुद० २/२६) जगत् के प्राणिमात्र का हित चाहने वाले। 'यदृच्छयाऽनुयुक्तापि न जातु फलिता नरि।' (सुद० २/६३) २. लोभ कषाय का नामान्तर नाम 'एषणं इच्छा' (ज० धव० ७७७) इच्छाकारः (पुं०) शुभ परिणाम प्रवर्तन। 'इच्छाकारोऽभ्युपगमो हर्षः स्वेच्छया प्रवर्तनम्।' (मूल०४/६५) 'एषणं इच्छा, करणं-कारः। इच्छाज्ञानं (नपुं०) रूचि वेदन। (वीरो० ५/३४) इच्छानिरोधः (पुं०) वाञ्छा रहित होना। 'इच्छानिरोधमेवातः कुर्वन्ति यतिनायकाः।' (सुद० १२६) इच्छानुलोम-वाक् (नपुं०) इच्छानुरूप वचन प्रयोग। इच्छाफलं (नपुं०) समस्या का समाधान। For Private and Personal Use Only Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir इच्छायोगः १७७ इत्थं इच्छायोगः (पुं०) स्वेच्छपूर्वक क्रिया करना, वाञ्छा रहित योगजन्य क्रिया। इच्छारत (वि०) अभिलाषा जन्य। इच्छावर्धक (वि०) लालसाकर, अभिलाषा बढ़ाने वाला। (जयो० वृ० १६/८५) इच्छावसुः (पुं०) कुबेर। इच्छासंपद् (स्त्री०) कामनाओं का पूर्ण होना। इच्छित (वि०) अभिलषित, वाञ्छित। 'सानुकूल इव भाग्यवितस्तिस्तद्भविष्यति यदिच्छितमस्तिा' (जयो० ४/४७) 'तदेव नश्चेच्छितपूर्तिधाम' (सुद० २/२३) इच्छुक (वि०) चाहने वाला, अभिलाषा करने वाला, अनुरक्ति जन्य, अनुराग युक्त, आसक्ति सहित। 'मिथोऽथ तत्प्रेमसमिच्छुकेषु' (सुद० २/२६) इज्यः (पुं०) [यज्+क्यप्] १. अध्यापक, पूजा, अर्चना। इज्या (स्त्री०) [इज्या टाप्] १. पूजा, अर्चना। २. उपहार, दान, प्राभृत। ३. प्रतिमा। इज्याविधिः (स्त्री०) पूजाविधि, अर्चना विधि। 'अन्योन्यानुगुणैकमानसतया कृत्वाऽर्हदिन्याविधि।' (सुद० ४/४७) इडा (स्त्री०) पृथ्वी, भूमि, धरा। इडिका (स्त्री०) पृथ्वी, भूमि, धरा। इडित (वि०) १. अन्य, दूसरा, दो में से एक। २. शेष, अवशिष्ट, भिन्न, पृथक्। ३. वाम, दक्षिण, दायां। ४. सम्बन्ध की अपेक्षा न करना। तत्र चोक्तमितरेण' (जयो० ४/३०) न क्रमेतेतरत्तल्पं सदा स्वीयच्च पर्वणि तदितर: को हितः। (जयो० वृ० २/२७) (सुद० ४/४३) इतरकल्पना (स्त्री०) अन्य कल्पना। (वीरो० १९/४४) इतरत (अव्य०) ०अन्यथा, ० अन्य प्रकार से, भिन्न, दूसरी तरह से। इतरत्र (अव्य०) [इतर-त्रल्] ०अन्यथा, विपरीत, भिन्न, ०अन्य। इतरथा (अव्य०) [इतर+थाल्] ०अन्य रीति से, दूसरी तरह से। प्रतिकूल रीति से। 'इतरथा तु तदीयकरार्पण' (समु० ७/९) इतरः (पुं०) व्यवहार नय (जयो० ५/४८.) इतरस्तर (अव्य०) इधर उधर। (सुद० ७३) इतरेतरः (अव्य०) सर्वत्रैव, सभी जगह। (वीरो० १/३२) इतरेषु (अव्य०) [इतर एधुस्] अन्य दिवस. दूसरे दिन। इतस् (अव्य०) [इदम् तसिल] यहां से. १. इधर, ऐसा, इधर-उधर। २. इस भूतल पर, इस व्यक्ति से 'अस्मिन् भूतले' (जयो० ११/१००) --'जयतु शूर इत: स्मरसायकं' (समु०७/१०) 'इत उत्तर सम्भवस्थल, विजयायैति अपैति चोद्वल:।' (समु०२/६) 'व्यहरत्तत्परितः क्षणादितः' (समु० २/२०) ऐसा, ऐसे-'मुनिवर वनमेष तदाऽव्रजाच्छ्यिमितः।' (सुद० ४/२) इस कारण से-'इतोऽस्मादेव कारणादस्य' (जयो० ६/८०) इतस्ततः (अव्य०) सर्वत्रैव, सभी जगह, (वीरो० १/३२) एक ओर से दूसरी ओर तक, इधर से उधर। (जयो० वृ० १/८९) परित:-चारों ओर। 'तत्र परित इतस्ततो वाससा वस्त्रेण रचितानि वस्त्राणि शिविराणि' (जयो० वृ० १३/६४) इति (अव्य०) [इ+क्तिन्] यह अव्यय शब्द के स्वरूप को प्रकट करने वाला है इसके कई अर्थ हैं ०दोष- (जयो० १/४) इति-समाप्ति 'जयकुमारकीर्तेः क्रीडनकं भवतीति भाव:।' (जयो० १/१०) ०इति-क्योंकि, यतः, जो कि, जैसा कि। (सम्य० ४/३) इति-इस प्रकार, ऐसा। 'युधिष्ठरो' भम इतीह मान्यः। ०इति सोऽपि पुनः प्राह। (जयो० १/१८) (सुद० १२६) इति-जहां तक 'इति सूचनार्थमित्यर्थ:' (जयो० १२/११६) इति वर्तमानशासनप्रशंसनं भवति।' (जयो० १५/४१) इतिपरिहारः (पुं०) ऐसा अभिप्राय। 'इति सर्गनिर्देशः' (जयो० २३/१०) इति अत (अव्य०) इतना कि, ऐसा कि। इतिभावः (पुं०) ऐसा भाव (सम्य० १/६) (जयो० २१/३९) इतिव्रतं (नपुं०) ईर्या समिति व्रत (मुनि० ६) 'वृत्यर्थं गमनीयमप्यनुदिनं रात्रौ तु नेतिव्रतात्।' (मुनि०६) इतिह (अव्य०) परम्परानुकूल, इसी प्रकार। इतिहास: (पुं०) [इति+ह+आस] उपाख्यान, इतिवृत्य, ऐतिह्य, परम्परा प्राप्त कथावृत्त, पुराण सम्मत कथन, ऐतिहासिक साक्ष्य, गौरव पूर्ण परम्परा। इतीदृशं (अव्य०) इस प्रकार, इस तरह का। (समु० ४/३) 'इतीदृशं तोषयुक्तं वणिक्तुज' (समु० ४/३) इतीव (अव्य०) ऐसा ही, इस तरह का ही। 'इतीव संतप्तया गभस्ति' (वीरो० २१/३) इतीह (अव्य०) इस प्रकार, परम्परानुसार। (जयो० १/१८) इत्थं (अव्य०) [इदम्+थम्] अतः, इस प्रकार, ऐसा, इसलिए। For Private and Personal Use Only Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir इत्थभूतः १७८ इन्दीवरिणी (मुनि० २३) इत्थं चिंतनमस्तु'। 'तत्कृत्यमित्थं च १०५) पुं०-अयम्। स्त्री इयम्। 'प्रस्तुताऽस्मै सदा स्फीतिः' तदित्युपायपरो नरो' (जयो० २७/५५) स्पृशेदपीत्थं (सुद० ८२) 'चाण्डाल एव स इमं लभतामिदानीम्' बहुधान्यराशिम्' (सुद० २/२१) उक्त पंक्ति में 'उइत्थं' (सुद० १०५) 'चेतनाऽस्याः समावृता' (सुद० १०१) अव्यय का अर्थ क्योंकि है। 'गुणावलीत्थं सहसाशयाभ्याम्' 'इमामिदानीं मम सोमनास्यं सुधाधुनीमेतितरामवश्यम्' (सुद० २/३०) 'स्यादित्थं परेण प्रकृता समस्या' उक्त (जयो० ११/७४) 'अस्या हि सर्गाय' (जया० ११४८४) पंक्ति 'ऐसा है' वह अर्थ व्यक्त हो रहा। 'रूपामृतस्त्रोतस एव कुल्यामिमामतुल्याम्' (जयो० ११/१ ) इत्थं उक्तरीत्या उक्त प्रकार। 'इत्थं वारिनिवरङ्करयन्' 'अस्मिन्नरेश, सुरसाया:। (जयो० ३/६९) 'अदभुतोऽय (जयो० ३/९२) चरणानुयोग:' (जयो० १४२२) इयान (सु०) अनेन (जयो० इत्थभूतः (पुं०) एवम्भूतनय, क्रियाश्रय नय। १/१९) जयकुमारस्य राज्ये। इत्य (वि०) [इण् क्यप्, तुक्] जिसके पास जाया जाय। इदंकर (वि०) ऐसा ऐसा करो। 'इदंकरमिदं वेदिा नैव किन्तु इत्यतः (अव्य०) इधर, यहां, जो कि जैसा कि, बल्कि, लेकिन स्वयंवरम्।' (जयो० ७/३) 'भवत्कमत्युत्तममित्यतोऽहं' (सुद० १२०) 'शिवायन इत्यतः' इदानीम् (अव्य०) [इदम्+दानीम् ] अब. उस समय, इस (सुद०८३) विषय में, अभी। 'काञ्चोफलवदिदानों द्विवर्णता विभ्रमादति' इत्यथ (अव्य०) इधर, यहां, 'पुत्तलमुत्तक्तमित्यथ कृत्वा' (जयो० ६/३५) 'अस्मिन्निदानीमजडेऽपि काले' (सुद०१/६) (सुद०९२) इदानीमपि (अव्य०) अब भी, इस समय भी। (वीरो० २२/२८) इत्यदः (अव्य०) ऐसा, इस प्रकार। 'अल्पाद्वारत इत्यदो वदितवान्।' इदानीन्तन् (वि०) आधुनिक, प्रभ्युपन्न, वर्तमान कालिक। (मुनि० १०) इद्ध (भू० क० कृ०) [इन्ध+क्त] १. जला हुआ, प्रभा युक्त, इत्यत्र (अव्य०) यहां, इधर, 'रज्यमानोऽत इत्यत्र' (सुद० प्रकाशवान्, आभा जन्य। २. दीप्ति, चमक, प्रभा, कान्ति। ४/८) (जयो० २३/८४) इत्यर्थः (अव्य०) ऐसा अभिप्राय, (जयो० १/७) इस तरह का इध्मं (नपुं०) [इध्यतेऽग्निरनेन-इन्ध्। मक] इंधन, लकड़ी, अग्नि प्रयोजन। (जयो० वृ० १/७) इन्ध्या (स्त्री०) । इन्ध् + क्यप+ टाप] चमक, दीप्ति, इंधन इत्येवं (अव्य०) इस तरह, इस प्रकार, ऐसा ही, इस प्रकार प्रभा, कान्ति। ही। 'इत्येवं सकलं चरित्रमचिरादेवात्मनः संभवे' (मुनि० । इनः (पुं०) १. सूर्य, दिनकर, रवि। (जया० २०/२१) २. ५३) 'इत्येवमुक्त्वा स्मरवैजयन्त्याम्' (सुद० २/२०) स्वामी, मालिक, राजा, महाराज। (जयो० २०/२१) दिन इत्वर (वि०) [इण+क्वरप् तुक्] १. घृणित, निन्दनीय, अहितकर। एनमिन : समीक्षते। (दयो० १०५) २. कठोर, कठिन, उग्र। इन: (पुं०) [इण+नक्] बल, शक्ति, योग्य, साहसी, बलिष्ठ। इत्वर-अनशनं (नपुं०) परिमित काल तक आहार, अभीष्ट २. परमात्मन्। (जयो० ४/६५) आहार इनदेव (पुं०) [इनश्चासौ देवश्चेति इनदेव:] सूर्य। इत्वर-परिगृहीतागमनं (नपुं०) १. व्यभिचार जन्य गमन, इनदेवता (पुं०) [इनदेव एव इनदेवता, स्वार्थे तल्] सूर्यदेव। मैथुन सेवन गमन। २. ब्रह्मचर्य व्रत का अतिचार। (जयो० २०/८३) इत्वरसामायिकः (पुं०) अवधि जन्य सामायिक। इन्दिन्दिरः (पुं०) [इन्द+किरच् नि] मधुमक्खी। इत्वरिका (स्त्री०) घृणित. निन्दित, कुटला, अधर्म, नीच। इन्दिरा (स्त्री०) लक्ष्मी। (सुद० १/१२) त्रिशलाया उदितं व्यभिचारिणी (जयो० वृ० १८/३) शचीन्दिरा (वीरो० ७/१४) 'मुदिन्दिरामङ्गलदीपकल्प:' (सुद० इत्वरिकागमनं (नपुं०) ब्रह्मचर्य को दृषित करने वाला गमन। १/१२) 'किमिन्दिराऽसौ न तु साऽकुलीना।' (जयो० ५/८७) इत संज्ञकः (पुं०) 'अइ, उ ण' यहां अन्तिम 'ण' इत् संज्ञक इन्दीवरः (नपुं०) नीलोत्पल. नीलकमला नीलाम्बुरुहः (वीरो० है। (जयो० वृ० २८/३१) 'इता अप्रयोगिवर्णेन स आदे: २/१६) रुदत्तदिन्दीवरमेव शापश्रिया (जयो० १६/३७) शब्दस्योपयोगवान्। (जयो० २८/३१) इन्दीवरिणी (स्त्री०) [इन्दीवर-इनि डीप] नीलोत्पल ओध, इदम् (सर्व०) नपुं-इदम-यह। राज्या इदं पूंत्करण। (सुद० । नीलकमल समूह। For Private and Personal Use Only Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir इन्दीवारः इन्द्रभूतिः इन्दीवार: (पुं०) [इन्द्या: वारो वरणं अत्र] नीलकमल, नीलोत्पल। इन्दुः (स्त्री०) चन्द्रमा | उन्दु+उ+आदेरिच्च] सुर- वर्त्मवदिन्दु मम्बुधेः (सुद० ३/१०) इन्दु-स्वच्छ, श्रेष्ठ इन्दुकमलं (नपुं०) श्वेत कमल। इन्दुकला (स्त्री०) १. चन्द्रकला, षोडशकला गणना की कला। इन्दु-कलिका (स्त्री०) १. केतकीलता, केतकी कली। २. चन्द्रकला। इन्दुकान्तः (पुं०) १. रजनी, रात्रि। २. चन्द्रकान्तमणि। (वीरो० २/३४) इन्दुक्षयः (पुं० ) १ प्रतिपदा तिथि। २. चन्द्र का प्रथम दिवस। इन्दुजः (पुं०) रवा नदी, नर्मदा नदी। इन्दुजनकः (पुं०) समुद्र, उदधि, सागर, वारिधि, चन्द्र से वृद्धि को प्राप्त होने वाला। इन्दुजालः (पुं०) चन्द्रकिरण। इन्दुतः (पुं०) चन्द्र, शशि। 'सितिमानमिवेन्दुतस्तकमभिजादपि नाभिजातकम्।' (सुद० २/१३) इन्दुत्व (वि०) चन्द्रपना, चंद्र युक्त। (जयो० १/१०) इन्दुदलः (पुं०) चन्द्रकला, अर्धदल युक्त चन्द्र। इन्दुदेवः (पु०) चन्द्रदेव। 'उत्सङ्गजं सूचयतीन्दुदेवं' (जयो० इन्दुवंशिन् (वि०) सोमवंशजात. सोमवंश में उत्पन्न। 'नाथवंशिन् | इवेन्दुवंशिनः' (जयो० ७/९१) इन्दुबिन्दु (स्त्री०) कान्तिबिम्ब, चन्द्र बिम्ब। 'खर-रुचिरिन्दु बिन्दुमश्नाति' (सुद० १०४) इन्दुशेखरः (पुं०) शिव, शङ्कर, महादेव। 'अपराजितयेवेन्दुशेखरः' (सुद० १/४०) इन्द्रः (पुं०) [इन्द्+रन्, इन्तीति इन्द्र:] इन्द्रतीति इन्द्रः आत्मा। ( स० सि० १/१४) १. देवाधिपति, देवों के स्वामी, असाधारण, ऋद्धि। 'परमैश्वर्यादिन्द्रव्यपदेशः' (त० वा० ४/४) २. स्वामी, शासक। ३. इन्द्रिय, चिह्न। इन्द्रकूटः (पुं०) एक पर्वत का नाम। इन्द्रगुरुः (पुं०) बृहस्पति। इन्द्रचापकः (पुं०) इन्द्रधनुष, इन्द्र की कमान। 'समवर्षि चलत्करस्फुरन्मणिभूषांशुकृतेन्दुचापकैः।' (जयो० १२/१३३) इन्द्रजालं (नपुं०) जादू, बाजीगरी, (दयो० १२३) 'इन्द्रजालोपमा, सम्पदायुर्हरिधृतैणवत्' (दयो० १२३) इन्द्रजालिक (वि०) १. जादूगरी करने वाला, महेन्द्र (जयो० वृ० ३/४) २. छापूर्ण, भ्रमात्मक। इन्द्रजित् (वि०) १. इन्द्र को जीतने वाला। २. इन्द्रियजयी। इन्द्रतूलं (नपुं०) रूई की गादी। इन्द्रदारुः (पुं०) देवदारु वृक्ष। इन्द्रधनुषः (पुं०) शक्रचाप, इन्द्रकमान। इन्द्रधामम् (नपुं०) सुरालय। (वीरो० ) (जयो० वृ० ५/६५) इन्द्रनन्दी (पुं०) १. इन्द्रनन्दी नामक आचार्य। २. इन्द्र के समान प्रसन्न। त्वमिन्द्रनन्दी भुवि संहितार्थः प्रसत्तये संभवतीति नाथा' (जयो० ९/९०) इन्द्रनीलकः (पुं०) पन्ना, एक रत्न विशेष। इन्द्रपत्नी (स्त्री०) शची, इन्द्राणी। इन्द्रपुर (नपुं०) इन्द्र नगर। 'अधरमिन्द्रपुरं विवरं पुनर्भवति नागपतेर्नगरं तु न:।' (सुद० १/३७) इन्द्रपुरी (स्त्री०) इन्द्रनगरो। (जयोवृ०५/८९) मघोनि केन्द्राणीव (जयो० ६/८९) इन्द्रपुरोहितः (पुं०) बृहस्पति। इन्द्रप्रस्थं (नपुं०) इन्द्रप्रस्थ नाम नगर, जो यमुना तट पर स्थित था, यही पाण्डुपुत्रों का केन्द्र था। इसे इस समय दिल्ली कहते हैं। इन्द्रप्रहरणं (नपुं०) इन्द्रशस्त्र, वज्र। इन्द्रभूतिः (पुं०) इन्द्रभूति गणधर, महावीर का गणधर इन्दुनियोगिनी (वि०) ज्योत्स्ना सदृशी। (वीरो० १२८) इन्दुभा (स्त्री०) कुमुदिनी, कमलिनी। इन्दुभासः (पुं०) चन्द्रकान्ति। 'इन्दोश्चन्द्रस्य मा शोभेव भा यासाम्।' (जयो० वृ० १६/४४) इन्दुबिम्ब (नपुं०) चन्द्रमण्डल। (सुद० ११५) 'नवोद्धतं नाम दधतदिन्दुविम्वम्।' (जयो० १६/२३) 'भ्रमाद्यथाऽऽकाश गतेन्दुबिम्बमङ्गीकरोति' (सुद० पृ० १११) इन्दुमती (स्त्री०) [इन्दु+मतुप्+ङीप्] १. नाम विशेष, अज की पत्नी। २. पूर्णिमासी। इन्दुमणिः (स्त्री०) चन्द्रकान्तमणि। इन्दुमण्डलं (नपुं०) शशि मण्डल, चन्द्र परिकर। इन्दुरः (पुं०) चूहा, मृषक। इन्दुरत्नं (नपुं०) चन्द्ररत्न, मणि, श्वेत रत्न। इन्दुरुचिः (स्त्री० ) ज्योत्स्ना सदृशी। (वीरो० १/२८) इन्दुरेखा (स्त्री०) चन्द्रकला। इन्दुलोहं (न) रजत, चांदी। For Private and Personal Use Only Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra इन्द्रयान www.kobatirth.org 'इत्येवमेतस्य सत विभूतिं स वेदवेदाङ्गविदिन्द्रभूतिः।' (वीरो० १३/२५) इन्द्रयान (नपुं० ) इन्द्र का यान। (जयो० १०/ इन्द्रवज्र (नपुं० ) इन्द्रशस्त्र । इन्द्रसमान (वि० ) इन्द्र के सदृश, शक्र समान। 'पुथुदानवारिन्द्रिसमान' (सुद० १२ / ३९ ) इन्द्रशासिका ( वि० ) इन्द्रशासितारविणा ककुविन्दुशारि । इन्द्रसुनु: (पुं०) जयन्त । इन्द्राणी (स्त्री० ) [ इन्द्रस्य पत्नी आनुक्+ ङीप ] शची, इन्द्र की पत्नी इन्द्रियं ( नपुं०) १. शरीर की पहचान, शरीर चिह्न, अक्ष ( सुद० १२७) २. इन्द्रस्य लिङ्गमिन्द्रेण सृष्टमिति वा इन्द्रियशब्दार्थ : ( धव० १/२३७) 'नित्यं निगृह्णन्तीन्द्रियाणि' (सुद० १२२) इन्द्रियगोचर: (पुं०) इन्द्रिय से ज्ञात । इन्द्रियग्राम (पुं०) इन्द्रिय वर्ग इन्द्रिय समूह | इन्द्रियज्ञानं (नपुं०) इन्द्रिय चेतना । इन्द्रियजयः (पुं० ) इन्द्रिय अंकुश । इन्द्रियजयी (वि०) इन्द्रियों को जीतने वाल, अक्षरोधक (जयो० वृ० २८/५) इन्द्रियनिग्रहः (पुं०) अक्ष निरोध, पञ्चेन्द्रिय निरोध। इन्द्रियपराधीन: ( नपुं०) इन्द्रिय वश । ( सुद० १२७) इन्द्रिय-पर्याप्तिः (स्त्री०) इन्द्रिय के आकार रूप परिणति, अक्ष परिणति । 'इन्द्रिय करणनिष्पत्तिरिन्द्रयपर्याप्तिः ' इन्द्रियप्रणिधिः (स्त्री०) इन्द्रियों की अनासक्ति इन्द्रियप्रत्यक्षं (नपुं० ) इन्द्रियों से उत्पन्न होने वाला स्पष्टीकरण । इन्द्रिय- प्राधान्यादनिन्द्रिय-बलाधानादुपजातमिन्द्रियप्रत्यक्षम् ' (प्रमेयरत्नमाला) इन्द्रियविषय (नपुं०) अक्ष विषय इन्द्रियों की वासना । इन्द्रियवृत्ति ( स्त्री० ) इन्द्रिय प्रवृत्ति । ( मुनि० १ ) इन्द्रिय- संयमः (नपुं०) पञ्चेन्द्रिय नियन्त्रण, इन्द्रिय निरोध, इन्द्रिय निग्रह | 'इन्द्रियत्रिषय-राग-द्वेषाभ्यां निवृत्तिरिन्द्रियसंयमः' (भ० आ० टी० ४६ ) इन्द्रिय-सुखं (नपुं०) इन्द्रिय जनित संतोष । इन्द्रियाधीनप्रवृत्तिः (स्त्री०) इन्द्रियजन्य वृत्ति। ( वीरो० १० / १६ ) इन्ध (सक०) जलाना, प्रज्वलित करना, अग्नि जलाना। इन्ध: (पुं० ) [ इन्ध्+घञ् ] इंधन, लकड़ी | इन्धनं (नपुं०) इन्धन, लकड़ी आदि जलाना (भक्ति २, १८० Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir इला दयो० पृ० ६०, सुद० २/४० ) इभ: [इ+भन्] हस्ति, करि, हाथी (जयो० १३ / २३) गज 'तमः समूहेन निरुक्तमूर्तिमिभं' (जयो० ८/६) इभकुम्भ: (पुं०) हस्तिमस्तक (जयो० १७०५९ इभनिमीलिक (वि०) बुद्धिमत्ता, श्रीमान् । इभपालकः (पुं०) महावत । इभपोत (पुं०) वयस्क हस्ति हाथी का बच्चा, हस्तिशायक! इभयुवति: (पुं०) हथिनी । इभराट् (पुं०) मुख्य हस्ति, प्रधान हाथी । 'चलितोऽन्यगजं प्रतीभराड्' (जयो० १३/३६ ) इभेन्द्रः (पुं०) हस्तिराज (जयो० २/७५) इभ्य (वि०) १. अर्थवान् धनी, धनाढ्य २. विज्ञ, बुद्धिमन् ! (जयो० ४/२३) इभ्यः (पुं०) १. नृप, राजा, अधिपति। २. महावत, हस्ति पालक । इभ्यक (वि०) [इभं गजमर्हति यत्] धनी अर्थवाना इय् (अक० ) प्राप्त होना, उपलब्ध होना। 'नहि विषादमियादशुभोदये' (जयो० २५/६४) इयत् (वि०) [इदम् वतुप्] इधर इतने विस्तार का यहां तक, इतना अधिक। किं मुदंतोऽस्ति भवानियद्धृतः ' (समु० २/२१) इयती (वि० ) इतनी, यहां तक कियती जगतीयती गति: ' (जयो० २३/२४) + इयत्ता ( वि० ) ( इयत्+तल्+टाप्] इतना परिणाम विशेषा इयात् (वि०) इतना । 'इयान् रसत्ति किमपि स्वयम्' (जयो० २५/६२) इरणं (नपुं० ) [ ऋ+अण्] १. मरुधरा मरुस्थल, मरुभूमि २. ऊसर भूमि, बंजर भू-भाग । इरम्मदः (पुं० ) ( इरया जलेन माद्यति वर्धते इति इरा मद+खश्] विद्युत प्रभा, बिजली की चमक । इरा (स्त्री०) [इ+न्+टाप्] १. पृथ्वी, भूमि, धरा। २. मंदिरा, शराब। (जयो० २८/६) ३. जल, ४. आहार । हरेयैवेरया व्याप्तं भोगिनामधिनायकः । For Private and Personal Use Only इरावत् (पुं० ) [ इरा+मतुप् ] समुद्र, सागर । + इर्वारु (वि०) [उर्थ आरु] नाशक, हिंसक इल् (अक० ) जाना, चलना-फिरना। इल् ( अक० ) सोना, फेंकना, भेजना, डालना। इला (स्त्री०) [इलु+काप्] १. भू भूमि, पृथ्वी, २. गाय, ३. Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir इलापतिः १८१ इष्टिमान् वक्तृता। 'इला क्षालयितुं रेजेऽवतरन्तीव स्वर्णदी' 'इला इषुधिः (पुं०) [इषु धा+कि] तरकस. बाण रखने का साधन। भुवं क्षालयितुम' (जयो० वृ० ३/११२) इषूक्तशैलः (पु०) इष्वाकार पर्वत। (भक्ति ३६) इलापतिः (पुं०) भूपति, राजा। 'उचितं चक्रुरिलापतिमितरं' इषूर्वीधरः (पुं०) इष्वाकार पर्वत। (जयो० २४/१४) (जया० ६/३९) इष्टः (भू० क० कृ०) [इष्+ क्त] १. इच्छित, वाञ्छित, इलालङ्कारः (पुं०) पृथ्वी का अलंकार, भू शोभा। (सुद० पृ० अभिलषित, चाहा गया, माना गया, स्वीकृत किया गया। १. प्रतिष्ठित, सम्मानित, 'शालेन बद्धं च विशालमिष्ट' इलिका (स्त्री०) [इला कन्, इत्वम्] पृथ्वी, धरती, भूमि। (सुद० १/२५) २. योग्य, उचित। 'फलतीष्टं सतां रुचिः।' इव (अव्य०) [इ. क्वन् ] तरह, जैसा कि. समान। (मुनि०८, (सुद० ३/४३) ४. चाह, इच्छा। ५. वक्ता का अभीष्ट सुद० २/९) 'इव शब्द: पादपूर्ता एव शब्दचापि शब्दार्थकः' भाव। (जयो० पृ० १९/५९) 'श्रीश्रेष्ठिनो मानसराजहंसीव' (सुद० इष्ट-खलक्षणं (नपुं०) उचित आकाश स्वरूप। (सुद० १/२५) २/९) 'लक्ष्मीरिवासौ तु निशावसाने' (सुद० २/११) इष्टखेलः (पुं०) भोग। (सम्य० ५१) इव किल (अव्य०) जिस प्रकार की, जैसा कि। 'जरगवो इट-गन्धः (पुं०) सुगन्धित पदार्थ, सुगन्ध, उत्तम गन्ध, वृद्धवलीवर्द इव किल' (जयो० २३/६७) उचित/समुचित सुगन्ध। इवाथ (अव्य०) इस तरह का। 'साधुः सरोषः स इवाथ दीन:' इष्टदेवः (पुं०) अनुकुल देव, कुलदेवता। (समु० १/३४) इष्टदेशार्चनं (नपुं०) कुलदेवार्चन, कुलपूजा। इवाधुना (अव्य०) अब इस, प्रकार, ऐसा मानो कि-'भवान्तरं, इष्टदेश: (पुं०) वाञ्छित स्थान। 'पथाप्ययादीयंते इष्टदेशः। प्राप्त इवाधुना नवम्' (समु० २३/३३) (जयो० ५/१०३) इष् (अक०) निकलना, कामना करना, चाहना। 'किमिष्यते इष्टपरिपूरणं (नपुं०) समुचित रूप से प्राप्त। (जयो० २/२) कुड्मल बन्धलोपी' (जयो० १/७१) 'ईय एषोऽद्भुत इप्यते न कैः' (समु० २/२३) उक्त पंक्ति में 'इष्' धातु इष्टभावः (पुं०) इष्टभाव, इष्टभावना, सम्यक् चिंतन, श्रेष्ठ का अर्थ मानना है। 'त्वमीप्यते सत्प्रतिपद्धरातरे' (जयो० विचार।। इष्टवियोगः (पुं०) इष्ट पदार्थों का वियोग। 'इष्टवियोगनिष्ट - ५/१०६) संयोगतया' (जयो० वृ० १/१०९) इषः (पुं०) [इप्+अच] १. शक्ति सम्पन्न, २. आश्विनमास। इषि (स्त्री०) अस्त्र विशेष। इष्टसंयोग-जनित (वि०) उचित योग से युक्त। (जयो० इषिका देखो ऊपर। १/२२) इपिरः (पुं०) अग्नि, आग। इष्टसत्ता (स्त्री०) अच्छा भाव। इषुः (पुं०) [इप्-उ] १. बाण, शर। २. सीधी, सरल। इष्टसत्त्व (वि०) अच्छाई युक्त भाव। इषुकार: (वि०) बाण बनाने वाला। इष्टसिद्धि (वि०) मनोरथ साधक ०मनोरथ साकल्य इषुकृत् (वि०) बाण बनाने वाला। सिद्धिजनक। (जयो० २/३६) 'इष्टसिद्धिमभिवाञ्छितोऽइषुगति (स्त्री०) सीधी गति, मोडा रहित गति। हतां' (जयो० २/३७) इषुधरः (वि०) धनुर्धर। इष्ट-हतिः (स्त्री०) निर्विघ्नता, सफलता। 'आत्रिकेष्ट इषुपथः (पुं०) बाणमार्ग, तीर आने का रास्ता या स्थान। हतिहापनोद्यतः' (जयो० २/३९) इषुप्रकार (वि०) बाण के आकार। 'चरन्ति चाचारमिषुप्रकारम्' | इष्टानिष्टविकल्पः (पुं०) इष्ट-अनिष्ट भाव, शुभ-अशुभ भाव। (भक्ति० सं०१०), दर्शनाचार, ज्ञानाचार, चरित्र। चार, (मुनि०४) तपाचार और वीर्याचार ये पांच इषु प्रकार हैं जिन्हें साधु इष्टिः (स्त्री०) प्रार्थना, कामना, वाञ्छा, इच्छा, चाह, अभिलाषा. पालन करते हैं। पूजा। 'सर्वत: प्रथममिष्टिरहतो' (जयो० २/२७) इषुप्रयोगः (०) बाण प्रयोग। इष्टिमान् (वि०) यज्ञकर्ता, इष्ट समागम कर्ता, अभिलाषाजन्य। इषुभृत् (वि०) धनुर्धर। 'इष्टिमान् सुकृतवत्पुरोहितः' (जयो० ३/१४) For Private and Personal Use Only Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org इष्टोपदेश: इष्टोपदेशः (पुं०) आचार्य समंतभद्र द्वारा रचित रचना । इष्टोपयोगः (पुं०) इष्ट उपयोग शुभ उपयोग 'इष्टोपयोगाय वियुक्तयेऽतोनिष्टस्य पीडासु निदानहेतोः । ' (समु० ८/३५) आर्तध्यान के चार भेदों में इसका प्रथम स्थान है (समु० ८/३५) इष्म (पुं०) १. कामदेव, मदन २ वसन्त ऋतु। इष्यः (पुं०) वसन्त ऋतु । इष्वाकारः (पुं०) पर्वत का नाम (जयो० वृ० २४ / १४ ) इस् (अव्य० ) [इं कामं स्यति सो क्विप्] क्रोध, कोप, पीड़ा, शोक। इह (अव्य०) [इदम्-ह इशादेश) यहां इधर, इस ओर इस दिशा में (जयो० वृ० १/४) इस स्थान पर, अब, अभी। (जयो० १ / १४) इह पश्याङ्ग सिद्धशिला भाति' (सुद० १२२) 'केशान्धकारीह शिर:' ( सुद०२/२५) 'करपल्लवयोः प्रसूनता- समधारीह सता वपुष्मता' (सुद० ३/२१ ) उक्त पंक्ति में 'इह' का अर्थ मानो कि है भवन्ति तस्मादिह तीव्रमन्द - (समु० ८ /१५) 'विघ्नश्च निघ्न इह भाति पुनर्विमोह:' (जयो० १० / ९५) इह भाति- इस पृथ्वी पर या इस स्थान पर सुशोभित होता है। इहापि ( अव्य० ) यहां भी इस समय भी इस स्थान पर भी । (सुद० १२०, जयो० १६ / ६९ ) , ई ई: (पुं०) यह वर्णमाला का चतुर्थ स्वर है, इसका उच्चारण स्थान 'तालु' माना गया है तथा इसको दीर्घ स्वर के अन्तर्गत रखा जाता है। · ई (अव्य०) यह दुःख को प्रकट करने वाला अव्यय है। इससे विषाद, शोक, दुःख, पीड़ा, खिन्नता, अनुकम्पा आदि का भाव स्पष्ट होता है। ई (पुं०) (ई. क्विप्] कामदेव, मदन । ई (सक० ) ०जाना, ०गति करना, ०चलना, ०चाहना, ०इच्छा करना, ०प्रार्थना करना, ० मानना । ईक्ष (सक० ) ० अवलोकन करना ०देखना ० निरीक्षण करना, ०ताकना ० विचारना। 'अमानवचरित्रस्य महादर्श किलेक्षि- 1 १८.२ तुम्' (जयो० ३/१०१) 'प्रायमुदीक्ष्यतेऽतः' (सुद० २ / १९ ) ईक्षक : (पुं०) दर्शक, देखने वाला। ईक्षणं (नपुं० [ईश्+ ल्युट्] १. अवलोकन, परिदर्शन, दृश्य। Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ईदृक् २. दृष्टि, चक्षु, नेत्र। (जयो० १ / ५३) एतयोः खलु परस्परेक्षणं सम्भवेत्' (जयो० २ / ६ ) ह्न । ईक्षण-क्षणं (नपुं० ) निरीक्षण मात्र, अवलोकन मात्र। (दयो० ६७) ईक्षण लक्षणं (नपुं०) चक्षु जन्य कारण, चक्षुचि ईक्षणयानेत्रयोः लक्षणं चिह्नम्' (जयो० १/५३) ईक्षणिक : (पुं०) ज्योतिषी, (निमित्त ज्ञानी)। ईक्षति (स्त्री०) दृष्टि, अक्षि, आंख, नयन, नेत्र चक्षु ईक्षमाण ( वर्त - कृ० ) देखता हुआ, अवलोकन करता हुआ । 'मृत्युं पुनर्जीवन मीक्षमाण:' (सुद० ११७) ईक्षमाणकः (पुं०) गृही, गृहस्थ । 'अन्यदप्युचितमीक्षमाणकः ' (जयो० २/६२) ईक्षा (स्त्री०) अक्षि, दृश्य, दृष्टि विशेष। ईक्षिका (स्त्री०) [ईक्षा+कन्+टाप्] अक्षि, नेत्र, आंख, नयन, दृश्य झलक । ईक्षित (वि०) अवलोकित, देखा गया। ईक्षित (भू० क० कृ० ) अवलोकन किया गया, देखा गया, परिदृश्यजन्य । ईक्षितवती (वि० ) ० पश्यंती, ०देखती हुई, ० निरीक्षण करती हुई अवलोकन करती हुई। 'मुहुर्वक्त्रं पत्युः शिथिलसकलाङ्गीक्षिवती' (जयो० १७ / १३० ) ईक्ष्यताम् (वि०) दृश्यता, अवलोकिता। प्रमुदितो रुदितं पुनरीक्ष्यताम्' (जयो० २५ / ६ ) ईख् (अक० ) झूलना, घूमना, हिलना । ईख् (अक० ) जाना, पहुंचना । ईज् (अक० ) १. जाना, २. कलंक लगाना, निंदा करना । ईड् (अक० ) स्तुति करना, अर्चना करना। ईडा (स्त्री०) पूजा, अर्चना, स्तुति । ईड्य (सं०कृ० ) [ईड् + ण्यत् ] प्रशंसनीय, समादरणीय, पूजनीय, स्तुति योग्य ईति (स्त्री० ) [ ई+क्तिच्] व्याधि, कष्ट, पीड़ा, महामारी। (जयो० १/१) दुःख, व्यथा। (जयो० १/२१ ) ईतिमुक्तिः (स्त्री०) व्याधि मुक्ति, दुःखनिर्वृत्ति, 'अखिलमीशानमपीतिमुक्त्या' (जयो० १ / १ ) ईतिरहित (वि०) व्याधिमुक्त, पीड़ा रहित, दुःख रहित (जयो० वृ० १/११ ) ईतिहृत्कथा ( स्त्री०) उपद्रवहर कथा (जयो० २ / ११८ ) ईद्रक (वि०) ऐसा, इस तरह का (सुद०२/२७) नश्येदितीदृड् न परोऽस्त्युपाय (भक्ति० २५) For Private and Personal Use Only Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ईदृक्ता १८३ ईशा ईदृक्ता (वि०) ऐसा गुण। ईर्यापथक्रिया (स्त्री०) ईर्यापथ का कारण रूप क्रिया, ईदृश (वि०) ऐसा, इस तरह का। ईपिथनिमित्त' (स० सि० ६/५)। ईर्यापथनिमित्ता या सा ईदृश (वि० ) ऐसा, इस तरह का। 'ईदृशेऽभिनके प्रतियाति' प्रोक्तेर्यापथक्रिया' (हरिवंश प्र०५८/६५) (जयो० ४/१३) 'ईदृशामि महीमहितानाम्' (जयो० ५/५३) ईर्यापथशुद्धिः (स्त्री०) केवली की शुद्धि। ईदृशमेव (अव्य०) ऐसा भी। (वीरो० २०/१४) ईर्यासमितिः (स्त्री०) शुद्धि पूर्वक गमन। सम्यगवलोकन सहित ईदृशी (वि०) ऐसी। (समु० २/१०) गति। 'चर्यायां जीवबाधापरिहार: ईर्यासमितिः' (त०श्लोक ईनकेतुः (पुं०) कामदेव। 'नमामि तं निर्जितमीनकेतुम्' (समु० ९/५) संलापादिविवर्जितेन शमिनामीशेन संपश्यता, भूयाग्रं १/२) खलु कंटकादिकमितः प्राप्तं व्यपाकुर्वता। हस्त्यश्वादिईप्सा (स्त्री०) ०कामना, वाञ्छा, चाह, ०इच्छा, ०अभिलाषा। विगाहितेन च पथा नातिद्रुतं धीमता वृत्त्यर्थं गमनीयमप्यनुदिनं ईप्सित (वि०) [आप+सन्+क्त] यथोचित। ०इच्छित, रात्रौ तु नेतिव्रतात्। (मुनि० ६) पंच समितियों में इस मनोवाञ्छित, अभिलषित। 'भूपतेरीप्सितं सर्वं प्रक्रमते'। समिति का उल्लेख है। प्रथम महाव्रती साधक गमनागमनादि (जयो० ९/७०) 'शृणु मन्त्रिन्ममेप्सितम्' (समु० ३/४०) में इसी समिति का पालन करना है। (मुनि० २) ईप्सु (वि०) [आप+सन्+उ] १. इच्छावान्, चाहयुक्त, | ईष्य् (अक०) डाह करना, असहिष्णु होना। (जयो० ५/९६) वाञ्छाशील, प्राप्त करने की भावना वाला। २. कहना, ईष्य (वि०) [ईष्य्+अच्] ०ईर्ष्यालु, द्वेष करने वाला, बुरा उच्चारण करना, दुहराना, बोलना। ३. प्रेरित करना, चाहने वाला। चलाना, उकसाना। ईष्यरीति (स्त्री०) ईर्ष्याविधि। (जयो० ५/९६) ईर (सक०) १. कहना, बोलना, उच्चारण करना, भरना। ईर्ष्या (स्त्री०) जलन, डाह। (जयो० ५/२६) अनुकूल होना। (जयो० २७/९) २. ईर्ष्याकरणं (वि०) स्पर्धन। (जयो० वृ० १४/१३) स्पर्धा, डाह, प्रकाशित करना, प्रेरित करना। 'इतीरितोऽभ्येत्य स जन्मदात्री' जलन। (समु० ३/१२) 'पीयूषमीयुर्विबुधा बुधा वा' (वीरो० १/२२) इर्ष्यालु (वि०) जलने वाला। (समु० ९/५) 'पीयूषं नामामृतमीयुर्गच्छेयुः' (वीरो० वृ० १/२२) ईर्ष्याविधिः (स्त्री०) ईर्ष्यारीति, डाह पद्धति। 'हर्षमीरयति प्रेरयतीति' (जयो० वृ० २७/९) ईलिः (स्त्री०) [ईड्। किं डस्य ल:] १. छोटी असि, लघु खंग, ईरणः (पुं०) [ई ल्युट्] वायु, पवन, हवा। 'सर्वतोऽपि पवमान __ छोटी तलवार। २. डण्डा। ३. एक अस्त्र विशेष। ईरणः' (जयो० २।८३) 'ईरणो वायु सर्वतो वाति-वहति' ईश् (अक०) राज्य करना, स्वामित्व होना, अधिकार होना, (जयो० वृ० २/८३) आदेश देना, आज्ञा करना, शासन करना। 'ईशिता तु ईरयंस्ताम्-अतिशयेन मुहुर्मुहुः कथयन जगाम। (जयो० वृ० जगतां पुरुदेवः' (जयो० ४/४९) २/१३९) बारंबार कथन। ईश (वि०) [ईश्+क] १. स्वामी, नायक, (जयो० १/२) ईरिण (वि०) [ई+इनन्] मरुस्थल, बंजर, उत्पत्ति रहित चरित्रनायक। (जयो० ४/४३, वीरो० १/२०) 'कस्त्वदीशदुभूमि, ऊसर। हितुर्भुवि योग्यः' (जयो०४/४३) २. पति, ३. शक्तिशाली, ईरित (वि०) जनित-'तमुदीक्ष्यमुदीरिते जने' प्रमोदेनेरिते प्रेर्यमाणे सर्वोपरि, नरेश (जयो० वृ० १/२) ऐश्वर्यशाली। ४. ईश्वर, सति' (जयो० १२/६६) कथित, प्रतिपादितइतीरितोऽभ्येत्य अर्हत, भगवन् (जयो० ८४८६) (४/६८) ईशे भगवति स' (समु० ३/१२) स्वमिति। ईर्मम् (नपुं०) [ईर् मक्] घाव, व्याधि। ईशतुजः (पुं०) स्वामी का पुत्र, भगवान् का पुत्र। 'आदिपुरुषस्य ईर्या (स्त्री०) [ईर् + ण्यत्+टाप्] १. योग, योगगति, परिभ्रमण तुम् भरतः' (जयो० ९/५०) 'ईरणमीर्या योगगतिरिति यावत्' (ल०वा०६/४) ईर्या योग: | ईशदिक् (स्त्री.) शुभसूचक दिशा, 'भवतीशदिक- सदिष्ट(धव० १३/४७) शकुनैश्च गुणीशः।' ईर्यापथं (नपुं०) योग पथा 'ईरणमीर्या योगो गतिरित्यर्थः तद्वारकं ईशदुहित (स्त्री०) राजपुत्री। (जयो० ४/४३) कर्म ईयापथम्' (स० सि० ६/४) ईशा (स्त्री०) समर्थ स्त्री, ऐश्वर्य शालिनी। (जयो० २२/३०) For Private and Personal Use Only Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ईशानः १८४ उक्त ईशानः (पुं०) [ईश् ताच्छील्ये नानश्] १. स्वामी, (जयो० १/१) मालिक, शासक, राजा। (जयो० १४८७) २. उत्तर-पूर्वी दिशा। ३. ईशान देव विशेष। ईशानकोण: (पु०) ईशानकोण, उत्तर-पूर्वी दिशा का कोण ____ 'स्वस्य श्रीशानदिशः ईशानकोणत:' (जयो० वृ० ३/७१) ईशानदिक् (स्त्री०) ईशानदिशा (जयो० वृ० ३/११) ईशान्तिक (वि०) पति के समीप, स्वामी के पास। 'ईशस्यान्तिकं स्वामिन : समीपम्' (जयो० वृ० १४/६३) ईशायित (वि०) शुभ संवाहक। ईशायिता (वि०) ईश के शुभ संवाहक, ईशस्य भगवतोऽयः | शुभावहो विधिः। भगवत् विषयक विधि, क्रिश्चियन वृत्ति। (जयो० २८/२५) ईशाईवृत्ति (वीरो० १९/१०) ईशिता (वि०) [ईशिनो भाव:-ईशिन्+तल्+टाप्] सर्वोच्चता, अतिमहत्त्वपूर्ण, स्वामित्वपना। (जयो० ४/४९) ईशित् (वि०) [ईशिनो भाव:-ईशिन त्] स्वामित्वपना। (जयो० २२/५१) ईशित्वं (नपुं०) ईशित्व नामक ऋद्धि। ईश्वरः (पुं०) स्वामी, नायक, भगवन्। (सुद० १/२२) ईश्वर (वि०) सामर्थ्यवान्, शक्तिमान, योग्य, समर्थ भवेद्भुवि भावि यदीश्वरः' (जयो० ९/२९) 'ईश्वरः समर्थः' (जयो० वृ० ९/२९) 'ईश्वरः सामर्थ्यवान्' (जयो० वृ० ९/२९) 'भुवि नान्वभिधातुमीश्वरः' (जयो० १०/७४) 'ईश्वरो युवराजा माण्डलिकोऽमात्यश्च। अन्ये च व्याचक्षते अणिमाद्यष्टविधैश्वर्ययुक्त ईश्वरः। (जैन०ल० १४०) 'येनाप्तं परमैश्वर्य परमानन्दसुखास्पदम्' (समु० २४०) ईश्वरवादः (पुं०) ईश्वराधीन कथन। ईश्वरि (वि०) ईश्वर संबंधित। (जयो० वृ० १/१) ईश्वरोज्झनदिक् (स्त्री०) स्वामियों के विरह से उत्पीड़ित दिशा। 'ईश्वराणामुज्झनं परित्यजनं दिशन्तीति किलेश्वरोज्झनदिशः प्राणेश्वरविरहवदा दिशो दशापि' (जयो० वृ० ५/८) ईष् (अक०) उड़ जाना, ०भागना, ०देखना, ० अवलोकन करना। ईषः (पुं०) [ईष्+क] आश्विन मास। ईषणशील (वि०) ईर्ष्यास्थान। (वीरो० २२/२०) ईषत् ( अव्य०) [ईष्+अति] कुछ, किञ्चित्, थोड़ा सा, अल्प। ईषत्कर (वि०) कुछ करने वाला। ईषत्पाण्डु (वि०) कुछ पीला, हल्का पीला। ईषत्पुरुषः (पुं०) निन्दक जन, घृणायुक्त पुरुष। ईषत्प्राग्भार (पुं०) पृथिवी का एक नाम, जो पूर्व-पश्चिम में रूप से कम एक राजू चौड़ी, उत्तर-दक्षिण में कुछ कम सात राजू लम्बी और आठ योजन मोटी है। जो बेंत के समान है। (जैन०ल० २४०) ईषत्-भावः (पुं०) थोड़ा परिणाम, अल्प परिणाम। ईषत्माणं (नपुं०) किञ्चित् मान, कुछ अहंकार। ईषत्-यमं (नपुं०) अल्प यम। ईषत्-रक्तं (नपुं०) थोड़ा लाल। ईषत्-हासं (नपुं०) थोड़ी हंसी, कुछ मुस्कराहट, अल्प परिहसन। ईषा (स्त्री०) [ईष्+क+टाप्] गाड़ी का फड़, हलस। ईषिका (स्त्री०) [ईषा+कन्+इत्वम्] १. कृची, २. अस्त्र विशेष। ईषीका देखें ईषिका। ईह् (सक०) १. चाहना, कामना करना, (ईहते०समु० ७/२) इच्छा करना। (जयो० ३/६७) २. प्रयास करना, लक्ष्य बनाना, कोशिश करना। 'कस्य करक्रीडनकं निश्चेतुमितीहमान:' (जयो० ३/६९) 'विसर्गमात्मश्रित्य ईहमानः' (सु० १/२३) उक्त पंक्ति में 'ईह्' धातु समझने अर्थ में प्रयुक्त हुई है। 'उक्तं पर्वोपवासाय समस्तीहार्हता स्वयम्' (सुद० ९६) उक्त पंक्ति में में 'ईह' धातु का अर्थ मानना है 'राज्ञीहाऽ हं द्वारि खलु तामीहे गामधिपस्य' (सुद०९४) स्वामी का आज्ञा मानना। ईहा (स्त्री०) मतिज्ञान का एक भेद, विशेष आलोचन, जिज्ञासा, चेष्टा कामना, वाञ्छा, इच्छा, चाह। (सम्य० १३५) 'अवग्रहीतस्यार्थस्य विशेषकांक्षणमीहा' (धव० १/३३४) 'ईहते चेष्टते अनया बुद्ध्या इति ईहा' (धव० १३/२४२) उः (पुं०) यह वर्णमाला का पंचम स्वर है। इसे ह्रस्व माना गया है, इसका उच्चारण स्थान ओष्ठ हैं। उ (अव्य०) १. सम्बोधन, आमन्त्रण, निमन्त्रण, अनुकम्पा, दया, करुण, आश्चर्य, विश्मय, स्वीकार, प्रश्न, इच्छा आदि के अर्थ में इस अव्यय का प्रयोग होता है। २. तु, किन्तु, परन्तु, विशेषण हेतु आदि के लिए भी इसका प्रयोग किया जाता है। ३. पादपूर्ति के लिए भी इसका प्रयोग होता है। उक्त (भू० क० कृ०) [वच्+क्त) कथित उक्तं प्रतीतम्-शब्द For Private and Personal Use Only Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उक्तकेतुः १८५ उचितज्ञ उच्चारिते सति यदवग्रहादिज्ञानं जायते। (त० वा० १/६) उखु (अक०) हिलना, कांपना, डोलना। कहा गया, प्रतिपादित, प्रयुक्त, ०संज्ञात, ०भाषित, उखा (स्त्री०) [उख+क+टाप्] पतीली. डेगची, वटोही। कथित, विवेचित। (सम्य० ७८२, जयो० वृ० १/९) उख्य (वि०) डेगली में तपाया, उबाला गया। 'धरति श्रियमेष एवमुक्तः' (जयो० १२/५४) 'इत्येवमुक्तः उगिति (वि०) मन लगाने वाला। (मुनि० २३) संज्ञातो' (जयो० वृ० १२/५४) 'इत्युक्ताऽथगता चेटी' उग्र (वि०) [उच्+रन् गश्चान्तादेशः] कठिन, कठोर, ०भीषण, (सुद० ७७) ०तीव्र, क्रूर, ०भयंकर, ० भीम, प्रबल, हिंसक, उक्तकेतुः (पुं०) नाम विशेष। (सुद० ११०) 'राज्ञी माता शक्तिशाली, तीक्ष्ण, उच्च, ०भद्र। 'सद्धारगङ्गाधरमह्यमस्तूक्तकेतुः रुष्टः। (सुद० ११०) मुग्ररूपं' (जयो० १६/१४) (वीरो० १७/३४) उक्त पंक्ति उक्ततन्तु (वि०) क्लेद से व्याप्त। 'विलोपमं तत्कलिलोक्ततन्तु' में 'उग्र' का अर्थ 'महादेव' एवं उन्नत दोनों हैं। 'उग्ररूपं (सुद० १०२) महादेव-स्वभावमुन्नतस्वभावं वा' (जयो० वृ० १६/१४) उक्तपत्ररसनः (पुं०) उपर्युक्त बात, उक्त कथन। 'उक्तं पत्रं । उग्रमहीपसूनुः (पुं०) उग्रसेन का पुत्र, कंस पुत्र। (वीरो० शब्द समूह रसति स्वकरोतीत्युक्तपत्ररसनो' (जयो० वृ० १७/३४) ४/५) उग्रगंध (वि०) तीव्र गन्ध, अधिक गन्ध। उक्तप्रकार (पुं०) उपर्युक्त, कथनानुसार। (सुद० ९०) उग्रचारिणी (वि०) उग्र स्वभावी। रक्तरीति (वि०) उपयुक्त विधि (सुद० १/८) उग्रचण्डा (वि०) अत्यधिक क्रोध वाला। उक्तवती (वि०) ०कहती हुई, ०बोलती हुई, ०भाषिता उग्रघटा (स्त्री०) घनघोर घटा। ०इत्थमुक्तवति काशिनरेशे' (जयो०४/२०) 'उक्तवती- उग्रजंतु (पुं०) क्रूर प्राणी। जगाद यद्' (जयो० वृ० ६/३४) । उग्र-तप (पुं०) कठोर तप। 'इत्येवमत्युग्रतपस्तपस्यन्' (सुद० उक्ता (वि०) कथिता, भाषिता। (सुद०७७) ११९) उक्तावग्रहः (पु०) गुणाविशिष्ट का ग्रहण। नियमित उग्र-दार-कान्ति (स्त्री०) धूर्जटि स्त्री, पार्वती, कान्तियुक्त गुण-विशिष्टार्थग्रहणमुक्तावग्रहः। (मूला०वृ० १२/८७) परमसुन्दरी। 'उग्रदाराणां धूर्जटिस्त्रियाः पार्वत्याः कान्तिर्यया 'अनुक्तस्य अवग्रहः' (त०वृ० १/१६) तां परमसुन्दरीं ता बाला भूयः' (जयो० ६/७८) श्रीदेवकी उक्ति: (स्त्री०) [वच्-क्तिन्] ०अभिव्यक्ति, कथन, भाषण, यत्तजुजापिदूने कंसे भवत्युग्रमहीपसूनुः। ०वक्तव्य, विचार, ०अभिप्राय, सुझाव। (सम्य० ७१) उग्रविधिः (स्त्री०) कठिन चर्या। "उचितामुक्तिमप्याप्त्वा' (सुद० ९०) 'मदुक्तिरेषा भवतो उग्रसेनः (पुं०) नाम विशेष, मथुरा राजा और कंस का जनक सुवस्तु' (सुद० २।२९) उग्रसेन। (दयो० पृ० १००) उक्तिपूर्वक (नपु०) कथनपूर्वक, विचारपूर्वक। । उग्रोग्रतपः (पुं०) कठिन तप, तीव्र तप। एक ऋद्धि विशेष। 'भगवन्नमनोक्तिपूर्वकम्' (समु० २/२५) (तिलोयपण्णत्ति १०५१) उक्तिविचक्षणं (नपुं०) अनुरूप वचन बोलने में प्रवीण। उच् (सक०) ०चयन करना, इकट्ठा करता, संचय करना, (सुद० ११९) 'कामानुरूपोक्तिविचक्षणाऽद:।' (सुद० ० जुटाना। ११९) उचित (भू० क० कृ०) १. योग्य, ठीक, अच्छा। २. प्रचलित, उक्थं (नपुं०) [वच्थ क्] ०वाक्य, कथन, विचार, स्तोत्र, उपयुक्त। ३. अभ्यस्त, 'उचितमभ्यस्तमित्युपमा' (जयो० ०स्तुति, प्रशंसा। वृ० २१/२४) 'हृदि प्रवेशोचिता विशेषात्' (सुद०१/४२) उक्ष (अक०) छिड़कना, गीला करना, सींचना, तर 'तुगहो गुण-संग्रहोचिते' (सुद० ३/२२) उक्तं पंक्ति में करना, विकीर्ण करना, फैलाना, बरसाना। 'उचित' का अर्थ परिपूर्ण, भरा हुआ है। 'समये पुण्यमये उक्षणं (नपुं०) [उक्ष ल्युट] मंत्रित करना, प्रभावित करना, खलूचिते' (सुद० ३/१) आधीन। उचितज्ञ (वि०) उचित बात को जानने वाली 'उचितज्ञताधिपन्नउक्षन् (पुं०) सांड, बैल, बलिवर्द, वृषभ। (जयो० १५/७८) For Private and Personal Use Only Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org उचित्तवृत्तं उचित्तवृत्तं ( नपुं०) उत्तम छन्द रूप, स्पष्ट गोलाकार, श्रेष्ठ वृत्त भाव (सुद० २/३० ) उचितविधि (स्त्री०) योग्य विधि उचित कर्तव्य 'क्षन्तव्योऽस्मि तवोचितचिविधी सद्भावनामण्डिते' (सुद० पृ० ९५ ) उचित - संस्थानं (नपुं०) उत्तम स्थान। (सुद० पृ० ८३) 'पुन्नागोचित संस्थानं' उचितस्थलं (नपुं०) उत्तम स्थान (सुद० वृ० ७६) 'नात: स्थातुं शशाकेदं मनागप्युचितस्थले' (सुद० ७६ ) उचितात्मरीति: (स्त्री०) स्वकुलाचार नियम (जयो० २ / ४९ ) ० योग्य रीति, अनुकूल एवं प्रचलित परम्परा । उचितोचित (वि० ) [ उद् + चित्+ड] उन्नत, उत्कृष्ट, (सुद० १/१३) ऊपर, ऊँचा (जयो० वृ० १/५) उच्चकैः (अव्य०) उन्नत, ऊँचा, उच्च। उच्चखान (भू०) उखाड़ना, निकालना, खोदना (समु०९/४) (जयो० २८/७) उच्चगोत्रं (नपुं०) उच्चकुल। उच्चक्षुस् (वि०) ऊपर नेत्र करने वाला, निकाली गए नेत्रों वाला । उच्चण्ड (वि०) भीषण, उग्र, कठिन, तीव्र, प्रचण्ड, भयंकर, भयावह। उच्चपदं (नपुं०) उच्चस्थान (वीरो० १८/४२) उच्चन्द्रः (पुं०) रात्रि का अंतिम प्रहर । उच्चतर (वि०) उच्चैस्तन। (जयो० १५/१३) + उच्चयः (पुं०) [ उद्• चि• अच्] १. समुदाय, समूह, संग्रह, राशि २. स्कन्धच्युत। श्री गैरिकस्योच्चय एव भानोः ' (जयो० १५/१३) उच्यते कहना (सम्य० ११५ ) उच्चर् (सक०) उच्चारण करना, बोलना, प्रतिभाषित करना । उच्चरतु सुद० ९९. वचसोच्चरतामिदम् (हित०२) 'देवध्वनिं नित्यमनूच्चरन्ति' (जयो० १/८७) 'महर्षि - पठितमनुवदन्तीत्यर्थः ' (जयो० वृ० १ / ८७) उच्चरथ: (पुं०) उत्तमरथ, सुरथ श्रेष्ठ यान (जयो० ० १३/७) उच्चरणं (नपुं०) उच्चारण । (जयो० २/३५) उच्चल (अक० ) चलना, हटना अलग होना, दूर होना (जयो० २/४६) पान्थ उच्चलति किं कदा पथ' (जयो० ७/५५) चंचल होना - उच्चलेत् (जयो० २/१५२) उच्चारणपूर्वकं (नपुं०) कथन पूर्वक विवेचन पूर्वक (सुद० 2 ४/४६) १८६ उच्चलनं (नपुं० ) [ उद्+चल+ ल्युट् ] चलना, कूच करना, उत्पथगामी (दयो० ४० ) उच्चलित (भू० क० कृ० ) [ उद् चलु+क्त] प्रस्थान करने वाला, चलने में तत्पर । उच्चवर्णः (पुं०) श्रेष्ठवर्ण, सुवर्णभाव। (जयो० वृ० १२ / ८८ ) उच्चाटन (नपुं० [ उद्-चट् णिच्+ ल्युट्] मन्त्र विशेष, उन्मूलन, निस्सरण, जादू चलाना । 'णमो विज्जाहराणं' (जयो० वृ० १९/६९) For Private and Personal Use Only Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उच्चालकं (वि०) उच्च स्थान वाला। (दयो० ४८ ) उच्चालन (वि०) चलायमान करने वाला। (सुद० ११६ ) डिगाने वाला | उच्चारणं (नपुं०) कथन, प्रतिपादन भाषण। यावच्छ्रीजिननामोच्चारणात्' (सुद० ९६ ) उच्चार: (पुं० ) [ उद्+चर + णिच्+घञ्] १. मल-मूत्र विष्ठा, गोबर । २. उच्चारण, कथन, अभिभाषण । ३. विसर्जन, छोड़ना । । उच्चारणपूर्वक (नपुं०) कथनपूर्वक, विवेचनपूर्वक । उच्चारणं (नपुं०) कथन, प्रतिपाद, प्ररूपणा भाषण । उच्चार-प्रसवणं (नपुं०) मल मूत्रादि का विसर्जन (मूला ०५/१२४) उच्चावच (वि० ) [ उदक् च अवाक् च अनियमित ऊँचा-नीचा ऊपड-खाबड़ उच्चूड (वि० ) [ उद्गता चूडा यस्य ] ध्वज, ऊपर फहराने वाला ध्वज / झण्डा । उच्चैः (अव्य० ) [ उद्+चि+डैस् ] उन्नत, ऊपरीगत, ऊपरी, उत्तुंग ऊँचा (सुद० १ / १३ ) उच्चैः कुलं (नपुं०) उत्तम कुल । उच्चैः स्तनं (नपुं०) १. पृथुलस्तन, पीनतम पयोधर (जयो० ३/७२, सुद० १२२) 'उच्चैस्तनफलोदयप्रायत (जयो० ११/९५) (जयो० ११/३) "उच्चैः स्तनानां पृथुलानां फलानामुदयप्रायो यस्याः " या उच्चैस्तन उपरिप्रदेशे' (जयो० वृ० ११/९५) उच्चैर्लम्यमान (व०कु० ) ऊर्ध्वायत, उच्चता प्राप्त (जयो० वृ० १३/३६) उच्चैः बाद (पुं०) उत्तम वचन, मधुरालाप उच्चैः शिरस् (वि०) हे महाभाग, महानुभाव, सज्जन । उच्छ (सक०) १. वांचना, पढ़ना। २. त्यागना, छोड़ना। (जयो० वृ० ११/४३) 2 उच्छ , Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उच्छन्न १८७ उज्जिहानं उच्छन्न (वि०) [उद् छद्+क्त ] उखाड़ा गया, हिलाया गया, उच्छादनं (नपुं०) अनाविर्भाव। लुप्त, समाप्त, नष्ट। उच्छेदः (पुं०) [उद्। शिष्घञ्] उखाड़ना, उद्भिद। उच्छल (वि०) उछलना। (सुद० १/७) उच्छेदक (वि०) अन्तर, विरह, विरोध, व्यधान। (जयो० उच्छलत् (वि०) |उद्+शल+शतृ] १. चमकता हुआ, देदीप्यमान २४/१९) काटना, मूलोच्छेन, उच्चाटन। होता हुआ। २. उच्चगत, ऊँचाई पर जाता हुआ। (सुद० उच्छेदनं (नपुं०) उखाड़ना, काटना। (जयो० वृ० २४/७३) उच्छेदी (वि०) विनाशगत, नष्ट हुआ, विध्वं सको जात। उच्छलनं (नपु०) [उद्+शल+ल्युट्] उड़ना, ऊपर जाना। । (वीरो० ६/७) उच्छादनं (नपु०) ( उद्+छद् णिच्+ ल्युट्] १. ढाकना, आच्छादित । उच्छेषः (पुं०) [उद्+शिष्+घञ्] शेष, अवशेष, अवशिष्ट, करना। २. मलना, मसलना, लेप करना। बचा हुआ। उच्छालित (वि०) फेंकी गई, ऊपर की गई। (वीरो० १६/५) उच्छोषण (वि०) सुखाने वाला, मुा देने वाला। उच्छासन (वि.) [उत्क्रान्त शासनम्] निरंकुश, अनियंत्रित। उच्छोषणं (नपुं०) सुखाना, मुझाना। उच्छिख (वि०) [उद्गता शिखा यस्य] १. शिखा युक्त, २. उच्छू (अक०) [उद्+श्रि+अच्] उदय होना, निकलना। ___ ज्योति युक्त। ३. दीप्तिवान्। उच्छ्रयः (पुं०) वृद्धि, विकास। उच्छि-खत्व (वि०) ऊपर। (सुद० १/१६) उच्छ्य णं (नपुं०) [उद्+श्रि+ल्युट] उन्नयन, विकास, विस्तार, उच्छित्तिः (स्त्री०) [उद्-छि+क्तिन्] नाश, विनाश, उखाड़ना, फैलाव, प्रसार। समूल नष्ट करना। उच्छ्रितः (भू० क० कृ०) [उद्+श्रि+क्त] १. उत्थापित, उच्छिन्न (भू० क० कृ०) [उद्+छिद्+क्त] विनष्ट, नाश, उठाया गया, ऊँचा किया। २. वर्धमान, बढ़ाया गया, वृद्धि समाप्त, उखाड़ा गया। गतंगत, ३. समृद्ध, वृद्धि प्राप्त। उच्छिरस् (वि०) [उन्नतं शिरोऽस्य] १.विनम्र, विनीत, २. | उच्छ्व सनं (नपुं०) [उदृश्वस्+ल्युट्] सांस लेना, नि:श्वास, कुलीन, उन्नत। ३. सज्जन, महानुभाव, आदरणीय, पूज्य। आश्वास, आह भरना। उच्छिलीन्ध (वि०) कुकुरमुत्ता, सांप की छतरी। उच्छ्व सित (भू० क० कृ०) [उद्+श्वस्+क्त] उच्छवास, उच्छिष्ट (भू० क० कृ०) [उत्+शिप्+क्त ] १. अवशेष, शेष, नि:श्वास, आश्वास, गहरी सांस लेना। बचा हुआ, त्यक्त, विसर्जित, छोड़ा गया। (दयो० ७. । उच्छवासः (पुं०) [उद्+श्वस्+घञ्] १. सांस, नि:श्वास, समु०४/२) २. नि:सार, जूठन-'यदृच्छिष्टमहो विधात्रा' ऊसार, उर्ध्ववातोद्गम। २. एक अंग, भाग, हिस्सा, आश्वास। (समु० ४/२) (जयो० ११/७५) ३. प्रोत्साहन, आश्वासन। 'उर्ध्वगमनस्वभावः परिकीर्तितः' उच्छिष्टांश (वि०) समुत्कर, निःसृत भाग, प्रवाहित भाग। उर्ध्व वातोद्गम य स उच्छवासः। (जैन०ल० २४५) (जयो० वृ० ११/४३) उच्छवास-नामकर्म (नपुं०) ०उच्छवसन, ०आश्वास, प्राणापान उच्छीर्षकं (नपुं०) उपधान, तकिया। ग्रहण, निःश्वास सामर्थ्य। 'उच्छवसनमुच्छ्वासस्तस्य नाम उच्छुतिः (स्त्री०) सद्भाव वृद्धि। (जयो० २/१०५) उच्छ्वास नाम' (जैन०ल० २४५) उच्छुष्क (वि०) [उत्+शुष्+क्त तस्य क:] मुरछाया, शुष्क, उच्छ्वास-पर्याप्तिः (स्त्री०) आन-प्राणपर्याप्ति। उच्छ्वास-निःश्वास-पर्याप्तिः (स्त्री०) सांस लेने, छोड़ने की शक्ति। उच्छून (वि०) [उद्+श्वि+क्त] मोटा, बलशाली, सशक्त, उज्जगज (वि०) विशेष गर्जना। (सुद० २/३६) दृढ़, फूला हुआ। (जयो० ११/४०) उज्जयिनी (स्त्री०) अवन्ति नगरी, मालवा का प्रसिद्ध नगर। उच्छूनता (वि०) प्रफुल्लता, फूला हुआ. उत्तुंग। (जयो० ११/४०) (दयो० १०/१०) उच्छृङ्खल (वि०) [उद्गत-शृङ्खलात:] निरंकुश, अनियन्त्रित, | उज्जासनं (नपुं०) [उद्+जस्+णिच्+ ल्युट] हनन, घात, विच्छेद, वशरहित। (जयो० ११/४१) उदवेल युक्त। (जयो० ३/९२) विनाश। उच्छृङ्खलभाषिन् (वि०) निरंकुश-कथन, मुखरीवादक, | उज्जिहानं (वि०) [उद्+हा+शानच्] उदित, ऊपर जाता हुआ। व्यर्थालापी। (जयो० ११/४१) बहिर्गत। सूखा। For Private and Personal Use Only Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org उज्जीवय् उज्जीवय् (सक०) जीवित करना, प्राण देना (जयो० १/७६) उज्जृम्भ (वि०) १. जम्भाई लेना, मुंह खोलना। २. फुत्कारित, फुलाया हुआ । उज्जृम्भाषणं (नपुं० ) [ उद्+जृम्भ + अ + ल्युट् ] जम्भाई लेना, उवासी, मुंह खोलना । उन्न्य (वि० ) [ उद्गता ज्या यस्य ] धनुर्धर, धनुष पर डोरी खुली रखने वाला। उन्न्चल (वि०) [ उद्+ज्वल्+अच्] धवल (जयो० १३/३९) दीप्ति, कान्तियुत, चमकयुक्त, प्रभावान्, स्वच्छ। (वीरो० २/४) उज्ज्वलो वाच्यवद्दीप्ते परिव्यक्तविकाशिषु' इति विश्वलोचन: ' (जयो० ४/४९) 'मुक्तोपम-तन्दुलदलमुज्ज्वलमादाय श्रद्धायाः' 'दुग्धाब्धिवदुज्ज्वले' (सुद० ९०) यहां 'उज्ज्वल' का अर्थ पवित्र (जयो०) उज्ज्वल--कुम्भ: (पुं०) मङ्गलकलश, इष्टकुम्भ) (जयो० १६ / १०) पीयूष - पादोज्ज्वल-कुम्भदृष्टया' (जयो० १६ / १ ) उज्ज्वलजल (नपुं०) निर्मलजल, शीतल जल 'नीरमुज्ज्लजलोद्भवनिष्ठ' (जयो० ४/५९) उक्त पंक्ति में उज्ज्वल' का अर्थ विनाश भी किया है। 'शरदि उज्ज्वलैर्विकाशिभिः जलोदभवैः कमलैर्निष्ठम्' (जयो० वृ० ४/५९) उज्ज्वल - ज्वाला (स्त्री०) प्रकाशमान ज्वाला, देदीप्यमान ज्वाला । (सुद० २/१७) नयन्तमन्तं निखिलोत्करंतं समुज्ज्वलज्ज्वालय लसन्तम्।' (सुद०२/१७) उज्ज्वलवर्ण (पुं०) निर्मल अक्षर, स्वच्छवर्ण, पवित्र वर्ण । 'उज्ज्वलः पवित्रो वर्णः उज्ज्वलैर्निर्मलैर्वर्णरक्षरैः। (जयो० उज्झ् (सक०) त्यागना, छोड़ना, लताना, टालना, बचना, विसर्जन करना । उज्झेत् कथंकारं त्यजेदिति (जयो० वृ० २५ / ७५) 'परं समस्तोपधिमुज्झिहाना' (सुद० ११५) 'समस्तमप्युज्झतु सम्व्यवायं (सुद० १३१) उज्झितुं (सुद० ११३) उज्झकः (पुं० ) [ उज्झ+ ण्वुल्] १. बादल, मेघ, घनघोर घटा। २. भक्त श्रद्धाशील। उन्झनं (नपुं०) त्यागना, छोड़ना, परिमंचन, विसर्जन, प्रनवण ( मुनि० १४ ) उज्झित (भू० क० कृ०) छोड़ा गया, त्यक्त, परित्यक्त (जयो० १२ / ७१ ) विसर्जित किया गया। (जयो० ११ / ७५ ) उज्झतु-त्यजतु (वीरो० २ / १०) उज्झिता ( सुद० ३/३५) उज्झतो (सुद०२/२) नित्यं पादप कोटरादिषु १८८ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उड्डीयन वदन्यानपेक्षिष्वथा प्युदिभन्नादितयोज्झितेषु च चुरादूरे चरः सर्वथा (मुनि० ८) उक्त पंक्ति में उज्झित का निर्जन, एकान्त, शून्यगृह आदि भी अर्थ निकलता है अर्थात् मुनि उजड़े आवासों में रहे। 'यद्वा पदोरेव मदोज्झितासाऽमुष्याः ' (जयो० ११/७२) मदोझिन्ता निरभिमाना-रहित अर्थ है। एषणा दोष विशेष। उच्छ (सक०) एकत्रित करना, चीनना, संग्रह करना, जुटाना। उच्छ ( पुं०) [उपन्] एकत्रित करना, संग्रहण। उञ्छनं (नपुं०) [उञ्छ् + ल्युट् ] इकट्ठा करना, बटोरना, खलिहान से बीनना। उटम् (नपुं०) [उ+टक्] पत्ता, घास उट्टङ्गः (पुं०) प्रहार, आघात (जयो० ६ / ६० ) उट्टङ्गित ( वि०) प्रहारित, उत्कीर्ण किया गया। (जयो० ६ / ६०) (दयो० ४२) उडु (स्त्री०) १. नक्षत्र, तारा २. वारि, जला उडुगण (पुं०) तारासमूह (समु० ६/७ ) उडुचक्रं (नपुं०) राशिचक्र । उडुपः (पुं०) नक्षत्रपति, चन्द्र। (जयो० १५/२१) 'उडुपश्चन्द्रमा ' (जयो० वृ० १५ / २१) उडुपं (नपुं०) बाड, बेड़ा, घेरा। उडुपरम्परा (स्त्री०) नक्षत्र परम्परा (जयो० २४) उडुपति: (पुं०) चन्द्र, चन्द्रमा । उडुपांशुः (नपुं०) चन्द्रकिरण। 'उडुपस्य चन्द्रमसोऽशुवतिकरणसमूह' (जयो० २१ / ५) उडुपय: (पुं) आकाश, खे, नभ, अन्तरिक्षा उडुवर्ग: (पुं०) पक्षी वर्ग (वीरो० ४/२० ) उडुरत्नं (पुं०) चन्द्रमा । (जयो० ११ / ६४ ) उड्डयनं (नपुं० ) [ उद्+डी+ ल्युट् ] ऊपर उड़ना, उड़ान भरना । (जयो० ३/७ ) उड्डयनसाधनं (नपुं०) व्यान, उड़ने का साधन, वाहन, ० विमान (जयो० ३/७ ) उड्डायनं (नपुं०) उड़ाना, उड़ान भरना । चिन्तामणि शिपत्येष काकोड्डायनहेतवे । (सुद० १२८ ) + उड्डीन (भू० क० कृ० ) [ डी. क्त] उड़ाया गया, भगाया गया, ऊपर की ओर किया गया। उड्डीयनं (नपुं० ) [ उड्डः स एव आचरति क्यङ् उड्डीय+ ल्युट् ] उड़ान भरना, उड़ना, उड़ान, ऊपर की ओर जाना। For Private and Personal Use Only Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उड्डीशः १८९ उत्केषणं उड्डीशः (पुं०) [ उद्+डी+क्विप्] (उड्डी तस्य ईशः) शिव। | उत्कन्धर (वि०) [उन्नतः कन्धरोऽस्य] उद्ग्रीव, गर्दन ऊपर उड़ः (पुं०) देश नाम, उड़ीसा। किए हुए। उत् (अव्य०) [उक्त] यह अव्यय १. संभावना, संदेह, | उत्कम्प (वि०) कम्पित, चलायमान, विचलित, हिलता हुआ। अनिश्चतता, अनुमान, संयोग, साहचर्य, प्रति, लेकिन उत्कर (वि०) [उद्+कृ+अप्] १. समुदाय, अवयव, समूह। आदि के अर्थ में होता है। २. कहीं-कहीं पर शब्द से पूर्व 'नयन्तमन्त निखितोत्करं तं' (सुद० २/१७) २. उत के प्रयोग होने पर 'विपरीत अर्थ भी व्यक्त होता कणिका-(वीरो०१/१५) 'करादुत्कर संविधा तु'३. कुठारादि है। उत्पथगामी अपथ। (जयो० वृ० २/१३२) ३. 'उत्' भेदन। का अर्थ ऊपर भी है-'रक्तमस्थ्युत्थमेतीति तदेकभक्तः' | उत्कर्करः (पुं०) वाद्य विशेष। (सुद० १२१)। ४. 'उत्-सहित, प्रत्युद्भूत-'रसातलं उत्कर्तनं (नपुं०) [उद्+कृत्+ल्युट्] काटना, मूलोच्छेदन करना, तूत्तलसातलं' (जयो० ५/९०) उत्तलं-प्रत्युद्भूतलम्' (जयो० जड़ से निकालना, कतरना, उखाड़ना। वृ० ५/९०) ५. 'उत्'-अब, तो, लेकिन, बल्कि - (वीरो० । उत्कर्षः (पुं०) [उद्+कृष्+घञ्] वृद्धि। (जयो० १/९५) (३/८३) ४/१७) 'निधेयं मया किं विधेयं करोतूत सा' (सुद०९५) उन्नति, उदय, अभ्युदय, विकास, समृद्धि, बहुलता। २. 'क्षणभरास्तां न स्वप्नेऽप्युत' (सुद० ९९) ६. 'उत्' ऊपर, उत्कृष्टता, सर्वोपरिगुण, विशेष यश। परोत्कर्ष-सहिष्णुत्वं उठा हुआ। 'शान्तिर्भवातापत उत्थिताय' (भक्ति० २४) जह्यद्वाञ्छन्निजोन्नतिम्' (सुद० ४/४२) उतथ्यः (वि०) तथ्यपूर्ण, रहस्य युक्त। उत्कर्षणं (नपुं०) [उद्+कृष्+ ल्युट्] १. उन्नत, उदय, विकास। उताङिन् (पु०) प्राणी, सत्त्व, जीव। 'प्रभुभक्तिरुताङ्गिनां २. ऊपर खींचना, ऊपर लेना, बढा देना। ३. कर्म को मवेत्फलदा' (सुद० ३/५) वृद्धि करने वाला कारण। 'सत्तागमे कर्मणि उताश्नुवान् (वि०) उपवास करने वाला, 'नाऽऽमासमा- बुद्धिनावाऽपकर्षणोत्कर्षणसंक्रमा वा।' (सुद० ८/१५) पक्षमुतारनुवानः' (सुद० ११८) 'उक्कड्डणं हवे वड्ढी' (गो०क०४३९) उत्तास्थित (वि०) उचित रूप से रहना, अच्छी तरह स्थित उत्कर्षप्रदायक (वि०) उदय को प्राप्त होने वाला, उन्नति होना। 'कर्तुमुतास्थितो रसात्' (समु० २/११) दायक। (जयो० वृ०६/५६) उत्क (वि०) [ उद्। स्वार्थ कन्] उत्कठित, वाञ्छा युक्त, उत्कलः (पुं०) [उद्+कल्+अच्] १. उड़ीसा का अपर नाम। चाहने वाला, उत्साही, 'रोमाणि बालभावाद्वरश्रियं २. चिडिमार, बहेलिया। दृष्टुमुत्कानि' (जयो० ६/१२४) उत्कान्-उत्कण्ठितान् उत्कल (वि०) व्याकुल, संतप्त। 'उत्कला व्याकुला भवन्त (जयो० वृ० ३/७४) इति' (जयो० वृ० २१/९) उत्कञ्चनं (नपुं०) काष्ठ-विशेषों का बंधन, ऊपरि बन्धन। उत्कलाप (वि०) क्रीड़ा करते हुए, पूंछ फैलाए हुए। उत्कञ्चुक (वि०) कवच रहित। उत्कलित (भू० क० कृ०) [उद्+कल्+क्त] संक्षिप्त कल्पित। उत्कट (वि०) [उद्। कटच्] १. उच्च, प्रचुर, महत्, बड़ा, (वीरो० २२/१७) परिरक्षित, रखते हुए। (जयो० ४/७) प्रशस्त, उन्नत, शक्तिसम्पन्न, भयानक, भीषण। 'श्रीचतुष्पथक उत्कलिकाय' (जयो०४/७) 'स्फटयोत्कटया समुच्छ्व सन्नयि (जयो० १३/४१) २. उत्कलिका (स्त्री०) १. लालसा, वाञ्छा, इच्छा, चाह, आतुरता, श्रेष्ठ, उत्तम। ३. विषम। काम क्रीड़ा। २. कली, पुष्प-कलिका। ३. उत्कण्ठा, उत्कण्ठ (वि०) [उन्नतः कण्ठो यस्य] १. तत्पर, उद्यत, उत्साह। (जयो० १७/१२५) तैयार। २. उत्साहित, इच्छुक। उत्कलिकावती (वि०) समुत्कण्ठावती, उत्साहजन्या। उत्कण्ठा (स्त्री०) [उद्+कण्ठ+अ+टाप] १. चिन्ता, आतुरता, 'सुरत-तरङ्गिणि उत्कलिकावती' (जयो० १७/१२६) बैचेनी। (दयो० ६५) २. खिन्न, खेद, शोक, दु:ख। उत्कल्प (सक०) निर्माण करना, बनाना। (जयो० ९/२९) (जयो० वृ० १२/१३०) उत्कल्पपितुम्। उत्कण्ठित (भृ० क० कृ०) [उद्+कण्ठ+क्त] १. उत्साहित, | उत्केषणं (नपुं०) [उद्+कष्+ल्युट्] जोतना, खींचना, हल से इच्छुक, उत्साही। (जयो० वृ० १२/१३०) बखरना, फाड़ना, चढ़ाना। (जयो० १०/२८) For Private and Personal Use Only Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उत्का १९० उत्खला उत्का (स्त्री०) अभिलाष वती, उत्कण्ठ शीला स्त्री। 'तपोधनं उत्कृष्ट-निक्षेपः (पुं०) कर्मस्थिति का उत्तम न्यास। भानुमिवानुमातुमुत्का' (जयो० १/७८) 'उद्गतंसुखं उत्कृष्टपदः (पुं०) आश्रयभूत पद। प्रसन्नभावो यस्याः सेति' (जयो० वृ० १/७८) उत्कृष्टमतिः (स्त्री०) उत्तमबुद्धि, श्रेष्ठ धी। उत्कारः (पुं०) [उद्+कृ+घञ्] १. फटकना, साफ करना। २. उत्कृष्ट-मंगलं (नपुं०) उत्तम मंगल। उत्कीर्ण करना, बीज बौना। | उत्कृष्टं श्रावकः (पुं०) उत्तमश्रावक। ग्यारहवीं प्रतिमा धारक उत्कालित (भू० क० कृ०) अनियत काल, काल/समय का श्रावक। नहीं होना। उत्कोचः (पु०) [उत्कुच्+घञ्] गुप्त ग्रहण, रहस्य रूप में उत्कासः (पुं०) [उत्क+आस्+अण्] खखारना, गला साफ ग्रहण, छिपाकर लेना, रिश्वत, घूस। करना। उत्कोचकः (पुं०) [उत्कोच्+कन्] रिश्वत, घूस। उत्किर (वि०) [उद्+कृ+श] ऊपर विखेरता हुआ, फैलाता उत्कोचभागः (पुं०) गुप्त हिस्सा, गुप्त अंश, रिश्वत। (जयो० हुआ, उड़ाता हुआ। वृ० ३/१५) उत्कीर्णय (सक०) बनाना, निर्माण करना, रचना, घटित उत्क्रमः (पुं०) [उद्+क्रम्+घञ्] १. बाहर आना, ऊपर जाना, करना। 'उत्कीर्णानि चित्राणि' (जयो० वृ० ५/१६) प्रस्थान, उन्नति, विकास। २. उल्लंघन, विचलन। उत्कीर्तनं (नपुं०) [उद्+कृ+ ल्युट्] ०गुणगान, प्रशंसा, उत्क्रमणं (नपुं०) [उद्+क्रम् ल्युट्] प्रस्थान, जाना, गमन, यशेगान, संकीर्तन, उत्तम रीति से प्रशंसा करना। ऊपर गमन। उत्कीर्तना (स्त्री०) उच्चारण, ग्रन्थपाठ। उत्क्रान्तता (वि०) अतिक्रमणता। (सम्य० १६) उत्कुट (नपुं०) [उन्नतः कुटी यत्र] शान्त पूर्ण शयन, ऊपर उत्क्रान्तवती (वि०) लंघितवती, भर्त्सितवती, जाती हुई, उल्लंघन ___ की ओर मुंह करके लेटना। करती हुई। (जयो० ३/४२) उत्कुटिकासनं (नपुं०) उत्कडु आसन। उत्क्रान्तिः (स्त्री०) [उद्+क्रम्-क्तिन्] १. कूच करना, निकलना, उत्कुण: (पुं०) [उत्+कुण+क] मत्कुण, खटमल। जाना, आगे बढ़ना। २. उल्लंघन, अतिक्रमण। उत्कुल (वि०) [उत्क्रान्त कुलात्] कुल अपयश करने वाला, | उत्क्रोशः (पुं०) [उद्+क्रूश्+अच्] १. तीव्र क्रोध, अधिक ___ अपमानित करने वाला। क्रोध। २. उद्घोष, कुररी, विशेष गर्जना। उत्कूजः (पुं०) कूक, कुहु कुहु शब्द, कोयल का शब्द। उत्क्ले दः (पुं०) [उद् क्लिद्+घञ्] तर होना, भीग जाना, उत्कूटः (पुं०) [उन्नतं कूटस्य] छतरी, छाता, छत्र। __ आर्द होना। उत्कूर्दनं (नपुं०) [उद्+कूर्द+ल्युट] कूदना, उछलना, ऊपर उत्क्ले शः (पुं०) [उद्+क्लिश्+घञ्] १. उत्तेजना, अशान्ति, छलांग लगाना। व्याकुलता। २. व्याधि, दु:ख, रोग, सामुद्रिकव्याधि। उत्कूल (वि०) [उत्क्रान्तः कूलात्] नदी तट पर, किनारे पर। उच्छिद्यण (वि०) मूलोच्छेदन। (सम्य० ९३) उत्कूलित (वि०) नदी तट पर लगने वाले।। उत्क्षिप्त (भू०क०क्र०) [उद्+क्षिप्+ क्त] १. फेंका गया, उठाया उत्कृष्ट (भू० क० कृ०) [उद्+कृष्+क्त] १. उन्नत, श्रेष्ठ, हुआ, उछाला गया। २. अभिग्रह दोष। ३. ग्रस्त, अभिभूत. उत्तम, प्रधान, प्रमुख, ०अग्रणी, तीव्र, आकर्षण, तिरस्कृत, ध्वस्त। सराहनीय, प्रशंसनीय। २. उखाड़ा गया, चलाया गया। उत्क्षिप्तिका (स्त्री०) [उत्क्षिप्त कन्+टाप्] कर्णाभूषण। उत्कृष्ट-अन्तरात्मन् (पुं०) शुक्लध्यान युक्त आत्मा, प्रमादरहित उत्क्षेपः (पुं०) [उद्+क्षिप्+घञ्] १. उछालना, फेकने वाला, आत्मा। उठाने वाला, ऊपर करने वाला। उत्कृष्टज्ञानं (नपुं०) उत्तम ज्ञान, मुक्ति का साधन भूत ज्ञान। उत्क्षेपणं (नपुं०) [उद् क्षिप्+ ल्युट्] उछालना, उठाना, भेजना। उत्कृष्ट-तपः (पुं०) उत्तम तप, श्रेष्ठ तप। (सम्य० ३२) उत्कृष्ट-तापस् (वि.) घोर तपस्वी। उत्खचित (वि०) [उद्+खच्+ क्त] गूंथा हुआ, ग्रथित, गुंफित, उत्कृष्ट-दाहः (पुं०) संक्लेश परिणाम, अति तीव्र वेदना, रचित, बनाया गया, खचित, जड़ा हुआ। कर्मजनित तीव्र दाह। उत्खला (स्त्री०) [उद्+खल्+अच्+टाप्] सुगन्ध विशेष। For Private and Personal Use Only Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उत्खात १९१ उत्तर उत्खात (भू० क० कृ०) [उद्+खन्+क्त] १. उखाड़ा गया, खोदा हुआ, निकाला गया। 'उत्खातांध्रिपवद्धि निष्फलमितः' | (सुद० १०३)। २. उन्मूलित, उद्धत। ३. पदच्युत, वंचित किया। उत्खातिन् (वि०) [उत्खात+इनि] विषम, उखड़ी हुई, ऊँची-नीची, ऊबड़-खाबड़। उच्चल् (सक०) ऊपर जाना, चलना, गतिवान् होना। उच्चाल (वि.) चलायमान, उछाली गई। उच्चालित (भू० क० कृ०) उछाली गई। 'सूर्यायोच्चालितं रजः' (सुद० १२५) उज्जह् (सक०) छोड़ना, त्यागना। निंदापूर्वकमुज्जहामि सुपथे वर्वतिषुः साम्प्रतम्' (मुनि० १९) उत्झ् (सक०) उगलना, वमन करना। उत्झित्य (सं०कृ०) उगलकर, वमनकर। (जयो० वृ०६/७९) _ *विसर्जित करके, त्याग करके, छोड़कर (सम्य० १०) उत्त (वि०) [उन्द्+क्त] आई, गीला। उत्तंसः (पुं०) [उद्+तंस+अच्] १. आभूषण, २. सिरमोर, मुकुट। ३. कर्णाभूषण। उत्तंसित (वि०) [उत्तंस+इतच्] कानों में पहनने वाला आभूषण, कर्णकुण्डल। उत्तट (वि०) [उत्क्रान्तः तटम्] किनारे समागत। उत्तपुरुषः (पुं०) सज्जन, सत्पुरुष। (जयो० ५/३४) उत्तप्त (वि०) तपा हुआ, गरम किया गया, संतप्त, उष्णता युक्त। उत्तम (वि०) [उद्+तमप्] १. सर्वश्रेष्ठ, उत्कृष्ट समीचीन, सम्यक्। २. प्रमुख, उच्चतम, सर्वोच्च, उच्च। 'अथोत्तमो वैश्यकुलावतंसः' (सुद२/१) 'पर्यन्त-सम्पत्तरुणोत्तमेन' (सुद० १/१८) ३. प्रशंसनीय, (जयो० ११८७) उत्तमगृह (नपुं०) श्रेष्ठगृहं, अच्छा घर। उत्तमचारित्रं (नपुं०) सम्यक् चारित्र, सत् चारित्र, सदाचरण। उत्तमजलं (नपुं०) पवित्र नीर, स्वच्छजल। उत्तमत्तम (वि०) सर्वोत्तम, अच्छे से अच्छा। 'भोग उत्तमत्तमो भुवि' (जयो० ५/१६) उत्तमत्व (वि०) प्रधानत्व। (वीरो० २/९) सर्वोत्तम। उत्तमध्वजः (पुं०) लहराती ध्वजा, देदीप्य ध्वज। उत्तम-नरः (पुं०) सज्जन, श्रेष्ठ मनुष्य।। उत्तमपदं (नपुं०) श्रेष्ठ स्थान, योग्य स्थान, उचितपद, यथोचित सम्मान। उत्तम पद-सम्प्राप्तिमितीदं (सुद०७०) उत्तम-पादपः (पुं०) उन्नतवृक्ष, हरा भरा वृक्ष, पत्र. पुष्प फलादियुक्त पेड़। उत्तमपुष्पदात्री (वि०) १. श्रेष्ठ पुष्प देने वाली। (समु० ३/१२) उत्तम-पुरुषः (पुं०) १. सज्जन, श्रेष्ठ पुरुष। २. परमपुरुष। ३. वचन विशेष, क्रियात्मक प्रयोग में निजात्मकभाव युक्त प्रयोग-मैं, हम, हम सब। (जयो० वृ० १२/१४५) उत्तमभावः (पुं०) विशुद्धभाव, स्वभावगत परिणाम। पिण्डस्थितस्यास्तु मम प्रसिद्धिर्नानापादेपूत्तम-भाववृद्धिः। (भक्ति० २८) उत्तममनुजः (पुं०) सज्जन, श्रेष्ठ पुरुष। उत्तम-यत्नं (नपुं०) यथेष्ठ प्रयत्न, समुचित प्रयास। उत्तम-रत्नं (नपुं०) अच्छा रत्न, मंगलकारी रत्न। उत्तमराशि: (स्त्री०) योग्यराशि, श्रेष्ठ राशि। उत्तमवाणी (स्त्री०) सुवाच, अच्छे वचन। (भक्ति० १२) मनोज्ञ वचन, प्रिय बोल। उत्तमश्लोक (वि०) प्रसिद्धि प्राप्त, ख्यात। उत्तम-संग्रहः (पुं०) समुचित संकलन। उत्तमसद-भावना (स्त्री०) उचित भावना। उत्तम-साधुः (पुं०) महाव्रती साधु, मूल एवं उत्तरगुणधारी मुनि। उत्तम-साहसः (पुं०) दृढ़ इच्छाशक्ति, प्रबल भावना। उत्तम-सौख्य (वि०) उत्कृष्ट सुख युक्त। (वीरो० २०/१) उत्तमा (वि०) तिमिरपूर्णा, अन्धकारजन्य। (जयो० २०/१२) उत्तमाचरणशालिन् (वि०) उत्तम/श्रेष्ठ/सम्यक् आचरण युक्त। (जयो० वृ० ५/३२) उत्तमाङ्ग (वि०) अंगों में उत्तम शिर, मस्तक। 'उत्तमाङ्गतिमि सुदेवपदयो' (सुद० ६/७०) 'उत्तमाङ्ग सुवंशस्य' (सुद० ४/३) उत्तमांश (वि०) उत्तम अंश। (जयो० ६/४६) उत्तमार्थक (वि०) श्रेष्ठार्थक, उचित अर्थ वाला। (जयो० २/२५) उत्तमोऽर्थो यस्य स तं श्रेष्ठार्थकं (जयो० वृ० २/२५) उत्तमीय (वि०) उत्तमतम, सर्वोच्च, श्रेष्ठतम्। उत्तम्भः (पुं०) [उद्-स्तम्भ्+घञ्] सहारा, आधार, आश्रय, टेक। उत्तर (वि०) [उद्+तरप्] १. समाधान विधि, पक्ष प्रस्तुतीकरण, निधि। (जयो० वृ० १/३९) २. उच्चतर, उच्च, ऊँचा। ३. अनुवर्ती, पश्चात्वर्ती। (सम्य० १३६) ४. दिशा विशेष, चार दिशाओं में तृतीय उत्तर-दिशा। For Private and Personal Use Only Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उत्तरङ्ग १९२ उत्ताल उत्तरङ्ग (वि०) १. उछलती तरंगे, २. क्षुब्ध, व्याकुल. दु:खी। ३, जलप्लावित तरंग। उत्तरच्छदः (पुं०) दुपट्टा, उत्तरीय। उत्तरीयेण वस्त्रेण (जयो० वृ० २४/६२) उत्तरकरणं (नपुं०) आलोचना करना, साधु की क्रिया में दोष लगने पर किया जाने वाला प्रतिक्रमणात्मक भाव। उत्तरकुरुः (पुं०) क्षेत्रनाम। उत्तरगुणं (नपुं०) पिण्डशुद्धि/आहारशुद्धि का गुण। उत्तर-गुण-निर्वर्तना (स्त्री०) काष्ट, पुस्तक, या चित्रकर्म आदि का चित्रण। उत्तरत्र (वि०) उत्तरकाल में। (सम्य० ११०) उत्तरप्रकृतिः (स्त्री०) पृथक्-पृथक् भेद रूप प्रकृति। उत्तरल (वि०) सुचपल, अधिक चपल, चञ्चलता युक्त। । 'तत्राऽऽनमस्तु झरदुत्तरलाक्षिमत्वान्' (जयो० २६/६९) उत्तर-लक्षणं (नपुं०) वास्तविक लक्षण विशेष लक्षण। उत्तर-लोकहितङ्कर (वि०) धर्मपथगामी। (जयो० ५/४७) उत्तर-वस्त्रं (नपुं०) दुपट्टा, उत्तरीय। उत्तरवादः (पुं०) प्रतिपक्ष कथन। उत्तरवादिन् (वि०) प्रतिवादी, पक्ष का खण्डन करने वाला। उत्तर-वीर्य-संज्ञित (वि०) अनन्तवीर्यशाली, शक्तिशाली। 'संजातोऽनन्तात्पदादुत्तरं यद्वीर्यपदं तेन संज्ञितोऽनन्तवीर्यमा।' (जयो० वृ० २६/२) उत्तरश्रेणिगत (वि०) उत्तर श्रेणी को प्राप्त। (वीरो० ११/२५) उत्तर-सुखात्मिका (वि०) परलौकिक कल्याणकत्री आत्रिक स्थिति मतीरमारती मुक्ति-रुत्तर-सुखात्मिका धृतिः। (जयो० २/१०) 'उत्तरसुखमात्मा यस्या सा' (जयो० वृ० २/१०) उत्तरसत्त्व (वि०) उत्तराधिकार। 'भुक्तवान् स्वजनकोत्तरसत्वम्' (समु० ५/२६) उत्तराधिकारी (वि०) मालिक स्वामी, नायक, अधिकारी। (दयो० ७, जयो० २१/८०) उत्तरायणं (नपुं०) उत्तर की ओर। (जयो० ४२) उत्तरायणः (पुं०) सूर्य। (वीरो० २१/३) उत्तर की ओर सूर्य होना। उत्तरायी (वि०) पश्चात्वर्ती। (वीरो० २२/६) उत्तमार्थक (वि०) श्रेष्ठार्थक, उचित अर्थ वाला। (जयो० २/२५) उत्तमोऽर्थो यस्य स तं श्रेष्ठार्थकं (जयो० वृ० २/२५) उत्तराषाढः (पुं०) नक्षत्र विशेष। उत्तराहि (अव्य०) [उत्तर+आहि] उत्तर दिशा की ओर। उत्तरीतुम् (हेत्वर्थ कृ०) उल्लंघितम, उल्लंघन करने के लिए। (जयो० ३/९०) उत्तरीयं (नपुं०) दुपट्टा, चादर (सुद० ३/३८) ऊपर डाला जाने वाला वस्त्र। उत्तरेण (अव्य०) [उत्तर-एनप्] उत्तर की ओर, उत्तर दिशा की ओर। उत्तरेयुः (अव्य०) आगामी दिन, कल, अगला दिन। उत्तरार्जनं (नपुं०) उलाहना, झिड़कना। उत्तरोत्तर (वि०) अधिकाधिक, यथोत्तर। (जयो० वृ० ९१/८२) उत्तरोत्तरगुणधिप (वि०) अधिकाधिक गण सम्पन्न। 'उत्तरोत्तर मग्रेऽग्रे गुणाधिकस्य सहिष्णुतादीनामाधिक्यम्या' (जया० वृ० ५/३०) उत्तल (वि०) १. प्रत्युद, भूततल, आनन्दयुवत। २. तलसहित! रसातलं तृत्तलसातकम्। (जयो० ५/९०) उत्तस्थ (वि०) विस्तार युक्त। (सुद० ३/४४) उत्तान (वि०) [उद् गतस्तानो विस्तारो यस्मात] १. फैलाया गया, विस्तारजन्य, प्रसृत किया गया। २. स्पष्ट, निष्कपट, खरा। 'तटी स्मरोत्तानगिरेरियं वा' (सुद० २/५) उत्तानता (वि.) उन्नति युक्त। (वीरो० ४/१०) उत्तानपादः (पुं०) एक नृप, ध्रुव का पिता। उत्तानशय (वि०) उर्ध्वमुख युक्त शयन, छोटे बच्चे सहित। (जयो० २०/४) उत्तापः (पुं०) [उद्+तप्। घञ्] १. संताप, पीड़ा, कष्ट, अत्यधिक गर्म, उष्णता जन्य! २. उत्तेजना, विशेष आवेश, शक्ति स्फूरणा। उत्तापक (वि०) ०तपन, गर्मी देने वाला संतापकर संताप देने वाला। 'रविः कुतो नावपतेदिदानीमुत्तापकोऽसौ जगतोऽभिरामो' (जयो० १५/१५) उत्तारः (पुं०) [उद्+तृ+घञ्] १. वाहन, यान, परिवहन। २. उतारना, किनारे करना। ३. छुटकारा दिलाना, मुक्त करना। ४. वमन करना। उत्तारक (वि०) [उद्+तृ+णिच्+ण्वुल्] उद्धारक, पारक, तारक, बचाने वाला। उत्तारणं (नपुं०) [उद्+तृ+ णिच्+ ल्युट्] उतारना, पार करना, बचाना। उत्तारित (वि०) उतारा गया, उपरिष्ठादधः। (जयो० १२/१०८) उत्ताल (वि०) दृढ़, शक्तिशाली, ठोस, प्रबल, बलिष्ट, भीषण, तेज, गतिमान, उन्नत। For Private and Personal Use Only Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उत्तुङ्ग १९३ उत्पातः उत्तुङ्ग (वि०) उन्नत, उच्च, ऊँचा, उभरे हुए, उठे हुए, निकले उत्थित (वि०) [उद्+स्था+क्त] उदित, निस्सृत, निकला हए। (जयो० १३/९६) 'बलात्क्षतोत्तुङ्ग-नितम्बबिम्ब:' | हुआ, उत्पन्न, उद्गत। (जयो० ३/९६) उत्थितिः (स्त्री०) [उद्+स्था+क्तिन्] उन्नति, प्रगति, जागति, उद्गति। उत्तुङ्गनितम्बं (नपुं०) उभरे हुए नितम्ब। (जयो० १३/९६) । उत्थितोत्थित (वि०) उत्थान का प्रकर्ष, धर्म एवं शुक्लध्यान उत्तुषः (पु०) [उद्गता तुषोऽस्मात्] भूषी से पृथक् किया कायोत्सर्ग जन्य का उत्कर्ष। गया, निकाला गया। उत्पक्ष्मन् (वि०) उलटी पलकों वाला। उत्तेजक (वि०) [उद्+तिज+णिच्+ण्वल] उद्दीपक, तेज सहित, | उत्पत् (अक०) [उद्+पत्] उत्पन्न होना, निकलना, पैदा भड़काने वाला। __ होना। 'को नु नागमणिमाप्तुमुत्पतेत्' (जयो० २/१६) उत्तेजनं (नपुं०) [उद्+तिज्+णिच्] १. तैक्ष्णकर, तीव्रता, 'कः पुरुषः उत्पतेत् उद्यतो भवेत्' (जयो० वृ०२/१६) युक्त, अधिक, व्याकुल, उकसाना, भड़काना। २. भेजना, उत्पतः (पुं०) [उद्+पत्+अच्] पक्षी, खग। प्रेषित करना, तेन करना। ३. चमकना, प्रकाशमान होना। उत्पतनं (नपु०) उड़ना, ऊपर जाना। (दयो० ८) उछालना। 'प्रशस्तामुत्तेजनां तैयकरणवृत्ति' (जयो० १५/५२) उत्पथ: (पुं०) अपथ, उन्मार्ग, उल्लंघन, कुमार्ग। (भक्तिः उत्तेजना (स्त्री०) तैष्णकरणवृत्ति, तीव्रता, अधिक निपुणता। ११) (जयो० २०/३४) 'धियोऽसिपुत्र्या दुरितच्छिदर्थमुत्तेजनायातितरां समर्थः। (समु० उत्पथगामी (वि०) अपथगामी, उन्मार्गगामी। (जयो० २/१३२) उत्पत्तिः (स्त्री०) [उद्+पद्+क्तिन्] १. जन्म, नि:सरण, पैदा उत्तोरणं (नपुं०) उन्नत तोरण, विभूषण, सज्ज क्रिया युक्त। होना। २. अपूर्वाकारसम्प्राप्ति, वस्तु स्वरूप का लाभ। उत्तोलनं (नपुं०) [उद्+तुल+णिच् ल्युट्] तोलना, ऊपर उठाना. 'आत्मलाभलक्षणा उत्पत्तिः' (सिद्धि०वि०टी०पृ० २५०) उभारना। सम्प्राप्ति, प्रादुर्भाव 'कलशोत्पति तादात्म्य' (जयो० १/१०३) उत्तोष (वि०) संघर्षशाली (जयो०८/६१) उत्पन्न (भू० क० कृ०) [उद्+पद्+क्त] जात, निःसृत, सम्प्राप्त उत्त्यागः (पुं०) [उद्। त्यज्+घञ्] १. छोड़ना, फेंकना, हटाना। प्रादुर्भात, संजात, उदित, उठा हुआ। 'महामन्त्रप्रभावेणोत्पन्नोऽसि' २. तिलांजली देना। (सुद० २१/२७) उत्त्यासः (पुं०) [ उद्+त्रस्+घञ्] आतंक, भय, पीड़ा। उत्पल (वि०) [उद्+पल्+अच्] 'उत्क्रान्तः पलं मांसम्' उत्थ (वि०) [उद्। स्था+क] जनित, १. घटित, उदभूत, उत्पन्न क्षीणकाय, दुर्बल, शक्तिहीन, मांसहीन। हुआ। (सम्य० ९४) २. ऊपर उठा हुआ। 'न । उत्पलं (नपुं०) कुमुद, नीलकमल, कुवलय। (जयो० १६/ ज्ञातमाज्ञातरणोत्थशर्म' (जयो० ८/१३) उत्पलकद्वयी (वि०) कुवलय युग्म, कुवलय युगल, उभय उत्थशर्मन् (नपुं०) जनित सुख, प्रसन्नता जनक सुख। (जयो० कुमुद। 'व्रजत: स्मोत्पलद्वयीं सतीम्' (जयो० १०/३८) ८/१३) उत्पलमलाणं (नपुं०) कमल नाल, कमल दण्ड। उत्पलस्य उत्थानं (नपुं०) [उद्+स्थाल्युट्] प्रयत्न, (जयो० १/७९) कमलस्य मृणालवत् पेशलो मृदुर्भवति। (जयो० ७७५) जागृति, उठना, सचेत होना। (जयो० वृ० ५/७०) उत्पलिन् (वि०) [उत्पल इनि] कुमुदों से परिपूर्ण। जागृतिमुत्थानं सावधानता वा। (जयो० १९/१ उत्पवनं (नपुं०) [उद्। पू+ल्युट] प्रमार्जन, स्वच्छीकरण। उत्थापनं (नपुं०) [उद्। स्था+णिच्+ल्युट्] जागृत करना, उठाना, उत्पाटः (नपु०) [उद्+पट् णिच्+घञ्] उन्मूलन, मूलोच्छेदन, सचेत करना, सावधान करना। जड़ से उखाड़ना। उत्थापय् (सक०) ऊँचा चढ़ाना, ऊपर उठाना। (दयो०६०) उत्पाटनं (नपुं०) मूलोच्छेदन, उन्मूलन, उखाड़ना। उत्थाय (सं०कृ०) उठकर, 'आसानादुद्भूय' (जयो० १/७९) उत्पाटिन् देखें उत्पाटी। उत्थित (भू० क० कृ०) [उद्+स्था+क्त] खड़ी हुई, (जयो० उत्पाटी (वि०) [उद्+पट् णिच्+णिनि] मूलोच्छेदक, उन्मूलक। १/५) उदित, जात, विस्तृत, विस्तारजन्य। 'स्यादुत्थिताऽ-- (दयो० २/१३) तिविकटैव समस्या' (जयो० ४/३१) 'वामस्कन्धोत्थतेजसा' | उत्पात: (पुं०) [उद्+पत्+घञ्] उछाल, उड़ान, ऊपर जाना, (समु० २/३२) विधृताङ्गनि उत्थितः' (सुद० ३/२४) कूदना। For Private and Personal Use Only Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उत्पादः १९४ उत्सङ्गवर्ती . उत्पादः (पुं०) १. प्रादुर्भाव, जन्म, उत्पत्ति, संजात. उदित। उत्प्रेक्षा (स्त्री०) [उद्+प्राई+अ] एक अलंकार विशेष, उत्पाद् (सक०) ०उत्पन्न करना, बनाना। बचाना। (जयो० जिसमें उपमान एवं उपमेय को समान रखने का प्रयत्न वृ०३/६८) किया जाता है। प्रस्तुत अर्थ के औचित्य में किसी अन्य उत्पाद (वि०) उठे हुए. ऊपर पैरों वाला। अर्थ की कल्पना की जाती है। 'इव' अव्यय का प्रयोग उत्पादः (पुं०) उत्पत्ति वर्णन, दार्शनिक दृष्टि से वस्तु की इसकी पहचान है। शीतरश्मिरिह तां रुचिमाप यां पुरा नहि भवान्तर प्राप्ति। वस्तु का आविर्भाव होना। 'आविब्भावो कदाचिदपावष्यतरतां च भुवि साक्। (जयो० ४/६० ३/७४, उप्पादो' (धव० १५/पृ० १९) 'अभूत्वा भाव उत्पाद:' २६/४७, २६/२९, २६/१७, ३/८, ५/९, १४/९४, १८/२७, (म०पु०२४/११०) 'स्वजात्यपरित्यागेन भवान्तरावाप्तिरुत्पादः' वीरो० १२/२८) जयोदय के अप्ठमाध्याय में इस अलंकार (त०श्लो ५/३०) अवस्थान्तर प्राप्त होना। का अधिक प्रयोग हुआ। (८/३०, ३७, ४०) उत्पादक (वि०) [उद्+पद्। णिच्+ण्वुल्] उपजाऊ, पैदा करने उत्प्रेक्षित (भू० क० कृ०) कथित, प्रतिपादित, निरूपित। वाला, जनक। (जयो० वृ० १/१९) उत्पादनं (नपुं०) [उद्+पद्+णिच् ल्युट्] जन्म देना, प्रादुर्भाव उत्प्रेक्ष्यते-कथन किया जाता है। (जयो० १/१९) करना। उत्प्लवः (पुं०)[उद्+प्लु+अप] ऊँची कूद, उछलना, कूदना, उत्पाद-पूर्वं (नपुं०) प्रथम पूर्व ग्रन्थ का नाम, जिसमें जीव, ऊपर से कूदना। पुद्गलादि की उत्पत्ति का वर्णन होता है। वस्तुओं के उत्प्लावनं (नपुं०) [उद्+प्लु+ल्युट्] १. अतितरामुल्लास, अधिक उत्पाद, व्यय एवं ध्रौव्य स्वभाव का प्रामाणिक वर्णन। हर्ष, (जयो० वृ० १३/९७) २. कूदना, उछलना। उत्पादानुच्छेदः (पुं०) उत्पत्ति-विनाश। 'उत्पादः सत्त्वम्, अनुच्छेदो उत्फलं (नपुं०) ० श्रेष्ठफल, उचित भाव, सम्यक् परिणाम विनाशः अभावः नीरूपिता इति यावत्।' उत्पाद् एव उत्तम भाव। अनुच्छेदः उत्पादानुच्छेद::' (धव० ८/पृ० ५) । उत्फालः (पुं०) [उद्+फल+घञ्] छलांग, कूद, द्रुतगति, उत्पादिका (स्त्री०) [उद्+पद+ णिच्+ण्वुल+टाप्] १. उत्पन्न अति तीव्रता से गिरना। करने वाली माता। २. एक कृमि विशेष, कीड़ा। उत्फुल्ल (भू० क० कृ०) [उद्+फुल+ क्त ] प्रफुल्लित, उत्पादित (वि०) प्रसूत, उत्पन्न हुआ. जनित, समुच्चारित। ०खुला हुआ, ०प्रसारित। (जयो० १४/४४) विस्फारित, (जयो० १७/२१) (जयो० वृ० ३/८६) फैला हुआ। उत्पाली (स्त्री०) [उद्: पल्+घञ्+ङीप्] निरोग। उत्फुल्लित (वि०) विकसित। (जयो० १४/८८) पुष्पित, हर्ष उत्पीडः (पुं०) [उद्-पीड्+घञ्] उत्पीड़न, पीड़न, दबाव। युक्त। उत्पीडनं (नपुं०) [उद्+पीड्+णिच्+ल्युट्] आघात, दबाव। उत्सः (पुं०) [उन्द्+स-उनत्ति जलेन] झरना, फुव्वारा, जल उत्पुच्छ (वि०) ऊपर उठी हुई पूंछ वाला। प्रवाह, जल के गिरने का स्थान। 'यत्रागत्य जलं तिष्ठति उत्पुलक (वि०) हर्षित, रोमांचित, प्रसन्न। तत्स्थानमुत्सः' (जयो० २६/१) उत्प्रभ (वि०) प्रभावान्, कान्तियुक्त। उत्सङ्गः (पुं०) [उद्+स+घञ्] १. गोद/अंकगत, आलिंगन उत्प्रभः (पुं०) अग्नि, आग। गत। (जयो० वृ०६/४५) वीरो०८/८। २. संयोग, सम्पर्क। उत्प्रभावः (पुं०) अप्रभावशील। ३. शिखर, कूट, उच्चभाग। ४. भीतर, आभ्यन्तर, अंदर। उत्प्रसवः (पुं०) [उद्+प्र+सू+अच्] गर्भपात, गर्भ गिरना। उत्सङ्ग-गत (वि०) अङ्क को प्राप्त, गोद लिया गया। उत्प्रासनं (नपुं०) [उद्+ प्र+अस्+ ल्युट] फेंकना, पटकना, गिराना, 'शिशुनोत्सङ्गगतेन सा विशाम्' (सुद० ३/३) उपहास करना। उत्सङ्गज (वि०) अङ्क को प्राप्त हुई 'उत्सङ्गजं सूचयतीन्दुदेवं' उत्प्रेक्षणं (नपुं०) [उद्+प्राईक्ष् ल्युट्] १. नेत्र विक्षेपण, दृष्टिपाता (जयो० १५/४६) 'उत्सङ्गमङ्कारोपितं सूचयति' (जयो० २. अनुमान करना। वृ० १५/४६) उत्प्रेक्षु (अक०) [उद्+प्र ईक्ष] उत्प्रेक्षा करना। (जयो० वृ० - उत्सङ्गवर्ती (वि०) अङ्कशायी, गोद में लेटी हुई। (जयो० ७० १२/७८) १/८) For Private and Personal Use Only Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org उत्सङ्गित उत्सङ्गित ( वि० ) [ उत्सङ्ग इतच् ] सम्पर्कित, आलिंगित, अंकगत । उत्स (नपुं०) उद् सञ्ज ल्युट् ] ऊपर फेंकना, ऊपर उठाना, उर्ध्व निक्षेपण। + उत्सन्न (भू० क० कृ० ) [ उद् सद्-क्त ] क्षीण, नष्ट, उन्मूलित, मड़ा हुआ। उत्सर्ग: (पु० ) [ उद् + ऋज्घञ्] १. स्थगित करना, छोड़ना, ० परित्यन विमुञ्चन। २. प्रदान, दान, उपहार, ०भेंट, ० प्राभृत। ३. व्यय करना, आहूति, पूर्ति । उत्सर्गसमिति (स्त्री०) उच्चारप्रस्रवणसमिति । उत्सर्ग-स्वभावाधिपः (पुं०) अपने नगर का अधिप/राजा 'उत्सर्ग-स्वभावस्याधिपोऽधिकारी' (जयो० वृ० ३ / ११६) काशीपुरी के स्वामी श्रीधर । उत्सर्जनं (नपुं० ) [ उद् + सृज् + ल्युट् ] १. विसर्जन, विमुंचन, परित्यन, त्याग । २. फूलना, हांफना । उत्सर्पिन् (वि०) (उद्+सुप् णिनि] उठने वाला, ० खिसकने वाला, सरकने वाला, उड़ने वाला । उत्सर्पिणी (स्त्री०) उत्तरोत्तर वृद्धि, जीवों की आयु, शरीर ऊँचाई आदि की उत्तरोत्तर वृद्धि। 'अनुभवादिभिरुत्सर्पणशीला उत्सर्पिणी (स०] सि० ३/२७) उत्सर्पिणीकालः (पुं०) उत्तरोत्तर वृद्धि रूप समय । उत्सव: (पुं० ) [ उद् + सृ+अप्] १. हर्षावसर, आनन्द । पठत्सु बाला पितुरुत्सेवसु' (जयो० १/६५) २. आमोद, प्रमोद । ३. पर्व, अवसर, जयन्ती ४. उच्च उन्नत 'जम्बूपदं बुद्धिमदुत्सवाय' (सुद० १/११) उत्सवकारणं (नपुं०) आनन्द का कारण। उत्सवक्षणं (नपुं०) हर्षावसर । " उत्सवजात (वि०) विभोर युक्त हर्षयुक्त। उत्सव-भाव: (पुं०) आनन्द भाव, सुखद परिणाम | उत्सव युत (वि०) आनन्दयुक्त, हर्षजन्य उत्सवहेतु: (पुं०) उत्सव का कारण । 'उत्सवस्य हेतवे कारणाय तु समुद्यतास्ति ।' (जयो० वृ० १५/५० ) उत्सह: (पुं०) उत्सह नाम विशेष, महेन्द्र नामक कचुकी । सन्निनाय स निजं मतिकेन्द्रमुत्सहे च महनीयमहेन्द्रम्' (जयो०४/३५) उत्सादः (पुं० ) [ उद्+सद् + णिच्+घञ् ] विनाश, क्षय, क्षीण, नष्ट, हानि उत्सादनं (नपुं० [उद् सद् णिच्+ ल्युट्] १. विनाश, हानि, क्षय। २. उलटना, बाधा डालना, उठाना। १९५ उत्येकः उत्सारकः (पुं० ) [ उद्+सृ + णिच् + ण्वुल्] १. आरक्षी, सैनिक, पहरेदार । २. कुली, भारवाहक । ३. ड्योढीवान। उत्साहरणं (नपुं० ) [ उद्+सृ+ णिच् + ल्युट्] १. हटाना, दूर रखना। २. स्वागत करना। उत्साहः (पुं० ) [ उद्-सह्+घञ्] १. साहस, प्रयास, प्रयत्न (सम्य० ९५) २. शक्ति, बल, उमंग ०सोत्कण्ठ (वीरो० ५ / १६) ३. इच्छा, कामना, ०शुभभावना। ४. धैर्य, ०तेज, ०ओजस्विता, ०वेग । 'सदुत्साहपूर्वकमगाद्वचोऽमृदु' (जयो० ७/६६) 'वेगेन उत्साहेति' (जयो० वृ०६/२२) Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उत्साह - कृत् (वि०) उत्साह करने वाला | उत्साहजन्य (वि०) साहसपूर्ण बलशाली उत्साहपूर्वकं (नपुं०) साहसपूर्वक, उमंग युत । (जयो० २ / ६६ ) उत्साह - भाव: (पुं०) उमंग भाव। उत्साहमय (वि०) कामना युक्त, इच्छा सहित । 'नवग्रहोत्साहमयोजयोऽपि (जयो० १७/५५) संचार प्रचार परिज्ञायक इत्यर्थः ' (जयो० वृ० १७/५५) उत्साह वर्धन (वि०) आनंद बढ़ाने वाला। उत्साहस (वि०) उत्साह दिलाने वाला, आनंदित करने वाला। (दयो० ४१) - उत्साह सम्पन्न (वि०) उमंग युक्त शक्ति सहित बलशाली। 'उत्साह सम्पन्नतया विशेषाद्' (समु० ३/१५) उत्साह - सहित (वि०) उमंगपूर्वक, दर्पभृत। 'दर्पभृदुत्साहसहिता' (जयो० वृ० ८/१४) उत्साहि (वि०) उमंगित, शक्ति सम्पन्न ( सम्य० ४५ ) उत्सिक्त (भू० क० कृ० ) [ उद्+सिच्+क्त] छिड़का हुआ, सिंचित ! उत्सीमगम (वि०) उत्पथगामिनी मर्यादा उल्लंघन करने वाला। (जयो० २०/३४) उत्सुक (वि०) [उद्+सू. क्विप्कन्] उत्कण्ठित, आचलितचित, इच्छुक, (जयो० ४/६) उत्साह सहित, उमंगजन्य, आसक्त । उत्सूत्र (वि० ) [ उत्क्रान्तः सूत्रम् ] ढीला, बन्धन से मुक्त, अनियमित । २. कल्पनापूर्वक कथन, सिद्धान्तवहिर्भूत । अभिप्राय । , For Private and Personal Use Only , " उत्सूर: (पुं० ) [ उत्क्रान्तः सूरं] सन्ध्या समय, सन्ध्याकान्त, रात्रि से पूर्व का समय । उत्सेकः (पुं० ) [ उद्+ सिच्+घञ्] १. उड़ेलना, छिड़कना, फुहार छोड़ना, सींचना 'ज्ञानादिभिराधिक्येऽभिमान आत्मन् ' Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उत्सेकिन १९६ उदन्वत् (जैन० ल० २५५) २. अहंकार, अभिमान, घमण्ड। उदक-भारः (पुं०) जल वाहक। अहंकारतोत्सेकः ( स० सि० ५/२६) उदकल: (पुं०) जलाशय, तालाब। उत्सेकिन (वि०) [उत्सेक्+इनि] १. अत्यधिक, बहुत, पर्याप्त। उदक-शाक (नपुं०) जलीय वनस्पति शैवाल। २. अहंकारी, अभिमानी। ३. उमड़ने वाला। उदकस्पर्शः (नपुं०) जल स्पर्श। उत्सेचन (नपुं०) [उद्+सिच् ल्युट] सिंचन, अभिसिञ्चन, उदकेचरः (पुं०) जलचर जीव, जलीय प्राणी। फुहार अभिषेक। उदक्त (वि०) [उद्+ अञ्ज+क्त] उठाया हुआ, ऊपर उठा उत्सेधः (पुं०) [उद्+सिध् घन] उन्नत, ऊँचाई, मोटाई। हुआ। उत्सेधागुलं (नपुं०) आठ यवमय विशेष, यवैरष्टभिरङ् । उदक्य (वि०) [उदकमर्हति] रजस्वला स्त्री। गुलम्-उत्सेधाङ्गु लमेतत्' (हरि०पु०७/४०) उदग्र (वि०) [उद्गतमग्रं यस्य] उठा हुआ, उन्नत शिखर उत्स्मयः (पुं०) [उद्+स्मि+अच्] मुस्कराहट, हास, मंद मंद ___ वाला, लम्बा, अत्युच्चैर्गत, ऊँचाई। (जयो० १४/२७) हसन। उदग्र-शुम्बस्थ (वि०) अग्रकाण्ड। (जयो० १४/३७) उत्स्वन (वि०) ०उच्च स्वर युक्त ०उच्च स्वर करने वाला उदग्रशाखा (स्त्री०) नवपल्लव, कोमलाग्र भाग। 'उदग्रशाखा ऊँची ध्वनि, उच्च-रव। नवपल्लवानि' (जयो० १३/१११) 'उच्चैर्गतायां शाखायां' उत्स्वेदः (पुं०) उर्ध्व से निःसृत/ऊँचाई से निकली। वाष्प युक्त (जयो० १४/३८) स्वेद। 'उत् उर्ध्वं निर्गच्छता वाष्पेण यः स्वेदः स उत्स्वेदः। उदङ्कः (पुं०) [उद्+अञ्च्+घञ्] चर्मपात्र। (जैन०ल० २५५) उदच्/उदञ्च् (वि०) [उद्+ अञ्च्+क्विप्] ऊपर की ओर मुड़ा उत्स्वेदिमः (पुं०) उर्ध्व से निकले हुए पसीने का वाष्प। हुआ, ऊपर जाता हुआ। उद् (उपसर्ग) [उ+क्विप्, तुक] इस 'उद्' उपसर्ग को संज्ञा उदञ्च (अक०) फैलना, बढ़ना, प्रसारयुक्त होना। 'अञ्चति शब्दों एवं क्रियाओं के पूर्व में लगाया जाता है। इसके रजनिरुदञ्चति' (जयो० १६/६४) उदश्चनि-प्रसरति- (जयो० प्रयुक्त होने पर शब्द की विशेषता प्रकट हो जाती है। यह १६/६४) विविध अर्थ को प्रतिपादित करने वाला उपसर्ग है। स्थान, उदञ्चनं (नपुं०) (उद्+अञ्च्+ ल्युट्] पद, शक्ति, उच्चता, श्रेष्ठता वियोजन, पार्थक्य, अभिग्रहण उदञ्चत् (वि०) रोमाञ्चित। (सुद० २/४१, सम्य० ६५) प्रकाशन आदि। उदञ्जलि (वि०) संपुट वाला। उद् (सक०) कहना, बोलना, प्रतिपादित करना। उदेति (जयो० उदण्डपालः (पुं०) १. मत्स्य, मछली, मीन। २. सर्प विशेष। ४/२१) (सम्य० ७८) 'पुमांस्तत्र किमुच्चताम्' (सु०१२७) उदतुलं (नपुं०) तोलना, उबारना। (जयो० ६/३२) 'का प्रसक्तिरुदिता निरर्गले' (जयो० २/५) उदधिः (पुं०) समुद्र, सागर। (जयो० ४/४३) उदक् (अव्य०) [उद्+अञ्च्+क्विन्] ऊपर की ओर, उर्ध्वमुखी, उदिधकुमारः (पुं०) देव नाम। उत्तर की तरफ। (समु० २/२) उदन् (नपुं०) [उन्द्+कनिन्] जल, वारि, नीर। उदकं (नपुं०) वारि, जल, नीर, पानी। 'यन्मोदकञ्जभुवि उदन्तः (पुं०) [उद्गतोऽन्तो यस्य] वृत्तान्त। (जयो० ६/१२८, सोदमुग्रकल्पम्' (सुद० ८६) 'मोदकं सगरोदकं सखि' जयो० २/१४१) वार्तामात्र, समाचार, विवरण, निरूपण, (सुद० ९०) प्ररूपणा, कथन, इतिवृत। तदुदन्त्वेनाहं नेदं तत्त्वेन' (जयो० उदक-कणं (नपुं०) जलकण, जल राशि। १६/७२) 'उदन्तत्वेन वार्तारूपेणैव' (जयो० वृ० १६/७२) उदककुम्भः (पुं०) जल का घट, जल भरने का घड़ा। 'परपुष्टा विप्रवराः सन्तः सन्ति सपदि सूक्तमुदन्तः।' (सुद० उदक-ग्रहण (नपुं०) जल ग्रहण, नीर-पान। पृ० ८१) उदक-दातृ (वि०) जल प्रदाता। उदन्तकः (पुं०) [उदन्न कन्] समाचार, गुप्तवार्ता। उदक-दायिन् (वि०) जल प्रदाता, जल देने वाला। उदन्तिका (स्त्री०) [उद्णिच्+ण्वुल्। टाप्] संतोष, तृप्ति। उदकधरः (पुं०) मेघ, बादल। उदन्य (वि०) [उदक क्यच्] प्यास, पिपासा। पीने की इच्छा। उदक-धारा (स्त्री०) जलधारा, जल प्रवाह, झरना। उदन्वत् (पुं०) [उदन्+मतुप्] समुद्र, उदधि, सागर। For Private and Personal Use Only Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उदन्तवान् १९७ उदार उदन्तवान् (वि०) निकली हुई। (सुद० २/४३६) उदपूर (वि०) आच्छादित। (सुद० २/११) उदभूत (वि०) समुच्छलत्तरङ्ग। (जयो० ५/३४) उत्पन्न हुई। २. फैलना, बढ़ना, उदय होना। २. ढकना, आवरण करना। ३. उछल-कूद (जयो० २/५७) उदयः (पु०) [उद्।इ. अच्] १. उगना, वृद्धि (सुद० २/४४) निकलना, फैलना, निष्पन्न होना। (सुद० २/४४) 'या नाम पात्री सुकृतोदयानाम्' (सुद० २/१०) २. फलदेनाकर्मों का परिपाक समयानुसार अपना फल देता है। (सम्य० १/१) जयोदय, वीरोदय, दयोदया 'उदीर्य कर्मानुदयप्रणाशात्तदग्रतोबन्धविधेः समासात्।' (समु०८/१७) 'कर्मणो विपच्यमानस्य फलोपनिपात उदय' (त० वा० २/१) 'द्रव्यादि कर्मवशात् कर्मणः फल प्राप्तिरूदय:।' (त० वा०६/१४) उदय (अक०) उत्पन्न होना, उदित होना, निकलना, फैलना। 'उदयन्ती समुदयं गच्छतीति' (जयो० ६/४३) उदयत् (सुद०३/२) उदयगिरिः (पुं०) भवनस्थान। (जयो० १०/८२) उदयनः (पुं०) उदयन राजा, कौशाम्बी का शासक। उदयनं (नपुं०) [ उद्। इ+ल्युट्] उगना, निकलना, फैलना। उदयाङ्करः (पुं०) उदय का प्रादुर्भाव, वृद्धिभाव। (जयो० २२) उदयाद्रिः (पुं०) उदयाचल। (समु० ३/११) (सुद० ७८) उदयि (वि०) उदय को प्राप्त, अभ्युदय को प्राप्त, उत्कर्षगत। ___ 'उदयोऽस्यास्तीत्युदयि' (जयो० वृ० ५/१०) उदयिनी (वि०) उदयप्राप्त। उदरं (नपुं०) उदर, पेट। 'इहोदयोऽभूदुदरस्य यावत्' कुक्षि (सुद० २/४१) 'तस्याः कृशीयानुदरो जयाय' (सुद० २/४३) उदराम् (सुद० २/५०) उदरस्य (सुद० २/४०) उदर-गह्वरं (नपुं०) गभीरतरनाभिकुहर। (जयो० वृ० १४/६८) उदर-क्षणं (नपुं०) उदर प्रदेशं (सुद० ३/२) उदरत्राणं (नपुं०) वक्षस्त्राण, चोली, कबच, अंगिया। उदरचुम्बिचीरः (पुं०) स्वच्छ चादर। (सुद० २/११) उदरपूर (नपुं०) भरपूर उदर, भरा हुआ पेट। उदरपूर्तिः (स्त्री०) पेट पूर्ति। (दयो० ३/९) उदरपोषणं (नपुं०) पालन पोषण, भरण-पोषण। उदर-विकारः (पुं०) पेट रोग, उदर व्याधि। उदररिन् (वि०) तोंद वाला, उभरे हुए पेट वाला। उदराध:स्थित (वि०) रेखात्रय, त्रिबलि। (जयो० ३/६० उदरिणी (वि०) गर्भिणी स्त्री। (सुद० २/४९) उदर सम्बन्धी 'मुक्तात्मभावोदरिणी जवेन' (सुद० २/४२) उदरोद्भवः (पुं०) स्वतनय, पुत्र। (जयो० २/१५२) उदर्कः (पुं०) [उद्+अ+घञ्] १. जलाशय स्मासाद्य तत्पावनमिङ्गितञ्च तयोरुदर्क सुरभि समञ्चत्।' (सुद० २/२८) २. फल, परिणाम। ३. भविष्यकाल, उत्तरकाल, भाविफल। 'अर्कश्चक्रवर्तिसुतस्तु जयश्च' (जयो० ८४८३) 'अर्कश्चक्रवर्तिसुतस्तु उदकं भाविफलं किं स्यात्' (जयो० वृ० ८८८३) ४. प्रचण्ड सूर्य-संतापकर सूर्य 'उदर्कमुद्धतं सन्तापकरं सूर्यं भाविवृत्तान्तश्च अनुयाति' (जयो० ४/५८) उदर्कवश (वि०) परिणाम वश, निमित्त से। मृत्वा ततः कुक्कुरतामुपेतः किञ्चिच्छुभोदर्कवशात्तथेतः।' (सुद० ४/१८) उदाङ्कः (पुं०) गोद। (दयो० ४८) उदर्चिस् (वि०) [ऊर्ध्वमर्चिः शिखाऽस्य] चमकने वाला, ___ दीप्तिमान, प्रभायुक्त। उदर्चिस् (पुं०) १. अग्नि, आग, वह्नि। २. कामदेव, शिव। उदर्थित (वि०) व्यर्थीकृत। (जयो० ४/२०) उदलवः (पुं०) जलांश, जलकण, जलराशि। 'आशासितेति वदनोदलवैश्च शस्यैः।' (जयो० १६/७५) उदवमत्सा (वि०) उगल दिए, निकाल दिए। 'कुटुमत्वेत्युदवमत्सा रुग्णा' (सुद० ८९) उदवसितं (नपुं०) [उद्+अव+सो+क्त] आवास, गृह, स्थान। उदश्रु (वि०) [उद्ग तान्यश्रूणि यस्य] फूट फूटकर रोने वाला, __ अश्रु गिराने वाला। उदसनं (नपुं०) [उद्+अस्+ल्युट्] फेंकना, निकालना, उगलना, गिराना, छोड़ना। उदात्त (वि०) [उद्+आ+दा+क्त] १. गम्भीर, उच्च, उन्नत, तीव्र। (जयो० १०/१८) २. प्रतिष्ठित, भद्र। ३. उदार प्रसिद्ध, विख्यात, महान्। उदात्त-निनादः (पुं०) गम्भीर ध्वनि, उच्चस्वर, प्रचण्डध्वनि। 'तदुदात्तनिनादतो भयादपि' (जयो० १०/१८) 'आनक प्रचण्डध्वानत' (जयो० वृ० १०/१८) उदात्तवृत्तं (नपुं०) विख्यात चरित्र, श्रेष्ठ चरित्र। (समु० १/२९) 'श्रीपद्मखण्डे नगरे सुदत्त-नामा विशामीश उदात्तवृत्तः।' (समु० १/९) उदानः (पुं०) [उद्+अन+घञ्] १. श्वांस लेना, ऊपर की ओर श्वांस लेना। २. पंच प्राणों में से एक प्राण। उदानवायु (पुं०) ऊपर की ओर जाने वाली वायु। उदायुध (वि०) आयुध युक्त, शास्त्रधारक। उदार (वि०) [उद्+आ+रा+क] १. विशाल, उन्नत, श्रेष्ठ, For Private and Personal Use Only Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उदारगुणः १९८ उदित-तारकः उत्तम, योग्य, विस्तृत, महत्। (सम्य० २२) २. दानयुक्त, उदार-शृंगारः (पुं०) उत्तम श्रृंगार, श्रेष्ठ विभूषण। उदार: दयाभार, आभारी, भद्र, निष्कपट, निश्छल। ३. सुन्दर, सर्वग्राह्यश्चासौशृंगारो नाम रसस्तस्य। (जयो० १६/०) रमणीय, प्रिय। 'वस्तुमेणाक्षीणां मनस्युदारे' (सुद० ८८) उदान-सन्तः (पुं०) उदानमुनि, प्रशस्त मुनि, ध्यानस्थमुनि। उक्त पंक्ति में सुन्दर, प्रिय एवं रमणीय अर्थ है। चर्यानिमित्तं पुरि सञ्चरन्तं विलोक्य दासी तमुदारसन्तम्' निर्मल-'समुल्लसन्मानसवत्युदारा' (सुद० १४८) (सुद० ११९) निष्कपट-'नमोऽर्हत् इतीदमदादुदारः।' (सुद० ४/२) उदारसम्मतिः (स्त्री०) महापुरुषों का कथन 'उदाराणां अक्षुद्रहृदय-स्मर-वपुषं निस्तुषमुदारम्' (जयो० ६/२९) सम्मतिर्यस्मिन्तत्' महापुरुषानुमतं पूजनं भवति' (जयो० विशाल-लसति काशि उदारतरङ्गिणी' (जयो० ९/६७) २/३४) ०महापुरुषों का अभिमत। प्रसत्तिदारिनी-'स्फीतचन्द्रवदनीयमुदारा' (जयो० ४/५४) उदराग्निप्रशमनं (नपुं०) उदर की अग्नि का शमन। उदराग्निं संस्कार जन्य-'ग्रहोदारमहोत्सवश्च भूः' (सुद० ३/४८) प्रशमयतीति उदराग्निशमनमिति' (त० वा० ९/६) अलंकृत-'उदारां कवितां मुदाऽलम्' (सुद० १/७) उदास (वि०) [उद्+अस्+घञ्] दूर, पृथक्, अलग, अनासक्त उदारगुणः (नपुं०) श्वेतपन, स्वच्छगुण। 'कपर्दकोदारगुणो 'सः सुरक्षणेभ्यः सुतरामुदासः' (जयो० १/४५) बभार' (सुद० २/४८) उदासः (पुं०) नि:स्पृह। (वीरो० २१/११) इच्छा रहित। उदारचरितं (नपुं०) विशाल हृदय। उदासक (वि०) उदासीन, अनासक्त। 'पलितनामतया समुदासकौ' उदारचेष्टा (स्त्री०) उत्कृष्ट चेष्टा, उन्नत विचार। (सुद० (समु० ७/३) ८३) उदासी (वि०) विरक्ती। ततोऽत्र भोगाच्चभवादुदासी' (समु० उदारतरङ्गिणी (स्त्री०) विशालनदी, गंगा नदी। (जयो० ९/६७) ६/३६) उदारत्व (वि०) विशिष्टगण सहित। उदासीन (वि०) [उद्+आस्+शानच्] निष्क्रिय, अनासक्त। उदारदर्शनं (नपुं०) प्रशस्त श्रद्धा, प्रशस्तज्ञानी। 'कार्य- 'भवेदुदासीनगुणोऽयमंत्र' (समु० ८/१८) आर्यमपवर्गवर्त्मन: कारणं त्विदमुदारदर्शन।' (जयो० २/१३६) उदासीनगुणः (पुं०) अनासक्तगुण। (समु० ८/५८) ० श्रेष्ठ चिन्तन, उच्चविचार , ०भद्र श्रद्धा। उदासीचता (वि०) निष्क्रियता. नि:स्पृहता। (दयो० ४५) उदारदृक् (वि०) उदारदृष्टि, बुद्धिमान दृष्टि। तदपि हन्ति हयं उदासीन्य (वि०) उदासीनता, नि:स्पृहता। (जयो० २३/७६) किमुदारदृग् भवति' (जयो० ९/१३) उदास्थितः (पुं०) [उद्+आ+स्था+क्त] अधीक्षक, द्वारपाल, गुप्तचर। उदारधारणा (स्त्री०) सर्वोत्कृष्ट भावना, अतिविस्तीर्ण, उदाहरण (नपुं०) [उद्+आ+ ह+ ल्युट्] उदाह्रियते प्राबल्येन स्मरणशक्ति। 'ते कुविन्दवदुदारधारणा' (जयो० ३/१७) गृह्यतेऽनेनदान्तिकोऽर्थः। वर्णन, कथन, दृष्टान्त, समारंभ 'उदाराऽतिविस्तीर्णा धारणा स्मरण शक्तिः ' (जयो०३/१७) निदर्शन, स्तुतिगान। दृष्टान्तवचन। (प्रमाण मी०२/१) उदारधी (स्त्री०) प्रतिभाशाली, अतिबुद्धिमान्। उदाहारः (पुं०) [उद्+आ+ह+घञ्] वर्णन, कथन, दृष्टान्त, उदारध्वनिः (स्त्री०) स्पष्ट शब्द, सुन्दरशब्द, रमणीय स्वर। उदाहरण। 'समुदारध्वनिमित्थमुच्चरन्' (जयो० १३/१६) उदिङ्गित (वि०) ज्वलन्त, संतप्त। (जयो० १३/६२) उदारबुद्धि (स्त्री०) तीव्र बुद्धि। (बीरो० ११/२२) (जयो० उदित (भू० क० कृ०) [उद्+इ+ क्त] १. उत्पन्न, प्राप्त, १३/१६) प्रतिपादित, कथित, उदयगत। (जयो० ५/५२) २. बढ़ा उदारभावः (पुं०) औदार्यगुण, औजस्वी परिणाम। (जयो० वृ० हुआ, विस्तृत, उच्च, ऊँचा। ('सम्य० ८९) ३. ठगा हुआ। २/१४८) 'समर्पयेयमुदारभावतः' (सुद० पृ० ७२) ४. निर्मित-'दारूदितप्रतिकृति' (सुद० १२३) उदितं सूदिते उदार-वक्त्रं (नपुं०) सुन्दर मुख, लावण्यमयी आनन। 'उदाराणि प्राप्ते' इति विश्वलोचनः' (जयो० ७/९१) 'चाण्डालचेत उत्कृष्टानि महान्ति वा वक्त्राणि मुखानि। (जयो० वृ० स्युदिता किलेता' (सुद० १०७) ५. विकीर्ण-(जयो० १६/२१) १३/१७) उदारविचारः (पुं०) उन्नत विचार, यथेष्ठ वचन। (वीरो० | उदित-तारकः (पुं०) तारकमणि। 'उदितं प्रतिपादितमुदयमाप्तञ्च १/१०) 'वीरो० दयोदारविचारचिह्नम्' (वीरो० १/१०) तारकनाममध्यमणेः। (जयो० वृ० ५/५२) For Private and Personal Use Only Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उदितपिच्छगण: १९९ उद्गार: उदितपिच्छगणः (पुं०) दिगम्बर, मयूरपिच्छधारी। (जयो० | उदीरित (भू० क. कृ०) कहा, कथन किया। 'प्रत्युक्तया १८/६०) 'स्याद्वाद- भागदितपिच्छगणस्य वृत्तिः शनैराश्यं सनैराश्यमुदीरितम्' (सुद० ८४) उदितपिच्छानामुत्थापितपिच्छानां ताम्रचूडानां गण: उदीरित (वि०) प्रेरित, (जयो० १२/१२०) समृहस्तस्य' 'उदिपिच्छानां मयूरपिच्छ धारिणां दिगम्बराणां | उदीर्ण (भू० क० कृ०) [उद्-ईर्+क्त] १. जगा हुआ, बढ़ा गणः समृहस्तस्य वृत्तिः।' (जयो० वृ० १८/६०) हुआ, फैला हुआ। (जयो० १३/३२) २. फल देने रूप उदित-प्रताप (वि०) फैले हुए प्रताप वाला, विस्तीर्ण प्रताप अवस्था में परिणत कर्म पुद्गल-स्कन्ध। 'फलदातृत्वेन ___ युक्त। 'राजापुरेऽस्मिन्नुदितप्रतापो' (समु० ६/९) परिणतः कर्मपुद्गलस्कन्धः' (धव० १२/३०३) उदिता (वि०) पहनाना, धारण करना। 'अरुण-माणिक्य- उदीर्णवादरः (पुं०) फैल जाने वाले वादर। (जयो० १३/३२) सुकुण्डलोदिता' (सुद० ३/१९) । उदीर्य (भू० क० कृ०) [उद्+ईर्+क्त] फल देना, परिणत हुआ। उदिताम्बुदः (पुं०) प्रकट हुए मेघा (सुद० २९) उदुम्बरः (पुं०) फल विशेष, अभक्ष्य फल, गूलर। (हित०४७) उदितालकालि (वि०) बिखरे हुए बाल वाली। 'उदिता उदूखलः (पुं०) ऊखल, ओखली, धान्य कुटने का यन्त्र। प्रतिबिम्बिता अलकानां केशानामालि:' 'उदिता (जयो० २/८०) विकीर्णाऽलकानामालिर्यासाम्' (जयो० वृ० १३/०७१) उदूढ (वि०) उपगूढ। (वीरो० २१/८) उदितोक (नपुं०) जल प्रक्षेपण, जलधारा। (जयो० १२/५४) | उदेजय (वि०) [उद्+ए+णिच्+खश्] हिलाने वाला, कपाने उदिय (वि०) बिखरे हुए, फैले हुए। ( वीरो०५/२७) वाला। उदीक्षणं (नपुं०) [उद्+ ईश् + ल्युट] देखना, दृष्टिपात करना, उदैक्षत (भू०क०) सुरक्षित रखना। (सुद० २/४९) उर्वावलोकन। उद्गत (वि०) प्राप्त, बाहर जाना, उत्पन्न हुआ। 'श्रीपादपादर्हत उदीक्ष्य (सं०कृ०) देखकर, अवलोकनकर। 'गुणिवर्गमुदी- उद्गतानाम्' (भक्ति० १३) क्ष्याऽगान्मध्यस्थ्यं च' (सुद० ४/३५) 'मुनिमुदीक्ष्य मुमुदे उद्गतिः (स्त्री०) [उद्+गम्+क्तिन्] १. आरुढ़ होना, चढ़ना, सुदर्शन' (सुद० पृ० ११५) ऊपर बैठना, आरोहण। २. आविर्भाव, जन्मस्थान नमन। उदीची (स्त्री०) ( उद्। अञ्च क्विन्-डीप] उत्तरदिशा। उद्गन्धि (वि०) [उद्गतो गन्धोऽस्य] सुगन्ध युक्त, सुरभि उदीचीन (वि०) [उदीची+ख] उत्तर दिशा की ओर, उत्तर | सहिता दिशा से सम्बंधित। उद्गमः (पुं०) [उद्ग म्+घञ्] उदय। (सुद० १३५) १. उदीच्य (वि०) [उदीची+यत्] उत्तर दिशा में स्थित रहने ऊपर जाना, उगना, चढ़ना। २. उत्पन्न होना, जन्म लेना, वाला। उत्पत्ति, रचना, निर्माण। (सम्य० ४२) उदीच्यः (ए) पश्चिमोत्तर देश। उद्गमनं (नपुं०) [उद्ग म् ल्युट्] १. अधो गमन, विनिपात। उदीपः (पुं०) ( उद्गता आपो यत्र उद्+अप्+ईप] गहीर जल. | २. उगना, निकलना, फैलना। (जयो० वृ० १८/३२) जलप्लावन। उद्गमनीय (स०कृ०) [उद्ग म्+अनीयर] ऊपर जाने योग्य, उदीयमान (वि०) विकास शीला (सम्य० १०८) चलने योग्य, आरोहण करने योग्य। उदीरणं (नपुं०) [उद्-ईर् + ल्युट्] १. उच्चारण, उदगमविधिः (स्त्री०) खनन विधि। (जयो० ४/६८) अभिव्यक्ति। २. फेंकना, चलाना, कहना। उद्गर (सक०) कहना, बोलना, प्रतिपादित करना। 'यद्यस्मिन्समये उदीरणा (स्त्री०) फेंकना, चलाना, हीन करना। कर्म को उदय प्रकर्तुमुदितं तत्रोदगरेत्तन्मुनिः।' (मुनि० २९) में लाकर फल भोगना। 'अनुभूयमाने कर्मणि. उद्गाढ (वि०) [उद्+गाह्+क्त] गंभीर, गहरा, गहन, तीव्र, प्रक्षिप्याऽनुदयप्राप्त प्रयोगेणानुभूयते यत्सा उदीरणा' बहुत, अत्यधिक। (पं०सं०पृ० १९१) 'सकाशात् पतति सोदीरणोच्यते' | उद्गात् (पुं०) [उद्+गै+तृच्] गान करना, उच्चारण करन' (पं०सं०१६२) गीत गाना। उदीरय् (सक०) उदीरणा करना, क्षय करना, हीन करना। | उद्गारः (पुं०) [उद्+गृ+घञ्] कथन, उगाल, उत्सर्जन, वमन। 'क्षणादुदीरयन्नेवं करव्यापारमादरात्' (सुद० ७८) "उद्गारैः परिवेष्ठितोऽवनिरूहेपूर्णायुवत्स्वावशे' (मुनि० २०) For Private and Personal Use Only Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उदगारिन् २०० उद्दीप्र उदगारिन् (वि०) [उद्+गृ+णिनि] उत्सर्जन करने वाला, उगलने | उद्घातः (पुं०) [उद् हन्+घञ्] १. आरम्भ, उपक्रम, उल्लेख, वाला। संकेत। २. प्रहार, आघात, हप्पड़। ३. पुस्तक अंश, उगिर (सक०) उगलना, गिराना, वमन करना, उत्सर्जन अध्याय, अनुभाग, परिच्छेद। करना। पापानि वापाय भियोगिरन्तः' (जयो० २१/१०) | उद्घोषः (पुं०) [उद्+घुष्+घञ्] उच्चारण, स्पष्ट कथन, 'उगिरन्तो वमितवन्तः' (जयो० वृ० १/२२) उच्च घोषणा। 'सूक्तोद्घोषवर-प्रयोजनतयैकान्ते वसेद् उदगिरणं (नपुं०) [उद् +गृ+ल्युट्] वमन, उत्सर्जन, उगलना। बुद्धिभृत्।' (मुनि० ३०) उगिलन (वि०) उगलता हुआ। (सुद० ३/१८) उद्देशः (पुं०) [उद्दं श्+अच्] खटमल, जूं, मच्छर। उद्गीतिः (स्त्री०) [उद्+गै+क्तिन्] १. उच्चगान, गुणानुवाद। उद्दण्ड (वि०) १. असती, दुष्ट, भयानक। (जयो० वृ० २/११९), २. उद्गीति छन्द, आर्या छन्द का भेद। ३. अपहरण १२. दण्ड देने वाला ३. उठे हुए डंडे वाला। (सुद० १०२) उद्दधार (भू०क०) गृहीतवान्। (जयो० ८/५४) उद्गीथः (पुं०) [उद्+गै+थक्] उच्चगायन, उच्चारण। उद्दण्डभावः (पुं०) दुष्ट भाव। (जयो० वृ० ११/२७) उदगीण (वि०) [उद्+गृ+क्त] उगला हुआ, उत्सर्जन किया, उद्दन्तुर (वि०) बाहर निकले हुए दांत वाला। वमित, उत्सर्जित। उद्दानं (नपुं०) [उद्+दो+ ल्युट] कैद, बन्धन, वश में करना। उदगीर्ण (वि०) उत्सर्जित, वान्त, वमित। (जयो० ८/३०) । उद्दान्त (वि०) [उद्दम्+क्त] १. तेजस्वी, ऊर्जावान्, शक्तिशाली। उद्गीय (सक०) कहना, बोलना-उद्गीयते (जयो०८/४०) २. विनीत। उद्गूर्ण (वि०) [उद्+गूर+क्त] उन्नत किया गया, उर्ध्वगत। उद्दाम (वि०) १. प्रशसनीय। 'यत्रोद्दाम-सुधाकरोद्गमविधि:' उद्ग्रहः (पुं०) [उद्+ ग्रह अच्] लेना, ग्रहण करना, उठाना, (जयो० ४/६८) २. निर्बन्ध, अनियन्त्रित, निरंकुश, मुक्त। सम्पन्न करना। ३. सबल, शक्ति सम्पन्न। ४. भयानक, भयावह, तीव्रतट। उद्ग्राहः (पुं०) [उद्+ग्रह+घञ्] १. लेना, ग्रहण करना, ५. विशाल, अतिव्यापक। उठाना। २. प्रतिवाद, समाधान देना। उद्दायन: (पुं०) राजा, वीतभयपुराधीश उद्दायमहीपतिः। (वीरो० उद्ग्राहणिका (स्त्री०) समाधान देना, प्रश्न का उत्तर देना, १३/२१) प्रतिवाद, निराकरण। उद्दालकं (नपुं०) [उद्द ल+णिच्+अच्+कन् । शहद विशेष. उद्ग्राहित (भू० क० कृ०) [उद्+ग्रह णिच्+क्त] १. ग्रहीत, लसोड़े का फल। पकड़ा गया, ऊपर लिया गया। २. न्यस्त, मुक्त किया । उद्दित (वि०) [उद्+दो+क्त] बद्ध, संनद्ध, जुड़ा हुआ, बन्ध गया। ३. स्मरित। युक्त। उद्ग्रीव (वि०) [उन्नता ग्रीवा यस्य] उन्नत ग्रीवा, उठी हुई उद्दिष्ट (भू० क० कृ०) [उद्+दिश्+क्त] विशिष्ट, प्रधान. गर्दन वाला। प्रमुख, इच्छित, वाञ्छित। 'भिक्षैव वृत्तिः करमेव पात्रं उद्घन: (पुं०) [उद्+ हन्।अप्] आगडी बढ़ई की लकड़ी का | नोद्दिष्टमन्नं कुलमात्मगात्रम्' (सुद० ११७ ) तख्ता, जिस पर लकड़ी तैयार करता है।। उद्दिष्टत्याग-प्रतिमा (स्त्री०) उद्दिष्ट/इच्छित आहार का परित्याग। उद्घट्टनं (नपुं०) [उद्+घट्ट ल्युट्] संघर्षण, रगड़। श्रावक की एक प्रतिमा, जो स्वाध्याय, ध्यान आदि में रत उद्घर्षणं (नपुं०) [उद्+घृष्+ ल्युट्] संघर्षण, रगड़ना, घोटना। श्रावक को आहार की मर्यादा करने के लिए प्रेरित करती है। उद्घाटः (पुं०) [उद्+घट्+घञ्] चौकीदार, पड़ाव, छावनी। उद्दीपः (पुं०) [उद्+दो+घञ्] प्रज्ज्वलित, प्रकाश युक्त, उद्घाटकः (पुं०) [उद् घट्न णिच्+ण्वुल्] १. कुंजी, २. चीं, | देदीप्यमान। रहट की चीं । उद्दीपनं (नपुं०) [उद्+दीप्+णिच्+ल्युट्] उत्तेजित करने वाला उद्घाटनं (नपुं०) [उद्। घट+णिच्+ ल्युट्] खोलना, उघाड़ना, उभारने वाला, प्रेरित करने वाला, उभारने वाला, रस की विधिवत्, ऊपर उठाना, समारम्भ करना। ओर खींचने वाला। 'रस' का आलम्बन। उद्घाटय् (सक०) कहना, बोलना, समारम्भ करना। सद्यो उद्दीप्र (वि०) [उद्+दीप्रन्] प्रज्ज्वलित, चमकीला, अधिक, लिप्ततयाईवेश्म न विशेन्नोद्घाटयेदावृतं: (मुनि० १०) दाहक, ज्वलनशील। For Private and Personal Use Only Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उदृप्त २०१ उद्धृननं उदृप्त (वि०) [उद्-दृप्+क्त] अहंकारी, गर्विष्ठ, अभिमानी, करना, दया करना। २. बनाना-'समस्तिकाव्योद्धरणा यमेतु घमण्डी। (समु० १/६) ३. ध्वंस, विनाश, च्युत, उन्मूलन। ४. उद्दिश् (सक०) ०संकेत करना, लक्ष्य करना, निर्देश उतारना, निकालना, निस्सारण, निचोड़ना, उखाड़ना। करना, ०वर्णन करना, ०व्याख्यान करना, निरूपण बिताना-'प्राङ् निशि यस्योद्धरणां' (सुद० ९६) करना, समन्वेषण करना। अनुबन्ध करना। (जयो० | उद्धरता (वि०) गुप्ति त्रयात्मक हित, लोकत्रय हित कारक। ६/९१) __(जयो० १/९७) उद्दिश्य (सं००) लक्ष्य करके, उद्देश बनाकर। (जयो० उद्धरय् (सक०) दूर करना। (वीरो०५/२२) ६/९१) उद्दिश्यापरमूचे'। उद्धारक (वि०) समुचित समाधान करने वाला, ऊपर उठाने उद्देशः (पुं०) [उद्+दिश्+घञ्] लक्ष्य, वर्णन, कथन, निदर्शन, | वाला, आगे ले जाने वाला, हितैषी, शुभेच्छु । ध्यान, अनुबन्ध, अभीष्ट। (दयो० ५०) 'स्वयंवरोद्धाकरत्वमिच्छति' (जयो० ३/६६) उद्देशपथः (पुं०) अभीष्टमार्ग, इष्टपथ। उद्धारकार (वि०) [उद्+ह+ण्वुल] उद्धार करने वाला, समुचित उद्देशमार्गः (पुं०) अभीष्टपथ, लक्षित पथ। (दयो० ५०) समाधान देने वाला। (सुद० १/४४) उद्देशकं (पुं०) [उद्+दिश्+ण्वुल्] निदर्शन, दृष्टान्त, पृथक्-पृथक् उद्धारकरत्व (वि०) समुचित समाधान करने वाला, हितैषी, ___ अभिप्राय, विवेचन, संक्षिप्त वक्तव्य। शुभेच्छुक। (जयो० ३/६६) उद्देशित (वि०) लक्षित, निर्दिष्ट। (जयो० वृ० ३/४९) उद्धरित (वि०) १. अवशिष्ट, निचोड़ (जयो० ३/६६) २. उद्देश्य (सं००) [उद्+दिश्+ण्यत्] लक्ष्य, अभिप्रेत. अभीष्ट। उठाने वाला, ऊपर ले जाने वाला। उद्घोतः (पुं०) [उद्द्यु त+घञ्] १. प्रभा, प्रकाश, आभा, उद्धर्ष (वि०) [उद्+ हृष्+घञ्] प्रसन्न, खुश, हर्ष, आनन्दित। कान्ति, दीप्ति। २. पुस्तक का अध्याय, अंश, भाग, उद्धर्षणं (नपुं०) [उद्+हष्+ ल्युट्] १. रोमांच, हर्ष, आनन्द। हिस्सा, अनुच्छेद, अनुभाग, परिच्छेद। २. प्राणयुक्त। उद्मावः (पुं०) [उद्-द्रु+घञ्] भागना, पलायन करना, पीछे - उद्धवः (पुं०) [उद्+हु+अच्] उत्सव, पर्व। १. उद्धव एक हटना। संदेश वाहक, कृष्ण का संदेश वाहक। उद्धत (भू० क० कृ०) [उद्+ हन्+क्त] नीचे-(सुद० २/४) उद्धस्त (वि०) उठाए हुए, फैलाए हुए। तत्पर, तैयार, प्रयत्नशील, कटिबद्ध, सन्नद्ध! 'कुमार उद्धानं (नपुं०) [उद्+धा+ ल्युट्] चूल्हा, अंगीठी, अग्निस्थान। जनमारणोद्यतः' (जयो० ७/५८) 'वारितुं तु परचक्रमुद्यतः' उद्धान्त (वि०) [उद्+हा+झ] वमित, उगला हुआ, विसर्जित। (जयो० २/१२१) 'उद्यतः सन्नद्धः सन्' (सुद० वृ० । उद्धारः (पुं०) [उद्+ह+घञ्] १. निस्सारण, निकालना, विमुंचन, २/१२१) छोड़ना। (जयो० वृ० ३/१२) उद्धृति (जयो० ३/२) २. उद्धतता (वि०) तत्परता। (वीरो० ४/२४) मुक्त करना, शुभ करना, अच्छा करना। उद्धतिः (स्त्री०) [उदु हन्+क्तिन्] १. उन्नयन, तत्पर, कटिल उद्धारणं (नपुं०) [उद्। ह+णिच् ल्युट्] मुक्त करना, बचाना, २. अभिमान, अहंकार। उठाना, ऊँचा करना। उद्धमः (पुं०) [ उद्+मा+श] १. ध्वनि करना, प्रतिध्वनि उद्धार-पल्यं (नपुं०) समय विशेष, रोमच्छेद से असंख्यात करना. आवाज करना। ३. हांफना. श्वांस लेना। कोटि वर्ष तक गर्त भरना, उद्धार पल्य है। (सम्य० ४७) उद्धर् (सक०) १. शोधना, साफ करना। 'उद्धरत्नपि पदानि उद्धारपल्यकालः (पुं०) समय विशेष। सन्मन:' (जयो० २/५२) उद्धरन् शोधयन् (जयो० वृ० उद्धर (वि०) [उद्+धुर्+क] १. निरंकुश, अनियन्त्रित, मुक्त, २/५२) २. शान्त करना-'करतलकण्डूतिमुद्धरति' (जयो० परिमुंचित, २. स्थूल, मोटा, भारी। ६/६१) 'उद्धरामः-सिरसा वहामः' (जयो० वृ० ३/३८) उद्भूत (भू० क० कृ०) [उद्+धू+क्त] समुत्थित (जयो० 'उद्धरति- शमयतीत्यर्थ:' (जयो० वृ० /६१) ८1८) उठाया हुआ, ऊपर किया गया, गिराया गया, उद्धरिष्यामि- (दयो ६२) उद्धरेत् (मुनि० ३) हिलाया गया। उद्धरणं (नपुं०) [उद्+है+ ल्युट] १. उद्धार करना, मुक्त । उद्भूननं (नपुं०) [उद्+धू+ल्युट] उठाना, ऊपर करना, हिलाना। For Private and Personal Use Only Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उद्धूपनं २०२ उद्यमनं उद्धूपनं (नपुं०) [उद्+धूप्+ल्युट्] धूनी देना, छुपाना। प्रकाशवृत्तिता उद्भावनम्' (स० सि०६/२५) प्रतिबन्धक उद्भूलनं (नपुं०) [उद्+धूल-णिच्+ल्युट्] पीसना, चूर्ण करना, का अभाव होने पर प्रकाश में आना। धूल करना। उद्भावयितृ (वि०) [उद्+भू+णिच्+तृच्] ऊपर उठाने वाला, उद्भूषणं (नपुं०) [उद्+धूष ल्युट] रोमांचित होना, हर्षित | उन्नत बनाने वाला। होना, भाव-विभोर होना, पुलकित होना। उद्भासः (पुं०) [उद्+भास्+घञ्] प्रभा, कान्ति, चमक। उद्धृत (भू० क० कृ०) [उद्+ह+क्त] ऊँचा किया, उन्नत उद्भासिन् (वि०) [उद्भास्+इनि] प्रकाशमान्, प्रभा युक्त, किया, उठाया। (जयो० १२१८८) बढ़ाया, उद्धार किया, कान्तिमयी, उज्ज्वल, स्वच्छ। बचाया, संरक्षित किया। उद्भिज्जः (पुं०) पौधा, पादप। उद्धतिः (स्त्री०) [उद्+ह-क्तिन्] १. ऊँचा करना, उठाना, उद्भिद् (वि०) फूटने वाला, निकलने वाला, उगने वाला, निचोड़ना, निकालना, खींचना, रचना, जुटाना। (जयो० उच्छेदक। (जयो० २४/१९) २/१६५) (सुद० ३/११) बाहर करना। २. उद्धार करना, उद्भिन (वि०) निरस्त, समाप्त। श्रीमतो मुनिनाथस्याऽप्युद्भिन्ना मुक्ति। 'बलोद्धृतिसमाश्रयत्वतः' (जयो०३/१२) ३. रक्षा मुखमुद्रणा।' (जयो० १/११) दोष विशेष-चमड़े आदि से करना, बचाना-'निर्बलोद्धृतिपरस्तु कर्मणा' (जयो० ३/२) आच्छादित वस्तु। उद्धमाननं (नपुं०) [उद्+ध्मा+ल्युट्] अंगीठी, चूल्हा। उद्भूत् (भू० क० कृ०) [उद्+भू+क्त] जात, उत्पन्न, प्रसूत, उद्धयः (पुं०) [उज्झत्युदकमिति उद्-उज्झ्+क्यप्] एक नदी निःसृत, निकला हुआ। का नाम। उद्भूतिः (स्त्री०) [उद्+भू+क्तिन्] उत्पादन, निस्सरण, उन्नयन, उबन्ध (वि०) १. ढीला किया गया, खोला गया। २. लटकना, उत्कर्षण, समृद्धि, प्रजनन। भेंदना, ऊपर लटकाना। उद्भूय (अक०) उठना, जागृत। उद्भूयते-(जयो० ११/९) उद्बन्धकः (पुं०) [उद्+बन्ध्+ण्वुल] बन्धक सहित, कार्यशील 'उत्थाय आसनादुद्भूय तस्यां' (जयो० वृ० १/७९) बन्धक। उद्भेदः (पुं०) [उद्+भिद्+घञ्] १. आविर्भाव, प्रकटीकरण, उद्बल (वि०) सशक्त, शक्तिशाली। उदीयमान, उदयजन्य प्रस्फुटित, उगना, निकलना। २. उद्वाष्प (वि०) अश्रुपूरित, अश्रु से परिपूर्ण। निर्झर, प्रवाह, धारा, फुहार। उद्बाहु (वि०) प्रसारित बाहु वाला, उर्ध्व भुज युक्त। उभेदिमः (पुं०) काष्ठादि में उत्पन्न जीव। उबुद्ध (भू० क० कृ०) [उद्+बुध+ क्त] जागृत, जगाया उद्भ्रमः (पुं०) [उद्+भ्रम्। घञ्] घूमना, परिहिंडन, परिभ्रमण, गया, हर्षित, प्रसन्नचित्त। परावर्तन। उद्बोधः (पुं०) [उद्+बुध+णिच्+घञ्] स्मरण दिलाना, बोध उद्भ्रमणं (नपुं०) [उद्+भ्रम् ल्युट्] परिहिंडन, परावर्तन, कराना, जगाना, उठाना, ध्यान दिलाना। अत्र तत्र परिभ्रमण। उद्बोधक (वि०) [उद्+बुध+णिच्+ण्वुल] उपदेष्टा, जागृत उद्यत (भू० क कृ०) [उद्+यम्+क्त] तत्पर, तैयार, प्रयत्नशील, करने वाला, समझाने वाला, ध्यान केन्द्रित करने वाला। उठाया हुआ, उन्नत किया गया, उत्सुक। (वीरो०६/३९) उद्भट (वि०) [उद्+भट्+अप्] प्रगल्भ, श्रेष्ठ, प्रमुख, उत्कृष्ट 'प्रवर्तनायोद्यत चित्तलेशा:' (भक्ति० सं०पृ० ११) 'वाचा समाचारविदोद्भरस्य' (जयो० १/७८) उद्यतचित्त लेश (वि०) तत्पर चित्त वाला। (भक्ति० ११) उद्भवः (पुं०) [उद्+भू+अप्] उत्पन्न, समुच्चल, स्रोत, उद्यतते स्मेति-लगता है, तत्पर होता है 'कुरक्षणे स्मोद्यतते रचना, आधार, उद्गमस्थान। 'शुद्धिरस्ति बहुश क्षणोद्भवा' मुदा सः' (जयो० १/४५) (जयो० २/७९) 'श्रीमत्पुत्रायास्मदङ्गोभवा' (सुद० ३/४५) उद्यमः (पुं०) [उद्य म्+घञ्] प्रयत्न, उद्योग, परिश्रम, चेष्टा, उद्भवनशील (वि०) उत्पन्नशील। (जयो० वृ० १७/१५) धैर्य, तत्परता, प्रयत्नशीलता, उत्सुकता, दृढ़ संकल्प। उद्भावः (पुं०) [उद्+ भू+घञ्] उत्पत्ति, संतति, उद्गमस्थान। 'यथोद्यमं तदुपायकरेण' (दयो० ३६) 'कर्मनिर्हरणउद्भावनं (नपुं०) [उद्+भू+णिच् ल्युट्] १. चिन्तन, कल्पना, कारणोद्यमः' (जयो० २/२२) २. उत्पत्ति, संतति, उत्पादन, सृष्टि। 'प्रतिबन्धकाभावे उद्यमनं (नपुं०) [उद्+यम् ल्युट] उन्नयन, उठाना, उत्पादन। For Private and Personal Use Only Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उद्यमिन् २०३ उद्वाहनं उद्यमिन् (वि०) [उद्यम् णिनि] परिश्रमी, उद्योगी, प्रयत्नशील, | उद्त (वि०) चाहने वाले, हितेच्छुक। 'जगद्धितेच्छो द्रुतमग्रतस्तौ' निरन्तर कार्यरत, कार्यकर। (भक्ति० ७) 'शक्रादयोऽप्युद्य- | (सुद० २/२६) मिनो भवन्ति' उद्रेकः (पुं०) [उद्+रिच्+घञ्] आधिक्य, बाहुल्य, वृद्धि, उद्यमी (वि०) [उद्+यम् णिनि] परिश्रमी, उद्योगी, कार्यरत। प्राचुर्य, अधिकता। (जयो० १७/४३) उद्वत्सरः (पुं०) [उद्+वस्+सरन्] वर्ष, साल, संवत्सर। उद्यानं (नपुं०) [उद्+या+ ल्युट्] १. आराम, बगीचा, बाग, उद्वपनं (नपुं०) [उद्+व+ ल्युट्] १. उखाड़ना, उड़ेलना, नन्दनवन। (सुद० ३/३३) २. भ्रमण, परिभ्रमण, हिंडन। निकालना। २. उपहार, भेंट, दान। ३. आक्रीडक (जयो० वृ० १५/२०) 'नवविद्रुम- उद्वमनं (नपुं०) [उद्+वम् ल्युट्] उगलना, निकालना, भूयिष्ठमुद्यानमिव' (जयो० ३/७५) वमन करना। उद्यानकं (नपुं०) [उद्+या+ ल्युट्+ कन्] आराम, बगीचा, बाग। | उद्वमन्त (पुं०) निकालने वाला, फैलाने वाला। 'तत्स्फुलिङ्गजालं उद्यान-यानजः (पुं०) उद्यान विहार, आरामपरिभ्रमण, उपवन मुहुरुद्वमन्तम्' (सुद० २/१७) परिभ्रमण। उद्यानयान वृत्तं किन्न स्मरसि पण्डिते।' (सुद०८६) उद्वर्तः (पुं०) [उद्+वृत्+घञ्] १. आधिक्य, बाहुल्य, उद्यान-सम्पालकः (पुं०) माली, उपवन संरक्षक। 'उद्यान- अतिशयता। २. शेष, बचा। ३. लेप, मालिश। सम्पालक-कुक्कुटेन' (समु० ६/३४) | उद्वर्तनं (नपुं०) [उद्+वृत्+ल्युट्] १. लेप, मालिश। उद्यापनं (नपुं०) [उद्+या+णिच् ल्युट] व्रत समाप्ति, व्रतोद्यापन, (जयो१०/२४) २. बदलना, करवट लेना, उलटना, व्रतपूर्णता, पारणा दिवस। इधर-उधर करना, उन्नयन, अभ्यदुय। 'अस्मादन्यत्रोत्पत्तिः' उद्योगः (पुं०) [उद्+युज्+घञ्] उद्यम, प्रयत्न, परिश्रम, चेष्टा। (मूला०२२/३) ३. समृद्धि। (मुनि० १५) उद्वर्तनाकरण (वि०) वृद्धिगति स्थिति। उद्योगिन् (वि०) [उद्+युज्+घिनूण] उद्यमी, परिश्रमी, | उद्वर्धनं (नपुं०) [उद्+वृध्+ ल्युट्] वृद्धि, समृद्धि। कार्यतत्परता, उद्योगशाली। उद्योगिनं पुरुषसिंहमुपैति लक्ष्मी उद्वलितुं (ह०कृ०) मुड़ना, उलटना। (सम्य० ७३) दैवेन देयमिति का पुरुषा वदन्ति। (दयो० वृ० ९२) । उद्वह (वि०) [उद्+व+अच्] आगे ले जाना, निरन्तर उद्योत (वि०) प्रकाशवान्, प्रभायुक्त। 'उद्योतयन्तोऽपि परार्थमन्तः' | गतिशील रहना, अग्रणी। (सुद०१/२२) उद्वहः (पुं०) पुत्र, सुत, तनय। उद्योतकारिन् (वि०) ०प्रकाशवान्, प्रभायुक्त, ०कान्ति फैलाने उदवहनं (नपुं०) [उद्+व+ ल्युट्] १. उठाना, आश्रय देना, वाला। (दयो० १२४) सम्भालना, रख-रखाव करना। २. ले जाना, आरूढ़ उद्योतन (वि०) प्रकाशन। (जयो० २२/४१) 'जगदुद्योतन होना, वाहन पर चढ़ना। हेतोर्वशान्न' (जयो० २०/३६) उद्वान (वि०) [उद्+वन्+घञ्] वमित, नि:सरित, उगला हुआ। उद्योतय (सक०) प्रकाश करना-उद्योतयति-(वीरो० ४/३३) उद्वानं (नपुं०) अंगीठी, चूल्हा। उद्योतिन् (वि०) प्रकाश करने वाला, कान्ति फैलाने वाला। उदवान्त (वि०) [उद्+वम्+क्त] वमन किया गया, उगला (वीरो० ६/९) गया। उद्रः (पुं०) [उन्द्+रक्] जलीय प्राणी, जल का जीव। उद्वापः (पुं०) [उद्+वप्+घञ्] उगलना, बाहर फेंकना। उद्रवः (पुं०) [उद्गतो रथो यस्मात्] १. रथ के धुरी की उद्वासः (पुं०) [उद्+वस्+घञ्] तिलाञ्जलि देना, निर्वासन। कील, सकेल। २. मुर्गा। उद्वासनं (नपुं०) [उद्+वस्+णिच् ल्युट] निर्वासन, तिलाञ्जलि उद्रवः (पुं०) [उद्++घञ्] कोलाहल, शोरगुल। देना, निकालना, बाहर करना। उद्रिक्त (वि०) [उद्+रिच्+क्त] विशद, महत्, बड़ा, अत्यधिक, उद्वाहः (पुं०) [उद्+व+घञ्] १. सम्भालना, आश्रय देना। अतिशय। २. विवाह, पाणिग्रहण। उद्रुज (वि०) [उद्रु+क] जड़ खोदने वाला, नाश करने | उद्वाहनं (नपुं०) [उद्+वह णिच् ल्युट्] १. उठाना, जगाना, वाला, विध्वंसका सचेत करना। २. विवाह, पाणिग्रहण। For Private and Personal Use Only Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उद्वाहिक २०४ उन्नम्रवक्र: उद्वाहिक (वि०) [उद्+वाह्+ठन्] विवाह विषयक, पाणिग्रहण सम्बन्धी। उद्वाहिन् (वि०) [उद्+व+णिनि] १. उठाने वाला, खींचने वाला, ले जाने वाला। २. विवाह करने वाला। उद्विग्न (भू० क० कृ०) [उद्+विज्+क्त] दु:खित, पीड़ित, व्याकुल, संतप्त, चिंचित, शोकाकुल। (जयो० वृ० १५/२) उदेति सविता ताम्रस्ताम्र एवास्तमेति च। सम्पतौ च विपत्ती च महतामेकरूपतरा।। उद्विग्नमन (वि०) खिन्न मन वाला, दु:खित मन वाला, शोकाकुल। (दयो० ८७) उद्वीक्षणं (नपुं०) [उद्+वि+ईक्ष ल्युट्] १. ऊपरी दृष्टि, उर्वावलोकन। २. अक्षि, दृष्टि, नेत्र। उद्वीजनं (नपुं०) [उद्+वी+ल्युट्] पंखा करना, हवा देना, पंखा झलना। उबृंहणं (नपुं०) [उद्+वृंह+ ल्युट्] वृद्धि, वर्धन, विकास। उद्वृत्त (भू० क० कृ०) [उद्+वृत्+क्त] ऊर्ध्वगत, ऊँचा | किया गया, उठाया हुआ, उमड़ा हुआ। उद्वेगः (पुं०) [उद्+विज्+घञ्] १. उत्तेजना, क्षोभ, व्याकुलता। २. कांपना, हिलना, लहराना। ३. आतंक, शोक, चिन्ता, खेद, विश्मय, आश्चर्य भय। उद्वेगकारक (वि०) क्षोभजनक। (जयो० वृ० १/१०७) उदवेजनं (नपुं०) [उद्+विज्+ल्युट्] उत्तेजना, क्षोभ, व्याकुलता, शोक, चिन्ता, खेद, विश्मय। २. पीड़ा, कष्ट देना। उद्वेदि (वि०) [उन्नता वेदिर्यत्र] उन्नत आसन, उच्चासन, ऊपर गद्दी। उद्वेपः (पुं०) [उद्वेप्+अच्] कांपना, हिलना। उद्वेल (वि०) [उत्क्रान्तो वेलाम्] १. सीमा उल्लंघन। २. तट से बाहर सीमा पार। उद्वेल्लित (भू० क० कृ०) [उद्+वेल्ल+क्त] हिलाया हुआ, कंपित किया, उछाला हुआ। उद्वेल्लिम (वि०) उकेलने की अवस्था। उद्वेष्टनं (वि०) १. वेष्टन रहित, बन्धन रहित, खुला हुआ, लपेटहीन, ढीला किया गया। उद् (नपुं०) घेरा, बाड़, बाड़ा, कांटों से बना घेरा। उद्वोढः (पुं०) [उद्+व+तृच] पति। उधस (नपुं०) [उन्द्+असुन्] ऐन, ओडी। उन्द (सक०) आर्द्र करना, गीला करना, स्नान करना, तर करना। उन्दुर (पुं०) [उर्+उरु] चूहा, मूषक। उन्दुरुः (पुं०) [उर्+उरु] मूषक, चूहा। उन्दुर-संग्रह (वि०) चूहों का समूह। (समु० ९/२३) उन्नत (भू० क. कृ०) [उद्+ नम्। क्त] १. प्रमुख, श्रेष्ठ, अच्छा। (सुद० ३/४६) २. उन्नयन, उत्थान। ३. बृहद् बड़ा, विस्तृत्, ०फैला हुआ, उत्तुंग, ऊँचा। (सुद० ७८) ४. उन्नत किया, उठाया। उन्नतगुणः (पु०) उत्तमगुण, श्रेष्ठगुण। 'भूमण्डलोन्नतगुणादिव' (सुद०३/४६) उन्नतगृहं (नपुं०) उत्तम घर, राज प्रासाद, महल। उन्नत् चरणं (नपुं०) काव्य का सुन्दर पाद। उन्नतध्वजः (पुं०) उच्च ध्वज, उठा हुआ ध्वज, फहराता हुआ ध्वज। उन्नतनदी (स्त्री०) फैली हुई नदी प्रवाहशील। उन्नतफलं (नपुं०) उत्तम फल, अच्छे फल। उन्नतभावः (पुं०) श्रेष्ठभाव, शुभ भाव। उन्नत-मेघः (पुं०) उमड़े हुए मेघ। उन्नतयतिः (पुं०) उत्तम यति। उन्नत-रजनी (स्त्री०) श्रेष्ठ रात्रि। उन्नतवंशः (पुं०) उच्चकुलोत्पन्न। (सुद० ३/६) उत्तम वंश। (जयो० ६/५४) उन्नतवंशालिन् (वि०) उत्तम क्लोत्पन्न। (वीरो० ७/१६) उन्नतशिरस् (वि०) अति अभिमानी। उन्नतावत (वि०) उठा एवं गिरा हुआ। (जयो० वृ० ३/६) उन्नतिः (स्त्री०) [उद्+नम्+क्तिन्] उन्नयन, उत्कर्ष, अभ्युदय, विकसित, उच्च, विशाल, ऊँचाई। (सुद०४/ उन्नतिमत् (वि०) उन्नत, उत्थानयत, प्रशतिशील। उन्नतिविधायक (वि०) सुधारिन्, प्रजाहित। उन्नति में तत्पर। (जयो० वृ० ९/६५) उन्नतिशाली (वि०) प्रगतिशाली, गतिशील। (जयो० वृ० १/०९) उन्नमनं (नपुं०) [उद्+नुम् ल्युट्] उन्नयन, उन्नत, ऊँचा, उठाना, ऊपर करना। उन्नम् (वि०) [उद्। नम्र न्] उन्नत, उत्तुंग, ऊँचा, सीधा, एक सा स्थित। (जयो० १३/११) 'उन्नम्रमूर्ध्वगतं' (जयो० वृ० १३/११) उन्नम्रवक्र: (पुं०) उर्ध्व मुख, मुख को ऊपर उठाए हुए। 'उन्नम्र मूर्ध्वगतं वक्रमाननं यस्य स ऊर्ध्वमुखः' (जयो० वृ० १३/१११) For Private and Personal Use Only Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उन्नय् २०५ उन्मूलय उन्नय् (सक०) चिन्तन करना, स्मरण करना। (जयो० २/३०) उन्नयः (पुं०) । उद्। नी। अच। घञ्] १. उन्नत, उठाना, ऊँचा करना। २. सादृश्य, एक सा, सीधा सरल। उन्नयनं (नपुं०) १. ऊपर उठाना, ऊँचा करना। २. पर्यालोचन, विचार विमर्श। 'उन्नयन्नम 'उन्नतिं प्रापयन्' (जयो० वृ० ३/६) उन्नस (वि०) [उन्नता नासिका यस्य] ऊँची नाक वाला, उठी हुई नासिका वाला। उन्नादः (पुं०) [उद्+नद्घ ञ्] गूंज, चिंघाड़, उग्रनाद, उच्चशब्द, दहाड़, चिल्लाहट। उन्नाभ (वि०) उभरी/उठी हुई नाभी वाला तोंद वाला, तुंदिल। उन्नाहः (पुं०) [उद्+न+घञ्] उभार, उठाव। उन्निद्र (वि०) [ उद्गता निन्द्रा यस्य सः] जागृत, निन्द्रा रहित, सचेत, जागा हुआ। उन्नेत (वि०) [उद् नी तृच्] उठाने वाला, सहारा देने वाला। उन्मज्जनं (नपुं०) [उद्मस्+ ल्युट्] बाहर निकालना, उगलना, पानी के कुल्ले करना। उन्मत्त (भृ० क० कृ०) [उद्+मद् + क्त] पागल, विक्षिप्त, मदहोश, उन्मादित हुआ। समुन्मत्ते किमेतावत् समुन्मत्तेद्दशीहि न।' (मुद ८४) उन्मत्तग (वि०) मदकृति, उन्मत्त हुआ। (जयो० २/ उन्मत्तकल्प (वि०) ०भ्रमतीत्यधीर, ०भ्रमित-जन, विक्षिप्त लोग। (वीरो० १२/३२) उन्मत्तकीर्तिः (स्त्री०) कीर्ति से उन्मत्त होने वाला! उन्मत्त-दर्शन (वि०) देखने में प्रमादी। उन्मत्त-दोष: (वि०) भ्रान्तचित्त, कायोत्सर्ग का एक दोष। उन्मत्तभावः (पुं०) ०मदकारक भाव, मदानुभाव ०क्षीणत्वभाव। (जयो० वृ० १५/१४) उन्मथनं (नपुं०) [उद्+मथ्+ ल्युट्] १. झाड़ना, फेंक देना। २. वध करना। उन्मद (वि०) [उद्गतो मदो यस्य] शराबी, उन्मादी, प्रमादी, पागल, विक्षिप्त। उन्मदन (वि०) [उद्गतो मदनोऽस्य] काम पीड़ित, प्रेमवशीभूत। उन्मदिष्णु (वि०) [उद्+म+इष्णुच्] विक्षिप्त, पागल, उन्मादी, उन्मनस्कप्रकार (वि०) अनादर भाव, उत्तेजना। (जयो० १७/२३) उन्मनस्कता (वि०) उदासीनता, क्षुब्धत, अनमनापन। 'जाता भवतामुन्मनस्कता' (सुद० ३/३६) उन्मनीभावः (पु०) विभ्रम भाव, उदासीनता, भाव, विक्षिप्तताभाव। (जयो० वृ० ६/३५) उन्मन्थः (पुं०) [उद्+मन्थ्+घञ्] क्षोभ, व्याकुलता, पीड़ा, राग-द्वेष भाव। उन्मन्थनं (नपुं०) [उद्+मन्थ्+ल्युट] क्षोभ/दु:ख/पीड़ा/करना, व्याकुल करना। उन्मयूख (नपुं०) प्रकाशमान् ०दीप्ति युक्त। उन्मर्दनं (नपुं०) [उद्+मृद्+ ल्युट्] मलना, मालिश करना, लेप लगाना। उन्माथः (पुं०) [उद्+मथ्+घञ्] ०यातना, ०पीड़ा, ०कष्ट, ०क्षुब्ध करना। उन्माद (वि०) [उद्+मद्+घञ्] विक्षिप्त, पागल, असंतुलित। उन्मादनं (नपुं०) [उद्+म+णिच् ल्युट्] मादक, मोहक। उन्मानं (नपुं०) [उद्+मा+ ल्युट] मापना, तोलना, माप करना। जिससे तोला जाता है, तराजू, तुला। 'उन्मीयतेऽनेनोन्मीयत इति रोन्मानं' उन्मार्ग (वि.) [उत्क्रान्तः मार्गात्] १. कुमार्ग, कुपथ। २. अनुचित आचरण। उन्मार्गः (पुं०) कुआचरण, ०कु-पथ, ०अनाचार। उन्मार्गगामिन् (वि०) कुआचरण को अपनाने वाला, कुपथगामी। (वीरो० १८४२) (जयो० वृ० १/३१) उन्मार्गदेशक (वि०) मिथ्यामार्ग का उपदेष्टा। उन्मार्ग-पंथिन् (वि०) मिथ्यामार्ग का विध्वंसक। उन्मार्जनं (नपुं०) [उद्+मृज्+णिच्+ल्युट] प्रमार्जन, प्रक्षालन, पोंछना, साफ करना, रगड़ना। उन्मार्जित (वि०) प्रमार्जित, प्रक्षालित। उन्मितिः (स्त्री०) माप, तोल, मूल्य। उन्मिथ (वि०) मिश्रित, नाना प्रकार का। उन्मिषित (भू० क० कृ०) [उद्+मिष+क्त] उन्मीलन रहित, जागृत, नेत्र उद्घाटित, खुला हुआ। उन्मीलित (वि०) जागृत, सचेष्ट, खुली हुई आंखों वाला। उन्मुख (वि०) सम्मुख, सामने, निकटस्थ, समीपवर्ती। उन्मूलय् (सक०) उखाड़ना, निकालना, मूलोच्छेद करना। सोऽयं जन्म-जरान्तकत्रयभवं सन्तापमुन्मूलयन्' (मुनि० ७) 'उन्मूलयन्ति स्वतरुरुहाणि' (वीरो० २१/११) । प्रमादी। उन्मनस्क (वि.) [उद्भ्रान्त मनो यस्य] १. उत्तेजित, विक्षुब्ध, संक्षुब्ध। २. अनादर, सम्मान रहित, उदासीन, दु:खित, पीड़ित, व्याकुल। For Private and Personal Use Only Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उन्मूल्य २०६ उपकृ उन्मूल्य (वि०) 'उन्मूलन कर, मूलोच्छेदकर। (सम्य० १४७) उपकरण-बकुशः (पुं०) उपकरण का इच्छुक साधक___ 'भूयो विरराम कर: प्रियोन्मुखः' (जयो० ६/११९) 'उपकरणबकुशो बहुविशेषयुक्तोपकरणाकांक्षी' (स० सि० उन्मुद्र (वि०) [उदगता मुद्रा यस्मात्] खिला हुआ। ९/४७) उन्मुद्रय् (सक०) छोड़ना, त्यागना। 'सुकेशि! उन्मुद्रय मुद्रणां उपकरण-संयमः (पुं०) पुस्तकादि संयम। गिरां' (जयो० २४/४२) उपकरण-संयोजनं (नपु०) पुस्तकादि का प्रजार्जन। (भ० उन्मूलनं (नपुं) [उद्-मूल+ल्युट] उखाड़ना, समूल नाश, मूलोच्छेदना आ० टी०८१५) उन्मेदा (स्त्री०) स्थूलता, मुटापा। उपकरणेन्द्रियं (नपुं०) इन्द्रिय विषय का ग्रहण नहीं होना। उन्मेष: (पुं०) [उद्-मिष्+घञ्] १. नेत्रोदघाटन, आंख खोलना, उपकर्णनं (नपुं०) [उप-कर्ण+ ल्युट] श्रवण, सुनना। पलक मारना। २. खिलना, खुलना, फूलना, विकसित उपकर्णिका (स्त्री०) [उपकर्ण+कन्। टाप्] जनश्रुति, अफवाह, होना। ३. प्रकाश, प्रभा, चमक, दीप्ति। ४. प्रकट होना, व्यर्थ का कथन, सुनना/फैलाना। दिखाई देना। उपकर्तृ (वि०) [उप+कृ+तृच्] अनुग्रहकर्ता, आभारी, उपयोगी, उन्मोचनं (नपुं०) [उद्+मुच्+ ल्युट्] खोलना, उघाड़ना।। उपकारक। उप (उपसर्ग) यह उपसर्ग संज्ञाओं और क्रियाओं दोनों में उपकल्प (वि०) तैयार, सचेष्ट। लगता है, इसके लगने से कई अर्थ उपस्थित हो जाते उपकल्पधर (वि०) सहायकर, सहायक, उपकारक। (जयो० हैं-१. निकटता, समीपता। (जयो० १३/१७) (उपकण्ठ) ९/४३) संसक्ति-उपगच्छति, उपस्थित। २. शक्ति, बल, उपकल्पनं (नपुं०) [ उप कृप। णिच् ल्युट्] कथन, विकार, योग्यता उपकरोति। ३. व्याप्त, विस्तार, विस्तीर्ण-उपकीण। सृजन। (जयो० ९/४३) 'तदनुतापि न मेऽप्युपकल्पनम्' ४. परामर्श, शिक्षण-उपदिशति। ५. मृत्यु-उपरति। ६. (जयो० ९/४३) दोप, अपराध-उपघात। ७. देना, प्रदान करना-उपनयति। | उपकल्पित (वि०) सृजित करता हुआ, बनाता हुआ, रचता उपादान (सम्य० १४) ८. चेष्टा, प्रत्न।- ९. उपक्रम, हुआ। 'रात्रं तदन-उपकल्पितवहिभावः। (सुद० ४/२४) आरम्भ-उपक्रमते। १०. अभ्यास, अध्ययन-उपाध्याय। ११. उपकाननं (नपुं०) उपवन, आराम, उद्यान, बगीचा। आदर, पूजा, सम्मान-उपस्थान। १२. प्रापत, उपलब्ध-उपेतः 'सुरभिताखिलदिश्यपकानने' (जयो० ९/६९) (सुद० ४/१७) उपैति-(वीरो० २/३२) उपकारः (पुं०) [उप कृ+घञ्] सहायता, सहयोग, सहकारिता, उपकण्ठः (पुं०) [उपगतः कण्ठम्] सामीप्य, सानिध्य, निकटता। सेवा, अनुग्रह, आभार। 'प्रजानां हिताय' (जयो० १२/६६) (सुद०३/२९) 'स्तवकगुच्छोपकण्ठ-स्थले' (समु०२/२८) (सुद० ४/४५) १. तैयारी, उपकृत। (जयो० वृ० १/४०) उपकण्ठः (पुं०) मधुर कण्ठ। (जयो० १७/१८) २. अलंकरण, आभूषण,शृंगार साधना उपकण्ठ (अव्य०) समीप. निकट, ग्रीवा सन्निकट। उपकारिन् (वि०) उपकारक, सेवक, सहभागी। 'उपकण्ठमकम्पनादय': (जयो० १३/१७) उपकारी (स्त्री०) धर्मशाला, उपाश्रय, एकान्त ठहरने का उपकण्ठी (वि०) मधुरकण्ठ वाली। नापोपकण्ठं स्थान। सहसोकण्ठीकृतापि यूना पिकमञ्जुकण्ठी' (जयो० १७/१८) उपकार्य (वि०) [उप+ कृ+ ण्यत्] सहायता करने के लिए उपकथा (स्त्री०) लधु कथा, किस्सा-कहानी। उपयुक्त/समीचीन। 'मत्तोऽप्यवित्तविधिरेष मयोपकार्यः' (सुद० उपनिष्ठिका (स्त्री०) कन्नी अंगुली के पास वाली अंगुली। ४/२४) उपकरणं (नपुं०) [उप+कृ+ल्युट्] १. साधन, सामग्री, वस्तु, उपकुञ्चि (स्त्री०) [उप+कुञ्च। कि] 'छोटी एला, इलायची। द्रव्य, पात्र। २. उपस्कर। (जयो० वृ० २२/३६) 'येन उपकुम्भ (वि०) १. समीपस्थ, निकटस्थ, संसक्त। २. अकेला, निर्वृत्तेरूपकारः क्रियते तदुपकरणम्' (स० सि० २/१७) एकाकी, निवृत्त 'उपक्रियतेऽनेनेति उपकरणम्' (त० वा० २/१७) उपकुल्या (स्त्री०) [उप कुल+ यत् टाप] नहर, खाई। 'उपक्रियतेऽनुगृह्यते ज्ञानसाधनमिन्द्रियमनेनेन्युपकरणम' (भ० उपकूपम् (अव्य०) कुएं के निकट बना नाद, पानी का पात्र। आ० टी० ११५) अनुग्रह सेवा। उपकृ (सक०) अर्पण करना, उपकार करना, डालना, समर्पण For Private and Personal Use Only Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra उपकृत करना, अभिषेक करना । शिरसि स्फुटमक्षतान् ददौ । ह्यपकुर्वन्नपनोदकैः पदौ' (जयो० १३/२) उपकुर्वन्अभिषिना उपकृत (वि०) उपकार करने वाला आभार व्यक्त कर्ता, अनुग्रहार्थी 'इतः परस्योपकृतावतश्च' (जयो० १/४० ) [ उप+कृ+ क्तिन्] उपकृति (स्त्री०) उपक्रिया, अनुग्रह, आभार । उपक्रम (पुं०) ( उप क्रम्+घञ्] ०अपवर्तन www.kobatirth.org परिणमन ०प्रारम्भ समारम्भ, ०उपाय योजना अर्थमात्मन उप समीपं क्राम्यति करोत्युपक्रम, युक्ति, उपचार। (धव० १/७२ ) वैद्योपक्रमसहितांस्तत्र' (जयो० ६/१०) उपक्रमणं (नपुं०) (उपक्रम. ल्युट्] १. उपगमन, आरम्भ। २. व्याधि निदान। उपक्रम - कालः (पुं०) अभीष्ट अर्थ को समीप लाने का समय। 'उपक्रमस्य काला भूयिष्ठक्रियापरिणाम्' (जैन०ल० २६६ ) उपक्रीड़ा (स्त्री०) क्रीड़ा स्थल, खेल का मैदान । उपक्रोश: (पुं० ) [ उप + क्रुश्+घञ्] निन्दा गर्हा, अप्रशंसा, अपवाद. अपकर्ष! 9 + उपक्रोष्ट (पुं०) [उप-कु-तन् गधा, गर्दभ उपक्लृप्तिः (स्त्री) सम्पति, धन, वैभव, ऐश्वर्य (जयो० २८/५५) उपक्व: (पु० ) [ उप+क्वण्+अप्+घञ्] वीणा की झंकार | उपक्षत (वि०) विनष्ट, ह्रासगता उपक्षय (वि०) हानि, नाश, विनाश, हास, व्यय। उपक्षेष: (पुं० ) [ उपसिप्-पत्र) १. उछालना, फेंकना। २. उल्लेख इंगित, संकेत । + · उपक्षेपणं (नपुं० ) [ उप+क्षिप् + ल्युट्] फेंकना, उछालना, डालना। दोषारोपण करना। उपग (वि० ) [ उपगम् द] पीछे चलने वाला सम्मिलित होने वाला प्राप्त करने वाला, करने वाला। अनुगमन उपगण: (पुं०) श्रेणी की अप्रधानता, भिन्न श्रेणी, अन्य कक्षा । उपगत (भू० क० कृ० ) [ उपगम्क्त] १. गया हुआ पहुंचा हुआ प्राप्त, प्रौढतामुपगतानि विभुनां मानसानि' (जयो० ५/७०) उपगतानि प्राप्तानि जयो० ५/७०) 7 उपगतिः (स्त्री० ) [ उ+ गम् + क्तिन्] निकट जाना, उपागमन, समीपस्थ आना उपलब्धि प्राप्ति ज्ञान। उपगम (पु० ) [ उपगम् अप्] जाना १. पहुंचना, निकट " २०७ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir होना, समीप होना। २. उपलब्धि प्राप्ति ३. अनुभव, जानकारी स्वीकृति | उपगामी (वि०) समीप जाने वाला (जयो० १/२१) उपगम्य (सं०कृ० ) पास जाकर, निकट पहुंचकर । (जयो० ४/१) अनुप्रेक्षार्थचिन्ता वा तज्ज्ञैरभ्युपगम्यते' (सम्य० ११६ ) उपगम्यते - वर्तमानकालिक क्रिया । उपगिरि: (पुं०) पर्वत के समीप । उपगिरि ( अव्य० ) पहाड़ / पर्वत के निकट | उपगु (अव्य०) गौ समीप, गौ के निकट । उपघातनामकर्म: उपगुप्त (वि०) समावृत, धारण करने वाली, ढके रखने वाली। (सुद० १/१७) 'देहमेषोपगुप्ता गुणसम्पदेह' (वीरो० ६/३) उपगुरु: (पुं०) सहायक अध्यापक, सहायक शिक्षक, शिक्षक के सन्निकट उपगूढ (भू० क० कृ०) [उपगूह+क्त] गुप्त, प्रच्छन्न, ढंका हुआ, आच्छादित, आलिंगित। उपगूहनं (नपुं० ) [ उप + गृह् + ल्युट्] १. गुप्त, छिपाना, प्रच्छन्न, + ढका आवृत । २. सम्यक्त्व का एक अंग 'उपगूहनं चातुर्वर्ण्यश्रमण संघ दोषापहरणं प्रमादाचरितस्य च संवरणम्' (मूलाचार वृ० ४०४) प्रच्छादनं विनाशनं गोपनं झम्पन तदेवोपगूहनम्' (भ० आ० टी० ४५) उपग्रह (पुं० ) [ उपग्रह+अप्] प्रतिज्ञा, अनुग्रह प्रोत्साहन पकड़ (दयो० २३ उपग्रहो ऽनुग्रह' (त० वा० ५/१७) उपग्रहणं (नपुं० [उपग्रह ल्युट् ] ग्रहण करना, पकड़ना, सहारा देना, आधार बनना। उपग्राहः (पुं० ) [ उप+ग्रह्+घञ्] उपहार देना, प्राभृत देना, भेंट देना, वस्तु प्रदान करना। उपग्राहक (वि०) खरीददार ग्राहक क्रय कर्ता 'गुडमिव वणिजामुपग्राहकै : ' (दयो० ५०) उपग्राह्यः (पुं० ) [ उप+ग्रह ण्यत्] उपहार प्राभृत, भेंट उपगृहं (नपुं०) एकान्त स्थान, ठहरने का स्थान । उपघातः (पुं) [उपहन्+घञ्] १. प्रहार, ०चोट, ० आघात, ०विनाशा 'उपघातमहो करस्य सोम्' (जयो० ११/६०) २. प्रशस्त ज्ञान दूषण प्रशस्तज्ञानदूषणमुपघात (स० सि० ६ / १०) 'दोषोदभावनं दूषणमुपघात इति (त० वा० ६/१०) प्रशस्तस्यापि ज्ञानस्य दर्शनस्य वा दूषणमुपघातः' (त० श्लोक ०६/१०) For Private and Personal Use Only उपघातक (वि०) प्रहारक, विध्वसंक । उपघातनामकर्म: (पुं०) उपपातनामकर्म स्वयंकृत कारणों से घात । 'यस्योदयात् स्वयं कृतोदबन्धनप्राणापान Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उपघोषणं उपदंश: निरोधादिनिमित्त उपघातो भवति तदुपघातनाम।' (भ० आ० | उपछन्दनं (नपुं०) [उप+ छन्द + णिच्+ ल्युट] उकसाना, प्रलोभन टी० २/२४) देना, आमंत्रण देना। उपघोषणं (नपुं०) [उप+घुष्+ल्युट्] घोषणा, ढिंढोरा, विज्ञापन, उपजनः (पुं०) [उप जन् अच्] वृद्धि, समायांग, जोड़, प्रकाशित करना। उपगमनस्थान। उपध्न (पु०) [उप+हत्-क] शरण, आश्रय, संरक्षा। उपजल्पनं (नपुं०) [उप-जल्प ल्युट] वार्तालाप, बातचीत, आलाप। उपचक्रः (पुं०) एक हंस विशेष! उपजात: (पुं०) [उप. जप्त घा] समीपस्थ कथन, गुप्त कथन, उपचक्षुष (नपुं०) चक्षुताल, चश्मा, उपनेत्र। कर्ण में कहना। उपचयः (पुं०) १. आधिक्य, वृद्धि, महत्, २. इकत्र, इकट्ठा, उपजायमान (वि०) उत्पन्न होने वाला। (वीगे० २०/२१) संयोग, युग्म। ३. परिमाप, माप। ४. समृद्धि, उत्थान, उपजीवक (वि०) [उप+जीव+ण्वुल] आश्रित रहने वाला, अभ्युदय। ५. निसिञ्चन करना, क्षेपण करना, गृहीत कर्म आधारभृत, दूसरे के सहारे जीविका करने वाला। पुद्गलों के अधिकाल को छोड़कर आगे ज्ञानावरणादि उपजीवन (नपुं०) [उप+ जीव+ ल्युट ] आजीविका, जीने का स्वरूप में निसिञ्चन करना। आश्रय, जीविकोपार्जन का साधन। उपचयपदं (नपुं०) विशिष्ट अवयव, शरीर के अवयवों में उपजीव्य (वि०) [उप+ जीव। ण्यत्] जीविका देने वाला, वद्धि होने से जो विशिष्ट अवयव हों। आश्रयदाता, संरक्षक 'तत्रोपचितावयवनिबन्धनानि' (धव०१/७७) उपज्ञं (वि०) कथित, परिभापित, विवेचित। आप्तोपउपचरः (पुं०) । उप+च+अच] उपचार, निदान, व्याधि ज्ञमनुल्लंध्यमादेष्ट विरुद्धवाक। (सम्य०१३) निरोध, चिकित्सा। उपज्ञा (स्त्री०) [उप- ज्ञा अङउपजा ज्ञान, आगत ज्ञान, उपचरणं (नपुं०) [उप+चर् + ल्युट्] निकट जाना, समीप समायोजित ज्ञान। गमन करना। उपढौकनं (नपुं०) [उप ढोक ल्युट] ससम्मान उपहार, भेंट। उपचरित-भावः (पुं०) उपचार भाव 'एकत्र निश्चितो भाव: उपढौकित (वि०) आरुढ़ित, आरोहित, चढ़ा हुआ। परत्र चोपर्यत' 'रथमेवमथोपढौकित: किम्' (जयो० १०/५१) उपचरित-सद्भूत व्यवहारनयः (पुं०) उपाधि सहित गुण उपतस्थुर (वि०) उपस्थित हुए (वीरा ७/१२) और गुणी में भेद को जो विषय करता है। जीव के उपतापः (पुं०) [उप तप घञ्] १. उणा, तेज, गर्मी, संताप पतिज्ञान आदि गुण। २. दु:ख, वेदना, कष्ट। उपचर्या (स्त्री०) संग्रहण, उपचार, सेवा। उपतापक (वि०) बाह्य संतापक, संतप्त होने वाला। (जयो उपचारः (पुं०) [उप-चर्+घञ्] ०सेवा, चिकित्सा, सुश्रूषा, २६/२५) बहिरूपद्रवकारक अरिमग्निमिवोपतापकं जलवत् ०सम्मान, ०अभयदान, ०शिष्टिता, नम्रता, सत्कार, तूद्दलनाश्रयः स्वकम्' (जयो० २६/२५) सङ्गम, पूंछना। (सुद० २/७) 'किं विधोः शरदि नाप्युपचारः' उपतापी (वि०) संतप्ती, पश्चात्तापशील। (जयो० १५/५८) (जयो० ४/९) उपतापनं (नपुं०) [उप-तप णिच् + ल्युट्] १. गरम करना. उपचारछलं (नपुं०) सत्य धर्म के सद्भाव का निषेध- तपाना। २. कष्ट देना, सताना आकुलित करना। 'धर्माध्यारोपनिर्देशे सत्यार्थ प्रतिषेधनम्' (त०श्लोक १/२९९) उपतापिन् (वि०) [उप-तप्त णिनि ) १. गरम करने वाला. उपचार विनयः (पुं०) आचार्य आदि के सम्मुख खड़ा होना। जलाने वाला, संतप्त करने वाला। २. व्याधि जनित, रोग 'अञ्जलीकरणादिरूपचारविनयः' उपचितिः (स्त्री०) [उप चि+क्तिन्] ०इकट्ठा करना, संग्रह | उपतिष्यम् (नपुं०) अश्लेषा नक्षत्र, पुनर्वसु नक्षत्र। करना, जोड़ना, संचय करना, चयन करना, जुटाना। उपत्यका (स्त्री०) [उपत्यकन्-पर्वतस्यासन्नं स्थलमुपत्यका] उपचूलनं (नपुं०) [उप-चूल्+ ल्युट्] जलाना, उष्ण करना, पर्वत की तलहटी, नीचे का भाग। तपाना। उपदंशः (पुं०) [उप+ दंश्+घञ्] १. काटना, डङ्क मारना, उपच्छदः (पुं०) [उप+छद् णिच्+घ] आवरण, ढक्कन, चादर। डसना। २. रोग (आतशक)। ३. भूख-प्यास वाली वस्तु। . युक्त। For Private and Personal Use Only Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उपदर्शकः २०९ उपधानाचारः उपदर्शकः (पुल) [ उप दृश-णिच एवल] १. मार्गदर्शक, | उपदेष्ट्ट (वि०) [उप+दिश्+तृच] प्रवचनकार, व्याख्याकार, निर्देशक। २. द्वारपाल, साक्षी। शिक्षणदाता, अध्ययन कराने वाला। उपदश (वि०) दश तक। उपदेहः (पुं०) [उप+दिह्+घञ्] १. विलेपन,शृंगार, प्रसाधन, उपदा (स्त्री०) [ उप+ दा अङ्] उपहार, भेंट, प्राभृत। (सुद० लेप। २. चादर, आवरण, ठक्कन। उपदोहः (पुं०) [उप+दुह+घञ्] पात्र में दूध दुहना, स्तन के उपदानं (नपुं०) [उप+दा ल्युट्] १. उपहार, प्राभृत, भेंट। २. आग्र भाग से दूध दुहना। सुरक्षा, संरक्षण, अनुग्रह, कृपा। उपद्रवः (पुं०) [उप+द्रु+अप्] १. कष्ट, संकट, बाधा, पीड़ा, उपदिश् (अक०) उपदेश करना, सिखाना, पढ़ाना, अभ्यास आपत्ति, विपत्ति। २. हानि, उत्पीड़न, राष्ट्र संकट, विद्रोह, करना, समझाना। अशान्ति। 'न जातुचिदभूल्लक्ष्यस्तत्कृतोपद्रवे पुनः' (सुद० उपदिश् (स्त्री०) मध्यम दिशा, ईशान दिशा, आग्नेय दिशा, १३५) उपद्रवकर (वि०) उत्पीड़न करने वाला, अशान्ति उत्पन्न नैऋत्य दिशा आदि। करने वाला। इत्यात्मीयमलोत्करं च भवतैकान्ते तथा उपदेवः (पुं०) कुदेव मिथ्यादेव। त्यज्यताम्' (मुनि० १३) उपदेशः (पु०) [उपदिश्+घञ्] परिषक (जयो० वृ० २/१३८) उपद्रवहर (वि०) ईतिहत, व्याधि हरण करने वाला। ईति भीति १. शिक्षण, निर्देशन, अध्ययन, ज्ञान, देशना, तत्त्वज्ञानाभ्यास, दूर करने वाला। (जयो० वृ०२/११८) संदेश। २. प्रवचनप्रतिपापन, निरूपण, प्ररूपणा। 'तत्त्वोप उपद्रावणं (नपु०) १. प्राणियों का कष्ट, पीड़ा, उत्पीड़न। २. पशकृत्साशास्त्रं कापथघट्टनम् (सम्य० ९३) 'येषांसु आधाकर्म विशेष। 'जीवस्य उपद्रवणं ओद्दावणं णाम' वाचः सहजोपदेशा:' (भक्ति० १२) 'उपदेशो मौनीन्द्र (धव० १३/४६) प्रवचनप्रतिपादनरूप:।' उपद्गुतः (पुं०) ०उपद्रव, उत्पीड़न, ०कष्ट, बाधा, हानि, उपदेशक (वि०) [उप दिश् ण्वुल्] प्रवचनकार, व्याख्याकार, उपहत। (वीरो० १/१२) 'उपद्रुतोऽशुस्तिमिरैः' (जयो० शिक्षादायी, अध्ययन कराने वाला। १५/२२) 'उपद्रत उपद्रवं गतः सन भयेऽपि संकटसमयेऽपि' उपदेशकरणं (नपुं०) प्रवचनकार। (सुद० ९२) (जयो० वृ० १५/२२) 'उपद्रुतः स्वात्स्वयमित्ययुक्तिर्यस्य उपदेशकर्ता (वि०) प्रवचनकार, व्याख्याकार। प्रभावान्निरूपद्रवा पू:।' (वीरो० १२/४७) उपदेशनं (नपुं०) शिक्षण, अध्ययन। उपधर्मः (पुं०) [उप+धृ+मन्] उपविधि, धर्म के विरुद्ध उपदेश-प्रदायक (वि०) अध्ययन कराने वाला, प्रवचनदाता। नियम, अतिचार युक्त धर्म। उपदेशभावः (पुं०) निरूपण भाव, अध्ययन भाव, ज्ञानाभ्यास उपधा (स्त्री०) [उप+धा+अङ] १. उपाय, नियम, विधि, परीक्षण। २. छल, धोका। 'पर-वञ्चनेच्छा उपधा' (जैन उपदेश-रूचिः (स्त्री०) तत्त्वश्रद्धा, उत्तम रुचि, ज्ञानरुचि। ल०२७०) ३. पीड़ा (जयो० ९/४) उपदेशविधानं (नपुं०) तत्त्वचिंतन विधि। (सुद० ९४) उपधातुः (स्त्री०) मिश्रित धातु, स्वर्ण, रजत, ०तुत्थ, उपदेश-सम्यक्त्वः (पुं०) आत्म-तत्त्व श्रद्धान के प्रति सम्यक् ०कांस, ०राति, सिंदूर और शिलाजीत। शरीरधातु-दुग्ध, श्रद्धा, पुराण पुरुषों के प्रति श्रद्धा। रज, चर्वी, श्वेद् दन्त, बाल और ओज। उपतर्प (सक०) पिलाना, देना। 'प्राणहारिणमहो स्फुरन्नयः उपधानं (नपुं०) [उप+धा+ल्युट्] तकिया, आसंदी, मसनद, कोऽत्र सर्पमुतर्पयेत् स्वयम्' (जयो० २/१०२) दीवान पर रखा जाने वाला गोल तकिया, उपधान तप उपतर्पणं (नपुं०) दान देना, अर्पण करना। 'पात्राणामुपतदर्पणं 'उपदधातीत्युपधानं तपः' (जैन० ल० २७०) टिकने का आसन, गद्देदार आसन, आराम करना। (दयो० २/१०, प्रतिदिनम्' (सुद० ४/४७) शय्येयमुर्वी गगनं वितानं, दीपो विधुर्मञ्जभुजोपधानम्। (सुद० उपदेशिनी (वि०) निकलने वाली, नि:सृत होने वाली, प्रसूत होने वाली। 'या मलापहरणोपदेशिनी' (जयो० ३/१०) ९/१) उपधानाचारः (पुं०) उपधान का आचरण, भुज रूप उपधान का 'उप समीपे देशिनी' (जयो० वृ० ३/१०) आधार, ज्ञानाचार के आठ भेदों में पंचम 'उपधानाचार' है। भावः For Private and Personal Use Only Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उपधानीयं २१० उपनीतवती उपधानीयं (नपुं०) [उप-धा अनीयर] तकिया, आराम करना। उपनयाभास: (पुं०) साध्य साधनधर्मी का दृष्टान्तधर्मी में उपसंहार। उपधारणं (नपुं०) [उप+धृणिच्+ ल्युट्] १. विचार, विमर्श, उपनागरिका (स्त्री० ) वृत्त्यानुप्रासालंकर का भेद। विशेष चिन्तन, अनुचिन्तन। २. खींचना। उपनायकः (पुं०) [उप+नी+ण्वुल] नायक का प्रमुख सहायक। उपधिः (स्त्री०) [उप+धा+कि] ०कपट परिणाम, ०अनुचित | उपनायिका (स्त्री०) नायिका की प्रमुख सखी। विचार, ०मिथ्याभाव, अन्यथा परिणाम, छल। 'उपेत्य उपनाहः (पुं०) [उए नह्+घञ्] १. गठरी, पाटली, गट्ठर। २. क्रोधादयो धीयन्तेऽस्मिन्नित्युपधिः, क्रोधाद्युत्पत्ति-निबन्धनो लेप, घाव का लेप, मल्हम। बाह्यार्थ उपधिः।' (धवा १२/२८५) 'परं समस्तोपधि- उपनाहन (नपुं०) [उप+ नह+णिच्ल्युट्] लेप करना, मालिश मुज्झिहाना' (सुद० ११५) उक्त पंक्ति में 'उपधि' का करना, उपटन लगाना। अर्थ परिग्रह है, समस्त परिग्रह का त्यागकर एकमात्र उपनिक्षेपः (पु०) [उप+नि+क्षिप्+घञ्] न्यास, धरोहर। श्वेत वस्त्र धारण किया। 'उपधाति तीर्थं उपधिः' (जैन०ल० उपनिधानं (नपु०) [उप-नि+धा+ ल्युट्] निकट रखना, धरोहर २७०) न्यास करना, जमा करना। उपधिक (वि०) [उपधि+ठन्] प्रवञ्चक, छली, कपटी, धूर्तता उपनिधिः (स्त्री०) [उप+नि धा+कि धरोहर, न्यास, वस्तु ___करने वाला, ठगने वाला। रखना, गिरवी। उपधिवाक् (नपुं०) परिग्रह के संचय युक्त वचन। 'परिग्रहार्जन- उपनिपातः (पुं०) [उप नि पत्। घन] सन्निकट जाना, समीप रक्षणादिष्वासज्यते सोपधिवाक्' (धव० १/११७) पहुंचना, आकस्मिक आक्रमण करना। उपधिविवेकः (पुं०) उपकरणादि का विवेक। 'परित्यक्तानीमानि उपनिपातिन् (वि०) [उप नि+ पत्+णिनि] आकस्मिक आगमन। ज्ञानोपकरणादीनीति वचनं वाचा उपधिविवेकः' (भ० आ० उपनिबन्धनं (नपुं०) [उप नि+बन्ध्। ल्युट्] सम्पादित करना, टी०१६०) सम्पन्न करना, बांधना, निपटाना, समाप्त करना। उपधूपित (वि०) [उप+धूप+क्त] १. धूप लिया गया, उष्णता | उपनिमन्त्रणं (नपुं०) [उप+नि+मंत्र+णिच्+ ल्युट्] निमंत्रण, युक्त! २. मरणासन्न, पीड़िता आमन्त्रण, आज्ञापत्र, प्रतिष्ठापन, उद्घाटन, विमोचन। उपधृतिः (स्त्री०) [उप+ध्मा+ ल्युट्] ओष्ठ, ओंठ। उननियमः (पुं०) उपनियम, नियम से रहने के लिए विशेष उपध्मानीयः (पुं०) [उप+ध्मा+अनीयर्] ०महाप्राण विसर्ग, नियम, आश्रम नियम। तद्गतोपनियमान् सुधारयन्' (जयो० ०प् एवं फ से पूर्व रहने वाला विसर्ग। २/११८) उपनक्षत्रं (नपुं०) गौण नक्षत्र, अप्रधान तारे। उपनिवेशः (पुं०) [उप+नि विश+घञ्] सन्निवेश, परिवेश, उपनगरं (नपुं०) नगर के छोटे विहार, छोटे-छोटे उपनगर, समीप स्थान, निकट स्थान देना। कालोनी, आवास। उपनिवेशित (वि०) [उप नि। विश्+णिच् क्त ) स्थापित, बसाया उपनत (भू० क० कृ०) १. पहुंचा, आया, प्राप्त हुआ। २. गया. स्थान दिया गया। झुका हुआ, नम्रीभूत।। उपनिषद् (स्त्री०) [उप+नि सद्-क्विप्] रहस्यात्मक विवेचन, उपनतिः (स्त्री०) [उप+ नम्+क्तिन्] १. समीप जाना, २. सिद्धान्त रहस्य का सूत्र, पवित्र ज्ञान, आत्मज्ञान की झुकना, नम्र होना, प्रयास करना। समीपता। (दयो० २४) आत्मशिक्षा का उपदेश। उपनयः (पुं०) [उप+नी+अच्] १. समीप लाना, ले जाना। २. | उपनिष्करः (पुं०) [उप निस्क +च ] राजमार्ग, प्रमुखमार्ग। उपलब्धि, संप्राप्ति। ३. उपनयन संस्कार। ४. नय की उपनिष्क्रमणं (नपुं०) [उप निस्। क्रम्+ ल्युट] १. निकलना, शाखा-प्रशाखा, हेतु का उपसंहार, हेतु के साध्यधर्मी का अभिगमन, अहिर्गमन। २. धार्मिक, अनुष्ठान रूप अहंकार। उपसंहार। 'नयानां विषयः उपनयः' (धव० ९/१८२) उपनीत (वि०) १. लाई गई, लाई जाती। १. उपनय के 'हेतोरूपसंहार उपनयः' (परीक्षामुख ३/४५) उपसंहार से युक्त, अनुमानावयव वाक्य। (जैन०ल० २७१) उपनयन (नपुं०) १. संस्कार विशेष, गुरु आज्ञापूर्वक दीक्षादान। 'उपनीत पुनर्भव्यो गुरुस्थानमिवालिभिः' (जयो० १०।८५) २. उपहार, भेंट, प्राभृत। २. जनेऊ संस्कार। ३. चश्मा, | उपनीतवती (वि०) रोमांचित होती हुई, 'उपनीतवति प्रसादमेषा' उपनेत्र। (जयो० वृ० २८/९८) (जयो० १२/१२) For Private and Personal Use Only Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उपनीतरागत्व २११ उपबन्धः करणा उपनीतरागत्व (वि०) आदरभाव से उत्पन्न रागता. श्रोताजनों ४. जन्म, जन्मान्तर प्राप्ति। 'उपपतनमुपपातो देवनारकाणाम्' में रागता। (आ०वृ० १/१३) उपनृत्यं (नपुं०) ०नृत्यशाला, नृत्यभवन, नाट्यगृह, ०नर्तन उपपातकं (नपुं०) पाप जन्य, घृणित, निन्दित, तुच्छ। स्थान। उपपादः (पुं०) [उप- पद्+णिच्+घञ्] १. जन्मान्तर, जन्म से उपनेतृ (वि०) [उपानी+तृच्] ले जाने वाला, नेतृत्व प्रदान दूसरे जन्म को प्राप्त होना, जन्मस्थान। उपेत्य पद्यतेऽस्मिन्निति करने वाला। उपपाद:' (स० सि० २/३१, त० श्लोक २/३१) उपनेत्रं (नपुं०) उपनयन, चश्मा। 'अवलोक्यते भव्युपनेत्र 'परित्यक्तपूर्वभवस्य उत्तरभवप्रथमसमये प्रवर्तनमुपपाद:' युक्त्या' (जयो० २६/९८) 'किलाशक्त्या नयनयो: (गो०जी०गा०५४३) शक्त्यभावे सत्युपनयन युक्त्याऽवलोस्यते' जिसके नेत्रों में | उपपादनं (नपुं०) [उप+ पद्+णिच् ल्युट्] १. सम्पन्न करना, स्वयं देखने की शक्ति नहीं है, वही उपनेत्र/उपनयन है। निष्पादन, २. कार्यान्वित करना, ३. देना, सौंपना। ४. उपन्यासः (पुं०) [उप नि+अस्+घञ्] १. शिक्षा, अध्ययन, प्रमाणित करना, ५. तर्क स्थापना। ६. परीक्षा, प्रमाणीकरण, विधि, नियम। २. धरोहर, न्यास, अमानत। ३. प्रस्तावना, निश्चयीकरण। ४. भूमिका. ५. विचार, पुरोवाक। ६. वक्तव्य, कथन, उपपादस्थानं (नपुं०) उत्पत्तिस्थान। (जयो०६६) प्रस्ताव। उपपापं (नपुं०) अशुभ को ओर, पाप के समीप। उपपतिः (स्त्री०) यार, प्रेमी। (जयो० १६/७३) 'पति' और उपपावः (पुं०) स्कन्ध, कंधा. पार्श्वभाग। 'उपपति' दो शब्द हैं, इनमें 'उपपति' शब्द की 'घु' संज्ञा उपपीडनं (नपुं०) [उप- पीड्+णिच्+ ल्युट्] १. पेलना, निचोड़ना, होती है। उपपति शब्द में ङित् विभक्ति पड़े रहते गुण उखाड़ना, उत्पीड़न। आलिंगन-सजोषमालिंगत-(जयो० होकर 'उपपतये' रूप बनता है तथा 'उपपति' शब्द की १२/१२७) २. पीड़ित करना, दु:खित करना, प्रताड़ित तृतीया एकवचन में ना आदेश होकर 'उपपतिना' रूप करना। ३. दु:ख, व्याधि, कष्ट, वेदना। बनता है। ऐसे उपपति शब्द के चिन्तन में मेरा मल लग उपपुरं (नपुं०) पुर का समीप भाग, नगर का सन्निकटस्थान। रहा है, पति शब्द के चिन्तन में नहीं। 'पतिरपि (जयो० ३/७१) तेनैवोपुरे सुरेण रचितं' (जयो० ३/७१) प्राणवल्लभोऽपि शस्त: प्रशंसनीयोऽस्ति उपपतिर्जार: सोऽपि उपपुराणं (नपुं०) लघु पुराण, लघु इतिवृत्त, पुरातन चरित्र अतिसखिवत्' (जयो० वृ० १६/७४) का संक्षिप्त विवेचन।। उपपत्तिः (स्त्री०) [उप पद्+क्तिन्] १. आविर्भाव, उत्पन्न, उपपुष्पिका (स्त्री०) हांकना, श्वांस लेना। जन्म, प्रसूति। २. सम्पन्न, प्राप्त करना, उपाय। उपप्रदर्शनं (नपुं०) निदर्शन, संकेत, इंतिगीकरण। 'पृथाजनामामुपपत्तिवीर्यः' (सम्य० ९२) ४. कारण, हेतु, उपप्रदानं (नपुं०) १. उपहार. भेंट, उपायन। २. अभीष्ट दान, आधार। ५. योग्यता, औचित्य, प्रदर्शन, उपसंहार। इष्टदान। 'उपप्रदानं अभिमतार्थदानम्' (जैन०ल० २७२) उपपत्तिवीर्यः (पुं०) लब्धवीर्य, परिपक्व बोध शक्ति। उपप्रलोभनं (नपुं०) उपहार, भेंट, रिश्वत, घूस, लालच, उपपदं (नपुं०) १. शब्द से पूर्व लगाया गया पद या शब्द से प्रलोभन। पूर्व बोला गया पद। २. उपाधि, अलंकरण, सम्मानसूचक उपप्रेक्षणं (नपुं०) उपेक्षा करना, अवहेलना करना। शब्द। ३. हर्षजन्य (सुद०३/८७ मुनि० २९) 'वृषभोपपदो उपप्रैषः (पुं०) आमन्त्रण, निमंत्रण, आह्वान। दासो' उपप्लवः (पुं०) [उप+प्लु+अप्] विपत्ति, दुष्कृत्य, आपदा, उपपन्न (भू० क० कृ०) [उप+पद+क्त] १. प्राप्त, समागत, ३. दुर्घटना, उत्पीड़न। ४. भय, डर, ५. अपशकुन, आगत, युक्त, सहित। २. योग्य, उचित, उपयुक्त, समीचीन। उपद्रव, ६. उपनय। उपपरीक्षणं (नपुं०) [उप+परि+ईक्ष+अङ्ग ल्युट्] अनुसंधान, उपप्लुतस्थानं (नपुं०) अशान्त स्थान। खोज, शोध। उपप्लविन् (वि०) [उपप्लव-इनि] उपद्रवी, दु:खित, पीडित, उपपात: (पुं०) [उप+ पत्+घज] १. उपद्रव, घटना, दुर्घटना, दुर्घटना युक्त, विपत्ति वाला, २. संकट, कष्ट, विपत्ति, प्रादुर्भाव। ३. उपपतन, उत्पत्ति, | उपबन्धः (पुं०) [उप+बन्ध्+घञ्] सम्बन्ध, आसक्ति, उपसर्ग। For Private and Personal Use Only Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उपबृंहणं २१२ उपमानं उपबृंहणं (नपुं०) उपगूहन, छिपाना, समीचीन गुणों की प्रशंसा, श्रद्धावर्धन, ०धर्मपरिवृद्धिकर 'उत्तमक्षमादिभावनयाऽत्मनो धर्मपरिवृद्धिकरणमुपबृंहणम्' (त० वा० ६/२४) 'आत्मनि श्रद्धास्थिरीकरणम्' (भ०मा०टी० ४५) 'परदोषनिगृहनमपि विधेयमुपबृंहणगुणार्थम्' (पुरुषार्थ सिध्युपाय)। उपबर्हः (पुं०) [उपबह+घञ्] तकिया, उपधान। उपबहु (वि०) बहुत कम, स्वल्प। उपबाहुः (पुं०) कोहनी के नीचे का भाग। उपभङ्ग (पुं०) [उप+भं+घञ्] १. पश्चगमन, २. काव्य का एक चरण, पाद। उपभा (अक०) ०शोभित होना, सुन्दर लगना। उपभाति-लसति (जयो० ३७) उपभाषा (स्त्री०) जनसाधारण की भाषा, व्यवहार की भाषा। उपभृत् (स्त्री०) [उप+भृ+क्विप्] उपभोक्तृ, भरण पात्र। उपभोक्ता (वि०) उपभोग करने वाला। (वीरो० १८/२६) (जयो० ११/३) उपभोगः (पुं०) [उप+भुं+घञ्] १. भोजन करना, आहार ग्रहण करना, खाना, भोग लगाना। २. उपयोग, प्रयोग, उपलब्धि। ३. रति इच्छा। ४. आनन्द, सुख, संतृप्ति। ५. जो वस्तु बार-बार भोगी जा सके-'उपभुज्यत इत्युपभोगः. अशनादिः, उपशब्दस्य सकृदर्थस्याद्, सकृत्, भुज्यत इत्यर्थः।' (श्रावक प्रज्ञप्ति०२६) 'इन्द्रियनिमित्त-शब्दाधुपलब्धि रूपभोगः' (त० वा० २/४४) उपभोगकालः (पु) विषयों का भोग समय। 'एकान्ततोऽसावुपभोगकाल:' (सुद० १२०) उपभोग-परिभोगपरिमाणवतं (नपुं०) उपभोग और परिभोग की वस्तुओं का परिमाण करना। (त० वा० ७/२१) 'उपेत्य भुज्यते इत्युपभोगः' परित्यज्य भुज्यत इति परिभोगः' उपभोगश्च परिभोगश्च उपभोग-परिभोगो, उपभोगपरिभोगयोः परिमाणं: उपभोग परिभोग परिमाणम्' (त० वा० ७/२१, ९/१०) 'परिमाणं तयोर्यत्र यथाशक्ति यथायथम्' (हरिवंश पुराण ५८/१५५) उपभोग-परिभोगव्रतं (नपुं०) उपभोग और परिभोग सम्बंधी वस्तुओं का प्रमाण करना। उपभोग-परिभोगानर्थक्यः (वि०) उपभोग और परिभोग के व्यर्थ संग्रहण। 'न विद्यतेऽर्थः प्रयोजनं ययोस्तो अनर्थको. अनर्थकयोर्भाव: कर्म वा आनर्थक्यम्' उपभोगपरिभोगद्योरानर्थक्यम्' (त०७० ७/३२) उपभोगपात्री (वि०) अनुभवन योग्य। (जयो० १७/५) उपभोगाधिकत्व (वि०) उपभोग-परिभोग की वस्तुओं का निष्प्रयोजन संग्रह। उपभोगान्तरायः (पुं०) उपभोग सामग्री में विघ्न/बाधा उपभोगविग्घयरं उपभोगतराइयं' (धव० १५/१४) उपभोग्यः (पुं०) उपभोग के योग्य। 'केन सन्मणिरसावपभोग्य:।' (जयो० ४/४३) उपभुज्य (सं०कृ०) उपभोगकर. भोजनकर। 'सदन्नमातृप्ति तथोपभुज्य' (सुद० १३०) उपमन्त्रणं (नपुं०) [उप मन्त्र ल्युट्] आमंत्रण, आह्वान, बुलाना। उपमर्दः (पुं०) १. लेप, मालिश, घर्षण, २. आघात, विनाश, नाश, हानि। ३. रतिसुख।। उपमर्दनं (नपुं०) उत्पीडन, आलिंगन। उपमत्व (वि०) प्रशंसत्व (जयो० वृ० ३/६२) (जयो० वृ० १२/१२७) उपमा (स्त्री०) [उप+मा+अङ्ग+टाप्] समानता, सादृश्यता, एकरूपता, तुलना समरूपता। 'यदिव कोकरुतेन दिनश्रियः समदुयः कृतनक्तलयक्रियः' (जयो० ९/२०) २. प्रशंसा (जयो० वृ० ३/६२) 'प्रयोगार्थं सुन्दर्युपमा यस्य' ३. तुल्यस्वभावः -'सुंदरं-तुल्यस्वभावेन सुन्दरेणोपमीयत' (जयो० वृ०३/४०) अङ्गान्यनङ्गरम्याणि क्वास्य यान्तृपमा ततः।' (जयो० ३/४०) ४. उपमालङ्कार- उपमानेन सादृश्यमुपमेयस्य यत्र सा। प्रत्ययाव्यय - तुल्यार्थ-समासैरूपमा मता।। ( वागभटालङ्कार ४/५०) जहां 'वति', इव. तुल्य आदि अव्यय तथा कर्मधारय समास के प्रयोग से अप्रस्तुत (उपमान) के साथ प्रस्तुत (उपमेय) में सादृश्य दिखाया जाता है वहां उपमालङ्कार होता है-यह पूर्णोपमा, लुप्तोपमा के भेद से दो प्रकार भी है। अथासौ चन्द्रलेखन, जगदाह्लाद कारिणी। नित्यनूत्नां श्रियं भाति विभ्राणा स्मरसारिणी।। (जयो० ३/४१) (जयो० ८/३८, ७/१०३, १०४, सुद० २८) उपमीयते-उपमा की जाती है। (जयो० ३/४१) उपमातृ (स्त्री०) धाई मा, दूसरी मां, निकटवर्ती स्त्री। उपमानं (नपुं०) [उप+मान ल्युट्] १. समरूपता, सादृश्यता, तुलना, एकरूपता। २. समानता का पक्ष, यथार्थ ज्ञान का आभासक। प्रसिद्ध अर्थ की समानता। ३. साध्य धर्म से साधन की सिद्धि। 'उपमानं प्रसिद्धार्थ-साधात्साध्यसाधनम्' (न्यायविनिश्चिक-३/८५) 'उपमीयतेऽनेन दार्टान्तिकोऽर्थ सास्नारहित: इत्यपमानम्' (जैन०ल० २७४) For Private and Personal Use Only Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उपमानुप्रासालंकारः २१३ उपयोगशुद्धिः उपमानुप्रासालंकारः (पुं०) उपमा और अनुप्रास अलंकार | उपयाचित (वि०) [उप+याच्+क्त] प्रार्थित, निवेदक, प्रार्थना (जयो० २८/८०) करने वाला, अभीष्ट सिद्धि का इच्छुक। उपमा संविलितोऽर्थान्तरन्यासः (पुं०) उपमा से युक्त अर्थान्तर । उपयाचितक (वि०) निवेदन करने वाला, निवेदक, याचका न्यास 'संश्रयेत् कथमैकं साऽवस्थातुं स्थानभूषणा' निराश्रया उपयाजः (पुं०) [उप+यज्+घञ्] यज्ञ शब्द, यज्ञमंत्र, यज्ञतन्त्र। न शोभन्ते वनिता हि लता इव। अर्थात् जिसका अनुकूल उपवानं (नपुं०) [उप+या+ल्युट्] पहुंचना, समीप जाना, पति भूषण है वह सुलोचना अपने आश्रय रूप में किस निकटस्थ होना। अद्वितीय पति का सहारा ले? कारण स्त्रिया लताओं की उपयुक्त ( भू० क० कृ०) १. उचित, योग्य, सही, समीचीन. तरह आश्रय विहीन होकर कभी सुशोभित नहीं हुआ श्रेष्ठ, उत्तम। उपयोगी (जयो० २/४४) 'कमेक-उपयुक्तपति करती है। 'वनिता हि लता इव' में उपमा के साथ अन्य संश्रयेत्' (जयो० वृ० ३/६५) अर्थ भी है। उपयुक्तकारिन् (वि०) विचारशील वाला, उचित कार्य करने उपमाश्लेष: (पं०) उपमालङ्कार और श्लेष दोनों ही एक साथ। वाला। (जयो० वृ० १२/१७) इक्षप्टिरिवैपाऽस्ति प्रतिपर्वरसोदया। उपयुक्तपतिः (पुं) उत्तमपति, मनोनुकूल पति। (जयो० वृ० ३/६५) अङ्गान्यनगरम्याणि क्वास्या यान्तूपमां ततः।। (जयो० उपयुक्तिन् (वि०) ०मनोनुकूल, समीचीनता से युक्त। (सुद० ३/४०) २/४२) कः सौम्यमूर्तिति जयेति सूक्ती शुक्ती शुभे उपमिति (स्त्री०) [उप+मा+क्तिन्] सादृश्यता, समानता, त्वत्कवलोपयुक्ती (जयो० ५/१०२) एकरूपता, तुल्यता। उपमान के द्वारा निगमित उपसंहार उपयोक्त्री (वि०) उपयोग वाली, स्थित होने वाली। 'ऋषयोऽस्मि उपमालङ्कार। शयोभयोपयोक्त्री' (जयो० १२/३) उपमेय (सं०कृ०) [उप+मा+यत्] समानता करने योग्य, उपयुज् (सक०) १. सुनना. श्रवण करना। २. बोलना, कहना। सादृश्यता योग्य, तुल्यता योग्य, तुलनीय। सुकृतैकपयोरशेराशेव सत्यमेवोपयुज्जाना सन्तोषामृतधारिणी। (सुद० ४/३३) सुरसा तया। पदयोऽपि चेज्जितः पद्भ्यां पल्लवे पत्रता उपयुज्य (सं०१०) सुनकर, श्रवणकर। 'एतदुक्तमुपयुज्य तदाथ' कुतः। (जयो० ३/४४) इसमें सुलोचना उपमेय है, वह (जयो० ४/४१) सुरसा है इसलिए पुण्य रूप समुद्र की वेला की तरह | उपयोगः (पुं०) [उप+युज्+घञ्] १. सेवन करना, प्रयोग सुन्दर है। उपमान समुद्र है। करना, काम लेना। २. सम्पर्क, ३. आसन्नता, ४. उपयन् (भूतकालिक प्रयोग) होना, प्राप्त होना। 'सोऽव्येवं संयोग-(सुद० १०२) 'यतो यत्रोपयोगस्तत्रैव दातव्यम्' वचनेन कम्पमुपयन्' (सुद० ७/६७) (जयो० १२/१७) 'किन्तुउपयोगो नहि शुद्ध एव (सम्य० उपन्यतृ (पुं०) [उप+यम्। तृच] पति। १०९) 'उपयोगस्तथाशुद्धः स तत्रैवास्तु वस्तुत:।' (सम्य० उपयन्त्र (नपुं०) छोटा यन्त्र, उपकरण। १४२) ५. परिणाम विशेष, भावविशेषः, आत्मपरिणाम। उपयमः (पुं०) [उप-यम्+अप] विवाह, पाणिग्रहण। रूपादि६. विषयग्रहण-व्यापार। ७. आत्मा का चैतन्यानुवर्ती उपयमनं (नपुं०) [उप+यम् ल्युट्] १. पाणिग्रहण, विवाह। २. परिणाम। 'प्रतीत्योत्पद्यमान: आत्मनः परिणाम उपयोगः। प्रतिबन्ध, रोक, अनुशासन। (धव० १/२३६) 'युज्यन्त इति योगाः, योजनानि वा जीव उपया (अक०) प्राप्त होना, हो जाना, उपलब्ध होना। 'यो व्यापार रूपाणि योगा अभिधीयन्ते' उपयुज्यन्त इति उपयोगाः मदित्वमुपयाति स धन्यो नास्ति' (जयो०२/१२९) 'भूत्वा जीव-विज्ञानरूपाः' (पं०सं०१/३) सन्तापमुपयान्त्यमी' (सुद० पृ० १२७) 'मांसमुपयन्मृत्यु उपयोग-भेदः (पुं०) उपयोग के भेद 'उवओगो णाण-दसणं समापद्यते' (सुद० १२७) भणिदो। (प्रव०सं०२/६२) उपयाचक (वि०) [उप+याच्+ण्वुल] प्रार्थी, भिक्षुक, आशार्थी, उपयोग-वर्गणा (स्त्री०) उपयोग/सम्प्रयोग का विकल्प, उपयोग याचक, मांगने वाला। के स्थान। उपयाचनं (नपुं०) [उप+ याच्+ ल्युट्] निवेदन, प्रतिवेदन, प्रार्थना, | उपयोगशुद्धिः (स्त्री०) चित्त की सावधानी। 'प्राणिपरिहरणमांगना। प्रणिधान-परायणत्वम्' (भ० आ० टी० ११९) For Private and Personal Use Only Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उपयोगिन् २१४ उपल उपयोगिन् (वि०) [उप+युज्+षिनुण] १. योग्य, उचित, समीचीन, | उपरि (अव्य०) [उर्ध्व+रिल, उप आदेश:] पृथक रूप से २. कार्ययोग्य, ०करने योग्य, तथ्यपूर्ण, सेवार्थ, 'समं होने वाला अव्यय। जिसके कई अर्थ हैं-ऊपर, पर, समन्तादुपयोगि' (सम्य० पृ० ४) ३. मनोविचारी, 'पदयो: अधिक, बहुत की ओर ओर आदि। (सम्य० पृ० ४०) सदयोपयोगिनः' (जयो० २६/३७) 'प्रसादोपरि-सुप्तमवेहि तम्' (सुद० ७८) 'अंता भोगभृगुपरि उपयोगिनी (वि०) उपयोग करने वाली, उपयोगी, उचित, तु योगो' (सुद० १०५) 'अन्तरंग में भोग भोगने की प्रबल समीचीनता युक्त। न त्रिवर्गविषये नियोगिनी नापवर्गपथि लालसा' उक्त पंक्ति में 'उपरि' का अर्थ 'प्रबल' भी है। चोपयोगिनी। (जयो० २।८८) उपरिकर (नपुं०) ऊपर की ओर हाथ। उपयोजनं (नपुं०) स्वीकरण, इष्ट प्रयोजन। 'लसन्ति उपरिगेहं (नपुं०) ऊपर का गृह, उन्नत गृह। सन्तोऽप्युपयोजनाय' (वीरो० १/११) 'उपयोजनाय उपरिचर (वि०) ऊपर की ओर विचरण करने वाला। स्वीकरणाय' (वीरो० वृ० १/११) उपरिजात (वि०) उच्च जन्म वाला। उपरक्त (भू० क० कृ०) [उप+रञ्ज+क्त] कष्टजन्य, दुःख उपरितनं (नपुं०) ऊपरी भाग। युक्त, पीड़ित, संकट से घिरा हुआ, भयग्रस्थ। उपरिदंतं (नपुं०) ऊपरी दांत। उपरक्षः (पुं०) [उप+र+अच्] अंगरक्षण, सुरक्षाकर्मी, संरक्षक। उपरिभागः (पुं०) ऊपरी अंग, ऊपरी भाग। उपरक्षणं (नपुं०) [उपरिक्ष ल्युट्] १. निक्षेपण, रखना- उपरिभू (पुं०) उच्च भूमि। 'आदानेऽप्युपरक्षणेऽपि कुरूताद् ग्रन्थादिकानां तथा।' (मुनिक उपरिभूमि देखो ऊपर। १२) २. संरक्षक, अंग रक्षण. रक्षा करने वाला। 'उपरक्षकस्तु उपरिप्रतिष्ठ (वि०) ऊपर स्थित, ऊपर प्रतिष्ठित। प्रवासिनं बहुधनं' (दयो० पृ० ८९) ३. सुरक्षाकर्मी, चौकीदार, 'द्वीपान्तराणामुपरिप्रतिष्ठः' (वीरो० २४१) पहरेदार। उपरिष्ठात् (अव्य०) ऊपर, उर्ध्व पर, ऊँचे भाग पर। 'वाता उपरत [भू० क. कृ० ] निवृत्त, विरक्त, रहित, अभाव। इवासङ्गतयोपरिष्ठात्' (भक्ति० १६) उपरिष्टात्-शिखरतः। 'कुम्भकृत्युपरते क्व वाः स्थितिः' (जयो० २/९८) २. (जयो० वृ० १/९३) 'चर्मावृतं वस्तुतयोपरिष्टादन्तः' (सुद० उदासीन, आसक्ति से रहित। पृ० १२०) उपरत-कर्मन् (नपुं०) कर्म से रहित। उपरिस्थ (वि०) ऊपर स्थित, ऊपर प्रतिष्ठित। 'उपरिस्थं खलु उपरत-लोकः (पुं०) संसार से विरक्त। भाविन : प्रमाणे' (जयो० १२/५८) उपरत-स्नेहः (पुं०) आसक्ति से शून्य, प्रेमविहीन। उपरोधः (पुं०) १. रोक, निरोध, विराम, रुकावट। 'किन्नु उपरत-हास्य (वि०) हास्य से विहीन। परोपरोधकरणेन कर्त्तव्या' (सुद० ९२) आच्छादन। २. उपरतिः (स्त्री०) [उप+रम्+क्तिन्] १. विरक्ति, निवृत्ति | आश्रय, आधार, सहायक। निरोग। २. विषयासक्ति से रहित। उपरोधकं (नपुं०) १. निरोधक, आच्छादक। २. आधारभूत, उपरत्नं (नपुं०) तुच्छ रत्न, अशुद्ध रत्न। आश्रय। उपरमः (पुं०) [उप+रम् घञ्] विरक्त, निवृत्त, उदासीन, उपरोधक (वि०) रोकने वाला, निरोध करने वाला। त्याग परिवर्जन। उपरोप (पुं०) धारण, रोपना। उपरमणं (नपुं०) [उप+रम् ल्युट्] १. विरक्ति, निवृत्ति, । उपरोपिणी (वि०) प्रवर्तिनी। (जयो० २/१२६) उसीनता, २. त्याग, विसर्जन, ३. अभाव, ४. रति उपरोपित (भू० क० कृ०) परिधारित, (जयो० १५/७६) रहित, आसक्ति से विरत। उपर्युपात्त (वि०) ऊपर से प्रभावान्। (सुद० १०१) उपरसः (पुं०) अशुद्ध रस, अशुद्ध धातु खनिज की अशुद्धता। उपर्युपरि (अव्य०) ऊपर-ऊपर, ऊँचे-ऊँचे, उर्ध्व उर्ध्व, पास। उपरागः (पुं०) [उप+र+घञ्] १. लालिमा, लाल रंग, उपर्यथो (अव्य०) ऊपर से। (वीरो० ९/२४) 'उपर्यथो प्रबालता। २. कष्ट, दुःख, संकट। ३. घृणा, निन्दा. तूलकुथोऽनपायिनः' दुर्व्यवहार दुर्वचन। उपल (पुं०) १. पाषाण, प्रस्तर, पत्थर। (दया० वृ०६०) २. उपराजः (पुं०) उपशासक, उपराज प्रतिनिधि। रत्न विशेष। For Private and Personal Use Only Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उपलपनं २१५ उपशान्त: उपलपनं (नपुं०) स्मरण, याद। (जयो० ४/६५) उपवासक्रिया (स्त्री०) उपवास विधि। उपलब्ध: (पुं०) प्राप्त, गृहीत, ग्रहण। 'कलितामुपलब्धाम्' उपवासचिन्ता (स्त्री०) उपवास के प्रति चिंतन। (जयो० वृ० ४/५६) उपवासविधिः (स्त्री०) उपवास क्रिया। मनोऽक्षनिग्रहं कर्तुमुपउपलब्ध-पाशी (वि०) पाश लिए हुए, पाशधारी भव॑श्च वास-विधायिनः। त्यक्त्वाऽखिलं गृहारम्भमेकास्ते स्थीयताभूयादुपलब्ध-पाशी। (वीरो० १४/२२) मिति।। (हित० सृ० ५९) अवश्यमेव सप्ताहादुपवासो उपलब्धरोक (वि०) १. प्राप्त का निरोध। विधीयताम्।' (हित० सं०६०) उपलब्धरोकः (पुं०) पहरेदार, द्वारपाल। निष्काशितोऽतः | उपवासिन् (वि०) लंघनमयी, अनशनकारी। (जयो० १६/१८) प्रविताड्यलोकेर्विक्षिप्त एवेत्युपलब्धरोकैः। (समु०३/३२) उपविश् (अक०) प्रविष्ट होना, घुसना। (जयो० ६/५५) उपलब्धिः (स्त्री०) १. प्राप्ति, २. बुद्धि, ज्ञान। उपविष्ट (वि०) अवस्थित, स्थित, उपस्थित, प्रवेशित, रहने उपलभ् (सक०) प्राप्त करना, ग्रहण करना। (दयो० ८) वाला। (समु० ९/१४) 'सा गोचराधारतयोपविष्टा' (सुद० 'नैष्प्रतीच्छयमिति चोपलभ्यताम्' (जयो० २/७४) १/२१) 'सत्परिखोपविष्टम्' (सुद० १/२५) 'उपलभ्यतां प्राप्यतामित्यर्थः' (जयो० वृ० ७/७४) उपवीतं (नपुं०) जनेऊ, यज्ञोपवीत। उपलम्भः (पुं०) प्राप्त, निरूपित। 'य: स्वरूपोपलम्भः स्यात्' उपवेग (पुं०) प्रवाह, धारा। (सम्य० ११५) उपवेश (सक०) बिठाना, स्थित करना, आश्रय देना। उपलस्वभावा (वि०) हीरकादि रूप सरस्वती। (जयो० १९/३४) उपवेशयति-जयो० वृ० १३/७३) उपलालिका (स्त्री०) घास, ग्रास, तृण। उपव्रज् (सक०) लेना, ग्रहण करना। (समु० २/३०) उपलालित (वि०) ०तरलित, उमड़ पड़ा, (सुद० ३/२३) उपशम् (सक०) उपशान्त होना, रोकना, निरोध करना, निग्रह ० उपायों से लक्षित (जयो० वृ१/६) तरंगित्, उद्वेलित। करना। (जयो ० ९/६६) पालित (वीरो० १/६१) तस्योपयोगतो वाञ्छा मोदकस्योपशाम्यति।' (सुद० १२६) 'हृदयसिन्धुरभूदुपलालित इति' उपशमः (पुं०) १. उदय अभाव, उपशान्ति, अनुदय-'आत्मनि उपलिस् (सक०) लिखना, आधार से अंकित करना। 'परस्य कर्मणः स्वशक्तेः कारणवशादनुभूतिरूपशमः।' (स० सि० करेण उपलिखतीति' (जयो० २/१३) २/१) आधाराधना सार पृ० १२१ 'उदयअभावो उपसमो' उपलेखः (फु) आश्रित लेख, आधार युक्त, अंकन, प्रतिलिपि. प्रतिलेख। (जैन ल०२७६) २. नाश, विनाश, निरोध। ३. मोहकर्म उपलेखकः (पुं०) १. प्रतिलिपिकार। २. परकर गृहीत लेखक। का ह्रास। ४. आराम, स्वस्थ, उचित 'सम्यक्त्वमस्तूपशमाच्च 'बालकः परकोपलेखकः।' (जयो० २/१३) 'अपरपुरुषस्य नाशात्' (सम्य० ५९) साहाय्येन लिखति।' (जयो० वृ०२/१३) उपशमक (वि०) उपशम करने वाला, अपूर्वकरण, अनिवृत्तिउपलेपः (पुं०) लेप पर लेप, प्लास्टर लगाना, एक आवरण करण और सूक्ष्मसाम्पराय ये तीन गुणास्थानवी जीव पर दूसरा आवरण लगाना। उपशमक हैं। (त० वा० ९/१) उपलोचनं (नपुं०) चश्मा, नेत्राभूषण। उपशमकश्रेणी (स्त्री०) उपशान्त पर आरोहण। उपवनं (नपुं०) आराम, बगीचा, उद्यान। (सुद० ४/१) 'या उपशमचरणं (नपुं०) चारित्रमोहनीय के उपशम से उत्पन्न किलोपवन-रक्षणतातिर्मालि' (जयो० ४/४२) चरित्र। उपवनप्रधान: (पुं०) प्रसिद्ध आराम, मुख्य बगीचा, प्रसिद्ध उपशम-सम्यक्त्वं (नपुं०) उपशम से उत्पन्न होने वाला, उद्यान। (जयो० १/८०) 'अङ्गीचकारोपवनप्रधानः' तत्त्वार्थश्रद्धान को प्राप्त। उपवर्हः (पुं०) उपधान, तकिया। उपशम-सम्यग्दृष्टिः (स्त्री०) कषाय और दर्शनमोहनीय के उपवासः (पुं०) अनशनव्रत, बाह्यव्रत में प्रथम व्रत, आहार उपशम से उपशमसम्यग्दृष्टि होता है। 'समीची दृष्टिः का परित्याग। 'उपवास: उपवसनम्' 'उक्तं पर्वोपवासाय' श्रद्धा यस्यासौ सम्यग्दृष्टिः। (धव० १/७१) (सुद०९६) 'उपेत्यात्मा न वसन्ति इन्द्रियाणि यस्मिन् स उपशयः (पुं०) निदान, निराकरण। उपवास:' (हित सम्पादक पृ० ५९) उपशान्तः (पुं०) रोकना, उपशम करना, अनुदय। For Private and Personal Use Only Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उपशान्त-कषायः २१६ उपसर्या उपशान्त-कषायः (पुं०) मोहकर्म का उपशम, ग्यारहवें गुणस्थानवर्ती जीव। उपशान्तकषायः क्षीणकषाश्यच। (त० वा० ९/१) सर्वस्य मोहस्य उपशमात् क्षणाच्च 'क्षयोपशान्तिर्यत प्राप्य तादृक्।' (सम्य० ४२, ७३) उपशान्त-मोहः (पुं०) मोह का उपशमन। उपशान्ति (स्त्री०) उपशम, शमन, क्षीण, दबना। उपशामं (नपुं०) उपशम, शान्त, सम्यग्दृष्टि। 'सम्यक्त्वमेतत् प्रथमोपशामम्। (सम्य० ५४) उपशामना (स्त्री०) उपशान्त स्वरूप में स्थित रहना! (धव० ८५६) उपशायः (पुं०) पहरेदार का क्रमबद्धना से शयन। उपश्लोकित (वि०) प्रशंसा योग्य। (दयो० ११०) उपश्लिष्ट (वि०) छूते हुए, स्पर्शित। 'विटपैरूपश्लिष्टपयोधराम' (जयो० ३/११३) उपश्रुतिः (स्त्री०) स्वीकार, प्रतिज्ञा, प्रण, अंगीकार। उपसंक्रमः (पुं०) ० प्रकम्प, ०कम्पन। 'क: सदोष उपसंक्रमोऽनयः' (जयो० २/६०) उपसंग्रह (पुं०) चरणवंदन, चरण स्पर्श। उपसंख्यानकं (नपुं०) उत्तरीय वस्त्र, दुपट्टा, धोती, चादर। (जयो० २१/६४) उपसंयोगः (पुं०) [उपासम्+युज्+घञ्] यमन, बंधन, बांधना। दमन करना। उपसंरोहः (पुं०) [उप सम्+रुह्+घञ्] ऊपर उगना, ऊपर लगना, लटकना। उपसंवादः (पुं०) [उप+सम्+वद्+घञ्] वार्तालाप, बातचीत, करार, संवाद। उपसंह (सक०) त्यागना, छोड़ना। (सुद० ९६) उपसंहृत्य (सं०कृ०) त्यागकर, छोड़कर। 'उपसंहृत्य च करणग्रामम्' (सुद० ९६) उपसंहरणं (नपुं०) [उप+सम्+ह+ ल्युट्] रोकना, निरोध। उपसंहारः (पुं०) सम्मेलन, मिलन, 'सहसा दयितोपसङ्गतात्' (जयो० १०/६०) उपसत्तिः (स्त्री०) १. सेवा, सुश्रूषा, २. दान, ३. मिलन। उपसद (त्रि.लि.) समीप, निकट, पास। उपसदः (पुं०) दान। उपसदनं (नपुं०) १. समीपवर्ती स्थान, पड़ौस। २. निकट जाना. गुरु के समीप स्थित होना. शिष्य बनाना। ३. सेवा, वैयावृत्य। उपसंतान: (पुं०) [उप+सम्+तनु+घञ्] संतति, परम्परा, संयोग। उपसंन्यासः (पुं०) [उप+सम वि-अक्ष+घञ्] डाल देना. छोड़ना, त्यागना। उपसमाधानं (नपुं०) [उप+सम्+आ+धा। ल्युट] एकत्र करना, संग्रह करना, ढेर लगाना। उपसंपत्तिः (स्त्री०) [उप+सम्+पद+क्तिन्] पहुंचना, जाना, समीप जाना, निकटस्थ होना, प्रविष्ट होना। (सुद० १२६) उपसम्पदः (पुं०) प्रविष्ट होना, पहुंचना। (समु० ४/२७) उपसंभाषः (नपुं०) [उप+सम्भाष्+घञ्] वार्तालाप, चर्चा, अनुरोध. विचार। उपसम्मतिः (स्त्री०) आज्ञा आदेशा (जयो० १५८) उपसरः (पु०) [उप+सृ+अप्] अभिगमन, उन्मुख, अनुचरण। उपसरणं (नपुं०) [उप+सृ+ल्युट्] अभिगमन, अनुसरण, . सरणयुक्त होना। उपसर्गः (पुं०) [उप+सृज्+घञ्] १. धातु के पूर्व लगने वाले, उपपद, वि, प्र. पर, अनु आदि। (जयो० १९/९३) व्याकरणनिर्दिष्टानुपसर्गान् धातूपपदानजानानोऽननकुर्वाणोऽपि' (जयो० १९/९३) २. उपद्रव, संकट, कष्ट, बाधा, हानि, आघात, व्याघात, प्रहार। (सुद० १३३) 'उपसर्गानुपद्रव'- (जयो० वृ० १९/९३) 'उपसर्गमुपारब्धवती कुर्तमिहासती' (सुद० १३३) ३. परीषह-क्षुधा, पिपासा, शीत, उष्ण, दंशमशक, नाग्न, अरति, स्त्रीचर्या, निषद्या, शय्या, आक्रोश, वध, याञ्चना, अलाभ, रोग, तृणस्पर्श, मल, सत्कार, पुरस्कार, प्रज्ञा, अज्ञान, अदर्शन आदि। उपसर्गपदं (नपुं०) प्र, परा, अनु, अव, निस्, निर्, दुस्, दुर, वि-आङ, नि, अधि, अपि उत् आदि उपसर्गपद। यथा धातुगतोऽर्थो वाच्यादि (वीरो० ४/२७) 'स उपसर्गपदेन प्रादिना प्रव्यक्ततामाप्नोति' (जयो० वृ० १६/४२) उपसर्गहृत् (वि०) उपसर्ग को हरण करने वाला। ओं सव्वोसहिपत्ताणं णमो स्यादुपसर्गहत्। (जयो० १९/७८) उपसर्जनं (नपुं०) [उप+ सृज् + ल्युट्] १. ग्रहण लगना, दोष लगना, दोषारोपण, २. वस्तु का स्वरूप नष्ट होना, समाप्त होना। ३. बाधा उपस्थित होना। उपसर्पः (पुं०) [उप सृप+घञ्] निकट/समीप जाना, पहुंचना। उपसर्पणं (नपुं०) [उप+सृप ल्युट] निकट जाना, समीप जाना, प्रत्यागमन, अग्रसरण। उपसर्या (स्त्री०) [उप सृ+ यत्। टाप्] गर्भजन्या, सांड के उपयुक्त गाय ऋजुमती गाय। For Private and Personal Use Only Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उपसाद्रं २१७ उपहरणं उपसाद्रं (नपुं० ) गृहोद्यान। (वीरो० ५/३७) उपसुन्दः (पु.) एक राक्षस, निकुम्भ का पुत्र। उपसुप्त (वि०) [उप+सुप्+क्त] सोया हुआ। 'सुखोपसुप्ता निशि पश्चिमायाम' उपसूर्यकं (नपु०) [उप. सूर्य कन्] सूर्यमण्डल, सूर्यपरिवेश। उपमृष्ट (भू० क० कृ०) [उप सृज्+क्त] १. संयुक्त, सम्मिश्रित, संयोग, मिश्रित किया। २. कष्टग्रस्त, अभिभूत, तिरस्कृत, क्षतिग्रस्त। ३. उपद्रव युक्त, उपसर्ग सहित। उपसृष्टः (पुं०) ग्रहण युक्त सूर्य या चन्द्र। उपसेकः (पुं०) [उप+सिच्+घञ्] सींचना, अभिषेक करना, सिंचन करना, छिड़कना, भींगना! उपसेचनं (नपुं०) अभिसिंचन, छिड़कना, भीगना। उपसेवनं (नपुं०) [उप+से+ल्युट्] १. उपासना, आराधना, सम्मान, पूजा, सेवा। २. आसिक्त होना, लिप्त होना। ३. उपयोग करना, काम लेना। उपस्करः (पुं०) [उप+कृ-अप्+ सुट्] १. अवयव, संघटक। २. सामान, वस्तु, उपकरण, (जयो० २२/३६) उपबन्ध, आवश्यक वस्तु। ३. अलंकरण, आभूषण।। उपस्करणं (नपुं०) [उप+कृ+ ल्युट्] १. अवयव संचय, संग्रह। २. वध करना, क्षत-विक्षत करना। ३. परिवर्तन, सुधार। उपस्कारः (पु०) [उप+कृ+घञ्] १. परिशिष्ट, अध्याहार। २ सुशोभित करना, अलंकृत करना, रमणीय बनाना। ३. अलंकरण, आभूषण। ४. आघात, प्रहार। उपस्कृत (भू० क० कृ०) [उप+कृ.क्त] १. तैयार किया हुआ, बनाया गया, निर्मित किया। २. संचित, संग्रहीत। ३. अलंकृत, विभूषित। ४. आभूषण, अलंकरण, ५. अध्याहत परिमार्जित। उपस्कृतिः (स्त्री०) [उप+कृ+क्तिन्] परिशिष्ट, अध्याहार, समावेश। उपस्तम्भः (पुं०) [उप+स्तम्भ+घञ्] १. आश्रय, आधार, सहायक प्रयोजन। २. प्रोत्साहन. अग्रणीकरण। उपस्तरणं (नपुं०) [उप+स्तृ+ ल्युट्] १. संक्तरण, बिछाना, फैलाना। २. चादर, बिस्तर। उपस्त्री (स्त्री०) विवाहित के अतिरिक्त रखी गई स्त्री, रखैल। उपस्थ: (पुं०) [उप+स्था क] १. अंक, गोद। २. मध्यभाग, पेडू। २. जननेन्द्रिय, योनि, कामेन्द्रिय (मुनि.३०) ४. गुदा। ५. कूल्हा। उप-स्था (अक०) उपस्थित होना, सम्मुख आना। 'उपतिष्ठामि द्वारि पश्य।' (सुद० ९४) उपतिष्ठतं (जयो० २।८) उपस्थानं (नपुं०) [उप+स्था ल्युट्] ०आराधना, पूजा, देवालय, मन्दिर। उपस्थापनं (नपुं०) [उप+स्था णिच्+ ल्युट्] १. पहुंचना, आना. दर्शन देना। २. पूजन, अर्चन, प्रार्थना, आराधना, उपासना। ३. प्रणम्यभाव, नमस्करण, प्रणाम, नमन। ४. स्मरण, स्मृति। ५. उपस्थिति, समीप्यता। उपस्थापय (अक०) उपस्थित होना, सन्निकट पहुंचना, दर्शन देना। उपस्थापयति (दयो०६०) उपस्थापित (भू० क० कृ०) [उप+स्था+णिच्+क्त] उपस्थित हुआ, सन्निकट पहुंचा। उपस्थायकः (पुं०) [उप-स्था+ण्वुल] सेवक, नौकर। उपस्थित (भू० क० कृ०) [उप+स्था+क्त] ०सन्निविष्ट, जात, सम्मुख आया। (जयो० वृ० ५/१७) (दयो० ५६) पुलिने चलनेन केवलं वलितग्रीवमुपस्थितो वक:।' (जयो० १३/६३) 'उपस्थितः सन्निष्टो बकः' (जयो० वृ० १३/६३) उपस्थितिः (स्त्री०) [उप+स्था+क्तिन्] १. विद्यमानता, समागमन, ०अवाप्ति प्राप्ति, रहना, निवास करना। (जयो० २/५७) २. स्मरण, ०स्मृति, प्रत्यास्मरण। ३. सेवा, परिचर्या। ४. सन्निकट जाना,०पहुंचना, ० उपस्थित रहना, सम्मुख होना। उपस्नेहः (पुं०) [उप+स्निह+घञ] आर्द्र होना, गीला होना. सरलता प्रकट करना। उपस्पर्शः (पुं०) [उप+स्पृश्+घञ्] १. सम्पर्क, साथ होना। २. स्पर्श करना, छूना, आलिंगन करना। ३. मार्जन करना, आचमन करना, कुल्ला करना। ४. प्रक्षालन, स्नान,संक्षालन। उपस्मृतिः (स्त्री०) स्मृति से लघु शास्त्र, लघु स्मृतिग्रन्थ/सिद्धान्त ग्रन्थ, संक्षिप्त आत्म-विशेषणात्मक ग्रन्थ। उपस्रवणं (नपुं०) [उप+ + ल्युट्] मासिकस्राव। उपस्वत्वं (नपुं०) राजस्व, भू-सम्पदा से प्राप्त सम्पत्ति। उपस्वेदः (पुं०) [उप+स्विद्+घञ्] पसीना, शरीर। उपहत (भू० क० कृ०) [उप+ हन्+क्त] १. व्यापन्न, पीड़ित, चोट ग्रस्थ हुआ, घायल, आघात युक्त। (जयो० १८/३०) २. आबद्ध, पराभूत, अभिभूत, घिरा हुआ। ३. उपेक्षित, निन्दनीय, प्रदूषित, अपवित्रता युक्त, कलुषित। उपहतक (वि०) [उपहत+कन्] भाग्यहीन, दुर्भाग्यशाली, हीन। उपहतिः (स्त्री०) [उप+हन्+क्तिन्] आघात, प्रहार, वध, हत्या। उपहरणं (नपुं०) [उप+ह+ ल्युट्] १. ग्रहण करना, लेना. For Private and Personal Use Only Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उपहस् २१८ उपात्तप्रतिपत्तिः पकड़ना, दबोचना। २. निकट आना। ३. बांटना, वितरित उपांशु-पांसुल (वि०) अतिशयरेणु व्याप्त। (जयो० वृ० ३/१११) करना. भोजन देना। उपाकरणं (नपु०) [उप+आ+कृ+ ल्युट्] सन्निकट लाना, आरम्भ उपहस् (अक०) उपहास करना, व्यंग करना, निन्दा करना। के लिए निमन्त्रण। १. उद्यत, आरम्भ, उपक्रम। उपहसित (भू० क० कृ०) [उप+हस्+क्त] उपहास करना, उपाकर्मन् (नपुं०) [ उप+आ+कृ+ मनिन् ] उपक्रम, अनुष्ठान। भर्त्सना किया गया, निन्दित किया गया। उपाकृत (भू० क० कृ०) [उप+आ+ कृ+ क्त] आरम्भ, कार्य उपहस्तिका (स्त्री०) [उपहस्त+कन्+टाप्] पान-दान, एक किया गया, प्रयत्नशील। पात्र, जिसमें ताम्बूल रखा जाता है। उपाक्षम् (अव्य०) नेत्राभिमुख, नयन सम्मुख, निज सम्मुख। उपहारः (पुं०) [उप+ह+घञ्] १. भेंट, प्राभृत, आहूति। (वीरो० उपाख्यान (नपुं०) [उप। आख्यिा ल्युट्] लघुकथ, गल्प, २/३६) २. परितोषिक-'मनो ममैकस्य किलोपहारो' (जयो० कथा, आख्यायिका। ३/९७) 'किलोपहारं पारितोषिकं भविष्यति।' (जयो० ५/९७) उपागमः (पुं०) [उप+आ+गम्+अप्] पहुंचना, आना, निकटता उपहार को 'उपायनी' भी कहते हैं। (जयो० ११/६५) ३. को प्राप्त होना, घटित होना। २. प्रतिज्ञा, स्वीकृति। कर, क्रय-विक्रय कर। 'करत्वे उपहाररूपेण कलितं' उपाग्रं (नपुं०) निकट, पास, समीप। (जयो० वृ० ५/७६) उपाग्रहणं (नपुं०) [उप+आ+ ग्रह् + ल्युट्] ज्ञानोपर्जन, अभ्यास, उपहारलेश: (पुं०) परितोषकोश, उपहार भाग। सुमस्थवार्विन्दुदला- विशेष ग्रहण। ____ पदेशं मुक्तामयन्तेऽप्युपहारलेशम्।' (वीरो० ४/१८) उपाङ्गं (नपुं०) उपभाग, उपशीर्षक, अवयव, शरीर के हस्त उपहारिन् (वि०) [उपहार+णिनि] भेंट प्रस्तुत करने वाला, पैरादि अंग। वस्तु प्रदाता, प्राभृतदाता, पारितोषिक प्रस्तुतकर्ता। 'पुनरपरं, उपाङ्गिन् (वि०) अंगवाली। (जयो० ५/७) रूपबलोपहारिणं' (जयो० २/१५५) उपाचारः (पुं०) [उप+आ+च+घञ्] १. रोग निदान, कार्यविधि। उपहारीकृत (वि०) उपहार देने वाला, भेंटदाता। (जयो० उपाजगाम (भूतकालिक प्रयोग) समागत, प्राप्त हुआ। ३/९४) कश्चिदुपाजगाम' (जयो० १/७७) उपहारीकृत्य (सं०कृ०) उपहार देकर, पारितोषिक प्रदान करके। । उपाजे (अव्य०) आश्रय, सहारा, यह 'कृ' धातु के साथ ही। (जयो० वृ० ३/३६) उपाञ्चित (वि०) समागत, प्राप्त (समु० ७/२) उपहासः (पुं०) [उप+हस्+घञ्] अट्टहास, परिहास, व्यंगपूर्ण उपाञ्जनं (नपुं०) [उप+अ+ ल्युट्] लीपना, मलना, पोतना, हास। सफेदी करना। उपहासक (वि०) [उप+हस्+ण्वुल्] हास्य करने वाला। उपात् (भू०) पड़े हुए, रखे हुए, गिरे हुए। (सुद० २/४७) उपहासकः (पुं०) विदूषक, जोकर। उपात्तः (वि०) १. पूर्वोपाजित, 'उपात्तपापोच्चयसम्विलोपी' उपहास्य (सं०कृ०) हंसी उड़ाने वाला। (समु०६/३२) २. आरोपित 'शृङ्गोपात्त-पताकाभिराह्वयन' उपहित (वि०) [उप+धा+क्त] १. रखा गया, निक्षिप्त, प्रस्तुत (जयो० ३/७४) उपात्ता-आरोपिता-'उपात्त-सम्यक्त्वगुणो किया, युक्त। 'चपलतोपहितचेता' (सुद० १/४३) २. रुपूर्तीन्'। (सम्य० ५८) तिरोभूत, अभिभूत, आच्छादित, तिरोहित। 'ध्रुवाव्युपहितान्यपि उपात्तजाति: (स्त्री०) उपलब्ध जाति। (वीरो० ११/२३) भोगभुवा तु वा' (जयो० ९/९८) उपात्तजातिस्मृतिः (स्त्री०) प्राप्त जाति का स्मरण। उपहितचेता (वि०) आच्छादित चित्त वाला। (सुद० १/४८) उपात्तढंग (वि०) समीचीन विधि। (सम्य० २९) (वीरो० उपहतिः (स्त्री०) [उप+हे+क्तिन्] आह्वान, निमंत्रण, आमन्त्रण, ११/२३) बुलावा। उपात्त-तामस (वि०) तामसता रखने वाला, तमोगुणयुक्त उपह्वरः (पुं०) [उप++घ] एकाकी स्थान, शून्यस्थान। (जयो० २/१०९) 'राक्षसाशनमुपात्त-तामसं उपह (सक०) [उप+ह] धारण करना, रखना, ग्रहण करना। उदात्ततोरणः (पुं०) तोरण वृक्ष को प्राप्त। (जयो० २४/५०) 'मुक्तादंतौ च ता उपजहार नृपाययुक्ताः ' (समु० ४/३८) उपात्तप्रतिपत्तिः (स्त्री०) अन्यथानुपत्तिरूप अवयव, 'अनुमानाङ्ग उपांशु (अव्य०) [उपगता अंशवो यत्र] (जयो० ३/१११) रूप प्रतिपत्ति' 'उपात्ता संलब्धा प्रतिपत्तिः प्रगल्भता येन सः' For Private and Personal Use Only Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उपात्तवती २१९ उपाय: उपात्तवती (वि०) उत्कण्ठिता (वीरो० १२/२६) (जयो० ७० ८/४६) उपात्तविधिः (स्त्री०) उपलब्धविधि। 'यत्सूक्तिपूर्वकमुपात्त विधेयवाद:' (सुद० ४/२५) उपात्तसातः (पु०) सुख सम्पन्न, साता को प्राप्त। 'अनन्तनामानुपात्तसातं' (भक्ति० १९) उपात्ययः (पुं०) [उप+अति इ-अच्] उल्लंघन करना, विचलित होना, दोष युक्त होना। उपादानं (नपुं०) [उप+आ+दा+ल्युट्] १. प्राप्त करना, लेना, अभिग्रहण करना, ग्रहण करना। २. भौतिक कारण, बाह्य साधन। ३. न्यूनपद का समाकार। जो स्वयं कार्यरूप परिणत होता है वह उपादान कहलाता है। प्रत्येक कार्य अपने उपादान के द्वारा उपादेय अर्थात् अभिन्न रूप से परिणमनीय होता है। "किलाभिन्नत्वेनऽऽदानंधारणमधिकरणं तदुपानम' 'उप' यह उपसर्ग है जिसका अर्थ अभिन्न रूप में एकमेक रूप में जैसा कि उपयोग शब्द में होता है। उपयोग-ज्ञान-दर्शन-ये आत्मा के साथ एकमेक होकर रहते हैं। 'आदान' का अर्थ धारण करना है। अर्थात् अधिकरण या आधार एवं अभिन्न रूप से एकमेक होते हुए जो प्राप्त करने वाला हो, वह उपादान होता है। (सम्यः पृ० १४ १५) चेतन-अचेतन पदार्थों की उत्पत्ति अपने अपने उपादान से हाती है, ब्रह्म वादियों का कथन। भो गोमयादाविह वृश्चिकादिच्छिक्ति रायाति विभो अनादि। जनोऽप्युपादान-- विहीनवादी, वह्निं च पश्यन्नरणे प्रमादी। (जयो० २६.९४) हे प्रभो! गोबर आदि अचेतन पदार्थों से बिच्छू आदि चेतन शक्ति की उत्पत्ति होती है, ऐसा जो कहते हैं उनका कहना वह ठीक नहीं है, क्योंकि चेतन शक्ति तो अनादि है, गोबर आदि मात्र से शरीर उत्पन्न होता है। इसी तरह अरणि नामक लकड़ी से अग्नि की उत्पत्ति देखकर जो यह कहता है कि उपादान के बिना भी कार्य की उत्पत्ति होती है, वह प्रमादी है, यथार्थवादी नहीं है, क्योंकि अरणि आदि लकड़ी रूपादिमान् होने में पुद्गल है। उपादानकारणं (नपुं०) भौतिक कारण, प्रकृतिजन्य साधन। उपादानकारणत्व (वि०) कार्य के साथ तादात्म्य। 'उपादानं उत्तरस्य कार्यस्य सजातीयं कारणम्' (न्याय० वि०१/१३२) 'अवच्छिन्नकारणताशालित्वं तदिति उपादानकारणत्वम्' (अष्ट सहस्त्री १५/१३५) उपादानत्व (वि.) कार्य के साथ तादात्म्य, कार्य में समस्त विशेषताओं का समर्पण। उपादानविहीन (वि०) भौतिक कारणों से रहित, ग्रहण रहित, उत्पत्ति रहित। उपादिमन्मठ (वि०) १. गृहस्थाश्रम में स्थित, द्वितीयाश्रम में स्थित। 'पठेद्य-धुपस्थितिरूपादिमन्मठे' (जयो० २/५७) उपादेयः (पुं०) अभिन्न परिणमनीय कारण। (सम्य० १४) उपाधिः (स्त्री०) [उप+आ+धा+कि] १. विशेषता, गुण, विशेषण, विवेचक। २. प्रयोजन, संयोग, अभिप्राय। ३. पद, नाम, संज्ञा, उपनाम। उपाधिजन्य (वि०) विशेषता रहित। उपाधि-धारक (वि०) विशेषण/गुण धारण करने वाला। उपाधि-पात्र: (वि०) उपाधि का अधिकारी। गुण का अधिकारी। उपाधि-वचनं (नपुं०) आसक्ति जन्य वचन। उपाध्यायः (पुं०) १. अध्यापक, गुरु। रयणत्तय-संजुत्ता, जिणकहिय-पयत्थदेसया सूरा। णिक्कंख-भाव-सहिया, उवज्झाया एरिसा होति।। (नि०सा०७४) उपेत्य तस्मादधीयते इत्युपाध्याय:' (त०श्लोक ९/२४) उपाध्याय : अध्यापकः। (जैन०ल० २८०) 'मोक्षार्थं उपेत्याधीयते शास्त्र तस्मादित्युपाध्यायः' (कार्ति९४५७) 'यदध्येति स्वयं चापि शिष्यानध्यापयेद् गुरु:।' उपानयः (पुं०) उपहार, पारितोषिक. भेंट। (जयो० ९/२१) उपानह (स्त्री०) [उप+न+क्विप्] पादुका, पादरक्षक (जयो० २१/६४) जूता, पादत्राण, चप्पल। (जयो० ३/१००) उपान्तः (पुं०) १. सिरा, पल्लू का अग्रभाग, गोट, किनारी। (वीरो० २१/१०१) २. पार्श्वभाग, समीपस्थ स्थान। उपान्तभृत (वि०) रखाने वाली, रक्षा करने वाली। (वीरो० २१/१०) उपान्तिक (वि०) निकटस्थ, समीपस्थ, पड़ौसी। उपान्त्य (वि०) [उपान्त+ यत्] अन्तिम से पूर्व का। उपान्त्यः (वि०) अक्षि कोर।। उपान्त्यजिनः (पुं०) पार्श्वनाथ, तेवीसवें तीर्थंकर। 'उपान्त्योऽपि जिनो बाल-ब्रह्मचारी जगन्मत:।' (वीरो० ८/४०) उपाय: (पुं०) [उप+इ+घञ्] १. युक्ति, विचार, उचित चिन्तन, समीचीन कथन। (सुद० १०१) 'अभीष्टसिद्धे सुतरामुपाय' २. पद्धति, रीति, परम्परा, प्रयत्न, चेष्टा। 'स्याद्यदीदमहमस्मदुपायाद्' (जयो० ४/३१) 'उपायात् प्रयत्नाद् अयाद् भाग्यात् स्यात्।' (जयो० व० ३१) 'नम्येदितीतह न For Private and Personal Use Only Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उपायकर्त २२० उपास्तिः परोऽस्त्युपाय:' (भक्ति० पृ० २५) उपायत:-प्रधान/साधन से-(सम्य० १५/१) में 'उपाय' का अर्थ साधक भी है। उपायकर्तृ (वि०) प्रयत्नशील, उपाय करने वाले। 'अनेक धान्यार्थमुपायकोंमहत्सु' (सुद० २/२९) उपायनं (नपुं०) [उप+अय्+ल्युट्] १. उपहार, भेंट, प्राभृत, पारितोषिक, पुरस्कार। 'उचितोपायनपावनोत्सव' (जयो० २०/३३) २. अपहारक, निकटस्थ स्थान बनाना। 'जगतां तृडुपायनोऽपि कूप:' 'किमु नो वारिदवारि दक्षरूप:' (जयो० १२।८६) उपायनी (वि०) उपहार देने योग्य। (जयो० ११/६५) उपायनीकृत्य (सं०कृ०) उपहार देकर, भेंट देकर। जगन्ति जित्वात्रिभिरवशेषावुपायनीकृत्य पुनर्विशेषात्' (जयो० ११/६५) उपायपदं (नपुं०) योग्यस्थान, समुचित पद। 'वञ्चिताः स्म किमुपायपदे ते' (जयो०४/१०) उपायपर: (पुं०) उपाय/प्रयत्न में तत्पर। 'तत्कृत्यमित्थं च । ___ तदित्युपायपदो नरोऽयं भविता सुखाय।' (जयो० २७/५८५) उपाय-सञ्जात (वि०) प्रयत्न को प्राप्त हुआ। (जयो० वृ०३/१०) उपायान्तर (वि०) प्रयत्न बिना भी। (हित०१४) उपारब्ध (वि०) प्रारम्भ करने वाली। (सुद० १३३) उपारब्धवती (वि०) प्रारम्भ करती हुई। उपारम्भः (पुं०) [उप+आ+र+घञ्] प्रारम्भ, समारम्भ, उपक्रम, शुरू! उपार्जनं (नपुं०) [उप+अ+ ल्युट्] कमाना, लाभ उठाना। (जयो० ३/१) उपार्जित (वि०) कमाया गया. संचित किया गया, लाभ लिया गया। श्मसानमासाद्य कुतोऽपिसिद्धिरुपार्जिताऽनेन सुमित्र विद्धि।" (सुद० १०७) उपार्थ (वि०) अल्प मूल्य वाला। उपालम्भः (वि०) [उप+आ+लभ+घञ्] उलाहना, निन्दा, | गर्दा, द्वेष, दुर्वचन, व्यापाय। (जयो० वृ० ८/२४) उपालम्भः सपिपास-वचनैः शिक्षा (जैन०ल० २८) उपालम्भिन् (वि०) मारपीट, बन्धन, दुर्वचन वाला। बन्धस्य हेतुत्वमुपैत्यसो योपालम्भिनश्चौर्यमिवात्र दस्योः। (सम्य० २७) उपावर्तनं (नपुं०) [उप+आ+वृत्+ ल्युट्] १. लौटना, मुड़ना, वापिस होना। २. परावर्तन, परिभ्रमण, घूमना, हिंडन, परिहिंडन। उपाद्रिय् (सक०) स्वीकार करना, अंगीकार करना। 'शालिकालिभिरूपाद्रियते वा' (जयो० ४/५७) उपाश्रमं (नपुं०) स्थान, आश्रय, आधार। (जयो० १३/६०) उपाश्रयः (पुं०) [उप+आ+श्रि+अच्] १. आश्रय, आधार, अवलम्बन। २. पात्र पाने योग्य, ३. निर्भर रहना, आधीन होना। ४. समवसरणा 'नाभेयस्योपाश्रय समवसरण नाम' (जयो० वृ० २६/४२) उपाश्रय् (सक०) आश्रय लेना, आधार बनाना, अवलम्बन करना (उपाश्रयन्- मुनि० ८) उपाश्रयन्त (सुद० ११८) उपाश्रयति (जयो० २/९) ज्ञानेन नानन्दमुपाश्रयन्तश्चरन्ति ये ब्रह्मपथे सजन्तः।' (वीरो० १/६) उपाश (वि०) अभिलाष युक्त, प्राप्ताभिलाषी। 'पुरा सरोजेषु मयेत्युपाशः' (जयो० ११/४५) उपासकः (पुं०) [उप+आस्+ण्वुल] १. श्रावक, व्रत ग्रहण करने वाला, ग्रहस्थ। (जयोल १/११३) उपाशकदशा (स्त्री०) श्रावक आवस्था। उपासकाः श्रावकाः, तद्गतक्रियाकलापनिबद्धदशाः, दशाध्ययनोपलक्षिता: उपासकदशा। (जैन०ल० २८१) उपासक-सूत्रं (नपुं०) उपासकाध्ययन। (हि०सं०२५) उपासकाचारः (पुं०) श्रावकों के आचार-विचार। नोपासकाचार विचारलोपी' (वीरो० ११२९) उपासका नामधीति: (स्त्री०) उपासकाध्ययन। (जयो० २/४५) उपासकाध्ययनं । नपुं०) उपासकाचार, श्रावकाचार के गुणों का चिन्तन। 'उपासकाध्ययने श्रावकधर्मलक्षणम्' (स.वा०१/२०) उपासद् (सक०) मिटा लेना, शान्त कर लेना। 'जातुवृत्तिमुपासदत्' (समु० ९/११) उसासनं (नपुं०) [उप+आस्+ल्युट्] १. सद्भाव, दया, करुणा। २. अर्चन, पूजन, आदर. आराधना मनन-चिन्तन। उपासा (स्त्री०) [उप+आस्। अ+टाप्] आराधना, सेवा, आदर, सम्मान! * पूजा। उपासना (स्त्री०) [उप+आस्+युच्] १. आराधना, अर्चना, पूजा, १. सद्भाव, समादर, धार्मिक मनन-चिन्तन। (जयो० १५/६९) उपासनाविधिः (स्त्री०) पूजन सामग्री। (दयो० ८३) उपास्तमनं (नपुं०) रवि का अस्त होना। उपास्तिः (स्त्री०) [उप+आस्+क्तिन्] आराधना, उपासना, सेवा, पूजा, अर्चना। For Private and Personal Use Only Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra उपास्वं www.kobatirth.org उपास्वं (नपुं०) लघुशस्त्र छोटा आयुध उपासिका (स्त्री०) श्राविका श्रावक व्रतधारी स्त्री ' अहं प्रभोरेवमुपासिका वा' (वीरो० ५/२१) या पत्नी कदम्बराज कीर्तिदेवस्समालला (वीरो० १५/४२) उपाहारः (पुं०) उपहार, स्वल्पाहार, नाश्ता । उपाहित भू० क० कृ०) [उप आघात] १. संधारित. धारण किया गया, समायोजित, जमा किया गया। २. सम्बद्ध, सम्मिलित | उपूर्तिन् (वि०) पूर्ति करने वाला (सम्य० ५८ ) उपेक्ष ( सक०) उपेक्षा करना, अवहेलना करना, उदासीनता रखना। 'कृपके च रसकोऽप्युपेक्षते' (जयो० २ / १६) उपेक्षणं (नपुं०) (उप.ई.अ. ल्युट्] उपेक्षा, अवहेलना, उदासीनता ! 'उपेक्षणं तु चारितं तत्त्वार्थानां सुनिश्चितम्।' + (सम्य० ८२) उपेक्षणीय (वि०) उपेक्ष करने योग्य, अवहेलनीय त्यजनीय (हित१७) उपेक्षा (स्त्री०) [उप-ईश्+अ+टाप्] उदासीनता, अवहेलना, घृणा । राग-द्वेषयोरप्रणिधानमुपेक्षा । (स०ति०१/१०) 'श्रद्धस्यत्वात्मनो हि याः' (सम्य० ८३ ) उपेक्षित (भू० क० कृ० ) [ उप + ईश्+अ+क्त] उपेक्षणीय, अवहेलित, घृणित निन्दनीय (सुद० वृ० ११२ ) उपेक्षित - संसार : ( वि०) संसार से उदासीन हुआ । इत्युपेक्षितसंसारो विनिवेद्य महीपतिम् (सुद० ० ११२) उपेक्ष्य (सं०कु० ) उपेक्षा करके । उपेत (भू० क० कृ० ) [ उप इक्त ] सन्निकट आया, पहुंचा, उपस्थित समागत, प्राप्तः 'निम्नगे सरसत्वमुपेता' (सुद० 9/63) उपेत्य (सं०कृ०) प्राप्त करके, उपस्थित होकर, आकर। 'स्वयमिति यावदुपेत्य महाश:' (सुद० १०८ ) उपेन्द्रः (पुं० ) [ उपगत इन्द्रम् ] उपेन्द्र देव का भेद । उपेय (सं०कु० ) [ उप + इ + यत् ] पहुंचने योग्य प्राप्त करने योग्य। उपोढ (भू० क० कृ० ) [ उप + वह् +क्त] १. संचित, एकत्रित, २. निकटस्था उपोत्तम (वि०) अन्तिम से पूर्व उपोद्घातः (पु० ) [ उप-उद्-हन्+घञ्] १. प्रस्तावना, भूमिका, पुरोवाक्। २. उदाहरण, दृष्टान्त । ३. उद्दिष्ट वस्तु का बोध कराना। 'उपोदघातस्तु प्रायेण तदुद्दिष्ट' (जैन०ल० २८३ ) २२१ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उभयबन्धिनी + उपोदबलक (वि०) [ उप+उद् + बल्ण्वुल्] पुष्ट करने वाला, शक्तिशाली बनाने वाला। + उपोदयलनं (नपुं०) [ उप-उद्बल ल्युट् ] पुष्ट करना, शक्तिसम्पन्न बनाना। उपोस्य (सं०कु०) उपवास करके (भक्ति० १०) उपोषण (नपुं० [उपवस्• ल्युट्] अनशन व्रत रखना, उपवास करना। + उपोषित (वि०) [उप-वस्-क्त] उपवास करने वाला 'सा क्वचिदपि उपोषितस्य (सुद० ९१) उप्तिः (स्त्री० ) [ वप्+क्तिन्] बीज बोना । उब्ज् (सक०) १. भींचना, दबाना, मसलना। २. सीधा करना । उम् (सक०) १. सीमित करना कम करना, २. आच्छादित करना, ऊचा बिछाना । उभ (सर्वनाम, विशेषण) [भूयक] उभय, दोनों उभय (सर्व०वि० ) [ उभ्+अयट् ] (जयो० ३/५६ ) दोनों एक साथ दो, दो वस्तुएं । 'दम्पत्योरुभयोर्व्यतीतिमुदगाद्' (सुद० ११६) उभयचर (वि०) जल-स्थल में विचरण करने वाले। उभयक्षेत्रं (नपुं०) दोनों क्षेत्र 'उभयमुभय- जल निष्पाद्यशस्यम्' उभयतः (अव्य० ) [ उभय+तसिल्] दोनों ओर से दोनों ओर । दोनों पद्धतियों से, दोनों दृष्टियों से। 3 उभयत्र (अव्य० ) [ उभय + त्रल्] दोनों स्थानों पर, दोनों ओर, दोनों आधारों पर उभयथा (अव्य० ) [ उभय थाल्] दोनों पद्धतियों से दोनों विचार धाराओं से। + उभयद्युः (अव्य०) (उभयस्] दोनों दिन आगमी दिन। उभयपक्ष: (पुं०) दोनों पक्ष (जयो० ३/५६) (जैन ल०२८३) उभयपद (नपुं०) दोनों चरण । उभयपदानुसारिबुद्धिः (स्त्री०) अतिशय बुद्धि धारक | उभयप्रायश्चित्तं (नपुं०) आलोचन एवं प्रतिक्रमण रूप प्रायश्चित्त सगावराहं गुरुणमालोचिय गुरुसक्खिया अवराहादो पडिणियत्ती उभयं णाम पायच्छितं (धव० १३/६०) उभयबन्धः (पुं०) विशिष्ट बन्ध, परस्परबन्ध, इतरेतरबन्ध। 'यः पुनः जीव कर्मपुद्गलोः परस्पर परिणाम-निमित्तमात्रत्वेन विशिष्टतरः परस्परमवगाहः स तदुभय-बन्धः ' (प्रव० सा० अमृत वृ० ३/८३) उभयबन्धिनी ( वि० ) उदय अनुदय रूप बन्ध वाली । For Private and Personal Use Only Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उभयमनोयोगः २२२ उरोजबिम्बं 'उभयऽस्मिन्नुदये वा बन्धोऽस्ति यासां तां उभयबन्धिन्यः' (जैन०ल० २८३) उभयमनोयोगः (पुं०) सत्यासत्य मनोयाग, उभयशक्ति रूप मनोयोग। उभय-वचनयोगः (पुं०) धर्म विवक्षित सत्यासत्य वचनयोग। 'जाणुभयं सच्चमोसोत्ति' (धव० १/२८६) उभयवधः (पुं०) संकल्पित जीवघात। 'संकल्पितस्य जीवस्य वध उभयवध इति' (पंच सं०पृ० १६) उभयविद्या (स्त्री०) दो प्रकार की विद्याएं, परा विद्या-अपरा विद्या। उभयश्रुतं (नपुं०) श्रुत-मति सहित। उभयसारी (घि०) नियम-अनियम रूप पद वाली। उभयस्थितः (पुं०) दोनों रूप में स्थित। उभयाक्षरं (नपुं०) उभय पदार्थों से सम्बन्धित अक्षर। उभयाचारः (पुं०) दोनों प्रकार का आचरण। (भक्ति० ८) । उभयाननुगामी (वि०) क्षेत्र एवं भव में नहीं जाने वाला। 'यत्क्षेत्रान्तरं भवान्तरं च न गच्छति स्वोत्पन्न-क्षेत्र-भवयोरेव विनश्यति तदुभयाननुगामी।' (गो०जी०वृ० ३७२) उभयानन्तः (पुं०) दोनों तरह से अन्त रहित। उभयानुगामी (वि०) भव-भवान्तर गामी। उभयासंख्यातः (पुं०) दोनों ओर से नहीं गिनी जाने वाली संख्या। उम् (अव्य०) विश्मय-बोधक अव्यय, प्रश्नात्मक शब्द, क्रोध, सान्त्वना। उमा (स्त्री) १. कान्ति, प्रभा, चमक। 'वक्तुरप्य-परवक्तुरूमाङ्गै' (जयो०५/४८) 'उकारेण चिता सहिता उमा नाम' (जयो० वृ० ११/९१) २. पार्वती-'उमामवाप्य महादेवोऽपि' (सुद० ११२) ३. रति-(सुद० ७९) उमाधवः (पुं०) महादेव, शिव, शंकर। 'भालानलप्लुष्टमुमाधवस्य' (जयो० १/७६) उमाधवस्य-महादेवस्य' (जयो० वृ० १/७६) उमापतिः (पुं०) शिव, महादेव, शंकर। उम्बर: (पुं०) द्वार के ऊपर की लकड़ी, तरंगा। उरः (पुं०) [उर+क] १. भेड़, मेष। हृदया 'यस्य काम परिवादसादुरो' (जयो० २/६८) यस्य उरो हृदयं' (जयो० वृ० २/६८) उरगः (पुं०) [उरसा गच्छति] सर्प, सांप, अहि, भुजंग, नाग। उरङ्गः (पुं०) सर्प, सांप। उरण: (पुं०) [ऋ+क्यु-उत्व-रपरश्च] भेड़, मेष। उरणकः (पुं०) मेष, भेड़। उरभ्रः (पुं०) [उरु उत्कटं भ्रमति इति उका भ्रम् ड] भेड़, मेष। उररी (अव्य०) [उ+अरीक्] सहमति, स्वीकृति। उररीकार्य (पु०) स्वीकार्य, सहमत जन्य कार्य। 'युवाभ्यामुररीकार्य:' (सुद० ४/४५) 'धरा पुरान्यैरुररीकृता वा' (सुद० ९११) उरस् (नपुं०) [ऋ+असुन्] वक्षस्थल, छाती। (सुद० २/४६) उरश्छदः (वि०) वक्षःस्थलावरण, कवच। (जयो० ७/९४) उर:स्थल (नपुं०) वक्षःस्थल, छाती। 'यथोत्तरं पीवर सत्कुचोर:स्थलं' (सुद० २/४६) उरसिल (वि०) [उरस्+इलच्] विस्तीर्ण वक्षःस्थल वाला। उरस्य (वि०) [उरस्+यत्] औरस सन्तान। उरस्वत् (वि०) [उरस्+मतुप] विस्तीर्ण वक्षःस्थल, उन्नत छाती, उभरी हुई छाती। उरी (अव्य०) स्वीकृति बोधक अव्यय। उरीकृ--आज्ञा देना, अनुमति देना, स्वीकृति देना। उरीकरोति--(समु० ४/२४, राज्य करता है। उरीचकार-(जयो० ११/२) स्वीकृति प्रदान की। उरी कार्य-बहिष्कारउरीकार्य : सत्याग्रहमुपेयुषा(वीरो० ११/४२) उरीकुरु-(जयो० २/९०) स्वीकृति दें। उरीकृत-स्वीकृत-(जयो० २२/६७) उरु (वि०) १. दीर्घ, उन्नत, विशाल, विस्तीर्ण, उभरा हुआ। २. प्रशस्त, अतिशय जन्य, श्रेष्ठ, प्रचुर। उरुका (वि०) सुदीर्घा, अतिविस्तृता। (जयो० १०/९३) उरुकीर्तिः (स्त्री०) प्रख्यात कीर्ति, सुविख्यात, प्रसिद्ध। उरुचारु (स्त्री०) अत्यन्त सुन्दर, रमणीय (जयो० ११/२०) 'मोचोरुचारुर्भवितुं तु यस्याः ' (जयो० ११/२०) 'उरुश्चारु भवितुं जंघासदृशी सम्भवितुप्' (जयो० वृ० ११/२०) उरुधाम्म (वि०) विस्तृत प्रकाश वाले। (सम्य० ७९) उरुमार्गः (पुं०) चौड़ी सड़क, लम्बी सड़क। उरुविक्रम (वि०) पराक्रमी, बलशाली, शक्तियुक्त। उरुरी (अव्य०) स्वीकृति सूचक अव्यय। उरोज (नपुं०) स्तन, थन। (जयो० ११/४) उरोजतीरः (पुं०) स्तन, तट। (वीरो० १२/१५) उरोजदुर्गः (पुं०) स्तनदुर्ग, स्तनरूपी किला। (जयो० १६/४७) __ * विस्तृत दुर्ग, फैला हुआ किला। * दृढ़ घेरा। उरोजबिम्बं (नपुं०) स्थूल स्तन, उन्नत स्तन, उभरे हुए स्तन। 'गुरुनितम्ब: स्विदुरोजबिम्ब:' (जयो० ११/२४) For Private and Personal Use Only Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उरोजयुगलं २२३ उल्लास: १०) उरोजयुगलं (नपुं०) स्तन द्वय। (जयो० १४/६८) उल्कापातः (पुं०) अग्निपतन, ज्वाला गिरना। उरोजराजिः (स्त्री०) कच युगल, स्तन युगल। (वीरो०५/४०) उल्कापिण्डः (पुं०) अग्नि पिण्ड। (जयो० १३.८४) उल्कामुखः (पुं०) बैताला उरोजसम्भूतिः (स्त्री०) स्तनागत। 'उरोजसम्भूतिमगान्मुहुर्वा' उल्कुषी (स्त्री०) [उल+कुष्+क+ङीष्] केतु, उल्का, ज्वाला, (जयो० ११/४) अग्निपिण्ड। उर्णनाभ (पुं०) [उणेव सूत्रं नाभौ गर्भऽस्य] मकड़ी। उल्बं (नपुं०) भ्रूण, गर्भाशय। उर्णा (स्त्री०) [ऊर्गुड-हस्व] ऊन। उल्बण (वि०) १. अतिशय, अधिक, पर्याप्त, प्रचुर, तीव्र, उर्वटः (पुं०) [उरु अट्+अच्] १. बछड़ा, २. संवत्सर। बहुत। २. दृढ़, शक्तिशाली। ३. स्पष्ट, स्वच्छ, साफ, शुभ्र। उर्वरा (स्त्री०) [उरुशस्यादिकमुच्छति] उपजाऊ भूमि. उन्नतकृषि | उल्मुकः (पुं०) [उष्+मुक्ष स्य ल:] ज्वलित काष्ठ, ज्वाला, भूमि। मशाल, उल्का। 'उल्मुकं शिशुवदात्मनोऽशुभम्' (जयो० उर्वशी (स्त्री०) [उरुन् महतोऽपि अश्नुते वशीकरोति-उरू+ ७/७९) अश्क ] अप्सरा, पुरुरवा की पत्नी। (दयो० २७/२४) उल्लङ्घ (अक०) लांघना, अतिक्रमण करना, छलांग लगाना, उर्वारुः (पु०) [ उरु ऋ+उण] लकड़ी विशेष। तोड़ना। सद्यो लिप्ततयाईवेश्म न विशेन्नोद्घाटयेदावृतं द्वारं उर्वी (स्त्री०) विशाल भूमि, उन्नत धरा, पृथ्वी, धरती, भू-भाग। तत्र च मण्डलुकादिकमथो नोल्लंघयेदास्थितम्' (मुनि० __ विस्तृत मैदान। 'समीक्ष्यते श्रीपदसम्पदुर्वी' (जयो० ११/८४) 'आदिच्य उर्ध्या रसभुक् समस्ति' (समु० ३/५) उल्लङ्घनं (नपुं०) [उद्+ल+ल्युट] ०अतिक्रमण, छलांग, उर्वीधपतिः (पुं०) पर्वतराज, गिरीश्वर। (जयो० २४/१८) लांघना। (जयो० वृ० ३/९०) उर्वीभृत् (पुं०) १. नृप, अधिपति। २. पर्वत, पहाड़। उल्लङ्घ्य (सं०कृ०) छलांग लगाकर, पार करके, लांघकर। उर्वीरूहः (पुं०) वृक्ष, पादप। (मुनि० १०) उलपः (पुं०) लता, बेल, गुल्म, कोमल तृण, 'तलाग्रं उल्लल (वि०) [उद्+लल+अच्] १. कंपनयुक्त, हिलने गुल्मिन्यामुबल यं मंतमिति' विश्वलोचन: (जयो० १४/२६) वाला। २. घने केशराशिवाला, लोमंश। उलूकः (पुं०) उल्लू, कौशिक। कौशिकात्-उलूकात् (जयो० उल्लस् (अक०) [उद्+लस्] आनन्द होना, हर्ष होना, रोमांच वृ० ८/९०) 'उलूक: स्तेनवन्मोदमादधति' (दयो० २/६) होना, खुश होना। 'समुल्लसन्मानसवत्युदारा' (सुद० १४८) उलूकजातिः (स्त्री०) उल्लू की जाति। (वीरो० २०/२०) उल्लसदङ्ग (नपुं०) मनोज्ञशरीर, सुन्दर अंग। उल्लसदङ्गम-- उलूकतनयः (पुं०) निशाचरवर्ग, उलूक सजाति- निशाचर, स्यास्तीत्युल्लसदङ्गवान् मनोज्ञशरीरधारी। (जयो० वृ० राक्षस, गुप्तोऽप्युलुकतनयस्य तथा सजातिः। (जयो० १०/७९) २८/५०) २. सांख्याचार्यः, सांख्यों के आचार्य-कणादमुनि। । उल्लसित (भू० क० कृ०) १. रोमांचित, हर्षित, प्रसन्नचित्त। उलूकपुत्रः (पुं०) निशाचर, राक्षस। २. प्रभावान, कान्तियुक्त आभाशील। उल्लसितोऽभूत्-प्रसन्नो उलूकसजाति: (स्त्री०) राक्षस जाति। जातः। (जयो० वृ० ४/२५) (सुद० ३/४६) उलूखलं (नपुं०) [उर्ध्वं खम् उलूखम्] ओखली, धान्यकुटक, उल्लाघ (वि०) [उद्+लाध्+क्त] १. स्वस्थ, रोग रहित। २. खरल। प्रवीण, चतुर, दक्ष, निपुण। ३. पवित्र, उत्तम, अच्छा। उलूखलकं (नपुं०) [उलूखल कन्] ओखली, खरल, कुटका उल्लापः (पुं०) [उद्+लप्+घञ्] वार्तालाप, बातचीत, शब्द, उलूखलिक (वि०) [उलूखला कन्] खरल किया गया, ओखली भाषण, संवेगशील शब्द, तीव्र-वचन। __ में पीसा गया। उल्लापक (वि०) मुखरी वचन वाला, वार्तालापी। उलूतः (पुं०) [उल् ऊतच्] अजगर, विषहीन सर्प। उल्लाप्यं (नपुं०) अभिनयजन्य नाटक, संवाद युक्त नाटक। उलूपी (स्त्री०) मत्स्य, मछली। उल्लासः (पुं०) [ उद्+लस्+घञ्] १. प्रसन्न, आनंद, हर्ष, उल्का (स्त्री०) [उ कक्+टाप, पस्य ल:] १. अग्नि पिण्ड, खुशी, उमंग। २. कान्ति, प्रभा, आभा। ३. उत्सव-'समागतास्ते आकाश का अग्नि पिण्ड, २. मसाल, ज्वाला, अग्नि। उत्सवायउल्लसाय (जयो० वृ० १८/११) For Private and Personal Use Only Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उल्लास-शालिनी २२४ उष्ट्रारोहिन् उल्लास-शालिनी (वि०) उमंग/हर्षयुक्ता। (सुद० ७८) उल्लिङ्गित (वि०) [उद्+लिंग+क्त] प्रसिद्ध, विख्यात। उल्लिख (सक०) उत्कीर्ण करना, बनाना, चित्रित करना। उल्लिखित (भ० क० क०) उत्कीरित, चित्रित। (जयो० २३/३३) उत्कीर्ण। 'भीतोऽथ तत्रोल्लिखितान् मृगेन्द्रादि' ( वीरो० २/३४) उल्लीढ (वि०) [उद्-लिह्+क्त घर्षित, रगड़ा हुआ, मसला गया। उल्लुञ्चनं (नपुं) [उ+लुञ्च् ल्युट्] १. लुञ्चन, लोंचना, उखाड़ना, बाल उखाड़ना। २. काटना। उल्लुण्ठनं (नपुं०) [उद् + लुण्ठ् + ल्युट्] व्यंगात्मककथन, व्यंग-वचन। उल्लू (पुं०) १. पक्षी विशेष। २. मूर्ख। उल्लूसत्-चमकती हुई, देदीप्यमान। (दयो० ४२) 'उडुल्लू सत्कीकशदाम-शस्ता' (दयो० ४२) उल्लेखः (पुं०) [उद्-लिख्+घञ्] १. संकेत, वर्णन, सूक्ति चिह्न, खनन। उल्लेखः (पुं०) उल्लेख अलंकार-जिसमें किसी वस्तु का अनेक प्रकार से वर्णन हो। (जयो० १६/७, ८, ९) 'एकस्य अनेकधा उल्लेखाद-उल्लेखालंकार:' (जयो० वृ० ७/१०१) स्वर्णदीपयसि पङ्ककूपतश्चन्द्रमस्यपि कलङ्करूपतः। गीयते मद इतीन्द्र-सद् गजमस्तके जयबलोद्धतं रजः।। (जयो० ७/१०१) उल्लेखकरी (वि.) उल्लेख करने वाला, चिह्नाभिधाम्। वर्णन करने वाला। (वीरो० ३/) 'कुर्वस्तदुल्लेखकरी चकार स तत्र लेखामिति तामुदार:' (वीरो० ३/९) उल्लेखनं (नपुं०) [उद्-लिख्+ ल्युट्] १. चित्रित करना, वर्णन करना, चिह्नित करना, खोदना। २. रगड़ना, छीलना, खुरचना। ३. वमन, ४. लेख, अभिलेख, प्रतिलिपि। उल्लेखनीय (सं०क०) वर्णनीय. विवेचनीय। (जयो० ७० २४/८७) उल्लेखनीय-प्रसंग: (पुं०) वर्णन करने योग्य प्रसंग। उल्लोच: (पुं०) [उद्+लोच्+घञ्] तम्बू. ढेरा, मण्डप, वितान, शमियाना, चंदोबा, तिरपाल। उल्लोल (वि०) [उद्-लोड्+घञ् डस्य लत्वम्] चपल, चंचल, कंपनशील, चलायमान. स्थिरता रहित। उल्वं (नपुं०) भ्रूण, गर्भाशय। उवगवाक्षः (पुं०) जालक, झरोखा, खिड़की। (जयो० १५/५३) उवास-त्याग करे- 'चिन्तापि चित्ते न कदाप्युवासः' (जयो० १/२२) उवाहू- कम, (सुद० २/४५) रखना, धारण करना। उशनस् (पुं०) [वश्+कनसि] देव विशेष। उन्ति वर्तमानकाल लट्लकार प्रथम पुरुष बहुवचन-प्रवेश करने हैं। 'यस्य प्रतिद्वारमुन्ति सेवाम्' (वीरो० १३/१२) शीलानि पत्रत्वमुशन्ति यस्य' (सुद० पृ० १३२) उशी (स्त्री०) इच्छा, वाञ्छा, चाह, कामना, अभिलाषा। उशीरः (पुं०) [वश्+ईरन् कित्, उप्+कीरच ] खस, सुगन्धित जड विशेष, जो गर्मी में शीतलता प्रदान करती है। (वीरो० १२/१४) उषु (सक०) १. जलाना, प्रज्वलित करना, २. दण्ड देना. पीटना, चोट पहुंचना। ३. उपभोग करना। उषः (पुं०) [उष्+क] १. प्रातः, प्रभात, सुबह। २. लम्पट, ३. असर भूमि। उषणं (नपुं०) [उप्+ ल्युट्] १. काली मिर्च, २. अदरक, सौंठ। उषपः (उष+कपन्) १. अग्नि, तेज। २. सूर्य, रवि। उषस् (स्त्री०) [उष्+असि] प्रातः, प्रभात, प्रात:काल, सुप्रभात, पौ फटना। उपसि दिगनुरागिणीति पूर्वा' (जयो० १०/११६) उपसि-प्रात:काले (जयो० वृ० १०/११६) २. सन्ध्यासमय'तरूणिमायमुषो ऽरूणिमान्विति' (जयो २५/५) 'उषस:-सन्ध्याकालसमस्य' (जयो० वृ० २५/५) उषा (स्त्री०) प्रातः, प्रभातकाल, प्रभातवेला। 'उषा बाणसुतायां स्यात्प्रभातेऽपि विभावरौ' इति विश्वलोचन:' (जयो० २२/२५) उषित (वि०) निवासित, स्थित, रहता हुआ। * प्रकाशित। उषीरः (पुं०) खस, एक सुगन्धित जड़। उष्ट्रः (पुं०) [उप्+ष्ट्रन्-कित्] ऊँट, मयवर्ग 'मापनामुष्ट्राणां वर्ग: समूहो वेगतो व्रजति' २. भैंसा, ३. सांड। (जयो० १३/३३। उष्ट्रदेश: (पुं०) उष्ट्र नाम का देश। उष्ट्रदेशधिपाः (पुं०) उष्ट्रदेश का राजा। (वीरो० १५/२९) राजा यम, यम। सुधर्म स्वामिन् पार्श्व उष्ट्रदेशाधियो यमः। (वीरो० १५/२९) उष्ट्रपिष्टः (पुं०) ऊँट की पीठ। उष्ट्र-समूहः (पुं०) ऊँट वर्ग, मय वर्ग। (जयो० १३/३३) उष्ट्रारोहिन् (वि०) सादिवर, उष्ट्रसवार। (जयो० १८/७३) १० For Private and Personal Use Only Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra उष्ट्रिका उष्ट्रिका (स्त्री०) १. ऊँटनी, २. मृणमयपात्र, सुराही । उष्ट्री (स्त्री०) ऊँटनी | उष्ण (वि०) १. तेज, अग्नि, ताप, गर्म (जयो० ६ / २९ ) 'उपति दहति जन्तुमिति उष्णम्' (जैन०ल० २८४ ) 'मादेवपाकदुष्ण' (जैन०ल० २८४) उष्णकलित (वि०) तेजस्वता युक्त प्रभावान्। 'उष्णकलिते वह्नितप्ते' (जयो० वृ० ७/६१ ) उष्णकर: (पुं०) सूर्य, रवि। उष्णगु: (पुं०) सूर्य, दिनकर, रवि, आदित्य । उष्णनाम: (पुं०) उष्ण नाम कर्म, जिस कर्म के उदय से शरीर गत पुद्गलस्कन्धों में उष्णता होती है। उष्ण-परिषहः (५०) उष्णपरिताप उष्णं निदाघादितापात्मकम् केवल० २८५) उष्ण परिषह सहनं (नपुं०) उष्णता का कष्ट सहना, दाहकता का प्रतिकार। उष्णयोनि (स्त्री०) उष्ण उत्पत्ति स्थान उष्णः संताप पुद्गल प्रचय प्रदेशो वा' (मूला०यू० १२/५८) उष्णरश्मि: (पुं०) सूर्य, दिनकर (वीरो० १२ / २ ) उष्ण सच्छविः (स्त्री० ) उष्णता युक्त छवि। 'ऐरावण उष्णसच्छविम्' (वीरो० ७/१०) उष्णस्पर्शः (पुं०) तेज स्पर्श, वह्नि स्पर्श । उष्णालु (वि०) (उष्णा-आलुच) संतप्त तेज युक्त, अधिक गर्मी । उष्णिका ( स्त्री०) मांद, चावल का मांद। + उष्णिमन् (०) [ उष्ण इमनिच्] गर्मी तेज, वह्नि उष्णीष: (पुं०) पगड़ी साफा, शिरोवेष्टन। 'उष्णमीषते हिनस्ति' उष्णीषिन् (वि) [उपीष इनि] पगड़ी वाला, शिरोवेष्टन · www.kobatirth.org उह उहह (अव्य० ) विस्मयादि बोधक अव्यय । उह्नः (पुं० ) [ वह रक्। सांड बलिवर्द। + २२५ युक्त। उष्म: (पुं०) १. तेज, गर्मी, वह्नि, अग्नि। २. क्रोध, कोप । ३. उत्कण्ठा, उल्लास। उष्मन् (पुं०) उष्मनिन्] १. गर्मी, ताप, ज्वलन, तेज। २. वाष्प, भाप, ३. ग्रीष्म ऋतु। ४. उत्सुकता । उष्मभास: (पुं०) सूर्य, रवि, दिनकर । उम्र: (पुं०) (यसुरक्] प्रकाश, किरण, प्रभा, आभा, रश्मि। उहू (अक० ) चोट करना, पीड़ित करना, घायल करना, नष्ट करना। Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ऊ ऊ (पुं०) संस्कृत वर्णमाला का छठा स्वर, जिसका उच्चारण स्थान ओष्ठ है। ऊः (पुं० ) [ अवतीति-अव्+ क्विप्-ऊठ्] १. शिव शंकर, महादेव २. चन्द्रा ऊ (अव्य० ) विस्मयादि बोधक अव्यय, जिसमें करुणा का भाव रहता है। आह्वान की प्रतीति भी होती है। ॐ (पुं०) श्रुतविहित मन्त्रा ॐ पुण्याहमित्यादि सूक्तैश्च (जयो० वृ० १२ / ६५ ) ऊढ (वि० ) [ वह् +क्त] १. ढोया गया, ले जाया गया। २. विवाहित, पाणिग्रहीत। न करोत्यनूढा स्मयकौ तु कं न (सुद०२/२१ ) ऊढा (स्त्री०) विवाहित स्त्री। ऊरु: ऊढि (स्त्री० ) [ वह क्तिन्] विवाह, प्राणिग्रहण | ऊति (स्त्री०) (अब क्तिन्) १ बुनना, सीना। २. सुरक्षा। ३. उपभोग। ४. खेल क्रीड़ा। ऊधस् (नपुं० ) [ उन्द्+असुन्] ऐन, औहुरी ऊधन्यं (नपुं०) दूध । ऊन (वि०) [अन्+अच्] कम, अपूर्ण, अपर्याप्त, अपेक्षाकृत, हीन ऊनस्य नूनं भरणाय सन्ति (जयो० ५/८२) ऊनस्य - हीनस्य (जयो० वृ० ६/८२) कनुः (स्त्री०) जुआ (जयो० २७) ऊनोदरः (पुं०) एकासन व्रत, बाह्य तप का द्वितीय भेद । अवमौदर्य (जयो० २८/११ ) ऊनोदरता (वि०) स्वल्प भोजन ग्राहकता। (जयो० वृ० २८/११ ) कनोदलता (वि०) स्वल्प भोजन ग्राहकता ऊनोदलतां ररभेदा दूनोदरताम् । - For Private and Personal Use Only ऊनोदलताश्रित (वि०) १. जल की कमी से युक्त । २. स मारवाहेण नाम देशेन अभ्यतीतः सन्नपि उदलतां जल युक्ततां न श्रितः । (जयो० वृ० २८ / ११ ) ऊभ् (अव्य० ) [ ऊय् + मुक्] विस्मयादि बोधक अव्यय । इस शब्द से प्रश्न, क्रोध, भर्त्सना, दुर्वचन आदि का बोध होता है। ऊयु (सक०) बुनना, सीना, सिलाई करना। ऊररी (अव्य०) सहमति या स्वीकृति सूचक अव्यय । ऊरीकृत (वि०) अंगीकृत, स्वीकृत (जयो० वृ० १/८० ) ऊरव्यः (पुं०) [ऊरु+यत्] वैश्य, वर्ण का तृतीय वर्ग । ऊरु: (पुं०) (ऊर्णु+कु] १. जंघा, जांघ (जयो० १ / १९) २. Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ऊरुपर्वन् २२६ ऊर्ध्वातिक्रमः पुष्ट, परिपुष्ट, दीर्घ, बृहत्, (जयो० वृ० १/१९) कलत्रं ऊर्ध्वकाय (वि०) उठी हुई काया। हि सुवर्णोरुस्तम्भं कामिजनाश्रयम् (जयो० ३/७२) 'ऊरवो ऊर्ध्वकेश (वि०) ऊर्ध्व केश युक्त। दीर्घा स्तम्भा यस्य तत् ऊरू एव स्तम्भो यस्य तत्' (जयो० ऊर्ध्वक्रिया (स्त्री०) उन्नत क्रिया, ऊपर की गति। वृ० ३/७२) 'हंसा स्ववंशोक्तसरोवरस्य' (जयो० ७/४३) ऊर्ध्वगतिः (स्त्री०) श्रेष्ठ गति, सिद्धगति। ऊरुपर्वन् (पुं०) घुटना। ऊर्ध्वगामिन् (वि०) ऊँची ओर जाने वाला। ऊरुफलकं (नपुं०) जांघ की हड्डी । ऊर्ध्वचरणं (नपुं०) उच्च चरण, उन्नत पाद। ऊरुयुगं (नपुं०) जङ्घायुगल, दोनों जवा। ऊर्ध्वजानु (वि०) उठे हुए घुटनों वाला। ऊरुयुग्म् (नपुं०) 'सुवृत्त-भावादिवलेन चोरुयुगेन (जयो० ५/८१) । ऊर्ध्वजानुज्ञ (वि० ) उठे हुए घुटनों वाला। ऊरुयुगे-जङ्घायुगते। (जयो० वृ० ५/८१) जघन युगल ऊर्ध्वतासामान्य (वि०) पूर्वापर काल भावी पर्यायों में व्याप्त। (जयो० ५/४६) ऊर्ध्व-दृष्टि: (स्त्री०) दीर्घ दृष्टि, उन्नत दृष्टि, उच्चदृष्टि। ऊर्जः (पुं०) [ऊर्जूणिच्+अच्] १. शक्ति, बल, स्फूर्ति, ऊर्ध्वदिग्वतः (पुं०) उर्ध्वदिशा सम्बंधी प्रमाण। उर्ध्वा दिग सामर्थ्य, जीवन, प्राण। २. सत्त्व। ३. कार्तिकमास (मुनि० ७) उर्ध्वदिग, तत्सम्बन्धि तस्यां वा व्रतं उर्ध्व दिग्व्रतम्। ऊर्जस् (नपुं०) [ऊ+असुन्] बल, शक्ति, सामर्थ्य, प्राण। ऊर्ध्वदेहः (पुं०) १. विशाल काय, २. अन्त्येष्टि संस्कार। ऊर्जस्वत् (वि०) [ऊर्जस्+मतुप्] १. शक्तिशाली, शक्तिमान। ऊर्ध्वपातनं (नपुं०) ऊपर आरोहरण कराना, परिष्करण थर्मामीटर २. भोज्य युक्त, आहार युक्त। का पारा चढ़ाना। ऊर्जस्वल (वि०) [ऊर्जस्व लच्] महत्, बड़ा, शक्तिशाली, ऊर्ध्वपात्रं (नपुं०) उच्च पात्र, सुपात्र। दृढ़। ऊर्ध्वमुख (वि०) ऊपर मुख करने वाला। (वीरो० ५/२) ऊर्जस्विन् (वि०) [ऊर्जस्+विन्] महत्, बड़ा, शक्तिधारक, ऊर्ध्वमौहूर्तिक (वि०) थोड़ी देर होने के पश्चात् पश्चात्वर्ती। बलिष्ट। ऊर्ध्वरेणुः (वि०) आठ श्लक्ष्णश्लक्ष्णिकाओं का समुदाय। ऊर्जस्विनी (स्त्री०) कार्तिक मास। पञ्चम्या नभसः प्रकृत्यभव- ऊर्ध्वरेतस् (वि०) ब्रह्मचर्य में स्थित रहने वाला। तादूर्जस्विनी या ह्यमा (मुनि० पृ०७) ऊर्ध्वलोकः (पु०) उपरिम लोक, मृदङ्गाकार लोक। ऊर्जित (वि०) [ऊर्ज़ क्त] शक्तिशाली, दृढ़, तेजस्वी, स्फूर्ति। उवरिमलोयायारो उब्भियमुरवेण होइ सरिसत्तो। (ति०प० ऊर्ण (नपुं०) [ऊणुउ] ऊन, ऊनी वस्त्र। १/१३८) ऊध्वलोकस्त मृदङ्गाकार:' (जैन०ल० २८६) ऊर्णनमिः (पुं०) मकड़ी, वयनकोट। 'वयनकोटवद् ऊर्णनाभ ऊर्ध्ववातः (पुं०) ऊपर स्थित वायु। इवायं' (जयो० वृ० २५/७३) ऊर्ध्ववायुः (पुं०) शरीर जन्य वायु। ऊर्णा (स्त्री०) [ऊर्ण टाप्] १. ऊन, २. भौंह का मध्यवर्ती ऊर्ध्वव्यतिक्रमः (पुं०) ऊँचे पर्वत आदि का उल्लंघन। भाग। "शैलाधारोहणमूर्ध्वव्यतिक्रम' (त०७० ७/३०) 'वृक्षऊर्णायु (वि०) [ऊर्णा+यु] ऊनी। पर्वताद्यारोहणमूर्ध्वव्यतिक्रमः' (कार्तिकेयानुप्रेक्षो ३४१) ऊर्णायुः (पुं०) १. भेड़, मेंढा, मेष। २. मकड़ी। ऊर्ध्वाशायिन् (वि०) १. ऊपर की ओर मुख करके सोने ऊर्ण (सक०) ढकना, घेरना, आच्छादित करना, छिपाना।। वाला। २. खड़े होकर शयन करने वाला। 'स्थित्वा शयनं ऊर्ध्व (वि०) [उद्-हा] ऊपर का, उन्नत, उठाया गया. खड़ा चोर्ध्वशायीं उभीभूय शयनमूर्ध्वशायी-(भ०आ० वृ०/२२५) हुआ। 'तदनन्तरमूर्ध्व गच्छत्यलोकान्तात्' (सम्य० १९) ऊर्ध्वसामान्यं (नपुं०) जो वस्तु को व्याप्त करे अपनी पर्यायों ऊर्ध्वं (नपुं०) उन्नत, ऊँचा, बड़ा, उठा हुआ। के स्वभाव को व्याप्त करे। सद्भिः परैरातुलितं स्वभावं ऊर्ध्वकच (वि०) खड़े केशों वाला। स्वव्यापिनं नाम दधाति तावत्। ऊर्ध्वकर (वि०) ऊँचे हाथ करने वाला। ऊर्ध्वसूर्यगमनं (नपुं०) सूर्य के ऊपर गमन। 'उड्ढमूरी य ऊर्ध्वकपाट (वि०) उपरिम कपाट, लोक की स्थिति विशेष ऊर्ध्वं गते सूर्ये गमनम्' (भ०आ०२२२) 'उर्ध्वं च तत् कपाटं च उर्ध्वकपाटम्' ऊर्ध्वं कपाटमिव | ऊर्ध्वातिक्रमः (पुं०) ऊर्ध्व ग्रहण की गई मर्यादा का अतिक्रमण। लोकः (धव० १३/३७९) 'तत्र पर्वतोद्यारोहणादूवा॑तिक्रमः' (त० वा० ७/३०) For Private and Personal Use Only Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ऊध्वायत २२७ ऋक्षचक्र ऊर्ध्वायत (वि०) ऊपर की ओर, उच्चैलम्बमान। दधतां सुसृणिं चिन्तन, मुक्ति देना। (जयो० वृ० १८/२) 'ऊहो त्वरावता शिर ऊर्ध्वायतदन्तमण्डलम्' (जयो० १३/३६) वितर्को येषु तस्य भाव:' (जयो० वृ० ६/४) ऊर्वी (वि०) ऊर्ध्वमुख, ऊँचे की ओर। 'अवगृहीतार्थस्यानधिगतविशेष उह्यते तळते अनया इति' ऊर्मि: (स्त्री०, पुं०) [ऋ+मि-अर्तेरूच्च] १. लहर, तरंग, (धव० १३/२४२) अवग्रह गृहीत पदार्थ का विशेष अंश भाग। (जयो० १०/८७) २. धारा, प्रवाह, गति, वेग। नहीं जाना गया, उस पर विचार करना। (जया० ४/१९)। ३. पंक्ति, रेखा राजि। ४. चिन्ता, कष्ट। 'विज्ञातमर्थमवलम्ब्यान्येषु व्याप्ता तथाविध-वितर्कणमूह:' ऊर्मिका (स्त्री०) लहर, तरंग, रेखा, पंक्ति। (नीतिवाक्यामृत ५/५०) ऊर्मिकाङ्कित (वि०) १. शाखा प्रशाखा युक्त। २. लहरों से ऊहक्रमः (पुं०) कल्पना परिपाटी (जयो० वृ० २८/४४) अंकित, रेखांकित। ऊर्मिकाङ्कित सन्तानां मत्तवारणराजिका।' ऊहनं (नपुं०) अनुमान बना। (जयो० १०/८७) ऊहसत्ता (स्त्री०) तर्क-वितर्कभाव। (वीरो० २/३९) ऊर्व (वि०) [ऊरु+अ] विस्तृत, बड़ा। ऊहपना (वि०) तर्क-वितर्कपना। (वीरो० २/३९) ऊर्वरा (स्त्री०) उपजाऊ भूमि, कृषि योग्य भाग। ऊहपात्री (वि०) तर्क-वितर्कभाव वाला। (वीरो० ३/१८) ऊलुपिन् (पुं०) सूंस, शिशुक। ऊहा (स्त्री०) तर्क-वितर्क, अनुमान, विचार, चिन्तन, ऊलूकः (पुं०) उल्लू। व्याप्तिज्ञान। 'उह्यते तय॑ते अनया इति ऊहा' (धव० ऊष् (अक०) रुग्ण होना, बीमार होना, अस्वस्थ्य होना। १३/२४४) ऊषः (पुं०) [ऊष+क] १. प्रभात, प्रातः, २. उपज विहीन ऊहापोहः (पुं०) तर्क-वितर्क। (वीरो० ३/१८) भूमि। ३. अम्ल, दरार। ऊहिन् (वि०) तर्क, करने वाला। ऊषकं (नपुं०) [ऊ+कन्] प्रभात, प्रातः। ऊहोचित स्थानं (नपुं०) तर्कणा का कारण। 'बहुलोहीचितऊषणं (नपुं०) [ऊष्ल्युट्] काली मिर्च, अदरक। स्थानोऽपि' (दयो० पृ०६८) ऊषरः (पुं०) उपज रहित भू-भाग, रिहाली भूमि, मरुधरा, सिकतिल प्रदेश। 'तत्परिणतिं प्रापोषरे बीजवत्।' (जयो० २४/१३६) 'ऊपरं नाम यत्र तृणादेस्सम्भवः'। (श्रावक ऋ प्रज्ञप्तिः ४७) ऋः (पुं०) संस्कृत वर्णमाला का सप्तम स्वर। इसका उच्चारण ऊषरटकः (पुं०) ०ऊपर भूमि, सिकतिल प्रदेश। मरुधारा। स्थान मूर्द्धा है। (जयो० २/५) 'तवदूषरटके किलाफले का प्रसक्तिः ' ऋ (अव्य०) विश्मयादिबोधक अव्यय। इसका प्रयोग निन्दा, ऊषवत् (वि०) ऊषर भूमि, मरुधरा। गर्दा, परिहास आदि में किया जाता है। ऊष्मन् (पुं०) [ऊष्+ मनिन्] १. गर्मी, ताप, अग्नि, ग्रीष्म ऋ (सक०) १. जाना, कांपना, उठाना। (अर्पयति, अरिरिषति) ऋतु, भाप, वाष्प। २. प्रचण्डता, तीव्रता। ३. ऊष्म ध्वनि २. आक्रमण करना, घायल करना, चोट पहुंचाना। ३. विशेष-श, ष, स और ह ध्वनियां। रखना, स्थापित करना, निर्देश देना। ऊष्मवर्णः (पुं०) ऊष्मवर्ण की ध्वनियां श, ष, स और ह। ऋ (स्त्री०) १. अदिति, देवमाता। २. निन्दा, गर्हा, ग्लानि। ऊष्माणो नाम वर्णा: श-ष-स-हा (जयो० वृ० ११/७८) ऋक् (स्त्री०) १. ऋचा, सूत्र, मन्त्र। २. स्तुति, पूजा, अर्चना। ऊष्मा (स्त्री०) १. ऊष्मवर्ण -श-ष-स-ह। २. सन्ताप, उष्णता। ऋकण (वि०) घायल, आहत, चोट ग्रस्त। यदेव भूयोऽपि पयोनिपीतमन्तः स्थितोष्मातिशयेन हीतः। ऋकथं (नपुं०) [ऋच्+थक्] धन, वैभव, सम्पत्ति, सामग्री। (जयो० १३/१००) ऋक्सुधा (स्त्री०) ऋग्वेद मंत्र का अमृत। नीतिवाक्यमृत। ऊहू (सक०) १. अंकित करना, टांकना, चिह्नित करना। २. (जयो० ७) अनुमान लगना, समझना, सोचना, चिन्तन करना। ३. ऋक्षः (पुं०) [ऋष्+स+किच्च] १. रीक्ष, भालू, भल्लू। २. तर्क करना, विचार करना। नक्षत्र, तारा। ३. राशि, चिह्न। ऊहः (पुं०) [ऊह्+घञ्] वितर्क, तर्कणा, अनुमान, | ऋक्षचक्र (नपुं०) तारा मण्डल, नक्षत्रसमूह। For Private and Personal Use Only Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ऋक्षनाथ: २२८ ऋतुकौतुकी ऋक्षनाथः (पुं०) नक्षत्र स्वामी। ऋज्ची (स्त्री०) [ऋजु+ङीष्] १.गोचर भूमि, समश्रेणी में ऋक्षनेमिः (पुं०) विष्णु। अवस्थित भूमि। २. सरलमनस्विनी। ऋक्षरः (पुं०) [रुष्+क्सरन्] १. ऋत्विज, २. कंटक, कांटा, शल्य। ऋणं (नपुं०) १ ऋण, कर्ज, उधार लेना। २. दायित्व, कर्त्तव्य। ऋक्षवत् (वि०) पर्वत तुल्य। ऋणग्रहः (पुं०) रुपया उधार लेना। ऋग्वेदः (पुं०) ऋग्वेद, वेद ऋचा का एक नाम। (दयो० २६) ऋणदायिन् (वि०) ऋण देने वाला, उधार देने वाला। ऋग्वेद-मण्डलः (पुं०) ऋग्वेद के अध्याय। (दयो० २७) ऋणदासः (पुं०) क्रीत दास। ऋच् (अक०) १. प्रशंसा करना, स्तुति करना, २. चमकना. ढकना। ऋणभार्गणः (पुं०) प्रतिभूति, जमानता ऋच् (स्त्री०) [ऋच्+क्विप्] सूक्त, ऋचा, मंत्र। २. दीप्ति, ऋणमुक्त (वि०) उधारी से रहित। प्रभ कान्ति। ऋणरहित (वि०) अनृणत्व, उधारी से रहित। (जयो० वृ० ऋविधानं (नपुं०) ०मन्त्र अनुष्ठान, मन्त्रपाठ, सूक्त २०/७०) विधि, वेदमंत्र पाठ। ऋणिकः (पुं०) [ऋण+ष्ठन्] कर्जदार, ऋणाभूत। ऋचीषः (पुं०) [ऋच्+ईषन्] घण्टी। ऋणिन् (वि०) [ऋण इनि] १. ऋणग्रस्त, कर्जदार, २. ऋच्छ (अक०) १. कठोर होना, दृढ़ होना। २. जाना। अनुगृहीत, आभारी। 'चक्रधरेषु सतामृणी' (जयो० ९/८२) ऋच्छका (स्त्री०) [ऋच्छ कन्+टाप्] वाञ्छा, अभिलाषा, ऋणीकृत् (वि०) ऋणी/अनुगृहीत की गई। 'ऋणीकृताहं च इच्छा , चाह। कदानृणत्वं' (जयो० २०/७०) ऋज् (सक०) १. गमन करना, २. प्राप्त करना, ग्रहण करना। ऋणीत्थ (वि.) कृतज्ञ, अनुगृहीतार्थ। 'गुरोऋणीत्थं विचरेदपि ३. स्थिर होना। ४. उपार्जन करना। ज्ञः' (वीरो० १७/३१) ऋजु (वि०) [अर्जयति गुणान्, अर्जू+उ] सरल, ०सीधा, | ऋत (वि०) [ऋ+क्त] सत्य, हितकर, समीचीन, उचित। स्पष्ट, उत्तम, योग्य, अनुकूल। अपि त्वयि महावीर, 'ऋतं प्राणिहितं वचः' (हरिवंश पुराण ५८/१३०) स्फीतां कुरुमधु मयि! (वीरो० २२/४०) ऋतं (अव्य०) निषेध वाचक अव्यय। बिना, नहीं, उचित रीति ऋजुक (वि०) सीधा, सरल, अनुकूल, स्पष्ट। 'जो जधा से, सही ढंग से। 'ऋते तमः स्यत्क्वरवे: प्रभावः' (वीरो अत्थो दिट्ठो तं तधा चिंत यंतो मणो उज्जगो' (धव० १/१८) १३/३३०) जो जैसा अर्थ/पदार्थ दृष्ट है, वह वैसा चिंतनीय ऋतधामः (वि०) उचित स्वभाव वाला। मन ऋजुक है। ऋतिः (स्त्री०) अमंगल, अशुभ, निन्दा, गाँ। 'ऋतिर्गतौ जुगुप्सायां ऋजुता (वि०) सरलता, सीधापन, सरलभाव वाली, स्पष्टता, स्पर्धायामप्यमङ्गले' 'इति विश्वलोचन' (जयो० १०/११०) मायाचार रहित प्रवृत्ति। (जयो० ८/१२४) ऋतीया (स्त्री०) [ऋत् + ईयङ+ टाप] निन्दा, गरे, ऋजुमतिः (स्त्री०) सामान्य ग्राहक बुद्धि, सरलग्राहक बुद्धि। अमंगलकामना। ज्ञान का भेद, मनःपर्यय ज्ञान का भेद। ऋज्वी मतिर्यस्य ऋतुः (स्त्री०) [ऋ+तु+कित] मौसम, दो मास की एक ऋतु, सोऽयं ऋजुमतिः (स० सि० १/२३) वर्तमान समय में जो वसंतादि ऋतु। 'मेघमानित ऋतौ विनश्यता' (जयो० ७/६९) बात किसी के मन में हो, उसके जानने वाले ज्ञान को 'वे मासे उडू' (धव० १३/३००) द्वाभ्यां मासाभ्यामृतुः' ऋजुमति कहते हैं। यह उपशम श्रेणी वाले को होती है। (नियमासार वृ० ३/३१) २. बुद्धि विभव 'वरः तीक्ष्णः 'णमो उजुमदीणं च' (जयो० १९/६५) ऋतुर्बुद्धि विभवो यस्याः सत्यपि सुलोचना। ३. उपयुक्त ऋजुसूत्रं (नपुं०) वर्तमान काल ग्राहक, वर्तमान का एक समय, उचित समय। ३. ऋतुकाल-मासिक धर्म (स्त्री का समय मात्र। यह नय-तीनों कालों के पूर्वा पर विषयों को मासिक धर्म) छोड़कर वर्तमान का ग्राहक है। 'ऋजु प्रगुणं सूत्रयति ऋतुकालः (पुं०) १. ऋतु काल, (जयो० २/१२४) तन्त्रयतीति ऋजुसूत्रं (स० सि० १/३३) पच्चप्पण्णग्गाही 'ऋतुकालोऽस्ति निवृते' (सुद० ११३) २. आर्तव, रक्तस्राव, उज्जुसुओ' (जैन०ल० २८८) ऋजुसूत्रस्य पर्यायः प्रधानम्। मासिक धर्म, (मुनि० २८) (लघीयस्त्रय ४३) ऋतुकौतुकी (स्त्री०) वसन्त ऋतु, कौतुक/आनन्द को उत्पन्न For Private and Personal Use Only Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ऋतुदानं २२९ ऋषभावतार: करने वाली ऋतु, 'नर्मश्री ऋतुकौतुकीव सकलो बन्धुः' ऋद्धिगौरवः (पुं०) ऋद्धि की सम्पन्नता, गुणता। ऋद्धि(वीरो० ६/३७) प्राप्त्यागासहता ऋद्धिगौरवं परिवारे कृतादर:' (भ० आ० ऋतुदान (नपुं०) स्नेहदान, प्रिया के ऋतुकाल में स्नेहदान। टी० ६१३) ऋतुता (वि०) ऋतु युक्त, ऋतुकाल वाली। ऋध (सक०) १. सम्पन्न होना, समृद्ध होना, सफल होना। ऋतुपर्यायः (पुं०) ऋतुओं का परावर्तन। २. बढ़ना, वृद्धि होना। ३. संतुष्ट होना, तृप्त होना। ऋतुप्रदानं (नपुं०) ऋतुदान। (जयो० २/१२३) ऋभुः (पुं०) देव, दिव्यता, देवता। ऋतुमासः (पुं०) तीस दिन रात का महिना. कर्ममास, सावनमास। ऋभुक्षः (पुं०) (ऋभवो देवा क्षिपन्ति वसन्ति अत्रेति 'ऋतुरेवार्थात् परिपूर्णत्रिंशदहो रात्रप्रमाणः, एष एव ऋतुमासः ऋभु+क्षि+उ) इन्द्रलोक। इन्द्र। कर्ममास इति वा सावनमास इति वा व्यवह्यिते' (जैन०ल० ऋभुदिन् (पुं०) इन्द्र, शक्र. पुरन्दर, देवाधिपति। पृ० २९१) ऋल्लकः (पुं०) यन्त्र, वाद्य यन्त्र। ऋतुराड (पुं०) ऋतुराज, वसन्तु ऋतु। (जयो० वृ० १/७७) ऋश्यः (पुं०) [ऋष्+क्यप्] बारहसिंघ, हिरण। ऋतुसंवत्सरः (पुं०) तीन सौ साठ दिन, ऋतुवर्ष-'ऋतवो ऋष् (सक०) १. पहुंचना, जाना, प्राप्त होना। २. मारना, चोट लोकप्रसिद्धाः वसन्तादयः तत्प्रधानः संवत्सर: ऋतुसंवत्सर:' पहुंचाना, प्रहार करना। (जैन०ल० पृ० २९) ऋषदा (वि०) पाषाण, पत्थर। (सुद०४/३०) ऋतूत्तम (वि०) ऋतुओं में उत्तम। 'ऋतूत्तमेनेव धरातलेऽस्य' | ऋषभः (पुं०) [ऋष्+अभक्] १. प्रधान, प्रमुख, ०श्रेष्ठ, वसन्तनाम्ना सुमनोहरण' (समु० ६/३१) उत्तम। जगति भास्कर एष नरर्षभो। (जयो० १/९६) ऋते (अव्य०) बिना, अतिरिक्त, सिवाय। 'न वस्तुसत्त्व तमृते नरर्षभो-नरोत्तमो-(जयो० वृ० १/९६) २. संगीत के सात समस्तु' (सम्य० ७१) 'रुच्या न जातु तमृते सकला स्वरों में द्वितीय स्वर 'मिषान्विादर्षभमात्रगम्या' (जयो० समस्या' (सुद० ८६) ११/४७) 'षड्जर्षभ गान्धार-मध्यम-पञ्चमधैवतऋद्ध (भू० क० कृ०) [ऋथ+क्त] समृद्ध, वृद्धिगत, वर्धमान। निषादनामकेषु सप्तस्वरेषु' (जयो० वृ० ११/४७) ३. बैल, (जयो० १/१७) ०बलीवर्द-'तवर्षभस्य नरोत्तमस्य' (जयो० १९/१८) ४. ऋद्धः (पुं०) विष्णु। ऋषभ, ऋषभदेव, आदिनाथ का नाम, अन्तिम कुलकर ऋद्धदेशः (पुं०) समृद्धदेश, 'ऋद्धो देशो यस्य तं' (जयो० वृ० नाभिराय के पुत्र का नाम। जो प्रथम तीर्थंकर के नाम से १/१७) प्रसिद्ध हैं, जिनके ऋषभ-बैल चिह्न है। (दयो० ३१) ऋद्धिः (स्त्री०) [ऋध्। क्तिन्] १. वृद्धि, समृद्धि, वैभव ऋषभस्य- नाभेयस्य (जयो० वृ० २४/१२) नाभेरसा वृषभ सम्पन्नता। २. विस्तार, विभूति। (जयो० वृ० ५/१४) आस सुदेवसुनू' (भागवत ३/२०) ऋद्धि वारजनीव गच्छति, वनी सैषान्वहं श्रीभुवम्' (वीरो० ऋषभनाथः (पुं०) प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव, जिन्हें आदिनाथ, ६/३७) 'यदीयापदरीतिऋद्धिम्' (जयो० १/३१) ३. आदिब्रह्मा भी कहते हैं। युगादिभर्ता भी कहा गया। युगादिभर्तुः भोग-उपभोग के साधन, सम्पदाएं ४. शक्ति विशेष-अणिमा, श्री ऋषभनाथ-तीर्थंकरस्य। (जयो० १/४३) महिमा, प्राप्ति (मुनि० १५) प्राकम्य। ईसत्व, वशित्व, ऋषभनाराचं (नपुं०) कीलिका रहित संहनन, संहनन विशेष। काम और रूप। अणिमा महिमा लहिमा पत्ति-पागम्म ('यत्र तु कीलिका नास्ति तदृषभनाराचम्' (जै०ल०२९१) ईसित्तं वसित्तं काम रूवमिच्चेवमादियाओ अणेगविहाओ ऋषभदेवः (पुं०) आदिनाथ, आदिदेव। (दयो० ३०, ३१) इद्धीओ णाम' (धव० १४/३२५) ऋद्ध श्रीतपसश्च ऋषभदेववरः (पुं०) पुरुवर, आदिदेव, वृषभदेव, आदिब्रह्मा, सम्पदसकौ नामोपयोगाय वै भ्राता बाहुबलेर्वभूव भरतः महादेव, वृषभस्वामी, वृषभप्रभु, आदिप्रभु। (जयो० वृ० कीदङमहानुत्सवः स्वस्या एव समद्धितो न नरकं द्वीपायन: १२/१०९) किं गत स्तम्माद् वाञ्छसि चेद् हितं स्वविभवे साम्येन ऋषभप्रभुः (पुं०) ऋषभदेव, आदि तीर्थंकर आदि प्रभु। भूयारतः। (मुनि० १५) (जयो० वृ० ७३३) ऋद्धिगारवः (पुं०) बड़प्पन प्रकट करना। ऋषभावतारः (पुं०) ऋषभदेव का जन्म, प्रथम तीर्थंकर का For Private and Personal Use Only Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ऋषभेश्वरः २३० एकतः जन्म। (दयो० ३१) 'अस्यर्षभावतारस्य प्रशंसा मार्कण्डेय- ए: (पुं०) [इ+विच्] विष्णु। पुराणकूर्मपुराणाग्पुिराण-वायु-शिवपुराणादिषु च वर्तते किल | ए (अव्य०) विस्मयादिबोधक अव्यय, जिससे निन्दा, घृणा, यस्यानुयायिन आर्हता भवन्ति। (दयो० पृ० ३१) सप्त- । ___ भर्त्सना, करुणा, आमन्त्रण, स्मरण आदि का बोध होता है। द्रयोदार-कुलङ्कराणामन्त्यस्य नाभेर्मरुदेवि आणात्। सीमन्तनी एक (सर्वनाम) १. अकेला, एकाकी, एकमात्र! (सम्य० ३१) तत्र हृदेकहारस्तत्कुक्षितोऽभूद्, ऋषभावतार:।। (वीरो० कौमारमेवे गृहितांच केऽपि। (जयो० १/१०) 'लोकाग्रगा११/५) विश्व-विदेकभावानह' (सम्य० ५८) एकदेश (जयो० ऋषभेश्वरः (पुं०) ऋषभदेव, आदिनाथ. तीर्थकर वृषभदेव। १/८) २. अद्वितीय, अनुपम-'एकमभवत्तु शर्मणाम', अनन्य (हित० सं०८) (वीरो०१/५) (जयो० ३/३) ३. कोई, एक दूसरा, अन्य, ऋषिः (पुं०) [ऋष+इन्] मुनि, योगी, तपस्वी, ध्यानी, विरक्त। अपर, प्रधानभूत (जयो० १२/११) 'एकोऽस्ति चारुस्तु (मुनि० ३१) 'ऋषिभिः-कुन्दकुन्दादिभिः' (जयो० वृ० भवेदभिज्ञः' (सुद० पृ० १२१) 'पवित्रमेकं प्रतिभाति तत्र' २७/२०) (सुद० १/१४) ऋषिपंचमी (स्त्री०) एक तिथि विशेष, भाद्रपदकृष्णा पंचमी एकक (वि०) अकेला, एकाकी, एकमात्र। 'संलिखत्यथ कुमार को होने वाला एक पर्व। एककः' (जयो० २/१३) एकक:-केवलोलिखति (जयो० ऋषिपादः (पुं०) ऋषि चरण। 'उत्तमाङ्ग सुवंशस्य यदासीद् वृ० २/१३) 'एककं एकमेव पुरुषं' (जयो० वृ० २/१५३) ऋषिपादयोः' (सुद० ४/४) एककन्धा (स्त्री०) एकमात्र गुदड़ी। (वीरो० वृ० २२/२) ऋषिराजन् (पुं०) ऋषिराज। (दयो० ११९) एककर (वि०) एक ही कार्य करने वाला। ऋषिवरः (पुं०) तपस्विराज, संयतमुनि। 'भवानृषिवरः सुमनः एककान्ता (वि०) अद्वितीय सुन्दर। (वीरो० २१/१) समुदायवान्' (सुद० ४/१) एककार्य (वि०) एक ही कार्य करने वाला। ऋषिस्तुतिः (स्त्री०) ऋषि गुणगान। एकगिह (नपुं०) एक गृह, एक घर। ऋषिस्तोत्रं (नपुं०) मुनि स्तुति काव्य। एकगुरु (वि०) एक गुरु वाला। ऋष्टिः (पुं०/स्त्री०) [ऋष्+क्तिन्] असि, खग, तलवार, एकगुरुक देखो ऊपर। अत्यंत तेजधार वाली तलवार। एकाग्रता (वि०) तल्लीनता. विचार निमग्न। तस्मिन् संप्रवृत्तस्य ऋष्यः (पुं०) बारहसिंघा, सफेद बारहसिंघा। मानसमगादकाग्रता चेत्तदा' (मुनि० २१) ऋष्यकः (पुं०) चित्तीदार हिरण, बारहसिंघा। एकचक्र (वि०) एक पहिए वाला, सुदर्शन चक्र। एकं चक्रं सुदर्शनाख्यं यस्य स एकचक्र:' (जयो० वृ० ८/५) 'एवैकं चक्र रथाङ्गं यस्येति' (जयो० ११/२२) ऋ एकचत्वारिंशत् (स्त्री०) इकतालीस। ऋ (अव्य०) विस्मयादिबोधक अव्यय, जिसमें निन्दा, घृणा, एकचर (वि०) एकाकी विचरण करने वाला। त्रास आदि का भाव रहता है। एकचारिन् (वि०) अकेला विचरणशील। ऋः (पुं०) भैरव, एक राक्षस एकचेतस् (वि०) एक मत, एक विचार धारा वाले। ऋ (सक०) जाना, पहुंचना, प्राप्त होना, हिलना। एकजन्मन् (पुं०) नृप, नराधिप। एकजात (वि०) एक माता-पिता से उत्पन्न। , एकजाति: (स्त्री०) एक ही परिवार/कुल। (जयो० १९/४२) सहोदर। एकजातीय (वि०) एक ही परिवार वाले। ए: (पुं०) संस्कृत वर्णमाला का ग्यारहवां अक्षर, इसका एकतः (अव्य०) [एक तसिल्] एक ओर से, एक एक उच्चारण स्थान कंठ एवं तालु है। यह 'अ+इ=ए' के योग करके, एक पार्श्व। किमु वर्मविरोधिनो जना अधुना से बनता है। चापसरेत चैकतः। (जयो० १३/१३१) अधुना चैकतोऽ-- ए (सक०) प्राप्त होना, जाना-ऐति-(सुद० ८५) पसरेत-एकपार्वे स्थितो भवेत्।' (जयो० वृ० १३/१३) For Private and Personal Use Only Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir एकतल २३१ एकदंडिन् एकतल (अव्य०) एकमात्र, अकेला, एकाकी। 'मित्र: एकत्र चैकत्वमनेकताऽऽपि, पवित्रकतले ऽभिलाष्यम्' (जयो० २७/१७) किमङ्गभर्तुर्न धियाऽभ्यवापि।। (वीरो० १९/२३) एकतमा (म्बी) एक विपत्ति, एक संकट। 'परिणता विपदेकता 'सेना' यह एक नाम है, उसमें अनेक हाथी, घोड़े, पयादे यदि' (जयो० ९/२) आदि होते हैं। जिसे 'वन' कहते हैं, वह एक है, उसमें एकतान (वि०) एक करवट, नितान्त ध्यानमग्न, एकाग्र चित्त, नाना जाति के वृक्ष पाए जाते हैं। एक स्त्री को 'दारा' एक और केन्द्रित। 'किलैकपाश्र्वेन चिदेकतानः' (जयो० बहुवचन से और जल को 'अप्' बहुवचन से कहा जाता २७/४९) एकतानो-अनन्यवृत्ति:-एकवर। (जयो० वृ० है। इस प्रकार एक ही वस्तु में एकत्व और अनेकत्व की २७/४९) 'पूज्यो महात्माऽत-पदेकतानः' (सुद० ११८) प्रतीति होती है। एकतत्त्वं (नपुं०) एक मात्र तत्त्व। स्यूति पराभूतिरिव ध्रुवत्वं एकत्वविक्रिया (स्त्री० ) अभिन्नविक्रिया। पर्यायस्तस्य यदेकतत्त्वम्' नोत्पद्यते नश्यति नापि वस्तु एकत्ववितर्कः (पुं०) क्षीण गुणस्थानवर्ती का ध्यान। शुक्लाग्निसत्त्वं सदैतद्विदधत्समस्तु।। (वीरो० १९/१६) जैसे पर्याय । नैकत्ववितर्कनाम्ना ध्यानेन सम्परितधन्यधाम्ना। (भक्ति० की अपेक्षा वस्तु में 'स्तृति' (उत्पत्ति) और 'पराभूति' पृ० ३२) (विपत्ति/विनाश) पाया जाता है, उसी प्रकार द्रव्य की | एकत्ववितर्कावीचारः (पुं०) शुक्लध्यान युक्त चिन्तन। 'एकस्य अपेक्षा ध्रवपना भी उसका एक तत्त्व है, जो कि उत्पत्ति भाव: एकत्वम्, वितर्को द्वादशाङ्गम्, असङ्क्रान्तिरवीचारः और विनाश में बराबर अनुस्यूत रहता है। इस प्रकार एकत्वेन वितर्कस्य अर्थ व्यञ्जन-योगानामवीचारः। उत्पाद, व्यय और ध्रुव इन तीनों रूपों को धारण करने असंक्रातिर्यस्मिन् ध्याने तदेकत्व वितर्कावीचारं ध्यानम्।' वाली वस्तु को भी यथार्थ मानना चाहिए। (वीरो० (धव० १३/७९) हि०१९/१६) एकत्वानुप्रेक्षा (स्त्री०) एकत्वभावना, बारह भावनाओं/अनुप्रेक्षाओं एकता (स्त्री०) एक निष्ठता, एक रूपता। (जयो० २६/२५१) में चतुर्थ भावना, इसमें यह चिन्तन करना कि जीव तन्मयता (भक्ति० २१) 'या बिभर्ति परमेकताकिणम्' अकेला उत्पन्न होता है, अकेला ही कर्म उपार्जित करता (जया० २/१५५) है और अकेला ही उनका उपभोग करता है। एकतालः (पुं०) संगीत, स्वर, नृत्य, वाद्य आदि। एकत्र (अव्य०) [एक+त्रल्] एक स्थान पर, सामूहिक, एक एकतिलकर (वि०) अद्वितीय तिलक। (वीरो० ४/४०) साथ, इकट्ठे। 'एकत्र गत्वा भवेत्' (मुनि० वृ० २८) एकतीर्थिन् (वि०) एक ही धर्म परम्परा वाले। दार्शनिक दृष्टि से-एक ही वस्तु में 'सत्' और 'असत्' की एकत्व (वि०) एक रूपता, सामञ्जस्य, समत्वभाव। (जयो० । प्रतिष्ठा, एकत्र तस्मात्सदसत्प्रतिष्ठामङ्कीकरोत्येव जनस्य २६/८६) निष्ठा। (वीरो० १९/४) एकत्वप्रत्यभिज्ञानं (नपुं०) प्रत्यक्ष और स्मृति से युक्त ज्ञान, | एकत्रिंशत् (स्त्री०) इकतीस। एकत्व को विषय करने वाला ज्ञान। 'पूर्वोत्तर-दशाद्वय- | एकत्राडित (ति०/) एक ही अंकन पत्र वाला। 'एकत्र-एकस्थानेव्यापकमेकत्वं प्रत्यभिज्ञानस्य विषयः। तदिदमेक एकस्मिनेवाङ्कनपत्रे' (जयो० वृ० १५/८१) प्रत्यभिज्ञानम्' (न्यायदीपिका-३/५६) एकदा (अव्य०) एक बार, एक समय। (वीरो० २/१४०) एकत्वभावना (स्त्री०) अकेला ही विचार, एकाकी विचार। (सुद० ४/१७) एकदा स्तवक-गुच्छ नगरादवहिरास्थितः। बारह भावना या अनुप्रेक्षा में चतुर्थ भावना-मैं ही मेरा हूं (समु० २/३१) इस प्रकार का विचार करना (तत्त्वार्थ० पृ० १४४) एकदासी (स्त्री०) सेवा करने वाली गृहिणी, एकमात्र गृहिणी। 'एकाक्येव जीव उत्पद्यते, कर्माणि उपार्जयति, भुङक्ते त्वमेकदा विन्ध्यागिरेनिवासी भिल्लस्त्वदीयांघ्रियुगेकदासी। चेत्यादि चिन्तनमेकत्वभावना।' (जैन०ल० २९२) (सुद० ४/१७) एकत्वमनेकता (वि०) एकत्व और अनेकत्व की प्रतीति। एकदंतः (पुं०) एक दांत वाला, गणेश। सेना वनादीन् गदतो निरापद्, एकदंष्ट्रः (पुं०) एक दांत वाला गणपति। दारान् स्त्रियां किञ्च जलं कि लापः। एकदंडिन् (वि०) एक दण्डधारी। For Private and Personal Use Only Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org एक दीपक: एक दीपक: (पुं०) एकमात्र दीपक (सुद० १३५ ) एकदृष्टि (वि०) १. एक अक्षिवाला, २. एकाग्र दृष्टि वाला । एकदेव : (पुं०) परमब्रहा । एकदेश: (पुं०) एक स्थान, एक प्रदेश, (जयो० १/३) एक भाग, आशिक, एक अंश 'पादैकदेशच्छविभाक प्रसन्निभृतः ' एकदेशकारिणी (पुं०) एक अंश को नष्ट करने वाली । (जयो० ११/१३) एकदेशसरिणी (स्त्री०) एक अंश को नष्ट करने वाली । (जयो० ११ / १३) एकदेशच्छेदः (पुं०) एक अंश का विनाश, 'निर्विकल्पसमाधिरूप सामायिक स्वैदर्शन च्युतिरेकदेशच्छेदः। (प्रवृ० उद०३/१०) एकदेशपरित्यागः (पुं०) एकदेश / एक अंश का परित्याग । 'एकदेशपरित्यागात् सुगतिं श्रयते पुमान्' (दयो० पृ० १२१ ) प्रत्येक समय संतोष धारणकर तृष्णादि से दूर रहना। एकदेशच्छेदः (वि०) १. एक अक्षिवाला, २. एकाग्र दृष्टि वाला। एकधर्मन् (वि०) एक ही धर्म वाला एक ही प्रकार के गुणों का धारक । एकधमिन् (वि०) एकधर्म धारक । 1 एकधा (अव्य०) १. एक तरह से एक प्रकार से। २. अकेले। एकधारा (स्त्री०) एक ही विचार पद्धति। (वीरो० १९ / १०) एकनवतिः (स्त्री० ) इक्यानवें । एकनाव: (पुं०) एकमात्र नाव / नौका 'क्षमाब्रह्मगुणैकनावे' (सुद० पृ० १०३) एकपक्ष: (पुं०) एक दल एक आधार, एक सम्मति, एक विचाराधारा। एकपत्नी (स्त्री०) सपत्नी, एकपत्नी, पतिव्रता नारी । एकपदी (स्त्री०) पगडंडी, छोटा रास्ता ! एकपदे (स्त्री०) अकस्मात् एकदम, अचानक । एकपादः (पुं०) १. एक चरण, काव्य का अंश। २. एक पैर । ३. तपश्चरण का एक आधार । एकपादस्थान (नपुं०) एक पैर पर स्थित होकर तपश्चरण । 'एगपाद- एगेन पादेनावस्थानम्' (भ०आ०वि०२२३) एकपोष: (पुं०) एकमात्र आशीर्वाद 'रोषो न तोषो जगदेकपोष' (जयो० २७/२१) एकप्रत्ययः (पुं०) एक नाम का कारण, एक व्यवहार का २३२ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir एकवचन कारण। एकभिधान- व्यवहारिभिबन्धन प्रत्यय एक: । ( धव० ९/१५१ ) एकार्थविषय प्रत्ययः एकः (अवग्रह: ) ( धव० १३/२३६) एकभक्त (वि०) एक ही बार भोजन करना । एकस्यां भक्तवेलायां आहारप्रणमेकभक्तमिति (मूला०वृ० १/३५) " एकबन्धु (नपुं०) एकमात्र मित्र एक सखा । भवान्धु सम्पादित नैकबन्धुः' (सुद० १/३) एकभाग: (पुं०) एक मात्र हिस्सा एक अंश। (दयो० १८) एकभाव: (पुं०) एक अभिप्राय, एक विचार । 'तान्येकभावेन जना श्रयन्तु' (वीरो० १९ / ११ ) एकभिक्षानियम (पुं०) एक ही घर पर भिक्षा / आहार का नियम, क्षुल्लक का आहार नियम, आहार प्रतिमा । 'एकस्यां एकगृहसम्बन्धिन्यां भिक्षायां नियमः प्रतिज्ञा यस्य स एकभिक्षानियमः । (सा०ध० ७ / ४६ ) एक-भेद (पुं०) एकमात्र अन्तर, एक लक्षण | एकमति: (स्त्री०) आत्माधीन बुद्धि । (जयो० २७/५३) एकमात्रं (नपुं०) एक ही अकेला, एकांकी। (जयो० वृ० २७/२१) एकमेक (वि०) वीप्सात्मक प्रयोग, परस्पर एक-दूसरे में समाहित। (समु० ८/४४) एकमेव (अव्य०) एकमात्र ही अकेला ही (जयो० ८१/१९) एकयत्नः (पुं०) एक ही प्रयत्ना एकयष्टिः (स्त्री० ) एक लड़ी, मोतियों की एक लड़ी। एकयोनिः (स्त्री०) एक जन्म, एक उत्पत्ति स्थान । एकयोनि (वि०) १. एक ही जाति वाला। २. आनन्द भाव । एक राग : (पुं०) अकेला राग भाव। एकराजन् (पुं०) एकाकी नृप निरंकुश नृप। एकरात्रिकी (वि०) रात्रि में एकाकी उपसर्ग सहन करने वाला, भिक्षुप्रतिमा धारी। निमर्मत्व रात्रि में ध्यान करने वाला। एकरूप (वि०) एक समान, एक जैसा, सादृश्य ही । एकल (वि०) [ एक ला क] एकाकी, अकेला, एकमात्र । एकलापी (वि०) १. एक स्थान वाला, एक विचार वाला । २. समानार्थक- द्राक्षा गुडः खण्डमथो सिताऽपि माधुर्यमायाति तदेकलापी (वीरो० १९/९) एकलिंग (पुं०) एक लिंग, एक चिह्न । एकलोक: (पुं०) एक विश्व, एक जगत् । एकवचनं (नपुं०) १. एक संख्या वाला शब्द, धातु एवं शब्द For Private and Personal Use Only Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir एकवर्ग: एकाग्रत्व का एक वचन। २. एककथनं, एक निरूपण, एक | एकसूत्रं (नपुं०) एक उत्पत्ति, एक जन्म। 'किलार्कदेवः स विचार, एक पद्धति, एक परम्परा। मुदेकसूत्रः' (समु०६/२४) एकवर्गः (पुं०) एक समूह, एक भेद। एकस्थल (नपुं०) एकतल, एकस्थान। (जयो० २७/१९) एकवर्णः (पुं०) १. एक जाति। २. एकाक्षर। एकस्थानं (नपुं०) एकमात्र स्थान, एकमात्र आश्रय, एकमात्र एकवस्तु (नपुं०) एक पदार्थ। (सुद० ११७) 'ज्ञानामृतं आधार, एकमात्र निवास। भोजनमेकवस्तु' (सुद० ११७) एकस्थितिः (स्त्री०) कर्म की एक स्थिति। 'एया कम्मस्सा एकवाक्य (वि०) एक वाक्य, एक मात्र वचन। ट्ठिदी एयट्ठिदी णाम। (जप०धव० ३/१९१) एकवाणी (स्त्री०) एक विचार, एक कथन। एक-स्वभाव: (पुं०) भेद कल्पना रहित स्वभाव, शुद्ध एकवारं (अव्य०) केवल एक बार ही, तुरंत ही, उसी समय। द्रव्यार्थिकनय का स्वभाव। 'भेद संकल्पनामुक्त एक स्वभाव एकवारे (अव्य०) तुरन्त ही, उसी समय, तत्काल। आहितः' (जैन०ल० २९६) एकविंशति (स्त्री०) इक्कीस। एक-हस्तः (पुं०) एकमात्र हाथ। एकवित्त (नपुं०) एकमात्रधन। (सुद० ११८) एकहस्तावलम्बिन् (वि०) एकमात्र आधारभूत, एकमात्र आश्रय। एकविध (वि०) एक ही प्रकार का। 'गतिर्ममैतस्मरणैकहस्तावलम्बिनः' (सुद० १/३) एकविधप्रत्ययः (पुं०) एक ही जाति का ग्राहक प्रत्यय, एकजाति- एकरा (स्त्री०) एकमात्र, एकाकी, अकेला। (जयो० १/१०) विषयः प्रत्यय: एकविधः। (धव० १३/२३७) 'एकजाति एक भी। (जयो०) 'तस्यैका तनया राज्ञो राजते कौमुदाश्रया' विषयत्वादेतत् प्रतिपक्षः प्रत्ययः एकविधः।' (धव० ९/१५२) (जयो० ५/३७) एकविध-बन्धः (पुं०) एक मात्र बन्ध, सातावेदनीय बन्ध/ एकाकि (वि०) [एक आकिनच्] एकान्त, शून्य स्थान वाला, एकविधावग्रहः (पुं०) एक प्रकार के पदार्थ को जानना, एक अकेला, निर्जन। (दयो० ४२, ६२) 'एकाकि एवाङ्गज! मे जाति का वाञ्छा। 'एगजाईए ट्ठिदएयस्म बहूण वा कुलायः' (समु० ३/६) एकाकिने धूमसमं तमस्तु गह्नमेयविहावग्गहो' (धव०६/२०) 'एकजातिग्रहणमेका- वाष्पाम्बुपूरोदयकारि वस्तु। (जयो० १६/६) उक्त पंक्ति विधावग्रहः' (मूला०वृ० १२/१८७) में 'एकाकिन' का अर्थ विरही, विरह से युक्त भी लिया एक-विहारी (वि०) एकाकी विचरण करने वाला। है, 'एकाकिने विरहणे जनाय' (जयो० वृ० १६/६) एकवृत्तं (नपुं०) ०एक बात, एक भाव, एक विचारधारा, एकाकिन् देखो ऊपर। एकमात्र प्रवृत्ति। 'भव्यव्रजं भव्यतमैकवृत्तः' (सुद० २/३१) एकाकिता (वि०) एकाकी पर, अकेलापना 'तयोरथैककिताऽन्वये "एकवृत्तमिति स्वामिन्न विक्षिप्त इतीष्यते' (समु० ३/३८) त' (सम्य०२३) 'भेकाः किलैकाकितया लपन्तः' (वीरो०४/१७) एकश: (अव्य०) ०एक एक करके, ०एक प्रकार का, केवल, एकाकित्व (वि०) एकाकीपन। एकाकित्वमिदं ससख्यमशनाभावं मात्र, एकाकी। 'स्नपनभावमितः प्रभुरेकशः' (जयो० ९/५४) | समिष्ठाशनम्। (मुनि० २५) एकशेष (वि०) एक शब्द शेष, समास में एक शेष। एकशेषो ! एकाकिनी (वि०) अकेली रहनी वाली, (दयो० १११) एका नाम समासो-रामश्च, रामश्च रामश्चेति रामाः' (जा- किनीनामधुना वधूनामास्वाद्य मांसानि मृदूनि तासाम्' (वीरो० वृ० २६/८५) ४/१४) एकसंघः (पुं०) एक समुदाय, एक समूह। एकाकी (वि०) स्वयमन्वयसहाय एव, एकान्त, अकेला ही, एकसद्मन् (नपुं०) एक स्थान। (जयो० ९/५) अपने आप से युक्त। (जयो० १९) 'मयैकाकी किलैकदा' एकसदनं (नपुं०) एक भवन। (सुद० ८३) मैं एक बार एकान्त में था। एकसप्तति (स्त्री०) इकहत्तर। एकाकीह (वि०) अकेला ही, एकमात्र ही। 'एकाकीह एकसिद्धः (पुं०) एक समय में मुक्त। 'एकस्मिन् समये एक जरत्कुमारशरतो वृत्तं प्रकृत्या हि तत्' (मुनि० २४) एव सिद्ध' (जैन०ल० २९६) एकाग्र (वि०) दत्तचित्त, लीन, संयमित। (जयो० २७/५८) एकसिद्धकेवलज्ञानं (नपुं०) एक जीव के सिद्ध होने पर एक अग्रं मुखं, एकमग्रस्येत्येकानः। केवलज्ञान। | एकाग्रत्व (वि०) वृत्तचित्तपना, संयमितता। (जयो० २७/५८) For Private and Personal Use Only Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir एकाग्रचिन्तानिरोधः २३४ एकैक एकाग्रचिन्तानिरोधः (पुं०) अनेक चिन्ताओं से रहित, ध्यान- एकान्तसात (वि०) एकमात्र दाता को प्राप्त। शील। 'एकाग्रे चिन्तानिरोधः एकाग्रचिन्तानिरोधः' (त० एकान्त स्थान (नपुं०) निर्जन स्थान, शून्य आवास। वा० ९/२७) एकान्तस्थिति (स्त्री०) निर्जनस्थान में वास। 'एकान्ते-निर्जने एकाग्रमनं (नपुं०) कर्म रहित मन, ध्यानशील मन। देशे स्थितिमभ्यगाद्' (जयो० वृ० २८/१२) एकाक्षः (फं) एकेन्द्रिय। 'एकाक्षिवह्नयब्धिहणीकभाजा' (भक्ति०३९) | एकायित (वि०) एकता युक्त, समन्वय युक्त, साहचर्य पूर्ण। एकाक्षर (वि०) ग्यारवां। (जयो० २८०४०) 'स्वात्मनैकायितोऽप्यभूत्' एकादश-अंग (पु०) ग्यारह अंग ग्रन्थ विशेष। एकावग्रहः (पुं०) एक ही वस्तु में जानने का भाव। 'एकस्सेव एकादश-द्वारं (नपुं०) शरीर के ग्यारह द्वार/छिद्र। वस्थुवलंभी एयावग्गहो' (धव० ६/१९) एकादशप्रतिमा (स्त्री०) ग्यारह प्रतिमा। एकाशनं-देखो नीचे। एकादशसर्गः (पुं०) ग्यारह सर्ग। एकासनं (नपुं०) ऊनोदरव्रत, तप का द्वितीय भेद। एक बार एकादशाङ्गवेत्ता (वि०) ग्यारह अंग सूत्रों का ज्ञाता। (जयो० भोजन ग्रहण, नियमपूर्वक एक बार आहार ग्रहण। वृ० १२३/८७) 'नैकासनकासनिताप्यसुप्ता' (जयो० १७/१८) एकादशी (वि०) ग्यारस। (दयो० १११) एकाशनत्वमभ्यस्येद् द्वयशनोऽह्नि सदा भवन। (सुद० १३१) एकादशीप्रतिमा (स्त्री०) ग्यारहवीं प्रतिमा। एकाशनक (वि०) एक अशन वाला। (जयो० ६/१००) एकादशोपासक संश्रय (वि०) श्रावक की ग्यारह प्रतिमा का | एकिका (वि०) एकीभाव, एकात्मकता। रेखैकिका नैव लघुर्न आश्रय। (भक्ति० ४२) एकादशोपासकसंश्रयेषु, भिक्षोरथ गुर्वी लब्ध्याः परस्यां भवति स्विदुर्वी।: (वीरो० १५५) द्वादशसु स्थलेषु' (भक्ति० ४२) अपेक्षा विशेष से वस्तु में छोटा एवं बड़ापन होता है। न एकाधृत (वि०) एक आधार वाला। (समु०८/४८) 'एकाधृता कोई रेखा छोटी होती है और न कोई बड़ा होती है। नीतिरभक्ष्यवृत्तिः' (समु०८/४८) एकीभावः (पुं०) १. साहचर्य, संहति। २. सामान्य स्वभाव, एकानेकात्मक (वि.) एकात्म और अनेकात्म रूप। एकत्व सामान्य गुण। और अनेकत्व रूप। (वीरो० १९/२३) एकीभावस्तोत्रं (नपुं०) स्तोत्र नाम, आचार्य वादिराज द्वारा एकान्त (वि०) एकान्त दृष्टि, (सुद० ९१) उपस्थिते वस्तुनि रचित स्तोत्र (ई०१०१०-१०६५) २६ संस्कृत श्लोक में वित्तिरस्तु नैकान्ततो वाक्यमिदं सुवस्तु। (वीरो० २०/१५) भक्तिपूर्ण आध्यात्मिक वर्णन है। १. अंत की संभवत:। जं तं एयाणंतं तं लोगमज्झादो एकीभू (अक०) एक होना, साहचर्य होना, समन्वय होना। एगसेढि पेक्खमाणे अंताभावादो एयाणंतं (धव० ३/१६) (भक्ति० ३०) 'एकीभवन्त्यत्र सदात्मवत्ता'। २. एकाग्र-त्यक्त्वा देहगतस्नेह मात्मन्येकान्ततो रतः। (सुद० | एकीय (वि०) १. साहचर्य युक्त, सहकारी। २. एक या एक से। १३५) ३. निश्चित रूप, नियमा श्यामं मुखं मे विरहैकवस्तु एकेन्द्रियः (पुं०) एक स्पर्शनेन्द्रिय। एदेण एक्कण इंदिएण जो ह्येकान्ततो रक्तमहो मनस्तु। (जयो० १६/१२) जाणदि पस्सदि सेवदि जीवो सो एंददिओ णाम। (धव० एकान्त-असात (वि०) असाता रूप मात्र ही। ७/६२) एकान्ततः नियम से, निश्चित रूप से। (सम्य० ८/४२) | एकेन्द्रियजाति (स्त्री०) एकेन्द्रिय में जन्म। 'यदुदयादात्मा 'एकान्ततोऽसावुपभोगकाल:' (सुद० १२०) एकेन्द्रिय इति शब्द्यते तदेकेन्द्रियजातिनाम।' (स० सि० एकान्ततयानुरागः (पुं०) एक मात्र अनुराग। (वीरो० २१/१९) ८/११) एकान्तनिष्ठ (वि०) एकान्त युक्त। (जयो० १०/१००) एकेन्द्रियजीवः (पुं०) पृथ्वी आदि एक इन्द्रिय वाले जीव। एकान्तप्रचण्ड (वि०) एक मात्र तेजस्विता। (जयो० वृ० २६/२३) | जिसकी एक ही इन्द्रिय हो। (वीरो० १९/८) एकान्त-मिथ्यात्वं (नपुं०) एक ही धर्म का अभिनिवेश/आग्रह। | एकेन्द्रियभेदः (पुं०) एकेन्द्रियों के भेद। एकान्तवादः (पुं०) एक ही है ऐसा पक्ष। (जयो० १८/४५) एकेन्द्रियलब्धि: (स्त्री०) एकेन्द्रिय की शक्ति प्राप्त जीव/लब्धि एकान्तवासः (पुं०) एकाकी निवास, एकाग्रता में स्थित। प्राप्त जीव। (जयो० वृ० १८/४५) एकैक (वि०) वीप्सात्मक प्रयोग, एक से एक, एक एक। For Private and Personal Use Only Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir एकैकश २३५ एतावन्तक (वीरो० १९/३५७) (सुद० १२७) (जयो० ८४८४) 'एकैकया एत् (अक०) प्राप्त होना-एतुः (सुद० ४/३४) एति (सुद० कपर्दिकया खलु वित्तं बहु निचितम्' (जयो० २३/५९) (जया० २३/५९) १/४६) एकैकश (वि.) एक साथ एक। 'एकैशशो मुक्त इयान्न रोधः' | एत (वि०) कान्तिमान, रंगों से युक्त। (वीरो० २०/१२) एतद् (वि०) यह, यहां। १. पूर्वकथन के रूप में प्रयोग। २. एकोनविंशति (स्त्री०) उन्नीस। (दयो० २४) समास में प्रयुक्त। ३. सम्बोधन के बाद प्रयुक्त होने वाला। एकोनविंशसर्गः (पु०) उन्नीसवां सर्ग। (पुं०) एषः, (स्त्री) एषा, (नपुं०) एतद्। (सम्य०९४) एकोन्यत (वि०) एक दूसरे से युक्त। (सम्य० २३) 'इक्षुयष्टिरिवैषाऽस्ति' (जयो० ३/४०) 'एषा बाला सुलोचना' एक्य (वि०) एकमात्र। 'पुनरञ्चति चैक्यं स्वस्य' (सुद०७०) (जयो० वृ० ३/४०) एषा बाला, चञ्चले' (जयो० वृ० एज् (अक०) १. कांपना, हिलना। २. चमकना। ३/४२) ये दोनों प्रयोग पूर्वकथन के रूप में हैं। 'स्म न एजक (वि०) कांपने वाला, हिलता हुआ। शेते पुनरेष शायित:' (सुद० ३/२६) एतस्य-(सुद० ३/३३) एजनं (नपुं०) [एज्+ ल्युट] कांपना, हितना, चलायमान होना। षष्ठी एकवचन, तनये मन एतस्मिन् (जयो० ६/७७) एट् (सक०) छेदना. रोकना, विरोध करना। सप्तमी एकवचन। एतन्नगरं समन्तात् (सुद० १/२९) एड (वि०) [इल अन्-डलयोरभेद:] बहरा, नहीं सुनने वाला। (नपुं० एकवचन) तमेनं विधुमालोक्य। (सुद० ३/४४) एडः (पुं०) भेड, मेप, एक विशेष भेड। एतक (वि०) पूर्वोक्त। (जयो० २/५०) एडकः (पुं०) भेटु, मेष। एतदीय (वि०) [एतद् छ] इसका, इसकी। (समु०८/४) एडका (स्त्री०) भेड़ी, मेषी। ऐसा, ऐसी। एतदीय चरितं खलु शिक्षा वा। (जयो० एणः (पुं०) [एति द्रुतं गच्छति इति, इ+ण] हरिण, बारासिंघा, ५/४०) 'एतदीयकबरीति नाम दिक्' (जयो० ११/९६) मृग। (दयो० ९६) 'छायासु एणः खलु यत्र जिह्वानिलीढ- विशेष प्रकार की केश रचना। 'एतदीय-रदनच्छदसारौ' कान्तामुख एप शेते।' (वीरो० १२/९, ९/४९) 'विपद्य वटै (जयो० ५/४८) उसके दोनों औंठ। चमरेणदेहितामवाप' (समु० ४/१४) समीप के वन में एतदीयत् (वि०) ऐसा, ऐसी। 'भुजङ्गतो भीषण एतदीयद्विष' पाप के कारण चमर मृग हुआ। (जयो०८/५८) एणकः (पुं०) [इ+ ण+कन्] मृग, हिरण। एतन: (पुं०) [आ+इ+तम्] श्वास, सांस, उच्छवास। एणगण: (पुं०) हिरण समूह, मृग समुदाय। (वीरो० २१/१०) एतल्लोक (पुं०) यह संसार। (जयो० २७/६४) एणतिकल: (पुं०) चन्द्र। एतर्हि (अव्य०) अब, इस समय। एणनाथः (पं०) मृगराज। (सुद० १/३१) 'समग्रं भू- | एदशी (वि०) ऐसी। (सुद० पृ० ८४) सम्भवदेशनाथ:' (सुद० १/३१) । एतादृक् (वि०) ऐसा, इस प्रकार का। (जयो० १/५, सम्यक एणमदः (पुं०) कस्तुरी। (जयो० ५/६१) 'दृशि चैणमदः ४५) इतना, इससे अधिक, इतनी दूर। (सुद० ९६) कपोलम' (जयो० १०/५९) (जयो० २३/८४) इस समय ऐसा प्रयत्न होना चाहिए। एणमदकः (पुं०) हिरण, एणस्य मदक। (जया० २०८२) एतादृशी (वि.) ऐसी, इस तरह की, इतनी। (जयो० ५/१०१ एणशावः (पुं०) १. मृग पुत्र, २. चन्द्रमृग। 'जीवति किलैणशावोऽसावोजस्के तदङ्गगत:' (जयो० ६/४५) 'नामैतदृशी पुण्यपाकतः' (जयो० ३/५६) एतादृक्षी (वि०) ऐसी, इस तरह की, इतनी। एणशावदृक् (वि०) मृगलोचन, मृगाक्षी। (जयो० ११/५) एणा (स्त्री०) मृगी, हिरणी। (सुद०८८) एतावत् (वि०) [एतद्+वतुप्] ऐसा, इतना, इससे अधिक, एणाक्षी (वि०) मृगनवनी, मृग के नेत्रों वाली। 'वस्तु मेणाक्षीणां इतनी दूर। 'समुन्मत्ते किमेतावत्' (सुद० वृ०८४) मनस्युदारे' (सुद० ८८) एतावती (वि०) इतनी, ऐसी, इससे अधिक। (जयो० २७/४५) एणी (स्त्री०) काली हिरणी. कृष्ण हिरणी। एतावन्तक (वि०) इतना मात्र ही, ऐसा ही, इस तरह का ही। एणीदृक् (वि०) मृगाक्षी, मृगीनेत्र वाली, मृगनयना। (जयो० 'एतावन्तकदे शिलाविव गतौ' (जयो० २३/५५) एतौ ३/५५) 'वेणीयमेणीदृश एव भायाच्छ्रेणी' (जयो० ११/७०) कपोतजम्पती किलान्तकेनयमेन देशितो-संकेतिताविव' एणीहक् (पुं०) मकरराशि। (जयो० २३/५५) For Private and Personal Use Only Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir एतावन्मात्र २३६ एषणाशुद्धिः एतावन्मात्र (वि०) इतना ही, ऐसा ही। एतु-प्राप्त हो। (जयो० 'समञ्चतोत्येव हि सम्यगस्ति' (सम्य० वृ० ४) २७/४२) (जयो० वृ० २२/४) सम्यक्त्वमेवानुवदामि' (सम्य० पृ० ४) एव-जहां, जिस एत्थं (अल्य०) इस प्रकार, ऐसा। (सम्य० ४३) जगह 'मुक्तामया एव जनाश्च' (सुद० १/२८) एव-तो, एत्य (सं०कृ०) प्राप्त होकर. जाकर। 'येन कर्णपथतो हृदुदारमेत्य' तु, फिर, ही। (जयो० वृ० १४३) श्रोणी महती सैव मोदको (जयो० ४/५३) एत्य गत्वा। (जयो० वृ० ४/५३) संकुच रूपौ। (जयो० ३/६०) एदृगमयि (अव्य०) ऐसा भी, इस तरह का भी। (सुद० १०५) एव तु (अव्य०) फिर भी, जहां पर। (सुद० १/३३) एधु (अक०) १. उगना, बढ़ना, फलना-फूलना। एधयन् एवमेव च (अव्य०, और इस तरह की। (जयो० १/५१) वर्धयन् (जयो० वृ० १०/८२) २. नमन करना, आदर एवमैवेति (अव्य०) इसी तरह का ही। (जयो० वृ० १/९०) देना, सम्मान करना। एवयत्र (अव्य०) जहां पर तो। पलाशित किंशुक एवं यत्र एध: (पुं०) ईंधन, अग्नि में जलाने की लकडी। द्विरेफबर्गे मधुपत्त्वमत्र। (सुद० १/३३) एधतुः (पुं०) [ एध्+ चतु] १. बह्नि, अग्नि। २. नर, मानव। एवं (अव्य०) (इ+वम्] अतः, इसलिए, इस रीति से इस एधस् (नपुं०) ईंधना प्रकार से। (जयो० १० १/२) एवं सुमंत्र वचसा भुवि एधा (स्त्री०) [एध् + अ टाप्] आनन्द, प्रसन्नता। भोगवत्या (सुद० पृ०८०) एधित (भू० क० कृ०) आन्नदित, प्रफुल्लित, हर्षित, विकसित। | एवं च (अव्य०) ऐसा भी, इस तरह का भी. और इसी रीति एनस् (नपुं०) [इ+असुन्] पाप, अशुभ प्रवृत्ति, दोष, अपराध, से। (सुद० ४८) कलुष। स्वयं प्रवर्तन्त इतः किमेन: (भक्ति० २७) एवमस्तु (अव्य०) ऐसा ही हो. इस प्रकार का हो। एनोऽपराधे कलुषे इति विश्वलोकनः गणिकाऽऽपणिका एवं आदि (अव्य०) इस प्रकार का ही। किलैनसा' (जयो० २/१३३) एनां (जयो० १/२१), एना: एवं गुण (वि.) इस तरह (सुद० २/३६) 'एवं प्रकारेण (जयोल १३) समुज्जगर्ज' (सुद० २/३६) एनपरिहर्ता (वि०) पापहर्ता, पापपरिवर्जक (जयो० २३/४५) एवंभूत (वि.) इस प्रकार के गुणों का। एनस्वत् (वि०) पापी, अपराधी, दुष्ट प्रवृत्ति वाला। एवंभूतः (पुं०) एवं भूतनय, जो दव्य जिस प्रकार की क्रिया एनस्विन् (वि०) पापी, अपराधी। में परिणत हो, उसी प्रकार का निश्चय कराने वाला नय। एन्द्री (वि०) प्रकाशवान्। (सुद० ३/१) 'येनात्मना भूतस्तेनैवाध्यवसाययतीति एवं भूतः' (स० सि० एरः (पुं०) राम के गुरु, विद्या गुरु। (प०पु०२५/५५) १/३३, ता वा० १/३३) 'पदगतवर्णभेदाद वाच्यभेदस्याध्यवएरण्डः (पु०) [आ+ईर्+अण्डच्] अरंडी का पौधा। सायकोऽप्येवम्भूतः' (धव० १/९०) उसी रूप परिणत हुए एरित (वि०) प्रेरित, प्रेरणा प्राप्त। (जयो० वृ०६/१) पदार्थ को उस शब्द द्वारा ग्रहण। (तत्त्व०२७. १/३३) एलकः (पुं०) भेड़, मेष! एवकार (वि०) ऐसा ही है, निपात, व्यतिर चक/निवर्तक या एलमूकः (पुं०) जड़, भाषाजड़, अव्यक्तशब्दभाषी। नियामका एवकार तीन अर्थों में प्रयुक्त होता है। एला (स्त्री०) इलायची। अयोगव्यच्छेदक, अन्ययोगव्यत्छेदक और अत्यन्ता योग एलाचार्यः (पुं०) कुन्दकुन्द का अपर नाम, कुरलकाव्य के व्यच्छेदका रचनाकार। एवावृति (स्त्री०) इस प्रकार की आवृत्ति। (समु० ९/२१) एलीका (स्त्री०) छोटी इलायची। एशित (वि०) विजयी। (मुनि० ११, सुद० २/४१) एपि खेमें। एलेयः (पुं०) राजा दक्षका पुत्र। एष् (सक०) जाना, गमन करना, पहुंचना। एव (अव्य०) [इ. वन्] किसी द्वारा कथित वचन को बल देने एषणं (नपुं०) [एष्+ ल्युट्] लोह बाण। के लिए इस अव्यय का प्रयोग होता है। जिसका अर्थ-ही, एषणं (नपु०) खोजना, अन्वेषण करना। ऐसा. ठीक है, उचित है, वही, इतना ही, ऐसा ही। एषणा (स्त्री०) १. आहारादि अन्वेषण। २. अन्वेपिणी। (जयो० 'दापमा । दुर्जन एव भाति' (समु०१/२४) दुर्जन दोष ही १३/४३) ग्रहण करता है। स्वयं पुना रौरवमेव याति' (समु० १/३४) | एषणाशुद्धिः (स्त्री०) आहारादि शुद्धि। For Private and Personal Use Only Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir एषणासमितिः २३७ ऐक्षक एषणासमितिः (स्त्री०) मुनि आहारचर्या की समिति। उद्गमदोष | ऐकागारिकः (पुं०) [एकागार+ठञ्] १. चोर, २. एक घर का वर्जन विधि। 'अन्नादावुद् गमादि-दोष-वर्जन गृहस्था मेषणासमितिः।' (त० वा० ९/५) दोष रहित अन्नपान का ऐकाग्रयमात्मन् (वि०) एकाग्र युक्त आत्मा। 'ऐकाग्रयमात्मग्रहण। (त०९/५) प्रकृतोपयोगे' (समु० ८/३४) एषणिका (स्त्री०) स्वर्णकार की तराजू। ऐकाग्रयं (नपुं०) एक रूपता, एकाग्रता। एषिणी (वि०) अभिलाषिणी। (जयो० ६/१९६) ऐकाङ्गः (पुं०) [एकाङ्ग-अण्] सिपाही, एक ही समुदाय का एषा (स्त्री०) इच्छा, वाञ्छा. चाह, कामना। आरक्षी, सुरक्षाकर्मी। एषित (वि०) प्रशस्त हुआ। (जयो० २८/६९) ऐकात्म्यं (नपुं०) [एकात्मन्+ष्यञ्] एकता, समानता, एषिन् (वि०) [इष् णिनि ] कामना करते हुए, इच्छा करते हुए। समरूपता, समत्वभाव। एषर्णा (स्त्री०) रेशम का कीड़ा। (मुनि० २०) ऐकाधिकरण्य (नपुं०) एक रूपता, समानता, सादृशता, तुल्यता। एह-दिखता-(सुद० १०२) ऐकाधिकरणं (नपुं०) [एकाधिकरण+ष्यञ्] एक ही विषय एहिक (वि०) इस लाक संबंधी (मुनि० १/) की व्याप्ति। ऐकार्थ्यं (नपुं०) [एकार्थ+ष्यञ्] एक ही अर्थ/प्रयोजन वाला, एक ही उद्देश्य वाला। ऐकाहिक (वि०) [एकाह ठक्] एक दिन सम्बंधी, दैनिक, ऐ: (पुं०) संस्कृत वर्णमाला का बारहवां स्वर, इसका उच्चारण दिन का। स्थान कण्ठ और तालु है। ऐकाहिकः (पुं०) हिक्का-हिचकी, एक व्याधि विशेष। 'णमो ऐ (अव्य०) यह विस्मयादि बोधक अव्यय है, इसका प्रयोग सप्पिसवीणं चैकाहिकारुगक्षणम्' (जयो० १९/८०) स्मरण, आमंत्रण, आह्वान आदि के लिए होता है। ऐकीभूय (वि०) एकत्रित। (जयो० २६/८१) ऐ (पुं०) १. कल्याण। २. महादेव, शिव। ऐक्यं (नपुं०) १. एकरूपता, समानता, समभाव। २. भेद ऐका (अव्य०) शीघ्र, त्वरित, जल्दी। ऐकध्यं (नुपं०) [एकधा+ध्यमुञ्] ऐकान्तिकता, समय की रहित, भिन्नता रहित, पृथक्ता रत्ति, एक दूसरे में एकाग्रता, समय का ध्यान। समाहितं तादाम्य। अङ्गाङ्गिनोनैक्यमिती हरीतिर्न भो: प्रभो ऐकपत्यं (नपुं० ) [एकपति-ष्यञ्] परम-उत्कर्ष, सर्वोपरिशक्ति भाति यथाप्रतीतिः सत्या त्वदुक्तिः शतपत्रनीतिगुणेषु नष्टेषु अत्यधिक बल, संप्रभुत्ता। परेऽपि हीतिः।। (जयो० २६/८१) अङ्ग और अङ्गी-अवयव ऐकपादिक (वि०) [एकपद+ठ] एक पद से सम्बन्धित, और अवयवी में ऐक्य-अभेद नहीं है, पृथक्ता ही है, वाक्य रचना के एक चरण सम्बन्धी। ऐसा कहना ठीक नहीं जान पड़ता है, परन्तु आपका ऐकपा (नपुं०) शब्दों की एक रूपता, पद्य का ऐक्य रूप। ऐक्य/अभेद कथन शतपत्र के समान सत्य है। जैसे कि सौ ऐकमत्यं (नपुं०) [एकमत+ष्यञ्] सहमति, एकरूपता, एक पत्रों-कलिकाओं का समूह शतपत्र और कमल में भेद विचारधारा। नहीं है-अभेद है। ऐकान्तिक (वि०) एकान्त विचार वाला। १. पूरा, सम्पूर्ण, ऐक्यभावना (स्त्री०) एकात्मकता का भाव। (जयो० वृ० ९/४७) समग्र। २. विश्वास ऐक्ययुग (वि०) ऐक्यभावना युक्त। त्वमपरोऽप्यपरोऽहमियं ऐकान्तिकमिथ्यात्व (वि०) एक ही धर्म का अभिनिवेश/आग्रह। भिदा व्रजतु बुद्धिभृदैक्ययुजा विदा। भवति सम्मिलने बहुसम्पदा जीवादि वस्तु सर्वथा सत् ही है या असत् ही है, एक ही विरहिता जगतामपि कम्पदा।। (जयो० ९/४७) है या अनेक ही है, प्रतिपक्ष का निरपेक्ष अभिप्राय | ऐक्ययुज् देखो ऊपर। ऐकान्तमिथ्यात्व है। 'अस्थिचेव, णत्थिचेव, एगमेव अणेगमेव, ऐक्यवस्तु (वि०) मेल, मिलाप युक्त। (वीरो० २२/१५) सावयवं चेव निरयव चेव, णिच्चमेव अणिच्चमेव, इच्चाइओ ऐक्षव (वि०) [इक्षु+ ण्यत्] गन्ने से बनी वस्तु। एयंताहिणिवेसो एयंतमिच्छत्तं' (धव० ८/२०) ऐक्षुक (वि०) [इक्षु+ठञ्] इक्षु वाला, गन्ने वाला, ईख युक्त। For Private and Personal Use Only Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ऐक्षभारिक २३८ ऐश्वर्यमदं ऐक्षभारिक (वि.) [इक्षुभार+ठक्] ईख का भारवाहक, गन्ने ऐंधन (वि०) ईंधन युक्त। का ढोने वाला। ऐंधनं (पुं०) रवि, सूर्य, दिनकर, तेज। ऐक्ष्वाक (वि०) [इक्ष्वाकु+अ] इक्ष्वाकु कुल से सम्बन्धित। ऐयत्यं (नपुं०) [इयत्+ प्यञ्] परिमाण, संख्या। ऐक्ष्वाकु: (पुं०) इक्ष्वाकु संतति, इक्ष्वाकुपुत्र। ऐरावण: (पुं०) १. इन्द्र हस्ति, सद्गगज एरावत। (वीरो० ऐक्ष्वाकुशासित (वि०) इक्ष्वाकु कुल द्वारा शासित। ७/१०) 'गीयते मद इतीन्द्रसद्गजमस्तके (जयो० ९७/१०१) ऐगुद (वि०) इंगुदी तरु से प्राप्त सद्गज-ऐरावण (जयो० वृ०७/१०१) २. स्तवक गुच्छनगर ऐगुदं (नपुं०) इंगुदी पादप का फल। के राजा का नाम। बहुदान विधान-कारकक-स्फुटमैऐच्छिक (वि०) १. इच्छा जन्य, कामना युक्त। २. अपनी रावणनामधारकः। (समु० २।१६) रुचि के अनुसार, मनोनुकूल, मन के योग्य, इच्छापरक। ऐरावणभूपतिः (पुं०) ऐरावण राजा, स्तवक गुच्छ नगर का ऐडक (वि०) भेड़ युक्त। राजा (समु०२/२१) ऐडकः (पुं०) मेष, भेड़। ऐरावतः (पुं०) १. ऐरावत क्षेत्र, अयोध्या नगरी के राजा ऐडल: (पुं०) कुबेर।। ऐरावत के नाम से इस क्षेत्र का नाम ऐरावत पड़ा। ऐण (वि०) मृग के उत्पन्न त्वचा, ऊन। (रा०वा०३/१०) २. हत्थि, इन्द्रहस्ति, गजराज। (वीरो० ऐणेय (वि०) हिरणी से उत्पन्न पदार्थ। वृ० ४/४१) सुरहस्ति -(जया० वृ० १/२५) (इरा आप: ऐता (सक०) उत्पन्न करना। (सुद० १२३) तद्वान इरावान् समुद्रः, तस्मादुत्पन्न अण) ऐगवत हाथी। ऐत-तादात्म्य (नफु) [एतदात्मन्ष्य ञ्] विशेष गुण, समीचीन अवस्था। विस्तृत वर्णन के लिए देखें-जैनेन्द्र सिद्धान्त माक्ष भाग ऐतिहासिक (वि०) [इतिहास+ठक्] इतिवृत्त सम्बंधी, इतिहास एक (पृ० ४६८) ३. ऐरावतो नारङ्गनाम वृक्ष (जयो० वृ० सम्बंधी परम्परा गत। २४/१०६) नारङ्गी के वृक्षा प्रसिद्ध ऐरावत एप किं वा ऐतिहासिकः (पुं०) इतिहासकार, पौराणिक आख्यानकार। कुबेरको नन्दनवत्ततो यत्। (जयो० २४/१०८) ऐतिह्यं (नपु०) परम्परागत शिक्षा, ऐतिहासिक शिक्षा। ऐरावत-गजः (पुं०) ऐरावत हाथी। ऐतीश्वरीत्वरी (वि०) दुराचारिणी। (सुद० १०३) ऐरावत-क्षेत्रं (नपुं०) ऐरावत क्षेत्र। ऐधितुम्-शिथिलता युक्त. शिथिलाचार। मन्दत्वमेवमभवत्तु ऐरावत-नगरं (नपुं०) ऐरावत नामक नगर. अयोध्या का यतीश्वरेषु तद्वच्छनैश्च गृहमेधिनुमाधरेषु। अपर नाम। ऐनसं (नपुं०) पाप, अपराध। (सु०११९) (वीरो० २२/१०) | ऐरावत हस्तिः (पुं०) ऐरावत हाथी। (जयो० ११/४४) ऐन्द्रि (वि०) इन्द्र सम्बन्धी। ऐलः (पुं०) मंगलग्रह। ऐन्द्रिजालं (नपुं०) जादू, इन्द्रजाल, मायावी दृष्टि। ऐलकः (पुं०) ग्यारहवें प्रतिमा युक्त उत्कृष्ट श्रावक। ऐन्द्रजालिक (वि०) [इन्द्र+जाल ठक्] जादू से सम्बन्धित, (वसु० श्रा०३०१) मायाचार युक्त, भ्रामकता जनक। ऐलेयः (पुं०) [इला+ढक्] १. सुगन्धित द्रव्य। २. मंगलग्रह। ऐन्द्रजालिकः (पुं०) जादूगर, बाजीगर। ऐश (वि०) [ईश+अण] १. ईश्वर से सम्बंधि। २. परम प्रिय, ऐन्द्रध्वजः (पुं०) इन्द्र सम्बन्धी पूजा। सर्वोपरि। ऐन्द्रलुप्तिक (वि०) [इन्द्रलुप्त+ठक्] १. इन्द्रिय शून्यता युक्त। ऐशान (वि०) ईश्वर से सम्बन्ध रखने वाला। २. गंजापन। ऐशानः (पुं०) देवों में एक देव ऐशान/ईशान देव। ऐन्द्रशिरः (पुं०) [इन्द्रशिर+अण] हस्ति जाती, हाथियों की ऐश्वर (वि०) ईश्वरी, पूजनीय, सामर्थ्यवान, वैभव सम्पन्न। ति। ऐश्वर्यं (नपुं०) [ईश्वर+ष्यञ्] १. सर्वोपरि, सर्वोत्तम, शक्तिशाली, ऐन्द्रिः (पुं०) [इन्द्रस्यापत्यम्-इन्द्र इञ्] १. अर्जुन, जयन्त, वैभव युक्त। २. शक्ति, बल, आधिपत्य। ३. दिव्यशक्ति बने। २. काक, कौआ। विशेष। 'ऐश्वर्यस्य समग्रस्य धर्मस्य यशसः श्रियः' (जयो० ऐन्द्रिय (वि.) [इन्द्रिय+अण] इन्द्रिय सम्बंधी, इन्द्रिय गोचरता वृ० ६/८८) इन्द्रिय विषय युक्त। ऐश्वर्यमदं (नपुं०) धन-सम्पत्ति का मद। For Private and Personal Use Only Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ऐश्वर्यशाली २३९ ओतुः ओ ऐश्वर्यशाली (वि०) समृद्धियुक्त। (जयो० वृ० १/७१) पिण्डः अवशेष, अभिन्न: सामान्यमिति पर्यायशब्द:' (धव० ऐषमस् (अव्य०) इस समय में इस वर्ष में, आधुनिक। ३/९) ओघ, वृन्द, समूह, संपात, समुदय, पिण्ड, अवशेष, व्युत्पन्नकाल में। अभिन्न, सामान्य इत्यादि। श्रुत की अपेक्षा अध्ययन, ऐषमस्तन (वि०) इसी वर्ष से सम्बंधित। अक्षीण आय और क्षपणा भी अर्थ है। 'दव्वट्ठिय--णयऐष्टिक (वि०) इप्टकार्य से सम्बंधित। पदुप्पायणो, संगहिदत्थादो' (धव० ४/३२२) ऐहलौकिक (वि०) [इहलोक+ठब] इस संसार से सम्बंध | ओघनिर्देशः (पुं०) मार्गणा स्थान का निरूपण, गुणस्थान रखने वाली, इस लोक में घटित होने वाली। विवेचन। (जैनेन्द्र सि०१० ४६९) ऐहिक (वि०) सांसारिक, लौकिक। (जयो० २७/४८) द्वौ हि ओघप्ररूपणा (स्त्री०) गुणस्थान के प्रमाण का कथन। धर्मों गृहस्नामैहिक : परमार्थिक:। (हित सं०३) ओघभव: (पुं०) कर्मों से उत्पन्न। 'ओघभवो णाम अट्ठकम्माणि ऐहिकफल (नपुं०) सांसारिक परिणाम, लौकिक भाव। अट्ठकम्मणिदजीवपरिणामो वा' (धव० १६/५१२) ऐहिक-व्यवहत (वि०) लौकिक व्यवहार सम्बन्धी। (जयो० ओघमरणं (नपुं०) आयुक्षय पर मृत्यु, सामान्य मरण। २/७६) ओघसंज्ञा (स्त्री०) अव्यक्त ज्ञानोपयोग रूप संज्ञा। ऐहिकसुखं (नपुं०) सांसारिक सुख। नीतिरैहिकसुखाप्तये ओघालोचना (स्त्री०) पिण्ड की आलोचना। नृणामार्परीतिरुत कर्मणे घृणा। (जयो० २/४) ओघोद्देशिकः (पुं०) उद्देश से युक्त क्रिया। ऐहिकागम (वि०) इस संसार में आगत। 'स्मृतिरैहिकागमोऽपि ओंकारः (पुं०) [ओम्+कार:] मांगलिक अभिव्यक्ति, द्विजान्' (जयो० वृ० २७/४८) हर्षातिरेक। नमः स्तुतोऽयमोंकारो विसर्गात स्वरूपतः। तेनानन्दमयेनापि रूपापभ्रंशवेदिना।। (जयो० २८/२७) ओज (वि०) विषम, असम, संख्या विशेष। जिस राशि में ४ (चार) का भाग देने पर ३ या १ शेष रहता है। समान ओ (पु०) यह संस्कृत वर्णमाला का तेरहवां स्वर है। इसका अंक का अभाव। उच्चारण स्थान ओष्ठ एवं कण्ठ है। अ+उ । ओज-आहारः (पुं०) इन्द्रिय पूर्णता। (धव० ३/२४९) ओ (अव्य०) यह सम्बोधनात्मक अव्यय है, इससे हाँ! अच्छा! ओजस् (नपुं०) [उज असुन्] तेज, शक्ति, ०तेजस् उचित आदि का बोध होता है। किसी के बुलाने, स्मरण शरीर आरोह/ऊँचाई, परिणाह/विस्तार युक्त। ०बल, ०वीर्य, करने या करुणा प्रकट करने के लिए इसका प्रयोग होता है। ०आभा, ०क्रान्ति, प्रभा। 'रोद्धञ्च योद्धं जय ओजसो भू:' ओ (०) ब्रह्म, परमब्रह्मा (जयो० ८/४३) ओकः (पुं० ) [उच्क ] १. निवास स्थान, गृह, घर, आश्रय, ओजस्क (व०) तेजस्वी, प्रतापी, शक्तिशाली। (जयो० ६/४५) शरण, आधार। (जयो० ४/२०. ३/२) २. अञ्जली। ३.. ओजस्किन् (वि०) तेजस्वी, प्रतापी, शाक्तिशाली। (जयो० मछली, मत्स्य। ४. पक्षी-विशेष। 'माधवीप्रकृतिपूर्णमिवौक :' (जयो०४/३७) इसमें 'ओक' का अर्थ स्थान है। ओजस्वत् (वि०) दृढ़, शक्तिसम्पन, वीर्यवान्, प्रतापी, बलिष्ठी। ओकण: (पुं०) [ओ+ कण अच्] खटमल. एक क्षुद्र जन्तु। ओजस्विन् देखो ऊपर। ओकस् (नपुं०) स्थान, आश्रव, निवास, गृह। ओजस्विता परिणामः (पुं०) वीर्यपात, बलिष्ठाभाव। (जयो० ओख (अक०) १. सूख जाना, शुष्क होना। २. सुशोभित वृ० ३/१७) करना, अलंकृत करना। ३. अस्वीकृत करना, रोकना। ओडुः (पुं०) ओड देश। ओघ: (पुं०) । उच् + द्यञ्] १. राशि, समूह, समुदाय। (जयो० ओडूं (नपुं०) जबत्कुसुम, जबापुष्प। * जपा कुसुम। ३/२३) २. समग्र, पूर्ण। ३. परम्परा। ४. धारा, जलप्रवाह। ओत (वि०) [आ+वे.क्त] बुना हुआ, एक दूसरे सिरे से ५. आगमिक अर्थ-अध्ययन, कथन भी हैं मिला हुआ। 'संहिवत्त-वयण-कलावो दव्वट्ठिय-णिबंधणो ओघो णाम' | ओतुः (पुं०) [अव्+तुन्] बिलाव, जंगली बिल्ली, विडाल। (धव०५/२४३) ओघ-ओघं वृंदं समूह: संपातः समुदयः | (जयो० २३/७५) (जयो० ७/१११) For Private and Personal Use Only Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ओतुकः २४० औक्थिक्यं ओतुकः (पुं०) बिलाव, बिल्ली। ओदनः (नपुं०) [उन्द्+युच्] भक्त, भात, भोजन। (समु० ८/१९) (जयो० १२/१११) 'समोदनस्यात्र भवादृशस्य' (जयो० ३/६२) 'ओदनस्य भक्तस्य वा प्रयुक्तये' (जयो० वृ० ३/६२) ओदनाधिकारः (पुं०) भोजन का अधिकार 'सकलव्यञ्जन मोदनाधिकारम्' (जयो० १२/११५) ओदित (वि०) कथित, निरूपित, भाषित। 'मृदुपल्यङ्क इवाहतोदिते' (सुद्० ३/२२) ओदिय (वि.) उदयगत, सम्मुख स्थित, सभागत। (सुद० २/४३) 'बलित्रयस्यापि तदोदियाय' (सुद० २/४३) ओपत्तिक (वि०) उत्पत्ति मूलक। ओपनिषत् (वि०) उपनिषद काल सम्बंधी। (वीरो० १८/५६) ओपनिषत्-समर्थ (वि०) उपनिषत्काल सम्बन्धी रचना में समर्थ। (वीरो० १८/५६) ओम् (अव्य०) १. कल्याण सूचक अक्षर। २. पञ्च परमेष्ठि-वाचक मंगलपद। इसका आदि अक्षर 'अ',अशरीरी वाचक है, जिसे सिद्ध कहते हैं। अ अरहंत परमेष्टि-वाचक आ-आचार्य मुनि। 'उ' उपाध्याय और अन्तिम 'म्' साधु परमेष्ठि वाचक है। अ+अ+आ= आ। उ ओम्-ओम्' वैदिक संस्कृति में 'अ' ब्रह्मवाचक, 'उ' विष्णुवाचक और 'म्' महेश-वाचक है। 'ऊँ' यह बीजाक्षर भी परमेष्ठि वाचक है। 'प्रकृष्टो नवः प्रणवः' की व्युत्पत्ति से भी इसकी श्रेष्ठता प्रतीत होती है। प्रणवो नाम मंगलशब्द: संस्तुत: स्तुतिपथम्' (जयो० वृ० १९/५०) 'ओं ह्रीं णमो जिणाणं' (जयो० १९/५८) 'ओं णमो दसपुव्वीणं' (जयो० १९/५७) ओम्-ओं 'शिव/कल्याणवाचक/मंगल वाचक है। शिवमों शिवमों नमोऽर्हमद्य शिवमों ह्रीमृषिवन्दितं तु सद्यः। वशिवं शिवरैः श्रितं हितं च वृषिबोध्यञ्च सुधाशिवोध्यमञ्चत्।। 'रुचिरोमित्युदपादि किन्न तेन। (जयो० १२/४१) यह एक पवित्र ध्वनि है, जो ऋषियों के द्वारा उच्चरणीय है। अरिहंता असरीरा आयरिया तह उवज्झाया मुणिणा। पढमक्खरणिप्पणो ॐकारो पंचपरमेट्ठी। (द्र०सं०४९) (जैनेन्द्र सि०वृ० ४७०) ओल (वि०) [आ उन्द्+क] गीला, आर्द्र, ओला, हिम, तुषार। ओलिकः (पुं०) मध्य-आर्य खण्ड का देश। ओल्लड् (सक०) फेंकना, उछालना। ओल्ल (वि०) गीला, आर्द्र, ओला, हिम, तुषार। ओवेल्लिम (नपुं०) वेष्टन ओषः (पुं०) [उष्+घञ्] संताप, जलन। ओषणः (पुं०) [उष्+ल्युट] तीखापन, तिक्त, तीक्ष्ण। ओषधः (पुं०) दबा, रोगनिदान का पदार्था । ओषधदानं (नपुं०) चार दानों में एक दान ओषधदान, चिकित्सा करना, रोग निदान। रोगिभ्यो भैषज देयं रोगो देहविनाशकृत्। (उपा०६५) ओषधिपतिः (पुं०) चन्द्र। आषधीनां पतिश्चन्द्रः 'दोषं किलौषधिपली प्रतियातिदूरे।' (जयो० १८/१८) ओषधिप्राप्त (वि०) ओषधि ऋद्धि से युक्त, शरीर के सुगन्धित ___ अवयवों से युक्त। ओषधिवजः (पुं०) ओषधि समूह। (जयो० २४/२९) ओषधिसमूहः (पुं०) ओषधि पुञ्ज, ओषधि की व्यापकता। ओहाक् -त्याग दिया ओहाक् त्यागे लिट्। । ओष्ठः (पुं०) [उष्धन] होठ, अधर। (जयो० ५/८४) (जयो० ३/५२) * रदनवास। ओष्ठज (वि०) ओष्ठवान् वाले। ओष्ठजाहः (पुं०) ओठ की जड़। ओष्ठ-पल्लव: (पुं०) ओठ/होंठ रूप, पल्लव रूप ओंठ। ओष्ठपुट (नपुं०) ओठ/होंठ भाग, दोनों अधरों के खोलने पर बना गर्त रूप स्थान। ओष्ठमण्डलं (नपुं०) अधरबिम्ब। (जयो० ० ३/१२) ओष्ठ्य (वि०) [ओष्ठ+यत्] होंठों पर रहने वाली ध्वनि, उच्चरणीय शब्द। ओष्ठ्यगत् (वि०) अधर गत ध्वनि। ओष्ण (वि०) [ईषद्+उष्ण] अल्प गरम, कुनकुना। औ औ -संस्कृत वर्णमाला का चौदहवां स्वर। इसका उच्चारण स्थान औष्ठ है। अ+ओ-औ। औ (अव्य०) यह अव्यय आमन्त्रण या सम्बोधन अर्थ में होता है, संकल्प तथा शपथ अर्थ के लिए भी इसका प्रयोग किया जाता है। औंड्रः (पुं०) भरत क्षेत्र आर्यखण्ड का एकदेश। औकः (पुं०) स्थान, निवास, आश्रय। (जयो० २७/२१) औक्थिक्यं (नपुं०) [उक्थ ठक्ष्य ञ्] उक्थ का पाठ, सामवेद का पाठ। For Private and Personal Use Only Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir औष्य २४१ औदास्य औष्यं (नपुं०) पाठ पद्धति, पाठरीति। औत्पात (वि०) [उत्पात+अण] अपशकुन विश्लेषक, उपद्रव औक्षकं (नपुं०) वलिवर्द समूह, बैलों का झुण्ड, उक्ष्णां समूहः प्रस्तुतकर्ता। ___इत्यर्थे उक्षन् अण् टिलोप: कुञ् वा। औत्पातिक (वि०) [उत्पात ठक्] अशुभकारी, अमंगलसूचक, औगयं (नपुं०) । उग्र ष्यञ्] दृढ़ता, भीषणता, अत्यधिकता, अनिष्टकारी। भयंकरता, करता। औत्संगिक (वि०) [उत्संग+ठक्] कूल्हे पर रखने वाला। औघः (१०) वाद, जल्प्लावन। औत्सर्गिक लिंगः (पुं०) यथाजात परिवेश, त्यागपूर्वक, ग्रहण औचित्यं (नपुं०) [उचित+यज्] उपयुक्तता, उचितपना, किया गया स्वाभाविक वेश। 'उत्कर्षेण सर्जनं त्यागः सकल०संगति, योग्यता। यथार्थता। 'कथमपौचित्यस्य हतिः परिग्रहस्योत्सर्गः, उत्सर्ग त्यागे सकलग्रन्थपरित्यागे भवं सम्भवति' (दयो० १०६) सार्थकता, वास्तविकता। लिंगमौत्सर्गिकम्' (भ० आ० टी० ७७) औजतिक (वि.) [ओजस्ट क | शक्ति सम्पन्नता, दृढ़ता, औत्सुक्य (वि०) [उत्सुक ष्यञ्] १. उत्सुकता, लालसा, धैर्यपना, तेजस्विता। इच्छा, उत्साह। २. चिन्ता, व्याकुलता। औजसिकः (पुं०) वनवान् पुरुष, शूरवीर, योद्धा। औदक (वि०) [उदक अण्] वारि सम्बंधो, जल से सम्बन्धित। औजस्य (वि०) [ओजस्+ध्यञ्] कान्ति, प्रभा, आभा। औदञ्चन (वि०) [उदञ्चन+अण] घट में स्थापित। औज्जवल्यं (नपु०) [उज्ज्वल+प्यञ्] प्रभा, कान्ति, चमक, औदनिक (वि०) [ओदन ठञ्] पाचक, पकाने वाला, धवलता। रसोईया। औपिकः (वि.) [उडुपाठक] नाव से पार करने वाला। औदयिक (वि०) १. उदयगत भाव, २. पदार्थों का अवबोध। औडुम्बर: (पुं०) उदुम्बर फल। औदयिक-अज्ञानं (नपुं०) पदार्थों का अवबोध। 'ज्ञानावरणकर्मण औतुकी (स्त्री०) बिडाली, बिल्ली। 'निशौतुकी तन्मय- उदयात् पदार्थानबोधो भवति तदज्ञानमौदयिकम्' (स० सि० कौतुकित्वात्' (जयो० १५/४५) रात्रि रूपी बिल्ली पकड़ने २/६) 'ज्ञानावरणोदयादज्ञानम्' (त० वा० २/६) __ में तत्पर। औदयिक-असंयतः (पुं०) चरित्रघाती कारण। 'चारित्रमाहोदयाऔतनः (40) विटाल, विलाव। 'प्राग्जन्मप्रतिवैरिणा मतमितौ। दनिवृत्तिपरिणामोऽसंयतः' (त० वा०२/६) तत्रागतनौतुना' (जया० २३/५५) औदयिक-असिद्धः (पुं०) असिद्धत्व अवस्था का भाव। औतुपात (वि०) विडालजात, विडालपुत्र। (जयो० २०/३०) 'कर्मोदय-समान्यापेक्षोऽसिद्ध-औदयिकः' (स० सि०२/६) औत्कण्ठ्य (नपुं०) [उत्कण्ठा+प्यञ्। वाञ्छा, चाह, अभिलाषा. औदयिक-गुणं (नपुं०) उदय से उत्पन्न गुण। 'कर्मणामुलालसा, इच्छा, कामना, भावुकता। दयादुत्पन्नो गुण:' (धव० १/१६१) औत्कर्ण्य (वि०) [उत्कर्ष+ष्यञ्] उत्तमता, श्रेष्ठता, उच्चता, | औदयिकभावः (पु०) कर्मोदय से उत्पन्न भाव। आधिक्य, प्रबलता, उत्कर्ष को प्राप्त हुआ। 'कम्मोदय-जणिदो भावो' (धव०५/१८५) औत्तमिः (पु०) [ उत्तम+इञ्] उत्तमता युक्त। औदयिकी (वि०) कर्मोदय से अनुरंजित प्रवृत्ति। 'कषायोदयऔत्तर (वि०) १. उत्तरदिशा सम्बन्धी। २. उत्तर/समाधान रज्जिता योग-प्रवृत्तिरिति कृत्वा औदयिकी' (स० सि० सम्बन्धी। २/६) औत्तरेयः (पुं०) । उत्तरा। ढक्] उत्तरा का पुत्र, अभिमन्यु। औदयिकी-वेदना (स्त्री०) कर्मोदय से उत्पन्न वेदना। औत्तानपादः (पुं०) ध्रुव, उत्तरदिशा का तारा। औदरिक (वि०) उदर सम्बन्धी, अत्यधिक भोजन करने औत्पत्तिक (वि०) एक ही समय में उत्पन्न सहजता से वाला। प्राप्त। औदर्य (वि०) [उदरे भवः यत्] १. गर्भस्थ, गर्भ में प्रविष्ट। औत्पत्तिकी (स्त्री०) १. सहज स्वभाव से उत्पन्न प्रज्ञा, सहजबुद्धि, २. उदारता। स्वाभाविकमति। २. पूर्व संस्कारों से उत्पन्न। औदश्वित (वि०) छांछ, मट्ठा, तक्र। औत्पत्तिकी बुद्धिः (स्त्री०) सहज स्वभाव से उत्पन्न प्रज्ञा। औदास्य (वि०) उदासीनता, उन्मनस्कता। 'उदासस्य भाव 'उत्पत्तिरेव प्रयोजनं यस्याः सा औत्पनिकी बुद्धिः' (जैसल० ३०३) औदास्यम् तत् उन्मनस्कता।' For Private and Personal Use Only Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir औदारिकः २४२ औपमिक औदारिकः (पुं०) औदारिकशरीर विशेष, जीव प्रदेश के | औधस्यं (नपुं०) [ऊधस्+ष्यञ्] दुध, क्षीर। परिस्पन्दन का कारणभूत प्रयत्न। 'उदारं प्रधानं, उदारमेवौ- | औनोदर्य (नपुं०) अवमौदर्य, ऊनोदर अल्पाहार। दारिकम्' औन्नत्यं (नपुं०) [उन्नत-प्यञ्] उन्नत, ऊँचा उठा हुआ। औदारिककायः (पुं०) औदारिक शरीर। उदारैः शेषपुद्गलापेक्षया औपकर्णिक (वि०) [उपकर्ण ठ] कर्ण की सन्निकटता वाला। स्थूलैः पुद्गलैनिवृत्तमौदारिकम् तच्च तच्छरीरं'। औपकार्य (नपुं०) [उपकार्य अप्] १. उपकारक कार्य। २. औदारिक-काय-योगः (पुं०) औदारिक शरीर के आश्रय रूप अस्थाई वास, ढेरा, तम्बू। शक्ति। (धव० १/२९) औपक्रमिकी (स्त्री०) [उपक्रम किणि] उपक्रम से होने वाली औदारिकनामः (पुं०) औदारिक शरीर की उत्पत्ति। वेदना। 'उपक्रमणमुपक्रम:, स्वयमे व समीप औदारिकमिश्रः (पुं०) कार्मण शरीर के साथ मिश्रित। भवनमुदीरणाकरणेन वा समीपानयनम्। तेन निर्वृत्ता औदारिक-शरीरः (पुं०) स्थूल रूप शरीर। उदारं स्थूलम्, औपक्रमिणी। (जैन०ल० ३०९) उदारे भवमौदारिकम्, उदारं प्रयोजनमस्येति वा औदारिकम्। | औपग्रस्तिकः (पुं०) [उपग्रस्त ठञ्] ग्रहण लगना, सूर्य या (स० सि० २/३६) उदारात्-स्थूल-वाचिनो भवे प्रयोजने चन्द्र पर आवरण पड़ना। वा ठञ्। (त० वा० २/३६) औपचारिक (वि०) [उपचार+ठञ् ] गौण, लाक्षणिक, प्रमुख औदारिक-संघात: (पुं०) औदारिक शरीर की पुष्टता। से अतिरिक्त। औदार्य [उदार+प्यञ्] १. उदारता, महानता, उच्चता, श्रेष्ठता. औपचारिक विनयः (नपुं०) उपचार रूप विनय, श्रद्धानपूर्वक नदीनभावा ( वीरो० २/३७) २. यथोचित् व्यवहार-कारुण्य- कृत विनय। 'उपचरणं उपचारः,-श्रद्धानपूर्वक : क्रिया मौदार्यमियद् हृदा चानुकूल्य सम्वादविधिश्च वाचा। (समु० विशेषलक्षणो व्यवहारः, स प्रयोजनमस्येत्यौपचारिक:'। ८/२९) औदार्य रूपमारोग्यं दृढत्वं पटुवाक्यता। (दयो०७०) औपजानुक (वि०) [उपजानु+ ठक्] घुटने के समीप होने वाला। औदासीन (वि०) उदासीनता, उन्मनस्कता। औपदेशिक (वि०) [उपदेश+ठक्] उपदेश/व्याख्यान से औदासीन्य (वि०) उन्मनस्कता, उदासीनता। १. उपेक्षा, नि:स्पृहता, जीविकोपार्जन करने वाला। शिक्षण से धन कमाने वाला। एकान्तता. एकाकी, उदासीनता युक्त। (जयो० २४/४२) औपधर्म्य (नपुं०) [उपधर्म प्य । मिथ्यामत, मिथ्यासिद्धान्त। औदासीन-वचः (०) उदासीनता युक्त वचन। 'औदासीन- औपधिक (वि०) | उपाधिः ठन] १. उपाधि को प्राप्त। २. __ वचोऽवचाय' (जयो० २४/१४२) धूर्त, छल-कपटी। औदुंबर (वि०) [उदुम्बर+अञ्] गूलर वृक्ष से निर्मित। औपधेयं (नपुं०) [उपाधि+ ठञ्] रथचक्र। औद्गात्रं (नपुं०) उदगाता पद। औपनायनिक (वि०) [उपनयन ठक्] उपनयन संस्कार सम्बंधी। औद्दालकं (नपुं०) [उद्दाल+अण] कडुवा/तिक्तपदार्थ। यज्ञोपवीत संस्कार से युक्त। औद्देशिक (वि०) [उद्देश ठञ्] उद्देश से किया गया, निमित्त | औपनिधिक (वि०) [उपनिधि ठक्] न्यास रखने वाला, से बनाया गया आहार। २. प्रकट करने वाला, संकेतक, धरोहर से सम्बन्ध रखने वाला। न्यासी।। निर्देशक। देवतार्थं पाखण्डार्थ कृषणार्थं चोद्दिश्य यत्कृतमन्नं औपनिषद् (वि०) [उपनिषद् अण] उपनिषद में कथित/निरूपित तन्निमित्तं निष्पन्नं भोजन तदौद्दशिकम्। (मूला०वृ०६/६) आध्यात्मिक शिक्षा, ज्ञान। 'उद्देशिकं श्रमणानुद्दिश्य कृतं भक्त्यादिकम्' (भ०आ०४२१) औपनीविक (वि०) [उपनीवि ठक्] नाड़े की गांठ रखता औद्धत्यं (नपुं०) [उद्धत+ष्यञ्] उद्दण्ड भाव, हठवादी। मद हुआ, गांठ करने वाला। युक्त अबौद्धत्य युक् चाषि कुतो जघन्यः (जयो० ११/२७) औपपत्तिक (वि०) [उपवत्ति+ठक] १. सन्निकट, समीप। २. उचित। औद्धारिक (वि०) [उद्धार ठञ्] विभक्त करने योग्य, उद्धार औपमिक (वि०) [उपमा+ठक्] उपमा से निर्मित, उपमान करने योग्य। जन्य। 'उपमया निवृत्तमौपमिकम्' उपमामन्तरेण यत्कालऔद्धदं (नपुं०) [उद्भिद्। अण] निर्झर जल, धारितजल। प्रमाणमनतिशयिना गृहीतुं न शक्यते तदौपमिक- मिति।' औवाहिक (वि०) [उद्वाह ठञ्] वैवाहिक सम्बंध रखने वाला। (जैन०ल० ३१०) For Private and Personal Use Only Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir औपम्यं २४३ औपम्यं (नपुं०) [उपमा+ष्य+उपलब्धि:] उपमा के बल से ज्ञात। पूर्व में कभी नहीं जाना गया कोई पदार्थ उपमा के बल से जो जाना जाता है, उसे औपम्योपलब्धि कहा जाता है। जैसे 'गवय गौ के समान होता है, इस उपमान के आश्रय से पूर्व में अज्ञात गवरू का 'यह गवय है' इस प्रकार तो अक्षरज्ञान हुआ करता है, इसी का नाम औपम्योपलब्धि है। (जैन०ल० ३१०) औपयिक (वि०) [उपाय+ ठक्] १. प्रयत्नपूर्वक, प्राप्त। २. योग्य, उचित। औपरिष्ट (वि०) [उपरिष्ट अण] ऊपर से होने वाला, ऊपरी। औपरोधिक (वि०) [उपरोध ठक्] अनुग्रह स्वरूप, कृपात्मक। औपल (वि०) [ उपल+अण] पाषाण तुल्य, प्रस्तरमय। औपवस्तं (नपुं०) (उपवस्त+अण्] उपवास, अनशन। औपवस्त्रं (नपुं०) [उपवस्त्र+अण] उपवास, अनशन। औपवास्यं (नपुं०) [उपवासष्यञ्] उपवास रखना, उपवास करना। औपवाह्य (वि०) [उपवाह्य अण्] वाहन से सम्बन्धित। औपवाह्यः (पुं०) राज्य-वाहन, राजा की सवारी। औपवेशिक (वि.) [उपवेश+ठ] आजीविका में तत्पर रहने वाला। औपसर्गिक (वि०) [उपसर्ग-ठञ् ] उपद्रव/आपदा/सकंट का सहने वाला। औपस्थिक (वि०) [उपस्थ+ठक्] व्यभिचार जन्य जीविका। औपशमिकः (पुं०) [उपशम+ठक्] उपशम से उत्पन्न भाव। "उपशमः प्रयोजनमस्येत्यौपशमिकः' (स० सि० २/१) 'कम्माणमुवसमेण उप्पण्णो भावो ओवसमिओ' (धव० ५/२०५) औपशमिकभावः (पुं०) उपशम से उत्पन्न भाव। औपशमिक सम्यक्त्व (नपुं०) प्रकृतियों के उपशम से उत्पन्न होने वाला सम्यक्त्व। 'सत्तण्ह उषसमदो उवसमसम्मो' (गो० जी०२६) 'तत्त्वार्थ- श्रद्धानमौपशमिकम्' (भ०आ०१/३१) औपाधिक (वि०) [उपाधि+ठञ्] उपाधि जनित। औपाध्यायक (वि०) [उपाध्याय+वुञ्] उपाध्याय/अध्यापक से प्राप्त। औपसन (वि०) [उपासन+अण्] उपासन जन्य। औरभ्र (वि०) मेष से सम्बन्धित। औरसः (पुं०) [उरसा निमित्ता अण्] उदर से उत्पन्न पुत्र, | विवाहित स्त्री से उत्पन्न पुत्र, निज सुत। (दयो० ५४) । औरसी (स्त्री०) निज पुत्री, आत्मसुता। और्ण (वि०) [ऊर्णा+अञ्] ऊन से निर्मित। (जयो० २।८९) और्णवस्त्रं (नपुं०) ऊनी वस्त्र। 'चौर्णवस्त्रमथवा सुकर्मणे' (जयो० २।८९) औवंदेहं (नपुं०) प्रेतकर्म, अन्त्येष्टि संस्कार। और्व (वि०) [ऊरु अण] पृथ्वी सम्बंधित। औलूकं (नपुं०) [उलूकानां समूहः ऊञ्] उल्लुओं का झुण्ड। औलुक्यः (पुं०) कणाद मुनि। औशीरं (नपुं०) आसन, तकिया। औषणं (नपुं०) [उषण+अण्] १. तेजस्विता, तीक्ष्णता। २. काली मिर्च। औषध (नपुं०) दवा, जड़ी-बूटी, खनिज। (जयो० २/४) जयोदय में औषध को भेषज भी कहा है। (जयो० २/१७) __ 'सर्वमेव सकलस्य नौषधम्' औषधिः (स्त्री०) दवा, वनस्पति, जड़ी-बूटी। (वीरो० ४/४) औषधीय (वि०) रोग नाशक औषध। औषरं (नपुं०) सेंधा नमक। औषस (वि०) प्रभात सम्बंधी। औष्ट्र (वि०) उष्ट्र सम्बंधी। औष्ट्रकं (वि०) ऊँटों का समुदाय। औष्ठः (पुं०) रदनच्छद, रदनवास। (जयो० ५/४८) औष्ठ्य (वि०) ओंठ से सम्बन्धित। कः (पुं०) कवर्ग का प्रथम व्यञ्जन, इसका उच्चारण स्थान __ कंठ है। यह स्पर्शवर्ण भी कहलाता है। कः (पुं०) इसके कई अर्थ है-ब्रह्मा, विष्णु, कामदेव, वायु, अग्नि, यम, सूर्य, राजा, गांठ, मोर, पक्षी, मेघ, शब्द, हर्ष, ध्वनि आदि क-कल्याण-(जयो० वृ० १९/३६) क-मुख (जयो० ६/४२) आत्मा-कस्यात्मन आशी (जयो० ३/३०, जयो० १४/६६) पृथ्वी -(सुद ०२/२१) सूर्य-(जयो० १५/३८,३९) को ब्रह्मानिलसूर्याग्नियममात्मदयोति बहिर्षु इति विवश्लोचनः। (जयो० १४/६६, १७/३) जल-जलं कमन्ते पावें तस्य तस्य कान्तस्य' कमिति जलं तदेव सुख चेति' कान्तकर-कमिति च कान्तकर (जयो० १४/७५) For Private and Personal Use Only Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २४४ कङ्कपत्रिन् कं (नपुं०) प्रसन्नता, हर्ष, आनन्द, (जयो० १८/२) खुशी, ककुबः (पुं०) पूर्वदिशा। (वीरो० ६/३९) आमोद। १. पयस, जल (जयो० १७/९४) कक्कोलः (पुं०) [कक्क। उलच्] बकुल वृक्षा जल-कं जलं लातीत्येव रूपा कलान्वया जलजीवनाभूत कक्कोलः (पुं०) [कक+क्विप] फलदार वृक्षा जलाशय' (जयो० वृ० १७/१०४) पंङ्कप्लुता कं कल- क-क्लृप्तिः (स्त्री०) जलराशि, कयाभिषेकाय कक्लप्तिरापि यक्त्युदात्तम्' (वीरो० ४/१७) (वीरो०५/१०) शीर्ष-कं शीर्षमिति (जयो० ५/१०१) कक्खट (वि.) [कवख्। अटन्]. कठोर, कठिन, ठोस, कोमल-'दुग्धाब्धिवदुज्ज्वले तथा कं' (सुद० ९८) ०दृढ़, शक्तिशाली। कंका (स्त्री०) ज्ञान। 'नाप्त्वा प्रजा पातुमुपैति कंका। (वीरो० कक्खटी (स्त्री०) [कक्खट् ङीप्] खड़िया। २०१७) कक्ष: (पुं०) १. कमरा, अन्त:पुर का एक भाग, (सुद० १०३) कं-कणं (नपुं०) आत्म निर्णय-कं आत्मानं कस्यात्मन: णः २. बेल, लता, घास। ३. वन, सूखी लकड़ी का स्थान। निर्णयो (जयो० २८/२८) (जयो० २१/२७) ४. पार्श्वभाग। कंकरः (पुं०) शर्करिल, कंकड। (जयो० वृ. २७/४९) कक्षबन्धः (पुं०) वनप्रदेश, अख्य भाग। (जयो० २६/२७) कं दर्प (नपुं०) अभिमान, कं दर्प अभिमानं (जयो०८/१०) कक्षा (स्त्री०) कांख। (दयो० २५) कंसः (पुं०) राजा कंस, मथुरा के राजा, राजा उग्रसेन का । कक्षा (स्त्री०) १. कटिबन्ध, करधनी, कंदौरा। (जयो० १७/८५) ___पुत्र। (वीरो० १७/३४) २. कमर, कमरबन्ध। (जयो० वृ० १७/८९) ३. बाड़ा, कंसः (पुं०) १. पात्र-विशेष, जलपात्र, प्याला, कटोरा। २. भीतरी कमरा, सामान्य कक्ष। कांसा, धातु विशेष। कक्षाकला (स्त्री०) करधनी, कंदौरा। (जयो० १७/८१) कंस (वि०) भयकारण (जयो० वृ० १/३३) । कक्षाधर (वि०) लंगोटधारी। कंसकं (नपुं०) [कंस+कन्] १. कांसा, २. कसीस पुत्र। कक्षाभागः (पुं०) कमरे का हिस्सा, आंगन का हिस्सा। कक् (अक०) कामना करना, अभिमान करना, अस्थिर होना। कक्षाशायः (पुं०) कुत्ता, श्वान। ककारः (पुं०) क, कवर्ग का प्रथम व्यञ्जन (जयो० वृ० कक्ष्या (स्त्री०) [कक्ष+ यत्। टाप्] १. घोड़े की तंग, २. ६/२४. वीरो० १/२७) करधनी, कंदौरा। ककुंजलः (पुं०) चातक, पपीहा पक्षी। कं जलं कूजयति कख्या (स्त्री०) [कख यत्। टाप्] घेरा, परिधि, बाड़ा। याचते क-कू+जलच। कङ्कः (पुं०) १. बक, बगुला। (जयो० वृक्ष १३/६३) २. ककुद (स्त्री०) १. शिखर, कूट, चोटी। २. मुख्य, प्रधान, यम, ३. क्षत्रिय, ४. वेषधारी विप्रा ५. नाम विशेष, प्रमुख, विशिष्ट। ३. सांड के कंधे का उभरा हुआ हिस्सा, युधिष्ठिर का नाम। ६. हाथ के सम्पुट, हस्त सम्पुट। कूबड़ा। (सम्य० ७३) ककुदं (नपुं०) कूबड़, उठा हुआ भाग। कङ्कटः (पुं०) [कङ्क्। अटन्] कवच, रक्षायुध, २. सैनिक। ककुदमत् (वि०) [ककुद मतुप्] भैंसा, कूबड़धारी भैंसा। कङ्कणं (नपुं०) कंगन, कड़ा, वलय। विवाह सूत्र कंगना ककुद्वत (पुं०) [ककुद्। मतुप व त्वम्] भैंसा। कलाई पर बांधा गया सूत्र, आभूषण विशेष। (जयो० ककुंदरं (नपुं०) नितम्ब गर्त। कस्य शरीरस्य कुम् अवयवं १२/१०६, ५/६१) दुणाति-ककु+ह+खच्, मुम।। कङ्कणचालन (वि०) १. स्त्री जाति का स्वभाव, कंगन को ककुल्प (वि०) भोगोपभोग से खुशी (वीरो० ११/२) चलायमान करने वाली स्त्री। (जयो० ६/३२) २. स्थानान्तर ककुभ् (स्त्री०) [क स्कुभ्। क्विप्] १. दिशा, भूपरिधि का गमन, इधर उधर जाना। (जयो० ६/३२) चतुर्थ भाग। (जयो० १२/६८) २. प्रभा, आभा, कान्ति। ककणशब्दः (पुं०) वलय स्वर। (जयो० २४/२५) ककुभः (पुं०) वीणा की मुड़ी हुई लकड़ी। २. अर्जुनवृक्ष। ककतः (पुं०) कंघी, कंघा। बाल संहारने का साधन। कस्य वायो: कु:स्थानं भाति अस्मात् ककु+भा+क या कं कङ्कपत्रं (नपुं०) बगुला के पंख। वातं स्कुम्नाति विस्तारयति-क स्कुभ्+क) कङ्कपत्रिन् (वि०) कंकपत्र वाला। For Private and Personal Use Only Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra कड़कर www.kobatirth.org कङ्करं (नपुं०) मट्ठा, छांछ। [कं सुखं किरति क्षियति ] कङ्कालः (पुं०) अस्थिपञ्चर, शरीर का ढांचा, हड्डियों का समूह | + कङ्कालय: (पुं० ) [ कंकाल य+क] देह, शरीर । कङकु: (स्त्री) कंकु, सिंदूर, सेंदुर, विवाहित स्त्रियों की माँग में भरने का सेंदुर । ककेल: (पुं० ) [ कंक+एल्ल] अशोक वृक्षा ककल: (पुं०) घोरडू, नहीं सीझने वाला मूंग (वीरो० १७/३३) ककेली (स्त्री०) आशोक वृक्ष कङकोली (स्त्री०) नाम विशेष ककृत कंङ्गण ( नपुं०) अलंकृत कंगन । (वीरो० ६ / २९ ) कङ्गुलः [कंगु+ला+क] हाथ, कर। कचच्छलं (नपुं०) केशो के कारण, कन्जल समूह | कचानां केशानां छलाद् बभूव। (जयो० वृ० १/६३) कचपाली (स्त्री०) केश समूह, केशराशि कचानां केशानां पाली परम्परा (जयो० १४/१०) कचसंचयः (पुं०) केशबन्धन, केशपाश कचानां सञ्चयः केशपाशः। कचसन्निचय: (पुं०) केशराशि, केशसमूह कचानां केशानां सन्निचयः समूहो । (जयो० २६/७) कच: (पुं० ) ( कच+अच्] १. बाल, केश। २. बंधन, आवरण, पट्टी | कचङ्गनं (नपुं०) कर रहित बाजार, मण्डी । कचङ्गल (पुं०) समुद्र, सागर, उदधि कचवृन्द (वि०) केशराशि (वीरो० २/२०) कचाकचिः (अव्य० ) एक दूसरे को पकड़ना, आपस में बा पकड़ना । कचादुर (पुं०) जल कुक्कुट कचोपचार: (पुं०) केशों के उपचार (सुद०२/७) कच्चर (वि०) बुरा, अभद्रकारी, दुष्टतापूर्ण। मलिन, कलंकित । कच्चित् (वि०) [कं+चित्] प्रश्नवाचकता, प्रायः, ऐसा । कञ्चिदपि (अव्य०) कोई भी, कितना भी । (वीरो० १/१६ ) कच्छः (पुं०) १. तट, किनारा, क्षेत्रवर्ती, समीपवर्ती प्रदेश। (जयो० ५) २. कर्मदभाग, कीचड़ प्रदेश, पंकभूमि । कच्छप: (पुं०) कछुआ, कूर्म । कच्छपपृष्ठवत् (पुं०) कछुए की पीठ की तरह। (जयो० वृ० 8/4) २४५ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कझुकिराजः कच्छप- रिगत- दोषः (पुं०) आचार्य वन्दना का दोष, पीछे चलते हुए वन्दना करना । कच्छपी (स्त्री०) कछुवी । कच्छा (स्त्री०) झींगुर । कच्छुः (स्त्री०) [ कष्ऊ, छ आदेश: ] कंडू, खाज, खुजली कच्छुर (वि०) [कच्छूर] कंडुयुक्त, खुजली युक्त । २. लालची, लम्पटा कज्जलं (नपुं०) काजल, कालिमा, अगुरु, अंजन। (जयो० वृ० १४ / ९२ ) (जयो० ३/५४ ) [ कुत्सितं जलमस्मात् प्रभवति को कदादेश: ] 'स्नेहवर्तिकथा निःसृतेन कज्जलेन शरावादयो मलिना भवन्ति' (जयो० वृ० ६ / २३६ ) प्रसादोत्पन्न- नयनजलविन्दवस्तन्निभानाम्- मुदश्रवोऽपि सकज्जला भवन्ति । (जयो० वृ० ६ / १३०) कज्जलधूमः (पुं०) कज्जल की बहुलता (जयो० १/६३) कज्जलरागः (पुं०) कालिमा वाला राग । कज्जलरोचकः (पुं०) दीवट, दीपस्टेंड । कज्जलस्थित (वि०) कज्जल की बहुलता (जयो०] १/६२) कज्जलितः (वि०) कालिमा युक्त । कञ्च (सक०) १. बांधना, जकड़ना, २. स्फुरित करना। कञ्चनं (नपुं०) स्वर्ण, सोना। (सुद० ७१) कञ्चन-कलश: (पुं०) स्वर्ण कलश। (सुद० ७१ ) कञ्चारः (पुं०) [ कम्+चर् णिच्+अच्] १. सूर्य, रवि, २. मदार लता। कचिद् (अव्य०) कोई भी (जयो० १/२) कञ्चुक: (पुं० ) [ कञ्च + उनच्] १. कवच निर्माण-जयो० ६ / १०६ (जयो० १२) २. सर्प केंचुली, ३. परिधान, वस्त्र ४ अंगरखा, चोगा, चोली, अंगिया । कञ्जुकमुञ्चनं (नपुं०) केंचुली छोड़ना (जयो० २५/५३) कझुकद्वदय (पुं०) कुछ वस्त्र हरण करने वाला (जयो० १६ / ६३) कञ्चुकं कुचवस्त्रं हरतीति । कझुकालुः (पुं०) सर्प, सांप कञ्चकित (वि०) [कशुक इतच्] कवचधारी। कञ्चुकिन् (वि० ) [ कञ्चुक + इनि] १. कवच, (वीरो० ५ / ६, जयो० १/१ ) २. द्वारपालनी, अंतपुर की सेविका, वृद्ध सेवक। सौविद (जयो० १३/३८) कञ्चुकिवर: (पुं०) बुद्धिशाली सेवक। (जयो० ४/४१ ) कञ्चलिका (स्त्री०) अंगरखा, चोगा चोली । कझुकिराज (पुं०) खोजा, सेवक, (जयो० ४/५५) For Private and Personal Use Only Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कञ्जः २४६ कटोल: रा२८) कञ्जः (पुं०) [कम्+जन्+ड] १. केश, बाला। कटित्रं (नपुं०) अधोवस्त्र, धोती। 'रसालताऽभूत्कुचयोः कटित्रे' कञ्ज (नपुं०) १. कमल, सरोज, २. पीयूष, अमृत, सुधा। (वीरो० ३/२८) (जयो० १३/५९, २/१४०) कटि-प्रदेश: (पु०) मध्यक. कमर। (जयो० १३/६) कञ्जकः (पुं०) एक पक्षी विशेष। [कञ्च केश इव कायति] कटिबद्धता (वि०) गमनायोद्यत. तत्परता. उद्यमशीलता। 'सर्व कञ्जगति (स्त्री०) कमलगति। (जयो० १३/५९) एव कटिबद्धतामति' (जयो० २१/३) कञ्जनः (पुं०) १. सूर्य, रवि। २. हस्ति, करि। ३. उदर, पेट। | कटिबद्धभावः (पुं०) तत्परता युक्त भाव (वीरो० ९/१८) कञ्जमुख (नपुं०) कमलमुख। (जयो० १७/११७) कटि-बन्धनग्रन्थिः (स्त्री०) नाड़ा, नीवि। (जयो० १२/११२) कञ्जलः (पुं०) एक पक्षी विशेष। [क+कलच्] कटिभागः (पुं०) अवलग्नक, कमर भाग। (जयो० १०/५९) कञ्जोच्चयः (पुं०) कमल समूह का विकास (जयो०१८/४६) कटिमण्डलः (नपुं०) कटि समूह। (जयो० ६/९) कट् (सक०) जाना, आवृत करना, ढकना, प्रकट होना, कटि-मालिका (स्त्री०) करधनी, कंदौरा। चमकना। कटिमेखला (स्त्री०) करधनी, काञ्ची, कंदौरा। कटः (पुं०) अद्भुत, आश्चर्यकारी। कटाद्भुताः कटाशब्दोऽ- कटिरोहकः (पुं०) महावत। व्ययोऽद्भुत वाचकः' (जयो० वृ० २४/१८) 'अद्भुतोऽपि कटि-वस्त्रं (नपुं०) नाड़ा, नीवि। कटाव्ययम्' इति वि' २. कलिंजर वृक्ष-(जयो० वृ० कटिशीर्षकः (पुं०) कूल्हा। २१/३०) कट-श्रोणौ शयेऽत्यल्पे किलिञ्जगजगण्डयो' इति कटिश्रृंखला (स्त्री०) करधनी, किंकणी युक्त कंदौरा। विश्वलोचन। (जयो० वृ० २१/३०) ३. कटाक्ष, तिरछी कटिसूत्रं (नपुं०) करधनी, मेखला, काञ्ची, कमरबन्ध। चितवन। (जयो० सुद० ११८) ४. चढ़ाई, ५. कूल्हा , कटी (स्त्री०) कमर। (समु० ७/४) कटी स्यात्कटिमागध्योः कटिभाग। ६. हस्ति गण्डस्थल। ७. बाण, मसालभूमि। ८. इति वि० (जयोc २१/३०) प्रथा, पद्धति। कटीरः (पुं०) [कट्+ ईरन्] कूल्हों का गर्त। कटकः (पुं०) १. सेना, जनसमुदाय (जयो० ७/८५, (जयो० कटीरकं (नपुं०) [कटीर कन्] कूल्हा, कमर। १२/१२४) 'वटकं घटकल्पसुस्तनीतः कटकं' (जयो० कटीसूत्रं (नपु०) ०करधनी, कन्दौरा, मेखला, ०काञ्ची, १२/१२४) ३. टटिया, जाली, जो बांस की बनाई जाती। ___०कमरबंध। (दयो० २४) 'बंसकंबीहि अण्णोण्णजणणाए जे किञ्जति घरावणादिवाराणं कटु (वि०) [कट उ] तिक्त, कडुवा, चरपरा, कषैला। ढंकणटुं ते कडया गाम' (धव० १४/४०) ४. मेखला, _ 'कटु मत्वेत्युदवमत्सा' (सुद० वृ०८९) करधनी, रस्सी, ५. वृत्त, घेरा, आवरण। कटुः (पुं०) तीखापन, तीक्षणता। कटकरणं (नपुं०) चटाई बनाना। 'कटकरणं कटनिर्वर्तकं कटु (नपुं०) दुर्वचन, निन्दा। चित्राकार मयोमयं पाइल्लगादि' (जैन०ल०७०३१३) कटुक (वि०) [कटु कन्] तीक्षण, कडुवा। (जया० ६/१८, कटकिन् (पुं०) [कटक इनि] पर्वत, गिरि। ९/८४) २. प्रचंड, प्रचुर, तीव्र, चरम। ३. अप्रियकर, कटटः (पुं०) [कटकट लच्] १. अग्नि, आग, २. स्वर्ण, अरुचिकर। ३. गणेश। कटुकः (पुं०) तीक्ष्णपन, प्रचण्डता। (भक्ति०४६) कटजलं (नपुं०) [कट् + ल्युट] छप्पर, छत। कटुकता (वि०) कड़वाहट. अक्खड़पन, अशिष्ट व्यवहार। कटाक्षः (पुं०) १. तिरक्षी दृष्टि, तिर्यग् नेत्र, नयनोपान्त, कटुकीटः (पुं०) मच्छर। अपाङ्गा (जयो० वृ० ३/१०३) २. तीक्ष्ण, कठोर, तेज कटुरं (नपुं०) [कट+उरन्] छांछ, मट्ठा, तक्र। (सुद० १/४०) 'स्मरस्येव यत्कराक्षः शरः' (सुद० १/४०) कटोरं (नपुं०) मिट्टी का पात्र, सकोरा। कटाक्ष बाणः (पुं०) तिर्यग् बाण, तिरछे तीर। (सुद० वृ०१२३) कटुकिः (स्त्री०) कटुवचन, कर्कश वचन, मृदुतारहित (वीरो० कटाक्ष-शरः (पुं०) तिर्यग् बाण। २२/३२) कटाहः (पुं०) १. कढ़ाई, २. टीला, ३. गत। कटोलः (पुं०) [कट ओलच्] १. चरपरा, कटुक। २. नीच कटिः (स्त्री०) [कर इन] कमर। पुरुष। For Private and Personal Use Only Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कठ् २४७ कण्ठ् कठ् (अक०) कठिनता से रहना। कणत्कृत (वि०) परिकूजन, कुहु कुहु शब्द, कण-कण शब्द कठः [कठ्+अच] कठमत। करने वाला। 'मञ्जीर कोदार-कणत्कृत' (जयो० १६/४६) कठर (वि०) । कठ्। अच्] कठमत। कण-भक्षकः (पुं०) एक पक्षी विशेष। कठर (वि०) | कठ्अरन्] कड़ा, सख्त। कणपः (पुं०) अयस्क छड़, भाला। कठिका (स्त्री०) खड़िया, सफेद मिट्टी। कणलाभः (पु०) जलावर्त, भंवर। कठिन (वि०) (कठ्। इनच] सुद ढ़, अनमनात्मक कठिन। कणश: (अव्य०) अल्प भाग में, लघु हिस्से में, दाने-दाने कठिन, कठोर. दृढ़। (जयो० १७/४८) 'पद्मानि यस्मात्कठिना पर, छोटा-छोटा। समस्या' (वीरो० २/३१) 'कुण्ठात्मकोर: कठिनन' (जयो० कणि (स्त्री०) कणिका (जयो० २६/४८) १७/४८) कणिकः (पुं०) [कण कन्] धान्य कण, धान्य का छोटा अंश। कठिन-कठोर (वि०) अतिशय कठोर, अधिक दृढ़, अत्यधिक कणिका (स्त्री०) लेशमात्र, किंचित् भी, छोटा सा, अल्प। सख्त। (जयो० ६/६१) 'कणिकाऽपि न शर्मणः' (जयो० २/१३३) 'कणिकाऽपि कठिनता (वि०) कठनाई युक्त, सुद ढ़ता युक्त। (सुद० १२१) लेशमात्रमपि न' (जयो० वृ० २/१३३) कठिना (वि०) १. कठोर, दृढ़। (सुद० २/४४) 'स्वभावतो य कणिशः (पुं०) धान्य बाल, धान्य के ऊपर अंश, दानों वाला कठिना सहेरं' (सुद० २/४४) २. मिष्ठान्न। हिस्सा। कठिनी (स्त्री०) खटिका. खड़िया। 'क्षणोत्ति कठिनीञ्च कीर्तिमरे' कणीक (वि०) [कण+ईकन्] अल्प, लघु, छोटा। (जयो०६/१०५) कणीचिः (स्त्रो०) पुष्पलता (जयो० ११/९०) कठोर (वि०) १. दृढ, ताकतवर, शक्तिशाली, २. क्रूर, निर्दय। कण (अव्य०) [कण+ए] भावनात्मक अव्यय. इच्छाशक्ति. (समु० १/२३) ३. तीक्ष्ण, शल्यमय। प्रधान अव्यय। कड (वि०) [कड्+अच्] १. गूंगा, मूक। २. मूर्ख, अनभिज्ञ। कणोऽपि-कण-कण तक भी। (जयो० ५/४) २. शब्द विशष। कणेरा (स्त्री०) १. हथिनी, २. वेश्या। कड-कडाशब्दं (नपुं०) सन्निनाद. कड-कड शब्द, मेघों की कणोपजल्प (वि०) कणों से व्याप्त। 'सत्पुष्पतल्पमपि वह्निकणोप गड-गडाहट। (जयो० वृ०८/१२) जल्प' (सुद० ८६) कडङ्गरः (पुं०) तृण, तिनका।। कण्टकः (पुं०) १. कांटा, शल्य, क्लेश, कष्ट, उत्पात। कडंगरीय (वि०) तृण उपयोग करने वाला। (मुनि० ३) 'कण्टकेन न विद्धेयं जातिः' (सुद० १०४) कडधं (नपुं०) पात्र. भाजन, वर्तन विशेष। (गडयते सिच्यते २. रोमांच, हर्ष। (जयो० १०५५) जलादिकं अत्र-गड- अत्रन्-गकारस्य ककार) कण्टक-वण्टकः (पुं०) काटे-बांटे-जयो० १३/११॥ कडन्दिका (स्त्रो०) शास्त्र, ग्रन्थ, पोथी। कण्टकित (वि०) [कण्टक- इतप्] शङ्कायुक्त (जयो० १/८९) कडम्बः (पुल) डंठल। रोमांचित (जयो० २२/५९) कांटेदार, शल्य युक्त, रोमांचित। कडार (वि०) अहंशील, अभिमानी. ०ढोठ, घमंडी। (जयो० १४.११) वीरो० ४/६२) कडितुल: (पुं०) असि, खङ्ग, तलवार। [कट्यां तोलनं ग्रहणं | कण्टकिताड़क (वि०) रोमाञ्चित अंग वाला, रोमराजि से यस्य] प्रफुल्लित। कण (अक०) शब्द करना, चीत्कार करना, कराहना। कण्टकिताङ्ग धारक (वि०) रोमाञ्च से परिपूर्ण शरीर वाले। कणः (पुं०) [कण+अच्] १. अंश, भाग हिस्सा। (जयो० ___ गुणकृष्ट इवाधिकारकः सुद श: कण्टकिताङ्गधारकः। (जयो० १८/६२) हक्कोणकणर्भरन्यः कीटादीव सचेननं जिनगिरा १०/५६) रेणोः कणादीत्यतः। (मुनि० २२) २. दाना, अनाज का कण्टकिन् (वि०) [कण्टक इनि] कांटेदार, कंटीला। अंश, टुकड़ा। कण्टकिलः (पुं०) [कण्टक+इलच्] कांटेदार बांस। कणक (वि०) धान्य कणार्थ। (जयो० १८/१५) कण्ठ (अक०) विलाप करना, शोक करना, आतुर होना, कण-जीरकं (नपुं०) सफेद जीरा। उत्कण्ठित होना। For Private and Personal Use Only Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra कण्ठः कण्ठः (पुं०) गला, गर्दन। (सुद० १ / ३४) कण्ठकंदल (पुं०) सद् गलनाल (जयो० ५/५२) कण्ठ-कम्बु (वि०) कण्ठ सुशोभित हुआ। (जयो० १२ / १४) कण्ठ-कूणिका (स्त्री०) बीणा । कण्ठगत (वि०) गले में स्थित, गले में आने वाला। कण्ठतः (अव्य०) [कण्ठ+तसिल्] गले से, कण्ठ से, स्पष्टता । कण्ठतट (पुं०) गले का भाग। कण्ठतटं (नपुं०) गले तक, गले का पार्श्व कण्ठतटी (स्त्री०) गर्दन तक की। कण्ठदध्न (स्त्री०) गले तक पहुंचने वाला कण्ठनाल (पुं०) गलकन्दन, हार (जयो० ११ / ४७ ) कण्ठनीडक: (पुं०) गृद्ध, चील पक्षी । कण्ठनीलकः (पुं०) मशाल, बड़ा दीपक । कण्ठपथं (नपुं०) कण्ठमार्ग । www.kobatirth.org रज्जू कण्ठपाशकः (पुं०) हस्ति पाश, हस्ति के कण्ठ की कण्ठपार्श्वः (पुं०) गले का भाग कण्ठभाग । कण्ठभूषा (स्त्री०) कंठी, गले का छोटा हार कण्ठमणि: (स्त्री०) गल कंठी, मलि युक्त कंठी। कण्ठलता ( स्त्री०) १. पट्टा, गले का पट्टा । २. लगाम, अश्वारोधक पट्ट्य । कण्ठवर्तिन् (वि०) कण्ठगत, गले से सम्बन्धित । कण्ठशोष: (पुं०) गले का सूखना । कण्ठसूत्रं (नपुं०) १. गले का धारा । २. आलिंगन । कण्ठस्थ (वि०) १. याद होना, रट जाना। २. कण्ठ में होने वाला। कण्ठाभरणं (नपुं०) गले का आभूषण, कण्ठाभूषण, हार। (जयो० पृ० ३ / ९०४ ) कण्ठालः (पुं० ) [ कण्ठ् + आलच्] १. फावड़ा, कुदाली । २. ऊँट, ३. युद्ध। कण्ठाला (स्त्री०) दही बिलोने का पात्र । कण्ठिका (स्त्री० [कण्ठ्ठन्+टाप्] कंठी माला, एक लड़ी " का हार। कण्ठी (स्त्री० ) [ कण्ठ + डीष्] १. माला, एक लड़ी का हार । २. गलापट्ट । कण्ठीकृत (वि०) कण्ठस्थान में धारण की जाने वाली (वीरो० १/२४) कण्ठीरवः (पुं०) १. उन्मत्त हस्ति। २. कबूतर कण्ठीलः (पुं०) ऊँट | कण्ठेकालः (पुं०) शिव, महादेव, शंकर। २४८ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कण्ड्य (वि०) (कण्ठ+यत्] गले के लिए उचित, गले से सम्बन्धित कतमाल: कण्ठ्य-वर्णः (पुं०) कण्ठ स्थान वाले अक्षर-अ, आ, क, ख, ग, घ, इ और ह ङ् कण्ड्यस्वरः (पुं०) गले से सम्बन्धित स्वर । कण्ड् (अक० ) १. प्रसन्न होना, हर्षित होना, संतुष्ट होना, अहंकारी होना । कण्ड (सक० ) निकालना, बाहर करना, साफ करना, रक्षा करना, बचाना। कण्डकः (पुं०) समु दाय, उत्तरोत्तर अनन्त के भाग । कण्डनं (नपुं० ) [ कण्ड् + ल्युट् ] फटकना, साफ करना। 'तुषानां कण्डन' कण्डनं दूरीकरणं (जयो० वृ० २३/५४) कण्डनी (स्त्री० ) ओखली । कण्डरा ( स्त्री० ) [कण्ड + अरन्] नस। कण्डिका (स्त्री०) अनुच्छेद, छोटा गद्यांश। कण्डू (पुं०) १. खाल, खुजली, खर्जन। (जयो० ६ / ६१ ) कण्डू (स्त्री०) खुजलाना । कण्डूति: (स्त्री० ) [ कण्डू+यक् + क्तिन्] खर्जन, खाज, खुजली । 'करतल- कण्डूति मुद्धरति' (जयो० ६ / ६१ ) कण्डूय ( सक०) खुजलाना, मसलना । कण्डूयन्ते (समु० १९ / २२) 'कण्डूयन्ते यतः स्मैते' शरीरं हिरणादयः (समु० ९/२२) कण्डूयनं (नपुं०) खर्जन, खुजली, खाज, ददू। 'दद्रो खर्जन । कण्डयन" (जयो० वृ० २/४ ) कण्डूयनक (वि०) खर्जनोदपाक । कण्डूया (स्त्री० ) [ कण्डूयक्+अ+टाप्] ०खुजलाना, ०खर्जन खाज । कण्डूल (वि०) द्दू वाला, खर्जनशील कण्डोल : (पुं० ) [ कण्ड्+ओलच्] टोकरी, धान्यपात्र । कण्डोष: (पुं० ) [ कण्ड+ ओषन् ] वाद्य विशेष, झां झा । कण्वः (पं०) कण्वऋषि । कतः (पुं०) [कं जलं शुद्धं तनोति] निर्मली का पौधा, रीठा । कतकः (पुं०) निर्मली, रीठा। कतम (सर्व) कौन कौन सा । 'सुमुख कार्यचणः कतमो नरः' (जयो० १०/५९) कतर (सर्व०) कौन, दो में से कौन सा । For Private and Personal Use Only कतमाल: (पुं०) वह्नि, अग्नि, आग। 'कस्य जलस्य तमाय शोषणाय अलति पर्याप्नोति जल+अच् । Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कति कदन्नकः कति (सर्व०) कितने। कतिकृत्वः (अव्य०) [कति+कृत्वसुच्] कितनी बार। कतिचिद् (अव्य०) कितने समय 'सुखेन कालं कतिचिद् ___व्यतीतवान्' (समु० ४/१७) कतिधा (अव्य०) [कति+धा] कई बार, कितने स्थानों पर, कितने भागों में। कतिपय (वि०) किति+अयच्] कुछ, कई, कई एक, कुछ दिन व्यतीत होने पर। (जयो० ५/२) कतिविध (वि.) कितने तरह का, कितने प्रकार का। कतिशः (अव्य०) [कति+शस्] एक बार में कितना। कत्थ् (अक०) निन्दा करना. दुर्वचन बोलना, उपेक्षित करना। कत्थनं (नपुं०) प्रशंसा करना, आत्मभाव व्यक्त करना, डींग मारना। कत्सवरं (नपुं०) [कत्स+वृ+अप] कंघा। कथ् (सक०) १, ०कहना, बोलना। (अक०१२२) २. प्रतिपादन करना, उल्लेख करना, ३. संकेत करना, ४. परस्पर वार्तालाप करना। 'कथय-प्रतिपादय' 'कथ्' इति भौवादिको धातुर्यस्य लुझ्यिन्ते। अचीकथत् इति रूपं जैनकाव्येषु प्रचलितम्' अचीकथच्च मन्त्रिभ्यो इति वादीभसिंहेन क्षत्रचूडामणौ प्रयुक्तम्। (जयो० २३/७१) 'कंथोच्यताम्कहिए कुशलक्षेमकथोच्चताम्' (दयो० १०७) कथ्यते-- (जयो० २/३३) कथक (वि०) [कथ्+ण्वुल] ०कथाकार, वार्ताकार, प्रवाचक। कहानी कहने वाला। कथकः (पुं०) १. नायक, अभिनेता। २. कथा प्रस्तुतकर्ता। कथनं (नपुं०) [कथ्+ ल्युट] कहना, प्रतिपादन, प्ररूपण, कथामुख। 'नयामि कथने प्रणवमुत च नः' (जयो० २२/९१) कथने-कथामुखे (जयो० वृ० २२/९१) कथम् (अव्य०) कैसे, किस प्रकार, किस तरह, किस रीति से, कहां से, कब। (दयो० ९०) 'मनोरमायां तु कथं सरस्याम्' (सुद० ४/१५) कथमपि (अव्य०) किसी तरह से भी, किस विधि से भी, कभी भी। (जयो०१/१७) 'कथमपि तथा सुयात्री' (सुद० वृ० ९७) कथञ्चित् (अव्य०) किसी प्रकार से, किसी तरह का। 'जिनधर्मो हि कथञ्चिदिन्यतः' (सुद०३/१२) कथित (वि०) प्रतिपादित। (जयो० १/९) कथा (स्त्री०) {कथ। अङ । ताप्] १. वार्ता संलाप 'श्रीत्रिवर्ग । परिणायके तथा तिष्ठतीष्टकृदसावभूत्कथा। २. कथन पद्धति (जयो० १/६) (जयो० ३/२०) ३. प्रसंग, वर्णनगगनाञ्चानां कोटियेषा येषां पृथक्कथा मोटी (जयो०६/७) ४. हितकरचरित्र निरूपण पुरुषार्थोपयोगित्वात् त्रिवर्ग-कथनं कथा। (महा० पुं० १/११८) 'प्रभवति कथा परेण पथा रे।' (सुद० ८८) कथाकर (वि०) कथा/कहानी कहने वाला। कथाकार (वि०) कहानीकार, वार्ताकार। कथाकुंज: (पुं०) कथा समूह। कथाचारः (पुं०) कथानुकरण। (जयो० १/६) कथाछल (नपुं०) कहाने का कारण, कथा के बहाने। कथाधारः (पुं०) प्रशंसाधार। 'कथायाः प्रशंसाया आधार : स्थान मस्ति' (जयो० वृ० ६/२४) कथानकं (नपुं०) कथा सार, संक्षिप्त कथा। कथानायकः (पुं०) कहानी का प्रमुख पात्र। कथापुरुषः (पुं०) नायक, प्रमुख पात्र। कथापीठं (नपुं०) कथाकर रस्य भाग कथांश। कथा-प्रबंध (पुं०) कल्पित कथा। बृहतकथा। कथा-प्रवेशः (पुं०) कथा मुख, कथानक का प्रारम्भ। कथा प्रसङ्गः (पुं०) वार्तालाप, बातचीत से प्रसंग प्रस्तुतीकरण। कथाप्राणः (पुं०) कथा का मूल पात्र, नायक। कथामुखं (नपुं०) कथानक का परिचयात्मक अंश। कथायोगः (पुं०) कथासंयोग, कथा का माध्यम, कथाधार। कथाविपर्यासः (पुं०) कथा का बदलाव, कथा का परावर्तन। कथाशेषः (वि०) वृत्तान्त का अवशेष, वार्ता का अवशेष भाग। कथित (भू०क वृ०) कहा गया। (सुद० १/९५) कथोदयः ।) कथा का प्रारम्भ। कथोद्घात: (पुं०) कथा की पुनरावृत्ति। कथोपगामिन् (वि.) कथन को प्राप्त होने वाला। (जयो० १/२९) कद् (अक०) घबराना, हत होना, खिन्न होना, शोक करना। कद् (अव्य०) [कद्+क्विप्] यह अव्यय ह्रास, अल्पता, निरर्थकता, एवं दोषादि को व्यक्त करता है। कदक्षरं-बुरा अक्षर, अपसूचक अक्षर। कदान्नं-दूषित अन्न। कदकं (नपुं०) [कद: मेघः इव कायति प्रकाशते-कद कै+क] ___ पंडाल, चंदोआ, शामियाना। कदनं (नपुं०) [कद्+ल्युट्] विनाश, हनन, प्रताड़न। कदन्नकः (पुं०) अभक्ष्य-भक्षण। (जयो० २७/३१) For Private and Personal Use Only Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra कदम्बः www.kobatirth.org कदम्ब: (पुं०) १. कदम्ब वृक्ष, २ हलदी, ३. घास विशेष । जिसके पुष्प मेघगर्जना से पुष्पित होते हैं। कदम्बराज (पुं०) कदम्ब नाम राज्य । (वीरो० १५/४२) कदम्बकं (नपुं०) समु दाय, समूह, ओघ । २. कदम्ब फूल । कदय (वि०) कुत्सित, दया रहित। (जयो० ६ / १५ ) कदर : (पुं० ) [ कं जलं दारयति नाशयति-क+ह+अच्] आरा, लकड़ी चीरने की मशीन । १. अंकुश। कदर्थिभावः (पुं०) खोटा भाव। (वीरो० १८/३४) कदर्थित (वि०) दुश्चिन्तित बुरा चिन्तन (समु० ७/२५) 'स्विदहमस्म्यनयेन कदर्थित:' (जयो० ९/३२) कदर्य (वि०) दया रहित धनोपार्जन, कष्टजनित धन संचय यो भृत्यात्म पीडाभ्यामर्थं संचिनोति स कदर्य (जैन०ल०३१४) कदल: (पुं०) [कद्+कलच्, कन् च] कदली वृक्ष, केले का पादप । कदलकः (पुं०) कदली तरु, केले का वृक्ष । कदली (स्त्री०) १. केला, कदल पादप २. रम्भा जन्मदात्री रम्भा कदल्यपि जिता ।' (जयो० ५/८१) ३. 'मोचा नाम कदली' (जयो० वृ० ११ / २०) कदली का एक नाम 'मोचा' भी है। ३. मृग, ४. हस्ति पर शोभित ध्वजा । कदलीघात (पुं०) सहसा आयु का घात, विस-वेषण- रक्तक्खयभय-सत्यग्गहण सॉकलेसेहिं । आहारस्सोस्सासाणं णिरोहदो छिज्जदे आऊ ।। ( धव० १/२३) कदा (अव्य० ) [ किम्+दा] कब, किस समय कस्मिन् काले जयो० ११/८५) नाहं भवेयं कदा (सुद० ९६ ) 'कदा समय स समायादिह' (सुद० ७१) कदाचनान्यं (वीरो० १७/८) किसी समय । कदाचरण (वि०) कुत्सित आचरण (जयो० २/९) कदाचारक (वि०) कुत्सिताचरण, भ्रष्टाचारी, पतित आचरण वाला । 'नरं तञ्च रङ्क कदाचारकम्' (जयो० २ / १३१) कदाचित् (अव्य०) कभी-कभी, एक बार, अब। (हित सं०१३, सम०६/८, जयो० १/७७) कदाञ्छी (स्त्री०) पल्लव देश के नरेश की पुत्री, राजा मरूवर्मा की रानी। (वीरो० १५ / ३५) कदाचिदपि (अव्य०) कभी भी। (जयो० ४/६०) , कदाचिद्यदि (अव्य०) फिर भी कभी तो (वीरो० ३/१०) कदात्मन् (वि०) कृतघ्न आत्मा वाला, कुत्सित आत्मा सहित (जयो० २/१०२) कदादरि (वि०) निरादरकारी, निरादर करने वाला। (जयो० ९/१०) नहि कदापि कदादरि मे मनः' २५० Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कनिष्ट कदानृणत्व (वि०) सभी ऋण रहित। (जयो० २०/७०) कदापि (अव्य०) कभी भी किसी भी समय क्वापि (जयो० वृ० २३/३२) चित्ते न कदाप्युपवास' (जयो० १/२२) अथान्यदा (जयो० २३/७१) जीवो मूति न हि कदाप्युपयाति तत्त्वात् (सुद० १२९) कदाश्रवः (पुं०) अशुभ समागम । कटु (वि०) [ कद्+रु] भूरे रंग का कथिक (वि०) कथन ( वीरो० २२/९) कनकः (पुं०) मंगलावती देश के कनकपुर का राजा (वीरो० ११/२६) कनकं (नपुं०) १. धत्तूर, धतूरा, ढाक का वृक्ष (जयो० वृ० २५/१४) २. स्वर्ण, सोना, ३. वज्रायुध 'कन्यका-कनककम्बलान्विति' (जयो० २/१००) काच कनकमणि-मुक्ता (जयो० ३/७९) कनक कम्बलं (नपुं०) स्वर्णमयी कम्बल (जयो० २/१०० ) कनक कुम्भ: (पुं०) स्वर्णघट। 'कनकस्य स्वर्णस्य कुम्भयोः कलशयोर्युगमेव राजते' (जयो० ० ५/४५) कनकगिरि: (पुं०) स्वर्णगिरि, सुमेरु । कनकटङ्कः (पुं०) स्वर्णमयी कुठार | कनकदण्डं (नपुं०) स्वर्णदण्ड, छत्र, राजच्छत्र कनकपत्र (नपुं०) स्वर्ण निर्मित कर्णाभूषण | कनकपरागः (पुं०) स्वर्णमयी रज, पीली धूल कनकपुर: (पुं०) मंगलावती देश का एक नगर । (वीरो० ११/२१ ) कनकमाला ( स्त्री०) नाम विशेष, एक मंगलावती के राजा कनक की रानी (वीरो० ११ / २२६) राज पुत्री का नाम । कनकमेरुः (पुं०) सुमेरु पर्वत । कनकरस: (पुं०) हरताल, एक धातु विशेष. स्वर्ण भस्म । कनकस्थली (स्त्री०) स्वर्णमयी भूमि, स्वर्णाकार, सोने की For Private and Personal Use Only खदान । कनकाद्रीन्द्रः (पुं०) सुमेरु पर्वत (जयो० १२/७४) कनखलं ( नपुं०) तीर्थस्थान विशेष । कनङ्गरा (स्त्री०) नौका को स्थिर करने वाली सांकल, लंगर, बेड़ा, नाव- पत्थर | कनयति कम करना, घटाना, न्यून करना । कनाशक (वि०) पाप घातक (सुद० १३६ ) कनिष्ट (वि०) (इष्टं इच्छा विषयीकृतं कं] अभीष्ट (जयो० वृ० ३/२३) यशोविशिष्ट । Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कनिष्ठ २५१ कन्यादानार्थ कनिष्ठ (वि०) [अतिशयेन युवा अल्पो वा-कनादेश:+ कन्इष्ट्न् ] अल्पतर, छोटे से छोटा, न्यून। कनिष्ठा (स्त्री०) छोटी अंगुली। 'शौर्यप्रशस्तौ लभते कनिष्ठां' (जयो० १/१६) कनिष्ठिका (स्त्री०) [कनिष्ठ कम्+टाप्] छोटी अंगुली। कनीनिका (स्त्री०) १. छोटी अंगुली। २. आंख की पुतली। (जयो० वृ०२/१०) कनीनी (स्त्री०) १. छोटी अंगुली। २. नेत्र की पुतली। (जयो० वृ० २/१०) कनीनीक देखो कनीनी। कनीयस् (वि०) अपेक्षाकृत लघु, दो में एक कम। कनेरा (स्त्री०) [कन्। एरन्+टाप्] वेश्या, गणिका। कन्तुः (पुं०) [कन्+तु] कामदेव, मदन। २. हृदय। कन्था (स्त्री०) गुदड़ी, जीर्णवस्त्र की थैली। 'सग्रन्थि कन्थाविव रात्तमारुतैः' (वीरो० ९/२५) कन्दः (पुं०) जमीकंद, गांठदार लहसुन, प्याज आदि। २. | ___अंकुर (जयो० ११/४३) १. ग्रन्थि, २. कपूर, ३. बादल। कन्दकः (पुं०) गर्त, गड्डा-हाथी पकड़ने के लिए बनाया गया गर्त। कन्दट्ट (नपुं०) श्वेत कमल, शुभ पद्य। कन्दप्रकारः (पुं०) अंकुरमात्रक। (जयो० ११/४३) कन्दरः (पुं०) [कम् दृ+अच्] गुफा, खोह, पर्वत के अन्दर का गुह्य स्थान। (जयो० १४/६८) कन्दरा (स्त्री०) गुफा। कन्दर्पः (पुं०) १. कामदेव, २. रागात्मक शब्द वाला। 'कन्दर्पः कामस्तद्हेतुस्तत्प्रधाने वाक्प्रयोगोऽपि कन्दर्पो' (सा०ध०टी० ५/१२) 'रागोद्रेकात् प्रहासमिश्रोऽशिष्टवाक्यप्रयोगः कन्दर्पः। (त० वा० ७/३२) राग की अधिकता से हास्य मिश्रित अशिष्ट वचन वाला। कन्दर्पकूपः (पुं०) योनि, जन्मस्थान। कन्दर्पज्वरः (पुं०) आवेश, प्रबल इच्छा, कामोद्दीपन। कन्दर्पधर (वि०) अहंकारी, कामी। कन्दर्पभावना (स्त्री०) कुचेष्टा युक्त भावना, द्रवशीलता जन्य भावना/इच्छा। हास्योत्पादक भावना। 'कामयोगः परविस्मय कारी वा कन्दर्पभावनेत्युच्यते' (भ०अ०टी० १८०) कन्दर्पभूपः (पुं०) कामरूपी राजा। 'कन्दर्पभूपो विजयाय याति' (वीरो०६/१९) कन्दल: (पुं०) १. कलह, निन्दा, गरे। (जयो० १३/७०) २. | नया अंकुर, ३, गाल, कनपटी। ४. युद्ध। कन्दली (स्त्री०) [कन्दल+ङीष्] कदली वृक्ष। २. कमलगट्टा कन्दुः (पुंस्त्री०) १. तंदूर, पतीली। २. गेंद। कन्दुकुचाकारधरो युवत्या। (वीरो० ९/३६) कन्दुकः (पुं०) [कम्+दा+डु कन्] गेंद, गेन्दुक-रबड़ या कपड़े से निर्मित पूर्ण लोकाकार गेंद जिससे खेला जाता है। कन्दुकत्व (वि०) गोलाकार गेंद की तरह। (जयो० १/१०) कन्दुकभावः (पुं०) डुलमुल भाव। (जयो० १/१०) कन्दोटः (पुं०) श्वेतकमल, शुभ्रकमल। कन्दोदृः (पुं०) श्वेतकमल, धवलपद्म। कन्दोपमा (स्त्री०) जड़ की उपमा (जयो० ११/४४) कन्धः (पुं०) कन्धा, ग्रीवा (जयो० ७/२३) कन्धरः (पुं०) [कं शिरो जलं वा धारयति-कम्+धृ+अच्] १. ग्रीवा, कन्धा, बाहुमूल (वीरो० ३/३५) कन्धरा (स्त्री०) ग्रीवा, गर्दन। कन्धा (स्त्री०) ग्रीवा, गर्दन। कन्धिः (स्त्री०) [कं शिरो जलं वा धीयते कम्+धा+कि] १. सागर, समु द्र। २. ग्रीवा, गर्दन। कन्नं (नपुं०) [कद्+क्त] पाप, अशुभभाव। कन्यका (स्त्री०) कन्या, लड़की, कुमारी, तरुणी, अविवाहित पुत्री। 'कन्यका-कनक-कम्बलान्विता' (जयो० २/१००) सौन्दर्यसारसंसृष्टिं भूभूषां कन्यकामिमाम्' (जयो०७/११) कन्यकाजनः (वि०) कुमारियां, लड़कियां। कन्यकाजातः (वि०) कन्या से उत्पन्न पुत्र, अविवाहित कन्या का पुत्र। कन्यसः (पुं०) [कन्य+सो+क] छोटा भाई। कन्यसी (स्त्री०) छोटी बहिन। कन्या (स्त्री०) १. लड़की, कुमारी, कुंआरी, पुत्री, सुता। (जयो० ४/६२) कन्याऽसौ विदुषी धन्या गुणेक्षण-विचक्षणा। (जयो०७/१३) २. छठी राशि-कन्या राशि। ३. दुर्गा। ४. इलायची। कन्याका (स्त्री०) तरुणी बाला, कुमारी। कन्यागत (वि०) कन्या राशि में गया हुआ। कन्याग्रहणं (नपुं०) विवाह में कन्या स्वीकरण। कन्यादानं (नपुं०) कन्यादान, विवाह में कन्या का वर एवं कुटुम्बिजनों के सामने ग्रहण करने का कथन। (जयो० वृ० १२/५६) 'सूत्रमिव भाविकन्यादान' (जयो०६/१२५) कन्यादानार्थ (वि०) विवाह सम्बंधी विधि में कन्या की प्रवृत्ति हेतु कन्या दान के लिए। (जयो० १२/५३) For Private and Personal Use Only Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कन्यादूषणं २५२ कपिकच्छु: कन्यादूषणं (नपुं०) कौमार्य भंग। कन्यादोष: (पुं०) कन्या की बदनामी। कन्याधनं (नपुं०) दहेज, कन्या के लिए सम्पत्ति। कन्यानृतः (पुं०) कन्या विषयक असत्य। कन्यानुरक्त (वि०) कन्या में अनुरक्त। (समु० २/२८) । अविवाहित पुत्री में आसक्ति। मानेतुं प्रचकार तत्र पथि, तत्कन्यानुरक्तोक्तियम्' (समु० २/२८) कन्यापक्षिकलोकः (पुं०) माडपिक जन। (जयो० १२२१३३) कन्यापतिः (पुं०) दामाद, जामाता, पति। कन्यापुत्रः (पुं०) कन्या/लड़की का पुत्र, आत्मजा का बेटा। कन्यापुरं (नपुं०) अन्तःपुर, रनवास, कन्याओं का आवास स्थान। कन्याप्रदानार्थ (वि०) कन्यादान हेतु। (जयो० १२/५६) कन्याप्रसूतः (पुं०) कन्या उत्पत्ति। (वीरो० ९/१९) कन्यारत्नं (नपुं०) श्रेष्ठ कन्या, रूपवती बाला, अत्यन्त मनोरम पुत्री। यस्मै दत्त्वा यमाशंसी कन्यारत्नमकम्पन:। (जयो० ७/१२) कन्यालीकः (पुं०) कन्या विषयक झूठ। कन्याराशि: (स्त्री०) कन्याराशि, छठी राशि। (वीरो० २१/१३) कन्यावेदिन् (पु०) दामाद, जमाता। कन्यासः (पुं०) जल सिंचन। (वीरा० ८/२२) कन्यास्वयम्बरः (पुं०) पति चयन की पद्धति, विविध कुमारों में से पति चयन की पद्धति। कन्यासमितिः (स्त्री०) कन्या समूह। (वीरो० ८/२२) कन्याहरणं (नपुं०) कन्या का अपहरण। कपट: (पुं०) प्रवंचना, छल, धोका, चालाकी, बनावटी, कृत्रिम। 'गजस्येव कपटाभ्रमुकायाम्' (जयो० २३/६६) कपट-कृत (वि०) छलिया, प्रवंचका, कपट करने वाला। कपटगत (वि०) कपट को प्राप्त, छल युक्त। कपटतावसः (पुं०) पाखंडी तपस्वी, बनावटी साधु। कपटदेहं (नपुं०) कृत्रिम देह, तदाकार शरीर। कपटपट (वि०) छल में निपुण। कपट-प्रबन्धः (पुं०) छलपूर्ण व्यवहार। कपटप्रेमः (पुं०) बनावटी प्रेम, कृत्रिम स्नेह। (दयो० ९६) कपटभावः (पुं०) छलभाव। कपटलेख्यं (नपुं०) असत्य अभिलेख, कुत्सित लेख। कपट वचनं (नपुं०) छल युक्त वाणी, छलपूर्ण वार्ता। कपट-वेशः (वि०) कृत्रिम आकार, बनावटी वेश। कपटशील (वि०) छल युक्त। कपटाभ्रमुका (स्त्री०) कृत्रिम हथिनी। 'कपटेन कृता याऽऽभ्रमुका हस्तिनी' (जयो० वृ० २३/६६) गजस्येव कपटाभ्रमुकायां मनसो बहुलापाया। (जयो० २८/६६) कपटिकः (पुं०) [कपट+कन्] कपटी, छली। कपर्दः (पुं०) [का पर्दै प्-क] १. कौंड़ी। २. जटा। कपर्दकः (पुं०) कौड़ी। [पई क्वि, बलोपः, पर कस्य गंगाजलस्य परा पूरणेन दापयति शुध्यति-कपर्द- कन्] (सुद० २/४८) दृशोरमुष्या द्वितयेऽवतार, कपर्दकोदारगुणो बभार। (सुद० २४४८) कपर्दिका (स्त्री०) [कपर्दक+टाप्] कौड़ी, काणिणि। (जयो० २३/५९) मधुरसा करटस्य हि निम्बिका थनमहो दुरितस्य कपर्दिका। (जयो० २५/२१) कपर्दिन् (पुं०) [कपर्द इनि] शिव का पर्यायवाची शंकर। कपाटः (पुं०) किबाड़, अरर। (जयो० २५/२८) १. मुख, द्वार। 'तावद्विचार-चतुरापि सुवाक् कपाटं' (जया० १०/९४) कस्यात्मनो वाट कवाट मुखमुद्धाटयति स्म। (जयो० वृ० १०/९४) कपाट-मुद्रा (स्त्री०) अभयमुद्रा। कपाट-सन्धिः (स्त्री०) कपाट के दोनों पलड़े। द्वार के दोनों भाग। कपाट-समु घातः (पुं०) आत्म प्रदेश का विस्तार। कपाटोद्घाटनं (नपुं०) दारोद्घाटन. द्वार खोजना, कपाट खोलना। कपालः (पुं०) [क पाल-अण] [कं शिरो जलं वा पालयति] १. खप्पर, ठीकरे, (दयो०४२) २. खोपड़ी १. कपाल, चूडापीड। २. संचय, समूह। ३. प्याला, सकारा, कटोरा, पात्र। कपालक्रिया (स्त्री०) शिरच्छेदन। कपालपाणि (पुं०) महादेव का नाम। कपालमालिनी (स्त्री०) दुर्गादेवी। कपालिका (स्त्री०) [कपाल कन्। टाप्] ठीकरा, खप्पर, मिट्टी के घड़े के टूटे टुकड़े। कपालिन् (वि०) [कपाल इनि] खप्पर हर्ता, खोपड़ी धारक। कपिः (पुं०) [कम्प+इ] बन्दर, लंगूर, वानर। (सुद० ३/३९) (समु० ४/३७) कपिञ्जलः (पुं०) [क+पिज्+कलच्] पपीहा, टिटिहिरी। कपिकच्छु: (स्त्री०) एक लता विशेष। For Private and Personal Use Only Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कपिकेतनः २५३ कबन्ध: कपिकेतनः (पुं०) अर्जुन का नाम। कपिजः (पुं०) शिलाजीत। कपितैलं (नपुं०) शिलाजीत। कपिध्वजः (पुं०) अर्जुन का नाम। कपित्थः (पुं०) [कपि+स्था-क] कैंथ, कबीट, कथा, दधिफल। __ 'कपित्थं दधिफलं' (जयो० वृ० २५/११) मन्मथ: कामचिन्तायां कामदेव-कपित्थयो:' (जयो० वृ० २१/२७) कपित्थ को मन्मथसार भी कहा जाता है। कपित्थदोषः (०) साधु के कायोत्सर्ग में दोष। 'यः कपित्थफलमन्मुष्टिं कृत्वा, कायोत्सर्गेण तिष्ठति तस्य कपित्थदोषः' (मूला० वृ० ७/१७) । कपिल (वि०) [कम्प्+ इलच्, पादेश:] भूरे रंग का। कपिलः (पु०) कपिल नामक मुनि। कपिल ब्राह्मन् (पुं०) कपिल नामक विप्र। (सुद० ७६) सुद र्शन सेठ मित्र। कपिलक्षण (नपुं०) बन्दर के लक्षण, चपलता युक्त, चंचलता सहित। (वीरो० ११४८) समाह सद्यः कपि-लक्षणेन, समाह सद्यः कपिलः क्षणेन।' (सुद० ३/३९) कपि-लक्षणा (वि०) चंचल स्वभाव वाली, बन्दर जैसे लक्षणों वाली। कपिला (स्त्री०) कपिल विप्र की पत्नी कपिला ब्राह्मणी। चम्पानगरी के विप्र कपिल की भार्या। कपिल विप्र सुद र्शन सेठ का मित्र था, जो रूप-सौन्दर्य में अनुपम था। उसी पर वह कपिला मुग्ध हुई, पर सुदर्शन ब्रह्म में लीन विरक्ति की ओर बढ़ता रहा। (सुदर्शनोदय) कपिलाख्या (वि०) कपिला नाम वाली, कपिला ब्राह्मणी, कपिलविप्र की पत्नी। सुद र्शनान्वयायाङ्का कपिलाङ्गना (स्त्री०) कपिल ब्राह्मण की स्थापिता कपिलाख्यया। अंगना। भार्या-कपिला। कपिश (वि०) [कपि+श] सुनहरी, स्वर्ण सदृश। कपिशः (पुं०) १. शिलाजीत, २. लोभान, ३. भूरा रंग। कपिशा (स्त्री०) माधवी लता। कपिशित (वि०) [कपिश+इतच्] स्वर्ण सदृशता, सुनरहे रंग वाला। कपुच्छलं (नपुं०) मुण्डन संस्कार। कस्य शिरस्य पुच्छं लाति-क पुच्छ+ला+क-कस्य शिरसः पुष्ट्यै पोषणाय कायति। क पुष्टि कै+क टाप्। कपूय (वि०) अधम, नीच, निम्न स्वभाव वाला। (कुत्सितं पूयते कु+ पूय+अच्) कपोतः (पुं०) कबूतर, पारावत। कपोतकः (पुं०) शिशु कबूतर। (जयो० १५/४५) कपोत-चरणं (नपुं०) सुगन्धित द्रव्य। कपोत-पाली (स्त्री०) चिड़ियाघर, जन्तु-आलय। कपोत-राजः (पुं०) कबूतरों का राजा। कपोतलेश्या (स्त्री०) मत्सर भाव युक्त लेश्या। छह लेश्याओं ___ में तृतीय लेश्या। कपोतहस्तः (पुं०) अंजली बद्धता। कपोताञ्जनं (नपुं०) सुरमा, अंजन। कपोतारिः (पुं०) बाज। कपोलः (पुं०) १. गाल, गण्डस्थल, गण्डमण्डल। 'कपौलौ घृतवरभूपौ' २. मिथ्या, झूठ, अलीक कल्पना। (जयो० ३/६०) कपोलकः (पुं०) कपोल, गाल, गण्डस्थल। 'दृशि चैणमदः ___कपोलकेऽञ्जनकं' (जयो० १०/५९) कपोल-कलित (वि०) मिथ्याजनित, अलीकता युक्त, कल्पना जन्य। 'कुत्सितेषु सुगतादिषु क्रमाद्धा कपोल-कलितेषु च भ्रमात्।' (जयो० २/२६) कपोलकलितेषु-मिथ्याकल्पितेषु। (जयो० वृ० २/२६) कपोलपालिः (वि०) गण्डस्थलाग्रभाग, कपोल भाग। (जयो० १३/७१) कपोलभित्ति (स्त्री०) कनपटी, चौड़ा फैला हुआ गण्डस्थल। कपोलमूलं (नपुं०) गण्डस्थल भाग। (दयो० ८६) कपोलरागः (पुं०) गालों की लालिमा, गण्डस्थल रागिमा। कफः (पुं०) बलगम, श्लेष्मा। कफचूर्णिका (स्त्री०) लार, थूक। कपक्षयः (पुं०) कफ रोग, श्वांस रोग फेंफड़े का रोग। कफणिः (स्त्री०) कोहनी [केन सुखेन फणति-स्फुरति-क+ फण्+इन्, क+फण्+इन] कफन (वि०) कफ नाशक। कफज्वरः (पुं०) बलगम से उत्पन्न होने वाला ज्वार/बुखार। कफल (वि०) [कफालच्] कफ प्रवाह, कफप्रवृत्ति। कफारिः (स्त्री०) सोंठ, अदरक। कफिन् (वि०) [कफ+इनि] कफ पीड़ित, कफग्रस्त। कफोणि (स्त्री०) कोहनी, केहुनाठ। कुक्षि-रोपित-कफोणितयाऽरं प्राप्य सा दधिशरावमुदारम्' (जयो० १०/१०५) कबन्धः (पुं०) १. बिना शिर का धड़। [कं मुखं बध्नाति क+बन्धःअण्] २. पेट, उदर। ३. मेघ। ४. धूमकेतु, ५. राहु, ६. जल, ७. कबन्ध, शिरोहीन नामक राक्षस। For Private and Personal Use Only Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra कबरी www.kobatirth.org कबरी (स्त्री०) केश, बाल। (वीरो० ५/१२, ७/९) (जयो० ११२/११) कबित्य : (पुं०) कैंथ तरु । कम् (अक० ) प्रेम करना, अनुरक्त होना, कामना करना, इच्छा करना। । कमठ: (पुं०) (कम्+अठन्] कूर्म, कच्छप, कछुआ (जयो० वृ० २४ / १६) २. बांस, ३. जलघट। ४. पार्श्वनाथ पर उपसर्ग करने वाला देव। कमठ-पिष्ठः (पुं०) कछुएं की पीठ । कमठी (स्त्री०) कच्छपी, कूर्मी । कमठोपसर्ग: (पुं०) कमठ का उपसर्ग । कमण्डलुः (पुं०) जलपात्र, साधु नारियल से बने हुए पात्र में शुद्धि हेतु जल रखता है। लकड़ी का भी यह बनाया जाता है । (कस्य जलस्य मण्डं लाति - क + मण्ड+ला+कु) कमण्डलुधर (वि०) कमण्डलु को धारण करने वाला । कमण्डलुमुद्रा (स्त्री०) अञ्जजीबद्ध मुद्रा, दोनों हथेलियों के मिलाने पर कनिष्ठिकाओं को बाहर निकालने की प्रक्रिया। कमपि (अव्य०) कुछ भी। (जयो० वृ० १/१४) कमन (वि० ) [ कम् ल्युट् ] कामुक, लम्पट, विषयाभिलाषी, मनोरम, अभिरूप, सुन्दर । कमन: (पुं०) कामदेव, मदनः १. अशोक वृक्ष । २. ब्रह्मा । कमन: कामुके चाभिरूपे चाशोक-कामयो: ' इति वि' (जयो० २६/४७) । कमनीय (वि०) रमणीय, सुन्दर, मनोरम (दयो० ६६) कमर ( वि० ) [ कम्+अरच्] विषयाभिलाषी, लालची, कामुक । कमलं (नपुं०) १. कमल, सरोज, नीरज, पद्म, अरविंद, अम्भोज, वारिज, शतच्छदं कुड्मल, जलज (समु० ७१, सुद० ३ / २३) २. चडसीदीलक्खेहि कमलं णामेण णिद्दिट्ठ' (ति०प०४/२९८) ३. तोष- सन्तोष विशदाम्बरा च मञ्जुजलतारा कमलान्वयिभ्रमर-विस्तारा। (जयो० २२ / १९) कमलेन - संतोषण-कमलं जलजे तीरे क्लोग्नि तोषे च भेषजे' इति वि' (जयो० वृ० २२/१९) कमलानां वारिजानाम् । , २५४ कमल सारस पक्षी (जयो० वृ० २२/१, ६/८२) शतच्छदजयो० १७/७१ । जल-तांबा, दवा, औषधि, मूत्राशय । आत्ममल-कमलं कस्यात्मनो मलं रागद्वेषादिरूपं (जयो० १० २८/३) । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कमलान्वयि कमलः (पुं०) सारसपक्षी। कमलकं (नपुं० ) [ कमल + कन्] लघु पद्म, छोटा वारिज । कमलंकरिष्णु (वि०) एक को अलंकृत करने वाली। कमलकन्दः (पुं०) शल्यद्रुम, करहाट । करहाटोऽब्जकन्देऽपि शल्यद्रौ कुसुमान्तरे । इति वि० (जयो० वृ० २१ / २६ ) कमलकोमलता (वि०) कमल की सुकुमारता (जयो० ३ / २७) कमलखण्ड (नपुं०) पद्म समूह, कमल समुदाय । कमलज: (पुं०) नक्षत्र विशेष । कमलजन्मन् (पुं०) पद्मयोनि । कमलजात (वि०) पद्म उत्पत्ति। कमल नयनं (नपुं०) अम्बुज लोचना, पद्म नेत्र। (जयो० वृ० १७/१७) कमलनालकुलबाहु (पुं०) मृणालतुल्य कोमल भुजा, अत्यन्त सुकुमार भुजदण्ड (जयो० १४/१८) कमलमालिका (स्वी० ) पद्ममाला, कमलमाला (जयो० ७/६४) कमलमुखी (वि०) कमलं पद्मं तद्वत्मुखं वदनं (जयो० १०/११९) कमलवासिनी (वि०) १. पद्म में निवास करने वाली । (सुद० ११२) २. आत्म बल में वास करने वाली (सुद० ११२) कमलश्री (स्त्री०) पद्म श्री पद्म के सदृश शोभा 'दृष्ट्वा । मुनीन्दुं कमलश्रियो भूः। (सुद०२/२५ ) कमल- सङ्कोचः (पुं०) कुमलबन्ध (जयो० ० १/७१) कमलसमूह: (पुं०) सरोजवृन्द, पद्म समूह । (जयो० १२ / १४०) कमला (स्त्री० ) [ कमल-अच्+टाप्] (जयो० ५/१०७, ६/६३) १. लक्ष्मी, श्री के आत्मनिमलं यस्या सा कमला । आत्म के मल को जो प्राप्त हुई। कमलाडु: (पुं०) प्रमाण विशेष । कमलाकरः (स्त्री०) अम्भोज दृक, कमलनेत्र वाली (जयो० वृ० १६ / ४० ) कमलात्मन् (स्त्री०) कमला, लक्ष्मी, श्री कमलात्मन् इव विमलो गजैः' (वीरो० ४/४४) कमलानुरूपा (वि०) लक्ष्मी सदृशा । कमलानि अरविंदानि अनु-पश्चात् रूपं शरीरं यस्याः सा' (जयो० वृ० १/७४) कमलानुसारिन् (वि०) शोभा का अनुसरण करने वाली। (जयो० वृ०) For Private and Personal Use Only कमलानुसारिणी (वि०) कमल का अनुसरण करने वाली । (जयो० वृ० १४/५४) कमलान्वयि (वि०) कमलों पर मण्डराने वाले कमलेन सन्तोषान्वयी संयुक्तो, कमलानां वारिजानामन्वयी अनुयायी' (जयो० वृ० २२ / १९ ) Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कमलामुखी २५५ करः कम्प्रकरः (वि०) कांपते हुए हाथा तस्योरसि कम्प्रकरा माला बाला लिलेख नतवदना। (जयो०६/१२३) 'कम्प्रो वेपमानः करो यस्याः सा कम्पितहस्ता' (जयो० वृ०६/१२३) कम्ब् (सक०) जाना, चलना, गमन करना। कम्बरः (पुं०) चित्र-विचित्र रंग, नाना प्रकार के रंग। कम्बल (वि०) [कम्ब्+अरन्] रंग-बिरंगा, विविध वर्ण वाला। कम्बलः (पुं०) [कम्+कल्] ऊनी कम्बल। (जयो० २/१००) "कन्यका-कनककम्बलान्विति' एषाऽधुना झगिति कम्बलमेति तावत्। (जयो० १८/७०) कम्बलः (पुं०) सास्ना, बैल की गर्दन के नीचे लटकने वाला चर्म। कमलामुखी (वि०) लक्ष्मी सदृश। कमलावकीर्ण (वि०) कमलों से व्याप्त, पद्मों से घिरे हुए। (जयो० ८/४१) कमलेक्षणा (वि०) कमलनयना, पद्मनेत्रा। (जयो० १३/८६) 'अधः स्थिताया कमलेक्षणाया' कमलिनी (स्त्री०) [कमल इनिङीप्] सरोजनी, नलिनी। (जयो० १२/९८) सरस: सुत तामृते कुतः श्री कमलिन्यै किल यत्पुन सदस्त्रि (जयो० १२/१८) कमा (स्त्री०) [कम्+णि+अ+टाप्] लावण्य, सौन्दर्य, रमणीयता। कमित (वि०) [कम् तृच] लालची, लम्पट, लोभी। कमोदिनी (स्त्री०) के जले मोदत इत्येव शीला, कैरविणी, 'कुमुदिनी'। कम्प् (अक०) हिलना, कांपना, जाना। (जयो० वृ० ६/२४) (कम्पते, कम्पते) चकम्प। (जयो० १२/१२०) कम्पः (पुं०) [कम्प्+घञ्] चलायमान, हिलना, डुलना, इधर-उधर होना, घबराहट। (जयो० ६/२४) कम्पकारण (नपुं०) बेपथुनिमित्त, कम्पित (जयो०७/२०) कम्पदा (वि०) कांपने वाली, भयाक्रांत होने वाली, घबड़ाने वाली। भवति सम्मिलने बहुसम्पदा विरहिता जगतामपि कम्पदा। (जयो० ९/४७) कम्पन (वि०) (कम्प् मुच्] हिलने वाला, चलायमान होने वाला, घबड़ाने वाला। कम्पनः (पुं०) शिशिर ऋतु, सर्दी का समय। कम्पनोऽयं । जराचीनो भजते दण्डनीयताम्। कम्पनकारिन् (वि०) कांपने वाली। (सुद० १३४) (जयो० ७/१६) कम्यमान कांपता हुआ, थरथराता हुआ. घबड़ाता हुआ। (जयो० । वृ०६/१२३) कम्पमानकरः (वि०) कांपते हुए हाथा (जयो० वृ०६/१२३) कम्पवती (वि०) कापती हुई। (जयो० १७/१०) कम्पाकः (०) [कम्पया चलनेन कायति-कम्पा+के+क] हवा, पवन, वायु। कम्पित (वि०) कांपते हुए, हिलते हुए। (जयो० ६/१२३) कम्पित-हस्तः (पुं०) कम्पितकर, कांपते हुए हाथा (जयो० तृ०६/१२३) कम्प्र (वि०) [कम्पनर] कम्पायमान, हिलने वाला, थरथराने वाला। (जयो०६/१२३) कम्बल: (पुं०) मृग विशेष। कम्बलं (नपुं०) जल, वारि, नीर। कम्बलिका (स्त्री०) [कम्बल+ई+कन्+टाप्] छोटा कम्बल, शाल, ऊपर ओढ़ने का ऊनी वस्त्र। कम्बलिन् (वि०) कम्बल से आच्छादित। कम्बी (स्त्री०) [कम् बिन्+डीप्] चम्मच, कलछी। कम्बु (वि०) विविध रंगों वाला। कम्बुः (पुं०) १. शंख, सीपी। २. हस्ति, ३. ग्रीवा, ४. शिरा, नस, हड्डी । कम्बुकंडी (स्त्री०) ग्रीवा, सुराही सदृश ग्रीवा वाली नारी। कम्बुकः (पुं०) शंख, सीपी। (जयो० १०/४७) 'करद्वयी प्रापित ___ चक्र-कम्बुक:' (जयो० २४/५) कम्बोजः (पुं०) [कम्ब्+ओज] शंख। कम्र (वि०) [कम्र] रमणीय, सुन्दर, मनोरम, २. चाप, धनुकाण्ड (जयो०६/१०४) कम्रता (वि.) सरसता। करः (पुं०) १. हस्त, हाथ। 'करौ समायुज्य तमानमन्त्यम्' (सुद० २/२०) (जयो० १/२१) २. शुल्क, टैक्स चुंगी'करस्य वाधापि पयोधरेषु' (समु०६/६) 'करं परं दास्यति मादृशोऽपि योखिल-लक्ष्मीपतिदर्पलोपी' (जयो० ११/३८) 'क एव रा द्रव्यं ययोस्तौ आत्ममात्रसाधनौ तस्माद्वारौ साधनान्तरहीनतया स्वत एव निर्बलौ स्तः।' (जयो० ११४८५) कर-कल-(सुद० ७९) कर-शान्ति-(सुद० ७९) करकिरण-(सुद० ७९) कर-शाखा-'इत्यत्र कुमुदवत्या:करः' (जयो० ६/१२२) 'कर: शाखारूप:' कर-उपहार, भेंट 'करत्वे-उपहाररूपेण कलितं' (जयो० वृ० ५/७६) कर-नक्षत्र विशेष। For Private and Personal Use Only Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir करक: २५६ करणश्रुतं कर-हस्ति -सुंड। करग्राहः (पुं०) कर/हाथ के ग्रहण करने वाला पति। कर-ओला, हिमकण। करकः (पुं०) १. अस्थिपंजर, हीड़ पीजरा। २. पात्र विशेष, कर-माप विशेष। नारियलपात्र। करकः (पुं०) [किरति करोति वा जलमत्र कृ. वुन्] १. | करचारः (पुं०) हस्त संचालन (जयो० २६/५५) करस्य जलपात्र। शृंगारक (जयो० ४/१३) २. अनार का वृक्ष, हस्तस्य चार-आलिगंन विशेष। (जयो० वृ०८/ दाडिम तरु। 'यदर्क-बिम्बं करकं त्ववापि (जयो० १५/४४) करजः (पुं०) नख, नाखून। (जयो० १४/१९) करकोऽस्त्री करङ्के स्यात्कुण्डया चाथ पुमान्खगे। कुसुम्भे करजकिरणं (नपुं०) नख किरण, नख प्रभा। स्वकीय नखानां दाडिमे हस्ते करका तु घनोपलते।। इति वि (जयो० वृ० किरण (जयो० १४/१९) १५/४४) ३. जलोपल, कंडक-जलतत्व (वीरो० २०/६) करजक्षत (वि०) नखक्षत्त (जयो० १६/५९) किलात्मसाक्षिन्, करकप्रकाशात् (वीरो० ४/१४) करजालं (नपुं०) प्रकाश समूह, किरण प्रभा। करकञ्जः (पुं०) हस्तकमल। 'करकञ्जानां हस्तकमलानां राजे। करजित (वि०) हस्तजित, अपने हाथ को जीतने वाला। करकञ्जयुगः (पुं०) करकमल युगल। (जयो० वृ० १२/१२४) करञ्जः (पुं०) [कं शिरो जलं वा रञ्जयति] करञ्जवृक्ष। करक-फलं (नपुं०) दाडिम (जयो० वृ० १४/१८) करञ्जिका (स्त्री०) खरी वृक्ष, करञ्जतरु। (जयो० वृ० १७/५४) करकफलकं (नपुं०) दाडिमफल, अनार। (जयो० वृ० १८) करटः (पुं०) १. गण्डस्थल, हस्तिगण्ड। २. काक-'मधुरसा करकमलद्वितयः (पुं०) कलाब्जयुग्म, उभय कर कमल। करटस्य हि निम्बिका' (जयो० २५/२१) करटस्य-काकस्य (जयो० २०८६) (जयो० वृ० २५/२१) ३. कुसुम्भ पुष्प। ४० नास्तिक-ईश्वर करकस्वभावः (पुं०) जलधारण रूप स्वभाव मधुर स्वभाव। को मान्य न करने वाला। (जयो० १५/१३) करटकः (पुं०) १. काक, कौवा, २. गीदड़। कर-कंटकः (पुं०) नख, नाखून। करटुः (पुं०) पक्षी विशेष। करकण्डकः (पुं०) टोकरी, डिब्बी (वीरो० २०/१२) करत्राणं (नपुं०) पुरुषार्थ हीन, नपुंसक, असमर्थ। हे सुबुद्धे कर-कमलं (नपुं०) हस्त कमल। न नाऽहं तु करत्राणां विनामवाक्। (सुद० ७९) कर-कलश: (पुं०) अञ्जलि। करणं (नपुं०) परिणाम, व्यसाय, प्रवृत्ति, कार्यान्विति, करना कर किसलयः (पुं०) कोपल समान हस्त। अनुष्ठान करना। (जयो० ६/८३) 'करणा परिणामाः' करक्रीडनकः (पुं०) हस्तगत खिलौना, हाथ का खिलौना, (धव० १/१८०) झुनझुना। (जयो० ३/६९) अध:करण, अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण (सम्य० ४९) कर-कुड्मलं (नपुं०) कर युगल, हस्त युग्म। 'भूम-कर, २. कारक विशेष-'साधकतमंकरणं (जैनेन्द्र व्याकरण कुड्मलं व्रजति बाले' (जयो० ६/३०) 'करयो हस्तयोः १/२१३८) अतिशय साधक कारक को करण कहते हैं। कुड्मलं यस्य' (जयो० वृ० ६/३०) 'कर-कुड्मले-मुकुलिते करणानुयोग (जयो० वृ० १/६) ३. कृत्य कार्य, धार्मिक, करयुगले (जयो० वृ० १२/१०१) अनुष्ठान। ४. इन्द्रिय-पञ्चेन्द्रिय-करण। 'करणानां स्पर्शकरकोपनिपात: (पुं०) हिमपात, ओला, वृष्टि। (दयो० ८६) रसनादीनामिन्द्रियाणाम्' (जयो० वृ० १/३४) कर-कौशल: (पुं०) हस्त कला प्रवीण) 'करस्य कौशले करणग्रामः (पुं०) इन्द्रिय समुच्चय, इन्द्रिय विषय। उपसंहृत्य चातुर्यम्' (जयो० वृ० २/११४) च करणग्राम कायर्या स्वात्मविचारणा (सुद० ९६) करकृत (वि०) किरणक्षेपक, करप्रक्षेप। (जयो० १८.३८) करणजन्य (वि०) इन्द्रिय विषयक। करग्रहः (पुं०) कर/शुल्क ग्रहण। करणत्राणं (नपुं०) सिर, मस्तक, शरीर का प्रमुख हिस्सा। करग्रहणं (नपुं०) १. शुल्क ग्रहण, कर लगाना, कर लेना। करणपरिणामः (पुं०) अधः प्रवृत्ति आदि परिणाम/विषय। (दयो० ११०) २. हथलेवा-विवाह में वर-वधू का एक (जयो० वृ० ६/८३) दूसरे के हाथ में हाथ लेना। पाणिग्रहण (जयो० १२/५८) । करणश्रुतं (नपुं०) करणानुयोगशास्त्र। करग्रहोदारः (पुं०) पाणिग्रहण (सुद० ३/४८) सुस्थितिं समय-रीतिमात्मनः, For Private and Personal Use Only Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir करणसत्यं २५७ करयुग-सम्पुटः सङ्गतिं परिणति तथा जनः। करधनी (स्त्री०) सप्तकी, मेखला। (जयो० वृ० १५/७६) द्रष्टुमाशु करणश्रुतं श्रयेत्, कर-निगालनं (नपुं०) हस्तधावन, हस्तप्रक्षालन, हाथ का स्वर्णकं हि निकषे परीक्ष्यते।। (जयो० २/४७) धोना। 'करयोर्निगालनं धावनं तस्मिन्' (जयो० वृ० १२/१३२) करणसत्यं (नपुं०) आगमानुसार सम्यक् उपयोग, सम्यक् करन्धयः (वि०) हस्त-चुम्बन वाला। प्रतिलेखन। करपत्रं (नपुं०) आरा, करोंत, क्रकच। 'विभो करपत्रमिवेन्धनम' करणाख्यता (वि०) करणलब्धि युक्त। 'सम्यक्त्वतः प्रक्करणा (जयो० ९/३३) ख्यतोऽतः' (सम्य० ४९) करपत्रिका (स्त्री०) कर/हाथ से उछालना। करणानुयोगः (पुं०) चतुर्गति सूचक अनुयोग, 'करणानां कर-पल्लव: (पुं०) १. सुकुमार हाथ, कोमल कर, २. स्पर्शन-रसनादीनामिन्द्रियाणामनुयोग:' (जयो० वृ० १/३४) अंगुली। कर-पल्लवयो: प्रसूनता समधारीह सता वपुष्मता। जिनवाणी का द्वितीय अनुयोग करणानुयोग है। इसमें (सुद० ३/२१) अयुक्तिगम्य सिद्धान्त तथा लोक-अलोक आदि का वर्णन कर-पल्लव-लालित (वि०) उत्तम पल्लव/पत्र वाली लतिका। गुम्फित है। इस अनुयोग का प्रतीक पुस्तक है। अतः (सुद० ३/१७) सरस्वती विशिष्ट अध्ययन के लिए अपने द्वितीय हाथ में करपट्टिकाततिः (स्त्री०) रोटी, चपाती। (दयो० १८) पुस्तक धारण करता है। (जयो० हि०१९/२६) 'करे करपात: (पुं०) १. शुल्क समादान, कर देना, चुंगी देना। द्वितीयेऽञ्चति पुस्तकम' द्वितीयः करणादि: स्यादनुयोगः स (जयो० १३/२७) २. किरणक्षेप, किरणप्रसार। पत्र वै। त्रैलोक्य-क्षेत्र-संख्यानं कुलपत्रेऽधिरोपितम्। करपाल: (पुं०) १. असि, तलवार, २. कुदाली। (महापु०२/९९) करपालिका (स्त्री०) कुदाली, फावड़ा। करणापर्याप्तकः (पुं०) इन्द्रिय/शरीर की रचना में कमी। करपीडनं (नपुं०) पाणि पीडन, हस्त-मर्दन। 'करपीडनमेष करणीय (वि.) करने योग्य। (दयो०६०) बलिकायाः' (जयो० १२/८८) करणोपशामना (स्त्री०) क्रिया विशेष से उपासना, यथाप्रवृत्ति करपुटः (पुं०) सम्पुट, हस्त सम्पुट, अंजलीबद्धता। रूप उपासना। करपृष्ठं (नपुं०) हथेली का ऊपरी भाग। हस्तपीठ। करण्डः (पु०) [कृ+ अण्डन्] डिब्बी, टोकरी, पिटारा। करप्रवाल: (पुं०) करपल्लव, हस्त पल्लव, सुकुमार हस्त, चिदेकपिण्डः सुतरामखण्डः चण्डो गुणानां परमः काण्डः। प्रवाल युक्त/लालिमा सहित हस्त। (भक्ति ३१) 'भो तिष्ठेत्करण्डं गतः' (सुद० १२७) कर-प्रसारः (पुं०) १. हस्त प्रसार, हस्त-विकास, फैले हुए करण्डिका (स्त्री०) संदूक, पिटारा, बांस निर्मित टोकरी। हाथ। २. राजस्वविस्तार, राज्य विस्तार के लिए करतलं (नपु०) हथेली, हस्त सुकुमार भाग। (दयो०८७) कर/चुंगी/अधिभार। करतल-कण्डति (स्त्री०) हाथों की खुजली 'करतलयोः । करभः (पुं०) [कृत अभच्] १. उष्ट्र (जयो० २१/२७) ऊँट, कण्डति मर्जनमुद्धरति' (जयो० वृ० ६/६१) २. हस्ति शावक, ३. सुगन्धित, ४० हस्तोपरितल। करतलाहत (वि०) हस्ताहत, प्रताडित। 'करतलेमाहृतं ताडितं करभकः (पुं०) [करभ कन्] ऊष्ट्र, ऊँट। यत्कन्दुकम्' (जयो० वृ० २५/१०) करभिन् (पुं०) हस्ति, करि, हाथी। करता (वि०) मधुरता। (जयो० २०/७४) कर-भूषणं (नपुं०) कंगन, कड़ा। करताल: (पुं०) हस्तताल, खरताल, एक छोटा हाथ में लेकर करम्ब (वि०) [कृ+अम्बच्] मिश्रित, मिला हुआ, विचित्र, बजाने वाला खर-खर शब्द करने वाला वाद्य। तालियां रंग-बिरंगा। बजाना। करम्भः (पुं०) [कर+रम्भ+घञ्] मोइन युक्त भोज्यपदार्थ, करद्वयः (पुं०) हस्त युगल, दोनों हाथ। 'करद्वय-कुड्मलताम्' दही मिश्रित आटा। (सुद० २/२५) करयुग-संयोगः (पुं०) अञ्जली, हस्त सम्पुट। (जयो० १०/१०१) करद्वयी (वि०) दोनों हाथ वाली। (वीरो० ५/२५) 'स्फुटमाह करयुग-सम्युटः (पुं०) करकमलयुगल कलाब्जयुग्म, अञ्जलीकर द्वयीसमस्यामिह' (जयो० १२/१२१) ङ्गित। (जयो० २०/८५) For Private and Personal Use Only Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कररूहः २५८ करिपोतः कररूहः (नपुं०) नख, नाखून। करवारः (पुं०) १. तलवार, आस, खङ्ग। 'कुरुते करवार एतस्य' (जयो० ६/६८) २. कर एव वारो-बालकः (जयो० वृ०६/६८) कर-वारिरुह (पुं०) हस्त-कमल, पद्म सदृश कर/हस्त। 'कर एव वारिरुह तस्मिन् करकमले( (जयो० वृ० १२/५५) करवालः (पुं०) तलवार, असि (जयो० ६/८०) 'कर वालवारिधारा यमुनास्य' (जयो० ६/१०७) करवालजालः (पुं०) १. असिवर, २. किरण समूह। (जयो० १५/६६) करवीरः (पुं०) असि, तलवार। कर-व्यापारः (पुं०) १. कृत कर्म, २. हस्त-व्यापार, हाथ बढ़ाना। क्षणादुदीरयन्नेवं करव्यापारमादरात् (सुद० ७८) | करशाखा (स्त्री०) अंगुली, करशिखा। (जयो० १८/९४) करशिखः (पुं०) कर शिखा, अंगुली। (जयो० १८/९४) करशीकर: (पुं०) १. जलबिन्दु, २. हस्तिसुंड पर प्रवाहित जलकण। करशूकः (पुं०) नख, नाखून। कर-सन्निपातः (पुं०) १. हस्तप्रयोग, हाथ का स्पर्श, २. रश्मिसंसर्ग। (जयो० १७/८९) ३. कर-निर्धारण, राजस्व निर्धारण। 'बभूव राज्ञा कर-सन्निपातः' (जयो० १७/८९) कर-संयोजनं (पुं०) १. पाणिग्रहण, विवाह। समयात् स महायशाः स्थितिं करसंयोजन-कालिकीमिति। (जयो० १०/५) २. कर निर्धारण। कर-संयोजन-कालिकी (स्त्री०) पाणिग्रहण समयोचिता, विवाहकालिक। (जयो० १०/५) कर सम्पर्कः (पुं०) १. हस्तग्रहण, हथलेवा, २. किरण संसर्ग। (जयो० १२/६२) करसादः (पुं०) क्षीणप्रभा, हतकिरण, क्षतकान्ति। करसूत्रं (नपुं०) कंगन, विवाह सूत्र। करस्थ (वि०) हाथ में स्थित। (जयो० २/१४०) करस्थ-कझं (नपुं०) हस्तस्थित क्रीड़ा कमल! 'करस्थं यत्कझं' | (जयो० वृ० २/१४०) करस्वामिन् (पुं०) १. किरण/तेज युक्त शिव। करस्वनः (पुं०) तालियां, करताल शब्द, करतलध्वनि। करहाट: (पुं०) [कर+हट+णिच्+आ] शल्यद्रुम, कमलकन्द । करहाटोऽजकन्देऽपि शल्यद्रौ कुसुमान्तरे' इति वि० कराग्र (वि०) कर में अग्रभाग। (जयो० २१/२६) (वीरो० ८/६) कराधिकत्व (वि.) १. प्रबल रूपत्व, रूप की अधिकता। २. रश्मिरूप, किरण प्रभालता। ३. हस्त प्रबलता। 'कराधिकत्वेन यथोत्तरं तराम्' (जयो० ३/९३) 'कराणां रश्मीनां हस्तानां चाधिकत्वेन प्रबलरूपत्वेन' (जयो० वृ० ५/९३) कराधराङ्घिः (स्त्री०) कर, अधर एवं चरण। (जयो० ५/८८) 'करौ चाधरौ च अघी च' (जयो० वृ० ५/८८) कराम्बुरुहः (पुं०) हस्त कमल, पद्म सदृश हाथ। 'मुकुलितात्मक राम्बुरुहद्वयः' कराल (वि०) [कर+आ+ला+क] भीषण, भयावह, भयंकर, भयदायक, सुभैरवैः सैन्यरवैः, २. उत्तुंग, उन्नत, ऊँचा। कराल-वाचाल-वौरिव पूच्चकार' (जयो०८/६) कराल-वाचाल: (पुं०) भयंकर आक्रमण। करालम्बः (पुं०) हस्ताधार, हाथ का सहारा। (वीरो० ५/३७) 'करालानि भयदायकानि च वाचालानि वाग्बहुलानि' (जयो० वृ०८/६) करालिकः (पुं०) १. वृक्ष. तरु, २. असि। 'कराणां करसदृश शाखानां आलिः श्रेणी यत्र' करावलम्बार्थ (वि०) हस्तावलम्बन देने के लिए, हाथ के आधारभूत बनने के लिए। (जयो० १४/५७) 'करावलम्बार्थ मिहायातां' कराशी (स्त्री०) अधिभार की आशा, अंश भाग की अभिलाषा। 'करस्य नाम पृथिव्याः षष्ठांशस्या शीर्षस्य स कराशी' (जयो० २२/९०) करिका (स्त्री०) [कर अच्ङीप् कन्+टाप्] खरोंच। करिणी (स्त्री) [कर+इनिङीप्] हथिनी। करिणी (वि०) करने वाली। (सुद०) करिन् (पुं०) [कर इनि] हस्ति, गज, हाथी। (जयो० ६/२४) करिकुंभः (पुं०) हस्ति, मस्तक, हस्तिकुम्भ। करिकुलं (नपुं०) हस्ति समूह, गजवुल। करिकुल-परिहरणं (नपुं०) गजकूल को पराजित करना। 'कारिकुलं हस्तिसमूहस्तस्य परिहरणे' (जयो० १२/१०७) करि-वार्जनं (नपुं०) हस्ति गर्जन, गज चिंघाड़। करि दंत: (पुं०) हाथी दांत। करिदंष्ट्रः (पुं०) हस्ति दंत। करिपः (पुं०) महावत, हस्ति संचालक। करिपुरं (नपुं०) हस्तिनापुर नगर विशेष। करिपुर के राजा जयकुमार। (जयो० ९/४९) करिपोतः (पुं०) हस्तिशाव, हस्तिशावक, छोटा हाथी। For Private and Personal Use Only Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir करिबन्धः २५९ कर्णन्दुः करिबन्धः (पुं०) हस्तिबन्ध, हाथी के बांधने का साधन। करुणान्वित (वि०) दया सहित। (जयो० २१/३२) करिमत्तः (पुं०) हस्ति उन्माद। करुणामय (वि०) कृपाशील, दयालु। करिमाचलः (पुं०) सिंह। करुणापरायणं (नपुं०) करुणाशील। (वीरो० १९/२३) करिमुखः (पुं०) गजमुख, गणपति, गणेश। करुणाविमुख (वि०) कृपा रहित, दया रहित। करिराद्र (पुं०) हस्तिराज, ऐरावत, हाथी। करुणापरत्व (वि०) करुणाशील (वीरो० २२/२५) करिराज (पुं०) हस्तिराज, उत्तम हाथी, करिवर, श्रेष्ठगज। करुणासु-परायणः (पुं०) करुणा में तत्पर। (जयो० १३/४७) ___ 'करिराडिव पूरयन्महीमपि' (सुद० ३/६) करुणैकशाण: (नपुं०) ०दयापरक, ०दयायुक्त। पुनः प्रतिप्रातरिदं करिवरः (पु०) उत्तम हाथी, ऐरावत इन्द्र, हस्ति। बुवाणः, बभूव भद्रः करुणैकशाण:।' (समु० ३/३३) करिवरेन्द्रः (नपुं०) ऐरावत हाथी। करेटः (पुं०) [करे+अट्+अच्] नाखून, नख-अंगुली का नख। करिवाहनं (नपुं०) १. हस्ति वाहन। हाथी पर सवार। २. सूर्य। | करेणुः (पुं०) ०हस्ति, गज, हाथी, करि। कृ+एणु+करेणु___ 'करिवाहनं नाम सूर्यमेव' (जयो० वृ० २०/४८) के-मस्तके रेणुं प्रक्षेपते। करि-वैजयन्ती (स्त्री०) हस्ति ध्वज, हस्ति पर लगा ध्वज। 'परः वरेणात्मनि रेणुभारं भूयः क्षिपन् सङ्कलितादरेण। करिस्कंध: (पुं०) हस्ति यूथ, हाथियों का झुण्ड, करि-समूह। निरुक्तवान् सम्यगिहेभराजः, करेणुरित्याह्वयमात्मनीनम्।' करिष्णु (वि०) सम्पादयत्री, करने वाली, (जयो० ३/१०१) (जयो० १३/१०३) करीन्द्रः (पुं०) ऐरावत, गजराज। 'करणेस्तु बसायां स्त्री कर्णिकारेभयो, पमान इति विश्वलोचनं, करीरः (पुं०) [कृ+ईरन्] कैर वृक्ष, कांटेदार वृक्ष, १. अंकुर। (जयो० १३/१०३) करीशः (पुं०) हस्ति, गजराज, ऐरावत। (जयो० ८/४१) करेणुः (स्त्री०) हथिनी। करीश्वरः (पुं०) गजरात, ऐरावत हस्ति। करेणुजानि (पुं०) हस्ति, हाथी। मन्दबिन्दुपदेन कारणानि करीषः (पुं०) [कृ+ ईषन्] कंडा, सूखा गोबर, उपले। द्विषतां दुर्यशसे करेणुजानिम्। (जयो० १२।८०) करीषकषा (स्त्री०) [करीष कष्। खच्] तेज वायु, प्रचण्ड करेणुभूः (पुं०) हस्ति विज्ञान प्रवर्तक। पवन, तीव्र हवा। करोटं (नपुं०) [क+रुट्+अच्] १. खोपड़ी, मस्तक, खप्पर। करीषिणी (स्त्री०) [करीष इनि+ङीप्] लक्ष्मी, सम्पदाधिका- २. कपाल, कटोरा, पात्र। रिणी देवी। करोटिः (स्त्री०) कपाल, खोपड़ी, कटोरा, पात्र, भिक्षापात्र। करुण (वि०) दयनीय, मार्मिक, चिन्तनीय, विचारणीय। 'करोति | करोपलब्धिः (स्त्री०) पाणिग्रहण, विवाह। (जयो०१२/५७) मनः आनुकूल्याय, कृ+उनन् करुणा । करोपलब्धिकालः (पुं०) विवाह समय। 'करोपलब्धिकालो करुणः (पुं०) १. दया, कृपा, अनुकम्पा। २. रसवृक्ष, वनखण्ड विवाहसमयः सम्यक् शोभनोऽभूत्' (जयो० वृ० १२/५७) (जयो० वृ० २१/३२) 'करुणस्तु रसे वृक्षे' इति (जयो० करोपलम्भनश्चक्रबन्धः (पुं०) विवाह-वर्णन करने वाला वृ० २१/९२) ३. करुण-शोक, रंज, विलाप। चक्रबन्ध/सर्ग/अध्याय। (जयो० वृ० १२/१४७) करुणरसः (पुं०) नौ रसों में एक रस, जिसमें इष्ट-वियोग, कर्कः (पुं०) [कृ+क] १. केंकड़ा, २. अग्नि, ३. जलकुम्भ, बन्धन, वध, व्याधि, मरण और परावर्तन का भय रहता ४. दर्पण, ५. श्वेत अश्व, ६. कर्कराशि विशेष। (जयो० है, इसमें शोक, विलाप, म्लालना और रुदन का समावेश १७/५६) होता है। कर्कटः (पुं०) [कट कट्+इन्] ककड़ी। १. केंकड़ा। (वीरो० करुणा (स्त्री०) दया, अनुकम्पा, कृपा, कोमलभाव, मैत्रीभाव, ७/११) सामञ्जस्य जिसमें दूसरे के दु:ख-शान्त करने का भाव कर्कटी (स्त्री०) [कर+कट्'डीप्] ककड़ी। रहता है। (सम्य० ७७) कर्णन्दुः (स्त्री०) १. बन्धुवर्ग, २. कमल। 'कर्कन्दुः साक्षरे करुणाकर (वि०) अनुकम्पा करने वाला, दयाशील। शके वारिजाते गुदामये। करुणाधर (वि०) दयादृष्टि धारक। कुमुदं कैरवे क्लीबं कृपणे कुमुदन्यवदिति कोषा। (जयो० करुणानिधिः (स्त्री०) दया का सागर। वृ०६/९६) For Private and Personal Use Only Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कर्कन्दुगण: २६० कर्णरोगोपहार कर्कन्दुगण: (पुं०) १. बन्धुवर्ग, २. पद्मसमूह। १. कर्कन्दूनां साक्षराणं गणे, २. कर्कन्दूनां कमलानां गणः। कुमुदाशयः कैरववर्गो विकसति। (जयो० वृ० ६/९६) कर्कन्धुः (पु०) [कर्क-कण्टकं दधाति-ध+कू] उन्नाव वृक्षा कर्कर (वि०) [कर्क रा+क] १. कठोर, दृढ़, शक्तिशाली, २. ____ हथौड़ा, ३. दर्पण, ४. हड्डी, ५. खप्पर। ६. चमड़े का पट्टा। कर्कराक्षः (वि०) हिलती पूंछ वाला पक्षी, खंजन पक्षी। कर्करांगः (पुं०) खंजन पक्षी। कर्करांधुकः (पुं०) अन्धक्कूप। कर्कराटुः (पुं०) कटाक्ष, तिरछी दृष्टि। [कर्क हास रटति | प्रकाशयति कर्क+रट्+कुञ्] कर्करालः (पुं०) [कर्कर+अल्+अच्] चूर्ण कुंतल, धुंघराले केश। कर्कराशि: (स्त्री०) कर्कराशिः। (जयो० वृ० १७/५६) कर्करी (स्त्री०) छिद्रयुक्त पात्र। कर्कशा (वि०) [कर्क+श] कठोर, दृढ़, शक्तिशाली। (जयो० १२/५४) १. निष्ठुर, क्रूर, क्रोधी, निर्दय, दया रहित, २. प्रचण्ड, प्रबल (जयो० १३/८) 'रोमांच भरेण कर्कशौ'। कर्कशा (वि०) कठोरपरिणामी, निर्दय स्वभावी। (जयो० वृ० । १७/३३) कर्कशिवा (स्त्री०) [कर्कश कन्+टाप्] अरण्य बेर, जंगलीबेर, झडबेर. ०चनबेर। कर्किः (स्त्री०) [कर्क इन्] कर्क राशि। कर्कोटः (पुं०) [क+ओट] कर्कोट सर्प। कर्नूरः (पुं०) [कर्ज+ऊर] सुगन्धित तरु। कर्ण ( अक०) १. छेद करना, सुराख करना, भेदना। २. सुनना। कर्णः (पुं०) कान, [कर्ण्यते आकर्ण्यते अनेन-कर्ण+अप्] श्रवण, श्रवणेन्द्रिय, कर्णेन्द्रिय, पांच इन्द्रियों में अन्तिम इन्द्रिय/करण। शरीर की पहचान का एक अवयव। 'कर्णी सवर्णी प्रतिदेशमेष' (जयो० १/६२) कुत्सित ऋण, कुत्सित ऋण को दूर करने के लिए (जयो० वृ० २०/७४) एक योद्धा विशेष। (कर्णरज, वीरो० ९/१९) 'स कर्ण वत्कम्पकरं च योगिन्' कर्णकर्ज (नपुं०) कर्णपुष्प, कर्णभूषण। कमल रूपी कर्णाभूषण। | (जयो० १७/६६) कर्ण-कण्डति (स्त्री०) कर्णखर्जन, कान की खुजली। 'कर्णस्य कण्डूति खर्जनम्' (जयो० ६/८९) कर्णक्ष्वेडः (पुं०) कर्ण में गूंजना, निरंतर कान में आवाज होना। कर्णगोचर (वि०) कर्ण में सुनाई पड़ना, कर्ण श्रवण। कर्णग्राहः (पुं०) कर्णाधार, कर्णधार। कर्णजप (वि०) पिशुन, चुगलखोर। कर्णजपः (पुं०) निन्दा करना, झूठी बात कहना। कर्णजापः (पुं०) कलंक लगाना, निन्दा करना। कर्णजित् (वि०) श्रवण विजेता, अर्जुन, पाण्डुपुत्र अर्जुन। कर्णत्वर (वि०) दुत्क्षित ऋण। (जयो० २००४) कर्णदेशः (पुं०) कर्णप्रान्त, कर्णभाग। 'स्वामि-कर्णदेशेऽप्यपूरयद्' (जयो० ९/९४) कर्णधारः (पुं०) कर्णप्रान्त, कर्णभाग, कर्णदेश. २. कर्णतक खिंचे हुए। 'तरल-तरीषविशिष्टोऽनुकर्णधाराशुगेन सन्तरति।' (जयो० ६/६६) ३. नौकासञ्चालक (जयो० वृ० ६/६६) चालक, मल्लाह। कर्णधारिणी (स्त्री०) १. हथिनी, २. सञ्चालिका। कर्णपथः (पुं०) कर्णमार्ग, कर्णप्रान्त, कर्णदेश, कर्णभाग, श्रवणगत श्रवणपरास। (जयो० ४/५३) 'येन कर्णपथतो हृदुदारमेत्य' (जयो० ४/५३) कर्णपरम्परा (स्त्री०) जनश्रुति, श्रवणश्रुति, लोक परम्परा। कर्णपालिः (स्त्री०) कर्णफूल, कान की लौंग। कर्णपाशः (पुं०) मनोरम कर्ण। कर्णपुटः (पुं०) कर्णमार्ग, श्रवण पथा 'स्तवीमि या कर्णपुटेन गत्वा' (जयो० ११/७६) कर्णपूरः (पुं०) १. शिरीषवृक्ष, अशोक वृक्ष। (जयो० २१/३०) कर्णपूर-परिणामः (पुं०) १. शिरीष वृक्ष के प्रकार। (जयो० - वृ० २१/३०) २. कर्णपूराणां-शिरीषाणां 'कर्णपूराणां कर्णभूषणानां (जयो० वृ० २१/३०) कर्णपूरकः (पुं०) कर्णाभूषण, कर्ण के गोलाकार भूषण, बाली। २. अशोक वृक्ष, शिरीषवृक्ष। ३. नीलकमल। कर्णप्रान्तः (पुं०) कर्णदेश, कर्णभाग, श्रवणपथ। कर्णभूषणं (नपुं०) श्रवणशृंगार, कर्णालंकरण, अवतंसोत्पल। (जयो० वृ० १०/६५) कर्णभूषा (स्त्री०) कर्णाभूषण। कर्णमूलं (नपुं०) कर्ण प्रान्त, कान का मूल हिस्सा। कर्णराज (पुं०) कर्ण राजा (वीरो० ९/१९) कर्णरोगोपहार (वि०) कर्ण/श्रवण रोग का नाशक। 'ओं ह्री अर्ह अणंतोहि जिणाणं इत्यादिना मन्त्रेण कर्णरोगोपहारो भवति। (जयो० वृ० १९/६१) For Private and Personal Use Only Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कर्णवंश: २६१ कर्दम कर्णवंशः (पुं०) मचान, बांसों का बना मंच। कर्तरी (स्त्री०) कैंची। (वीरो० १७/४) कर्णवर्जित (वि०) श्रवण विहीन। कर्त्तव्य (सं०कृ०) [कृ+तव्यत्] १. कार्य का सम्पादन, उचित कर्णवर्जितः (पुं०) सर्प विशेष। ____ होना। (जयो० १/१०९) २. कतरने योग्य। कर्णविवरं (नपुं०) कर्णप्रान्त, कर्णछिद्र, श्रवण मार्ग। कर्त्तव्य (सं०कृ०) [कृ+तव्यत्] आवश्यक करणीय कार्य, कर्णविष (स्त्री०) कान का मैल। किन्नु परोपरोधकरणेन कर्त्तव्याध्वनि किमु न सरामि।' कर्णवेधः (पुं०) कर्णछेदन। ___ (सुद० ९२) 'कर्तव्यता भव्यताकामी' (सुद० ७३) कर्णवेष्टः (पुं०) कर्णाभूषण, कर्ण के वृत्ताकार भूषण। कर्तव्यकार्यः (पुं०) करणीय कार्य। (जयो० १६/४) कर्णवेष्टनं (नपुं०) कर्णाभूषण। कर्तव्यपथं (नपुं०) कार्य योग्य मार्ग (दयो० १८) 'तथापि कर्णशष्कुली (स्त्री०) कान का बहिर भाग, सम्पूर्ण कर्ण कर्तव्यपथाधिरोह' (समु० ३७) परिधि। कर्तव्यपूर्तिः (स्त्री०) पूर्णता, कर्त्तव्यसंहति। (दयो० १/१६) कर्णशूलः (पुं०) श्रवण रोग, कर्ण पीड़ा, कर्ण कष्ट। कर्त्तव्यविमूढ (पुं०) कार्य में आसक्त होना। (सुद० ९३) कर्णश्रव (वि०) उच्च स्वर। कर्त्तव्यशास्त्र (नपुं०) हित संहिता शास्त्र (जयो० २/१) कर्णश्रावः (पुं०) कानों का बहना, कानों से मवाद निकलना। कर्त्तव्यशीलता (वि०) कर्मवर भाव, किंकरता। (जयो० वृ० कर्णहीन (वि.) कर्णरहित, श्रवणरहित, चतुरिन्द्रिय जन्तु। २०/७४) कर्णहीनः (पुं०) सर्प। | कर्त्तव्यसंहति (स्त्री०) कर्तव्यपूर्ति, कार्य की सम्पूर्णता। (दयो० कर्णाकर्णि (वि०) कानों कान, एक कर्ण से दूसरे कर्ण तक। १०६) 'कर्णे कर्णे गृहीत्वा प्रवृत्तं कथनम्' । कर्त्तव्यहानि (स्त्री०) कर्तव्यनाश (वीरो० १६/१५) कर्णाटः (पुं०) १. कर्णाट राजा 'कर्णावटन्ति गच्छन्ति कर्णाटा कर्तृ (वि०) [कृ+तृच्] कर्ता, निर्माता, करने वाला, सम्पादक, भवन्ति' (जयो० ६/८५) ३. कर्णाटक देश (जयो० वृ० रचनाकार, तत्कर्ता स्यात्किमु नातः। (जयो० सुद० ११४) ६/८५) कर्ता (वि०) करने वाला, जगत् का कोई ईश्वरादि कर्ता धर्ता कर्णाटी (स्त्री०) कर्णाटकी स्त्री। होता तो फिर जौ के लिए जौ बौना व्यर्थ हो जाता, कर्णान्दूकः (पुं०) कर्णाभूषण। (जयो० १८/१०७) क्योंकि वही ईश्वर के बिना ही बीज के जिस किसी भी कर्णालङ्करणं (नपुं०) १. कर्णाभूषण। २. श्रवण रुचिपूर्वक। प्रकार से जौ को उत्पन्न कर देता। फिर कार्य को उत्पन्न कर्णिक (वि०) [कर्ण+इकन्] १. कानों वाला, २. पतवार धारक। करने के लिए उसके कारण-कलापों के अन्वेषण की कर्णिकः (पुं०) केवट। क्या आवश्यकता रहती? (वीरो० १९/४२) कर्णिकारः (पुं०) [कर्णि+कृ+अण] कनेरवृक्ष, कनियार वृक्ष। यथार्थ में इस संसार का कोई कर्ता या नियन्ता ईश्वर नहीं कर्णिकारं (नपुं०) अमलतास वृक्ष, कनेर वृक्ष। है। एक मात्र समय की ही ऐसी जाति है कि जिसकी कर्णिन् (वि०) [कर्ण+इनि] कानों वाला, कर्ण युक्त। सहायता से प्रत्येक वस्तु में प्रतिक्षण नवीन नवीन पर्याय कर्णी (स्त्री०) [कर्ण+ङीप्] पंख युक्त बाण। उत्पन्न होती रहती हैं और पूर्व पर्याय विनष्ट होती रहती कर्णीरथः (पुं०) डोली, स्त्रियों को ले जाने वाला वाहन। है। इसके सिवाय संसार में कोई कार्यदूत अर्थात् कार्य कर्णेजपः (पुं०) पिशुन, चुगलखोर। (वीरो० १/१८) 'कर्णेजपं कराने वाला नहीं है। न कोऽपि लोके बलवान् विभाति यत्कृतवानभूस्त्वम्' (वीरो० १/१८) समस्ति चैका समस्य जातिः। यतः सहायाद्भवतादभूतः कर्णोत्पलः (पुं०) कर्णफूल। (वीरो० ९/३७) परो न कश्चिद्भुवि कार्यदूतः।। (वीरो० १८/२) कर्तनं (नपुं०) [कृत्+ल्युट्] काटना, कतरना, व्यत्ययन (जयो० की (स्त्री०) [कर्तृङीप्] चाकू, कैंची, कर्तुं-तुमन्-करने २१/१३) के लिए (सम्य० ४१) कर्तनी (स्त्री०) [कर्तन ङीप्] कैंची। कर्दः [क अच्] कीचड़, मिलान, पङ्क। कर्तरिका (स्त्री०) १. कैंची, २. चाकू, ३. कटार, छोटी | कर्दम (पुं०) [क अम्] पङ्क, कीचड़, मलिन, मल, पाप। तलवार। (मुनि० ८) 'कर्दमे हि गृहिणोऽखिलाञ्चलाः' (जयो० २/१९) For Private and Personal Use Only Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org कर्दम- बाहुल्य कर्दम- बाहुल्य (वि०) कीचड़ की बहुलता, पङ्किलत्व, फिसलन की बहुलता | (जयो० ११ / ४ ) कर्दमयुक्त भूमिः (स्त्री०) कर्दमित धरा, पंक से युक्त धरा । (जयो० वृ० २३/६३) कर्दमिधरा ( स्त्री० ) कर्दम सहित भू-भाग, पंक बहुल भू । (जयो० २३/६७) कर्पट: (पुं०) १. जीर्ण, पुराना वस्त्र । २. कपड़े का टुकड़ा, धजी, धज्जी, चिंदी | कर्पटिक (वि०) [कर्पट+ठन् ] पुराने कपड़ों से आच्छादित । कर्पण (नपुं०) [कृप् + ल्युट् ] आयुध विशेष, अस्त्र विशेष । कर्परः (पुं०) [कृप् + अरन्] कड़ाही, पात्र, ठप्पर, ठीकरा । कर्पास: (पुं०) कपास वृक्ष कर्पासत्वच: (पुं०) तूल, रुई। (जयो० वृ० ३/३) कर्पूर: (पुं०) [कृप्+ऊर्] कपूर, हिमसार, घनसार। (जयो० वृ० ११ / २१) 'कृष्णागुरुचन्दन- कर्पूरादिकमय' (सुद० ७२) कर्पूर - गंध: (पुं०) घनसार सुरभि । कर्पूरतैलं (नपुं०) कपूर तैल। कर्पूरवास: (पुं०) कपूर गन्ध । कर्पूर-सुरभिः (स्त्री०) कपूर गन्ध। कर्परः (पुं०) [कृ+ विच्- कर्= फल +अच्] दर्पण, शीशाकीर्यमाण: फल : प्रतिबिम्बो यत्र । कर्बुर (वि०) चितकबरा, रंग-बिरंगा । कर्बुर: (वि०) चितकबरा, रंग-बिरंगा । कर्बुरं (नपुं०) कृष्णवृन्तवृक्ष, औषधिलता । कर्बुरा कृष्णवृन्ताणां जले हेम्नि च कर्बुरम्' इति वि (जयो० २१/३३) कर्बुरासा : (पुं०) १. सुवर्ण, २. जल समूह। (जयो० ३ / ७६ ) कर्बुर : (पुं०) १. धतुरा, २. अशुभपरिणति, ३. पिशाच, ४. स्वर्ण, ५. जल। कर्वुरित (वि० ) [ कर्बुर + इतच् ] रंग-बिरंगा | कर्मठ (वि० ) [ कर्मन् + अठच्] प्रवीण, चतुर, निपुण, परिश्रमी । संलग्नशील। कर्मठ: (पुं०) धार्मिक विधि विशेषज्ञ, निदेशक। कर्मन् (नपुं० ) [ कृ+मनिन] कर्तुरीरिसततमे वर्तते, ०कर्म, ० कार्य, ० व्यवसाय, ०पद, ०कर्त्तव्य ० धार्मिक कृत्य । क्वचित् पुण्यापुण्यवचनः कुशलाकुशलं कर्म (आप्त मीमांसा ८) नृराडास्तां विलम्बेन भुवि लम्बेन कर्मणा। (सुद० ७८) उक्त पंक्ति में 'कर्म' का अर्थ कार्य, काम है। धार्मिक कृत्य - सम्पठन्ति मृगचर्म शर्मणे चौर्णवस्त्रमथवा सुकर्मणे । (जयो० २ / ८९) २६२ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कर्म - कीलकः कर्मफल- ' को दोषस्तव कर्मणो मम स वै सर्वे जना यदवशे' (सुद० ११०) फलं सम्पद्यते जन्तोर्निजो- पार्जित - कर्मण: (सुद० १२५ ) 'कर्माख्ययापुद्गलमङ्गिनात्तमङ्गी तिजीवंतदिराभ्युपात्तम्' (समु० ८/७) कर्मों से युक्त जीव का नाम अङ्गी और उस अङ्गी के द्वारा प्राप्त किए हुए पुद्गल का नाम कर्म है। वे घाति और अधाति हैं। भाग्य, गति, सक्रियता, अनुष्ठान आदि कर्म के नाम हैं। आत्म परिणाम, योग लक्षण भी कर्म है-'आत्म-परिणामेन योग भावलक्षणेन क्रियते इति कर्म:' (त० वा० ५ / २४) कर्म क्रिया का भी नाम है, 'देशात् देशान्तर प्राप्तिहेतुः परिस्पन्दात्मकः परिणामोऽर्थस्य कर्म' (न्याय०वृ०७/२८१) कर्म-आजीविका के रूप में भी प्रचलित है। क्षत्रियाणां प्रवर्त्यमेतद्वितयर्माङ्कितम् । कृषिकर्म च वाणिज्यं, वैश्यानां भूतवृत्तये ॥ ( हित०सं०वृ०९) प्रत्येक वर्ग के अलग-अलग कर्म हैं १. क्षत्रिय कर्म-रक्षा भाव। २. वैश्यकर्म - वाणिज्य । ३. शूद्रकर्म - हस्त शिल्प कौशल । ४. ब्राह्मण-कर्म-ज्ञानदान। कर्मकः (पुं०) सेवक, भृत्य, कार्मिक। (जयो० २१२५९ ) 'कामस्यादेश कारकेण' (जयो० ११/१२) कर्मकरभाव: (पुं०) कर्तव्य परायण । (जयो० २०/७४) कर्मकर्तु (पुं०) १. कर्म कर्ता, २. कर्ता कर्म से युक्त पद । कर्म-करी (स्त्री०) भृत्या, सेविका किंकरणी, कर्मकारिणी, कर्मचारिणी, नौकरानी । (जयो० ११ / ३९) कर्म-कलङ्कः (पुं०) कार्य दोष, भाग की प्रतिकूलता'प्रधृतकर्मकलङ्कहराध्वने' (समु० ७/१७) 'वागुत्तमा कर्मकलङ्कजेतु:' (सुद० १/२) कर्मकाण्ड : (पुं०) श्रोत्रिय, वैदिकब्राह्मण, वैदिक क्रिया करने वाले। (जयो० ३/१६) कर्मकाण्डप्रतिपादकशास्त्रं (नपुं०) वैदिकशास्त्र, अनुष्ठानविधि शास्त्र (जयो० वृ० ३ / १६) कर्मकार : ( पुं०) शिल्पकार, कारीगर, वास्तुविद । कर्मकारिन् (वि०) काम को करने वाला। कर्मकारिणी (स्त्री०) सेविका, भृत्या (जयो० ११/९९) कर्मकार्मुकः (पुं०) धनुष विशेष । कर्मक्रिया (स्त्री०) निम्नकार्यकारक । कर्म- कीलकः (पुं०) रजक, धोबी । For Private and Personal Use Only Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कर्मक्रीडकः २६३ कर्मभूमिः कर्मक्रीडकः (पुं०) कामी पुरुष। कर्मकृत् (वि०) आजीविका करने वाला। कर्मकृतिः (स्त्री०) पाप कर्मों की त्वचा। 'कर्माणां दुरितानां कृत्तिस्त्वचा'। कर्मक्षपका (वि०) कर्मक्षपक। (जयो० वृ० २७/५) कर्मक्षम (वि०) कार्य में योग्य, कर्तव्यनिष्ठ। कर्मक्षयः (पुं०) कर्म/अष्ठकर्म नाशक सिद्ध। (सुद० ९६) कर्मक्षयकारणं (नपुं०) कर्म नाश का कारण। (सुद० ९५) | कर्मक्षयसिद्धः (पुं०) कर्म का क्षय करके सिद्ध होने वाला, कर्मविमुक्त सिद्धात्मा। कर्मक्षेत्रं (नपुं०) कर्मप्रधान स्थान, कर्मभूमि कर्मगहीत (वि०) कार्य को ग्रहण करने वाला। कर्मघातः (पुं० ) १. कर्म को छोड़ना, कार्य से विमुख, २.. अप्ठकर्म का नाश। कर्मचारिणी (स्त्री०) सेविका। (जयो० वृ० ११/९९) कर्मचेतना (स्त्री०) अन्य का अनुभव करना। 'तत्र ज्ञानादन्यत्रेदमहं करोमीति चेतनं कर्मचेतना' (समयसार अमृत टी० ४/८) कर्मचेष्टा (स्त्री०) कार्य की गति, कर्त्तव्यभाव। कर्मज्ञ (वि०) कर्म कर्ता, धार्मिक अनुष्ठान कर्ता। कर्मजा (स्त्री०) कर्म से उत्पन्न, गुरु बिना उत्पन्न बुद्धि। ___'उवदेसेण विणा तवविसेसलाहेण कम्मजा तुरिमा। (ति०प०४/१०२१) कर्मजाबुद्धिः (स्त्री०) कर्मज बुद्धि। औषधि सेवन के बल से जो प्रज्ञा उत्पन्न होती है। 'ओसह-सेवा बलेझाप्पण्ण-पण्णा वा' (धव० ९/८२) कर्मजाप्रज्ञा (स्त्री०) कार्मज बुद्धि। कर्म-जातिः (स्त्री०) कार्य का उत्पत्ति। कर्मज्योतिः (स्त्री०) कार्य का प्रकाश। कर्मठः (पुं०) शूरवीर, शक्ति सम्पन्न, बलिष्ठ। 'कर्मठ कर्मशूरः कर्माणि घटते' (जैन०ल०३२०) कर्मत्यागः (पुं०) कर्तव्य त्याग, कर्म छोड़ना। कर्मत्यागिन् (पुं०) कर्म/अशुभ कर्म का त्याग करने वाला। कर्मत्व (वि०) कर्म में रहने वाला धर्म। कर्मदलिक (वि.) कर्म का विघातक, कर्म विदीर्णक। कर्मद्रव्यं (नपुं०) कर्म रूपता युक्त द्रव्य, पुद्गलद्रव्य को प्राप्त कर्म। कर्मद्रव्य पुद्गलपरावर्तनं (नपुं०) कर्म रूप, पुद्गल द्रव्यों का परावर्तन। कर्मद्रव्यभावः (पु०) अज्ञानादि भाव, ज्ञानावरणादि द्रव्य कर्म में अज्ञानादि उत्पन्न करने की शक्ति। कर्मद्रव्यसंसार: (पुं०) अष्ठकर्म रूप पुद्गलों का संसरण। कर्मदुष्ट (वि०) दुराचारी, पापी, अधम। कर्मदोषः (पुं०) दुर्व्यसन, पाप, अशुभ परिणाम। कर्मधर (वि०) कर्म का धारक, कार्य करने वाला। कर्मधारयः (पुं०) १. समास, विशेष। 'परस्पर विशेष-विशेष्यतया कर्मधारय-समासः' (जयो० वृ० ५/४७) कर्मध्यानं (नपुं०) १. कार्य के प्रति दृष्टि। २. अशुभ प्रवृत्ति का ध्यान, आर्तरौद्र प्रवृत्ति की ओर दृष्टि। कर्मध्वंसः (पुं०) १. आठ कर्मों का नाश। २. कार्य में बाधा, निराश, नाश। कर्मनामन् (नपुं०) कृदन्त संज्ञा। कर्मनारकः (पुं०) नरक गति के कर्म का आना। कम्मणेरइओ णाम णिरय-गदि-सहगद-कम्म-दव्व-समूहो' (धव० ७/३०) कर्मनिष्ठ (वि०) कर्त्तव्यनिष्ट। कर्मनिर्हरणं (नपुं०) कर्माभाव। कर्माणां निर्हरणं (जयो० वृ० २/२२) कर्मनिषेकः (पुं०) आबाधा काल से रहित कर्मों की स्थिति। 'आबाहूणिया कम्मट्ठिती कम्मणिसेगो' (षटखंडागम) कर्मपथः (पुं०) कार्य दिशा। कर्मपाकः (पुं०) कर्म की परिपक्वता। कर्मपुरुषः (पुं०) कर्मयोगी, क्रियाशील व्यक्ति। 'कर्म अनुष्ठानं, तत्प्रधान पुरुषः कर्मपुरुषः कर्मकरादिक' (जैन ल०३२१) कर्मप्रकृतिः (स्त्री०) कर्म की प्रकृति। अभयनंदी की रचना। कर्मप्रवादः (पुं०) एक पूर्वश्रुत, जिसमें श्रुतज्ञान सातवा पर्व। बन्ध, उदय, उपशम एवं निर्जरा रूप अवस्थाओं का निर्देश किया जाता है, जिसमें अनुभव एवं प्रदेशों के आधारों तथा जघन्य, मध्यम और उत्कृष्ट स्थिति का निर्देश हो। कर्मफलं (नपुं०) कृतकर्मों का परिणाम। (सम्य० ४१) कर्मफलचेतना (स्त्री०) कर्म फल का अनुभव। 'वेदंतो कम्मफलं सुहिदो दुहिदो हवदि जो चेदा' (समयसार ४/९) 'उदयागतं कर्मफलं वेदयन्' (सम०४१९) कर्मबन्धः (पुं०) शुभाशुभ कर्मों का बन्ध। कर्मबन्धनं (नपुं०) जन्म-मरण रूप बन्धन, अशुभ-भावों को तल्लीनता। कर्मभावः (पुं०) अशुभ कर्म का अनुभवन। कर्मभूमिः (स्त्री०) शुभ-कर्म रूप उपार्जन युक्त भूमि। (जयो० २/७९) 'षट्कर्मदर्शनाच्च' षण्णां कर्मणां असि-मसि-कृषि For Private and Personal Use Only Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org कर्ममङ्गलं विद्या-वणिक् - शिल्पानामत्रैव दर्शनाच्च कर्मभूमिव्यपदेशः । ' (त० वा० ३/३७) कर्ममङ्गलं ( नपुं०) विशुद्ध रूप कारण मांगलिक कारण, दर्शनविशुद्धि आदि कारण । कर्ममलीयसत्व (वि०) कर्म से मलिन ( भक्ति ०५ ) कर्ममासः (पुं०) तीस दिन-रात का महिना । कर्ममीमांसा (स्त्री०) कर्म विवेचन का सूत्र । कर्ममुक्त (वि०) कर्म रहित । ( भक्ति० ९) कर्ममूल (नपुं०) कर्म का आधार । कर्मयुग (पुं०) कर्मभूमि का युग । कर्मयोगः (पुं०) आत्मपरिष्पन्दन का योग, सक्रिय चेष्टा, उद्यम, प्रयत्नशीलता 'कर्मणोकृतो योगः कर्मयोगः (स० स०२ / २५) 'योगः आत्मप्रदेशपरिष्पन्दः' (त० वा० २/२५) 'कर्म' कार्मणं शरीरं, कर्मैव योगः कर्मयोगः । (त० श्लो०२ / २५) 'सुखं च दुःखं जगती जन्तोः स्वकर्मयोगाद् दुरितार्थमन्तो' (सुद० १११ ) कर्मरङ्गतरु: (पुं०) १. कर्म रंग वृक्ष, २. कर्मरङ्गतरौ भव्यः इति वि० ३. भव्यतरु। (दयो० वृ०२१ / २८) कर्मराशि (स्त्री०) कर्मसमूह। (भक्ति०३३) कर्मवर्गणा ( स्त्री०) कर्मबन्ध की भेदरूप वर्गणा। कर्मरूप आकर (सम्य० ३४ ) अट्ठकम्मक्खंधवियप्पा' (धव० १४ / ५२) कर्मविपाकः (पुं०) कर्म परिपाक, कर्मोदय। 'व्योम्नो यथा कर्मविपाकजातः'। कर्मशत्रु ( पुं०) कर्मारि। (जयो० १) ( भक्ति०२७) कर्मशाला ( स्त्री०) कारखाना । कर्मशील (वि०) कर्मवीर, शूरवीर, उद्यमी, परिश्रमी, क्रियाशील । कर्मशूर (वि०) परिश्रमी, उद्यमी । कर्मसंग (वि०) कर्म की संगति, आसक्ति की ओर प्रवृत्ति । कर्मसचिवः (पुं०) सचिव, मन्त्री, कार्मिक | कर्मसाक्षिन् (वि०) प्रत्यक्षदर्शी, साक्षात् देखने वाला, गवाही देने वाला। कर्मसिद्ध: (पुं०) कर्मकुशल | कर्मस्थानं (नपुं०) कर्मक्षेत्र, कार्यालय । कर्मस्थितिः (स्त्री०) कर्मों की स्थिति, एक कर्म स्थिति । कर्महानि (स्त्री०) कर्मों का उपशम। कर्महीन (वि०) कर्मक्षीण, कर्मरहित। कर्माचरणं (नपुं) लौकिक सुखप्राप्ति का आचरण । (जयो० वृ० २/४) कर्माधारः (पुं०) कर्म का आश्रय । २६४ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कर्षः कर्माधिकारः (पुं०) कृतकर्मों का अधिकार । कर्मानुदयः (पुं०) कर्म का उदय । (समु० ८/१७) कर्मानुग् (वि०) कर्मानुगामी। (जयो० ७/४) कर्मानुगत्व (वि०) कर्म के अनुसार गमन करने वाला। (सुद० १२१) For Private and Personal Use Only कर्मानुगामी (वि०) कर्म के अनुसार विचरण करने वाला । कर्मानुरूप (वि०) कार्य के अनुरूप, कार्यानुसार । कर्मानुसार: ) कार्य के अनुसार। ( वीरो० १४ / ३० ) कर्मान्तः (पुं०) १. कर्म / कार्य की समाप्ति। २. काष्ठागार, धान्यागार, व्यवसाय | कर्मान्तक (वि०) कार्य को समाप्त करने वाला। कर्मान्तर (वि०) १. कर्म के अनुसार विचरण करने वाला । २. प्रायश्चित्त, विरोध, ३. कार्य में भिन्नता । कर्मान्तिक (वि०) अन्तिम कर्म वाला | कर्मान्तिकः (पुं०) भृत्य, सेवक। कर्मात्यन् (वि०) सक्रिय, क्रियाशील । कर्माय: (पुं०) सावद्यकर्म युक्त आर्य । कर्मों से आजीविका करने वाला। कर्मासक्तिः (स्त्री०) कर्मों/विषयों/ इन्द्रियों में तल्लीनता । कर्मिष्ठ (वि०) परिश्रमी, उद्यमी । कर्मेन्द्रियः (पुं०) वचनादिक्रिया रूप कारण । कर्मेन्द्रियाणि वागादीनि वचनादि क्रियानिमित्तानि ( ता०वा०२/१९) कर्मेन्धनं (नपुं०) कर्म रूप ईंधन, अष्टकर्म के कारण रूप लकड़ियां । 'स्वकीय-कर्मेन्धन-भस्मवस्तु' (सुद० २/४०) कर्मोदयः (पुं०) कर्म का उदय । अप्रशस्तोदय, प्रशस्तोदकर्म (सम्य० ३७) कर्म विपाक का उदय। (भक्ति०२७) कर्मोदारं (नपुं०) साहसिक कर्म, उदारभाव युक्त कार्य । कर्मोद्यम: (पुं०) क्रियाशील, उद्यमशील। कर्मोद्युक्त (वि०) सक्रिय, संलग्न, तत्पर । कर्वट : (पुं० ) [ कव् + अटन्] १. मंडी, बाजार, विपणयक्रेद्र, विक्रय केन्द्र । २. सभी ओर घिरा नगर, कुत्सित नगर । 'पर्वतावरुद्धं कव्वडंणाम' (धव० १२ / ३३५) कर्वटकः (पुं०) देखो ऊपर। कर्वटकथा ( स्त्री०) कुत्सित नगर सम्बन्धी कथा । कर्ष् (अक० ) सींचना, जोतना, रेखा बनाना। कर्ष: (पुं०) सोने के तोलने का १६ मासा वजन । अड्ढाइज्जा धारणा य सुवण्णो । कर्षक (वि०) [कृष्+ण्वुल् ] खींचने वाला, जोतने वाला । Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कर्षक २६५ कलत्रं भूमान कर्षकः (पुं०) किसान, कृषक, क्षेत्र पालक। 'कर्षक: कर्षणा- कलकूणिका (स्त्री०) अपवादी स्त्री। त्तथा' जो खेत जोतता है। (पद्मचरित० ६/२०९) कल-कोकः (पुं०) मधुर शब्द वाली कोयल, कलकण्ठी कर्षणं (नपुं०) [कृष्+ ल्युट्] खींचना, घसीटना, झुकाना, कोयल। (वीरो०६/२९) जोतना, कर्षक या कर्षण। सम्बन्धन (जयो० वृ० १३/६७) कलकृत (वि०) मधुर गान। २. खेती-(दयो०३६) 'कर्षणे खात-सम्पात-करणे सिञ्चने कलख (वि०) शब्द युक्त। पुनः। (दयो० ३६) कलग्रह (नपुं०) करग्रहण, पाणिग्रहण (जयो० ७/५४) कर्षिणी (स्त्री०) [कृष्+णिनि ङीप्] लगाम लगाना। कलघोषः (पुं०) करग्रहण, पाणिग्रहण। (जयो० ७/५४) कर्पू: (स्त्री०) [कृष्+ऊ] १. हल रेखा, हुड, २. नदी, ३. | कलघोषः (पुं०) काक, कोयल, कलकण्ठी। __ नगर, ४. कंडे की राख, कृषि, खेती। कलघोषिक (वि०) मधुर शब्द करने वाली। कर्हिचित् (अव्य०) [किम्+हिल्] किसी समय, कभी भी। कलङ्गः (पुं०) [कल्+क्विप् कल् चासौ अङ्कश्च] १. दूषण, कल् (सक०) १. गिनना, गणना करना, २. शब्द करना, ०दोष, मलिन, ०मैल, पाप, ०अपराध, ०कालाक्षर। समझना, जानना, ध्यान देना। ३. सम्पादन करना, आदर (जयो० ६/१४) सकलङ्क पृषदङ्ककः स क्षयसहित: सहजेन। करना। 'स्वणमेव कलित-दत्तं' (जयो० वृ० २/१०) ४. (सुद० ८७) २. कालिमा, धब्बा, दाग। ३. लोहे की जंग। स्वीकार करना-'कलितं संदधती तदा प्रशस्तम्' (जयो० कलङ्ककला (सुद० ७१) १०/११३) ५. युक्त होना। 'यत्सुवर्णकलिते ललितं स्याद्' कलङ्क रूपा (स्त्री०) कुत्सित रेखा, तिरछी रेखा। (जयो० ५/४६) ६. अनुष्ठान करना ०कल्पना करना कलङ्करेखा (स्त्री०) दूषण रेखा। तस्यैव कलङ्करेखा। (जयो० 'कपोल-कलितेषु च भ्रमात्। (जयो० २/२६) ७. बांधना, १५/७०) जकड़ना, बन्धक बनाना। ८. विकलांग करना, विकृत कलङ्कलेशः (वि०) दोपवर्जित, दोषरहित, राग-द्वेषादि विहीन। करना। 'भूमावहो बीतकलङ्कलेश:' (वीरो० ३/४) 'कलङ्कस्य कल (वि०) [कल् घञ्] १. मनोहर, मधुर, स्पष्ट, उत्तम, दूषणस्य लेशो यस्मात्स दोषवर्जितः। (वीरो० वृ०३/४) श्रेष्ठ। 'कलं वनेऽसावरिलम्बलेन' (जयो० २४/५५) । कलङ्कषः (पुं०) [कल+कष् खच्] सिंह, शेर मृगराज। करेण कलो-मनोहरो-(जयो० वृ० २२/७२) २. कला-(सुद० कषति हिनस्ति। १/४४) कलङ्कित (वि०) [कलङ्क- इतच्] लांछित, चिह्नित, दोष युक्त। कलः (पुं०) कल कल शब्द, अस्पष्ट शब्द, मृदुशब्द। 'कल कलङ्किन् (वि०) १. कलंक वाले १. के सूर्य विषये बलकारि इति कल एवाऽऽगतो वा' (सुद० वृ०७२) मात्रा सा न विद्यते। (जयो० वृ० १५/४१) २. के जले कल-कण्ठ (वि०) मधुर कण्ठ वाला। पर्यन्तता समु द्रसद्भावात् लङ्का नाम नगरी। (जयो० वृ० कलकण्ठी (स्त्री०) कोयल, हंस। १५/४१) ३. सदोषी-कलिरूपायामागमाज्ञया कृत्वा कल-कलः (पुं०) १. क्षुब्ध युक्त ध्वनि, कोलाहल। 'कलकलेन कलङ्गिनः' (जयो० वृ० १५/४२) कृत्वा दुष्टं वदन्तीति' (जयो० १५/१२) २. सुभाषित-वचन- कलङ्की (वि०) सद् विवेक रहित 'क' जल से वेष्टित लंका 'कलकलप्रायामुक्तिं प्रकुर्वति' (जयो० वृ० १८/३) तुल्य ब्रिटेन शासन। कल-कलमिषः (पुं०) कोलाहल के कारण। (दयो० १८) कलङ्की (स्त्री०) चन्द्रमा। कल-कलित (वि०) कलायुक्त। (सुद० १/४४) कलङ्की (पुं०) कल्कि राजा। (जयो० वृ० १५/४१) कलकस्वभावः (पुं०) मधुर स्वभाव। (जयो० १५/१३) कलङ्करः (पुं०) जलावर्ण, भंवर। कं जलं लछ्यति भ्रामयति कल-कान्तिकलः (पुं०) मनोहर प्रवाह, कान्ति का सुन्दर क+लङ्क णिच्+उरच। प्रवाह। 'उच्चलद-विरद-कल कान्तिकले' (जयो० २२/७२) कलङ्गिन् (पुं०) चन्द्र। (जयो० ३/८९) 'कलो मनोहरो कान्तेः कल: प्रवाहो यत्र यस्मिन्। (जयो० कलञ्जः (पुं०) पक्षी विशेष। वृ०२२/७२) कलत्रं (नपुं०) १. चंद्रिका (सुद० ३/१०) २. दुर्गस्थान-श्रेणिकलकूजिका (स्त्री०) छिनार, अपशब्द बोलने वाली स्त्री। कलत्रं भूभुजां दुर्गस्थानेऽपि श्रोणिभार्ययोः इति विश्वलोचन: For Private and Personal Use Only Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कलत्रकल्पः २६६ कलहकर (जयो० वृ० ११/३) ३. स्त्री, भार्या, नारीदल (जयो० कल-भाषा (स्त्री०) मधुर भाषा, मीठी बोली। १४/९६) 'विनिर्वहत्यात्तकलत्र-कल्पम्' (जयो० २७/६०) कलमः (पुं०) [कल्+अम्] धान्य विशेष, गर्मी का धान्य। ४. कूल्हा, नितम्ब। (जयो० वृ० ९१/७) कलमाय जलाबह्निर्भिषजो रोगिणे गरम्। (दयो० वृ०६४) कलत्रकल्पः (पुं०) नारी विधि। (जयो० २७/६०) कलम्बः (पुं०) [कल्+अम्बच्] कदम्ब तरु, लता विशेष, २. कलत्रचक्र (नपुं०) श्रोणिबिम्ब, नितम्बचक्र। (जयो० ११/७) तीर, चाधरश्रिया नाधिकलम्बवाचा' (जयो० ११/८९) ___कलत्रमेव चक्र तस्मिन् श्रोणिबिम्बे( (जयो० वृ० ११/७) कलम्बुरं (नपुं०) [क लम्ब्+डटन्] नवनीत, मक्खन, नैनू। कलत्रतुण्डं (नपुं०) वनितावदन, नारीमुख। शरीरमात्रं मलमूत्र- कलय् (अक०) खेलना, संकल्प करना। भवता कलयिष्यामि, कुण्डं किमेकमेतद्धि कलत्रतुण्डम् (जयो० २७/३६) तदद्य गुणशालिना। (समु० ३/४१) छलेन लोम्नां कलयन् कलत्र-दोषः (पुं०) स्त्रीदोष, नारी दोष। शलाका। (जयो० २/५९) कलत्र-प्रीतिः (स्त्री०) स्त्री का प्रेमभाव। कलरवः (पुं०) मधुर ध्वनि, सुन्दर आवाज। (जयो० वृ० कलत्र-कल्पः (पु०) पत्नी का सम्बन्ध। ३/११५) _ 'द्वयोरवस्थानृकलत्र-कल्पा' (सम्य० ३३) कललः (पुं०) भ्रूण, गर्भाशय। कलत्रमाला (स्त्री०) स्त्री माला।। कलविङ्कः (पुं०) १. चटिका, चिड़िया। (जयो० १८/९३) कलत्रसन्निधिः (स्त्री०) चन्द्रिका से आलोकित, चन्द्र प्रकाश कलविङ्कनिस्वनः (पुं०) चटिका स्वर, चिड़ियाओं की ध्वनि। युक्त। 'शिशुमाखाद्य कलत्रसन्निधेः' (सुद० ३/१०) (जयो० वृ० १८/९३) अलुत्रहारः (पुं०) नारी का हार। कलश (अक०) सुशोभित होना,शृङ्गे तु सोमः कलशायतेऽलम्। कलता (स्त्री०) मनोहरता, रमणीयता, मधुर (जयो० २०/७४) (जयो० १५/४७) 'कलश इवाचरतीति' (जयो० वृ० (जयो० १३/६०) १५/४७) कलताभृत (वि०) वाचाल नारी, अधिक बोलने वाली स्त्री, कलश: (पुं०) [कलं च तत् शं सुखं धर्मो वा] ०कुम्भ, निन्दकनारी। घट, घड़ा, जलपात्र, करवा, तस्तरी, मांगलिक कल-दोषः (पुं०) शब्द दोष, स्थान दोष। कलश। 'कलशोत्पत्तितादाम्य' (जयो० १/१०३) कलधौतं (नपुं०) रजत, चांदी। कलशद्विक् (वि०) युगल कलश, दो जलकुम्भ कलशद्विक कलध्वनि (स्त्री०) ०मधुर स्वर, मृदु-वाणी, मीठीध्वनि, इव विमलो मङ्गलकारीह भव्यजीवानाम्। (वीरो० ४/४८) ०कोयल, मयूर, हंस ध्वनि 'कलध्वनीना भृशमध्वनीनान्'। | कलशर्मवाङ् (स्त्री०) मङ्गलोपपद् 'सकलं मनोहरं शं शर्म कलनं (नपुं०) दूषण, दोष। (सुद० १/१७) यस्मादिति (जयो० वृ० १२/५) कलना (स्त्री०) १. प्ररूपणा, निरूपणा, शब्द सम्भावना। कलशं (नपुं०) जलघट। (जयो० १/३९) त्रिवर्गसम्पत्तिमतोऽत्र मन्तुमदक्षराणां कलनाः कलशा (स्त्री०) कलशी, घड़ा, करवा। (जयो० १२/११९) क्व सन्तु' (जयो० १/३९) २. खोटों भावों का 'कलशी समु पहिरत्तु' । कारण-अक्षाधीनधिया कुकर्म-कलना मा कुर्वतो मूढ! ते कलशाली (स्त्री०) कलशावली। (वीरो० ७/३१) (मुनि० १९) कलशी (स्त्री०) घड़ा, करवा। कलनादः (पुं०) स्पष्ट स्वर, मधुर स्वर। कलशी-कलशी-कलाम्भस् (नपुं०) शीतोष्ण कलश-जल, कलन्दिका (स्त्री०) [कल+दा+क+कन्+टाप्] प्रज्ञा, बुद्धि। शीतोष्ण जल वाले कलश। (जयो० १०/२५) कलप्रवालः (पुं०) कर पल्लव। (जयो० १७/५०) कलसन्निधि (स्त्री०) जल समूह से सुशोभित। 'केन जलेन कलभः (पुं०) [कल+अभच्] हस्तिशावक, हाथी का बच्चा। कस्य वा लसन शोभनोनिधि' (जयो० ७० २२/६८) मन्दगामिनि! तवालसां गति, कलहः (पुं०) [कलं कामं हन्ति] 'परसन्ताप-जननं कलह' शिक्षतेऽथ कलभोऽसकावितः। (आव० १२/२८५) झगड़ा, लड़ाई, धोखा, निन्दा, कलभावः (पु.) मधुरभाव। (सुद० (जयो० २१/४) कलहकर (वि०) वाचनिक लड़ाई। (वीरो० २२/२०) कल-भाषणं (नपुं०) अस्पष्ट कथन, तुतलाना। कलहकारिता (वि.) बुराई, मारपीट, हिंसा। For Private and Personal Use Only Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कलहकारिता २६७ कलावत् कलहप्राभृत (नपुं०) कलह उपचार। (जय०का० १/२३५) बुद्धिमान-जयो२२/७९) कलहंसः (पुं०) राजहंस, हंस। (जयो० १३/५७) कलानकः (पुं०) निर्देशानुसार, निर्दिष्ट। 'मनुवदन्निजगाद कहहंसततिः (स्त्री०) राजहंस परम्परा। 'कलहंसानां वर्तकानां कलानकः' (समु० १/३६) राजहंसानां वा ततिः परम्परा' (जयो० वृ० १३/५७) कलानिधिः (स्त्री०) चंद्र, शशि, निशावर। 'कलानां कलहंसोपमित (वि०) राहंस की तरह। शिविराणि बभुश्च धनुर्वेदादि-कौशलानामंशाना वा निधिः' (जयो० वृ० ९/३९) दूरतः कलहंसोपमितानि पूरतः। कलानिलयः (नपुं०) कला भण्डार 'कलानां गीतवादित्रादीनां कलहैकवस्तु (नपुं) कलह स्थान। (वीरो० २२/१४) (जयो० १३/६४) षोडशांशानाञ्च निलयः स्थानम्( (जयो० वृ० ६/११२) कला (स्त्री०) किल्+अच्+टाप्] कला, १. रेखा, अंश, कलान्तरं (नपुं०) दूसरी रेखा। खण्ड, भाग, चतुरता। (जयो० वृ० १/१४) २. किरण, कलान्वयः (नपुं०) १. जलाशय, समुद्र, कलायुक्त। (जयो० विकास-स्पृहयति न किं चंद्रकलाप्य विकलाशया (जयो० १७/१०४) चन्द्ररूप (जयो० वृ० १७/१०४) 'कं सुखं ३/६४) ३. दर्शक-यत्र मनाङ् न कलाऽऽकुलताया विकसति लातीति एवंरूपोऽन्वयः स्वभावो यस्याः सा' (जयो० वृ० किन्तु कला कुलतायाः। (सुद० वृ०७६) १७/१०४) कं जलं लातीति एवंरूपा कलान्वया षोडसकला-'विधोः कला वा तिथिसत्कृतीद्धा' (सुद० जलजीवनाभूत समुद्रः' जलाशय (जयो० वृ० १७/१०४) २/६) कलापः (पुं०) १. समूह, ओघ, यूथ, समुदाय। 'तत्र भोगिपद आनन्दविधा-कहा चानन्दविधा विधात्री (वीरो० ३/१८) योगिकलापः' (जयो० ५/१६) २. मुक्ताहार, ३. वस्तु कलांश, नेत्रनिमेष-'त्रिशत्काष्ठा कला' (धव० ४/६३) संचय। ४. चन्द्र, ५. आभूषण, ६. बुद्धिमान, प्रज्ञावंत। पुरुष की बहत्तर कला और स्त्रियों की चौंसठ कलाएं तथा छन्दोबद्ध कविता। चन्द्रमा के सोलह कलाएं। चित्रकर्मादि-षोडशाभिः काष्ठाभिः | कलापकं (नपुं०) [कलाप कन्] एक ही विषय पर लिए गए कला। (नियम सा०वृ० ३१) चार श्लोक, व्याकरण सम्बन्धी विचार। २. सहज आनन्द कलाङ्ग (वि०) कलाकलित, कला/चन्द्र की तरह विकास को का आह्वानकर्ता। (जयो० २२/८६) प्राप्त अंग वाली। मधुरं रसतात् पयोधराङ्कमधुना हारमिमं कलापिन् (पुं०) १. मयूर, मोर 'काशिकानृपतिचित्तकलापी' न किं ललाङ्क! (जयो० १२/१२६) (जयो० ३/५५) 'मृदङ्गनि:स्वानजिता कलापी' (वीरो० कलाकन्दः (पुं०) १. कलाकन्द-मिष्ठान्न भोज्यपदार्थ। २. ४/९) २. कोयल, ३. अंजीरतरु। चन्द्रकला युक्त। (वीरो० २२/३५) कलाकन्दमुखेन पूरिता कलापिनी (स्त्री०) १. रजनी, २. चन्द्र। सा। (जयो० वृ० १२/१२४) कलापुरू: (पुं०) कला परिपूर्ण चन्द्र। कलासु य पुरवः कलाकलित (वि०) गुण समूह कला युक्त, कलापूर्ण शरीर परिपूर्णः सन्ति। ०कलाधर, चन्द्र, रजनीश, शशि। वाली। (जयो० वृ० १२/१२६) (जयो० ५/३२) कलाकेलि (वि.) कामी, विलासी। कलापूर्णः (पुं०) चन्द्र, शशि। कलादः (पुं०) [कला+आ+ दा। क] स्वर्णकार, सुनार। (जयो० कलाबलं (नपुं०) कला सामर्थ्य। 'कलाया बलं सामर्थ्य' ६७४) 'कलादस्य सुवर्णकारस्य'। (जयो० वृ० २/११४) कलादलं (नपुं०) गुण समूह (जयो० ९/६१) गुणमूल्य। कलाब्जयुग्मं (नपुं०) करकमल-द्वितीय, दोनों हाथ रूपी कलाद-वादः (पुं०) सुवर्णकार, सुनार। असको कलादवाद:। कमल। (जयो० २०/८६) (जयो० ६/७४) कलादस्य सुवर्णकारस्य वाद दव वादः कलाभृत् (पुं०) चन्द्र, शशि। प्रतिज्ञा, सुवर्णकारतुल्यचेष्टा। (जयो० ७० ६/७४) कलामय (वि०) कला युक्त, कलापरिपूर्ण, कलासहित। (सुद० १०४) कलादेशः (पुं०) मण्डलपरिपूर्ति (जयो० २८/४४) कलायः (पुं०) [कला+अय्+अण्] मटर। कलाधरः (पुं०) चंद्र, शशि (जयो० वृ० १०६) कलावत् (वि०) कलाओं/षोडश कलाओं से युक्त (सुद० कलाधर (वि०) कला धारक, कलाओं में निपुण। (वीरो० ।। ३/४०) ४/४६) 'कलाधरश्चातुर्ययुक्तः' (जयो० वृ० ३/४) | कलावान् (वि०) १. कला को जानने वाला, कलाविज्ञ, For Private and Personal Use Only Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कलावान् २६८ कलुष बहत्तर कला विशेषज्ञ, चित्र, संगतादि का ज्ञाता। २. प्रमुख। 'कलिं कलहं पापं वा गच्छन्ति स्वीकुर्वन्ति ते द्वितीया तिथि से उत्पन्न चन्द्र। मान्यः कलावानिव शुक्लपक्ष: कलिङ्गाः' (जयो० वृ०६/२५) द्वितीययोः सत्सु सुतः स दक्षः। (समु० १/३०) कलिञ्जः (पुं०) [कालन् ।अण] परदा, चटाई। कलावति (वि०) १. नाना कलाओं का धारण करने वाली कलित्र (वि०) कलह/पाप से रक्षा करने वाला। 'छेत्तुं जना कौमुदं तु परं तस्मिन् कलावति कलावति। (सुद० ९०) जन्मनगं कलित्रम्' (भक्ति०७) कलाविकः (पु०) [कलं आविकायति विशेषण कलित (वि०) स्वीकृत, दत्त, प्रदत्त, प्रदेय, देना, दिया, पकड़ा रीति-कल+आ+वि+कै+कन्] मुर्गा, कुक्कुट। अनुष्ठित, कल्पित। 'कपोलकलितेषु च भ्रमात्' (जयो० कलाहकः (पुं०) [कलं आहन्ति-कन+आ+हन्+ड + कन्] वृ० २/२६) 'तत्र तत्र कलितं जिनार्चनम्' (जयो० २/३३) एक वाद्य विशेष। उस उस अवसर पर अनुष्ठित जिनार्चन'। कलिः (स्त्री०) [कल्। इनि] कलह, पाप। कलि काल- कलित-प्रशंसा (वि०) प्रशंसा करती हुई। सा गीति जगाविति 'प्रवलेऽत्रकलेदले खलेन' 'कार्यः कलेरिति तमा पुनः कलित प्रशंसा। (सुद० १२३)। समभूद्विलासः' (वीरो० २२/९) (जयो० वृ० १२/४) कले- कलिता (वि०) सम्पादिता, सम्पादित की गई। (जयो० ५/५२) कलहस्य' (जयो० वृ० १२/४) 'कलिं कलह पापं वा | कलिताङ्गी (वि०) समनुभावित अंग वाली। सदुदय-कलिताङ्गी गच्छन्ति' (जयो० वृ०६/२५) जग्मुरिष्टं वराङ्गीन्। (वीरो० ४/६३) कलिका (स्त्री०) [कलि+कन्+टाप्] कली, मञ्जरी, पुष्प कलिनोचितसत्ता (वि०) तारक युक्त सत्ता 'कलिता सम्पादिता गुच्छ। (जयो० १२/३१) उचिता सत्ता प्रशंसनीया' (जयो० वृ० ५/५२) कलिकामृद्धी (वि०) कुड्मलकोमलता। (वीरो० ३/८५) कलितोष्मः (पुं०) गर्मी के कारण, सन्तपन के बहाने, स्वीकृत कलिकाम्रः (पुं०) आम्रमञ्जरी, उरीक्रियते न किं पिकाय ऊष्मा। 'कलितः स्वीकृत ऊष्मणो मिषः सन्तपनच्छलो कलिकामस्य शुचिस्तु सम्प्रदायः। (जयो० १२/३१) येन स' (जयो० वृ० १२/१२२) कलिकालः (पुं०) कलिकाल, कलहकाल, पाप युक्त समय। कलिर्नु (पुं०) काले बादल, कलिकाला। (वीरो० ४/५) 'यत्किल कलिकालस्यान्ते प्रलयो भविष्यतीति' (जयो० कलिन्दः (पुं०) [कलि+दा+खच्] १. यमुना नदी का उद्गम वृ०७/५९) स्थल, २. रवि, सूर्य। ३. पर्वत, गिरि। कलिङ्गः (पुं०) १. चातक पक्षी। 'कलिङ्ग इव चातकपक्षी व, कलिन्दगिरिः (पुं०) कलिन्दपर्वत। यथा चातको मेघानां वर्षणमपेक्षते' २. चतुरजन (जयो० कलिन्दजा (स्त्री०) यमुना। ८/५७) (जयो० वृ०६/२१) कलिन्दतनया (स्त्री०) यमुना। कलिङ्गः (पुं०) एक देश विशेष। 'कलिङ्गे नाम देशे जात:' कलिमलधवन (नपुं०) कलिकाल सम्बंधी दोष का प्रक्षालन। (जयो० वृ०६/२२) (सुद० वृ०७०) कलिङ्गजा (पुं०) गज, हस्ति, हाथी। 'कलिङ्गजानां गजानां कलिरात्रि (स्त्री०) कलिकाल की रात (सुद० ९७) हस्तिनाम्' (जयो० वृ०६/२२) कलिल (वि०) [कल इलच्] १. पापकर्म, पापभाव, कलह। कलिङ्गता (वि०) कलिङ्ग देश का शिरोमणि। कलिं कलह (जयो० २४/७३) २. आच्छादित, आवृत, ढका हुआ। पापं वा गच्छन्ति स्वीकुर्वन्ति ते कलिङ्गास्तेषां कलिङ्गानां भरा, आपूरित, प्रभावित। कलिङ्गतानां राजानं शिरोमणिः' (जयो० वृ०६/२५) कलिलावनं (नपुं०) पाप का संरक्षण, कलह-उच्छेद। कलिङ्ग-राजन् (पुं०) चतुरों का राजा। कलिङ्ग-राजाभिधां 'कलिलस्य पापभावस्यावनं संरक्षणं भवति' (जयो० वृ० कलिङ्गानां चतुराणां राजासावित्येवं' (जयो० ७० ६/२३) २४/७३) 'कले: कलहस्य लावनमुच्छेदनम्' (जयो० ० २४४३) 'नीवृद्धेदे कलिङ्गस्तु त्रिषु दग्ध-विदग्धयोरि' ति कोषात्। कलुष (वि०) [कल+ उषच्] १. मलिन, मैला, धुंधला, २. (जयो० वृ० ६/२३) दुष्ट, पापजन्य, क्रूर, निर्दय, २. संकल्प-विकल्प युक्त कलिङ्गशिरोमणिः (पुं०) कलिङ्ग राजा। (जयो० वृ० १/११) कलिङ्गा (स्त्री०) [कलि+गम्+ड] कलह करने वाला का For Private and Personal Use Only Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कलुषः २६९ कल्पाकल्पं कलुषः (पुं०) महिष, भैंसा। कलुषपरिणामः (पुं०) संकल्प-विकल्प भाव, अशुभ परिणाम। (जयो० वृ० १/१११) कलुषी-कृत (वि०) मलिनता, अन्धकारयुक्त। (जयो०१३/९६) कलेवरः (पुं०) शरीर, देह। [कले शुक्रे वरं श्रेष्ठम्] कलोदयः (पुं०) कला का उदय, चातुर्य से परिपूर्ण। कलोदयकरी (वि०) चतुराई करने वाला। 'कलानां चातुरीणामुदयकरी उन्नतमनकारिणी' (जयो० वृ० २६/१२) कलोदयवत्व (वि०) विकास को प्राप्त कराने वाला। 'अमृगुश्चकलोदयवत्वत' (समु० ७/२८) कल्कः (पुं०) कीट, गंदगी। कल्कनं (नपुं०) [कल्क्+णिच् ल्युट्] मिथ्यापना, प्रतारणा, धोखा देना, छल। कल्किन् (पुं०) नाम विशेष। कल्प (सक०) देना, प्रदान करना। (जयो० वृ० ७/२८) कल्प (वि०) [कृप्+अच्] उचित, योग्य, सदृश, समान, श्रेष्ठ, सक्षम, समर्थ, परिणत आदि। सदृश 'मुदिन्दिरामङ्गलदीपकल्प:' (सुद० १/१२) परिणत-'मृणाणकल्पः सुतरामनल्प:' (सुद० १०८) विधि 'विनिर्वहत्यात्त कलत्र-कल्पम्' (जयो० २७/६०) मनोभाव-'मलापहेऽस्मिन् कविकल्पभोग्ये' (जयो० १९/९) समूह-'कल्पस्समूहस्तेन' कल्पः (पुं०) १. कल्पवृक्ष, (सुद० १/१७) २. 'एक स्वर्ग-प्राग्ग्रैवेयकेभ्यः कल्पाः (त०सू०४/२४) ग्रैवेयिकों से पहले अर्थात् सौधर्म से लेकर अच्युत पर्यन्त। ३. कल्पना-इन्द्रादयः प्रकारा वक्ष्यमाणा दश एषु कल्प्यन्ते इति कल्पाः । (त० वा० ४/३) ४. विधि, अनुष्ठान(जयो० २४/४९) कल्पो ब्रह्मदिने न्याये प्रलये विधिशान्तयोः इति वि (जयो० वृ० २४/४९) ५. बाह्य वस्तु का सेवन, ६. प्रलय, सृष्टि विनाश, कल्पयुग, कल्पकाल, नियम. अध्यादेश, विकल्प आदि। कल्पकः (पु) [क्लुप्+ण्वुल्] १. संस्कार। २. नापित, नाई, क्षौरकर्मी। कल्पकाल: (पुं०) कल्पयुग का रचनाकार। कल्पकालः (पुं०) दस कोटा कोटि सागर प्रमाण। ओसप्पिणि 'उस्सपिणीओ दु वि मिलिदाओ कप्पो हवदि। (धव० ३/१३९) कल्पतरुः (पुं०) कल्पवृक्षा (सुद० १/१७) कल्पतरुज्जयन्त (वि०) कल्पवृक्षों को जीतने वाले। 'फल प्रदानाय समाह्नयन्तः श्रीपादपाः कल्पतरुज्जयन्तः। (सुद० १/१७) कल्पद्गु (पुं०) कल्पतरु, कल्पवृक्ष (वीरो० २/१०) इच्छानुसार वस्तुओं को प्रदान करने वाला वृक्षा (मुनि०१५) 'धर्माख्य कल्पद्रुवरोऽभ्युदार:' (सुद० १३२) किमिच्छकेन दानेन जगदाशाः प्रपूर्यः यः। चक्रिभिः क्रियते सोऽर्हद्यज्ञः कल्पद्रुमो मतः। (सागार धर्मामृत २/२८, श्री पञ्चशाखः सुमनः समूहेश्वरस्य कल्पद्रुरिवास्सदूहे' (जयो० १/५१) कल्पद्रुमः (पुं०) देखो ऊपर। कल्पद्रुवरः (पुं०) कल्पतरु। (सुद० १३२) कल्पनं (नपुं०) [क्लुप्+ल्युट्] १. मिथ्या बनाना, २. क्रमबद्ध करना, ३. स्थिर करना, एक रूपता प्रदान करना, ४. सजाना, ५. कल्पना करना। (सुद० ३/४२) ६. विचार, उत्प्रेक्षा, ७. प्रतिमा, आविष्कार संरचना, ८. आभूषण, सुसज्जा। (वीरो० १/२३) कल्पना (स्त्री०) ०विचार, ०सम्भावना, ०वाग्बुद्धिविकल्प, प्रतीति, अध्यारोप, संरचना, सुसज्जा, अभिव्यक्ति, प्रतिभासा, शब्द सम्बन्ध। 'बभूव नासां शुककल्पनासा' (जयो० १/६१) कल्पनात्मिक् (वि०) वृद्धपरम्परात्मिक, पूर्व परम्परा से युक्त। (जयो० वृ० ३/११५) कल्पनी (स्त्री०) [कल्पन्+ङीप्] कैंची, छुरिका। कल्पपादपः (पुं०) कल्पतरु, स्वर्गकल्प वृक्ष। (दयो० ४) कल्पकलिन् (वि०) कल्पवृक्ष की याचना। (जयो० १२/१४४) कल्पय् (सक०) निकालना, बाहर करना। (दयो० वृ०११) आत्मनो न सहेच्छल्यमन्यस्मै कल्पयेदसिम्' (दयो० वृ०११) कल्पलता (स्त्री०) कल्प वृक्ष, कल्पतरु, स्वर्ग के नन्दन वन की लता। 'कल्पं किं कार्यं किं न कार्यं वेति विकल्प लातीति न कल्पलता। (जयो० वृ०१७/१०२) प्रभुभक्ति रुताङ्गिनां भवेत्फलदा कल्पलतेव यद्भवे। (सुद० ३/५) कल्पलतिका (स्त्री०) कल्पलता। (जयो० २०/१३) कल्पवल्लिदलः (पुं०) कल्पलता समूह। कल्पवासी (पुं०) कल्पवासी देवा (वीरो० ६/२, जयो० २०/१३) कल्पवृक्षः (पुं०) कल्पतरू, कल्पलता। चक्रिभिः क्रियमाण या कल्पवृक्षा इतीरिता। (धर्मसंग्रह ९/३०) कल्प-व्यवहारः (पुं०) प्रायश्चित्त निरूपक व्यवहार। * नियम, विधि, अध्यादेश। कल्पाकल्पं (नपुं०) योग्य-अयोग्य निरूपण। 'कालमाश्रित्य For Private and Personal Use Only Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra कल्पातीतः www.kobatirth.org यति - श्रावकाणां योग्यायोग्यनिरूपकं कल्पाकल्पम्' (त०वृ० १/२०) कल्पातीत: (पुं०) १. कल्पना से रहित, आचार व्यवहार से रहित कल्पनातीताः कल्पातीता (स०सि०४/१७) २. देव विमान । कल्पांचिप (वि०) स्वर्ग सदृश, नाना प्रकार से प्रशंसनीय ग्रामान् पवित्राप्सरसोऽप्यनेक कल्पांघ्रिपान्यत्र सतां विवेकः । (सुद० १/ २०) २. भूलोक कल्पवृक्ष (जयो० १२/१३७) कल्पान्तः (पुं०) १. प्रलय, सृष्टि की समाप्ति (जयो० ७/४३) २. कल्पयुग का अन्त। कल्पेभ्यः अतिक्रान्ताः कल्पान्तसंस्थितिः (स्त्री०) कल्पयुग के अन्त तक स्थाई । (जयो० ७/४३) 'जये तेऽप्यजयत्वेन त्वेनः कल्पान्तसंस्थितिः ' (जयो० ७/४३) कल्पित (वि० ) [ कृप्+ णिच्+क्त] स्वीकृत, परिणत, तैयार किया गया, संरचित, निर्मित। किसी वस्तु को समझाने के लिए दृष्टान्त से कल्पना की गई हो। स्वबुद्धिकल्पना । 'संख्यास्यं सूपकल्पितं तादृकम्' (जयां० ६/१२) कल्पितबुद्धि (स्त्री०) बनावटी चेष्टा 'सज्जायते कल्पितबुद्धिवारा' (समु० ८/५ ) कल्पितभाव: (पुं०) संरचितभाव, स्वनिर्मित भाव। कल्पित-लेख: (पुं) बुद्धि जनित आलेख, विधि-विधान, संरचना । कल्पितवान् (वि०) कल्पना करता हुआ 'सुचक्षुषः कल्पितवान् विधाता' (जयो० ११ / ३० ) कल्पोपन्नः (पुं०) देव विशेष, सोलहवें स्वर्ग में उत्पन्न देव कल्पोपग: (पुं०) कल्पोपन्न, इन्द्र- सामानिकादि में उत्पन्न । सोलह स्वर्गों में उत्पन्न कल्पेषूपपन्नाः कल्पोपपन्नाः कल्प्यता (वि०) रचता (जयो० २/१०५) (स०सि०४/७) बनाता, निर्मित | २७० कल्मष (वि०) पाप, मलिन, मैल, (वीरो० १०/२५) लाञ्छन, निन्दा, उच्छिष्ट । नो चेत्कल्मष एष भूरिभवभृत्श्वाधो चरं दुर्जय: । (मुक्ति०३०) कल्माष (वि०) चितकबरा, धब्बेदार, रंगबिरंगा कलयति, कल्+ क्विप् तं माषयति अभिभवति, माष्+ णिच् + अच् कल् चासौ माषश्च । कल्य (वि०) [ कल्यत्] १. स्वस्थ, नीरोग, २. तत्पर, उद्यत, प्रयत्नशील ३. रूचिका, मंगलमय, चतुर कल्यं (नपुं०) १. प्रभात, प्रातः, सुबह । 'कल्याख्य एष समयो Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कल्लोलिता भवदीक्षणीयो' (जयो० १८/५८) कल्ये बाला चिकुरनिकुरं' (जयो० १८ / ९४ ) २. आने वाला कल। कल्या ( स्त्री० ) [ कल्+ णिच्+यक्+टाप] मदिरा, शराब, मद्य। कलयति मादयति, (जयो० ७/१७) कल्याण (वि०) [कल्ये प्रातः अण्यते शब्धते अणपञ्] आनन्द युक्त । कल्यं मुखमारोग्यं शोभनत्वं वां तदणतीति कल्याणम् । सुखदाई. इष्टकर, शुभग, सुन्दर, मनोरम, भाग्यशाली, सुखद, लाभदायक, मंगलप्रद श्रेयस्कर । (मुनि० १५) दीक्षा कल्याणतः पूर्वं पुरूणां परिकीर्तिता । (हित०सं०५) 7 कल्याणक ( वि० ) [ कल्याण+कन्] शुभकार्य, आनन्ददाई कार्य, तीर्थंकर का गर्भ, जन्म, तप, ज्ञान एवं मोक्षादि कल्याणक । कल्याणकर (वि०) हितकर, गर्भ। (जयो० वृ० १ / ३०) कल्याणकृत् (वि०) हितकर, सुखकर आनन्ददायक, अभीष्ट, यथेष्ट, योग्यतम कल्याण - कर्त्री (वि०) श्रेयस्करी। (दयो० वृ०३ / ५६ ) कल्याण- गृहं (नपुं०) सुखदाई स्थान । कल्याण-नामधेयपूर्वः (पुं०) एक पूर्व ग्रंथ का नाम, जिसमें त्रिषष्टी शलाकापुरुषों के गर्भ, जन्मादि उत्सवों का कथन पाया जाता है। कल्याणनिधिः (स्त्री०) श्रेये भण्डार। (जयो० १८/८८) कल्याण- भागिनी (वि०) सौभाग्यशालिनी (वीरो० ४/३४) श्रीजिनपदप्रसादादवनौ कल्याणभागिनी च सदा। (वीरो० ४/३४) कल्याण- युक्त (वि०) हितकर, सुखदाई। कल्याणाभिषवः (पुं०) ०कल्याण रूप अभिषेक ० जन्माभिषेक (वीरो० ४/२) कल्याणिन् (वि०) हितकारी, समृद्धिशाली, प्रसन्नचित्त, सौभाग्यशील, मंगलकारक। कल्याणिनी (वि० ) ० आनन्ददायिनि ०सुखकरी, ०प्रसन्नचित्त करने वाली कल्याणिनीह शृणु मञ्जुतमं ममाऽस्यात्। (चीरो० ४/३८) कल्ल (वि०) [ कल्लू अच्] बहरा कल्लोलः (पुं० ) [ कल्लू + ओलच्] १. ऊर्मि, लहर, २. हर्ष, For Private and Personal Use Only आनन्द, प्रसन्नता। कल्लोलाञ्चितः (पुं०) लहर क्रीड़ा, ऊर्मी वेग, लहर प्रवाह । 'कल्लोलेन विनोदेनोततरङ्गेणाञ्चिता' (जयो० २०/७) कल्लोलिता (वि०) तरङ्गिता, ऊर्मी, युक्तता। Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कल्लोलितावर्त २७१ कविकृष्णा कल्लोलितावर्त (नपुं०) लहर का गोलाकार। 'व्यक्तोऽतो | कवलित (वि०) ग्रासीकृत, खाया गया, चबाया गया, ग्रहीत, वलिबद्धनाभिकुहर: कल्लोलितावर्तवत्' (जयो० २४/१३५) पकड़ा। 'कवलितं च शकृत्करिणा ततः' (जयो० २५/६८) कल्लोलिनी (वि०) [कल्लोल+इनि डीप] सरिता, नदी। कवलीकृत (वि०) नष्ट करने वाला, नाशक, विध्वंसक, कव् (अक०) स्तुति करना, प्रार्थना करना, वर्णन करना, छेदक, ग्रसित। (जयो० वृ० २२/२५) रचना, चित्रण करना। कवलोपयुक्ति (स्त्री०) १. आत्मबल युक्ति, २. मौक्तिक कवकः (पु०) [कव्+अच्+कन्] मुट्ठीभर। युक्ति। 'कवलस्य आत्मबलस्य मौक्तिकस्य चोपयुक्तो' कवचः (पुं) १. रक्षा कवच, वर्म, सन्नाह। (जयो० वृ० ३/१००) (जयो० वृ० ५/१०२) कवचं (नपुं०) उरश्छद, वक्षस्थावरणक, सन्हक, 'दु:खनिवारण- कवलोपसंहारकः (पुं०) शमनशक्तिनाशक, यमराज की शक्ति सामान्यात् कवचशब्देनोच्यते' (भ०आन्टी०) कञ्चकमावरण। का नाश। २. ग्रासभक्षक। (जयो० वृ० ७/२१) 'गाढमुष्टिरयं (जयो० वृ० ७/९३) २. हरीतकी वृक्ष, हर्ड। कवचो खङ्गः कवलोपसंहारकः। (जयो० ७/२१) वारबाणे स्यात्पटहे, गर्दभाण्डके इति वि (जयो० व० । कवाटः (पुं०) [कलं शब्दं अरति कु+अप अट्+अच्] कपाट, २१/२९) द्वार के दो भाग। दृढं कवाट दलितानुशायिन्। (वीरो० ५/२४) कवचधारणं (नपुं०) कवचस्थान। (जयो० वृ०३/१००) कवि (वि०) [कु+इ] १. सर्वज्ञ, ज्ञानी, २. निपुण, चतुर, कवचपत्रं (नपुं०) भोजपत्र, पाकर तरु। पाकरवृक्ष। बुद्धिमान, विचारशील। ३. प्रशंसनीय, गुणी। कवचप्रसाधनं (नपुं०) बख्तर, वर्मयुक्त। कवचानां हरीतकी- कविः (पुं०) काव्यपाठक, काव्यरचनाकार। कविनेदमुत्प्रेक्षितम्। वृक्षाणां वर्मणां प्रसाधने स' (जयो० वृ० २१/२९) गौरि। (जयो० वृ० १/१९) काव्यकार-'कवेर्भवेदेव तमोधुनाना' सज्ज-कवचप्रसाधनः प्रौढशूर इव राजतेऽप्ययम्' (जयो० (सुद० १/१०) २. शुक्र-देवसभायां कश्चनैव कविः शुक्रः। २१/२९) (जयो० वृ०५/३२) कवयः काव्यकर्तारः शुक्रश्च' (जयो० कवचसर (वि०) कवचधारी, वर्म युक्त। ५/९१)२. यजनाचार्य- हविषा कविाक्षिणा' कवचस्थानं (नपुं०) कवचधारण। (जयो० वृ० ३/१००) कविर्यजनाचार्यः गृहस्थाचार्य (जयो० १२/६८) ३. ऋषि, कवचमुद्रा (स्त्री०) आसन की विधि, मुष्ठी बांधकर कनिष्ठा विचारक। राजकुमार (जयो० १/८) ४. सूर्य, ५. ब्रह्मा। और अंगुष्ठ को फैलाना। कवि-कल्पः (पु०) काव्य कर्ता का मनोभाव, काव्यकार की कवचित (वि०) वर्मित, कवच युक्त, बख्तरसहित। (जयो० मनोगत स्थिति। वृ० २१/४) क-विकल्पः (पुं०) पनडुब्बी, जलपक्षी। 'कस्य वयः कवयो कवर (वि०) खचित, जटित, मिश्रित, जड़ा हुआ, विचित्र, | जलपक्षिणस्तेषां कल्पस्समूहस्तेन' (जयो० वृ० १९/९) नाना प्रकार का! (वीरो० ९/१४) कविका (स्त्री०) लगाम, खलीन। कविकामविकार-गामिनां कवरः (पुं०) १. नमक, २. अम्लता। लपने सम्प्रति वाजिनामपि' (जयो० १३/५) कवरस्थली (स्त्री०) खचित। (वीरो० ९/१४) कविकाचर्वणं (नपुं०) लगाम चबाना। तुरगो विरराम नामवान् कवरी (स्त्री०) [कवर डीप] चोटी, जूड़ा (जयो० वृ० २२/२५) कविकाचर्वणचारुहेषया' (जयो० १३/७२) कविकाया: कवीरकृत (वि०) १. वेणीरूपता युक्त। खलीनस्य चर्वणेन चा:। (जयो० वृ० १३/७२) कवरीकृतान्धकारः (पुं०) ग्रासीभूत अन्धकार, आच्छादित कविकुलं (नपुं०) १. पक्षि समूह, जल पक्षिवृन्द। (जयो० अन्धकार। (जयो० वृ० २२/२५) वृ०२०/७) २. काव्यकर्ता समु दय, कविलोग (जयो० कवरीभरः (पुं०) गुथी हुई चोटी, जूड़ा। ६/४२) कवल: (पुं०) मुट्ठीभर, कौर, हजार शालिधान्य प्रमाण। केन कविकृतवाक् (नपुं०) कविचारण वाणी, कवियों द्वारा रचित जलेन वलते चलति-वल अच् नाऽधुनाह कवले नियुक्तः' वचन। आधुनिकेन काव्यकृता यासौ वाणी' (जयो० (वीरो० १२/४८) १८/९०) कवलय् (सक०) भक्षण करना, भोजन करना। कवलयिष्यति। कविकृष्णा (स्त्री०) द्राक्षा, दाख। तृष्णा तु द्रौपदी नीली (दयो०५०) हारइरा सुपिप्पलौ' इति वि० (जयो० वृ० २५/१२) For Private and Personal Use Only Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कविजनः २७२ कश्य कविजन: (पुं०) कविलोग। (जयो० वृ० ११/४१) कविसाक्षिन् (पुं०) यजनाचार्य की साक्षी, गृहस्थाचार्य की कविज्येष्ठः (पुं०) आद्यकवि, वाल्मीकी। साक्षी। (जयो० १२/६९) कविता (स्त्री०) [कवि+तल्+टाप्] काव्य, रचना, भावपूर्ण | कवीन्द्रः (पुं०) महाकवि, कविराज। श्रेयात्मक रचना। (सुद०१७, २/६, वीरो१/२७) 'सुवर्णमूर्तिः कवीन्द्रगीति (स्त्री०) कविराजों की प्रणीति, कवियों का कवितेयमार्या' (वीरो० १/२७) 'अलङ्कारपूर्णा कवितेन कथन, कवि प्रगीत। (जयो० १२/७०) सिद्धा' (सुद० २/६) कवीश्वरः (पुं०) महाकवि, कविराज। कवितानुसारिणी (वि०) कविता का अनुसरण करने वाली। कवीश्वरलोकाग्रहः (पु०) कवियों का समूह, काव्य रचनाकार 'कवितामनुसरतीति कवितानुसारिणी कविता च सम्यग्रूपाणां का समुदाय। कवीन्द्राणां लोकस्य वृन्दस्याऽऽग्रहतो (जयो० सुप्तिङ्तानां पदानां शब्दानां सङ्ग्राहिणी' (जयो० वृ० १०/११९) ३/११) मञ्जुवृत्त-विभवाधिकारिणी कामिनीष कवितानुसारिणी कवोष्ण (वि०) कुनकुना, गुनगुना, थोड़ा उष्ण। कुत्सितं ईषत् (जयो० ३/११) कविता च मञ्जुनां निर्दोषाणां वृत्तानां उष्णम्। छन्दसां विभवस्य आनन्दस्य अधिकारिणी भवत्येव' (जयो० कव्यं (नपुं०) आहूति। वृ०३/११) कश् (अक०) बांधना, कसना, दृढ़ करना। 'विकसन्ति कशन्ति कविताभर (वि०) काव्य रस से परिपूर्ण। (सुद०१/२) मध्यकं' (जयो० १३/६) २. अंगीकार करना। (वीरो० कविताश्रयः (पुं०) १. काव्य का आधार, २. जलपक्षी का ४/२४) (वीरो० ४/२४) कशित्वा आधार। कश्चन (अव्य०) किसी, कोई। 'अथ कश्चन नाथनामवंशकविताश्रयपदः (नपुं०) कविताश्रयपद, काव्य के आश्रयभूत समयस्य' (जयो० १२/११०) पद। 'कस्य-पक्षी तस्य भावो कविता तस्याश्रयपदो कविताया कश्चनापि (अव्य०) कोई भी। 'स्त्रीणां कश्चनापि न विद्यते' आश्रयो दोहा नामच्छन्दसो' (जयो० वृ० २२/९०) (जयो० २/१४७) कवित्व (वि०) आत्मवेदित्व, आत्मज्ञता। पीलो! कवित्वं कश्चित् (अव्य०) कोई, किसी का। 'कश्चिदपरिचितः पुरुष' खलु लोकवित्वं' २. काव्य रूपता। (जयो० १९/४४) (जयो० वृ० ३/२१) 'बालोऽस्तु कश्चित्स्थविरोऽथवा' कवित्वगावा (वि०) कवित्व शक्ति। 'वाग्यस्यास्ति नः शास्ति (सुद० १२१) कवित्वगावा' (सुद० १/१) कश्चिदित्येवम् (अव्य०) इस प्रकार किसी का भी। 'कस्यापि कवित्ववृत्तिः (स्त्री०) काव्य दृष्टि, कविता का अभिप्राया- प्रार्थनां कश्चिदित्येमवहेलयेत्' (सुद० १३४) 'कवित्ववृत्येत्युदितो न जातु' (वीरो० ६/११) कश: (पुं०) [कश्+अच्] चाबुक, कोड़ा। (समु० ७/५) कवित्वशक्तिः (स्त्री०) काव्यशक्ति, कविता करने का बल। विमर्दना (जयो० २७/१३) तेषां गुरूणां सदनुग्रहोऽपि कवित्वशक्तौ मम विघ्नलोपी' | कशिताण्यः (पुं०) कशीदा। (जयो० २/५०) (वीरो०१/६) कशिपु (पुं०/नपुं०) तकिया, चटाई, वस्त्र। कवित्वशक्ति-मंत्रं (नपुं०) काव्य प्रतिभा का मन्त्र। 'औं ह्यीं कशिम्बः (पुं०) १. गुच्छक, छत्र। (जयो० ८/१४, १५/६२) अहँ णमो सयंबुद्धीणं।' (जयो० १९/६४) इत्यादिना मन्त्रेण कशेरु (पुं०/नपुं०) १. रीढ़ की हड्डी, २. घास विशेष। कवित्वादि शक्तिर्भवतीति' कश्मल (वि०) [कश्+अल, मुट] पाप (जयो० २१/९) कवित्वोचितः (पुं०) कविता करने योग्य। समन्त-भद्रादि स्मास्पृशन्त इति यान्ति कश्मलाभीतिमन्त इव तावदुत्कला: महानुभावा, युक्ता: कवित्वोचितसम्पदा वा। (समु० १/११) (जयो० २१/९) कश्मलात्पापा भीतिमन्न। अकीर्तिकर, कविभवः (पुं०) १. कवि द्वारा उत्पन्न। २. पक्षियों के अयशयुक्त, निन्दित, घृणित। मनमोहक शब्द। (जयो० वृ० ३/११५) कश्मलं (नपुं०) पाप, मन का खेद, दु:ख, उदासी, मूर्छा। कविराजः (पुं०) १. महाकवि, २. वैद्य, भिषग। कश्मीरः (पुं०) कश्मीर देश। कविवृत्तकः (पुं०) कविगुणगान, काव्यछन्द, कविता के वृत्त। कश्मीरज: (पुं०) केशर, जाफरान्। कवेर्यशोगायकस्य वृत्तरेव वृत्तकैश्छन्दोभिः' (जयो० वृ० १०॥२) | कश्य (वि०) [कशामर्हाति-कशा+य] चाबुक लगाने योग्य। For Private and Personal Use Only Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कश्यं २७३ कष्टानुभवः कश्यं (नपुं०) मद्य, मदिरा, शराब। 'कलङ्गिना क्रान्तपदं च | कषाय-विवेकः (पुं०) पृथक्-पृथक् कषाय को समझना। कश्यम' (जयो० १६/३६) कषायवेदनीयं (नपुं०) कषाय का वेदन होना। 'जस्स कम्मस्स कश्यकुथः (पुं०) पलान, पृष्ठासन। (जयो० २१/२) उदएण जीवो कसायं वेदयदि तं कम्म कसायवेदणीयं' कश्यपः (पु०) १. रवि, सूर्य, आदित्य। 'कश्यपस्य पुत्रो (धव० १३/३५९) रविर्भवतीति' (जयो० १८/७७) १. कच्छप, कछुवा, कषाय-समु द्धातः (पुं०) कषाय की तीव्रता। द्वितीय-प्रत्ययकूर्म, २. मरीची पुत्र कश्यप। प्रकर्षोत्पादित-क्रोधादिकृतः कषाय समु घातः। (त० वा० कष् (सक०) ०मसलना, कसना, विदीर्ण करना, जांच १/२०) करना, घिसना, नष्ट करना, समाप्त करना। कषायसल्लेखना (स्त्री०) क्रोधादि कषाय का कृश करना। कष (वि०) विधि-प्रतिषेध होना, कसना, रंगड़ना, संसार अध्यवसाय की विशुद्धि। 'अज्झवसाण-विसुद्धी कसायकर्म। सल्लेहणा भणिदा' (भ०आ०२५९) कषणं (नपुं०) [कष्+ ल्युट्] कसना, खुरचना, रगड़ना, चिह्नित कषायहानिः (स्त्री०) कषाय क्षय, क्रोधादि का दूर होना, करना, परखना। कषाय अभाव 'यथा द्वितीयाख्य-कषाय हानिः सुश्रायकत्वं कष-पट्टकः (पुं०) स्वर्णपरीक्षण पट्टिका, कष-वर्तिका, लभते तदानीम्।' (सम्य० ९९) कसौटी। कषायिक (वि०) आत्म घातक प्रवृत्ति वाला। [कषाय+इक्] कषशुद्धः (पुं०) विधि-प्रतिषेध की प्रचुरता युक्त धर्म। घातक परिणाम वाला, चारित्र परिणाम को कसने वाला। कषायः (पुं०) [कष् आय] कषाय, आत्म विघात तत्त्व कषायित (वि०) [कषाय+इतच्] १. कषाय भाव वाला। २. सांसारिक कर्षण, कर्मोदय, सुख-दुःख की बहुलता वाला कसैले रंग युक्त, रंग-बिरंगा। क्षेत्र। (सम्य० वृ०११५) आत्म-परिणामों में उत्पन्न हुई कषि (वि०) [कषति हिनस्ति कष्+इ] कसने वाला, हानियुक्त मलिनता। (त०सू०१२०) 'कपत्यात्मावमिति कषायः' (त० अनिष्टकारी। वा० ६/४) 'कष गतौ' इति कषशब्देन कर्माभिधीयते भवो कषेरूका (स्त्री०) रीड़ की हड्डी। वा, कपस्य आया लाभाः प्राप्तयः कषायाः क्रोधादयः।' कष्ट (वि०) [कष् क्त] दुःख, पीड़ा, व्याधि, हानि, चिन्ताजन्य, 'सुख-दुःख-बहुशस्यं कर्मक्षेत्रं कृषन्तीति कषायाः' (धव० आतुरता सहित, व्याकुलता पूर्ण। १. कठिन, हानिकर, १/१४१, १३/३५९) पीड़ाजनक। 'कष्टं सहन् सभ्यतयैतिवासः' (सम्य०७०/४३) कषाय (वि०) ०कसैला, लाल, गहरा लाल ०वल्कलरस, अवेहि नित्यं विषयेषु कष्टं सुखं तदात्मीयगुणं सुद ष्टकम्।' राल, गोंद। 'तरुणां वाल्करसः कषायः' (भ०आ०टी० (सुद० १२१) ११५) कष्टं (नपुं०) कष्ट, दुःख, वेदना, पीड़ा, व्यथा, संकट (सुद० कषायक (वि०) कपाय करने वाला, चारित्र-परिणाम को १२१) कसने वाला। कष्टम् (अव्य०) हाय, धिक्। कषायकर (वि०) संसार जन्य परिणाम करने वाला, आत्मभाव कष्टकारिन् (वि०) सङ्कटकृत, संकट उत्पन्न करने वाला। को कसने वाला। कष्टकृत् (वि०) दुःखदायी, दुःखजन्य। योग्यतामनुचरेन्महामतिः कषाय-कुशील: (पु०) संज्वलन के वशीभूत। कष्टकृद्भवति सर्वतो ह्यति। (जयो० २/५१) 'अन्य-कषायोदयः संज्वलनमात्रतंत्राः कषाय-कुशीला:।' कष्टचंदः (पुं०) चंद्र ग्रहण। (जयो०८/६८) (स०सि०९/४६) कष्टजन्य (वि०) कष्टोपादक। कषाय-प्रचयालम्बः (पुं०) कषाय समूह का आवलम्बन। कष्टतपस् (वि०) कठोरतपस्वी। लक्षाधिपस्यास्त्ययुतं शतं वा तथा कषायप्रचयावलम्बात्।' कष्टप्रद (वि०) खेदकर, दु:खजन्य, दु:खद। (वीरो० ५/७) (सभ्य० १००) (जयो० वृ० १६/२६) कषाय-भावः (पुं०) कषाय परिणाम, क्रोधादिभाव। कष्टवर्जिता (वि०) सरल, अनक, सीधा। (जयो० वृ० १/१०९) कषायरसः (पुं०) १. कसैला पदार्थ, २. शरीरगत पुद्गल रस। | कष्टानुभवः (पुं०) कष्ट का अनुभवः। आतुर (जयो० वृ० For Private and Personal Use Only Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कष्टसाध्य २७४ काकु १३/९) अकण्टकं सत्पथमातनोतु न कोऽपि कष्टानुभवं काकछदः (पुं०) खंजनपक्षी। करोतु। (सम्य० ९४) काकछदिः (पुं०) खंजनपक्षी। कष्टसाध्य (वि०) कठिनतम, कठिनाई से पूर्ण किया जाने वाला। काकजातः (पुं०) कोयल। कष्टस्थानं (नपुं०) दुपथ, खोटा स्थान, निम्न स्थान। काक-तालीय (वि०) जो बात अकस्मात् अप्रत्याशित रूप से कष्मल: (पुं०) पाप, अशुभ। (जयो० ४/६१) घटित। न्याय/तर्क उपस्थित करने पर कभी क्रिया विशेषण कस् (सक०) १. जाना, पहुंचना, प्राप्त होना। २. निकालना, के रूप में प्रयुक्त हो जाता है। खींचना, बाहर करना। काकतालुकिन् (वि०) घृणित, निन्दनीय। कस्तूरिका (स्त्री०) [कसति गन्धोऽस्याः कस्+ अर्+ ङीष्] काकदन्तः (पुं०) १. कौवे का दांत। २. असंभव वस्तु की मृगमल, मुश्क, एक सुगन्धित मृगनाभि मल, एणमद। खोज। (जयो० वृ० ५/६१) काकध्वजः (पुं०) वडवानल। कस्तूरी देखो ऊपर। काकनिन्द्रा (स्त्री०) शीघ्र खुलने वाली नींद, स्वल्प निद्रा। कस्तूरीमृगः (पुं०) मृग। हिरण विशेष, जिसकी नाभि में काकपक्षः (पुं०) लम्बायमान बाल। __ कस्तूरी का स्थान होता है। काकपदम् (नपुं०) हस्तलिखित ग्रन्थ का चिह्न। (), पद कस्यान्न (अव्य०) किससे नहीं। (जयो० ३/६८) या अक्षर, छूटने का स्थान सूचक। कस्याचित् (अव्य०) किसी से भी। (जयो० ३/७३) काकपदः (पुं०) संभोग की रीति। कस्यापि (अव्य०) किसी का भी। (मुनि०८) काकपुच्छः (पुं०) कोयल। कलारं (नपुं०) [के जले हादते-क+हाद् अच्] श्वेत कमल। काकपुष्टः (पुं०) कोयल। का (सर्व०स्त्री०) कौन, क्या। का कोमलाङ्गी। (जयो० ५/८६) काकपेय (वि०) छिछला। संजतानां का क्षतिः का नाम पंचमी वि रूप। (मुनि० काकभीसः (पुं०) उल्लू, उलूक। १८) (जयो० ११/९७) काकमद्गुः (पुं०) जलकुक्कुट। कांसीयम् (नपुं०) [कंसाय पानपात्राय हितम्-कंस+छ+अण] काकप्रहारः (पुं०) कायरता युक्त बात। परस्य शोपाय कृतप्रयत्न जस्ता, धातु विशेष। काकप्रहाराय यथैव रत्नम्। (वीरो० १४/) कांस्य (वि०) कांस्य से निर्मित। कंसाय पानपात्राय हितं कंसीयं काकरुक (वि०) १. कायर, भीरु, भय भी, २. निर्धन, गरीब। तस्य विकारः। काकयवः (पुं०) धान्यकण रहित बाल। कांस्य (नपुं०) कास्यपात्र, कांसे का बर्तन, कटोरा। काकल: (पुं०) पर्वतीय वायस, पहाड़ी कौवा। कांस्यकार: (नपुं०) कसेरा, ठठेरा, कांसे के बर्तन बनाने काकलि (पुं०) [कल्+इन्] मधुर स्वर, मन्द मंद मीठी वाला। आवाज। कांस्यताल: (पुं०) झांझ, करताल। काकलेश्या (स्त्री०) कौवे की तरह वर्णवाली लेश्या, तनुवातवल कांस्यभाजनं (नपुं०) कांसे का पात्र, पीतल का बर्तन। का स्थान। (धव० ११/१९) कांस्यमलं (नपुं०) ताम्रमल, तांबे का अंश। (जयो० वृ० काकादिपिण्डहरणं (नपुं०) काकादि के द्वारा पिण्ड/आहार हरण, आहार पद्धाति का एक दोष/अन्तराय। काकः (पुं०) १. कौवा, वायस। (दयो० वृ०१०१) २. घृणित, | काकारिलोकः (पुं०) उलूकसमूह, उलूक समु दाय। निन्दित, नीच। दोषानुरक्तस्य खलस्य चेश काकारिलोकस्य च को विशेष: काक-क (वि०) कौवों का समूह। (वीरो० १/२०) काक-चक्षुस् (नपुं०) वायस नेत्र, काक नयन। (जयो० काकिणी (स्त्री०) कौडी, एक माप अंश। २/१०) काकिणिका (स्त्री०) कौड़ी। काकचिंता (स्त्री०) गुंजा, घुघची, जिससे स्वर्ण को तौला काकिनी (स्त्री०) [कक्+णिनि ङोप] कौड़ी। जाता था। रत्ती भर की एक घुघची होती है। काकु (स्त्री०) [काउण्] भय, शोक, क्रोध, संवेगात्मक स्वर। For Private and Personal Use Only Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir काकुत्स्थ: २७५ काञ्जिकं काकुत्स्थः (पुं०) वंश विशेष। काकुदं (नपुं०) तालु। काकुपूर्वदृष्टान्तः (पुं०) विरुद्ध अर्थ को व्यक्त करने वाला दृष्टान्ता अयि विवकितयैव वसेर्मन इह च किं वसतोऽपि विपत्पुनः। किमुत गरुडिनो विलसन्मते जग, भुक्तमपीति विषायते।। स्पष्ट बुद्धि वाले विषवैद्य को सर्पदंश क्या विष रूप होता है? अर्थात् नहीं। काकुभावः (पुं०) तर्क-वितर्क। किमतदित्थं हर्दि काकुभावं कुर्वन् जनानां प्रचलत्प्रभावः। काकुलेशः (पुं०) तर्क युक्त। (वीरो० १४/२१) (वीरो० ५/१) काकूत्थ (नपु०) प्रश्नवाचक चिह्न। किमसौ मम सौहृदाय भायादिति काकूत्थमनङ्गनङ्गमङ्ग लायाः। (जयो० १२/१५) काकूरिक्तरलंकारः (पुं०) विरुद्ध अर्थ को प्रकट करने वाला दृष्टांत। निवारिता तापतया घनाधना, घना वनान्ते सुरतश्रमोद्भिदः। भिदस्तु किं वा निशि संगतात्मनां मनागपि प्रेमवतामुताह्रि वा।। (जयो० २४/१९) सधन मेघों के विद्यमान रहने से जहां दिन की गर्मी प्रेमी मनुष्यों के उपभोग में बाधक है। काकोलः (पुं०) [कक्+णिच् ओल] कौवा उड़ाना। काकोड्डायनं (नपुं०) काक उड़ाना। चिन्तामणिं क्षिपत्येष, काकोड्डियनहेतवे' पर्वतीय काक! काक्षः (पुं०) तिर्यक् दृष्टि, तिरछी चितवन। 'कुत्सितं अक्षं यत्र' काक्षं (नपुं०) भुकुटी चढ़ाना, त्योरी तानना। कागः (पुं०) काक, वायस, कौवा। 'यवेसु कागस्य यथा __ कदापि। (समु० ३/२१) काङ्गलेशः (पुं०) कांग्रेस (दयो०५२) काङ्क्ष (सक०) चाहना, इच्छा करना, कामना करना, लालायित होना। कांक्षा (स्त्री०) [काश्+अ+टाप्] इच्छा, चाह, अभिलाषा, कामना, कंखा, आकांक्षा। (सम्य० ९१) इह लोक-परलोक विषयाकांक्षा। काङ्क्षिन् (वि०) [काङ्क्षः णिनि] इच्छुक, अभिलाषा करने काचनं (नपुं०) [कच्+णिच् ल्युट्] धागा, डोरी। काचनकिन् (पुं०) [काचनक+ इनि] हस्तलिखित ग्रन्थ। काचनापि (अव्य०) किसी का भी। (जयो० वृ० ३/६३) काचांशा (पुं०) दर्पण खण्ड, दर्पण का टुकड़ा। 'नक्षत्र काचांशंतताग्र एष' (जयो० १५/२६) काचित् (अव्य०) कोई भी, कितनी ही (जयो० ५/५९) ___ 'चेष्टा स्त्रियां काचिदचिन्तनीया' (सुद० १०७) काचिदन्य (वि०) अन्य कोई भी, दूसरे कितने ही। 'तदर्थ मेवेयमिहास्ति दीक्षा, न काचिदन्या प्रतिभाति भिक्षा।' काचिदपि (अव्य०) कुछ भी। (दयो० ७५) (वीरो० ५/४) काचूकः (पुं०) [कच्+ऊकञ्] मुर्गा, चकवा। काजलं (नपुं०) स्वल्प जल, थोड़ा पानी। काञ्चन (वि०) सुनहरी, स्वर्णमयी, पीतिमा युक्त। काञ्चनं (नपुं०) सुवर्ण, सोना। (जयो० २७/५४) काञ्चनकं (नपुं०) सुवर्ण सोना। काञ्चनमिति कृत्वास्वार्थ कः प्रत्ययः। काञ्चनकलशाली (स्त्री०) स्वर्णमयी कलशः। (वीरो० ७/३४) (जयो० वृ० २७/५४) काञ्चनकाञ्चनं (नपुं०) स्वर्ण स्तुति, संसारी व्यक्ति की स्तुति स्वर्ण की ओर होती है। 'मनः कञ्चनमेव काञ्चनमिति कृत्वा स्वार्थ कः प्रत्ययस्तस्य अञ्चनाय सुवर्णस्यैव स्तवनाय' काञ्चनगिरिः (पुं०) कंचनापर्वत। (समु० ५/३१) 'किञ्च काञ्चनगिरेः सुगुहाया'। काञ्चनचित्तवृत्ति (स्त्री०) स्वर्णमय छवि। (सुद० ११८) (जयो० २७/५४) काञ्चनछवि (स्त्री०) स्वर्णमय छवि, स्वर्णसदृशमूर्ति। (सुद० ३/१४) काञ्चनस्थितिः (स्त्री०) स्वर्ण की स्थिति, स्वर्णरूपिणी, सुन्दर रूप वाली। 'काञ्चनस्थितिमती वसुन्धरा' (जयो० २१/४२) काञ्चना (स्त्री०) रतिप्रभदेव की देवी/रानी। भार्यां निजस्य चतुरामिह काञ्चनाख्याम्। (जयो० २४/१०१) काञ्चनारः (नपुं०) कचनार तरु। काञ्ची (स्त्री०) १. मेखला, करधनी, कंदौरा। २.दक्षिण भारत का एक नगर, काञ्ची नगरी। (जयो० ५/३५) काञ्चीगुणं (नपुं०) प्रकोष्ठ 'कक्षा तु गृहे काञ्चीप्रकोष्ठयोः' ___ इति विश्वलोचनः' (जयो० १७/६७) काञ्चीपति (पुं०) काञ्ची नगर का राजा। (जयो० ५/३५) काञ्चीफलं (नपुं०) गुञ्जाफल, चिरमीफल। (जयो० ६/३५) काञ्जिकं (नपुं०) कांजी, खट्टा पेय पदार्थ। वाला। काचः (पुं०) [कच्+घञ्] शीशा, स्फटिक। (वीरो०८/१२) (जयो० वृ० ९/७९) 'स्वतन्त्र्येण हि को रत्नं त्यक्त्वा कायं सयेष्यति। (जयो० ७/१) For Private and Personal Use Only Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अकाटुकं २७६ कान्तार काटुकं (नपुं०) अम्लता, खट्टा, खटाई। काठः (पुं०) [कठ्+घञ्] पत्थर, चट्टान। प्रस्तर, शैल। काठिनं (नपुं०) १. कठोरता, कठिनता। २. क्रूरता, कटुता, निर्दयता। काठिन्य (वि०) कठोरता, क्रूरता। (वीरो० २/४८, सुद० १/३५) काडुवेदः (पुं०) पल्लवप्रदेश राजा। (वीरो० १५/४३) काण (वि०) [कण्+घञ्] १. करना, एक नयन युक्त। २. काना-छिद्र युक्त, खराब। हीन, व्यर्थ-(जयो० १९/५८) काणकं (नपुं०) स्वर्ण/सोना निर्मित। कनकनिर्मित। काणकक्रयी (वि०) कनकनिर्मित का खरीरददार, स्वर्णनिर्मित आभूषणादि का क्रय करने वाला। काणेली (स्त्री०) व्यभिचारिणी स्त्री। काण्डः (पुं०) १. खण्ड, भाग, अंश, हिस्सा, अधिकार, सर्ग। २. पोर, गांठ, डंठल, तना, शाखा। ३. ग्रन्थांश, पुस्तक का अध्याय। ४. कृत्य, निम्नकार्य, नीचकार्य, पापजनक व्यवहार, काण्डकर (वि०) १. दुराचारी। २. अध्याय प्रस्तुत कर्ता। काण्डकार: (पुं०) निर्माता, प्रस्तुत कर्ता। काण्डगोचरः (पुं०) अयस्क बाण। काण्डपरः (पुं०) कनात, परदा। काण्डभंगः (पुं०) शरीरांश का टूटना, हड्डी भंग। काण्डसन्धिः (स्त्री०) ग्रन्थि, जोड़। काण्डस्वरः (पुं०) खिड़की, झरोखना। (जयो० १२/११३) । काण्डीरः (पुं०) धनुर्धारी। कात् (अव्य०) तिरस्कार सूचक अव्यय, अपमान, तिरस्कार/ कातन्त्र्यं (नपुं०) प्रसिद्ध संस्कृत व्याकरण। कातर (वि०) कायर, भयायुक्त, उत्साह विहीन, दु:खी, (वीरो० १६/६) व्याकुल, शोकजनित, विक्षुब्ध, 'निवहन्नुपयाति कातरः' (जयो० १३/५१) 'कातरो भीत इव' (जयो० ७० १३/५१) १. असमर्थ-त्वदादेशविधिं कर्तुं कातरोऽस्मीति वस्तुतः।' (सुद०७९) कातरचित्तः (पुं०) कायर हृदय, भयभीत चित्त वाला। (दयो० ९२) कातर्य (नपुं०) कायरता, भयाकुलता। कार्तज्ञता (वि०) कृतज्ञता, प्रत्युपकार। (जयो० २९/६४) कार्तिकेयः (पुं०) कार्तिकेयानुप्रेक्षा के रचनाकार। कात्यायनः (पुं०) एक प्रसिद्ध वैयाकरण। काथिक (वि०) [कथा+ठक्] कथा वाचक। कादर्थ (वि०) कृपणत्व, कंजूसीपना। (जयो० २/११०) कादम्बः (पुं०) १. कलहंस, राजहंस। २. इक्षु, ईख, गन्ना। ३. कदम्ब वृक्षा कादम्बरं (नपुं०) शराब, कदम्बतरु से निकाली गई सुरा। कादम्बरी (स्त्री०) वाणी, वचन। (जयो० ११/७६) कादम्बिनी (स्त्री०) मेघमाला, खे पंक्ति। 'कादम्बिनी पीनपयोधरा वा'। बादल समु दाय। (समु० २/५) मेघ समूह। कादाचित्क (वि०) [कदाचित् ठञ्] आकस्मिक, कभी कभी। काद्रवेयः (पुं०) [कद्रो अपत्यम्-कटु+ठक्] सर्प, सांप, अहि। (जयो० ११.९६) काननं (नपुं०) [कन्+णिघ्+ ल्युट्] अरण्य, जंगल, विपिन। (जयो० १३/५०) १. उपवन, बाग, बगीचा। काननक्षेत्र (नपुं००) अरण्य भाग, वनक्षेत्र, वनांचल। कानन-पादपः (पुं०) जंगली वृक्ष। काननभू (स्त्री०) वनक्षेत्र, वन भू-भाग। काननभूमिः (स्त्री०) अरण्यभूमि, वनावनि। (जयो० २३/११३) कानन-सौन्दर्य (वि०) अरण्यशो भा। कानिष्ठिकं (नपुं०) [कनिष्ठिका+अण्] कनिष्ठा अंगुली, छोटी अंगुली। कानिष्ठिनेयः (पुं०) लघु पुत्री की सन्तान। कानीनः (पुं०) १. कन्या। २. कन्यायाः जातः कन्या अण्। अविवाहिता कन्या का पुत्र। कानीनजन: (पुं०) माण्डपिक, विवाह के मण्डल में स्थित लोग। समभूत्क्रमभूमिरेकधा चाखिल-कानीनजनो मनोज्ञवाचा। (जयो० १२/३३) कान्त (वि०) [कन्+क्त] १. प्रिय, इष्ट, मनोज्ञ. अनुकूल। धव। (जयो० वृ० १४/२३) २. सुखकर, यथेष्ठ, मनोहर, सुन्दर, रमण, रमणीय। (जयो० वृ० २/१४८) ३. पति, प्रेमी। (सुद० वृ०८३) 'कान्तमामनिरेऽङ्गना' (सुद०८३) कान्तता (वि०) कान्ति युक्त। (जयो० २२/४६) कान्त-समागमः (वि०) प्रिय संसर्ग। (जयो० १७/२०) कान्ता (स्त्री०) १. वनिता, पत्नी, भार्या, प्रिया, प्रेमिका। कान्तालसन्निधानस्य फलतात् सुमनस्कता' (जयो० १/११२) २. सुहावनी, लावण्यमयी स्त्री। कान्तां रजनी गत्वा। (सुद० ९९) ३. बड़ी इलायची, प्रियंगुलता। ४. भू, भूमि, पृथ्वी। कान्तार (कान्त+क्त+अण्) १. प्रिय, २. वन, अरण्य। (जयो० १६/२२) For Private and Personal Use Only Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कान्ताकुच शैलः २७७ काम-कथा कान्ताकुच शैलः (पुं०) उठे हुए कुच। (वीरो० ९/३३) कापर्दिकः (पुं०) कौड़ी। (वीरो० ६/४) कान्तामुख-मण्डलः (पुं०) प्रिया का मुख समूह। (वीरो० कापालः (पुं०) [कपाल+अण] एक समुदाय। १२/२३) 'कान्तार सद्विहारेऽस्मिन्' (सुद० ८४) २. कापि (अव्य०) कोई भी (सुद० ८५) ऊबड़-खाबड़ मार्ग, दूषित पथ। ३. लालरंग की ईख। कापिल (वि०) कपिल सम्बन्धी। कापिलानां कृपिलानुयायिना कान्तावलोकः (पुं०) प्रियावलोक। सती प्रतीतिः। कान्तिः (स्त्री०) [कम्+क्तिन्] प्रभा, चमक, आभा, सौन्दर्य, कापिलसत्प्रतीतिः (पुं०) सांख्यमत। लावण्य, रमणीयता, दीप्ति। २. कामना, इच्छा, आशा। कापुरुषः (पुं०) कायरपुरुष, कुपुरुष, निम्न व्यक्ति। (जयो० ११०) कापिष्टः (वि०) आठवां स्वर्ग। (समु०५/३३, ६/२४) कान्तिकर (वि०) शोभा युक्त। कापेयं (नपुं०) वानर जाति का। कान्तिगेहं (नपुं०) सुन्दर घर। कापोत (वि०) [कपोत+अण्] १. कलुषता युक्त भाव। २. कान्तिचन्द्रः (पुं०) प्रभावान् चन्द्र। भूरे रंग का, कबूतर के रंग का। कान्तिचयः (पुं०) कान्ति समूह, दीप्तिमान। 'कान्तीनां चयः । कापोतलेश्या (स्त्री०) कलुषता युक्त भावों वालों को लेश्या, समूहो यस्य सः। लेश्याओं में तीसरी लेश्या। कान्तिझरतांत (वि०) कान्तिप्रवाह। (जयो० ६/९१) (जयो० कापोतलेश्यावर्णः (पुं०) कपोतलेश्या का वर्ण-अलसी पुष्प ___ वृ० ३/१०४) ___ या कबूतर के कण्ठ जैसा। कान्तिमतिः (स्त्री०) १. सरस्वती की उपाधि ' श्रीमती भगवती काफी होलिकारागः (पुं०) एक राग विशेष, जिसमें ज्ञेय सरस्वतीं' (जयो० २/४१) 'श्रीमती कान्तिमतीं' (जयो० तत्त्व की प्रधानता होती है। कदा समयः स समायादिह वृ० २/४१) २. प्रभासहित, भासपूर्ण, आभा युक्त। जिनपूजाया। कञ्चनकुलशे निर्मलजलमधिकृत्य मञ्जु गङ्गाया। कान्तिभत्त्व (वि०) कान्तियुक्त (जयो० ११/१५) (जयो० (सुद० वृ०७१) वृ० १/६९) कामः (पुं०) [कम्+घञ्] कामना, इच्छा, अभिलाषा, लालसा, कान्तिहीन (वि०) १. लावण्यागतिगत। लवण रहित। (जयो० आसक्ति, विषयभाव, स्नेह, अनुराग, प्रेम, सर्वेन्द्रिय प्रीति, वृ० १२/१२५) २. प्रभा रहित, आभा शून्य। रुचि, दुष्ट अभिप्राय। कान्दवं (नपुं०) [कन्दु+अण्] अयस्क कढ़ाई, लोह कडाह। दर्पक-(जयो० वृ० ५/१२) कान्दविक (वि०) [कान्दव ठक्] १. आपूपिक, पुआ। (जयो० अन्तशय-कामदेव (जयो० वृ० ३/८६) वृ० ३/६१) २. हलवाई, मिठाई बनाने वाला। (समु० कामवेष्टा-'कामोऽपि नामास्तु यदिङ्गवश्यः' (सुद०७/४) १/१५) 'कुर्यात्, कवि: कान्दविक: कवित्वम्' (समु०१/१५) रति-(जयो० १७/१३२) कान्दिशीक (वि०) उड़ाने वाला, भगाने वाला, भयभीत, कामपुरुषार्थ-(जयो० वृ० ५/४३) भययुक्त। कामशास्त्र- (जयो० वृ० २/५७) कान्यकुब्ज: (पुं०) एक देश नाम। वाञ्छा-(जयो० ११/९४) कापटिक (वि.) [कपट ठक्] प्रगल्भ कपट करने वाला, इच्छापूर्ति-(जयो० ११/८६) 'कामस्य सुरम्या वाञ्छितका ' कुटिल प्रवृत्तियुक्त। परमर्मज्ञः प्रगल्भश्छात्र: कापटिकः। (जयो० ११/८६) बेईमान, धोखेबाज। कार्य-जयो० ७/१ 'अथ दुर्मर्षणः स्वस्य नाम कामं समर्थयन्' कापट्य (नपुं०) [कपट ष्यञ्] दुष्टता, धोखेबाज, धोखा (जयो० ७/१) देने वाला। कामदेव-(जयो० १/३५) कापथः (पुं०) दुस्मार्ग, कपथ, कंटकाकीर्ण, विकृतमार्ग। (सम्य० एक पुरुषार्थ (जयो० १/३) ९३) स्मृतिशास्त्र-कामवत्-मनोभूसदृशः। कापथघट्टनं (नपुं०) विकृतमार्ग का खण्डन। (सम्य० ९३) काम-कथा (स्त्री०) कामिनी के रूप सौन्दर्य आदि से सम्बन्धित तत्त्वोपदेशकृत्सर्वशास्त्रं कापथघट्टनं। कथा। 'स्त्रीषु दुरभिसन्धिः कामः तक्कथा'। For Private and Personal Use Only Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कामकर्मन् २७८ कामन्धमिन् कामकर्मन् (नपुं०) विवाहाकार्य, (जयो० ३/७३) कामकला (स्त्री०) रति, कामदेष की पत्नी। कामकलाश्रमः (पुं०) रतिकेलिखेद. संभोग से उत्पन्न थकान। (जयो० १७/१९२) कामकेतु (स्त्री०) कामदेव की ध्वजा, 'कामकेतो रतिपतिध्वजा' (जयो० वृ० १२/४४, कामकृत् (वि०) इच्छानुसार कार्य करने वाला, समय पर कार्य करने वाला। कामक्रीड़ा (स्त्री०) रति क्रीड़ा, संभोग। कामग (वि०) कामस्थान। कामगति (वि०) काम स्थान पर जाने दो। कामगविः (स्त्री०) कामधेनु, इच्छापूर्ति करने वाली गाय। (जयो० ३/२३) कामगुण: (पुं०) स्नेह, प्रीति, प्रेमभाव, आमोद-प्रमोद, प्रणयभाव। कामचर (वि०) इच्छानुसार गमन/विचरण करने वाला। कामचार (वि०) काम-वासना का आचरण करने वाला। कामचारिन् (वि०) आसक्ति पूर्ण आचरण करने वाला, विषयी. काम लालसा युक्त। कामचारिन् (पुं०) गरुड़ पक्षी। कामज (वि०) इच्छा युक्त। कामजय (पुं०) काम पर विजय, सर्वेष्वपिजयेष्वपिगतः', विषयाभिलाषा पर नियन्त्रण, कामजयो गतः (वीरो०८/४१) कामजयी (वि०) इन्द्रिय विषय को जीतने वाला। कामजित् (वि.) इन्द्रिय जयी, प्रेमजयी। (जयो० वृ० १९/३८) कामतः (अव्य०) [काम+तसिल्] स्वेच्छा से, इच्छापूर्वक, अपनी इच्छा से, भावनावश। कामतन्त्र (नपुं०) १. कामोद्दीषक, २. कामपुरुषार्थ शिक्षक शास्त्र, कामशास्त्र। कामतन्त्रमुपयामि जघन्यं शून्यवादमुदरं खलु धन्यम्। (जयो० ५/४३) 'कामतन्त्रमति यत्नतः' पठेद्युपस्थिति रूपादिमन्मठे' (जयो० २/५७) काम-तीव्रता (वि०) इच्छा की तीव्रता, आसक्ति की अधिकता। कामदा (स्त्री०) १. कामधेनु. २. वाञ्छितदायिनी, इच्छित फलप्रदात्री। (जयो० ११/९४)। काम-दारता (स्त्री०) रति रूपता कामदेव की पत्नी स्वरूप वाली। 'कामस्य मदनस्य दारतां रतिरूप तामततु' (जयो० वृ० ११/९४) कामदर्शन (वि०) संदर दिखने वाला, रूपवान दृष्टि वाला। कामदुध (वि०) अभीष्ट पदार्थ प्रदाता। कामदुधा (स्त्री०) कामधेनु। कामदुह् (स्त्री०) कामधेनु। कामदूती (स्त्री०) मादा कोयल। कामदेवः (पुं०) सुमेषी-सुमेषी: कामदेवस्य (जयो० ११/३२) विस्मापनदेवता-(जयो० ११/६२) पुष्पशर-(जयो० ११/१२) मकरध्वज-(जयो० ५/६०) चित्तभू-(जयो० ३/४) वाम-(जयो० ९१/९) सुमायुध-(जयो० २६/४५) सुद र्शनाख्यान्तिमकामदेव कथा पथायातरथा मुदे वः। (सुद० १/४) कामधनं (नपुं०) काम पुरुषार्थ और अर्थ पुरुषार्थ। 'कामश्च धनं च' (जयो० वृ० २/१३) कामधुरता (वि०) १. काम की प्रधानता। २. कौन सी उत्कृष्ट मधुरता, का मधुरता माधुर्यम्। (जयो० वृ० २२/४५) कामधुरतां स्मस्य प्रधानभाव तामारादेवावाप। (जयो० वृ० २२/४५) वसन्तयुक्ता--'का नाम मधुरता वसन्तयुक्तता। मधुरतोदारा सती कामधुरता न कामधुरता बभावुदारात्र कामधुरतामवाप साऽरात्। (जयो० २२/४५) कामधेनुः (स्त्री०) इच्छादायिनी गाय, (जयो० ५/४) (वीरो० १/१७) इच्छाप्रदात्री गाय, कामदा, कामदुध, कामदुधा। कामस्य सुरम्या वाञ्छितका । (जयो० ११/८६) कामध्वंसिन् (वि०) काम को जीतने वाले जितेन्द्रिय। कामन (वि०) [कम्+णि+युच्] विषयाभिलाषी, कामासक्त। कामना (स्त्री०) मनोभावना, इच्छा, वाञ्छा, चाह। 'उचितामिति कामनां प्रपन्नौ' (जयो० १२/१०३) कामना रसः (पुं०) आम रस की इच्छा। सर्वमेतच्च भव्यात्मन् विद्धिधर्मतरोः फलम्। कामनारस यस्य स्यादर्थ- स्तत्समु च्चयः।। (सुद०४/३९) काम-निकारः (पुं०) रतिपति का पराभव, कामदेव को लज्जायुक्त करने वाला। 'देहदीप्तिकृतकाम-निकारा:' (जयो०५/१) 'कामस्य रतिपतेर्निकार : पराभवो' (जयो० वृ० ५/१) कामनीयं (वि०) [कमनीयस्य भावः] रमणीयता, रम्यता, रूप सौम्यता, सौन्दर्य, लावण्यता। कामन्धमिन् (पुं०) [कामं यथेष्ठं धमति काम+ध्मा-णिनि] कसेरा, ठठेरा। For Private and Personal Use Only Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra कामपतिः www.kobatirth.org " कामपतिः (पुं०) रतिदेव कामदेव कामपरिवादम् (नपुं०) काम वासना से दूर विषयासक्ति से पृथक्। 'यस्य कामपरिवादसादुरो' (जयो० २/६८ ) कामणल: (पुं०) बलराम । काम पावकः (पुं०) स्मर- वह्नि, कामाग्नि विषयासक्ति की ज्वाला । 'हृदयस्ति कामपावकम्' (जयो० २१/७०) कामप्रवेदनं (नपुं०) कामना का कथन, इच्छा निरूपण । कामप्रश्न: (पुं०) मुक्त प्रश्न, इच्छित प्रश्न | कामप्रसूः (स्त्री०) वाञ्छिकर्त्री, कामजिती, कामजन्मदात्री। (जयो० १९ / ३८) 'कामप्रसूः सम्प्रति लोकमातः ' 'कामजित: कामहरणास्यार्हतो भगवता प्रियापि कामप्रसूः कामजन्मदात्रीति विरोधे त्वं कामसूत्रीति परिहारः।' (जयो० ० ९/३८) वृ० , कामप्रिया (स्त्री०) रति कामदेव की भार्या (जयो० ५/८७) कामफल (नपुं०) एक वृक्ष के फल की जाति, आम्रवृक्ष की जाति । | कामभाव: (पुं०) वासनाभाव, आसक्ति परिणाम । कामभावना (स्त्री०) इच्छा की भावना, भोग जन्य कार्यों के प्रति भाव । कामभोग: (पुं०) विषयभोग, इन्द्रिय भोग, इन्द्रियासक्ति । कामम् (अव्य) [ कम्+ णिङ्+अम् ] इच्छा के अनुसार, सहमति पूर्वक। प्रसन्नता के साथ। कामबाण: (पुं०) कामशर (सुद० १०७) काममखं (नपुं०) कामयज्ञ, स्मरयज्ञ, रतीशयज्ञ (जयो ० २ / ६) 'काममखं सा विदधे' (जयो० २४/१३३ ) काम मङ्गलविधिः (स्त्री०) भोग के सभी साधन 'स्वस्थानाङ्कित- काममङ्गलविधौ ' निर्जल्पतल्प' (जयो० २/१२३) काममहः (पुं०) कामोत्सव चैत्रमास में मनाया जाने वाला उत्सवा काम माता (स्त्री०) कामदेव की माता लक्ष्मी रतिरिव रूपवती या जाता जगन्मोहिनीय काममाता' (सुद० १ / १४१ ) काममूह (वि०) कामासक्त, विषयासक्त इन्द्रियासक्ति जन्य काममोदनं (नपुं०) कामोत्पादक हर्ष (जयो० १२ / १११ ) कामस्य रतिपरिणामस्य मोदनं परिवर्द्धनञ्च प्रतियच्छन्तु (जयो० वृ० १२/१११) काममोह (पुं०) कामासक्त! काममोहित (वि०) इन्द्रिय विषय में आसक्त हुआ। कामरस: (पुं०) वासना राग, प्रेमभाव । २७९ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कामविधा- विधातु कामरसिक (वि०) कामासक्त हुआ। कामरागः (पुं०) प्रिया के प्रति अनुराग । कामरागः प्रियप्रमदादि विषय साधनवस्तुगोचर: (जैन०ल० ३३५) कामरामा ( स्त्री०) रतिदेवी । विमर्दयामास कुचाङ्कमस्याः स कामरामासुषुमैकमष्याः (जयो० १७/५९) कामरूप (वि०) कामदेव के रूप वाला। रतिराहित्यमद्यासीत् कामरूपे सुदर्शने (सुद० ३/३) कामरूप: (पुं०) कामरूप ऋद्धि विशेष । नानारूपों को धारण करने वाली तेजोलेश्या विशेष । 'जुगवं बहुरूवाणिं जं विरयदि कामरूवरिद्धी सा' (ति०प०४/१०३) 'इच्छिरूवगहणसत्ती' ( धव० ९/७६) । २. कामरूप नामक देश (जयो० वृ० ६ / २८ ) । ३. कामरूप नामक राजा । (जयो० वृ० ६ / २८) कामरूपाधिपः (पुं०) कामरूप नामक एक अधिपति / राजा । स्मररूपाधिक एषोऽस्ति कामरूपाधिपोऽथ सुमनोज्ञा (जयो० ६/२८) कामरूपाधिप (वि०) कामदेव के रूप से भी अधिक रूपवान्। कामरूपित्व (वि०) नाना रूपों का धारण करने वाली शक्ति, युगपद / एक साथ अनेक रूपों का धारण करने वाली शक्ति 'युगपदनेकरूपविकरणशक्तिः कामरूपित्वमिति' (त० वा० ३/३६) कामरेखा (स्त्री०) वेश्या, गणिका । कामलता ( स्त्री०) लिंग, पुरुष की जननेन्द्रिय, कामरूपी लता। 'कामलतामिति गच्छत्यभितः' (सुद० १०४ ) कामवरः (पुं०) इच्छानुसार चयनित, उपहार प्रदत्त काम - वल्लभः (पुं०) १. वसन्त ऋतु। २. आम्रतरु। कामवश (वि०) प्रेमासक्त, प्रेमावद्ध, प्रेम के वशीभूत । कामवश: (पुं०) कामाभिभूत। कामवश्यः (वि० ) प्रेमासक्ति । कामवाद (वि०) इच्छित-कथत, स्वेच्छापूर्वक विचार व्यक्त करना। काम वासना (स्त्री०) विषयासक्ति, प्रेमाभिभाव (वीरो० २१/१४) काम वासनातुरः (पुं०) कामपीडित आश्रितकाम (जयो० २३/६२) For Private and Personal Use Only कामविधा ( स्त्री०) काम-वासना। (जयो० १/७८) कामविधा- विधातु (वि०) काम की वासना को स्वीकार करने वाला। 'कामो मनोऽभिलषितं रतिपतिश्च तस्य विधा प्रकार विशेष २. मैथुनान्ते सातिरेक चुम्बनादि चेष्टा । Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कामविनयः २८० कामोदय-कारणं कामविनयः (पुं०) इन्द्रिय जन्य प्रवृत्ति। कामात्मन् (वि०) कामुक, विषयी। काम-विहत (वि०) इच्छाओं को विनष्ट करने वाला। कामायुध (नपुं०) कामदेव शस्त्र। काम-वृत्त (वि०) कामासक्त, वासनागम विषयों के घेरों में | कामायुः (पुं०) गिद्ध, गरुड़। पड़ा हुआ। कामासक्त (वि०) विषयासक्त, इच्छाओं में लीन। कामवृत्ति (वि०) कामासक्त, स्वेच्छाचारी। कामिकान्त (वि०) रतिकान्तवाली। 'कामिभ्यः कान्ताकामवृद्धिः (स्त्री०) वासनाभिवृद्धि, तीव्र काम-वेदना। कामिकान्ता' (जयो० ६/९१) कामवृन्तं (नपुं०)शृंगवल्ली पुष्प। कामिकान्ता (स्त्री०) काम की इच्छुक स्त्री। 'कामिभ्यः कामशरः (पुं०) काम बाण, प्रेम-बाण। 'कामशरैः कान्ता कामिकान्ता' (जयो० ७० ६/५१) यथेच्छमुन्मुक्तैः शरैः' (जयो० वृ० ६/४४) कामिजन-मनोहरः (पुं०) कामीजनों के लिए अत्यन्त प्रिय कामशर-प्रतानं (नपुं०) काम बाण समूह (जयो० १८०) सुन्दरी। (जयो० वृ६/५१) कामशास्त्र (नपुं०) रतिशास्त्र, कामतन्त्र। (जयोवृ०५/४३) कामिजनाश्रय (वि०) (जयो० ३/७२) काम-संयोगः (पुं०) इच्छित वस्तुओं की उपलब्धिः , यथेष्ट कामित-दायिनी (वि०) काम देने वाली, विषयाभिलाषा उत्पन्न का संयोग/मिलन। करने वाली। (जयो० १२/२५) कामसखः (पुं०) वसन्तराज, वसन्त। कायित (वि०) वाञ्छित। (वीरो० १/२) पंञ्चमी विभक्ति युक्त कामसत्कृतिः (स्त्री०) कामसेना। (वीरो० ९/६) (जयो० १९//३) कामसुधारसः (पुं) इच्छित अमृत रस, कामवासना रूप कामिता (स्त्री०) कामासक्त, वाञ्छायुक्त। (जयो० १९/३२) पीयूष रस। (सुद० १००) कामित्व (वि०) काम-वासना युक्त। (सुद० १२३) कामभाव कामस् (वि०) काम की अभिलाषा करने वाला। से जागृत 'कामित्वमापादयितुं रसादित' (सुद० १२३) कामसूत्रं (नपु०) रतिशास्त्र, कामतन्त्र। कामिन् (वि०) [कम+णिनि ] प्रेमी, प्रेमासक्त, रति युक्त, कामहेतुकः (वि०) इच्छाभाव को उत्पन्न। कामुक। विलासी, यथेष्टार्थ अभिलाषी, अभिप्राय जन्य। कामांकुशः (पुं०) १. नख। २. लिंग, जननेन्द्रिय। 'कामिनोऽभिप्रायपुष्टिकरीति' (जयो० वृ० ३/३६) कामान्ध कामातुरः (पुं०) विषयातुर, इन्द्रिय इच्छाओं की ओर अग्रसर। (जयो० वृ० २/१५६) (जयो० १/३, ३/१०५, सुद० ११/५२) कामिनी (स्त्री०) प्रिया, प्रेमिका, स्नेही, प्रीतिकरा, प्रियंकरा, कामातिशयः (पुं०) काम की प्रमुखता। (समु० ४/३०) सुन्दरी। कविकृतेरनुकी कामिनी अलङ्कारमाश्रितवती। 'कामातिशयात्स एव ताम्' (जयो० ३/११) 'चौर्यालीक-कथाकृतोऽपि न भवेत् सा कामाधिकारः (पुं०) काम का अधिकार, प्रेम प्रभाव, कामिनी कामिन:।' (मुनि० २) कामासक्ति भाव। कामी (वि०) कामाभिलाषिणी। (सुद० १०२) कामाधिष्ठित (वि०) कामासक्त युक्त, प्रेम के वशीभूत। कामुक (वि०) अभिसारी (जयो० वृ० १४/१९) इच्छुक, कामानुरूपः (पुं०) काम के अनुरूप। (सुद० ११९) वाञ्छा युक्त, कामासक्त, प्रेमवशीभूत, कामातुर। कामारण्यं (नपुं०) प्रेम-वन, आसक्ति का उपवन। कामुकः (पुं०) प्रेमी, नायक, कामी पुरुष। (जयो० ४/५६) कामारिः (पुं०) शिव, हर, शंकर। (जयो० १६/१०) | कामुकी (स्त्री०) प्रेमासक्त, प्रेमी स्त्री, इच्छावती, वाञ्छाशीला। 'कामस्यारिहरस्तस्य नामापि ललाम' (जयो० वृ० १६/१०) (हित०सं०१६) कामारित (वि०) काम नाशक। 'कामारिता कामितसिद्धये नः' कामेप्सु (वि०) अभीष्ट वस्तु का इच्छुक। (वीरो० १/२) कामेश्वरः (पुं०) कुबेर। कामार्थिन् (वि०) कामेच्छुक, विषयी। कामोत्पत्तिकर (वि०) काम की उत्पत्ति करने वाला। (जयो० १६) कामावतारः (पुं०) प्रद्युम्न कुमार। कामोदयः (पुं०) काम का उदय। (सुद० ९९) कामभाव को कामावसाय: (पुं०) कामशमन, आसक्ति हनन। जागृत करना। इत्यादि कामोदयकृन्नयगादि कृत्वा। (सुद० ९९) कामाशनं (नपुं०) इच्छानुसार भोजन। कामोदय-कारणं (नपुं०) कामभाव को जागृत करना। 'अभीष्ट For Private and Personal Use Only Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कामोद्रेकः २८२ कायस्थितिः सिद्धः सुतरामुपायस्तथाऽस्य कामोदय-कारणाय' (सुद० शरीरगत दु:ख की परिणति, प्रमादजनित सामायिक की १०१) परिणति। 'दुष्टप्रणिधानं सावद्ये प्रवर्तनम्' तत्र हस्तकामोद्रेकः (पुं०) कामवेग। (जयो० वृ० १६/५) पादादीनामनिश्चयभूतत्वावस्थापनं वायदुष्प्रणिधानम्' कामोल्लसित (वि.) काम से प्रमुदित, वासनाओं के हर्ष को (सा०ध०टी० ५/३३) प्राप्त होन वाला। (जयो० ४/६३) कायपरीतः (पुं०) प्रत्येक शरीर वाला जीव। काम्पिल्लः (पुं०) एक वृक्ष विशेष। कायप्रवीचारः (पुं०) शरीर से मैथुन सेवन। 'कायेन प्रवीचारो काम्बलः (पु०) कम्बल/ऊनी वस्त्र से आच्छादित। मैथुनव्यवहारः' काम्बविकः (पुं०) सीप का व्यापारी, शंखाभूषण का व्यापारी। कायबलः (पुं०) असाधारण शरीर बल, शरीर ऋद्धि विशेष। काम्बोजः (पुं०) [कम्बोज+अण] कम्बोज देश का रहने । कायबलिन् (वि०) कायबली, देह से बलिष्ठ, तपोपयोग से वाला। प्रवृत्त क्रिया। काम्य (वि०) [कम्+णिड्-यत्] १. इच्छित, वाञ्छित, वाञ्छनीय। कायबलप्राणः (पुं०) शरीरचेष्टागत शक्ति। 'देहोदये शरीर २. सुन्दर, मनोहर, रमणीय, सौम्य। नामकर्मोदये कामचेष्टा जननशक्तिरूपः कायबल प्राणः। काम्रता (वि०) सरसता। (जयो० व१२/१२७) (गो०जी०टी० १३१) काम्ल (वि०) ईषद्, अम्ल, कुछ खट्टा। कायमानं (नपुं०) शरीर का प्रमाण। कायः (पुं०) शरीर, देह-चीयतेऽस्मिन् अस्थ्यादिकमिति कायः काय-मालिन्य (वि०) देहगतमलिनता। चीयन्ते अस्मिन् जीवा इति व्युत्पत्तेर्वा काय:।' (धव० कायमोहिन् (वि०) शरीर के प्रति मोह रखने वाला। ७/६) जिससे अविनाभावी त्रस-स्थावर का उदय होता है। काय-योगः (पुं०) शरीर सम्बन्धी योग, योग के तीन भेदों में 'औदारिक-शरीरनामकर्मोदयवशात् पुद्गलैश्चीयते इति कायः' से एक योग काय योग है, जिसमें शरीर का स्थिर करने कायकल्पकारिन् (पुं०) रसायन का आश्रय, भैषजाश्रय। के लिए प्रयत्न किया जाता है। (वीरो० वृ०१/२२) कायात्मप्रदेशपरिणाम। कायक्लेश: (पुं०) १. शरीरगत पीड़ा, देहजन्य दु:ख। २. वीर्यपरिणति विशेष। कायक्लेश एक स्थिर आसन विशेष भी है, जिसमें काय जीवप्रदेश परिस्पन्दन। 'सप्तानां कायानां सामान्यं काय:, के अवग्रह से आगमानुसार शरीर को स्थिर करने के लिए तेन जनितेन वीर्येण जीवप्रदेशपरिस्पन्दन लक्षणेन योगः विविध आसनों का प्रयोग किया जाता है। 'कायक्लेश: काययोगः' (धव० १/३०८) स्थान मौनातपनादिरनेकधा' (त० वा० ९/१९) कायक्लेश कायवधः (पुं०) पृथ्वी आदिक का वध, एकेन्द्रिय स्थावर तप विशेष है--अकायक्लेशकृतत्वेन कायक्लेशोपयोगवान्।' जीव को पीड़ा। (समु० ९/१३) अपने पूर्वकृत पापकर्म को नष्ट करने के | कायविनयः (पुं०) नम्रतापूर्ण व्यवहार, शरीर को नम्रीभूत लिए जो देह सम्बंधी तप किया जाता है। 'कायक्लेशं बनाना। शरीरस्य कष्टं श्रयन्नपि कायक्लेशो न सम्भूतो' कायव्युत्सर्गः (पुं०) शरीर के ममत्व का त्याग, सर्वत्र संवृताचार। कायक्लेशनामकं तपश्च कृतवानित्यर्थ, (जयो० २८/१२) कायशुद्धिः (स्त्री०) सरलता पूर्ण काय, शरीर के प्रति यत्नपूर्ण कायगुप्तिः (स्त्री०) शरीर की प्रवृत्ति को नियमित रखना। प्रवृत्ति। अहेरिव गृहस्थस्थ, कौटिल्यमधिगच्छतः स्यान्मु प्राणिपीडाकारिण्याः कायक्रियाया निवृत्तिः कायगुप्तिः। नेगरुडस्येव, पार्वे सरलता तनौ।। (हित०सं०५१) संस्कार(भ०अ०टी० ११५) हिंसादि णियत्ती वा सररीगुत्ती हवदि संहति। एसा (मूला० ५/१३६) कायसंयमः (पुं०) शारीरिक संयम, इन्द्रिय सम्बन्धी संयम। काय-चिकित्सा (स्त्री०) शरीर उपचार, देहगत व्याधियों का कायस्थ (वि०) १. शरीरस्थ, शरीर की ओर अग्रसर। २. जाति विशेष। उपशमन, रोगप्रतिक्रिया। 'कायस्य ज्वरादि-रोगग्रस्तशरीरस्य कायस्थित (वि०) शारीरिक क्रिया में स्थित। चिकित्सा' (जैन०ल० ३३८) कायस्थितिः (स्त्री०) जीवत्व रूप पर्याय, एक काय को न कायदुःप्रणिधानं (नपुं०) पापजनित प्रयोग, अन्यथा परिणति, छोड़कर उसके रहने तक नाना भवों का ग्रहण करना। For Private and Personal Use Only Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कायस्वभावः २८२ कारा कायस्वभावः (पुं०) शरीर परिणति, देह के अपवित्रतागत परिणाम, दु:खहेतु। कायापरीतः (पुं०) अनन्त कायिक जीव। कायिक (वि०) शारीरिक, देहगत, शरीर सम्बन्धी। कायिक-अशुभ-योगः (पुं०) शारीरिक कुशील प्रवृत्ति आदि | __ का सम्बन्ध। कायिक-असमीक्ष्णाधिकरणं (नपुं०) प्रयोजन बिना छेदन भेदन के कार्यों का करना। कायिकत्यागः (पुं०) शरीर सम्बन्धी त्याग (दयो० १२२) तत्रापि कायिकत्यागः सुशक्तो भुवि वर्तते। (दयो० १२२) कायिक-विनयः (पुं०) शारीरिक विनम्रता, भक्तिपूर्वक कायोत्सर्ग आदि करना, उपकरणों का प्रतिलेखन। कायिकी (स्त्री०) शारीरिक हलन-चलन। कायिकीक्रिया (स्त्री०) दुष्टतापूर्वक उद्यम करना। 'दुष्टस्य सत: कायेन वा चलनक्रिया कायिकी। (भ०आ०टी०८०७) 'प्रदुष्टस्य सतोऽभ्युद्यमः कायिकी क्रिया। (स०सि०६/५) कायोत्सर्गः (पुं०) शरीर के प्रति ममत्व त्याग। (मुनि० १८) (सुद० १३३) वाचाङ्गेन यथोज्झितानि भवता बाह्यानि वित्तादिकन्यन्तस्तोऽपि संस्मेरदिहतकान्येतादृशी ह्याशिका किं तेभ्यो वपुषापि नाम्नि भवतः सम्बन्ध एषा स्थितिर्वस्तुतृवेन ततोऽनुरागकरणं तत्रापिशर्माज्झिति (मुनि० १७) साधुओं के आवश्यक कर्मों में एक आवश्यक कर्म कायोत्सर्ग भी है। कायादिपरदव्वे थिरभावं परिहरत्तु अप्पाणं तस्स हवे तणुसग्गं जो झायदि णिव्विअप्पेण 'कायः शरीरं तस्योत्सर्गः कायोत्सर्गः' कायं शरीरं उत्सृजति ममत्वादिपरिणामेन त्यजतीति कायोत्सर्गः तपो भवेत् व्युत्सर्गाभिधानं तपोविधानं स्यात्। (कार्तिके०४५८) कायोत्सर्ग-भक्तिः (स्त्री०) शरीर के प्रति ममत्व त्याग सम्बंधी भक्ति। (भक्ति०४९) किन्तु प्रणाशायिजवंजवेषु महेन्द्रजालोपमसम्भवेषु। जिनेशवाचः समु दादरेण कायोऽपि नायं मम किं परेण।। (भक्ति०४९) कार (वि०) यत्न, प्रयत्न, प्रयास, कर्ता, रचयिता, सम्पादन करने वाला, बनाने वाला। 'कारश्च यतियत्नो' इति वि० (जयो० २१/५१) कारः (पुं०) १. कृत्य, कार्य, चेष्टा। २. पति, स्वामी, मालिक। कारकर (वि०) कार्य करने वाला। कारक (वि०) [कृ+ण्वुल] कर्ता, करने वाला, सम्पादन करने वाला। कारकं (नपुं०) संज्ञा और क्रिया के मध्य रहने वाला सम्बन्ध। २. क्रिया से युक्त द्रव्य। 'कुर्वत एव कारकत्वं. यदा न करोति तदा कर्तृत्वस्यायोगात्' (लघीय०६३८) 'कारकाणां कादीनाम्' (न्यायकु० ५/४४) कारकहेतुः (पुं०) क्रियात्मक कारण। कारणं (नपुं०) हेतु, निमित्त, तर्क, जिसके सद्भाव में कार्य होता है। आधार, उद्देश्य, प्रयोजन, उपकरण, साधन। 'यस्मिन् सत्येव च यद्भावः तत्कार्यमितरत् कारणम्' (सिद्धिविनश्चय० १९३) जिसके होने पर जो होता है, वह कार्य और इतर-जिसके सद्भाव में कार्य होता है। कारणगुणः (पुं०) कारण का गुण। कारणदोषः (पुं०) वेदनादि भाव, आहार में दोष। कारणपरमाणु (स्त्री०) पृथिवी, जल आदि के कारणभूत परमाणु। 'घाउ-चउक्कस्स पुणो ज हेऊ ति तं णेयो' (निय०२५) पृथिष्यप्तेजोवायवो धातवश्चत्वारः तेषां यो हेतु स कारणपरमाणुः। (निय०वृ०२५) कारण-परमात्मन् (पुं०) ज्ञान-दर्शन युक्त आत्मा, निवारण आत्मा। कारणभूत (वि०) जो कारण बना हो। (जयो० वृ० १७/५३) कारणमाला (स्त्री०) एक पुष्प माला, अलंकृत माला। कारणवन्दनक (वि०) अभिलाषा युक्त वन्दना करने वाला। कारणवादिन् (पुं०) वादी, प्रतिपक्षी, अभियोक्ता। कारणविहीनः (वि०) कारण रहित। कारणशरीर (नपुं०) कारणों कर मूल रूप। कारणा (स्त्री०) [कृ०+णिच्+युच्+टाप्] वेदना, कष्ट, व्याधि, पीड़ा। कारणाभावः (पुं०) कारणों का अभाव। कारणाभावदोषः (पुं०) संयम का परिपालन न करना, आशंका युक्त होना। कारणिक (वि०) [कारण+ठक] १. नैमित्तिक, २. निर्णायक, परीक्षक। कारण्डवः (पुं०) एक पक्षी विशेष। कारन्धमिन् (पुं०) [कर एव कारः, तं धमति, कार+ध्मा इनि] कसेरा, ठठेरा, खनिज विद्या का ज्ञाता। कारवः (पुं०) कौवा, वायस्। कारस्करः (पुं०) [कारं करोति-कार+कृ+ट] किंपाकवृक्ष। कारा (स्त्री०) १. बन्दीगृह, कारावास, बन्दीकरण। (जयो० वृ० ८/६) २. कारिका, गुणयुक्त शिक्षा, सूत्र शिक्षा। For Private and Personal Use Only Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra कारागार: www.kobatirth.org 1 २८३ परोपकारैकविचारहारात्काराणियाराध्य गुणाधिकाराम्। (जयो० १/८६) ३. तुम्बी गर्दन / ग्रीव का निम्न भाग । ४. पीड़ा, व्याधि दुःख । कारागार: (पुं०) कारावास, बन्दीगृह । 'अपराध-कारिजनरोधनार्थं ' (जयो०] १५/२६) कारागृहं (नपुं० ) बन्दीगृह कारावास । काराधिकार ( पं०) करने का अधिकार ( सम्य० २९० ) कारायण (नपुं०) बन्दीगृह कारावास (दयो० ४२ ) कारावेश्मन् (नपुं०) बन्दीगृह, कारावास । कारिः (स्त्री०) [कृ+इञ्] कार्य, कर्म, कलाकार, शिल्पकार । कारिका (स्त्री० [कृष्टाप्] १. श्लोक व्याख्या, विवरण, व्याख्यानकरण । (जयो० वृ० ५/९५) २. सूत्र - (दयो० (२५) ३. कारिका- कारागृह कारावास, सूत्रशिक्षा (जयो० | वृ० १ / ८६ ) कारित (वि०) दूसरे से कराया जाने वाला। (जयो० ११/११) 'कारिताभिधानं परप्रयोगापेक्षम् (१० वा० ६/८. स० स०६/८) 'परस्य प्रयोगमपेक्ष्य सिद्धिमापद्यमानं' कारितमिति कथ्यते। (त० वा० ६/८) कारिन् (वि०) करने वाला। (जयो० १/४) कारीपं (नपुं०) करोप / कंडे का ढेर, सूखे गोवर का ढेर । कारु (वि० ) ( कृ+अण्] कर्ता, अभिकर्ता, शिल्पी, कलाकार, निर्माता क्रिया। (१) कला, विज्ञान विधि। चारुर्विधो कारुरुतामृतात्मा' (जयो० ११/९२) कारु-क्रिया विभ्राजते (जयो० वृ० ११/९२) कारु-कुशीलन - कर्मणि रतेषु संस्कारधारा' (जयो० २ / १११ ) कारुणिक (वि० [करुणा-ठक्] कृपा युक्त, कृपालु, दयावान् दयालु। + + कारुण्यं (नपुं० ) [ करुणाप्यम्] दया कृपा, करुणाभाव, अनुकम्पा सहृदयता, आत्मीयता अनुग्रहात्मक परिणाम. अनुग्रहमति। कारुण्यमौदार्यमियद्दा (समु० ८ / २९ ) सौहार्दमङ्गमात्रे तु किल्प्टं कारुण्यमुत्सवम्। (सुद० ४ / ३५ ) 'कारुण्यमनुकम्पा दीनानुग्रह इत्यनर्थान्तरम्' (२०४०७/६) 'दीनानुग्रहभावः कारुण्यम्' (स०सि०७/११) अनुग्रहमति : संयं करुणेति प्रकीर्तिता (ज्ञाना०२७) कारुण्य - जनित (वि०) करुणा से भरा हुआ। कारुण्यपूर्ण (वि०) अनुकम्पा युक्त, दयाभाव युक्त। 'कारुण्यपूर्णमिव पूत्कुरुते द्विजाली' (जयो० १८/६९) कार्कश्यं (नपुं०) (कर्कश प्यञ्] कठोरता, कर्कशता, दृढ़ता। Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कार्मण कार्तज्ञता (वि०) कृतज्ञता, प्रत्युपकार (जयो० २०/६४ ) कार्तवीर्यः (पुं० ) [ कृतवीर्य+अण्] कृतवीर्य का पुत्र । कार्तस्वरं (नपुं०) (कृतस्वर+अण्] सोना, शयन । कार्तन्तिकः (पुं०) [कृतान्त-ठक्] ज्योतिषी, नैमित्तिक, भविष्य For Private and Personal Use Only वक्ता । कार्तिक (वि०) (कृत्तिका+अण्] कार्तिक मास से सम्बन्धित कार्तिकः (पुं०) कार्तिक मास । कार्तिकाचितिः (स्त्री०) कार्तिक मास का आश्रय (जयो० ४/६६) आश्विनोपलपनेन हि निष्ठा कार्तिकावितिरितोऽवशिष्ठा। कार्तितकृष्णाब्धीन्दुः (स्त्री०) चतुर्दशी (वीरो० २१ / २० ) कार्तिकी (स्त्री०) कार्तिक की पूर्णिमा । कार्तिकेय (पुं०) १. अनुत्तरोपादिक देव, जो राजा क्रौंच के उपसर्ग द्वारा स्वर्ग प्राप्त हुआ। २. स्वामी कार्तिकेय, जिन्होंने कार्तिकेयानुप्रेक्षा नामक प्राकृत ग्रन्थ की रचना की। (वीरो० १७/२०) ३. शिव पुत्र शिवनन्दन । कार्तिकेयानुप्रेक्षा (स्त्री०) कुमार कार्तिकेय की रचना ( ई०१००८) इसमें कुल ४९१ गाथाएं हैं, ये सभी शौरसेनी प्राकृत में अनुप्रेक्षा/ भावना के विषय को प्रतिपादित करने वाली है, इसमें वैराग्य विषय का समावेश है। इस पर आचार्य शुभचन्द्र ने (१५१६- १५५) में संस्कृत टीका लिखी। इस पर जयचन्द छाबड़ा की भाषा वचनिका है। कार्यं (नपुं० ) [ कृत्स्न+ ष्यञ् ] पूर्णता, समग्रता । कार्दम (वि० ) [ कर्दम+अण्] कीचड़ से भरा हुआ, कर्दम युक्त । कार्पट (वि० ) [ कर्पट+अण्] आवेदक, अभियोक्ता, अभ्यर्थी । कार्पट: (पुं०) चिथड़ा, कथा, लत्ता, चिन्दी। कार्यटिक (पुं०) कर्पट ठक्] तीर्थयात्री + कार्पण्यं (नपुं०) (कृपण ध्यम्] १. दरिद्रता, निर्धनता, २. कंजूसी, ३. लघुता, हल्कापन कर्पास (पुं०) कपास (जयो० ३/३९ ) कर्पासतन्तु (स्त्री०) सूती धागा। (जयो० वृ० ३/३६ ) कार्पास् (वि०) (कर्पास+अण्] कपास से निर्मित, रूई से बना। (समु० १/१७) कार्पात्सव (वि०) कपास से बना हुआ। कार्पासिक (वि० ) [ कपास क] कपास से बना हुआ, रूई से तैयार किया गया। + कार्मण (वि० ) [ कर्मन्+अण्] १. कार्य करने वाला, काम Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कार्मण-काययोगः २८४ कार्यदर्शनं पूर्ण करने वाला। २. कर्म रूप शरीर, कर्म के विकार भूत (वीरो० १९/४२) यदि जगत् के प्रत्येक पदार्थों का कोई देह। (सम्य० ३४) 'कर्मणो विकार: कार्मणम्''कर्मणां ईश्वरादि कर्ता-धर्ता होता तो फिर जौ के लिए जौ का कार्यं कार्मणम्' (स०सि०२/३६) 'कर्मति सर्वशरीरप्ररोहण- बौना व्यर्थ हो जाता। क्योंकि वही ईश्वर बिना ही बीज समर्थं कार्मणम्' (त० वा० २/२५) 'कर्मणामिदं कर्मणां के जिस किसी भी प्रकार से जौ को उत्पन्न कर देता। फिर समूह इति वा कार्मणम्' (त० वा० २/३६) जो सब शरीरों विवक्षित कार्य को उत्पन्न करने के लिए उसके की उत्पत्ति का बीजभूत शरीर या कारण है। कर्मों का कारण-कलापों के अन्वेषण की क्या आवश्यकता रहती? कार्य कार्मण शरीर है। अतएव यही मातना युक्तिसंगत है कि प्रत्येक पदार्थ स्वयं कार्मण-काययोगः (पुं०) कार्मण शरीर के द्वारा कृत योग। प्रभावक भी है और स्वयं प्रभाव्य भी है अर्थात् अपने ही ___ 'कार्मणकायकृतो योगः' (धव० १/२९९) कारण कलापों से उत्पन्न होता है और अपने कार्य विशेष कार्मण-बन्धनं (नपुं०) गृह्यमाण कर्म परमाणुओं का परस्पर का उत्पन्न करने में कारण भी बन जाता है। जैसे बीज सम्बन्ध। के लिए वृक्ष कारण है और बीज कार्य है। कार्मण-वर्गणा (स्त्री०) कर्म परमाणुओं की वर्गणा। कार्य-कारण-भाव: (पं०) कार्य कारण भाव। कार्मण-शरीर: (पुं०) कार्मणशरीर की प्राप्ति। वंशे नष्टे कुतो वंश कार्मिक (वि०) [कर्मन् ठक्] हस्त निर्मित, हाथ से बना वाद्यस्यास्तु समु दुद्भवः। हुआ। कार्य-कारण भावेन कार्मुक (वि०) [कर्मन्+उक] कार्य करने योग्य, पूर्णत: स्थितिमेति जवंजवः।। (दयो० वृ०४८) कार्य सम्पादन करने वाला। कार्य-कारिन् (वि०) सार्थकता, (जयो० ४/२३) कार्य (सं०कृ०) [कृ+ ण्यत्] जो किया जाना चाहिए, सम्पन्न सन्निमन्त्रणमिहान्य कृतिभ्यः कार्यकार्यपि तु मन्त्रमणिभ्य। होना, कार्यान्वित। २. दण्ड, विचार, अनुष्ठान, प्रयोजन, (जयो० ४/२३) उद्देश्य, अभिप्राय, आवश्यकता आदि कार्य हैं। क्षेमप्रश्नानन्तरं | कार्यकारिन् (वि०) 'कर्मान्यदन्यत्र न कार्यकारि, किं वृत्तमोहास्तु ब्रूहि कार्यमित्यादिष्टः प्रोक्तवान् सागरार्थः। (सुद० ३/४५) दृशे किलारिः। इत्थं वचश्चेन्निगदाम्यतोऽहं ज्ञाने मृषात्वाय यः क्रीणति समर्थमितीदं विक्रीणीतेऽवश्यम्। विपणौ सोऽपि न दृष्टिमोहः।। (सम्य० १२०-१२१) सार्थकता, प्रयोजनभूत। महर्घ पश्यन् कार्यमिदं निगमस्य।। (सुद० ९१) 'युद्धादिकार्ये कार्य-कोविदः (पुं०) कर्तव्य ज्ञाता, कार्य का जानकर विज्ञ/ ब्रजतोऽप्यमुष्य' (सम्य० १५) वहावशिष्टं समयं न कार्य विद्वान्। 'कार्ये कर्त्तव्ये कोविदा विद्वांसस्ते' (जयो० २६/३६) मनुष्यतामञ्च कुलस्तु नार्य। (वीरो० १८/३७) 'यस्मिन् कार्य-गौरवं (नपुं०) किसी कार्य की महानता। सत्येव यद्भाव एव विकारे च विकार तत् कार्यम्' कार्यचणं (नपुं०) ०कार्यसाधन, कार्यसम्पादन काम की (सिद्धि०वि०वृ०४८७) जिसके होने पर जो होता है, वह निष्पत्ति, कार्यसाधन में चतुर। 'कार्यवित्तः कार्यचण: कार्य है। कार्य को कारण भी कहते हैं। 'कार्यमितरत् कार्यसाधने प्रसिद्धः' (जयो० ० ९/५९) भवितुमर्हति कार्यम्' (सिद्धि०वि०वृ०४८७) भूवलयेऽपरः सुमुख कार्यचणः कतमो नरः। (जयो० ९/५९) कार्यकर (वि०) प्रभावकारी, प्रभावशील, गुणयुक्त, कार्य-चिंतक (वि०) सतर्क, सावधान व्यक्ति, चिंतनशील, उद्देश्यपूर्ण. अभिप्रायजनक। कालं कार्यकरं समर्थयति दूरदर्शी, सजग, जागृत, प्रबन्धक, अधिकारी। यत्सर्वज्ञदेवो गुणी। (मुनि० २९) ०कार्यकारी, कर्मयुक्त कार्यच्युत (वि०) कार्यरहित, कर्त्तव्यविहीन, पदच्युत। कार्य करने के लिए-गोदोहनाम्भोभरणादि- कार्यकरं कार्यता (वि०) कराने वाली। 'जगतस्तु सबाधकार्यतां नितरां' पुनर्गोपवरं स आर्य। (सुद० ४/२२) (जयो० २६/३६) किमुच्यतामीदृशि एवमार्यता स्ववाञ्छितार्थ कार्यकारणं (नपुं०) कार्य और कारण का सम्बंध। 'कारण विदनार्थकार्यता। (वीरो०९/५) सद्भावे कार्यसद्भाव विशेषात्' (जयो० वृ० १५/६३) कार्य-तोष (वि०) कार्य के प्रति संतुष्ट रहने वाला। चेत्कोऽपि कर्त्तति पुनर्यवार्थं यवस्य भूयाद्वपनं व्यपार्थम्। कार्यदर्शनं (नपुं०) कर्त्तव्यशोधन, कर्तव्य निरीक्षण, कार्य का प्रभावकोऽन्यस्य भवन् प्रभाव्यस्तेनार्थ इत्येवमतोऽस्तुभाव्य।। परीक्षण। For Private and Personal Use Only Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कार्यदूतः २८५ कालकुट: कार्यदूतः (पुं०) कार्य संवाहक, कार्य कराने वाला। 'न | कार्या रूचिः (स्त्री०) निसर्ग या अधिगम के कारण से उत्पन्न ___ कश्चिद्भुवि कार्यदूतः' (वीरो० १८/२) होने वाली श्रद्धा। कार्यनिर्णयः (पुं०) कार्य का निर्णय, कार्य का अन्वेषण। कार्यासनं (नपुं०) गद्दी, आसन, स्थान। कार्यनीतिः (स्त्री०) कर्त्तव्य नीति। कार्येक्षणं (नपुं०) कार्यावलोकन, कार्य निरीक्षण। कार्यपरमाणु (स्त्री०) अन्त रहित भाग। कार्योत्पत्तिः (स्त्री०) कार्य की उत्पत्ति, पूर्व पर्याय के कार्य कार्य-परायणः (पुं०) कर्त्तव्य परायण, कार्य के प्रति सजग, की उत्पत्ति। (जयो० वृ० २६/८७) कार्यस्य उत्पत्तिः उद्यमशील, परोपकारी। (जयो० वृ० ३/३) कार्योत्पत्तिः। कार्यपात्रं (पुं०) भृत्यादि कार्य, नौकर-चाकर के कार्य, भृत्यादि कार्ये (नपुं०) [कृश्+ष्यञ्] दुर्बलता, अल्पता, कृशता। की आवश्यकता। (जयो०) कार्षः (पुं०) [कृषि+ण] कृषक, किसान, खेतीहर, कृषिकार। कार्यपुटः (पुं०) निरर्थक व्यक्ति. विक्षिप्त मनुष्य। २. कार्य के कार्षापणिक (वि०) [कार्षापण+ट्ठन्] एक मूल्य विशेष प्रति संलग्न। वाला। कार्यप्रद्वेषः (पुं०) कार्य के प्रति अरुचि, आलस, उदासीनता। | कार्ण (वि०) [कृष्ण+अण] कृष्णता युक्त, कृष्ण से सम्बंधित। कार्यप्रेष्यः (पुं०) दूत, संदेशवाहक। कार्णायस (वि०) [कृष्णायस्+अण्] कृष्ण अयस्क से निर्मित। कार्य-लेशः (पुं०) कर्त्तव्यमात्र, कार्य के प्रति सजग। 'कोऽसीह कर्ष्णिः (पुं०) कामदेव। ते कः खलु कार्यलेशः' कालः (पुं०) [कु ईषत् कृष्णत्वं लाति, ला+क, को, कादेश:] कार्यवशः (पुं०) कार्य के कारण। (दयो० १५) (वीरो० १४/३४) १. काल, समय, अवसर, अवधि, अंश, भाग। २. काला कार्यवस्तु (नपुं०) कार्य का उद्देश्य, लक्ष्य, प्रयोजन। रंग का। ३. काल एवं भोग भूमि-कर्मभूमि। (जयो० कार्यविपत्तिः (स्त्री०) असफला, प्रतिकूलता, दुर्भाग्य। २/७९) ४. वर्तमान काल-सुद० १/६। कार्यशेषः (पु०) कार्य से मुक्त, सही कार्य से शेष/अवशिष्ट। श्यामल, कृष्णता-'काला हि बाला खलु कज्जलस्य' कार्यसम्पत्तिः (स्त्री०) प्रयोजन सिद्धि। (जयो० ११/६९) ज्ञानाचार के आठ भेदों में एक भेद कार्यसाधनं (नपुं०) प्रयोजन रूप साधक। कालाचार। (भक्ति०८) 'कालः परावर्तन कृत्तकेभ्यः' कार्यसिद्धिः (स्त्री०) कार्य की सफलता, उद्देश्यपूर्ति। (जयो० (वीरो०७/३८) काल वर्तना है-वट्टणालक्खणो कालो। २/३९) कार्यसिद्धिमुपयात्वसौ गृही नो सदाचरणतो व्रजन् कालस्स वट्टणा (प्रव०२१/४२) बहिः। (जयो० २/३५) कार्यसिद्धि-कर्मसाफल्यम्' (जयो० कालद्रव्य विशेष-जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश वृ० २/३५) और काल ये छह द्रव्य हैं। इनसे विश्व है। काल द्रव्य कार्यहेतु (स्त्री०) एक दूसरे का बाधक कार्य। अन्तिम द्रव्य है, जो कल्पित होता है, फेंकता है या कार्याकी (वि०) प्रयोजन के लिए। प्रेरित/परावर्तन करता है वह काल/कालद्रव्य है। 'कल्पते कार्यानपेक्षि (वि०) स्वाभाविक कार्य की उपेक्षा करने वाला। क्षिप्यते प्रेर्यते येन क्रियावद्रव्यं स कालः।' (त० वा० 'कार्यमनपेक्षत इति कार्यनपेक्षि'। (जयो० १६/४४) ५/२२) समय, अद्धासमय काल: समयः अद्धा इत्येकोऽर्थः। कार्यानुबन्धिन् (वि०) कार्य सम्पादन करने वाला, दृढ़ संकल्पी, (धव० ४/३१७) 'कालः श्रीमान यं क्लृप्ति कला रसाल:' कार्यशील। (दयो० ९५) 'यथेच्छमनुतिष्ठन्ति स्व- (समु०८/३) चेत्युद्गलार्द्धः परिवर्तकालोऽव शिष्यतेऽस्वकार्यानुबन्धिनः। (दयो० ९५) नादितयाशयालोः। (सम्य० ४७) कार्याभिरत (वि०) कार्यपरायण, कार्य में तत्पर। यतः प्रातः काल-अभिग्रहः (पुं०) काल सम्बंधी नियम, भिक्षा विषयक कार्यमुताद्यैव कार्यमद्यापि शीघ्रतः। नर्गतेऽवसरे पश्चात् । अभिग्रह/नियम। कुतश्च न भवेदतः।। (दयो० वृ०७०) पितुराज्ञा शिरोधार्या कालंतकि (वि०) काल बिताने वाले, समय व्यर्थ करने वाले। कार्याऽस्माभिरतो द्रुतम्। (दयो० ७०) (सुद० ४/४७) कार्यारम्भः (पुं०) प्रक्रम, प्रारम्भ, उद्यत। (जयो० २/३५, कालकझं (नपुं०) नीलकमल, अरविंद। (जयो०३/१४)। कालकुटः (पुं०) शिव। For Private and Personal Use Only Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कालकणं २८६ कालयावनं कालकणं (नपुं०) समयावधि, नियत समय। कालकटं (नपुं०) कल्याण, हित। कालकष्ठः (पुं०) मयूर, मोर। कालकर्णिका (स्त्री०) दुर्भाग्य, विपत्ति। कालकर्णी (स्त्री०) विपत्ति, वज्रपात, दु:ख। कालकर्मन् (नपु०) मरण, मृत्यु, विनाश। कालकलित (वि०) समय बाधित। कालकालः (पुं०) किसी प्राणी का जो काल हो। कालकीलः (पुं०) यमराज। कालकूटः (पुं०) विष, हलाहल विष, मारक विष, तत्कालिक, प्रभावी विष। कालकृत (वि०) समय पर किया गया। कालकृतु (पुं०) मयूर, २. सूर्य। कालक्रमः (पुं०) समय का क्रम। कालक्रमोत्तरः (पुं०) काल के क्रम से। कालक्रियाः (स्त्री०) नियत क्रिया, मृत्य। कालक्षेपः (पुं०) काल व्यतीत, विलम्ब, समय का क्षय। (समु० २/२९) शेष समय। (दयो०८३) (वीरो०८/१३) 'सुखेन कालक्षेपं कर्तुमर्हामि' (दयो० ८३) कालखञ्जनं (नपुं०) १. यकृत्, जिगर, हृदय। २. गंगा यमुना नदी। कालग्रन्थिः (नपुं०) समयचक्र, परिवर्तन, परावर्तन, वर्तना। जीवन की परिस्थितियां। (वीरो० १८/६) कालचारः (पुं०) समय तक चर्या। कालचिह्न (नपुं०) मृत्यु के सन्निकट। कालचोदित (वि०) काल/यम द्वारा आहूत। कालज्ञ (वि०) समय वेत्ता, काल को जानने वाला। कालज्ञानाचारः (पुं०) पाठ-पठन का समय, स्वाध्यायादि का समय, ज्ञानाचार के भेदों में एक भेद।। कालत्रयं (नपुं०) तीन काल, तीन समय, तीन बार। 'पर्वण्युपोषिता कालत्रये सामायिकं श्रिता।' (सुद० ४/९३) १. भूत, भविष्यत् और वर्तमानकाल। २. प्रातः दोपहर और सायं इन तीन समय में तीन सन्ध्याएं। तीन सामायिक। कालदर्शी (वि०) समयज्ञ ज्ञाता, मृत्यु। कालदण्डः (पुं०) मृत्यु, मरण। कालदोषः (पुं०) विपरीत काल का प्रयोग। 'कालदोषः अतीतकाल-व्यत्यय:।' कालधर्मत् (पुं०) विशेष समय के लिए धर्माचरण, निर्दिष्टकाल। कालधारणा (स्त्री०) समय वृद्धि। कालनिधिः (स्त्री०) ज्योतिष सम्बन्धी ज्ञान। 'काल नामानि निधौ कालज्ञानम्' सकल ज्योतिः शास्त्रानुबन्धिज्ञानम्' (जैन०ल०३४८) कालनियोगः (पुं०) भाग्य समावेश, नियति का निर्णय। कालनिरूपणं (नपुं०) समय निर्धारण, समय की प्ररूपणा। कालनेमिः (पुं०) समयचक्र, कालचक्र। कालपक्व (वि०) समय पर पका हुला, स्वतः स्फूर्त, स्वयमेव परिपक्वगत। कालपरिवर्तनं (नपुं०) एक काल से दूसरे काल में जन्म। कालपरिवासः (पुं०) अल्प परि पतन। कालपाशः (पुं०) यमजाल, मरणजाल। कालप्रत्यख्यानं (नपुं०) समय पर नहीं होने वाली क्रियाओं का परित्याग। कालपाशिक (वि०) ०यम तक ले जाने वाला, ०यमलोक पहुंचाने वाला, मृत्यु लेने वाला, प्राणहर्ता, जल्लाद। कालपुरुषः (पुं०) कर्म-वेदन शील पुरुष। कालपूजा (स्त्री०) पर्वादि समय की पूजा। कालपृष्ठ (पुं०) काला हिरण। कालप्रतिक्रमणं (नपुं०) त्रैकालिक प्रतिक्रमण। कालप्रभातः (पुं०) शरत्काल, शरद ऋतु। कालप्रभावः (पुं०) ०समय गत प्रभाव, ०समय गति । आत्मा भवत्यात्म- विचारकेन्द्रः कर्तुं मनाङ् नान्यविधिं किलेन्द्रः। कालप्रभावस्य परिस्तवस्तु यदन्यतोऽन्यत्प्रतिभाति वस्तु।। (वीरो० १८/५) यद्यस्मिन्समये प्रकर्तुमुदितं तत्रोद्गरेत्तन्मुनिः कालं कार्यकरं समर्थयति यत्सर्वज्ञदेवो गुणी। तावाद्य प्रभवन्ति कल्पतरव: कालप्रभावोदहयं नात्रोत्पत्रजनोऽधुना प्रतिभवेच्छुद्धोप- योगाश्रयः।। (मुनि० २९) कालबाल: (पुं०) श्यामल केश-कालानां श्यामतानां बालानां श्रेणी पंक्तिरहित' (जयो० ३/५५) कालभक्षः (पुं०) काल ग्रस्त। कालमंगलं (नपुं०) पाप विनाशक मंगल। कालमानं (नपुं०) समय का प्रमाण। कालमाश्रितवती (वि०) योग्य समय युक्त। (जयो० ३/११) कालमासः (पुं०) मास की प्रधानता। कालमुख (नपुं०) लंगूरों की विशेष जाति। कालमेषी (स्त्री०) मंजठे की लता। कालयवन् (पुं०) यवनों का काल। कालयावनं (नपुं०) देर करना। For Private and Personal Use Only Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra कालयुति कालयुति (स्त्री०) काल सम्भालना । कालयोगिन् (पुं०) मृत्युंजयी । कालरजनी (स्त्री०) श्यामल रात। कालरात्रिः (स्त्री० ) अंधेरी रात। कालरोगः (पुं०) विकराल व्याधि, मृत्यु। काललब्धिः (स्त्री०) सम्यक्त्व के ग्रहण करने योग्य समय। कातलब्धि तो छमस्थ ज्ञान से बाहर की चीज है। (सम्य० ७३ ) काललोकः (पुं०) समय आवलि आदि। 'काललोक: समयावलिकादिः । " www.kobatirth.org कालवर्गणा (स्त्री०) लोक प्रमाण विशेष एक समय से लेकर असंख्यात लोक प्रमाण तक। कालवादः (पुं०) काल को महत्व देने वाला विचार । 'सव्वं कालो जणयदि भूदं सव्वं विणासदे कालो। ' (अंगपण्णत्ति०२७७) कालविप्रकर्ष: (पुं०) कालवृद्धि । कालप्रकृष्टः (पुं०) काल का व्यधान, लाभ-अलाभ, सुख-दुःख आदि व्यधान, सूर्यग्रहण, चन्द्रग्रहण आदि । कालविमोक्षः (पुं०) पर्वादि समय पर जीवघात का निषेध । कालबेला (स्त्री०) दिन का विशेष समय। कालवृद्धिः (स्त्री०) समय का विकास। कालव्यतिरेकः (पुं०) प्रत्येक समय की पृथक पृथक् व्यवस्था। 'अपि चैकस्मिन् समये यकाप्यवस्था भवेन्न साऽप्यन्या । भवति च सापि तदन्या द्वितीय समयेऽपि कालव्यतिरेकः । (पंचाध्यायी १/१४९) कालशत्रु ( पुं०) यमारात। (जयो० वृ० ७/३५) यमराज। कालशुद्ध (वि०) काल के शुद्ध, पात्र के लिए समयोचित शुद्धता। कालशुद्धदानं (नपुं०) दान देने के लिए निश्चित समय। 'कालं शुद्धं तु यत्किंचित्काले पात्राय दीयते' (जैन ल० ३५२) * कालशुद्धिः (स्त्री०) समय की शुद्धता, पर्व आदि पर व्यधान होने पर शुद्धता। काल-संरोष: (पुं०) बहुत समय तक काम न करना । कालसदृश (वि०) उपयुक्त, सामयिक कालसमवाय: (पुं०) काल की समानता । 'कालदो समवाओ - समय समएण मुहुत्तो मुहुत्तेण समो।' (धव० २/ २०१) २८७ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कालिकी कालसमाधिः (स्त्री०) काल की प्रधानता पूर्वक समाधि कालसर्प (पुं०) विषैला सर्प कालसंक्रमः (पुं०) एक काल से अन्य काल को प्राप्त होना । 'कालस्य अपुव्यस्स पादुब्धाओ कालसंकमो (घव० १६ / १४०) कालसंयोगः (पुं०) सुषमादिकाल का सम्बन्ध। 'कालसंयोगपदानि यथा शारदः वसन्तः इत्यादीनि' (धव० १/७८ ) काल-संसार: (पुं०) समय चक्र, दिन, रात, घड़ी, घंटादि एवं गति चक्र परिभ्रमण, विविध पर्याय की प्राप्ति कालसंस्थानं (नपुं०) कालक्षेत्र, काललोक, संचरण रूप आकार । कालसामायिकं (नपुं०) अनुकूल-प्रतिकूल समय में समभाव । सामायिक समय में स्थिति । कालसूत्र (नपुं०) मृत्युकाल । कालस्तव: (पुं०) पंच कल्याणकों का स्तवन । कालस्पर्शनं (नपुं०) काल द्रव्य का अन्य द्रव्यों के साथ संयोग। कालागुरु ( पुं०) चंदन (जयो० ११/४) 'कालागुरोर्लेपन पङ्किलत्वाद्' (जयो० ११/४) कालाणु (पुं०) काल के अणु रत्न राशि की तरह हैं, जो एक-एक लोकाकाशप्रदेश के ऊपर स्थित हैं। कालातिक्रमः (पुं०) काल/समय का उल्लंघन 'अकाले भोजनं कालातिक्रमः' (त० वा० ७/३६) कालात्ययापदिष्ट (वि०) हेतु के विषय प्रत्यक्षादि से बाधित। कालानुगमः (पुं०) काल की प्ररूपणा । जम्हि जेण वा वत्तव्वं परुविज्जदि सो अणुगमो (धव० ९ / १४१ ) कालानुपूर्वी (स्त्री० ) समय रूप स्थिति। कालानुयोग (पुं०) भेद-प्रभेद की प्ररूपणा । कालान्तर - वर्तिनी (स्त्री०) काल के अनन्तर होने वाली उत्पत्ति। कालाप: (पुं० ) [ काल+आप+घञ्] सिर के बाल, २. सर्प फन ३. राक्षस, पिशाच भूत। ४. कपाल। कालोमृत्युः आप्यते यस्मात्। For Private and Personal Use Only कालापक: (पुं० ) [ कालाप+ वुन् ] कलाप शिक्षा । कालावग्रह: (पुं०) अपनी आयु का प्रमाण ! कालिक (बि०) [काल ठक्] काल सम्बन्धी, कालाश्रित कालिका (स्त्री०) कालापन, मसी, स्याही। + कालिकी (स्त्री०) समयोचित समय के अनुकूल, समयोचित Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कालिक्युपदेशजात २८८ काश् स्थिति। समयात् स महायशाः स्थितिं करसंयोजन कालिकीमिति। (जयो० १०/५) कालिक्युपदेशजात (वि०) दीर्घकालिक उपदेश को प्राप्त। कालिङ्गग (वि०) [कलिङ्ग+अण्] कलिंग देश में उत्पन्न। कालिङ्गगः (पुं०) कलिंग देश का राजा। कालिङ्गगम् (नपुं०) तरबूज। कालिन्द (वि०) [कलिन्द+अण] यमुना नदी में प्राप्त। कालिन्दी (स्त्री०) यमुना नदी। द्विडकीर्तिः कालिन्दी, सुरसरिदस्याथ कीर्तिरुदयन्ती (जयो०६/४३) कालिन्दीजलं (नपुं०) यमुना जल। 'कालिन्दीजलमपि __ श्यामलमिति प्रसिद्धम्' (जयो० वृ० ६/१०७) कालिमन् (पुं०) [काल+इमनिच्] कालापन, कालिमा। कालिय (वि०) कालिका नाम। काली (स्त्री०) [काल+ङीप्] कालिमा, मसी, स्याई। कालीकः (पुं०) [के जले अलति पर्याप्नोति-क-अल-इकन्] क्रौञ्चपक्षी। कालीनः (पुं०) समयगत, समय से सम्बन्धित। कालीयं (नपुं०) चन्दन लकड़ी। कालुष्यं (नपुं०) [कलुष+ष्यञ्] १. कालिमा, मलिनता, पंक युक्तता। २. कषायों से उत्पन्न भाव, क्षुभित चित्त, चित्त की व्याकुलता। 'कषायैः क्षुभितं चित्तं कालुष्यम्' (नियन्टी० ६६) कालेय (वि०) [कलि+ ढक] कलिकाल से सम्बन्धित। कालेयकः (पुं०) १. श्वान, कुत्ता, कुक्कर। २. चन्दन। कालोज्झित (वि०) वर्षादि ऋतु में त्यागने योग्य। कालोत्तरः (पुं०) उत्तरोत्तर वृद्धि।। कालोपक्रमः (पुं०) काल का बोध। कालोपयोगः (पुं०) काल का संयोग। कालोपयोगेन हि मांसवृद्धी (सुद०१०२) कालोपयोग-वर्गणा (स्त्री०) उपयोग काल में निरन्तर अवस्थित। काल्पनिक (वि०) [कल्पना+ठक्] कल्पना, युक्त, खोटा, विचार शून्य। काल्याणकं (नपुं०) (कल्याण+वुञ्) मांगलिक कार्य, शुभ प्रसंग का उत्सव। गर्भ, जन्म, तप, ज्ञान और मोक्ष रूप कल्याणक। काव: (पुं०) कंकर, कणा (जयो० २/१७) कावचिक (वि०) [कवच ठञ्] कवचधारी, बख्तरबंद। कावूकः (पुं०) १. मुर्गा, कुक्कुट। २. चक्रवाक पक्षी। कावेरं (नपुं०) केसर, जाफरान। कावेरी (स्त्री०) एक नदी, जो दक्षिण भारत में बहती है। काविलः (पुं०) १. एक राजा का नाम। (जयो०६/४१) २. सुख से धनीभूत। काविलदेशः (पुं०) काविलदेश। काविलराज (पुं०) काविलदेश का राजा। (जयो० ६/४२) पुनरनु काविल राजं जनीकया तर्जनीकया कृत्वा। (जयो० ६/४१) 'अयि काविलराजोऽयं' (जयो०६/४२) काव्य (वि०) [कवि+ ण्यत्] कवि के गुणों से युक्त, छन्दोबद्ध, रचनाकर्म, बन्ध संग्रथित। 'विरोधिता पञ्जर एव भातु निरौष्ठ्यकाव्येष्वपवादिता तु।' (सुद० १/३३) काव्यकृतिः (स्त्री०) काव्यरचना, छन्दोबद्ध रचना। (वीरो० २२/३४) काव्य-खण्डः (पुं०) छन्दोबद्धता का अंश। काव्यगतकला (स्त्री०) काव्य से प्राप्त कला। (वीरो० २२/३५) काव्यचोरः (पुं०) कविकर्म का चोर। काव्यतुला (स्त्री०) काव्यतुलना। (वीरो० २/२६) काव्यपथः (पुं०) काव्य रचना, कविता मार्ग। (समु० १/१२) नाहं कविर्मय॑भवी तु अस्मि सरस्वती संग्रहणाय तस्मिन्। ममाप्यतः काव्यपथेऽधिकारः समस्तु पित्री ननु बालचारः। (समु० १/१२) गतिर्ममैतस्मरणैक हस्तावलम्बिनः काव्यपथे प्रशस्ता।' (सुद० १/३) काव्यमीमांसा (स्त्री०) साहित्यशास्त्र, काव्यगत विशेषताओं को निरूपण करने वाला शास्त्र। काव्यमीमांसावलम्बी (वि०) साहित्यशास्त्री। काव्यरचना (स्त्री०) काव्यकृति, काव्यपथ काव्यमार्ग, छन्दोबद्धमार्ग। (वीरो२२/३४) काव्यरसिक (वि०) काव्य-सौन्दर्य के इच्छुक, काव्यपथ रसज्ञ, छन्दोबद्ध रचना में तल्लीन होने वाले। काव्यलिङ्गं (नपुं०) काव्यलिङ्गमलंकार हेतु वाक्य में पदार्थ का आभास। सदसि यदपि भूभुजां च मान्यः, सेवक इव खलु भुवो भवान्यः। आत्मानं पश्यतोऽपि तस्य नान्यः, कोऽपि बभूव दृशि ज्ञस्य।। (जयो० २२/२६) उस ज्ञानी राजा की दृष्टि में कोई दूसरा नहीं रहता, सबको समान देखता। 'काव्यलिङ्गं हेतुर्वाक्यपदार्थता' काव्यशास्त्रं (नपुं०) १. वृद्धसमय। २. कविकृतशास्त्र/रचना। (जयो० वृ० २/५४) काव्योद्धरणं (नपुं०) काव्य रचना, काव्य बनाना। (समु०१/६) काश् (अक०) चमकना, रमणीय होना, दिखाई देना, आभास होना। For Private and Personal Use Only Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir काश् २८९ काश्यं काश (सक०) प्रकाशित करना, मुद्रित करवाना, जलाना, प्रज्वलित करना। काशः (पुं०) [काश्+अच्] घांस, (जयो० ९/३२) कांश विशेष का घांस, जो खेतों में अनावश्यक रूप से उत्पन्न हो जाता है, इसके ऊपरी भाग पर सफेद रुई की तरह गुच्छेदार पुष्प होते हैं, यह चटाई बनाने के काम आता है। काशम् (नपुं०) काश पुष्प। (जयो० ९/३२) काशयशः श्रियि (वि०) काश के पुष्प की तरह यश एवं लक्ष्मी वाले। अयि महाशय काशयशः श्रिया परिकृतोऽरिकृतोऽसि मयाऽधिया। (जयो० ९/३२) 'कस्यात्मन आशाऽ भिलाषा यत्र तस्य यशसः श्रिया' (जयो० वृ० ९/३२) काशि (स्त्री०) [काश्+इक्] एक देश का नाम। काशि (स्त्री०) [काश्+इन्, काश्+अच्+ङीप्] काशी नगरी, जिसे वाराणसी, बनारस भी कहते हैं, यह गंगा किनारे स्थित गोमुखी आकृति की रमणीय नगरी है। (जयो० ५/३५) काशिका (स्त्री०) काशिका नामक वृत्ति, टीका, टिप्पणी। (जयो० ९१) आचार्य पूज्यपाद की वृत्ति पाणिनीय व्याकरण पर वृत्ति काशिकानामाष्टाध्याय्या उपरि कृतां वृत्तिं सर्वतोऽपि समन्तादपि धिषणाभिर्बुद्धीभिः ययु' (जयो० वृ० ४/१६) २. नगरी-अमी सर्वे अर्ककीर्त्यादय काशिकां नगरी। (जयो० वृ०४/१६) काशिकाधिकरणः (पुं०) १. राजा अकम्पन। २. अतिवृद्ध। (जयो० वृ० ७/६३) काशिका नगरी अधिकरणं यस्य स काशिकाधिकरणोऽकम्पन: स महान् पूज्य एव, इतोऽस्मत्पावें। अथवा कस्य यमस्य याशिकाऽभिलाषा साऽधिकरणं यस्य सः, अतिवृद्ध इयवज्ञा ध्वन्यते' (जयो० वृ० ७/६३) काशिकानरपतिः (पुं०) काशिराज, राजा अकम्पन राजा। (जयो० ४/१) काशिकानृपतिः (पुं०) काशिराज, राजा अकम्पन। (जयो० ५/५५) काशिकानृपति-चित्त-कलापी सम्मदेन सहसा समवापि। (जयो० ५/५५) काशिकाया नृपतेः श्री । अकम्पनमहाराजस्य' (जयो० वृ० ५/५५) काशिकापतिः (पुं०) काशिराज (जयो० ४/२१) काशिन् (वि०) प्रभा, क्रान्ति। काशिनरपतिः (पुं०) काशिराज अकम्पन। काशिनरेश (पुं०) काशिराज। (जयो० ४/२८. ५/६) काशिनृपतिः (पुं०) राजा, काशीराज। काशिपतिः (पुं०) काशिराज। (जयो० ४/१७) काशिप्रभुः (पुं०) काशिराज। (जयो० ७/२२) काशिभूपतिः (पुं०) काशिराज, राजा अकम्पन। (जयो० ५/३५, ५/५६) काशिभूमिपतिः देखो ऊपर। काशिराज (पुं०) काशिपति, काशी का राजा। (जयो० वृ० ___७/२२) काशी (स्त्री०) [काश्+इन+ङीप्] काशी नगरी, प्राचीन नगर। 'विस्तृता व्यापन्नवर्त्मवती काशी' (जयो० वृ० ३/८४) २. शिवपूः, काशी मुक्तिश्च। (जयो० वृ० ३/११४) काशिमाशु सकलाः समवापू राजतेऽतिविमला खलु या पूः।' (जयो० ५/५) यस्या सा काशी: स्वर्गपुर्येव वर्तते।' (जयो० ७० ३/३०) श्रीधरोऽधीश्वरो यस्याः सा काशी रूचिरा पुरी। काशी (वि०) आत्माभिलाषिणी। 'क' अर्थात् आत्मा की आशा वाली आत्म स्वरूप प्राप्त करने वाली आत्माभिलाषिणी। (वीरो० १४/ काशीदेशः (पुं०) काशीक्षेत्र। (जयो० ९/३०) काशीनरेशः (पुं०) काशी राजा, श्रीधर राजा का बड़ा भाई। (जयो० वृ० ३/९०) काशीनगरी (स्त्री०) काशीपुरी। (जयो०८/६७) काशीपतिः (पुं०) काशिराज, अकम्पन, शान्तिवर्मा राजा। (जयो० ३/७१) काशीराज (पुं०) काशिराज अकम्पन राजा। काशीविशा (पुं०) काशपति। काशीशसुतः (पुं०) काशिराज का पुत्र। काशीशसुता हेमाङ्ग वाद्या इतो जयकुमारपार्श्वतो (जयो० वृ०८/५३) काशीश्वर-तनु (पुं०) काशिराज का पुत्र। काश्चन (अव्य०) किसी, कोई। स कमप्यद आह काश्चनाएँ। (जयो० २/१११) काश्भरी (स्त्री०) एक लता, छोटा पादक विशेष, जो गंध युक्त होता है। काश्मीर (वि०) काश्मीर देश का उत्पन्न। (जयो० ६/७३) काश्मीरं (नपुं०) केशर।। काश्मीरज (वि०) काश्मीर में उत्पन्न। (जयो० ६/७६) काश्मीरजन्मन् (नपुं०) केशर, जाफरान। काश्मीरपतिः (पुं०) कश्मीर देश का राजा। अयमस्ति रतिप्रतिमे काश्मीर पति: रतीशमतिः। (जयो० ६/७३) काश्यं (नपुं०) मदिरा, मद्य, शराब। कुत्सितं अश्यं यस्मात्। For Private and Personal Use Only Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir काश्यपः २९० काहलं काश्यपः (पु०) [कश्यप+अण] कणादऋषि। काश्यपी (स्त्री०) [काश्यप+ ङीष्] भूमि, भू, धरा, पृथ्वी। काषः (पु०) [कष्+घञ्] रगड़ना, खुरचना। काषाय (वि०) (कषाय+अण्] गेरुआ, लाल रंग में रंगा हुआ। काष्ठं (नपुं०) लकड़ी. ईंधन की लकड़ी। (जयो० ६/२९) १. लट्ठा, लट्ठ, २. माप विशेष। (वीरो० २। ३. दिशा (जयोc ६/२९) काष्ठ-कदली (स्त्री०) जंगली केला। काष्ठकर्मः (पुं०) काष्ठ सम्बन्धी क्रियाएं, काष्ठ की प्रतिमा। आदिकर्म काष्ठे क्रियन्ते इति निष्पत्तेः' कट्ठेसु जाओ पडिमाओ घडिदाओ दुवय-चउप्पय-अपाद-पाद-संकुलाणं ताओ कट्ठकम्माणि णाम (धव० १३/२०२) काष्ठकीट: (पु०) घुग, एक क्षुद्र जन्तु, जो लकड़ी को घुण करता है। काष्ठ-कूटः (पु०) खुटबढ़ई, कटफोड़वा। काष्ठ-कुट्टः (पुं०) कटफोड़वा एक पक्षी। काष्ठ-कुदालः (पुं०) लकड़ी के कुदाल। काष्ठतक्ष (पु०) बढ़ई, सुथार, विश्वकर्मा। काष्ठतक्षकः ( पु०) बढ़ई, सुनार, विश्वकर्मा। काष्ठतन्तुः (पुं०) शहतूत का कीट! काष्ठदारुः (पुं०) देवदारू। काष्ठद्गुः (पु०) ढाकवृक्ष, पलाश तरु। काष्ठनिचयः (पुं०) दारुसम्भर, लकड़ी समूह। (जयो० ४/५१) काष्ठपुत्तलिका (स्त्री०) कठपुतली। काष्ठफलकः (पुं०) लकड़ी का तख्ता। (दयो० २/१३) काष्ठभारिकः (पुं०) लकड़हारा। काष्ठभारिका (स्त्री०) लकड़हारिन्। काष्ठमठी (स्त्री०) चिता। काष्ठमल्लः (पुं०) अर्थी। काष्ठलेखकः (पुं०) धुण, लकड़ी का कीट। काष्ठलोहिन् (पुं०) लोह युक्त दण्ड. बांस के दण्ड में जड़ा जाने वाला लोह। काष्ठवारः (पुं०) लकड़ी की दीवार। काष्ठसंघः (पुं०) दिगम्बर साधुओं का संघ। (सुद० ४/२६) काष्ठा (स्त्री०) [काश्+कथन-टाप्] १. दिशा, प्रदेश, भाग, हिस्सा, २. प्रमाण विशेष-'पञ्चदशाक्षिनिमेषा काष्ठा' (धव० ६/६३) 'पञ्चदशनिमिषैः काष्ठा' (पंचा०वृ०२५) काष्ठागत (वि०) सम्पूर्ण दिशाओं स्थित। (जयो० ६/२९) काष्ठासु दिक्षु गतानां स्थितानाम् (जयो० ७० ६/२९) काष्ठाद् इन्धनागत उपलब्धो य' (जयो० वृ० ६/२९) काष्ठांगारः (पुं०) एक धूर्त मंत्री, जिसने जीवंधर कुमार के पिता का विनाश किया। काष्ठागारः (पुं०) काष्ठनिर्मित गृह, लकड़ी का घेरा। काष्ठाभ्यन्तरः (पुं०) काष्ठा का भीतरी भाग। (दयो० ३२) काष्ठाम्बुवाहिनी (स्त्री०) लकड़ी का ढोल। काष्ठासंघः (गुं०) दिगम्बर साधुओं की एक प्राचीन परम्परा का संघ। काष्ठिकः (पुं०) [काष्ट ठन्] लकड़हारा। काष्ठिका (स्त्री०) पाटा, लकड़ी का टुकड़ा। काष्ठी (स्त्री०) एक ग्रह। काष्ठीला (स्त्री०) [कुत्सिता ईषत् वा आष्ठीलेव] केल-तरु, ___ कदली पादप। काष्ठोलूखलः (पुं०) काष्ठ का ऊखल। (जयो० वृ०२/८०) काष्ठोदयः (पुं०) समिधा समूह, काष्ठसंग्रह। (जयो० १५/६७) कास् (अक०) १. चमकना, स्फुरित होना, खांसना। कासः (पुं०) [कास्+घञ्] खांसी, जुकाम, कफ की प्रवृत्ति बढ़ना। (जयो० १०/६२) णमो कुट्ठबुद्धीणं मंत्र जाप से भी यह रोग शांत होता है। कासकुष्ठ (वि०) कफ से पीड़ित, खांसी से व्याकुल। काष्ठहृत (वि०) खांसी दूर करने वाला। कासरः (पुं०) [के जले आसरति- क+आ+ऋ+अच्] भैंसा। कासरी (स्त्री०) भैंसा। कासारः (पुं०) [कास्+आरन् कस्य जलस्य आसारो यत्र] जोहड़, तालाब, सरोवर। (वीरो० १२/१००) कासीर-तीरः (पुं०) सरोवर के निकट, सरोवर तट। (वीरो० १२/१) कासू (स्त्री०) ०कुन्तल, भाला, ०एक नुकीला अस्त्र। ०शक्ति। (जयो०८/३) कासृतिः (स्त्री०) [कुत्सिता सरणि:] पगडंडी, गुप्तमार्ग। काहल (वि०) [कुत्सितं हलं वाक्यं यत्र] शुष्क, मुरझाया, उदासीन, खिन्न। काहल: (पुं०) विडाल, विलाव, मुर्गा, कौवा। काहलं (नपुं०) वाचाल वचन, अस्पष्टवाणी, अव्यक्त वर्ण, असत्य भाषण। For Private and Personal Use Only Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir काहलत्व २९१ किमिति काहलत्व (वि०) उच्चारण की स्पष्टता रहित, अव्यक्त वचन वाला। काहली (स्त्री०) तरुणी, यौवना। किं (सर्व०) कः (पुं०) कि (नपुं०) क्या। का (स्त्री०) (अव्य०) (किं०) किं पश्यस्यपि (जयो० १२/ १२८) (सुद० ३/४२) तत्त्वतः कः किं कस्य सिद्धिरनेकान्तस्य। (सुद० ९१) कः (प्रथमा) कः परलोक (सुद० ११) किं का तृतीया में-केन, काभ्याम् कैः। केनोद्धत: स्तम्भ इवायि देव। (सुद० २/१४) यस्या न केनापि रहस्य भावः। (सुद० २/२०) कं-द्वितीया एक वचनकं लोक (जयो० १/११०) करोत्यनूढा स्पयको तु कं न। (सुद० २/२१) कस्य-(६/१) सुद० ३/४७। कस्मैः (४/१) सुद० १२५ । किं कर्त्तव्य-विमूढः (पुं०) अवाक। (सुद० ७९) किंकरता (वि०) कर्त्तव्यशीलता. सेवकपना। (वीरो० ९/२८) (जयो० २०/७४) किंकिरारातः (पुं०) [किंकर+अत्+अण] कीर, तोता, शुक। १. कोमल, २. कामदेव, ३. अशोक तरु। किं करणी (वि०) कर्मकारिणी, कर्मचारिणी। (जयो० ११/९९) किङ्करः (पुं०) भृत्य, नौकर। (जयो० ७/६३) किङ्करी (स्त्री०) अनुचरी। (जयो० वृ० १०/११) किङ्किरिणी (स्त्री०) दासी, अनुचरी। (सुद० ७५) किंपाकः (पुं०) किंपाकफल। (जयो० २७/८४) किंवत् (वि०) निर्धन, तुच्छ, नगण्य। किं शारू: (पुं०) धान्य बाल का अग्रभाव। किंशुकः (पुं०) ढाक तरु, टेसू वृक्ष। किंशुकं (नपुं०) टेसू का पुष्प, पलाश पुष्प। (समु० ६/६) पलाशिता किंशुक एव यत्र द्विरेफवर्गे मधुपत्वमत्र। (सुद० १/३३) प्रियाल-मुनिर्वाचयमे बुद्धे प्रियाला गस्त्यकिंशुके' इति वि० (जयो० २१) किंशुलकः (पुं०) ढाकतरु। किङ्कणी (स्त्री०) [किंचित् कणति-कण इन्+ङीप्] घुघरु. आभूषण में लगने वाला क्वणित शब्दात्मक घुघरू। किणिका देखो ऊपर। किङ्किणीका (स्त्री०) धुंघरु। (वीरो० २/३५) किञ्च (अव्य०) कुछ, थोड़ा। (जयो० १/२३) किसी (समु० २/३०) किञ्चित् ( अव्य०) ०कुछ, ०थोड़ा सा, अल्प, ०बहुत कम। (सुद० १०३) भक्ति०२। 'किञ्चिच्छुभोदर्कवशात्तथेतः' (सुद० ४/१८) | किञ्चित् कालः (पु) कुछ समय, अल्पकाल। किञ्चित्कालमतिक्रम्य द्विगुणत्वमथाञ्चति। (सुद० १२६) किञ्चिदपरमपि (अव्य०) कुछ अन्य नहीं। (दयो० ९४) किञ्चिदपि (अव्य० ) ०कुछ भी, ०अल्प भी. ०थोड़ा सा भी। (दयो०) किञ्चिद-वृत्तं (नपुं०) कुछ गोलाकार। (सुद० १२२) किञ्जलः (पुं०) एक लघु पादप. पानी में खिलने वाला कमलाकार छोटा पुष्प। किञ्च (अव्य०) कुछ भी। (जयो० वृ० १/२) किटिः (स्त्री०) [किट इन्+किञ्च] सूकर, सुअर। किटिभः (पुं०) जू, लीख, खटमल। किट्टम् (नपुं०) कीट, मेल मला (जयो० २८८१) किट्टप्रतिपातिः (वि.) कीट विमुक्त। (वीरो० १७/७) किणः (पुं०) १. अन्न, धान्य कण। २. यश, गुण-नृपतेस्तु मुदे नदी किण-स्थिरतेवाग्रिमवर्षपत्रिणः' (जयो०१३/५४) ३. चिन्तन करना-समनुभवंत स्वात्मनः किणम्' (सुद० १२२) 'किणं गुणं विकीर्णधान्यञ्च धरति' स्वीकरोति' (जयो० वृ० ७/९०) किण-धारिन् (वि०) गुणधारी (जयो० वृ० ७/९०) किण-धारिणः किल पुनीत-पक्षिण:।' (जयो० ७/९०) किण्वं (नपुं०) [कण+क्वन्] पाप कित् (सक०) १. चाहना, इच्छा करना। २. चिकित्सा करना। कितवः (पुं०) धूर्त, झूठा, कपटी, छली। (जयो० १६/७०) २. धतूरा पादप। किन्तु (अव्य०) जो कि, परन्तु, तथापि (समु० ३/११, जयो० १/१५) किन्धिन् (पुं०) [किं कुत्सिता धीर्बुद्धिरस्य किं धी+इनि] अश्व, घोटक। किन्तु किं (अव्य०) किन्तु क्या (जयो० ४/४०) किंतया (अव्य०) उसमें भी क्या। (सुद० ९८) किमस्मदीय (वि०) क्या हमारे जैसे। (वीरो० ८/२९) 'किमस्मदीय-बाहुभ्यां प्रियाया गलमालभे।' किमिति (अव्य०) क्या। गम्यतां किमिति सम्प्रति। (जयो० ४/५) For Private and Personal Use Only Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir किमिच्छदानं २९२ किलाकं किमिच्छदान (नपुं०) इष्ट दान क्या है? (सुद० २/१५) किरातः (पुं०) [किरं पर्यन्तभूमिम अतति गच्छतीति किरातः] किमिदानी (अव्य०) इस समय और क्या? 'किमिदानी न । चिलात. पर्वतीय जाति के लोग, भील या आदिवासी। दानिन् रस यामि।' (सुद० ७३) किराती (स्त्री०) चिलाती, भीलनी। किमिह (अव्य०) और तो क्या? 'किमिह पुनर्न बभूव विषादी' किरिः (पुं०) [कृ-इ] सूकर, ग्रामसूकर , किरिश्व समस्तु (सुद० ११२) हरिय॑स्य (जयो० २३/४९) २. मेघ, बादल उवराह। किमु ( अव्य०) क्या? कभी। किमु बोजव्यभिचारि-अङ्करः किरीटः (पुं०) मुकुट, शिरोपधान। (जयो० १७/६६) (सुद० ३/८) क्षौद्र किलाक्षुद्रमना मनुष्य: किमु सञ्चरेत्। किरीदाच्छादनं (नपुं०) शिरोपधान, मुकुटधारक। (जयो० (सुद० १३०) किमु मस्तकेन चरणं (जयो० २/११५) १७/६६) किमु न (अव्य०) क्यों नहीं। (सुद० ९२) किरीटिन् (वि०) [किरीट+इनि] मुकुटधारी। किमुत (अव्य०) इधर क्या। (सुद०८१) क्यों नहीं। (वीरो० किर्मीर (वि०) [कृ+ईरन्] चितकवरा, रंग-बिरंगा। १/१०) क्रियमाण (वि०) किया जाने वाला। (जयो० १/११) किन्न (अव्य०) जैसे कि (सुद० ७८) किल (अव्य०) निश्चय या निर्धारण सम्बन्धी अव्यय। निश्चय किन्नहि (अव्य०) क्यों नहीं। (सुद०८१) ही। (जयो० १/७) वीरो०१/५। अवश्यकिन्तरः (पु०) किन्नर नामक देव, गन्धर्वि। किन्नरनाम अतएव-(सुद० ९९) कर्मोद्यात् किन्नरा। (त० वा० ४११) नहि किन्नर एष अपूर्व-पूर्णाऽऽशास्तु किलाऽपरिघूर्णा (सुद० ९९) विन्नरो (जयो० १०/७९) अत्यन्त-एकाकिनं यथाजाते किलाऽऽनन्देन मण्डिता। (सुद० किन्नरी (स्त्री०) १. देवांङ्गना. गन्धर्वणी। (दयो० १०९) ९७) कुत्सितनरी किन्नर (जयो० ११/१३) २. नीच जैसा कि 'भोगानात्मनाऽनुभवितुं किल रोगान्, (समु०५/३) स्त्री-अतिमार्दवतो नभश्चरी स्ववभातीव गुणेन किन्नरी। एवं, प्रकार-किलेत्येव प्रकारा परिस्थितिः (वीरो० २/४१) (समु० २०८) वास्तव में-'किलार्य खण्डोत्तम नामधेयम्' (सुद० १/१४) किन्नु (अव्य०) क्यों नहीं, क्या नहीं। सागसोऽप्याङ्गिनो रक्षेच्छक्त्या ऐसा, इस प्रकार का-शयनीयोऽसि किलेति शापित (सुद० किन्नु निरागसः। (सुद० ४/४१! ३/२२) किन्मुचित् ( अव्य०) क्या कभी नहीं। (जयो० २/६५) किन्तु-तकाञ्छतत्वेन किलारि नार्यः (जया० १/२६) किन्नेति (अव्य०) क्यों नहीं क्या नहीं। 'किन्नेति चेतसि स क्योंकि (जयो० १/२३) भद्रतया विचार्य। (सुद० ४/२४) यद्यपि-'प्रवादस्य किल प्रपूर्ति (सुद० १/३५) कियंत् (वि०) कितना बड़ा, कितना बृहद, किन गुणों का. परन्तु-किलानकोऽप्येष पुन: प्रवीण:। (सुद० २/२) 'तक किस गिनती का। पर्यन्त-दीर्थोऽहिनीलः किल केशपाशः। (सुद० २.८) घृणा, कियद्विधा (वि०) कतिपय प्रकारा, कितने प्रकार का। (जयो० कारण, हेतु, आशा, संभावना आदि में भी किल का २३.३०) प्रयोग होता है। किरः (पुं०) [कृतक] सूकर। किलः (पुं०) [किल+क] क्रीड, क्रीडा, खेल। किरकः (पुं०) [कृ+ण्वुल] १. लिपिक, लेखाकार, २. सूकर। किलकिंचितं (नपुं०) उत्तेजना, प्रेम-मिलन पर हास-परिहास। किरणः (पुं०) प्रभा. चमक, कान्ति, चन्द्र, सूर्य, प्रकाश। किल-किलः (पुं०) हर्ष, आनन्द, किलकारी, गुंजन, गुंज। (जयो० १,१०५) किलकिलाटः (पुं०) छोंक। किलकिलाटवदङ्गगतं न तु किमु किरणक्षेपक (वि०) करकृत, प्रकाश करने वाला। (जयो० न पश्यसि गोरस-सारिक। (जयो० २४/१३७) वृ० १८.९४) किलकिलायते-किलकारी करना, हर्षित करना। किरणमय (वि०) प्रकाश युक्त। किलाकं (अव्य०) निश्चय ही, वास्तव में। भाग्येन तेनास्तु किरणमालिन् (पुं०) सूर्य, दिवाकर। समागमोऽपि साकं किलाकं यदि नोऽथलोपि। (सुद० किरणसंसर्गः (पुं०) प्रभावलम्बन। (जयो० १/१०५) २/२२) For Private and Personal Use Only Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir किलानकं २९३ कीर्तनं किलानकं (नपुं०) निरूपद्रव, शुभ्र, श्वेता शशिबिम्बमिरातपत्रक | कीटः (पुं०) [कीट+अच्] कृमि, कीड़ा क्षुद्र जंतु।। भवत: प्राभवतः किलानकम् (जयो० २६/१५) कीटकादीनां च सा तथा (दयो० १/२३) । किलायसः (०) लोह परिणाम, कठोर भाव, लोहे से निर्मित। । कीटकः (पुं०) [कीटकन्] कृमि, कीड़ा। २. एक जाति (जयो वृ० ७/१०३) विशेष। किलालकः (पुं०) चूर्ण कुन्तल, केश समूह। कृत्वा करं कीटानुवेध रहित (वि०) कोट/कृमि के भेद से रहित। मृदुनाशकेन किलालकच्छविलाञ्छितम्। (जयो० १८/१०३) कीदृक् (वि०) कैसा, किस तरह का। (मुनि० १५) किस किलिंज (नपुं०) [किलि+जन्+ड] १. चटाई. आसन। २. प्रकार का, किस स्वभाव का। 'कः कीदृक् कार्यपरायण' फलका (जयो० वृ० ३/३) किल्विन् (पुं०) [किल्+क्विप्] अश्व. घोड़ा। कीदृग् देखो ऊपर। किलेतः (अव्य०) इस तरह की। चाण्डालचेतस्युदिता किलेतः । कीदृगनार्यः (पुं०) कैसा अनार्य। (जयो० वृ०४/४८) सविस्मये दर्शक सञ्चयेऽतः। (सुद०८/९) कीदृगिति (अव्य०) इस प्रकार का कैसे। ज्ञानवतो भोजनं किलैकदा (अव्य०) कभी-कभी, किसी तरह से भी। 'ममैकाकी कीदृगिति कथयति। (जयो० २७/४६) किलैकदा' (सुद० ८५) कीदगेतदिति (अव्य०) कहीं पर भी। 'कीदृगेतदिति केन किलैक-लोकः (पुं०) भले-बेरे लोग। 'विरज्यतेऽतोऽपि | वोच्यते' (जयो० २।८३) किलैकलोकः' (सुद० १/१०) कीदृश् (वि०) किस प्रकार का, किस प्रकृति का, कैसा। किशलयः (पुं०) [किंचित् शलति-किम्+शल न कयन्] (जयो० १/९४) कौपल. अंकुर, पल्लव, कुपल (जयो० १२/१०६) कीदृशासन् (वि०) किस प्रकार का होता हुआ। (जयो० १/५) किशोरः (वि.) [किम्। श+ ओरन] वत्स, बछड़ा, बच्चा, कीदृशी (अव्य०) किस प्रकार की, किस स्वभाव की। (जयो० तरुण १६ से कम आयु का युवक। २. अनङ्कुरिरतकूर्चक, ११/७२) दाड़ी, मूंछ रहित (जयोल वृ० २/१५३) कीनाश (वि०) निर्धन, दरिद्र, कृपण, तुच्छ, लघु, किशोरवयस् (पुं०) किशोर वूय, युवा। (जयो० २/१५९) निम्न, नीच, ०पतित, अधर्म, गिरा हुआ। किशोरी (स्त्री०) सोडशी, प्रौढवयस्वा, तरुणेंगिता, तरुणी। | कीनाश: (पुं०) यमराज, यम। (जयो० वृ० १२/१११) कीरः (पुं०) [की इति अव्यक्त शब्दं ईरयति की+ई+अच] किष्किन्धः (पु०) गिरि, पर्वत विशेष। शुक, तोता। (जयो० ११/६०, समु० ५/८) किष्कु (वि०) दुष्ट, नीच। १. प्रमाण विशेष, दो हाथ प्रमाण। कीरसमूहः (पुं०) शुकसन्निचय। (जयो० वृ० १३/४०) ___-'द्विहस्त: किष्कु:' (त० वा० ३/३) कीरा (वि०) कश्मीर निवासी। किसलयः (पुं०) पल्लव, अंकुर, प्रवाल. कुपल युक्त कोंपल। | कीर्ण (वि०) [कृ+क्त] व्याप्त, विस्तृत। किसलयशकलोदित (वि०) पल्लव खण्ड। किसलायानां कीर्तितन्तु (वि०) स्नेह प्रकट करने वाला। (वीरो० ९/२९) सद्योजातपल्लवानां शकलानि खण्डानि तेभ्यो उदितेन (जयो० कीर्तिदेव (पुं०) कदम्बराज। (वीरो० १५/४२) १४/४२) कीर्तिपाक (पुं०) चौहानवंश का राजाः (वीरो० १५/५) फैला कीकट (वि०) दरिद्री, निर्धनता युक्त। हुआ, फेंका हुआ, क्षिप्त। स्थानं संयमघातकं शठजमैः कीकशः (पुं०) अस्थि, हड्डी। (जयो० २५/२०) कीर्णं च दूरात्यजेत्। (मुनि० २९) 'यत्र गंधोदसंसिक्ताः कीकसा (वि०) [की-कुत्सितं यथा स्यात्तथा कसति] कठोर, कीर्णपुष्पाश्च वीथय:' (जयो० ३/८३) कीर्णानि इतस्ततः दृढ़, शक्तिशाली। क्षिप्तानि (जयो० वृ० ९/८३) कीकसं (वि०) अस्थि, हड्डी। (दयो० ४२) कीर्णिः (स्त्री०) फैलाना, फेंकना, छिपाना, गुप्त करना, कीकसदामः (पुं०) हड्डियों की माला। (दयो० ४२) ढकना, आच्छादित करना। कीचकः (पुं०) बांस, छिद्र युक्त बांस, खोखला बांस। २. एक | कीर्तनं (नपुं०) [कृत् ल्युट्] वर्णन, स्तुति, विवेचन, गुणगान। जाति विशेष। (जयो०२/६०) For Private and Personal Use Only Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कीर्तिः २९४ कुगत कीर्तिः (स्त्री०) [कृत क्तिन्] यश, प्रसिद्धि, ख्याति, प्रभा, कान्ति। (जयो० वृe १/४५) (जयो० ६/८८) (वीरो० २/२०) नामविशेष (जयो० १/७१) 'कीर्तिः गुणोत्की "निरूपा कीर्तन्ते जीवादयस्तत्त्वार्थी यया सा। कीर्तिगानं (नपुं०) यशोगान। (जयो० २४/८०) कीर्तिजयी (वि०) यशस्वी। कीर्तित (वि०) उच्चारण सकेत। कीर्तिधर (वि०) ख्याति प्राप्त, प्रसिद्धि युक्त। कीर्तिबहुल (वि०) यशोमय। (जयो० वृ० १/५) कीर्तिभाज् (वि०) यशस्वी। कीर्तिमय (वि०) कीर्तियुक्त। (सुद० ८२) कीर्तिलोदत्री (वि०) भ्रकुटी चढ़ी हुई। (जयो० १६/८०) कीर्तिवार्ता (वि०) यशोगान युक्त, संकथा। (जयो० वृ० ३/३५) कीर्तिवृक्षः (पुं०) यशोवृक्षा (जयो० ७० ६/८०) कील (सक) बांधना, बंधन युक्त करना, आधीन करना। कीलः (०) । कोल्+घञ्] कील, लोला, खूटी। २. आयुध, नांक युक्त शस्त्र। कीलकः (पुं० [कील। कन्] खूटी, खंभा, स्तम्भ, खील। २. बाण। (वीरो० १७/४२) कीलनं (नपुं०) बन्धन, बंधना। किमधुना न चरन्त्यसवश्चरा: स्वयमिता: किमु कीलनमित्वराः। (जयो० ९/७) कीलाल: (पुं०) [कील+अल+अण] अमृत तुल्य पेय पदार्थ। किलिकिंचितं (नपुं०) रोष, भयादि का मिश्रण। किल्विषः (पुं०) पाप किल्विषकर्मा (वि०) घृणित कार्य करने वाले, पाप बंध युक्त ___ कार्य करने वाले। किल्विषिकः (पु०) देव जाति का एक नाम। किल्विषं पापं येषामस्ति ते किल्विषिकाः (स०सि०४/४) किल्विषिक-भावना (स्त्री०) दोष युक्त भावना। तित्थयराणं पडिणीओ संघस्स य चेइयस्स सुत्तस्स। अविणीदो णियडिल्लो, किव्विसियेसूदवज्जेइ।।(मूला | ०२:३०) क्रीड् (अक०। खेलना। क्रीडनकः ( पुं०) खिलौना। (जयो० वृ० १/१०) कीलिका (स्त्री०) [कील-कन्-टाप धुरे की कील, कीला। कीलिका संहननं (नपुं०) कीलों सहित होना। (त० वा० ४/११) कीलित (वि०) कीलन, उखाडने वाला। सद्यो विनाशमायाति कीलोत्पाटीव वानरः। (दयो० २/१३) कीश (वि०) नग्न। २. लंगूर, वानर, ३. सूर्य, ४. पक्षी। कीशकुलोद्भव (वि०) कीश/वानर कुल में उत्पन्न होने ____ वाले (वीरो० ९/२) कु (अव्य०) त्रुटिपूर्ण कार्यों के संकेत में इसका प्रयोग होता है। ०पापजन्य, निन्दनीय, अनिष्ट, हानिकारक। ०अभावयुक्तनीय, निम्न, ह्रास युक्त। (सम्य० ९२) कु (अक०) ध्वनि करना, शब्द करना। ' कु (पुं०) कवर्ग क, ख, ग, घ, ङ। (जयो० वृ० १/३९) . कुकर (वि०) पाप करने वाला, नीचता करने वाला। कुकर्मन् (नपुं०) निम्न कार्य, नीच कार्य, अधम प्रवृत्ति। (सम्य० ७५) अक्षाधीनधिया कुकर्म-कलना मा कुर्वतो मूढ! ते। (मुनि० १९) कुकर्म-कथा (स्त्री०) निम्न कार्य सम्बंधी कथा, नीच/पाप जन्य कहानी। (सुद० ९०) छन्नमित्यविपन्नसमया खलु कुकर्मकथा तु। (सुद० ९०) कुकर्मकलना (स्त्री०) खोटे कर्मों का बन्ध। (मुनि० १९) कुकभं (नपु०) [कुकेन आदानेन पानेन भाति कुक+भा+क] मदिरा, मद्य, सुरा! कुकीलः (पु०) पर्वत, पहाड़, गिरि। कुकुदः (पुं०) अलंकार, विभूषण, आभूषण। कुकुंदरः (पुं०) नितम्ब का ऊपरी भाग। कुकुरा (स्त्री०) एक देश, दशाह नामक देश। कुकूलः (पुं०) भूसी, तुष, चोकर। कुकूलं (नपुं०) छिद्र, गर्त, खाई! कुक्कुटः (पुं०) १. मुर्गा। २. चिनगारी, ताम्रचूड। (जयो० १/७८) कुक्कुटवाक् (नपुं०) मुगे की बांग। 'श्रुतकुक्कुटवाक् प्रगेतरां' (जयो० १०.८) कुक्कुटी (स्त्री०) मुर्गी। ताम्रचूड। कुक्कुभः (पुं०) [कुक्कु शब्दं 'भाषते कुक्कु भाष+ड] मुर्गा, कुक्कुट। कुक्कुरः (पुं०) [कोकते आदत्ते-कुक् क्चिय] कुक् किंचिदपि गृह्यतं जनं दृष्ट्वा कुरति शब्दायते-कुक्कु र+क, मुत्ता, श्वान (सुद० ८९) 'श्वा कुक्कुरश्चुकूज शब्दं चकार' (सुद० ४/४२) 'मृत्वा ततः कुक्कुरतामुपेतः' (सुद० ४/१८) कुगत (वि०) कुगति करने वाला। For Private and Personal Use Only Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कुगतिः २९५ कुटङ्ककः कुगतिः (स्त्री०) पाप प्रवृनि, बुरा आचरण। कुगुरु (पु.) खोटे गुरु. पाखंडी, कुगुरु कुत्सिताचार। कुगेहं (नपुं०) कस्थान, पापस्थान। कुग्रहः (१०) अमंगलकारी ग्रह, अनिष्ट ग्रह। कुङ्गलः (पू०) कारक भाग, स्तन अग्रभाग, स्तन का श्यामल प्रान्त। (जयोल १७/४३) कुक्षः (पुं०) उदर पेट। कुक्षिः (पु०) पंट, उदर, गर्भाशय! (जयो० ३/२७) गर्भ का भीतरी भाग। गर्त, गुफा। (जयो० १२/१०९) कुक्षिरमुक्ष्याः पतत् पुनाभिः कुक्षिम्भरि (वि०) [कुक्षि भृ'इन्] पेटू, पेट भरने वाला। कुच् (सक०) १. कठोर ध्वनि करना, चमकना, झुकाना। २. अंकित करना, चिह्नित करना। ३. टेडा करना, घटाना। कुचः (पु०) [कुचक] स्तन, उरोज, चूची। (सुद० १००) कालोपयोगेन हि मांसवृद्धि कुचच्छलात्तत्र समात्तगृद्धिः। स्त्री के शरीर में काल के संयोग से वक्षस्थल पर मांसवृद्धि होती है, वे कुच कहलाते हैं। काठिन्यमेवं कुचयोर्युवत्याः' (सुद० १/३४) कुच-कुङलान्तः (पुं०) स्तनकोरक, स्तन भाग। 'कुचकुङ्गलयो स्तनकोरकयोरन्तं प्रान्तं' (जयो० १७/४३) कुच-कोरकः (पुं०) १. स्तनभाग। २. कर्मालनी की कोरक/भाग। 'विकासमति मेऽतीव पद्मिन्याः कुचकोरकः' (सुद० ७९) कुचगौरवः (पु०) समुन्नतभाव, स्तन की छवि, स्तन उभार। ('अस्याः किमृचे कुचगौरवन्तु' (जयो० ११/३८) कुच-मण्डलः (पु०) कुच भाग। (वीरो० २/४८) 'काठिन्य कुचमंडलेऽथ सुमुखे दोषाकरत्वं परं' (वीरो० २/४८) कुचवती ( वि०) स्तनवती। (जयो० १४/९०) कुववस्त्रं (नपुं०) निचाल. कंचुकी। (जयो० वृ० १३/८४) कुचाज्ञलं नपुं० निचोल। (वीरा० २१/१७) कुचाञ्चिततातटी (वि०) उत्तम शोभा युक्त स्तन वाली। (समु० २/३) कुचाकारः (पु०) कुच का आकार। 'कन्दुः कुचाकारधरो युवत्या' (वीरो० ९/३७) । कुचिताङ्गक (वि०) संकुचित अंग वाला। (वीरो० ९/२५) ___ 'कुटीरकोणे कुचिताङ्गको वत्।' कुञ्चितदोषः (पु०) वन्दनविधि दोष। कुज्ञान (वि० ) कुबोध, खोटा ज्ञान, बोध की कमी, मिथ्यानान। । (सम्यः १३७) कुज्ञानातिग (वि०) मिथ्याज्ञान से रहित, बोध रहित। (जयो० । २७/६६) 'कुज्ञानात्पराधीनाद् बोधादतिगं दूरवर्ति । जयो० वृ० २७/६६) 'कुज्ञानातिगमन्तिम स मनसा तेनार्जितः सिद्धये' (जयो० २७/६६) कुङ्कुमित-पत्रं (नपु०) निमन्त्रण पत्र। (जयो० ११/२४) कुचेल (वि०) फटे वस्त्रों युक्त। कुचेलक (वि०) जीर्ण-शीर्ण वस्त्र वाला। कुचेष्टा (स्त्री०) बुरी दृष्टि, अभद्र व्यवहार। 'इत्यादि सङ्गीति परायणा च सा नाना कुचेष्टा दधती नरङ्कपा' (सुद० १२३) कुच्छं (नपुं०) कुमुद। कुजः (पुं०) [कु-जन ड] १. वृक्ष, तरु, २. मंगल ग्रह, ३. राक्षस विशेष। कुजन्मानन्तरं (नपुं०) कुयोनियों में जन्म-मरण। (नपु०३/३२) कुजम्भल (वि०) चोरी करने वाला। कुजातिः (स्त्री०) नीच कुल। (जयो० २४/४६) भूमिसम्भूति (वीरो० ६/१५) कुञ्च् (पुं०) घटाना, सिकोड़ना। कुञ्चनं (नपुं०) घटाना, सिकोड़ना। कुञ्चिः (स्त्री०) माप विशेष, मुट्ठि से माप करना। कुञ्चिका (स्त्री०) कुंजी, चाबी।। कुञ्चाञ्चलं (नपुं०) स्तनवस्त्र, कंचुकी. निचोल, कुचवस्त्र। (जयो० १४/३८) कुञ्चित (वि०) अनुदार. झुका हुआ. टेड़ा किया हुआ। (जयो० २/९) कुञ्जरः (पुं०) [कुञ्जओ हस्तिहन, सोऽस्यास्ति कुञ्जर+र] करी, हस्ति, हाथी, गज। १. पीपल वृक्ष, (जयो० ३/११०) २. हस्त नामक नक्षत्र! ३. शिरोमणि, अग्रणी। 'वीरकुञ्जरः' (जयो० १९/२७) कुञ्जरराज (पुं०) हस्ति, हाथी। (जयो० १३/११०) गजराज -दानं ददौ कुञ्जरराज एकः' (जयो० १३/११०) कुट (अक०) वक्र होना, कुटिल होना, झुकना, टेढ़ा करना। कुटः (पुं०) १. जलपात्र, करबा, कलश। २. उच्च स्थान, दुर्ग, किला, कूट, पर्वत। कुटकं (नपुं०) [कुट-कन्] बिना हस्थे का हल। कुट-कुटी (स्त्री०) रहट, जलानयनदासी। (जयो० २५/९) कुटङ्कः (पुं०) [कु+टङ्क+घञ्] छत, छप्पर। कुटङ्ककः (पुं०) [कुटस्य अङ्कक:] लता मण्डप, झोपड़ी, कुटिया। For Private and Personal Use Only Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कुटजः २९६ कुण्ठ कुटजः (पुं०) वृक्ष विशेष। (वीरो० ४/१८) 'हृष्टास्ततः श्रीकुटज: श्रयन्तु' कुटपः (पुं०) [कुट+पा+क] कुद्रव, कुडवा, धान्य मापने का साधन। २. वाटिका, बगीची। कुटरः (पुं०) [कुट्+करन्] मथानी की रस्सी। कुटलं (नपुं०) [कुट्+कलच्] छत, छप्पर। कुटिः (स्त्री०) १. कुटिया, झोपड़ी। (जयो० २७/६०) २. | मोड़, ३. देह, शरीर, ४. वृक्ष। कुटिरं (नपुं०) कुटिया, झोपड़ी। (जयो० २७/६०) कुटिलं (वि०) [कुट्+इलच्] टेढ़ा, मुड़ा हुआ, वक्र, घुमावदार। (दयो० ७४) विभिन्न भाव युक्त। (जयो०८/५५) भुज भुङ्गतो भीषण एतदीयद्विषहदे वा कुटिलोऽद्वितीयम्' धुंघराली। । (जयो० हि०११/७०) विषम-विषमान् कुटिलानपि' (जयो० वृ० १२/८२) कुटिलतारहित (वि०) वक्रता रहित, सरल, शुद्ध, सीधी, निष्पाप, अपाप। (जयो० २/१४३) कुटिलत्वसूक्त (वि०) शुद्धता युक्त, सूक्त। (सुद० १/२७) (जयो० वृ० ४/२२) कुटिलिका (स्त्री०) धीरे चलना, दुबक के आना। कुटी (स्त्री०) १. कुटिया, झोपड़ी। 'सेवकस्य कुटीं रमयन्तु' (जयो० ४/१८) कुटीरः (पुं०) कुटिया, झोपड़ी। (जयो० २१/५२) कुटीरकः देखो कुटीरः। कुटीरकोणः (पुं०) कुटिया को कोना। (वीरो० ९/२५) कुटुनी (स्त्री०) दूती, कुट्टिनी। कुटुम्बं (नपुं०) [कुटुम्ब+अच्] परिवार, गृहस्थ, गृहयुक्त। (वीरो० १५/६९) कुटुम्बिकः (पुं०) [कुटुम्ब ठन्] पारिवारिक जन, कुल परिवार के लोग। (जयो० वृ० १२/३३) । कुटुम्बिनी (स्त्री०) गृहिणी, गृहस्वामिनी, पत्नी। कुट्ट (सक०) कूटना, पीसना, बांटना, चूर्ण करना। कुट्टक् प्रभावः (पुं०) कूटने का प्रभाव। (वीरो० ११/२१) कुट्टकः (वि०) कूटने वाला। कूट्टनं (नपुं०) कूटना, पीसना। कुट्टिनी (स्त्री०) [कुट्टयति नाशयति स्त्रीणां कुलम्'-कुट्ट णिच् ल्युट् ङीप्]। दूती। कुट्टमितं (नपुं०) [कुट्ट+घञ्] दिखावटी तिरस्कार। कुट्टाक (वि०) विभक्त किया गया। कुट्टारः (पुं०) [कुट्ट+आरन्] मैथुन, ऊनी कम्बल। कुट्टिमः (पुं०) झोपड़ी, कुटिया। । कुट्टिहारिका (स्त्री०) [कुट्टिा ह+ण्वुल टाप्] सेविका, दासी। कुटि मत्स्यमांसादिकं हरति इति। कुठः (पुं०) वृक्ष, तरु। [कुठ्यते छिद्यते-कुठ+क]। कुठारः (पुं०) कुल्हाड़, परशु, फरसा। कुठारघातः (पुं०) वज्रपात। (दयो० ४३) (भक्ति०) कुठारिकः (वि०) लकड़हारा, लकड़ी काटने वाला। कुठारिका (स्त्री०) [कुठार+ङीप्कन्+टाप्] फरसा, कुल्हाड़ा। कुठारुः (पुं०) १. तरु, वृक्ष। २. वानर। कुठिः (पुं०) १. वृक्ष, तरु। २. पर्वत। कुडङ्गः (पुं०) कुंज, लतागृह। कुडवः (पुं०) धान्य माप विशेष। कुड्मल (वि०) [कुड्क ल, मुट] मुकुल, खिलता हुआ, प्रस्फुटित होता हुआ। (जयो० वृ० ३/७५) कुड्मल: (पुं०) कली, खिलना, विकसित होना। कुड्मलकोमल (वि०) पुष्पकलिकावत्, कोमल। (वीरा० ५/२५) कुड्मलकल्पः (पुं०) मुकुलविधि, पुष्प खिलने की प्रक्रिया। कुड्मलस्य मुकुलपरिणामस्य कल्पो विधि (जयो० ३/८८) कुड्मलता (वि०) विकसित होती हुई। (सुद० २/२५) कुड्-मल-बन्ध लोपी (वि०) १. कमल संकोच, २. पुष्प के बन्ध के लोलुपी कली के इच्छुक, भ्रमर समूह। 'कुड्मलबन्धं कमल-सङ्कोच रूपबन्धनं लोपायतीति।' (जयो० वृ० १/७१) कुड्मललता (स्त्री०) मुकुलित लता, विकास को प्राप्त हुई, लतिका। कुड्मलित (वि०) [कुड्मल इतच्] १. कलियुक्त, २. प्रसन्न, हर्षयुक्त। कुड्यं (नपुं०) भित्ति, दीवार। (जयो० १०/८९) अर्क संस्कृत-- कुड्येषु संक्रांत प्रतिमा नरा। (जयो० १०/८९) 'जिणहरधरायदणाणं ठविअ-ओलित्तीओ कुड्डा णाम' (धव० १४/४०) कुड्यदोषः (पुं०) भित्ति का आश्रय लेकर कायोत्सर्ग करना। कुड्यमाश्रित्य कायोत्सर्गेण यस्तिष्ठति तस्य कुड्यदोषः। (मूला ०७/१७१) कुण्ठ (अक०) कुण्ठित होना, विकलांग होना, सुस्त होना, अपंग होना, मंदबुद्धि होना। For Private and Personal Use Only Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कुष्ठ २९७ कुत्सा कुष्ठ (वि०) [कण्ठ + + अच्] ढूंठा, सुस्त, आलसी, उदासीन, कुतः (अव्य०) यह अनिश्चयार्थ की दिशा में प्रयुक्त होने मंद, मूर्ख, लंठ, दुर्बल। वाला अव्यय है, जिससे कई अर्थ व्यञ्जित होते हैं। कुण्ठकः (पुं) [कुण्ठ्+ण्वुल] लंठ, मूर्ख, मूढ! कहां से-'अवलोक्य कुतः किमागतः। (समु० २/२१) कुण्ठक्रमः (वि०) कुण्ठितक्रम वाला। 'सिंहो हस्तिनमाक्रमेदपि "श्रियो निवासोऽयमहो कुतोऽन्यथा कुतश्च लोकैः कर एप पुरः प्राप्तं न कुण्डक्रमः। (वीरो० ९/४५) गीयते (जयो० ५/७६) कुण्ठात्मक (वि०) सुद ढात्मक। (जयो० १७/४८) कैसे-'कुतोऽर्तिरर्हच्छरणं गताय' (भक्ति०२४) (सुद० कुण (सक०) सहारा देना, आश्रय देना, सहायता करना। २/४४) (जयो० ११/२७) कुणकः (पुं०) [कुण+क+कन] शावक, पशु शावक। किस(समु० २/२१) कारण से-'कुतः कारणतो जाता कुणप (वि०) दुर्गन्ध युक्त। भवतामुन्मनस्कता' (सुद० ३/३६) कुणपः (पुं०) शव, मुर्दा। कुतर्कः (पुं०) भ्रान्तिजन्य प्रमाण। कुणपीप्राया (वि०) दुर्गन्ध दुराकारवती। (जयो० २४/१४२) कुतपः (पुं०) [कु+तप्+अच्] द्विज, ब्राह्मण, सूर्य, अग्नि, कुणिः (स्त्री०) [कुण इनि] खजा, लुंजा, हस्त से अपंग, । अतिथि, वृषभ, सांड, दोहता, भानजा। शुष्क हस्त युक्त। कुतलं (नपुं०) कुत्सित भाग। (जयो० ३/३३) । कुण्डगिरिः (पु०) कुण्डलगिरि। महावीर स्वामी का जन्मस्थान। कुतश्च (अव्य०) कहां से, किस कारण से। 'न सन्तु (भक्ति०३७) कुतश्चापायाः' (सुद०७१) 'कुतश्चैष पतितोऽपि सहसैव' कुण्डनं (नपु०) कुण्डलपुर। (वीरो० ७/७) (दयो०८) कुण्ठित (भू०क०कृ०) [कुठ्+क्त) मूर्खतायुक्त, आलस्य कुत: (अव्य०) कहां से। (सम्य० ४५) सहित, विकलांग मोथले। (जयो० १५/९२) कुतोऽन्यथा (अव्य०) अन्यथा किसी भी। कालिकं चाक्षमतिश्च 'जगताडनकुण्ठितानाम्' (जयो० १५/५२) वेत्ति कुतोऽन्यथा वार्थ इतः क्रियेति। (वीरो० २०/७) कुण्डः (पुं०) कटोरा, कंडा, चारों ओर से घिरा हुआ पानी कुतस्यात् (अव्य०) कैसे है? 'कुतः स्यात्पारणा तस्या' (सुद० का कुंडा १. अग्निकुण्ड। २. कुण्डग्राम, कुण्डलपुर। ३५) कुण्डपुरः (पुं०) कुण्डग्राम-'कुण्डिनमित्येतत्पदं पूर्व विधते | कुतुकं (नपुं०) [कुत्-उक] उत्सुकता, उत्साह, उमंग, यस्य तन्नाम पुरं कुण्डिनपुर मित्याहु। (वीरो० २/२१) । रुचि, आमोद, प्रमोद, हर्ष। कुण्डलः (पुं०) [कुण्ड् मत्वर्थ ल] कर्णाभूषण (जयो० कुतुकोत्क (वि०) विनोद युक्त, आनंद युक्त। सहितः कुसुमश्रिया ३/१०१) (जयो० १७/२९) कान की बाली। २. गोलाकार मधुः कुतुकोत्कैभ्रमरैरिवाध्वनिः। (जयो० २१/७२) कड़ा। कुतुपः (पुं०) [कु+तन्क) कुप्पी, तेल डालने का साधन। कुण्डलकः (पुं०) कर्णाभूषण। कुतूहल (वि०) आश्चर्यजनक, आनन्द, उत्साह, उमंग, कुण्डलकान्तशोचि (वि०) कुण्डल कान्ति युक्त। (वीरो० आकाक्षा प्राप्त, प्रशंसा युक्त, श्रेष्ठ, सर्वोत्तम। ४/३३) कुतोऽपि (अव्य०) कहीं पर भी, किसी प्रकार का भी, कहीं कुण्डलना (स्त्री०) [कुण्डल्+णिच्+ युच्+टाप्] घेरा डालना। से भी। 'विपिनेऽस्यकुतोऽपि कौतुकान्मिलिता' (समु० कुण्डलितप्रदेशः (पु०) कुण्डलाभार प्रदेश। (१३/१५) २।८) 'दृशो न वेषम्यगात्कुतोऽपि' (सुद० २/३) कुण्डलिन् (वि०) [ कुण्डल इनि] १. कुण्डलों में युक्त। २. कुत्र (अव्य०) [किम्वल] कहां, किस बात में, किस विषय में। गोलाकार, घुमावदार, कुण्डली युक्त। ३. मोर वरुण। कुत्रचित् (अव्य०) एक स्थान पर, कहीं पर। कुण्डिन् (वि०) घेरा। (वीरो० २/४) कुत्रत्य (वि०) [कुत्र+त्यप्] कहां का रहने वाला। कुण्डिनं (नपुं०) [कुण्डु इनच्] कुण्डली। कुत्रापि (अव्य०) कहीं पर भी। (मुनि० ९) वीरो० १४/४३। कुण्डिनपुरः (पुं०) कुण्डग्राम। (वीरो० २/२१) महावीर स्वामी कुत्स् (अक०) गाली देना, निन्दा करना, कलंक लगाना। का जन्मस्थान। कुत्सनं (नपुं०) [कुत्स्+ ल्युट्] दुर्वचन, घृणा, गर्हा, निन्दा। कुण्डीर (वि०) शक्तिमान्, बलिष्ट। कुत्सा (स्त्री०) विघ्न डालना, दोष लगाना। For Private and Personal Use Only Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कुत्सित २९८ कुपात्रं कुत्सित (वि०) [कुत्स्+क्त] ०घृणित, निन्दनीय, ०खोटी, | कुन्ती (स्त्री०) १. कर्ण की माता। अपवित्र, पापी। वाढं चेत्त्वमिहासि कुत्सितमतिर्युक्ता कुन्दकः (पुं०) कुन्द पुष्प। क्षतिस्ते तदा' (मुनि० २४) 'कुत्सितेषु सुगतादिषु क्रमाद्धा' कुन्दकारकः (पुं०) कुन्दकलिका। (वीरो० १/४२) (जयो० २/२६) कुन्थुः (स्त्री०) राशि विशेष, पृथिवी में स्थित। ‘क पृथ्वी, कुत्सित-तलं (नपुं०) कुतल, घृणित भाग। (जयो० वृ० __ तस्यां स्थितवानिति निसकात् कुन्थः। (जैन०ल०वृ०३५९) ३/३३) कुबीजभृ (वि०) मिथ्या बीज युक्त। (वीरो० ११/३७) कत्सितप्रज्ञ (वि०) कुधी, कुबुद्धिशाली, मतिहीन। (जयो० कन्थु (सक०) कष्ट सहना। वृ०७/४८) कुन्थु (पुं०) कुन्थुनाथ, सत्तरहवें तीर्थंकर। (भक्ति०व०१९) कुत्सितमतिः (स्त्री०) कुमति, प्रज्ञाहीन। (मुनि० १४) कुन्थु जिनः देखां ऊपर। कुत्सितसंस्कारः (पुं०) कुवासना, कदाचरण। (जयो० १९/९५) कुन्थुनाथः देखां ऊपर। कुत्सिताचारणं (नपुं०) निन्दित व्यभिचारादिकार्य, कदाचरण, कुन्थुप्रभुः देखां ऊपर। भ्रष्टाचारी, कदाचारक (जयो० वृ० २/१३१) कुन्थुस्वामी देखां ऊपर। 'कुत्सिताचरण- केष्वशङ्किताकारिता' (जयो०२/१२६) कुन्दं (नपुं०) १. कुन्द नामक पुष्पा चमेली पुण्य। (दयो० कुथः (पुं०) [कु+थक्] कुथा नामक घास। ८६) 'कुन्दं च शीर्षे दरिणां हितत्त्वम्' (जयो० १/२९) कुत्ती (स्त्री०) शुनी, कुतिया। (वीरो० १७/३२) 'कुं शब्दं ददतीति कुन्ददत्यः संलापकर्य:' (जयो० वृ० कुदेवः (पुं०) मुक्ति के कारण से रहित देव, राग-द्वेषादि से ६/९५) 'कमलानि च कुन्दस्य च जाते:' (सुद० वृ०७१) विभूषित देवा २. कुन्द नामक आयुध-(जयो० वृ० १/२९) कुनरेशः (पुं०) क्रूर राजा। (वीरो० २१/१२) कुन्दकुन्दः (पु०) आचार्य कुन्द कुन्द। (जया० वृ० १२/१) कुदृष्टिः (स्त्री०) १. स्वच्छन्द कथन, दर्पोक्त वचन। २. समयसार, प्रवचनसार नियमसार आदि पाहुड ग्रन्थों के कुदर्शन (सम्य० १३६) सच्छंद बोलए जिणुत्तमिदि' रचनाकार। मांगलिक स्मरण के रूप में भी आचार्य (रयणसार०३) कुन्दकुन्द का नाम विशेष आदर के साथ लिया जाता है। कुधी (स्त्री०) कुत्सितप्रज्ञा। (जयो० ७/४८) कुन्दकुसुमं (नपुं०) कुन्दपुष्प, कमल पुष्प। (जयो० वृ० कुधर्मः (पुं०) कुत्सित धर्म, संसार परिभ्रमण कारक धर्म। १६/२९) कुधर्मकांक्षा (स्त्री०) अन्य तीथिर्यकों की इच्छा। कुन्ददती (स्त्री०) चन्द्रमा, शशि, कुमुसबन्धु। (जयो०६/९५) रत्तवड-चरग-तावस-परिहत्तादीण मण्णतित्थीणं। कुन्दबन्धुं (नपुं०) कुन्दपुष्प। (जयो० वृ० ३/५१) धम्मम्हि य अहिलासो कुधम्मकंखा हवदि एसा।। कुन्दमः (पुं०) [कुन्द+मा+क] बिल्ली। (मूला ०५/५४) कुन्दारविंदं (नपुं०) कुन्द कुसुम। कुन्दनामक कमल, सफेद कुदेशः (पुं०) पृथ्वीतल। (जयो० ११/२७) कमल। (जयो० १६/२४) कुद्दारः (पुं०) कुदाली, खुी। कुन्दिनी (स्त्री०) [कुन्द इनि+ ङीप्] कमल समूह। कुद्रङ्कगः (पुं०) ऊपर स्थित गृह, कूटस्थ घर। कुन्दुः (स्त्री०) चूहा, मूसा। [कु+ट्ट] कुनरुः (पुं०) बिम्बफल। (जयो० ११/९९) कुप् (अक०) क्रोधित होना, उत्तेजित होना। कुन्तः (पुं०) १. भाला, बाण, २. बीं। ३. तुच्छजंतु, कृमि, | कुपलः (पुं०) किसलय, कोपल, (जयो० ११/४१) (१२/१०६) कीड़ा। कुपलाख्य (वि०) कु-कुत्सित-पल-उन्माद। (जयो० ११/४१) कुन्तलः (पुं०) [कुन्त ला+क] बाल, घुघराले बाल, सिर के अनर्थ वचन, अनिष्ट शब्द। बाल। (जयो० ८/४१) श्रीकुन्तलैः शैवलसावतीर्णा (जयो० कुपात्रं (नपुं०) मिथ्यात्व युक्त, जं रयणत्तय-रहियं मिच्छामय८/४१) कहियधम्मअणुलग्गं। जइवि हु तवइ सुघोरं तहावि तं कुन्तयः (पुं०) एक देश। कुच्छियं पत्तं।। कुपात्राय सम्यक्त्व-रहित-व्रततपोयुक्ताय' कुन्तिः (पुं०) एक नृपति विशेष। (सा०ध०टी० २/६७) ० अधम/नीच पुरुष। For Private and Personal Use Only Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कुपित २९९ कुमुदः कुपित (वि०) क्रोधित। (समु० २/३१) कुपिनिन् (पुं०) [ कुपिनी मत्स्यधानी अस्ति अस्य] मछुवा। कुपिनी (स्त्री०) क्रोधित। (समु० २/३१) कुपिनी (स्त्री०) जाल, मछली पकड़ने का जाल। कुपूय (वि०) [कृ+पूय्। अच्] निम्न, पतित, गिरा हुआ, ___ अधम, निन्दनीय, घृणित। कुप्यं (नपुं०) अपधातु, लोह ताम्रादि धातु। (भक्ति०४०) कुष्पं (नपुं०) अपधातु-मिट्टी के बर्तन। कुप्यं क्षौम-कास कौशय-चन्दनादि-'कुप्यशब्दो घृताद्यर्थस्तदभाण्ड भाजनानि वा। (लाटी संहिता ६/१०७) सुवर्ण, चांदी के अतिरिक्त कांस, लाह. मिट्टी के बर्तन आदि कृप्य कहलाते हैं। उङ्गि, काष्ठमंचक, मचिका, ०मसूर आदि। रथ, गाडी, हल, भी द्रव्य कुप्य हैं। कुपप्रमाणिक्रमः (पुं०) कुप्य सामग्री का अतिक्रमण, ०अपधातु का अतिक्रमण, मिटटी आदि बर्तन की मर्यादा का उल्लंघन। कुबुद्धिः (स्त्री०) बुद्धि, हीनबुद्धि। भक्ति०४० (समु०८/१२)। कुबेरः (पृ०) [कुत्सितं बरं शरीर यस्य स] कोषाधिकारी, धन स्वामी, धनपति। २. वृक्ष, नन्दीवृक्ष। ३. उत्तरदिशा का दिक्पाल। (जयो० वृ० २४/१०६) कुबेरकः (पुं०) नन्दीवृक्षा। कुबेरक (वि०) धनद, धन देने वाला। (जयो० वृ० २४/१०६) कुबेरप्रियः (पुं०) १. धन-धान्य सम्पन्न गृहस्थ। २. कुबेरप्रिय नाम, पुण्डरीक नगरी का एक धनिक। कुबेरस्य प्रियो नाम्ना धनी यतिदत्तिकृद् धाम्नाम्।। (जयो० २३/४४) कुबेरकाष्ठा (स्त्री०) उत्तर दिशा। कुबेरकाष्ठाऽऽश्रयणे प्रयत्न ____ दधाति पौष्प्ये समये धुरत्नम्' (वीरो० ६/१६) कुब्ज (वि०) [कु ईषत् उजमार्जनं यत्र] कुबड़ा, कुटिल, वक। (जयो० २/१४८) कुब्जः (पुं०) १. कूब, पीठ का उभार, पीठ का उठा हुआ भाग। २. कुब्जक वृक्षा (जयो० २४/१०६) कुब्जकः (पुं०) कुब्जकवृक्ष, अर्जुनवृक्षा कुब्जो वा अर्जुनो वृक्षो। (जयो० २४/१०६) कुब्जा (स्त्री०) कुबड़ी स्त्री, एक स्त्री। कुब्जिका (स्त्री०) [कुब्जक टाप्] छोटी लड़की, आठ वर्ष की लड़की। कुभृत् (पुं०) [कु+भृ+ विप्] पर्वत, गिरि, पहाड़। कुमारः (पुं०) [कम्+आरन् उपधाया उत्वम्] छह वर्ष के | बाद का बालक। (जयो० २/१३) कुमार, बालक, पुत्र, युवराज। कुमारः (पुं०) कुमार। बालकः परकरोपलेखक: संलिखत्यथ कुमार एककः। (जयो० २/१९) आत्मजः कोपवानत्र भरतस्य क्षमापतेः। समञ्चसि श्री कुमार दीपतुत्थकथां तथा।। (जयो० ७/३९) कुमारकः (पुं०) [कुमार+कन्] युवा, युवक बच्चा। कुमारकाल: (पू) कुमार समय। कौमार समया(जयो० वृ० १७/५८) कुमारकार्तिकेयः (पुं०) कार्तिकेयानुप्रेक्षा नामक प्राकृत काव्य रचनाकार। कुमारवयः (पुं०) कुमारावस्था, बालकपन। (दयो० ६५) कुमारयति-क्रीड़ा करना, खेलना। कुमारश्रमण: (पुं०) तरुण श्रमण। (वीरो० ८/४१) कुमारिक (वि०) कुमारी, लड़की। कुमार अवस्था को प्राप्त दस बारह वर्ष की पुत्री। कुमारिन् देखो कुमारिक। कुमारिका (स्त्री०) [कुमारी+ठन्+टाप्] तरुणी, कन्या, अविवाहित पुत्री, दस-बारह वर्ष की लड़की। (वीरो० ५/२६) 'कुमारिकाणामिति युक्तमेव विभाति' कुमारी (स्त्री०) तरुणी, कन्या (जयो० वृ० ३/८६) 'विषा नाम कुमारी कुमारवयोऽतिक्रमणेन द्वितीयाश्रम-सन्धारण' (जयो० ६५) कुमाली (स्त्री०) कन्या, तरुणी। 'र-लयोर भेदात्' (जयो० १२/९६) कुमुद (वि०) [कुमुद क्विप्] कुमुदा कृपणादीनामाशयः' अमित्र, दयाहीन। (जयो० वृ० ६/९६) कुमदं (नपुं०) 'कौ मोदते इति कुमुदम्' सफेद कुमुदिनी, रात्रि में चन्द्रोदय होने पर खिलने वाली। कैरव-(जयो० वृ० ६/९६) ४/८३। 'कं निशासु कुमुदैः समवेतम्' (जयो० ४/६३) 'कं जलं प्रमुदितैः विकसितैः कुमुदैः कैरवैः समवेतमस्तु' (जयो० वृ० ४/६३) कौमुदं तु परं तस्मिन् कलावति कलावति। (सुद० ९०) हे कलापति! जैसे कलावान् चन्द्रमा को देखकर कुमुद प्रमोद को प्राप्त होता है, उसी प्रकार सुदर्शन को देखकर प्रमोद युक्त हूं। रक्त कमल को भी कुमुद कहा गया है। कुमुदः (पुं०) १. कुमुद नामक दैत्य। कुमुद नाम-दैत्य स्यावाग्भवनदशासौ शोच्या शोचनीयास्ति (जयो० १८/३०) १. विष्णु, २. कपूर, ३. वानर जाति, ४. नाग विशेष। For Private and Personal Use Only Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कुमुद-बन्धु ३०० कुरंडः कुमुद-बन्धु (नपुं०) कुमुद का मित्र चन्द्र। 'कुमुदानां बन्धुः कैरवविकासकारकश्चन्द्रः' (जयो० वृ० ३/५) कुमुदवती (स्त्री०) [कुमुद मतुप् ङीप्] कैरविणी, कुमुदिनी लता। कुमुदिनी (स्त्री०) कैरविणी, कमलिनी। कुमुदती (वि०) १. कुत्सित हर्ष युक्त। (जयो० वृ० १५/३९) २. कुमुदिनी सहित। कुमुद्वती (स्त्री०) कुमुदिनि, कमोदनी। (दयो० ५२ (सुद० ८६) कुमुदलता (जयो० वृ० १५/७२) कुमुदशिवः (पुं०) कमलिनियों का सौभाग्य। 'कुमुदानां शिवं ____ विकास सौभाग्य' (जयो० ६/१२) कुमुदोदयः (पुं०) श्वेतकमल विकास। (वीरो० २१/२७) कुमोदकः (पुं०) [कु+मुद्+णिच्] विष्णु। कुंकुम (नपुं०) रोली, अवीर। निशा सुधा कुंकमतां प्रयातः (समु०८/५) कुम्भः (पुं०) [कुं भूमिं कुत्सितं वा उम्भति पूरयति-उम्भ+अच्] १. घट, घड़ा, जलपात्र, कलश (जयो० ३/७२) २. कुम्भराशि, ३. कुम्भस्थल, हस्तिमस्तक। कुम्भकः (पुं०) [कुम्भ कन्] स्तम्भ का आधार, कलशसम, २. वक्षस्थल। (सुद० १००) कुम्भक (वि०) कलश वाले। कुम्भक कल्पः (पुं०) १. कुम्भकविद्या, २. कुम्भविधि दार्शनिक पद्धति। कुम्भ के सदृश पृथुला 'सत्कुचो भवति कुम्भकल्पः (जयो० ५/४२) कुम्भ एष कुम्भकस्तत्कल्प: कलश इव पृथुलाकारः' (जयो० वृ० ५/४२) कुम्भकमञ्चवर (वि०) कुम्भ का अनुकरण करने वाले। (सुद० १००) सुद,ढं हदि कुम्भकमञ्चवरं किन्न यतस्त्वं प्रभवे शुचिराट्। (सुद० १००) कुम्भकार: (पुं०) कुम्भं करोति-कुम्हार। (जयो० वृ० ११/३७) (जयो० वृ० ७/८) कुम्भ-कारिणी (वि०) कुम्भ बनाने वाली, घर निर्मात्री। कुम्भकृत (पुं०) कुम्भकार, कुम्हार। (वीरो० १९/४४) तान्नयेच्च परितोषयन् धृति कुम्भकृत्युपरते क्व वाः स्थितिः। (जयो० २/९८) कुम्भनी (स्त्री०) पृथिवी, भू, भूमि। 'सुचिरं शुचिरद्य कुम्भनी' (जयो० २६/५४) कुम्भ-बद्ध (वि०) भुंगड़ों का घट, चने से युक्त घट। (समु० । ५/८) मुच्यमान इह सञ्चणकानां कुम्भबद्ध- कपिवच्च निदानात्। (समु० ५/८) कुम्भयुगः (पुं०) कुम्भराशि का योग। (जयो० १/३३) कुम्भयुग्मः (पुं०) कुम्भराशि का युगल। (जयो० १/३३) कुम्भयोनिः (स्त्री०) कुम्भ में जन्म। कुम्भवासी (स्त्री० कुटनी, दूती। कुम्भलग्नं (नपुं०) कुम्भ राशि का योग। कुम्भस्थलं (नपुंc) हस्ति मस्तक गिर श्री। (जयो० वृ० ६/२२) कुम्भा (स्त्री०) [कुत्सितं उम्भति पूरयति इति उम्म्+अच्-टाप् । वेश्या, वारांगना। कुम्भिका (स्त्री०) [कुम्भा कन्+टाप्] १. वेश्या, २. लघु पात्र। कुम्भिन् (पुं०) [कुम्भ इनि] हस्ति, करि, हाथी। कुम्भिलः (पुं०) [कुम्भ। इलच] सेंध लगाकर चोरी करने वाला, २. साला, ३. काव्य चोर। कुम्भी (स्त्री०) [कुम्भा ङीष्] लुटिया, छोटा पात्र। कुम्भीषाकः (पुं०) कुम्भ में पकाया जाने वाला, घड में पकाया जाने वाला। कुम्भीकः (पुं०) पुन्नाग वृक्ष। कुम्भीरः (पुं०) [कुम्भिन ईर+अण] घड़ियाल, मगर। कुम्भीरकः (पुं०) चोर। कुम्भोपम-कुचवति (स्त्री०) घटकल्प-सुस्तनि (जयो० वृ० १२/१२४) उन्नत स्तन वाली स्त्री। कुयुक्तिः (स्त्री०) खोटी उक्ति। (सम्य० ९२) मिथ्या कथन। कुर् (अक०) शब्द करना, ध्वनि करना। कुरंकरः (पुं०) [कुरं इति अव्यक्त शब्दं करोति-कुरं+कृ+कृ] । सारस पक्षी। कुरङ्ग (पुं०) [कु+अङ्गच्] मृग, हिरण। कुरङ्गनेत्रं (नपुं०) मृगाक्षी, कङ्गस्य नेत्रे इव नेत्रे यस्याः ' (जयो० १७/१०) कुरङ्गमः (पुं०) कुरङ्ग, मृग, हिरण! कुरङ्गरङ्कः (पुं०) मृगाङ्क। (वीरो० २/१३) चित्तेऽध्वनीनस्य विलेप्य शङ्कामुत्पादयन्तीह कुरङ्गारकाः। (वीरो०२/१३) कुरटः (पुं०) मोची। कुरंटः (पुं०) [कुर् अंटक+किन] सदाबहार, कटसरैया। कुरंडः (पुं०) [कुर+अण्डक] अण्डकोष का रोग। For Private and Personal Use Only Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कुरक्षण ३०१ कुलता कुरक्षण (नपुं०) १. दुर्व्यसनाजन्य। २. पृथ्वी रक्षक। (जयो० कुलकः (पुं०) श्रेणी, शिल्पियों का अग्रणी। १/४५) कुलकं (नपुं०) संग्रह, समूह, श्लोक समूह, पांच से पन्द्रह कुररः (पुं०) (कु-क्रूरच्] क्रौंच पक्षी। तक के श्लोक समूह। कुररी (स्त्री०) क्रौंच पक्षी। कुलङ्कर (वि०) कुल निर्माता, कुलकर। (वीरो० ११/५) कुरलः (पुं०) कुल्ला , गण्डूष। (जयो० १८८१) 'कुलानि कुर्वन्तीति कुलङ्कराः वंशनिर्माताः' (जयो० वृ० कुरवः (पुं०) सदाबहार, कटसरैया। २/८) सन्निवेद्य च कुलङ्करैः कुलान्येतदाचरणमिङ्गितं बलात्। कुरीना (स्त्रो०) शब्द समूह। 'कूनां शब्दानां रीना कुरीनाश्च' (जयो० २।८) (जयो० ५/९५) कुलकज्जल: (पुं०) कुलकलंक। कुरानं (नपुं०) ग्रन्थ, मुसलिम शास्त्र। (वीरो० १९/१०) कुलकष्टकः (पुं०) कष्टदायक कुल। कुरीरं (नपुं०) [कृाईरन्] ओढ़नी। कुलकथा (स्त्री०) कुलीन स्त्री संबंधी कथा। कुरुः (पुं०) १. कुरु क्षेत्र, कुरुभूमि, २. कुरुवंशी नरेश कुलकन्यका (स्त्री०) उच्चकुलीन कन्या। जयकुमार। कुलकरः (पुं०) मनु, कुलों की व्यवस्था में कुशल। (जयो० कुरुक्षेत्रं (नपुं०) कुरुभाग। (जयो० ३/२८) वृ० १२/९) 'कुलकरणम्मि य कुसला कुलकरणामेण कुरुदेशः (पुं०) कुरुक्षेत्र, कुरुभाग, कुरुप्रदेश। (जयो० ६/७८) सुपसिद्धा' (ति०प०४/५०९) 'आर्याणां कुलसंस्त्यापकृते: कुरुदेशाधिपः (पुं०) कुरुदेश का राजा। तनये मन एतस्मिन् कुलकरा' (म०७०३/२११) ___कुरु कुरुदेशाधिपेत्वित वाक्। कुलकान्ता (स्त्री०) कुलीन स्त्री, अच्छे घर की स्त्री। कुरुनरेशः (पुं०) कुरुराजा, जयकुमार। (जयो० ३/२८) सुकृतांशुकृताशयेन वा कुलकान्ताकुलमाप्तसंत्वाम्। कुरुभूमिः (स्त्री०) कुरुक्षेत्र। (जयो० ७/८२) कुलकोक्ति (स्त्री०) ०काशिकावृत्ति, ०श्रेष्ठोक्ति। कीदृशीं कुरुभूमिभुक्तिः (स्त्री०) कुरु भूमि का भोग करने वाला काशिका? पाणिना हस्तेन नीया प्रापणीया यासौ कुलकोक्ति जयकुमार। संप्रयुक्तमृदुसूक्तमक्तया पद्मयेव कुरुभूमिभुक्तया। श्रेष्ठोक्तिः इयमतिसन्निकटप्राप्तेति रूपाः तस्या। पाणिनीया (जयो० ७/८२) पाणिनि सम्बंधिनी या कुलोकि: कुलकस्तु कुल श्रेष्ठे इति कुरुराट् (पुं०) १. करुराज, कुरुवंशी, जयकुमार। (जयो० वि० (जयो० ४/१६) २६/४२) २. दुर्योधन। कुलज (वि०) राजवंश में उत्पन्न राजपुत्र। कुले राजवंशे कुरुराज देखो कुरुराट्। जाताः कुलजाः शोभनाः कुमारा नवयुवका (जयो० वृ० कुरुहः (पुं०) तरु, वृक्ष, पादप। 'को पृथिव्यां रोहति सम् ५/१) द्भवन्तीति कुरुहा' (जयो० १३/६०) कुलक्षयः (पुं०) कुल नाश, वंश नाश, कुटुम्ब नाश। कुरुवंशी (वि०) कुरुवंशवाला, जयकुमार। कुलगिरिः (पुं०) कुलाचल, पर्वत। कुर्कुटः (पुं०) [कुरु+कुट्+क] मुर्गा, कुक्कुट। कुलतिथिः (स्त्री०) महत्त्वपूर्ण तिथि, अष्ठमी, चतुर्दशी आदि। कुर्चिका (स्त्री०) कूची। कुलटा (स्त्री०) [कुल+अट्+अच्+टाप्] स्वैरिणी, स्वेच्छाचारिणी, कुर्वत् (कृ+शत) करता हुआ। इत्वरिका, व्यभिचारिणी। (दयो ४०, जयो० २/१४३) कुलं (नपुं०) १. परिवार, कुटुम्ब, वंश, गच्छ, समु दाय। | कुलटापतिः (पुं०) जारिणी स्त्री का पति, भ्रष्टपति। कुलस्य-वंशस्य। (जयो० वृ० १/१८) ३.समूह, समुदाय, कुलटाहृदयं (नपुं०) इत्वारिका हृदय, व्यभिचारिणी स्त्री का दल, झुड, संग्रह। कुल' गच्छसमु दाय:, हृदय। 'कुलटाया इत्वरिकाया हृदयेऽवशिष्टमवस्थितम् या 'राजीवकुल-प्रसादकृद्धामा' (जयो०६/१७) ३. आवास, कुलटा रात्रौ निर्भयं व्यचरंताः सूर्योदये सति भीता जाता स्थान घर, गृह। ४. आचार्य की शिष्य परम्परा। इति भावः। (जयो० वृ० १८/३१) कुलः (पुं०) निगम, संघ, अध्यक्ष। कुलतः (अव्य०) [कुक-तसिल्] जन्म से। कुलक (वि०) [कुल कन्] अच्छे कुल का, कुल श्रेष्ठ | कुलता (वि०) कुलीनता। 'यत्र मनाङ् न कलाऽऽकुलताया 'कुलस्तु कुलश्रेष्ठो' इति विश्वलोचन: (जयो० वृ० ४/१६) | विकसति किन्तु कला कुलतायाः'। (सुद० ७६) For Private and Personal Use Only Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra कुलत्थः कुलत्थ: (पुं०) कुलथी, दाल विशेष । कुलतिलकः (पुं०) वंश यश, कुल कीर्ति कुलदीप (पुं०) श्रेष्ठिकुल के दीपका 'कुलदीपयश प्रकाशिते' (सुद० ३/११) कुलदुहित् (स्त्री०) कुलीनकन्या, योग्य पुत्री। कुलधर (वि०) कुलधारक, ०कुलकर। कुलधरः (पुं०) कुलकर मनु । प्रतिधुत आदि । कुलदेवता ( पुं०) कुल परम्परा का देव, जिनदेव। (जयो० वृ० १२/९) कुलन्धर (वि० ) [ कुल +धृ+खच्] कुल/परंपरा स्थापित करने वाला। कुलधर्म: (पुं०) कुल परम्परा । कुलधारक (वि०) कुल को धारण करने वाला। कुलधारक: (पुं०) पुत्र । कुलधूर्य: (पुं०.) कुल का आधार, वयस्क पुत्र । कुलनन्दन: (पुं०) पुत्र, सुपुत्र । कुलनन्दन (वि०) कुल को आनन्दित करने वाला। कुलनायिका (स्त्री०) कुलीन स्त्री । कुलनारी (स्त्री०) कुलीन स्त्री । कुलपरम्परा (स्त्री०) वंश परम्परा । www.kobatirth.org कुलपति: (पुं०) कुल प्रमुख, प्रधान, कुल पालक, कुलरक्षक । कुलपरिभाषा (स्त्री०) कुलरीति । । कुलपांसुका (स्त्री०) कुलटा स्त्री, व्यभिचारिणी । कुलपादपः (पुं) महीर, बांस का वृक्ष (जयो० २५/३०) कुलपालनार्थ (वि०) कुल के पालन हेतु । (दयो० १०) कुलपालिः (स्त्री० ) सती स्त्री । कुलपालिका (स्त्री०) कुलरीति पालक स्त्री, सती। कुलपुत्रः (पुं०) कुलीन सुत, अच्छे कुल का पुत्र । कुलपुत्री (स्त्री०) श्रेष्ठपुत्री, कुलीन पुत्री। कुलपुरुषः (पुं०) कुलीन पुरुष, उत्तमजन सम्माननीय व्यक्ति कुलपूर्वक (पुं०) पूर्व पुरुष, पुराण पुरुष कुलप्रवर्तकः (पुं०) मनु, कुलकर। (जयो० वृ० १२ / ८४) कुलवधू (स्त्री०) कुलीन स्त्री कुलीन भार्या (वीरो० २ / २७) कुलबाला (स्त्री०) कुलीन बालिका । कुलभूषणः (पुं०) मुनि नाम (वीरो० १५/३०) (सुद० ८७) कुलभूषण नामक श्रमणी । कुलभृत (वि०) कुल धारक कुलीन को आनन्द देने वाला। 'कुलभूतां' 'कुलीनानां नन्दनमानन्ददायकः' (जयो० वृ० ९/५१ ) > ३०२ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कुलानुसारिन् कुलभृत्या ( स्त्री०) गर्भिणी स्त्री की परिचर्या । कुलमर्यादा (स्त्री०) कुल की प्रतिष्ठा कुल का सम्मान । कुलमार्ग: (पुं०) कुल परम्परा, वंश रीति । कुलमात्मगात्रं (नपुं०) कुल परिवार का हिस्सा। (सुद० ११७) कुलयोषित् (स्त्री०) कुलीन स्त्री। (वीरो० १७/२ ) कुलवधू (स्त्री०) कुलीन स्त्रो, सदाचरणशीला नारी। कुलविद्या (स्त्री०) परम्परागत ज्ञान, क्रमागत ज्ञान। शिष्य परम्परागत विद्या । कुलविप्र: (पुं०) कुल पुरोहित । कुलवृद्ध : (पुं०) परिवार का अनुभवी व्यक्ति। कुलव्रत: (पुं०) प्रतिज्ञा । कुलश्रेष्ठिन् (पुं०) अग्रणी, प्रमुख, मुखिया, प्रधान वंश का आदरपात्र । कुलशाली (वि०) कुलीनता युक्त (जयो० ५० १/८२) कुलसंख्या (स्त्री०) परम्परा की प्रतिष्ठा कुल की परम्परा । कुलसन्ततिः (स्त्रो०) वंश परम्परा, वंशगत स कुलसंभव (वि०) प्रतिष्ठित कुल में उत्पन्न । कुलसेवक : (पुं०) परिचायक, उत्तम सेवक, अच्छा सेवक। कुलस्वी (स्त्री०) प्रतिष्ठित स्त्री कुलगृहिणी कुलस्वामिनी, मालकिन (दयो० कुलस्थितिः (स्त्री०) कुल समृद्धि, वंश की विशेषता। कुलाकुल (वि०) कुल की व्याकुलता युक्त। कुलाङ्गना (स्त्री०) कुलीन स्त्री सदाचारिणी नारी । कुलाङ्गारः (पुं०) कुलनाशक । , कुलाग्रणी (वि०) कुलीन, शिरोमण, अग्रणी वंश का त व्यक्ति जयकुमार कुलस्य कल्पानि तानूकुलानवाप निष्पापतया कुलाग्रणी (जयो० २४/१२) कुलाचल: (पुं०) पर्वत, गिरि । (जयो० २४/१२) कुलाचारः (पुं०) कुल परम्परा, वंश विधान परिवार की परम्परा । * रीति-रिवाज, कुल व्यवस्था। कुलाचार्य: (पुं०) कुल का मुखिया, कुल का पुरोहित। * संघ का आचार्य, संघ शिरोमणि । कुलानुकूलाचरणं (नपुं०) कुल के अनुसार आचरण वंशानुगत आचार। (जयो० वृ० १/४० ) For Private and Personal Use Only कुलानुसारिन् (वि०) कुल का अनुसारी, परम्परा का निर्वाहक। (समु० ६/४) कुलक्रम के अनुसार शीलान्त्रता सम्प्रति यत्र नारी शीलं सुसन्तान कुलानुसारि (समु० ६(४) Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra कुलायः www.kobatirth.org कुलाय: (पुं० ) [ कुलं पक्षिसमूहः अयतेऽत्रकुल+अय्+घञ् ] पक्षियों का घोसला, नीड, २. स्थान, ३. शरीर । पात्र । (जयो० वृ० १५/१२) कुलायस्थानं (नपुं०) नीडस्थान, घोंसलों की जगह । (जयो० १५ / १२) ०शरीर स्थान, ०पात्र स्थान। कुलायिका ( स्त्री० ) [ कुलाय+ठन्+टाप्] पिंजरा, चिड़ियाघर । कुलाल: (पुं०) [कुल + कालन्] कुम्हार, प्रजापाति । (जयो० वृ० ११/३७) कुलालशालाग्निः (स्त्री) कुम्हार की दीप्तशाला, जलती हुई कुम्हार की भट्टी (दयो० २२) ० अबा। कुलावतंसः (पुं०) कुल का आभूषण। 'अथोत्तमो वैश्यकुलावतंस' (सुद० २/१) * श्रेष्ठ अलंकार । कुलिः (पुं) [कुल् + इच् ] हस्त, कर, हाथ । कुलिक (वि०) [कुल+ठन् ] उत्तम कुल का। कुलिकः (पुं०) स्वजन, अपने कुटुम्बी। कुलिङ्गः (पुं० ) [ कु+लिङ्ग+ अच् । पक्षी खग । कुलिन् (वि०) [कुल + इनि] कुलीन, उच्चकुलोद्भव । कुलिंदः (पुं०) [कुल+ इन्द] एक देश विशेष | कुलिर: (पुं०) [कुलि+इरन्] केंकड़ा, कर्कराशि। कुलिश: ( पु० ) [ कुलि+शी] इन्द्र का वज्र, वज्रायुध । कुली (स्त्री०) (कुलि ङीप् ] बड़ी साली पत्नी की बड़ी बहिन। कुलीन (वि०) उच्चकुल में उत्पन्न, श्रेष्ठ कुलजात, श्रेष्ठकुल । सदवंशल | 'कुलकालमात्रपरायणः सन ( (जयो० १७/ १२३) कुलमित्येकं भूतं नलतां लकार रहितां' (जयो० वृ० १७/ १२३) १. भूस्थित - श्रेष्ठकुल संभव (जयो० वृ० ५/८७) तव तेन कुतो न स्यादविशेषत्कुलीनता । कुलीनस्य हि संस्कारश्चेदन्योन्यसमाश्रयः।। (हित०सं० २२) प्रशस्त संस्कार वाला । २. पृथ्वी में लीन (जयो० वृ० १/८१) ३. कुलशाली(जयो० ० १/८१) । कुलीनचरणं (नपुं०) १. उच्चकुल का चरित्र कुलीनमुच्च-कुलसम्भवं चरणं चरित्रम् (जयो० वृ० ५ / २१ ) २. पृथ्वी का मूल- 'कौ पृथिव्यां लीनं चरणं मूलं येषां तेषु कुलीनचरणेषु' ('जयो० वृ० ५ / २१ ) कुलीनता (वि०) उच्चकुल उत्पन्न हुआ। (हित० सं० २२) कुलीनत्व (वि०) कुलशाली, उच्च कुलत्व गता (सुद०) १०१) अकारि निर्जल्जतया तथा तु नाहो कुलीनत्वमधारि जातु (सुद० १०१ ) ३०३ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कुवलयानंदः कुलीननारी (स्त्री०) कुलीनाङ्गना, उच्चकुल की स्त्री । (जयो० १७/३३) कुलीनवंशज (वि०) अच्छे कुलवाली। (सुद० ११३) कुलीनस्थिति (स्त्री०) कुलीन वंश की स्थिति । (सुद० ११३ ) कुलीना (स्त्री०) सत्कुलोत्पन्ना, अच्छे कुल में उत्पन्न हुई। ततोऽत्र सन्देशपदे प्रलीना बभूव तस्मै न पुनः कुलीना । (जयो० १ / ६७ ) कुलीनाङ्गना ( स्त्री०) कुलीननारी, सदाचरणयुक्त स्त्री । ( मुनि० २० ) कुलीर: (पुं० ) [ कुल+ईरन्] कंकड़ा, कर्कराशि। कुलेन्दुः (स्त्री०) कुलचन्द्र, भरतान्वयचन्द्र (जयो० ७ /१३) कुलेश्वर : ( पुं० ) प्रधान, प्रमुख, मुखिया, अध्यक्ष कुलोत्कट (वि०) उच्चकुलोद्भव, उच्चकुल में उत्पन्न । कुलोत्पन्न (वि०) उच्चकुल में उत्पन्न । कुल्माषं (नपुं० ) [ कुल+क्विप्-कुल् माषोऽस्मिन् ] कांजी। कुल्माषक्षेत्रं (नपुं०) धान्य विशेष का स्थान, कुलश्री, मूंग, उड़द आदि का स्थान । कुल्य (वि०) कुल, वंश, कुटुम्ब । कुल्य् (अक० ) नहर बहना। कुल्यायते (जयो० वृ० १० / २ ) विवाह- वर्णनात्मक-काव्यरसस्य कुलाययते। (जयो० वृ० १०/२) कुल्यराट् (पुं०) ऋतु की शोभा । कुल्येषु कुलीनेषु राजत 'इति' (जयो० १३ / ६६) कुल्या ( स्त्री०) कृत्रिम नदी, नहर (सुद० २ / ४७ ) 'कृत्रिमां नदीं' (जयो० कृ० ११ / १) 'कुले सञ्जाता कुल्या सहोदरी ताम्' कुल्यः (वि०) युक्त, सहित । 'सधर्मिणं वीक्ष्य विवेकुल्यः ' (सम्य० ३६ ) कुवं (नपुं०) १. पुष्प, २. कमल । कुवलं (नपुं०) कुमुद, कमल। १. मोती, २. जल, नीर। (वीरो० ८/१६) मौक्तिक - कुवलं तत्कले मुक्ताफलेऽपि बदरीफले ' इति विश्लोचनः । कुवलत्व (वि०) (जयो० १५/२८) विकसित, पुष्पित। (वीरो० ८/१६) कुवलयं (नपुं०) नीलकमल, कुमुद, पृथ्वी । 'कौ पृथिव्यां वलयमिव' (दयो० १ / २ ) कु-वलयं (नपुं०) भू-मण्डल। (वीरो० २२/१४) कुवलयानंद: (पुं०) कमल विकास, कुमुद का खिलना । कुर्त कुवलयानन्दं सम्बद्धं च सुखंजनै: । (दयो० १/२ ) For Private and Personal Use Only Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कुवलयिनी ३०४ कुशील कुवलयिनी (स्त्री०) [कुवलय इनि+ डी] कुमुदिनी, नील कुशं (नपुं०) कमल पद्य, सरोज, अरविन्द। कमलिनी। कुशल (वि०) [कुशान् लातीति-कुश ला+क] प्रवण, दत्तचित्त, कुवलाञ्चित (वि०) महाबलशाली। महावलीत्थं कुवलाञ्चितोर- 'कुशलं सुखनिमित्तं' तल्लीन, प्रवीण, (जयो० १६/६१) श्चोराप्रियः सज्जनचित्तचौरः। (समु० ४/१०) 'कुशलसद्भावनोऽम्बुधिवत्' (सुद० ३/३०) चतुर, कुवलाली (स्त्री०) १. मौक्तिक माला 'स्वकुलक्रमेणेहिता कल्याण-(जयो० ३/३१, ३/३४। क्षोमपूर्ण। ( वयो०३/३४) वाञ्छिता मोक्तिकमाला' (जयो० १०/३७) २. कुमुद प्रस्थितस्य कुशलं शिरस्यनुस्मोपभाति पथि पादयोऽस्तु। समूह। (जयो० ३/३४) साम्प्रतं कुशल तेऽवलोकनादञ्चनः कुशलतेव कुवलोपहारः (पुं०) १. कुमुदों का उपहार, २. मौक्तिक भेंट। चामनाक्। कुशलं मस्तके एवोपभाति लसति कुशाल्लाति (जयो० १५/२८) गृह्णातीत्यन्वयात्। प्रसन्नचित्त। (जयो० वृ० १२) 'कुशलान् कुवाद (वि०) [कु वद्+अण्] १. निन्दक वचन, मिथ्यावचन, प्रसन्नचित्तान्' (जयो० वृ० ५/१२) २. अधम, निम्न वचन। कुशलक्षेम (पुं०) कल्याण की कामना। (जया० ३/३४) कुवासना (स्त्री०) विषयवासना, मिथ्यावासना, कुत्सित संस्कार। कुशललक्षण (नपुं०) जल लक्षण। कुशस्य जलस्य __ (जयो० १९/९५) लक्षणपरिणामेन। (जयो० २०/६) कुवादिन् (वि०) मिथ्वावचनी, निन्दक, कुआलोचक। २. कुशलं (नपुं०) कल्याण (जयो० ३/३१) प्रसन्न, दत्तवित्त, सफेद झूठ बोलने वाला। 'दुरभिनिवेश-महोद्धर-कुवादिनामेव हर्ष, आनंद। दन्तिनामदयाम्।' (वीरो०४/४३) कुवादिनः कुत्सितं वदन्तीति कुशलकाम (वि०) कुशलता की कामना। ये तेषाम' (वीरो० वृ० ४/४३) भवन्ति ते किन्तु कुशलता (वि०) क्षेमपूर्णता, चतुरता। (जयो० ९/३२) कुशलता यशोवृषादिविनाशनायास्ति कुत: कुवादी। (समु० ३/३३) कुशततिरिव। यद्वा कुशलस्य भावः कुशलता क्षेमपूर्णतास्ति। कुविकः (पुं०) कुविक नामक देश। (जयो० वृ० ३/३४) कुवित् (वि०) विचारहीन दुर्बुद्धि। (जयो० २/१२४) कुश-लता (स्त्री०) कुशतति, दर्भ समूह। कुशस्थ लता पम्परा कुविद् (वि०) ज्ञानहीन। तस्यातिशयेन समर्थितोऽपि (जयो० तृ० १/३२) कु-विद् (वि०) भूमि विशेष, भृज्ञाता, पृथ्वी का जानकर। (जयो० २७/३७) कुवित् लोः पृथिव्या बुद्धिर्यस्य तदस्ति। । कुश | कुशल-प्रतिकुशलं (नपुं०) अत्यंत कुशल, क्षेम परिपूर्ण। (जयो० वृ० २७/३७) (जयो० १२/१३८) कुविंदः (पुं०) तन्तुवाय, जुलाहा। कुशल-प्रश्न: (पुं०) मंगल कामना। कुविधा (स्त्री०) कुत्सित पद्धति। (सम्य० ६३) (जयो० कुशलभावः (पुं०) ज्ञान रूप भाव। ३/१७) कुशलाशयः (पुं०) जलाशय, सरोवर। (सुद० २/२०) कुवेणी (स्त्री०) [कु+वेणु इन्+ङीष] मत्स्य टोकरी, मछलियां कुशलिन् (वि०) [कुशल इनि] प्रसन्न, खुश, हर्प। रखने की टोकरी। कुशा (स्त्री०) [कुश+टाप्] रस्सी, रज्जू, लगाम। कुवेल (नपुं०) [कुवेषु जलजपुष्पेषु ई शोभा कुशावती (स्त्री०) नगरी नाम विशेष। लाति-कुव+ई+ला+क] कमल, पद्म। कुशास्त्र (नपुं०) खोटे शास्त्र, आचार विहीन शास्त्र। जातु कुवृत्तः (पुं०) कदाचार, मिथ्या आचरण। (वीरो० ११/३२) नात्र हितकारि सन्मनो भ्रंशयेदपि तु तत्त्ववमनः। तत्कुशा(सम्य० १३७) स्त्रमवमन्यतमिति कः श्रयेदवहितं महामतिः। (जयोः २/६६) कुश: (पुं०) [कुशी+ड] दर्भ, कुश। (जयो० ३/३४) २. कुशिक (वि०) [कुश ठन्] तिरछे नेत्र युक्त, भंगे नेत्र वाला। कुश नामक बालक, राम का बड़ा पुत्र। (जयो० १३/५९) कुशिका (स्त्री०) कुदाली। (जयो० ३/४८) सहसा सलवाङ् कुशाशया दधती कञ्जगति स्थिराशयम्। कुशी (स्त्री०) [कुश+डी] हल की फाली। (जयो० १३/५९) ३. पापात्म, पापिष्ठ, मत्त-कुशो मत्तेऽपि कुशील (वि०) शील रहित, कुत्सितशील, विवेकहीन। पापिष्ठे इति वि० (जयो० २७/३३) 'कुत्सितशील: कुशील:' (भ०आ०टी० १९५०) For Private and Personal Use Only Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कुशीलकर्मन् ३०५ कुसमाञ्जलि कशीलकर्मन् (वि०) खोटा कर्म करने वाला, विवेक विहीन | कुसीदायी (स्त्री०) सूद लेने वाली! कर्म वाला। कुसुमं (नपुं०) [कुष् उम] पुष्प, प्रसून, सुमन, फूल। (जयो० कुशीलवः (पुं०) [कृत्सितं शीलमस्य कुशील व नट, भाट, ३/५१) 'कामोऽदृश्यो वर्तते, अनङ्गात् अथवा कुसुमेषु, नर्तक। (जयो० २/१११) कौः पृथिव्या सुमा सोमा तस्या इषुः शल्य रूपोऽस्ति।' कुशीलवकर्मन् (नपुं०) [कशीलवो नटस्तस्य कर्म (जयो० ६/८७) नर्तनम्'-नर्तन] भाट, नट क्रिया। (जयो० वृ० २/१११) कुसुमगुणं (नपुं०) पुष्प पराग। कुशीलवा (वि० ) बड़-बड़ाने वाले (वीरो० ९/२६) कुसुमगुणितदाम (स्त्री०) पुष्पमाला। 'कुसुमैर्गुणितं प्रारब्ध कुशुम्भः ( पुं०) [कु+शुम्भ-अच्कमण्डलु, जलपात्र। यद् दामं माल्यं। (जयो० वृ० १०/१३) कुशूल: (पुं०) [कुस्। ऊलच्] कोठी, भण्डार। २. गत विशेष, । कुसुमचाप: (पुं०) कामदेव, मदन। जो प्रमाणांगुल से निष्पन्न एक योजन प्रमाण लम्बे एवं कुसुमचित (वि०) पुष्पसमूह। चौड़ गर्त स्थान। कुसुमतुल्यं (नपुं०) पुष्प सदृश। (जयो० वृ० ३/५३) कुशूला (स्त्री०) कुम्भ निमाण का साधन। (जयो० वृ० कुसुद मिं (नपुं०) पुष्प माल्य, सुमनमाल्य, कुसुममाला ११/३७) (जयो० १२/१२) कुशेशयं (नपु०) [कुशे शो+अच्] १. कुमुद, कमल, पद्म। कुसुमपरागं (नपुं०) पुष्प पराग। नितम्बिनीना मृदुपादपद्यैः प्रतारितानोति कुशेशयानि। (वीरो० कुसुमपुरं (नपुं०) पाटलीपुत्र का नाम। ४/१५) दति केलिकुशेशय तु स्वे' (जया० १०/६३) २. कुसुमप्रेमी (वि०) पुष्प प्रेमी। (जयो० वृ० ११/९०) दाभशयन, डाभशय्या, दार्भ को चढ़ाई। 'कुशेशय वेद्मि कुसुम-बधं (नपुं०) पुष्प समूह। निशास् मौनम्' (जयो० ११/५०) ३. रुईदार गद्दा- कुसुमल (वि०) पुष्पावली, पुष्प पंक्त्यिां । 'कुशशयाभ्यस्तशया शयाना या नाम पात्री सुकृतोदयानाम्। कुसुमलता (स्त्री०) पुष्प लता। (मुदः २/१०) कुसुमवती (स्त्री०) रजस्वला स्त्री। कुशेशयः (3) सारस पक्षी। कुसुमवर्षी (स्त्री०) पुष्पवर्षी। (जयो० १४/२०) कुष् (सक०) ०फाड़ना, निचोड़ना, खींचना, निकालना, कुसुमवासः (पुं०) पुष्प निवास, पुष्प गन्ध पुष्पशोभा। बाहर करना, ०फेंकना, विदीर्ण करना, परीक्षा लेना, कुसुमल-वासः (पुं०) पुष्पावली, पुष्पसमूह। कुसुमं लातीति निरीक्षण करना। कुसुमल: चासौ वासो निवास:-पुष्पावली विभूषितो। (जयो० कुधाकुः (पुं०) [कुप्काकु] १. सूर्य, बहि, २. बन्दर, लंगूर! वृ० २२/४३) कुष्टात्मन् (वि०) कोढ़ वाला (समु० ६/३८) कुसुम-शयनं (पुं०) पुष्प शय्या। कुष्ठः (पुं० [कुपा कथन] कोढ़। कुसुम शय्या (स्त्री०) पुष्पासन, फूलों की सेज। कुष्ठनिवारणं (नपुं०) कोढ़ मिटाना, कोढ़ दूर करना। णमो कुसुम-स्तवकः (पुं०) गुलदस्ता, पुष्पगुच्छक। (दयो० वृ०५५) घोरगुण- परक्कमाणं कुष्ठादिनिवारणे प्रमाणम्। (जयो० कुसुमस्रक् (पुं०) पुष्पमाला, कुसुममाला। (सुद० ७२) ११/७५) कुसूमम्रज देखो ऊपर। कुष्ठित (वि०) [कुष्ठ इतच्] कुष्ठ से पीड़ित, कोढ़ ग्रस्त। कुसुमस्रक्षेपणी (वि०) पुष्प बरसाने वाली। 'कुसुमानि तेषां कुष्ठिन् (वि०) [कुष्ट इनि] कोढ़ी। सजं माला क्षिपतीति क्षेपणी क्षेपणकीं।' (जयो० वृ० ३/८९) कुष्ठमाण्डुः (पुं०) कुम्हड़ा, कटू. लोकी, तूमड़ी। 'कु ईषत् । कुसुमश्री (स्त्री०) पुष्प शोभा, प्रसून सुषमा। (समु० २/१४) उग्मा अण्डेषु बीजेषु यस्या' नवयौवन-भूषिता यदा कुसमश्रीर्हि वसन्तसम्पदा। (समु० कुस् (सक०) आलिंगन करना. गले लगाना, घेरना। २/१४) कुसितः (पं०) [कुटर+क्त ] सम्पन्न देश। कुसुमाञ्जनं (नपुं०) भस्म से निर्मित अंजन, सुगंधित पुष्पों से कुसीदः (पं०) साहूकार। बनाया गया अंजन/चूर्ण। कुसीदा (स्वी०) (कुसीद-टाप्सूबेदारिनी, सूद लेने वाली स्त्री। For Private and Personal Use Only Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org कुसुमाधिषः कुमाञ्जलि (स्त्री०) पुष्पसमान अञ्जली श्रद्धासुमन । हरिताङ्कुरतति समर्चनालक्षण (जयो० १२/५७) मृदु पादभुवीष्टदेवतानां समभूत्सा कुसुमाञ्जलिः सुमाना। (जयो० १२/१०४) कुसुमाधिष (पुं०) चम्पक लता। कुसुमायित (वि०) कुसुम से युक्त काम युक्त । (वीरो० ८/१०) कुसुमायुधः (पुं०) काम, मदन। 'प्रयाणवेलां कुसुमायुधस्याप्येहो' (जयो० १४/२) कुसुमायुधसेना (स्त्री०) कामदेव की सेना 'कुसुमायुधः कामस्तस्य सेना ।' (जयो० वृ० ६ / ११५ ) कुसुमावचय: (पुं० ) ०पुष्प संचयन, ०पुष्पसंकलन ० पुष्पचयन, ० फूलों का चुनना (दयो० ६३) 'कुसुमावचयं सरजस्कदृश: ' (जयो० १४ / १२) 'कुसुमानां पुष्पाणामवचयः' संकलनं (जयो० पृ० १४/१२) , कुसुमित (वि०) [ कुसुम इतच् ] फूलों से युक्त, पुष्पों से सुशोभित कौसुम्भराग संयुक्त (जयो० १८/१४) कुसुमेष्वराति: (पुं०) महादेव शिव (जयो० १/३५) कुसमोच्चिचीषा (वि०) कुसुम संचयन की इच्छा। 'कुसुमं पुष्पं तस्योच्चिचीषा गृहीतुमिच्छा' (जयो० वृ० १४/२७) कुसुमोज्ज्वल (वि०) पुष्पों की उज्ज्वलता कुसुमोत्तमवाटी (स्त्री०) पुष्पों की सुन्दर कटिका । भामिनी गुणवृतेव सुशाटी याऽपि शील कुसुमोत्तमवाटी' (समु० ५/१८) , कुसूलः (पुं०) भण्डार, अन्नागार। कुसूति (स्त्री० ) [ कुत्सिता सूतिः ] ठगी, छल भाव । कुस्तुभ: (पुं० ) [ कु+ स्तुभ् + क] १. समुद्र, २. विष्णु । कुश्रुत (वि०) १. कु श्रवण, २. कुशास्त्र । कुश्रुतज्ञानं (नपुं०) मिथ्यादर्शन से युक्त ज्ञान। 'मिथ्यादर्शनोदय सहचरितं श्रुतज्ञानमेन कुश्रुतज्ञानम्' (पं०चा०व०४१ ) कुहः [कुणिच्+अच्] कुबेर, धनपति कुहकः (पु० ) [ कुछ+क्वन्] ठक, चालाक। कुहकरं (नपुं०) चालाकी, ठगी । कुहककार (वि०) कपटी, छल करने वाला। कुहकचकित (वि०) भ्रमित, भयभीत युक्त। कुहन (पुं०) [कु-हन् अच्] मृषा, शीशे का वर्तन। २. इन्द्रजालिक आश्चर्य मिथ्या । कुहना ( स्त्री०) दंभ. मिथ्या मृषा, झूठ। ३०६ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कुहरं (नपुं०) गुफा, गह्वर, गर्त, (वीरो० १२ / ४१ ) कुहर: (पुं०) प्रदेश, स्थान (जयो० वृ० १४/६८) व्यक्तोऽसो वलिवद्धनाभिकुहर:' भंवर के समान त्रिवलियों से युक्त नाभि रूपी प्रदेश है। 'नाभिकुहरस्तुण्डिका प्रदेशः' (जयो० वृ० २४/१३५) कुहरितं ( नपुं०) १. कोयल शब्द । ध्वनि। कूक । २. संभोग कालीन शब्द। (जयो० वृ० २१ / ३१) कुहू (स्त्री० ) [ कुह + कु] १. कोयल का शब्द । पिक कूक । (जयो० १४ / ६३) 'कुहुः करोतीह पिकद्विजाति स एष संखध्वनिराविभाति' (वीरो० ६/१९) २. अमावस्या दिवस। कुहुरव: (पुं०) कूक, शब्द ध्वनि विशेष । कुहुशब्दः (पुं०) कुहु कुहु ध्वनि । कू ( सक०) ध्वनि करना, कलरव करना । कूकः (वि०) ध्वनि, शब्द, कलरव (सुद० ८१) कूची (स्त्री०) ब्रुश, कूंची कूज् (अक० ) गूंजना, शब्द होना, कूकना, बजना 'बलाश्वकुजुः केकारवञ्जकुरित्यर्थः ' (जयो० वृ० २/८) 'चुकूजाऽकूज - दित्यर्थः' (जयो० वृ० १० / २१) कूज: (पुं०) कूजना, ध्वनि करना । कूजनं (नपुं०) [कृप] कृजना, ध्वनि करना, कुहू कुहु कूटछद्मन् करना । कूजित (वि०) ध्वनित शब्दायमान (दी०) कूट (वि० ) [ कुट् + अच्] मिथ्या, अलीक, १. अचल, स्थिर । कूट: (पुं०) १. भ्रम, पोखा, छल, २. कूटना, जलाना, कष्ट उत्पन्न करना । 'कूट्यते दह्यते अमुना परः परिणामास्तरेणेति कूटम्' (जैन०ल०३६३) २. चूहादानी मूषक जाल । ३. शिखर गिरि का ऊपरी हिस्सा मेरु-कुलसेल विंझसज्झादिपव्वया कूडाणि णाम' (धव० पु०१४/४५५) ४. ढेर, राशि, समूह | कूटकं (नपुं०) चालाकी, धोखाधड़ी। कूटकार (वि०) झूठा, आलीकवादी, मिथ्यावादी। कूटकृत् (वि० ) ठगी विद्या करने वाला । झूठे लेख लिखने 3 For Private and Personal Use Only वाला। कूट-कार्षापण (०) झूठा कार्यापण कूट - खङ्गः (पुं० ) गुप्ती, छोटी तलवार । कूटग्राह: (पुं०) पिंजरा, जीवों को पकड़ने का उपकरण । 'कूटेन जीवान् गृह्णातीति कूटवाह' (जैन००००३६३) कूटछद्मन् (पुं०) ठग, धोखेबाज | Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org कूटतुला कूटतुला ( स्त्री०) पासंग युक्त तुला, तोलने के कांटे एवं नापने के साधनों को हीन या अधिक रखना। कूटतुलामानं (नपुं०) कूट तुलामान, अचौर्यव्रत का अतिचार । कूटतुला कूटमाने तुला प्रतीता, मानं कुड्यादि कूटत्वं न्यूनाधिकत्वं न्यूनया ददाति अधिकया गृह्णाति' (श्रावक प्रज्ञप्ति टी० २६८ ) कूटधर्म (वि०) मिध्याधर्म, झूठ युक्त धर्म। कूटपालकः (पुं०) १. हस्तिवात ज्वर, पित्तदोष युक्त ज्वर। २. कुम्हार, कुम्हार का अबा। कूटपाशः (पुं०) फंदा, जाल कूटपुरुषः (पुं०) कृत्रिम पुरुष, पुतला। (जयो० २ / ३१) कूटबन्ध (पुं०) फंदा, जाल । कूटमानं (नपुं०) झूठा माप झूठा तोल । कूटयन्त्रं (नपुं०) पक्षिजाल कूटयुद्धं (नपुं०) कपट युक्त लड़ाई । अन्याभिमुखं प्रमाणकमुपक्रम्योपघातकरणं कूट युद्धम्। (जैन०ल०३६३) कूटलेख (पुं०) बनावटी लेख, झूठा लेख कूटलेखकरणं (नपुं०) मिथ्या लेख लिखना, झूठा लेखन कार्य करना । कूटलेखक्रिया (स्त्री० ) सत्याणुव्रत का अतिप्यार, असद्भूतपदार्थ का मुद्रण करना, पंचनार्थ लिपि लिखना 'वंचनानिमित्तं लेखन कूटलेखक्रिया (त०सू०७/२६) कूटश: (अव्य० ) [ कूट-शस्] समूह में कूटशाल्मलि (पुं०) सेमल वृक्ष की जाति । कूटशासनं (नपुं० ) मिथ्यापत्र, झूठापत्र, फर्जी दस्तावेज | कूटसाक्षिन् (पुं०) झूठी गवाह | कूटसाक्षिक (नपुं०) झूठी गवाह मात्सर्यभाव से असत्य भाषण, द्रोह से युक्त झूठ कथन । सत्याणुव्रत का अतिचार । कूटसाक्षिकं उत्कोच मत्सराभिभूत प्रमाणीकृतः सन् कूट वक्तीति' (श्रा०पु०टी० २६० ) कूटसाक्ष्यं (नपुं०) असत्य भाषण । कूटस्थ (वि०) शिखर पर स्थित उच्च भाग पर खड़ा हुआ। (जयो० २४/३८) कुटे प्राकृपर्वतस्य शिखरे तिष्ठतीति' (जयो० २८/६०) कूटस्थता (वि०) मायाचार, छलकपटता कूटैः मायाचार सह तिष्ठतीति (जयो० वृ० २४/३८) कूटस्थानं (नपुं०) उच्चस्थान, ऊँचा भाग, शिखर कूटस्वर्ण (नपुं०) खोटा सोना कूण् ( सक०) बोलना, कहना, वार्तालाप करना। ३०७ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कूणिका (स्त्री०) सींग । [ कूणित (वि०) (कूण्+क्त] आच्छादित आवृत, मंद हुआ। कूद्दालः (पुं० ) [ कु+ दल+अण्] पर्वतीय आवनूस । कूप: (पुं० ) [ कुर्वन्ति मण्डूका अस्मिन् कु+ एक्] १. कूप, कुंआ । (दयो० ४७) 'कूपे निपत्य तेनात्मविनाश: ' 'नितान्तमानन्दसुधैककूपान्' (भक्ति०२) १. अन्धकार (जयो० ७ / १०१) कूपोऽन्धुगर्तमृण्मान कुपते' इति वि १. छिद्र, रन्ध, छेद, गर्त, २. कुप्पी । कूर्मोन्नतः कूपकः (पुं०) [कूप्+कन्] कुंआ, छिद्र। * नलकूप । कूप कच्छप: (पुं०) १. कुएं का मेंढक २. अनुभवहीन, विचारशून्य | कूपयन्त्रं (नपुं०) रहट, पानी निकालने का साधन ! कूपयन्त्रघटी (स्त्री०) रहट की घटिया कूपा (स्त्री०) छोटा कुंआ । कूपार: (पुं०) सागर, समुद्र, उदधि कूपी (स्त्री० ) [ कूप + ङीष् ] कुइया, छोटा कुंआ । कूवर (वि०) १. सुन्दर, रुचिकर, २. कुबड़ी । कूवर: (पुं०) गाड़ी का धुआं । कूवरी (स्त्री०) १. कम्बल, २. कूबड़ी । कूर: (पुं० ) [ कौ भूमौ उवं वयनं लाति-ला-क] भोजन । कूर्च : (पुं० ) [ कुर्+चट्] गुच्छा, समूह, गट्ठर, घास का पूरा मोरपंख । कूर्चनं (नपुं०) खुरचना, क्षोदनत। (जयो० २ / १५६) कूर्चिका ( स्त्री० ) [ कूर्चक+टाप्] कूंची, चित्र बनाने की कूची, पेंसिल, बुश, कली, फूल। कूर्द ( सक०) कूदना, उछलना, छलांग लगाना, खेलना। (सुद० ४ / २६ ) कूर्दनं (नपुं० ) [ कूर्द + ल्युट्] उछलना, कूदना, खेलना, क्रीड़ा करना । कूर्दित (वि०) क्रीड़ा करने वाला (सुद० ४/२६) कूर्प: (पुं०) भौंह के बीच का हिस्सा । कूर्पर: (पुं०) १. कच्छप, कूर्म। २. कुहनी, कोहिनी । ३. ककोणिदेश (जयो० १५/८३) For Private and Personal Use Only कुर्मः (पुं०) [ को जल ऊर्मिः वेगोऽस्य ] कच्छप, कछुवा । कूर्मपुराण: (पुं०) अष्टादश पुराण में एक पुराण में एक पुराण (दयो० ३१) कूर्मिक (वि०) कच्छपा, कर्मठा (जयो० २४ / १६ ) कूर्मावतार (पुं०) विष्णु अवतार। कूर्मोन्नतः (पुं०) त्रिषष्टि शलाक । पुरुष समान उन्नत । योनि । कछुए के Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कूर्मवत् ३०८ कृततीर्थ कूर्मवत् (वि०) कछुए की तरह। (जयो० वृ० १/६) कूलं (नपुं०) [कूल+अच्] किनारा, तट, ०ढलान, ०उतार, छोर, कोर, ०तालाब तट। निदाघकालेऽप्यतिकूलमेव प्रसन्नरूपा वहतीह देव। (वीरो०२/१५) कूलचर (वि०) किनारे घूमने वाला, नदी के तट पर भ्रमण करने वाला। कूलङ्कष (वि०) [कूल कष्-खच्] खोखला करने वाला, तट काटने वाला। कूलङ्कया (स्त्री०) नदी, सरिता। कूलन्धय (वि०) [कूल+धे+खश्] चूमता हुआ। कूलमुवह (वि०) [कूल उद्+वह खश्] किनारे की ओर ले जाने वाला। कुहण्डकः (पुं०) भंवर। कुलानुसारिणी (स्त्री०) नदी, सरिता। (वीरो० ३/३३) कूष्माण्डः (पुं०) [कु ईषत् ऊष्मा अण्डेषु वीजेषु यस्य] पेठा, कुम्हला, तुम्बी, भूरा कुम्हडा, भूरा कद्दू। कूहा (स्त्री०) [कु ईषत ऊह्यतेऽत्र कु+उह-क] कुहरा, हिमपात। धुंद। कृ (सक०) १. ०करना, गड़ना, २. ०तैयार करना, ३. ०बनाना, निर्माण करना, ४. उत्पन्न करना, रचना। (जयो० १/६) कुरुते (सम्य० ७८) क्रियते (सम्य० ७१) कुर्यात् (सम्य०७२) कर्तुं (सुद०) चकार (सुद० ७८) रदेषु कर्तुं मृदुमञ्जनंच। (वीरो० ५/९१) कुर्वन् (वीरो० ५/१) 'कुर्वन् जनानां प्रचलात्प्रभाव:' (वीरो० ४/११) सुभगा हि-कृता (जयो० ३/५८) कुरु सुद० २/४०। 'कृत्वाऽर्हदिज्याविधि' (सुद० वृ०६८) 'सुरश्चिन्तां चक्रे मनसि' (जयो० २/१४३) चक्रे-अचिन्तयत् कौतुकं कौ तु कस्मान्न कृतवान् कृतवाञ्छन:' (जयो० ३/६८) 'कृतवान् उत्पादितवानेव' (जयो० ३/८५) कुर्वन् स विरराम-(जयो० ३/९२) कायेन कुर्वतामेव-'हित०२। कृकः (पुं०) [कृ+कक्] गला, कण्ठ। कृकणः (पुं०) तीतर पक्षी। कृकलास: (पुं०) छिपकली, गिरगिट! कृकवाकु: (पुं०) [कृक+वच्+अण्] मुर्गा, मोर, छिपकली। । कृकाटिका (स्त्री०) [कृका अट्+अण्टाप्] गर्दन का पिछला भाग। कृच्छ (वि०) कष्ट देने वाला, पीड़ा कर, दुष्ट, पापी, कृतघ्नी।। कृच्छः (पुं०) कष्ट, दु:ख, विपत्ति। कृच्छं (नपुं०) कष्ट, दु:ख, विपति। कृच्छूकार्य (नपुं०) सिद्धकार्य, समस्त कार्य। ( सुद० ९२) कच्छप्राण (वि०) कष्टपूर्वक निश्वास लेने वाला। कृच्छसाध्यः (वि०) कष्टसाध्य। (जयो २/६१) कृत् (सक०) काटना, कुतरना, विभक्त करना, नष्ट करना। कृत् (वि०) [क क्विप्] कर्ता, निर्माता, बनाने वाला, उत्पन्न करने वाला, रचित। (जयो० १/१७) 'कृतं धातुतः संज्ञाकरणार्थं प्रत्ययं भजन् जानन् सन् गुणिता सम्पादिता' कृतं (नपुं०) उत्पन्न, तीनों कालों में उत्पन्न। आत्मना यत् क्रियते प्रक्रियते तत् कृतम्। (भ० आ०टी० ८११) कृत (वि०) [कृ+क्त] किए गए, अनुष्ठित, निर्मित, निष्पन्न, उत्पादित। 'कृतान् प्रहारान् समु दीक्ष्य' (सुद० ८/५) कृतक (वि०) [कृत। कन्] निर्मित, रचित, सम्पन्न, सज्जित, तैयार किया गया। (जयो० १/३५) कृतकः (पुं०) १. झूठ, अलीक, असत्य। २. कंस 'कृतकं सभयं सततमिङ्गित' (सुद० ११२) कृतकर्म (वि०) करने योग्य कार्य। कृतकार्य (वि०) कार्यकुशल, कृतकृत्या शाणतो हि कृतकार्य आयुधी। (जयो० २/४१) कृत-कौशल (वि०) सम्पादित कार्य, निष्पन्न कार्य। 'कृतं सम्पादित कौशलं सामर्थ्यं दधत्' (जयो० २१८६) कृतकृत्य (वि०) कृतार्थ. सन्तुष्ट, परितृप्त। कृतकायः (पुं०) खरीददार। कृतक्षण (वि०) प्रतीक्षा करने वाला। कृतघ्न (वि०) अकृतज्ञ, अपकारी। कृतघ्नोयेव देहाय, दातुं भुक्तिमपीत्यसौ। कृतघ्नी (वि०) अपकारी। (वीरो० २/३२) (समु० ९/९) कृतचार (वि०) गमन क्रिया, गति करने वाला। कृतः प्रारब्धश्चारोपगमनं (जयो० १५/३) कृतचूडः (वि०) किए गए चूडा/मुण्डन संस्कार वाला। कृतज्ञ (वि०) आभारी, ऋणी। कृतं परोपकृतं जानाति। (वीरा० १७/३) उपकार मानने वाला। (सुद०७९) कृतज्ञाऽहमतो भूमौ (सुद० ७९) कृतज्ञता (वि०) उपकार भाव (वीरो० १८/३८) किसी का भला करने पर उपकार भाव वाला। प्रत्युपकार (वयो०वृ० २०/६४) 'त्यागिताऽनुभविता कृतज्ञता' (जयो० २/७४) कृततीर्थ (वि०) तीर्थ दर्शन वाला। For Private and Personal Use Only Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कृततीर्थसेवः ३०९ कृतिः कृततीर्थसेवः (पुं०) धर्मतीर्थ की सेवा। दिनादि अत्येति तटस्थ एव स्वक्तितोऽसौ कृततीर्थ सेवः' (सुद० १११) कृतदासः (4) सेवक, भृत्य बनाना! कृतधी (वि० । दुरदर्शी, शिक्षित, बुद्धिमान। कृतनिश्चय (वि०) निश्चय किया गया, दृढ़ प्रतिज्ञ, संकल्पशील, बनाया गया, अच्छी तरह निश्चय किया गया। कृतप्रचार (वि०) उत्पन्न करने वाला। 'अनेक धान्यार्थकृतप्रचारा।' (सुद० १४८) कृतप्रभाव (वि०) प्रभाव युक्त। (जयो० १३/३५) कृतप्रयत्नः (पुं०) प्रयत्न जन्य। (वीरो० १४/३२) कृतप्रयाण (वि०) प्रयाण करने वाला। (वीरो० २१/९) 'सोम शरत्सम्मुखमीक्षमाणा रुपेव वर्षा तु कृतप्रयाणा' (वीरो २१/९) कृतप्रतिकृतं (नपुं०) आक्रमण करना, बदला लेना। कृतप्रतिज्ञ (वि०) प्रतिज्ञा युक्त, निदान वाला, संकल्प युक्त! कृतबुद्धि (वि०) ज्ञानी, पंडित, विद्वान्। कृतम् (अव्य०) पर्याप्त, इतना ही, मात्र, केवल! कृतमङ्गला (स्त्री०) मांगलिक कार्य करने वाला। 'अथ प्रभाते कृतमङ्गला सा' (सुद० २/१२) कृतमुख (वि०) विज्ञान, प्रज्ञ. बुद्धिमान! कृतयुग (विव) सुखोत्पादक युग। जेण य जुगं णिविटुं पुहईए सयलसत्त सुह-जणणं। तेण उ जगम्मि घुटं तं कानं कयजुगं णाम।। (पउम०वृ०३/११८) कृतयुग्म (वि० ) एक राशि विशेष, चार का भाग देने पर जिस संख्या में चार अवस्थित रहे अर्थात् चार से जो अपहृत हो जाती है व शेप कुछ नहीं रहता है उसे कृतयुग्म राशि कहते हैं। चहि अवहिरिज्जमाणे जम्हि रासिम्हि चत्तारि ट्ठांति तं कदजुम्म। (धव० ३/२४९) कृतवर्मन् (पु०) कृतवर्मन् राजा। कृतवान् (वि०) किया गया, सम्पन्न पूर्ण हुआ। (वीरो० २२/३४) इत्यनन्यमनस्कारैः प्रस्थानं कृतवाञ्जवात्। (जयो० कृतशर्मपूर्तिः (स्त्री०) सुख सम्पदा की पूर्ति। (समु० ५/११) कृतशोभ (वि०) विभूषण सहित, शोभाशील। कृतशौच (वि०) शुचिता युक्त, पवित्रता सहित, सुन्दर. उत्तम, श्रेष्ठ। कृतश्रम (वि०) श्रम साध्य, परिश्रम करने वाला, अध्येता, अध्ययनशील। कृतसंकल्प (वि०) दृढ़ संकल्प. निश्चय युक्त। कृतसंकेत (वि०) नियत संकेत, निश्चित संकेत युक्त। कृतसंज्ञ (वि०) चेतन प्राप्त! कृतसंनाह (वि०) कवचधारी। कृतसापलिका (वि०) द्वितीय व्याहस्युक्त, दूसरी पत्नी वाला। कृतसूचिः (स्त्री०) संकेतपद्धति। 'कृता सूची संकेतपद्धतिः' (जयो० ६/९१) कृतहस्त (वि०) दक्ष, चतुर, योग्य, कुशल, पटु। कृतहस्तक (वि०) प्रवीण, प्रज्ञ, श्रेष्ठ। कृतहस्तता (वि०) दक्षता प्राप्त। कृताकृत (वि०) पूरा नहीं किया गया। कृताङ्क (वि०) चिह्नित, लाञ्छित। कृताञ्जलिः (वि०) विनम्रभाव वाला। कृतोऽञ्जलौ हस्तसंयोग अत्यादरः (जयो० ६/७५) हस्तपुट युक्त, हाथ जोड़ने वाला। कृतान्त (वि०) विध्वंसकारी। १. पापकर्म, अशुभकर्म, प्रारब्ध, २. उपसंहार। कृतान्त (वि०) पक्वाहार, पचा हुआ भोजन। कृतापराध (वि०) अपराध करने वाला, अपराधी, दोषी। (सुद० २/२६) कृताभय (वि०) सुरक्षित, भय रहित। कृताभिषेक (वि० ) अभिषिक्त, राज्य अभिषेक युक्त। कृताभ्यास (वि०) अभ्यास जन्य, अध्ययनशील। कृतार्थ (वि०) प्रयोजन युक्त, उद्देश्य सिद्ध। 'कृतार्थतां सकलजीवनतां गता' (जयो० वृ० २३/८०) सफल, धन्य धन्य, प्रस्पष्टलक्षण, कृतकृत्य। 'नीताश्च कृतार्थतां भवन्द्रिः' (जयो० १२/१३९) 'पदेन हावादिगणः कृतार्थः' (जयोल १६/४२) 'कृतार्थ प्रस्पष्टलक्षणो बभूव' (जयो० वृ० १६/४२) कृतार्थन् (वि०) की गई प्रार्थना वाला। (वीरो० १३/३९) कृतार्थिन् (वि०) कृतार्थी, कृतज्ञता वाला। (वीरो० १८/१) कृतावान (वि०) बना लिया (सुद० १३४) (जयो० २४/९४) कृतिः (स्त्री०) [कृ+क्तिन्] उत्पादन, निर्माण, रचना, अनुष्ठान, कृतविद्य (विव) विद्वान, प्रज्ञ, यज्ञ, शिक्षक। कृतवेतन (वि०) वेतन वाला, वैतनिक। कृतवेदिन् (वि०) कृतज्ञ, आभारी। कृतवेश (वि०) वेश युक्त, भूषण सहित, विभूषित। कृतशंस (वि०) प्रशंसा कृत, प्रशंसा की जाने वाला। 'अर्हतामुत सतां कृतशंसः' समनि न्यवसदगिवतंस'। For Private and Personal Use Only Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कृतिकर ३१० कृपणधी: कार्य, कर्म, काम, स्वीकृत वचन। (सुद० ११३) सूक्तं समुक्तवानेवं तत्र निम्नोदितं कृति-(सुद० ११३) कृतिकर (वि०) कृतिकार, रचनाकार। कृतिकर्म (वि०) करणीय कार्य। 'तल्पं कल्पय केवलं संकल्पय कृतिकर्म' (जयो० १८८९) कृतिन् (वि०) विद्वान्, प्रज्ञ, बुद्धिमत्। (जयो० वृ० १/४२) चतुर, योग्य, प्रवीण, सक्षम, विशेषज्ञ, आज्ञाकारी। कृते कृतेन (अव्य०) के कारण, के लिए। कृतेक्षण (वि०) दृष्टिपात। (जयो० १३/४) कृतोऽपि (अव्य०) किसी से भी। 'भयाढ्यो न कृतोऽपि भीतिः' (सुद० १/२३) कुतोचितानुचित (वि०) उचित अनुचित का विचार। (जयो० २३/५७) कृत्तिः (स्त्री०) [कृत्+क्तिन्] १. त्वच, त्वचा, चमड़ा, खाल। 'दुष्टा प्रवृत्तिः खलु कर्मकृत्तिस्तत्त्वं' (जयो० २७/५) 'कर्मणां दुरितानां कृत्तिस्त्वचा' (जयो० वृ० २१/५) २. क्षुरिका, कतरनी-(वीरो० १/३६) परस्पर द्वेषमयी प्रवृत्तिरेकोऽन्य जीवाय समात्तकृत्तिः' (वीरो० १/३६) समात्ता समुत्थापिता कृत्तिश्छुरिका' (वीरो० वृ०१/३६) ३. भोजपत्र, ४. कृत्तिका नक्षत्र, कृत्तिका मण्डल। कृत्तिका (स्त्री०) [कृत्+तिकन्] तृतीय नक्षत्र कृत्तिका नक्षत्र। कृत्नुः (वि०) [कृ+क्त्तु] करने वाला, योग्यता प्राप्त। कृत्नु (वि०) कलाकार, कारीगर। कृत्य (वि०) [कृ-क्यप्] १. करने योग्य, किया जाना चाहिए। २. उचित, उपयुक्त, युक्तियुक्त, तर्कसंगत। कृत्यं (नपुं०) कर्त्तव्य, कार्य, (वीरो० १६/१८) 'स्वमात्रामतिक्रम्य कृत्यं च कुर्यात्- १. व्यवसाय, व्यापार, २. कार्यभार। ३. उद्देश्य, प्रयोजन, लक्ष्य। कृत्यकृत् (वि०) कर्त्तव्य स्मरणशील। (जयो० २/७२) कृत्या (स्त्री०) कार्य, करनी। कृत्याकृत्य (वि०) कृतकृत्य होने वाली। (जयो० वृ० २३/७९) कृत्याकृत्यवेदिनी (वि०) कृत्यकृत्य का अनुभव करने वाली। (जयो० वृ० २३/७९) कृत्रिम (वि०) [कृ+क्ति+मप्] काल्पनिक, बनावटी। 'कारणेन निवृत्तः कृत्रिम:' (जैन०ल० ३६६) कृत्रिमपुत्रः (पुं०) गोद लिया गया पुत्र। कृत्रिमभावः (पुं०) विकल्प भाव। कृत्रिमभूमिः (स्त्री०) निर्मित स्थान। कृत्रिममित्रं (नपुं०) आजीविका युक्त मित्र, १. बाह्य व्यवहार युक्त मित्र। कृत्रिमवनं (नपुं०) उद्यान, आराम, बगीचा, वाटिका। कृत्रिम-शत्रु: (पुं०) विरोध करने वाला व्यक्ति, विरोध युक्त मनुष्य। 'विरोधो विराधयिता वा कृत्रिमः शत्रुः' (नीति० वा० २९/३४) 'कारणेन निर्वृत्तः कृत्रिमः। यः शत्रुर्विरोधो भवति तस्य विरोधो क्रियते स विराध उच्यते, शत्रुर्य: पुनर्विजीषोरुपेत्य विरोधं करोति सोऽप्यकृत्रिमः शत्रुः। (नीतिक वा० ३२१) कृत्वस् (अव्य०) संख्यावाचक शब्दों की गुणात्मकता को प्रकट करने वाला अव्यय। चार गुणा, पांच गुणा, दशगुणा आदि। कृत्सं (नपुं०) [कृत्+स] १. जल, वारि। २. समूह, ओघ, समु दाय। कृत्सः (पुं०) पाप, अघ, अशुभ प्रवृत्ति। कृत्स्न (वि०) [कृत्+ वस्न] पूर्ण, सकल। 'कृत्स्नं स्यादुदरे जले' इति वि (जयो० १८/१६) 'कृत्स्नकर्मविप्रमोक्षो मोक्षः' (त०सू०१०/२) कृदन्त (वि०) १. कृत्प्रभाव, हितकारी प्रभाव। २. कृत्प्रत्यये च प्रभावो यस्यास्सा' (जयो० १५/३५) ३. धातुओं के अन्त में प्रत्यय जोड़कर संज्ञा, विशेष आदि शब्दों को बनाया जाता है, उन्हें कृत् प्रत्यय कहते हैं और उनके योग से बने शब्दों को कृदन्त कहते हैं। कृ धातु में तृच् प्रत्यय से कर्तृ। कृत् और तृच दोनों प्रत्यय हैं और 'कर्तृ' शब्द कृदन्त है। 'धातुभ्यः प्रत्ययकरणं च कृत् तद्धिते च कृत्प्रत्यये च प्रभावो यस्यास्सा' (जयो० वृ० १५/३५) कृप् (अक०) कृपा करना, करुणा करना। कृपः (पुं०) अश्वत्थामा का मातुल। कृपण (वि०) [कृप्त क्युन् न स्यणत्वम् ] ०खिन्न, उदासीन, ०दयनीय, निर्धन, कंजूस, अभागा, असहाय, विवेकशून्य, निम्न। यो गाढमुष्टिः कृपणो जयस्य (जयो० ८/५६) अधम। 'कृपण' अर्थात् किसी भी वैरी को प्राण दान देने वाला नहीं था। कृपण (नपुं०) उदासीनता, दुर्दशा। कृपण-कर्म (पुं०) १. उदासीन मनुष्य, २. कंजूस। कृपणता (वि०) १. उदासीनता, २. कंजूस भाव युक्त। कृपणत्व (वि०) कादर्य, कंजूसी। (जयो० वृ० २/११०) कृपणधी: (स्त्री०) विवेकशून्य, हृदयगत निम्नभाग, शून्य मन वाला, छोटे दिल का। For Private and Personal Use Only Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org कृपण- बुद्धिः कृपण बुद्धिः (स्त्री०) विवेकशून्य, अल्पज्ञ कृपणभाव: (पुं०) कंजूसी का भाव, विवेक में अल्प भाव । कृपणवत्सल (वि०) कृपालु, दयालु । कृपा (स्त्री०) करुणा, दया, अनुकम्पा । (दयो० ५८) 'तिमांशुः कृपयाऽस्य तावदुदिता सम्वर्तते साधुता' (मुनि० १ / २ ) 'यवनृपात्र कृपा त्रपमाणके भवतु' (जयो० ३/११) 'सा तु जीवानुकम्पनम्' (क्षत्र चू०५/३५) कृपया (तृ०ए०) 'ते कृपया कान्तां रजनीं गत्वा' (सुद० वृ०९९) कृपाङ्कुरः (पुं०) हरी घास, दया रूप दूर्वा । 'कृपाङ्कुराः सन्तुं सतां यथैव खलस्य लेशोऽपि मुद्दे सदैव' (सुद० १ / ९ ) 'यत्कृपाकरमास्वाद्यगावो जीवन्ति नः स्फुटम्।' (दयो० १/४ ) कृपाण (पुं०) [कृपां नुदति नुद् संज्ञायां णत्वम् ] खङ्ग, असि, तलवार । (जयो० ८/५५) 'पाणौ कृपाणोऽस्य नु केशपाश' (जयो० ८/५६) कृपाणो जातो मध्यस्थमाकार उदासीनरूवं वा जमाम' (जयो० वृ० ८/५६) 'कृपणं शब्द के मध्य के अकार को आकार रूप में प्राप्तकर 'कृपाण' शब्द बन गया। 'कण्ठे कृपाणं प्रकरोतु कोपी (दयो० २/१२) कृपाणकः (पुं०) असि, खड्ग, तलवार, यवनृपात्र कृपा माणके भवतुमय्युपयुक्तकृपाणके (जयो० ९/११ ) कृपाण एवं कृपाणको येन तस्मिन् (जयो० वृ० ९/११ ) कृपाणपुत्री (स्त्री०) क्षुरी, क्षुरिका, छोटी गुप्ती । मूर्ध्नि मिलिन्दावलिच्छलेन कृपाणपुत्र क्षिपदिव तेन (जयो० १५/५१) कृपाणपुत्र भूरिकां (जयो० वृ० १४/५१) कृपाणमाला (स्त्री०) असि समूह, खङ्ग समु दाय। 'रणाङ्गणे पाणिकृपाणमाला' (जयो० ८/८) कृपाणानां खङ्गानां माला सैव' (जयो० वृ० ८/८) कृपाणिका (स्त्री०) [कृपाण कन् टाप्] छुरिका, बर्फी, गुप्ती, क्षुरी। कृपाणी (स्त्री०) छुरी, क्षुरिका, असि पुत्री असिपुत्रिका । 'अतभिप्रेता कृपाणी क्षुरिका मम हृदे चित्तायापि भवत्यहो ' (जयो०] [५/१७) वाणी कृपाणीव न कर्कशायस्मि (जयो० १७/३३) 'वाणी या मर्मच्छेदकरी कृपाणी असिपुत्रिका' (जयो० वृ० १७/३३) 'वाणी कृपाणीव च मर्मभेतुम् (चीरो० १/३८) समस्तु दुर्दैवभिदे - कृपाणी (समु० १/५) कृपानुभाव: (पुं०) कृपा दृष्टि, दयाभाव ३११ कृमिला कृपान्वित (वि०) कृपालु (वीरो० १४ / ३७) (जयो० वृ० १२/४८) कृपालता (स्त्री०) दयाभाव दयादृष्टि, समभाव दृष्टि रूप लता (सुद० १३६) कृपालतातः आरव्यं तस्येदं मम कौतुकम् (सुद० १३६ ) कृपालु (वि०) [कृपां लाति कृपा+ला आदाने] करुणाजन्य, करुणा सहित, दया युक्त, सदय। कृपालुता (वि०) जीवदया भाव युक्त, करुणापूर्ण 'कृपालुतायां जीवदयायां' (जयो० १/२१ ) Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 7 कृपावती (वि०) दयालु (वीरो० १२/२७) कृपावान् (वि०) दयावत. दयालु । कृपाशनिः (पुं०) कृप रूप वज्र । कृपा सर्वसाधारणेषु उत्पद्यमाना दयैव अशनिर्वज्ञस्तस्य' (जयो० वृ० ३/१९ ) कृपाशील (वि०) प्रकृतप्रसाद, करुणाशील (जयो० वृ० २४/१२२) कृपी (स्त्री० ) [ कृप् + ङीष्] १. कृपा पात्री । २. कृप की भागिनी, द्रोण की भार्या। कृपीट: (पुं०) प्याऊ (वीरो० १२ / २७) कृपीसुतः (पुं०) अश्वत्थामा। कृपीपति (पुं०) द्रोण राजा । कृपीटं (नपुं०) [कृप+कीटन्] जंगली लकड़ी, २. जल, ३. For Private and Personal Use Only उदर । कृमि (वि०) कीट समूह, कीट युक्त फीट कृमि (स्त्री०) रोग विशेष, उदर जन्य कीट। कृमिकुलं (नपुं०) कुल, कीट समूह कृमिकोषः (पुं०) रेशम का कोया, रेशम का यूथ । कृमिजं (नपुं० ) अगर की लकड़ी । कृमिजा ( स्त्री०) लाल रंग, जो लाख के कीड़ों से उत्पन्न होता है। कृमिण (वि०) कीटयुक्त, कीड़ों से भरा हुआ। कृमिपर्वत (पुं०) बांमी, कीटों द्वारा निर्मित मिट्टी का एक ढेर । कृमिफल: (पुं०) गूलर वृक्षा कृमिरागः (पुं०) मल एवं लार की राग १, कृमिच रंग, वस्त्र जगना कृमीणां रागो रञ्जकरसः कृमिरागः ' कृमिरागकम्बलः (पुं०) कीट तन्तुओं से निर्मित कम्बल । 'कृमिभुक्ताहारवर्णतन्तुभिरुतः कम्बलः कृमिराग कम्बलः ' (भ०आ०टी० ५६७) कृमिला (स्वी०) अधिक सन्तान को उत्पन्न करने वाली (जयो०) Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कृमिखङ्गः ३१२ कृष्णकन्दं कृमिखङ्गः (पुं०) शंख में स्थित मछली। कृषिकर्मार्यः (पुं०) कृषिकर्म जानने वाले आर्य, हल-कर्षण कृमिशुक्तिः (स्त्री०) घोंघा, जो सीप में उत्पन्न होता है, एक में निपुण व्यक्ति। 'हलेन भूमि-'कर्षण-निपुणः कृषिकीट। कार्य:' (त०वृ०३/३६) हल-कुलिदन्तालकादिकृष्युपकरण कृमिशैलः (पुं०) बांबी-बांमी, कीट निर्मित मिट्टी का एक विधानविद: कृषीवला: कृषिकर्मार्य: (त० वा० ३/३६) पर्वताकार ढेर। कृषिकृत् (वि०) कृषि करने वाला किसान। 'कृषिकृतां कृषकाणां कृश (अक०) क्षीण होना, दुर्बल होना। (सुद० २/३२) परिपोषण-संरक्षणम्' (जयो० वृ० २/११३) कृश् (वि०) [कृश् क्त] १. दुर्बल, पतला, क्षीणकाय, बलहीन, | कृषिक्रिया (स्त्री०) भू-क्रिया, स्थलक्रिया। पुण्य प्रभावेण निर्बल। २. छोटा, अल्प थोड़ा, सूक्ष्म। ३. दरिद्र, हीन, पूर्णा कृषिक्रिया अनायासेनैव जातेत्यर्थः' (जयो० वृ० नगण्य। ७/१००) कृशता (वि०) क्षीणता। वक्रत्वं मृदुकुन्तलेषु कृशता कृषिजीविन् (वि०) खेती करके आजीविका चलाने वाला बालावलग्नेष्वरम्। (वीरो० २/४८) कृषक। कृशी (वि०) क्षीण शरीरी, कृश काय वाली। (वीरो० ६/७) | कृषिफलं (नपुं०) खेती का फल/लाभ, धान्य उपज, धान्य कृशाङ्गी (वि०) कृश शरीर वाली, क्षीणकाया। (सुद० २/३२) पैदावार। 'कृशाङ्गया दुरितैकशापी' (सुद० २/३२) 'कृशाङ्गया-तृतीया कृषियन्त्रं (नपुं०) भू यन्त्र, खेती के उपकरण। एकवचन स्त्रीलिंग। कृषियोजना (स्त्री०) भू-योजना। कृशाला (स्त्री०) [कृश्+ला+क+टाप्] बाल। कृषि सेवा (स्त्री०) भू-सेवा, खेती की सेवा। कृशाक्षः (पुं०) पकड़ी। कृषीवलः (पुं०) [कृषि वलच्] हल। (जयो० वृ० २६/९०) कृशाङ्गः (वि०) दुर्बल शरीर वाला, क्षीणकाय युक्त। काश्तकार, खेती से आजीविका करने वाला, किसान कृशालुः (पु०) शिव, शंकर। (दयो० ३६) कृपक, किसान। कृशोदरढ़ (वि०) पतली कमर! कृष्करः (पुं०) [कृष्। कृ-टक] शिव, शंकर, शंभू। कृशोयान (वि०) जाति कृश रूप (जयो० ११/२४) कृष्ट (वि०) [कृष्+क्त] खींचा हुआ, आकृष्ट, कर्पण युक्त। कृशोदरि (वि०) अनुदरि। (वीरो० ४/३८) अपसारित (जयो० १७/६४) हल चलाया गया। कृष् (सक०) खींचना, रेखा बनाना, चीरना, आकृष्ट करना। कृष्टिः (स्त्री०) [कृष्+क्तिन्] खींचना, कर्पण करना, हल 'चकृषुर्जगत्प्रदीपात्ततश्च' (जयो० ६/५६) 'चकृषुराकृष्ट- चलाना। 'कर्शनं कृष्टिः, कर्मपरमाणुशक्तेस्तनुकरणमित्यर्थः। वन्तः' (जयो० वृ०६/५६) 'चकृषुः कृष्टवन्तः' (जयो० अथवा कृष्यते तनूक्रियते इति कृष्टिः (जैन०ल०३६७) वृ०६/१००) 'किसं कम कदं जम्हा तम्हा किट्टी' (कपाय० कृषकः (पुं०) [कृष्+क्वन्] किसान, हाली, हलवाहा। (दयो० पा०वृ०८०८) 'योगमुपसंहत्य सूक्ष्म-सूक्ष्माणि खण्डानि ३६) १. फाली, २. बैल। जयोदय काव्य की टीका में निवर्तयति ताओ किट्टीओ णाम वुति' (जय०ध०१२४३) कृषक के लिए शालिक भी कहा है. 'यथा शालिन्यः कृष्टिकरणाद्धा (स्त्री०) क्रोधवेदनकाल का द्वितीय त्रिभाग। कृषकः स्वक्षेत्रे' (जयो० वृ० २/३१) 'शालिकानां कृष्टिवेदगद्धा (स्त्री०) कृष्टि वेदन का काल, क्रोधवंदन का कृषकाणाम्' (जयो० वृ० ४/५७) । जितना काल है, उसका तृतीय त्रिभाग अन्तिम भाग। कृषाणः (पुं०) [कृष्+आनक] किसान, शालिक। कृष्ण (वि०) [कृष्। नक्] श्यामवर्ण, काला। १. दुष्ट, हानिकर। कृषि (स्त्री०) [कृष्+इक्] खेती, काश्तकारी। १. भूमि, भू, २. धूम, नीलवर्ण। (जयो० वृ० ११/६९) धरा। (जयो० ७/१००) कृष्ण: (पुं०) कृष्ण, वासुदेव, (दयो० ५८) त्रिषष्टि शलाका कृषिक (वि०) १. कृषि करने वाला. खेती करने वाला। २. पुरुषों में कृष्ण नाम विशेष। पीतपट (जयो० १/५) २. कुशल-गुणविवेचना कृषिकः। (जयो० ६/६९) काला रंग, कौआ। ३. कृष्णपक्ष ४. कृष्ण लेश्या-सर्वदा 'कृषि भूकषणे प्रोक्त'-(म०पुं०१६/८१) भूकर्षण/भू कदनासक्तः। कृष्णलेश्यो मतः जनः' (पंच सं०१/२७८) जोतना/खेती करना कृषिकर्म है। | कृष्णकन्दं (नपुं०) रक्त कमल। For Private and Personal Use Only Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org कृष्णकर्मन् कृष्णकर्मन् (वि०) दुष्ट चरित्र, दुराचारी । कृष्णकारकः (पुं०) पर्वतीय कौआ । कृष्णकाय (पुं०) भैंसा कृष्णकाष्टं (नपुं०) कालागुरु, कृष्ण चन्दन की लकड़ी । कृष्णकोहल : (पुं०) जुआरी, द्यूतकार । कृष्णगतिः (स्त्री०) अग्नि, बह्नि, आग। कृष्णग्रीवः (पुं०) शिव, शंकर का नाम । कृष्णचतुर्दशी (स्त्री०) कृष्ण पक्ष की चोदश (सुद० २६ ) कृष्णत्व (वि०) नीलत्व, नीलकान्तियुक्त 'कृष्णत्वं नीलत्वं वा तस्य नीलकान्तयश्चासन् (जयो० वृ० ११/६९) कृष्णदेह: (पुं०) मधुमक्खी। कृष्णपक्षः (पुं०) चन्द्रमास अंधेरी रात का पक्ष, बहुल पक्ष कृष्णपाक्षिक (वि०) १. कृष्णपक्ष सम्बंधी २. दीर्घ काल तक संसरण करने जीव अधिकतर संसारभाजनस्तु कृष्णापाक्षिकाः (जैन०ल०३६८) कृष्णमुखः (पुं०) काले रंग का वानर कृष्णमुखं (नपुं०) कृष्ण / काला मुख । कृष्णारूप: (पु० ) कृष्ण रंग (जयो० वृ० १/२५) कृष्णला (स्त्री०) गुजा (जयो० २१/४८, १/२५) कृष्णलेश्या (स्त्री०) एक लेश्या/ परिणाम जिसमें कृष्णत्व की अधिकता पाई जाती है 'खंजजणायणणिभा किण्हलेस्सा' (जैन००३६८) कृष्णलेश्या भाव: (पुं०) कृष्णलेश्या का भाव, जो तीव्रतम निर्दय भाव होता है, वह कृष्णलेश्याभाव है। 'जो तिव्वतमो सा किण्हलेस्सा' (धव० १६/४८८) निर्दयो निरनुक्रोशो मद्यमांसादिलम्पटः । सर्वदा कदनासक्तः कृष्णलेश्यो मतो जन: । (पंच सं०१ / २७३ ) : कृष्णलोह (पं०) चुम्बक पत्थर कृष्णवर्णः (पुं०) काला रंग। १. राहु २. शूद्र । कृष्णवर्णनामन् (पुं०) शरीरगत कृष्ण वर्ण नाम। जिस नामकर्म के उदय से शरीरगत पुद्गल परमाणुओं का वर्ण काला हो। 'जस्स कम्मस्स उदएण सरीरपोग्गलाणं किष्णवण्णो उप्पज्जदि तं किण्णवण्णणाम।' (धव० ६/७४) 'यस्य कर्मणा उदयन शरीरपुद्गलानां कृष्णवर्णता भवति तत्कृष्णवर्ण नाम (मुला० ० १२ / १९४ ) कृष्णवर्त्मन् (पुं०) १. अग्नि, आग। २. कृष्णं वर्त्म मार्गो नीति लक्षणोऽथ' (वीरो वृ०३/६) ३१३ कृष्णवर्त्मत्व (वि०) धूमपना धूमत्वा २ कृप पथत्व (वीरो० कृष्णवत्मत्वमुते प्रतापवद्धि' ३/६) Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir केकिता कृष्णा ( स्त्री०) द्रोपति नाम) नदी (वीरो० ३/६) कृष्णागुरु (नपुं०) एन चन्दन विशेष (सुद० ७२) दशाङ्ग धूम को कृष्णागुरु चन्दन, कर्पूरादिक को मिश्रित करके बनाया जाता है (जयो० २४ /७९) कृष्णागुरुचन्दनकर्पूरादिकमय धूपदशायाः । ज्वालनेन कृत्वा सुवासनाग्रे जिनमुद्रायाः (सुद० वृ०७२) कृष्णाचल: (पुं) रैवतक पर्वत का ऊपर नाम। कृष्णाजिनं (नपुं०) कृष्ण मृग का धर्म कृष्णायस् (नपुं०) लोहा, अयष्क । कृष्णाध्वन् (नपुं०) अग्नि, वह्नि । कृष्णावर्त्मन् (नपुं०) नारायण पद्धति। (जयो० २४ /७९) कृष्णाष्टमी (वि०) कृष्ण जन्म का अष्टमी। भाद्रपद के कृष्णपक्ष की अष्टमी। कृष्णिका (स्त्री० ) [ कृष्ण+छन्+टाप्] काली सरसा, कृष्ण सरिसव। कृष्णिमन् (पुं० ) [ कृष्ण+ इमनिच्] कालिमा, कालापन । कृष्णी (स्त्री० ) [ कृष्ण+ ङीप् ] कृष्णपक्ष की रात्रि । क्लुप् (अक० ) ० योग्य होना, ०अच्छा होना, उत्तम होना। कल्पते, कल्पसे । क्लृप्त (भू०क०कृ० ) [ क्लृप्+क्त] तैयार किया गया, सुसज्जित, उत्पन्न किया हुआ, उपार्जित आविष्कृत। क्लृप्तवती (वि०) तैयार करती हुई (जयो० १४/४९) क्लृप्तिः (स्त्री०) [ क्लुप् क्तिन्] निष्पत्ति, उत्पत्ति, आविष्कार। क्लृप्ति- कला रसाल्य (वि०) नाना चेष्टा वाला (समु० + ८/५) क्लृप्तिक (वि०) [ क्लृप्त छन्] क्रय किया गया, मूल्य में खरीदा गया। For Private and Personal Use Only केकय: (पुं०) एक देश विशेष, देश नाम। केकर (वि०) भेंगी अक्षि वाला, भेंगी दृष्टि वाला। केकरं ( नपुं०) भेंगी आंख । केकरी (स्त्री०) भेंगी आख । केका (स्त्री०) १. मयूर, २. मयूर शब्द । केकारवञ्चक्रुरित्यर्थः ' (जयो० पृ० ८/८) केकारव: (पुं०) मयूर शब्द (जयो० ८/८) केकावल: (पुं०) (केका+वलच्] मोर, मयूर, शिखण्डि । केकिकुलं (नपुं०) मयूर समूह (सुद० ७४) केकिन् (पुं०) मयूर, मोर, शिखण्डि । 'शिखिण्डना के किनाम्' (जयो० ८/८) केकिता (वि०) १. वह्निगत (जयो० वृ० १०/११२) Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir केकितापन्न ३१४ केवल केकितापन्न (वि०) मयूर रूपता को प्राप्त। 'चातकेन च । केन्द्र (नपुं०) १. मध्य बिन्दु, आधार आश्रय। २.जन्म कुण्डली वरेण केकितापन्नजन्यमनुना प्रतीक्षिता।' (जयो० १०/११२) का स्थान, चतुर्थ, सप्तम एवं दसमा केकी (पुं०) भुजङ्गभुक्, मयूर, मोर। (जयो० वृ० १३/८६) केयूरः (पुं०) एक आभूषण, जो हस्त के बाजू पर धारण केचन (अव्य०) कोई कोई। (सम्य० १०७) किया जाता है। जिसे बाजूवन्द, बिजायठ, टाड कहते हैं। केणिका (स्त्री०) [के मूर्ध्नि कुत्सितः अणक:+टाप्] तम्बू, (जयो० वृ० १५/८४) 'कङ्कण-केयूर-नूपुरादिषु' (जयो० प्रतिवारण। वृ० ५/६१) केतः (पुं०) [कित्+घञ्] १. गृह, स्थान, आवास, निवास। केरलः (पुं०) दक्षिण भारत का प्रान्त। २. ध्वज, ३. इच्छा। केल् (सक०) हिलाना, खेलना। २. लोकप्रिय होना, परायण केतकः (पुं०) [कित+ण्वुल] एक पादप, पौधा। २. ध्वज। होना। केतकं (नपुं०) केतकी पुष्प। केलकः (पुं०) [केल्+ण्वुल्] नर्तक, नट, कलाबाज। केतकी (स्त्री०) केवड़ा। (जयो० वृ० २०/४०) केला (स्त्री०) क्रीडा, खेल। केतनं (नपुं०) [कित्+ल्युट्] १. गृह, घर, आवास, स्थान। २. केलासः (पुं०) [केला विलासः सीदत्यस्मिन् केला+सद्+ड:] ध्वज, ध्वजा, झण्डा, पताका। ३. चिह्न, प्रतीक। स्फटिका केतनाञ्चलं (नपुं०) ध्वज वस्त्र (जयो० १३/२७) ध्वज प्रान्त। केलिः (पुं०/स्त्री०) क्रीड़ा, खेल, आमोद-प्रमोद। (जयो० (जयो० ७/११८) २२/७१) स्वार्थ क प्रत्यय (वीरो० ४/२१) मनोविनोद। २. केतित (वि०) [केत+इतच्] आमन्त्रित, निमन्त्रित, आह्वान परिहास, हास। युक्त, बुलाया गया। केलिकः (पुं०) अशोक वृक्षा केतुः (पुं०) १. ध्वजा, पताका। (जयो० ८/२१) २. प्रधान, केलिकला (स्त्री०) कामक्रीड़ा। प्रमुख, मुख्य, विशिष्ट। ३. चिह्न, प्रतीक, अंक। (वीरो० केलिकुशेशय (नपुं०) क्रीड़ाकमल। मृदु-मालुदलभ्रमान्मुखे २/३५) ४. प्रकाश, प्रभा। ५. एक नक्षत्र विशेष। केतुक्षेत्र (नपुं०) विशिष्ट क्षेत्र, जिस खेत में पानी से ही अन्न दधति केलिकुशेशयं तु खे।' (जयो० १०/६३) उगाया जाता है। 'केतु क्षेत्रमाकाशोदकपात निष्पाद्य-सस्यम्' केलिकूटः (पुं०) क्रीड़ा पर्वत। (वीरो० २/१७) (जैन०ल०३६८) केलिकोषः (पुं०) नर्तक, नट, नाचने वाला। केतुपक्तिः (स्त्री०) ध्वज श्रेणी। (जयो०३/११२) केलिगृहं (नपुं०) क्रीडा भवन, आमोद भवन। केदारः (पुं०) [के शिरसि दारोऽस्य] १. चरागाह, जल युक्त केलिनिकेतनं (नपुं०) क्रीडा भवन। क्षेत्र/खेत। थावला, आलवाल, क्यारी। २. शिव का नाम, केलिमंदिरं (नपुं०) क्रीडा भवन। ३. पर्वत भाग। केलिमुखं (नपुं०) परिहास, मनोरंजन। केदारखण्डं (नपुं०) मिट्टी से बंधा बांध। केलिसदनं (नपुं०) क्रीडा भवन, आमोदगृह। केदारनाथः (पुं०) शिव नाम। केलिरतरः (पुं०) क्रीडास्थल, केलि सरोवर। 'रणश्रियः केलिसरः केन (सर्व०) तृ०ए०-किससे, किसके द्वारा। केयं केनान्विताऽनेन सवर्णा' (जयो०८/४१) मौक्तिकेनेन शुक्तिका' (सुद० ८४) केवल (वि०) [केव् सेवने वृषा कल] १. अकेला, एकमात्र, केनचित् (अव्य०) उसमें से कोई, बहुत में एक। 'केनचिद् 'स केवलं स्यात् परिफुल्लगण्डः' (सुद० १/७) 'घृणास्पदं गदिगमस्मदधीशः' (जयो० ४/५१) केवलमस्य तूलम्' (सुद० वृ०१०२) २. पूर्ण, सम्पूर्ण, केनारः (पुं०) [के मूनि नार:] १. सिर, कपाल, खोपड़ी। २. गाल। समस्त, परम, उत्कृष्ट विशेष, ०असाधारण। (सुद० केनापि (अव्य०) किसी के द्वारा भी। 'यस्या न केनापि वृ०९७) 'सगलं संपुण्णं असवत्तं' (ष०ख०३४५) ३. रहस्यभावः' (सुद० २/२१) विमल, निर्मल, पवित्र। ४. अतीन्द्रिय ज्ञान, परमज्ञान। के-निपातः (पुं०) [के जले निपात्यतेऽसौ-के-नि-पत्+ (जयो० १८/५५) अखण्डज्ञान-'बाह्येनाभ्यन्तरेण च तपसा गिच्+ अच्] पतवार, चम्पू, डांड, नाव चलाने के डांड, यदर्थमर्थिन: मार्ग केवन्ते सेवन्ते तत्केवलं, असहायमिति जो आगे से चौड़े हाथ की तरह दण्ड युक्त होते हैं। वा। (स०सि०१/९) For Private and Personal Use Only Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir केवलं ३१५ केशकीट: केवलं (अव्य०) सिर्फ, मात्र, पूर्ण रूप से। उसे केवल व्यतिरेकी कहते है। ‘पक्षवृत्तिर्विपक्षव्यावृत्तः केवलज्ञानं (नपुं०) ज्ञान का एक भेद, पांच ज्ञानों में अन्तिम सपक्षरहितो हेतुः केवलव्यतिरेकी' (न्यायदीपिका ९०) ज्ञान। (तसू०१/९) 'साक्षात् परिच्छेदककेवलज्ञानम्' | केवलान्वयी (वि०) विपक्ष रहित, जो हेतु पक्ष और सपक्ष में (धव० १/३५८) १. पदार्थ परिच्छेदक ज्ञान, २. निरपेक्ष तो है, किन्तु विपक्ष में नहीं रहता है, वह केवलान्वयी जान-'केवलमसहायमिन्द्रियालोकमनस्कारनिरपेक्षम्' (धव० कहलाता है। -'पक्ष-सपक्ष-वृत्तिर्विपक्षवृत्तिरहित: १/१९१) ३. युगपत् सर्वार्थ विषयक ज्ञान 'सकल ज्ञानावरण केवलान्वयी' (न्यायदीपिका ८९) परिक्षय विजृम्भितं केवलज्ञानं युगपत्सर्वार्थ विषयम्' | केवलालोकः (पुं०) केवलज्ञान का प्रकाश। सुमुहोऽभिक(अष्ट०२/१०१ केवलणाणावरणक्खएण समु प्पण्णं णाणं लितलोको रविरिव वा केवलालोकः।' (वीरो० ४/४७) केवलणाणं' (धव० १४/७) 'केवलणाणावरणक्खजायं केवलावरणं (नपुं०) केवलज्ञान पर आवरण। केवलं' (स०१/५) केवलि-अवर्णवादः (पुं०) ज्ञान एवं दर्शन से भिन्न कथन केलवज्ञानावरणं (नपुं०) अतिशय ज्ञान का आवरण-'जिससे __ करना। 'कवलाभ्यवहारजीविनः केवलिन इत्येवमादेवचनं लोक और अलोकगत सर्व तत्त्वों के प्रत्यक्ष दर्शक और केवलिनामवर्णवाद:' (स०सि०६/१३) अतिशय निर्मल केवलज्ञान का आवरण करता है। केवलिन् (वि०) [केवल+इनि] अकेला, एकमात्र, १. परम केवलज्ञानावरणीयं (नपुं०) केवलज्ञान पर आवरण करने तत्त्व का पक्षपाती। वाला। केवलणाणस्स आवरणं जं कम्मं तं केवलणाणावरणीयं | केवलिमरणं (नपुं०)केवली का निर्वाण। 'केवलिणं मरणं णाम।' (धव० १३/२१३) | केवलिमरणम्' (जैन०ल०३७२) केवलतः (अव्य०) [केवल-तसिल्] मात्र, केवल, एकमात्र, | केवलिमायी (वि०) केवलियों के प्रति अवर्णवाद की भावना। निज स्वरूप का संवेदन। निज स्वरूप 'स्वावभास: 'केवलिणं केवलिष्वादरवानिव यो वर्तते, तदर्चनायां तु केवलदर्शनम्' (धव० ६/३४) तिकाल-विसय-अणंत- मनसा तु न रोचते, स केवलिनां मायावान्' (भ०आ०टी० पज्जय-सहिद-सगरूव-संवेयणं' (धव० १०/३१९) केवल १८१) दर्शनावरण के क्षय से उत्पन्न-'केवल दसणावरणक्खएण केवलिसमु रातः (पुं०) केवलि के आत्मप्रदेश मूल शरीर संप्पणं दसणं केवलदसणं' (धव० १४/१७) युगपत् सामान्य से निकलना। 'आत्मप्रदेशानां बहिः समु द्घातनं केवलिसमु विशेष प्रकाशक (परमात्म पु०टी० १६१। द्घात:' (त० वा० १/२०) दंड-कवाड-पदर-लोग-पूरणाणि केवलदर्शनावरणीयं (नपु०) केवल दर्शन को आच्छादित केवलिसमु द्घादो णाम' (धव० ७/३००) करने वाला। 'केवलदसणस्स आवरणं केवलदसणावरणीयं' - केवलिराट् (पुं०) केवलिराज। 'चक्रायुधः केवलिराट् स तेन' (धव० १३/३५६) 'केवलमसपत्न, केवलं सद्दर्शनं च (समु० ५/३०) केवलदर्शनं, तस्य आवरणं केवलदर्शनावरणीयम्' (धव० केवली (वि०) केवलज्ञानी, सर्वज्ञ, सर्वदर्शी, जिन। ६/३३) शेषकर्मफलापेक्षः शुद्धो बुद्धो निरामयः। केवलबोधनं (नपुं०) केवलज्ञान का बोध/अनुभव। (सुद ९७) सर्वज्ञः सर्वदर्शी च जिनो भवति केवली। केवलबोधनपात्री (वि०) केवलज्ञान के बोध का अधिकारी। घातिकर्मक्षयादाविर्भूतज्ञानाद्यतिशयः केवली' (त० वा० ६/१३) (सुद० ९७) केवलमस्यातीति केवली, सम्पूर्ण ज्ञानवानित्यर्थ' 'सव्वं केवलबोधभृते (भू०क०कृ०) अतीन्द्रिय ज्ञान को प्राप्त हुआ। केवलकप्पं लोगं जाणंति तह य पस्संति। केवलणाण (जयो० १८/५५) चरित्ता तम्हा ते केवली होति।। (मूला ०७/६७) केवलभृत् (भू०क०कृ०) १. केवलज्ञान को धारण करता केशः (पुं०) [क्लिश्यते क्लिशनाति वा क्लिश्+अन्] केश, हुआ। (जयो० वृ० १८/५५) २. के-वल-भृत-सूर्य में बाल-'मालिन्यमेतस्य हि केशवेशे, (वीरो० २/४०) दृढ़ता को धारण करता हुआ (जयो० हि०१८/५५) केश-कर्मन् (नपुं०) केश सज्जा, केश प्रसाधन। केवलव्यतिरेकी (स्त्री०) केवलपक्ष में रहना, जो हेतु विपक्ष केश-कलापः (पुं०) केश समूह, बालों का ढेर। से व्यावृत होकर सपक्ष से रहित विपक्ष में नहीं रहता है, | केशकीटः (पुं०) जूं। For Private and Personal Use Only Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org केशगर्भः केशगर्भ: (पुं०) केश जूं बालों की मींडी केशग्रह: (पुं०) केश ग्रहण, बालों को पकड़ना। केशग्रहणं (नपुं०) केश पकड़ना । केशच्छिद् (पुं०) नाई, बाल बनाने वाला। केशजाह: (पुं०) बालों की जड़। केशट: (पुं०) [केश अट्+अच्] बकरा, अज, १. विष्णु. २. खटमल । केशततिः (स्त्री०) वेणी (जयो० वृ० ३ / ५५) केशपक्ष: (पुं०) केशजाल, केशवंश केश प्रसाधन, केश सज्जा । केशपाशः (पुं०) केशसमूह, केशवेश 'अधः स्थितायाः कमलेक्षणाया निरीक्षमाणो मृदुकेशपाशम्' (जयो० १३/८६ ) 'दीर्घाऽहिनीलः किल केशपाश' (सुद० २/८) केशपूरक: (पुं०) केशवन्ध, वेणीबंध केशपूरकं कोमलकुटिलं चन्द्रमसः प्रततं रुचिरात् (सुद० १०० ) केशप्रसाधकः (पुं०) केश प्रसाधन की साम्रगी । 'केशेषु तैलादि वस्तु केश प्रसाधकं विभर्ति (जयो० वृ० २७/३९) केशबन्ध: (पुं०) वेणीबन्ध, केशपाश, जूड़ा, केशपूरक । (सुद० १००) केशभूः (स्त्री०) केशोत्पत्ति स्थान केशभूमिः (स्त्री०) केशोत्पत्ति स्थान केशमार्जकं (नपुं०) कंघी कंघा । केशमार्जनं ( नपुं०) कंघी। केशरचना (स्त्री०) केश प्रसाधन, केश सज्जा, बाल संवारना। केशरः (पुं०) केशर, कुङ्कुम। 'कुङ्कुमस्य केशरस्य एणमदस्य कस्तूरिकाख्यस्य' (जयो० वृ० ५/६१) केशरेण सार्धं विसृजेयं पदयोर्जिन' (मुद० ७१) केशरस्तवः (पुं०) केशरगुच्छक (वीरो० ७/१८) केशरिन् (पुं०) सिंह । केशरी (पुं०) सिंह (दयो० ४६) बीरो० ४/४३) केशलुंचन (नपुं०) केशोत्पादन (मुनि० २०) केशवाणिज्य (नपुं०) केश व्यापार १. केश वाले द्विपद और चतुष्पद आदि जीवों को बेचने वाले। केशवाणिज्यं द्विपदादिविक्रय:' (सा०ध०५ / २२) केशव: ( पु० ) केशव, विष्णु । केशव (वि०) [केशाः प्रशस्ताः सन्त्यस्य, केशव] प्रशस्त केश वाले केशवाप: (पुं०) केश उतारने के बाद स्नान विधि। 'केशवापस्तु ३१६ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कैरव-कदम्बकः केशानां शुभेऽह्नि व्यपरोपणम्। क्षौरणे कर्मणा देवगुरुपूजा पुरस्सरं । (म० पु० ३९ / ९८ ) केशवेश: (पुं०) केशपाश, कचपाश। (वीरो० २/४०, जयो० २/४१ ) केशसंस्कारः (पुं०) केशसन्जा, केश प्रसाधन 'केशसंस्कारो हस्तधर्षणेन मसृणतासम्पादनम्' (भ० आ० टी० ९३) 'हस्तमर्षणेन नतकरण (मूला० ९३) केशाकेशि (अव्य० ) ( केशेषु गृहीत्वा प्रवृत्तं युद्धम् ] एक दूसरे के बाल खींचकर लड़ाई करना। केशान्धकारी (वि०) केश रूप अंधकार वाली। केशिक (वि०) [केश+छन्] सुन्दर वालों वाला। केशिन् (पुं० ) [ केश+ इनि] १. सिंह, २. कृष्ण केशिनी (स्त्री०) [केशिन् दीप्] १. रावण की माता, २. सुन्दर कचों वाली स्त्री । For Private and Personal Use Only केषांचित् (अव्य०) कुछ लोग (दयो० १/९ ) केशोत्पाटनं (नपुं०) केशलुंचन। (मुनि० २० ) केसर: (पुं०) [ के+सृ] पुष्प पराग । केसर (नपुं०) १. बकुल पुष्प । २. केशर, जाफरान । केसरिन् (पुं० ) [ केसर + इनि] सिंह । २. श्रेष्ठ, उत्तम, प्रमुख । ३. अश्व, घोड़ा। ४. पुन्नाग वृक्ष। कै (अक० ) शब्द करना, ध्वनि करना। कैंशुकं (नपुं० ) [ किंशुक+अण्] किंशुक पुष्प । कैकयः (पुं० ) [ केकय+अण्] केकय देश का राजा । कैकसः (पुं० ) [ कीकस+अण्] राक्षस, पिशाच । कैकेयः (पुं० ) [ केकयानां राजा] केकय राज्य का अधिपति । कैटभः (पुं० ) [ कीट+भ+उ-अण्] कैटभ नामक राक्षस । कैतकं (नपुं० ) [ केतली+अण्] केबड़े का पुष्प । कैतवं (नपुं० ) [ कितव+अण्] द्यूत क्रीड़ा करना, जुआं खेलना। २. झुट, कपट (जयो० ९५४) कैदार: (पुं०) (केदार+अण्] चावल, धान्य कैरवः (पुं) [के जले रीति-केरवः केरव अग्] जालसाज, जुआरी १. शत्रु- कैरवाणां शत्रूणां (जयो० ६ / १७ ) २. कुमुदपुष्प (जयो० ० ६/१७) ३. कैरवेषु रात्रिविकासिकमलेषु' (जयो० वृ० १५/४६) ५. नक्तंकमल - रात्रि में विकसित होने वाली कुमुदिनी । कैरव-कदम्बकः (पुं०) १. कुमुद समूह यदर्शनेन कैरवकदम्बको ग्लानिमानभवत्। (जयो० ६/१७) २. शत्रसमूह - (जयो० १०६/१७) Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कैरवपुष्पं कोटरी कैरवपुष्पं (नपुं०) कुमुदिनी पुष्प। कोकजनः (पुं०) चातक पक्षी। परिपालितताम्रचूडवाग् रविणा कैरवराशिः (स्त्री०) कुमुद समूह। (जयो० १५/४६) कोकजनः प्रगे स वा। (सुद० ३/४) कैरव-संगत (वि०) कैरव पर गुनगुनाने वाले। 'कैरव- | कोकदेवः (पुं०) १. सूर्य, २. कबूतर, कापोत। संगतषट्पद-स्वनमिषेणेति' (जयो० वृ० १५/४६) कोकनंद (नपुं०) लाल कमल, अरविन्द। [कोकान् चक्रवाकान् कैरव-वक्त्रबिम्बं (नपुं०) कुमुद रूप मुख मण्डल। कैरवमेव नदति नादयति नद+अच्] 'कोकनदस्यारविन्दर शोभा वक्त्रबिम्बं मुखमण्डलम्। (जयो० वृ० १५/४८) लोहितमानं दधत्' (जयो० वृ० १६/४१) कैरवहार-मुद्रा (स्त्री०) श्वेत कमल के हार की आकृति कोकपक्षी (स्त्री०) कोक/चक्रवापक्षी। वाली। (सुद० ३/४०) धवल क्रान्ति वाली। 'सोम सा कोकयुगं (नपुं०) चकवा-चकवी का युगल, चक्रवाक मिथुन। कैरवहारमुद्रा' (सुद० ३/४०) __'कोकयोर्युगं मिथुनं' (जयो० वृ० १५/५१) कैरवहर्षसेतुः (पुं०) कैरव के हर्ष का स्थान। 'कैरवाणां कोकरुतः (पुं०) चक्रवाक बिलपन, चकवा का विलाप। नक्तंकमलानां हर्षस्य प्रसन्न भावस्य सेतुः' (जयो० वृ० 'कोकस्य चक्रवाकस्य रुतेन' विलपनशब्देन कृता' (जयो० वृ० ९/१०) कैरविन् (पुं०) [कैरव इनि] चन्द्र, शशि। कोकलोकः (पुं०) चकवा-चकवी का वियोग (जयो० २/७१) कैरविणी (स्त्री०) [कैरविवन्+ङीप्] कुमुदलता, कुमुदिनी। कोकवत् (वि०) चकवा की तरह। (सुद० १/१०) __'चंद्र विनेव भुवि कैरविणी तथेत:' (सुद०८६) 'विरज्यतेऽतोऽपि किलैकलोक: स कोकवत्किन्त्वितरस्त्व कैरविणीवनं (नपुं०) कुमुदिनी समूह। 'श्रीमान् शशी शोकः। (सुद० १/१०) कोकवयसि (पुं०) चकवापक्षी। 'कोकवयसि अभियुज्यते दूषणं कैरविणीवनेषु' (जयो० १५/७३) जायते। (जयो० वृ० ९/३८) कैरवी (स्त्री०) [कैरवी ङीष्] चांदनी, ज्योत्स्ना। कोकिल: (पुं०) कोयल। कैलाशः (पुं०) हिमालय पर्वत, हिमगिरि। कोकिलपित्सता (वि०) कोयल की कूक से युक्त। अभिसरन्ति कैलासः (पुं०) [के जले लासो दीप्तिरस्य केलास+अण] तरां कुसुमक्षणे समु चिताः सहकारगणाश्च वै। रुचिरतामिति हिमालय पर्वत। (जयो० ६/३३) २. पुरुपर्वत (जयो० वृ० ___ कोकिलपित्सतां सरसभावभृतां मधुरारवैः।। (वीरो० ६/३५) २४/१८) कोकूयनं (नपुं०) चक्रवाक का विलाप। (वीरो० १२/१९) कैलाशपर्वतः (पुं०) पुरुगिरि। (जयो० वृ० २४/१८) कोकोक्तिः (स्त्री०) चक्रवाक की कहावत। 'कोकस्य कैवर्तः (पुं०) [के जले वर्तते-वृत्+अच्] मछवा। चक्रवाकस्योक्तिः ' (जयो० १४/११८) कैवल्य (नपुं०) [केवल+ष्यब] 'केवलस्य कर्म विकलस्य कोकोपश्लोकित (वि०) कोक द्वारा प्रशंसित। (दयो० ११०) आत्मनो भावः कैवल्यम्' (सिद्धि०वि०टी० वृ०४९१) कोङ्कः (पुं०) एक देश का नाम। केवलज्ञान को प्राप्त हुआ। २. मुक्ति, मोक्ष। कोकणः (पुं०) देखो ऊपर। कैवल्यशार्मन् (वि०) केवलज्ञान गत। (वीरो० २१/२४) कोकणा (स्त्री०) [कोङ्कण+टाप्] नाम विशेष, जामदग्नि की कैशिक (वि०) [केश+ठक] बालों की तरह सुन्दर। भार्या। कैशिकः (पुं०)शृंगार रस, विलासिता। कोजागरः (पुं०) [को जागर्ति इति लक्ष्म्या उक्तिरत्र काले] कैशोरं (नपुं०) [किशोर+अज्] किशोरावस्था, बाल्यकाल। उत्सव विशेष। आश्विन मास की पूर्णिमा का उत्सव। कौमारकाल। कोटः (पुं०) [कुट्+घञ्] किला, दुर्ग १. छप्पर, वाड, २. कैश्यं (नपुं०) [केश+ष्यञ्] बाल समूह, कचपाश, जूड़ा। कुटिलता। कोकः (पु०) [कुक् आदाने अच्] १. भेड़िया, २. हंस विशेष। कोटपालः (पुं०) कोतबाल। (दयो० १८) ३. चकवा पक्षी। (सुद० १/१०) ४. कोयल, ५. मेंढक। कोटरः (पुं०) वृक्ष की खोखर। (दयो० २२) [कोर्ट कौटिल्यं कोककुटुम्बिनी (स्त्री०) चकवी। दूरं रजस्वलेवेशादपि राति राक] कोककुटुम्बिनी' (दयो०२/६) कोटरी (स्त्री०) कुटिया। For Private and Personal Use Only Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कोटि ३१८ कोरक: कोटि (स्त्री०) १. धनुष का सिरा, धनुष का मुड़ा हुआ हिस्सा। कोपक्रमः (पुं०) रोष युक्त मनुष्य, रुप्टजन। २. अग्रभाग-'परं गुञ्जा इवा भान्ति तुलाकोटिप्रयोजना: कोपदेशः (पुं०) रक्त प्रकोप, रक्तचाप। 'प्रागुत्थितो वियति (जयो० वृ०२/१४६) ३० पक्ति-'गगनाञ्चानां कोटिह्वेषा' शोणितकोपदेशः' (जयो० १९/२२) 'कोऽरुणवर्णस्तस्यो(जयो०६७) पदेशः' (जयो० वृ० १८/२२) कोटिक (वि०) सिरा वाला, अग्रभाग वाला। कोपन (वि०) [कुप्+ल्युट] क्रोधी, प्रकोपी, रुष्ट, रोषयुक्त। कोटिशः (अव्य०) [कोटि-शस्] करोड़ों, असंख्य। कोऽपि (अव्यः०) काई भी। (जयो० ४/५२) (सुदc १००) कोटीरः (पु०) [कोटिमोरयति ई+अण्] १. मुकुट, २. शिखा, - कोपिन् (वि०) [कोप- इनि] १. क्रोधी, रुष्ट, रोषयुक्त। चोटी। (दयो० २/१२) "स्मरः शरद्यस्ति जनेषु कोपी' ('वीरो० कोट्टः (पुं०) [कुट्ट घञ्] किला, दुर्ग। २१/१३) २. चिड़चिड़ा, त्रिदोष विकार युक्त। 'कण्ठे कोट्टवी (स्त्री०) दुर्गादेवी, [कोट वाति वा+क] कृपाणं प्रकरोतु कोपी' (दयो० २/१२) कोट्टारः (पुं०) [कुट्ट+आरक्] किलेबंदी वाला नगर, परकोटे कोपवती (वि०) रोषस्थली। (दयो० वृ०१७/१०३) ___घेरे युक्त नगर। २. कुआं, तालाब। कोपविधिः (स्त्री०) हनन भी प्रवृत्ति (सुद० १०६) राज्ञः कोण: (पुं०) [कुण् करणे घञ्] १. किनारा, कोना, बिन्दु, श्रेष्ठिवराय कोपविधिवाक सर्ग: स्वयं सत्तमः। सिरा २. एकान्तवास-रणाय दोणाय (जयो० वृ० १६/३०) कोपीनं (नपुं०) खण्डवस्त्र, लंगोटी। 'मुनिः कोपीनबासास्स्या'रहस्यं लब्धमेकान्तवासायेत्यर्थः' (जयो० १६/३०) 'रण: नग्नो' वा ध्यानतत्परः। (दयो० २४ कोणे कणे युद्धे' इति वि ३. वृत्त का बिन्दु। कोपीति (अव्य०) ऐसा कोई भी (जयो० वृ०१/२०) कोणकुणः (पुं०) खटमल। कोऽप्यपूर्वो हि -कोई अपूर्व ही (सुद० १०८) कोणातिष्ठित (वि०) कोने में बैठा हुआ। (वीरो० ९/१४) कोमल (वि०) [कु। कलच्] १. स्निग्ध, (जयो० ३/११३) कोणाकोणि (अव्य०) एक कोने से दूसरे कोने तक। एक-दूसरे 'पीत्वा स्रुति कोमलरूपकायाम्' २. मृदुस्पर्श (जयो० वृ० कोने तक। २२/७२) (जयो० ११/९) ३. निर्मल, ४. मृदु, सुकुमार, कोणितत्त्वं (नपु०) संचार, प्रवाह। लालाविलं ०सरल, ऋजु। (सुद० १००) शोणितकोणितत्त्वान्न जातु रुच्यर्थमिहैमि तत्त्वात्। कोमलकंभ (नपुं०) कमल रेशे। कोण्डिन्यः (पुं०) नाम विशेष। (हित०१४) (सुद० १०२) कोमल-पल्लवती (वि०) सुकुमारता युक्त। कोमलाक्षरवती। कोदण्डः (पुं०) [कोः शब्दायमान दण्डो यस्य] धनुष, धनुः (जयो०२२/४८) कोमला: श्रवणप्रियाः पदां सुवन्तानां 'कोदण्डं धनुरुदेतु' (जयो० वृ० १६/१७) २. स्थान विशेष लवाः ककारादयस्तद्वती (जयो० वृ० २२/४८) 'कोमलाश्च (जयो० वृ० १६/१७) ते पल्लवाः पत्राणि तदवतीति' (जयो० वृ० २२/४८) कोदण्डकः (पुं०) १. भू प्रदेश, २. धनुष-कोदण्डकं कर्णपयोभुवा । कोमल-रूपः (पुं०) स्निग्ध रूप, रमणीय रूप। न। (जयो० १७/७६) 'कोदण्डः कार्मुके भुवि इति कोमल-रूप-काय: (पुं०) रुचिरकाया स्वरूप। 'कोमलं स्निग्धं विश्वलोचन:' (जयो०१७/७६) च तद्रूपं तदेव वायो यस्यास्तां' (जयो० १० ११/९) कोदण्डधर (वि०) धनुष पर बाण रखने वाली। 'कोदण्डं कोमलाङ्ग (नपुं०) कोमल अंग, लावण्य युक्त शरीर। (जयो० धनुर्धरन्तीति स्त्री पृषत्परकोदण्डधरा' (जयो० वृ० १०/६९) । वृ० १२/१२६) । कोदण्डभृत् (वि०) धनुर्धारी, धनुर्विद्या निपुण (जयो० ६/१०८) कोमलाङ्गी (वि.) कोमल अंगों वाली, (वीरा० ३/१९) कोद्रवः (पुं०) [कु+विच्-को, द्रु+अक्नद्रव] कोदों, एक | सुकुमारता युक्त। 'का कोमलाङ्गी वलये धराया' (जयो० धान्य विशेष। ५/८६) को न (अव्य०) कौन नहीं। (सुद० ८५) कोयष्टिः (स्त्री०) [कं जलं यष्टिरिवास्य] टिटहरी, कुररी पक्षी। कोपः (कुप्+घञ्) क्रोध, कोप, गुस्सा, रोष। (समु० ९/२६) | कोरकः (पुं०) मोर, कुररी पक्षी। कोप-कारक ( वि०) क्रोध करने वाला। 'कोपमाशु पराभूय कोरकः (पुं०) मोर, मञ्जरी, कली। अर्ध विकसित पुष्प। मनसा के रकः' (समु० ९/२६) 'पिकोव रसालकोरकं' (दयो०५३) For Private and Personal Use Only Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कोरकं ३१९ कौटलिकः कोरकं (नपुं०) मञ्जरी, कली. अर्ध विकसित पुष्प। प्रघणं तदेते' (जयो० ३/२५) कोषादपि-नालकादपि (जयो० कोरित (वि०) [कोर इतच] १. कली सहित, अंकुरित। २. वृ०३/२५) चूर्ण युक्त। कोषधर (वि०) धन संग्रह सहित। कोलः (पु.) [कुल अच्] १. सूकर, वराह। २. गोद, अंक, कोषस्थलं (नपुं०) कोष स्थान, भण्डार गृह। (समु० ४/५) ३. आलिंगन। ४. सन्तरण काष्ठ, पतवार, नदी पार होने कोषाध्यक्षः (पुं०) कोषाधिपति, कुबेर (वीरो० ८/२) का साधन-'स्मर-सिन्धु-कोल:' (जयो० १७/३१) द्रविणाधिप। (दयो० १/४४) कोलम्बकः (पुं०) [कुल अम्बच् कन्] वीणादण्ड, वीणा कोषान्तरुत्थालिकः (पुं०) अपने कोष से उड़ने वाले भ्रमर। ढांचा। 'युवतरुरसीति रागतः स तु कोलम्बकमवमागतम्' (जयो० १/८२) 'कोषान्तरुत्थाः कुसुमनालमध्या(जयो० १०/२०) दुद्गतायेऽलय एवरलिका भ्रमरा:' (जयो० वृ० १४८२) कोला (स्त्री०) [कुल। णा+टाप्] बदरी। कोषापेक्षी (वि.) १. अखण्ड कोषधारी। २. उदर पोषण को वा (अव्य०) और कौन। (जयो १४९ करने वाला। 'कोषं द्रविणा गारपेक्षत इति कोषापेक्षी कोलाहलं (नपुं०) शोरगुल, (समु० २/२४) एक साथ बोलने निधानोद्धारकर इत्यर्थः' (जयो० ७० ६/२४) वालों का स्वर। -कोषापेक्षी-स्वोदरपोषणमप्यपेक्षते' (जयो० वृ० ६/२४) कोल्लागकारी (वि०) नाम विशेष, गणधर नाम। (वीरो० १४/५) कोष्ठः (पुं०) [कुष्+थन्] हृदय फैफड़ा। पेट, उदर, २. कोविद (वि०) [कु-विच ते वेत्ति-विद् क] विशारद, बुद्धिमान, आभ्यन्तर भाग, ३. अन्नागार। (जयो० ९/३६, (जयो० १९/३०) विद्वान्, कुशल, प्रवीण, कोष्ठं (नपुं०) प्रकोष्ठ, परकोटा, चारदीवारी। २. भण्डार गृह। गुणी। 'न को विदानानुमतस्त्वदाशी (जयो० १९/३०) कोष्ठकः (पुं०) [कोष्ठ कन्] १. भण्डार गृह, २. प्रकोष्ट, कोविदारः (पु०) एक वृक्ष विशेष. कचनार तरु। परकोटा। कोविदग्रणी (वि०) विद्वानों में प्रवीण। (जयो० १९/८५) कोष्ठकं (नपुं०) प्रकोष्ट, स्थान। (वीरो० १३/६) कोशः (पुं०) [कुशा घञ्] १. भण्डार, समूह, ढेर। (सम्य० कोसलः (पुं०) कौशल देश। ९४) २. तरल पदार्थों के रखने का पात्र। ३. म्यान, कोसला (स्त्री०) अयोध्या। आवरण, स्थान, पात्र। ४. निधि, संग्रह, शब्दार्थ संग्रह, कोहलः (पुं०) [को हलति स्पर्धते] वाद्ययन्त्र। शब्द संचय, शब्दावली। कोहलफलं (नपुं०) मधूक फलक, महुआ का फल। कोशलिकं (नपुं०) [कुशल+ठन | घूस, रिश्वत। ___'निर्जीर्ण-कोहलफलच्छविरेवमासीत्' (जयो० वृ० १८/२५) कोशातकिन् (पृ०) [कोश+अत क्वुन] व्यापार, वाणिज्य, कौ (स्त्री०) पृथिवी, भूमि, धरा, भ। 'चित्तेशयः को जयताद सौदागर। यन्तु' (वीरो० १४/१८) (जयो० १/७४) कोशित् (पुं०) आम्रवृक्षा कौक्कटिकः (वि०) [कुक्कुट ठक्] मुर्गे पालने वाला। कोषः (पुं०) [कुप अच] भण्डार, आगार समूह, संग्रह, कौक्ष (वि०) [कुक्षि+अण] कोख से बंधा हुआ। निधि, स्थान, खजाना! (समु० ४.११, जयो० वृ०६/२४) कौक्षेय (वि०) [कुक्षिा ढञ्] उदरजनित, पेट से उत्पन्न होने (जयो० ४/४६, द्रविणागारमपेक्षते स विश्वतोरोचनमृद्धदेश वाला, क्षुक्षि से उत्पन्न होने वाला। कोषं दधौ श्री धसन्निवेशम्' (जयो० १/१७) 'विश्वतोरोचनं कौक्षेयकः (पुं०) [कुक्षौ बद्धोऽसि: ढकञ्] खङ्ग, तलवार, सर्वेषां रुचिकारकम्' (जयो० वृ० १/१७) 'विश्वरोचन' असि।' नाम कोपं यथेति' (जयो० वृ०१/१७) शब्दशास्त्र (वीरो० कौङ्कः (पुं०) [कुङ्क+अण] एक देश विशेष। २/४४) २. निधान, खगावरण-वाजिनं भाति तु भजति कौट (वि०) [कूट+अञ्] निजगृहगत, अपने घर में रहने वाला। मुञ्चति कोषं च मुञ्चति ह्यराति:' (जयो० ६/१११) 'कोषं कौटः (पुं०) असत्य, मिथ्या, छल। खङ्गावरणं' (जयो० वृ० ६/१११) प्लान विशेष, जिसमें | कौटकिकः (पुं०) [कूट+क्तन्] बहेलिया। तलवार को रखा जाता है। ३. नाल, कली, अर्ध विकसित | कौटलिकः (पुं०) [कुटिलिकया हरति मृगान् अङ्गारान् वा] पुष्प। कमलदण्ड-'शिरीष-कोषादपि कोमले ते पदे' वदेति शिकारी, लुहार। For Private and Personal Use Only Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कौटिल्य ३२० कौमुदं कौटिल्य (वि०) कुटलतापन, वक्रता, दुष्टता। (सुद० १/३४) कौटिल्यः (पुं०) कौटिल्य नामक अर्थशास्त्र। कौटिल्यक (वि०) वक्रता, कुटलतापन। 'मृषासाहस-मूर्खत्व____ लौल्य-कौटिल्यकादिवत्' (जयो० २/१४५) कौटुम्ब (वि०) [कुटुम्बं तद्भरणे भोजनमस्य कुटुम्ब ठक्] पारिवारिक सम्बन्ध, गृहस्थ से सम्बन्धित। कौम्बिक (वि०) [कुटुम्ब नद्भरणे प्रसूत: कुटुम्ब-ठक्] परिवार बनाने वाला, गृहस्थ गत कार्य वाला। कौणप: (पू०) [कुणप+अण्] पिशाच, राक्षस। कौतुकं (नपुं०) इच्छा, कुतूहल, कामना, उत्सुकता, आवेश, आतुरता। (सुद० ३/३३, सुद० २१) विनोद-'कौतुकात् किल निरागसोऽङ्गिन्' (जयो० ४/३७) (जयो० २/१३४) 'कोतुकाद् विनोदवशात' (जयो० वृ० २/१३४) फल, परिणाम-'कोतुकं को तु कस्मान्न' (जयो० वृe ३/६८) पुष्प कौतुकत्व भिलाषोऽपि कुसुमे नर्महर्षयोः इति विश्वलोचन:' कौतुकगृह (नपु०) आमोद भवन। ( भक्ति०१३) कौतुकधूक (वि०) विनोदवान्, उत्सुकता वाला! (जयो० ११/९०) 'समन्ततः कौतुकधृक् सुमान्यम्' (जयो० ११/९०) कौतुकपरिपूर्ण (वि०) १. कौतुकता से युक्त, २. पुष्पों से परिपूर्ण। कौतुकपरिपूर्णतया याऽसौ षट्पदमतगुजाभिमता' (सुद० ८२) कौतुकपूर्ण (वि०) कौतुकता से युक्त, विनोद युक्त। (सुद० २/७३) कौतुकभाजि (वि० ) कौतुक के भण्डार। 'स्वरूपत: कौतुकभाजि सारं नवे वयस्तत्र पदं दधार' (समु०६/२७) कौतुकभूमि (स्त्री०) हर्षदायक स्थान। कौतुकभूमिरमुष्या नयनानन्दाय विलसतु नः। (सुद० ८४) कौतुकमङ्गलं (नपुं०) महान् उत्सव. विनोद क्रिया, हर्ष भाव। कौतुकवती (वि०) विनोदवती! (सुद०८२) कौतुकसंग्रहः (पुं०) पुष्प समूह। कौतुकानां पुष्पाणा संग्रहः ___ संप्राप्ति: (जयो० २४/७) कौतुकसम्विधानं (नपु०) विनोदछटा, हर्ष भाव की प्रमुखता। (समु० १/१३) 'पदे पदे कौतुकसम्विधाना' (समु० १/१३) कौतुकसेवा (स्त्री०) १. आनन्दभाव, हर्ष भाव, विनोदपूर्ण सेवा। (जयो० ४/१५) २ पुष्प उपलब्धता-कौतुकानि पुष्पाणि च तेषां सेवया उपलब्ध्या सहिता' (जया० वृ० ४/१५) कौतुकाशुगः (पुं०) काम, कामदेव। २. पुष्पबाण कौतुकाशुगेन कामदेवेन पुष्पबाणेन' (जयो० वृ० २१/६) 'कौतुकस्य कुसुमस्य आशुगो बाणो यस्य' (जयो० वृ० ५/६०) कौतुकिता (वि०) १. कौतुकता की व्याप्ति, पुष्पों की व्याप्ति। 'स्वयं कौतुकितस्वान्त कान्तमामेनिरेऽङ्गना' (सुद० ८३) 'कौतुकानि पुष्पाणि विद्यन्ते यत्र स कौतुकी तस्य भावः कौतुकिता विनोदसहिता च' (जयो० वृ० ३४/४०) कौतुकोत्पत्तिः (स्त्री०) हर्षोत्पत्ति, विनोदोत्पत्ति, आनन्दभाव, उत्पन्न होना। 'सत्कौतुकोत्पत्तिभुवोऽमुकस्य' (समु० ६/१८) कौतूहलं (नपुं०) [कुतुहल आण] इच्छा, जिज्ञासा, कामना, उत्सुकता, उत्कण्ठा। कौत्कुच्य (वि०) कुचेष्टा, अशुभ भावना। कौन्तिक (वि०) [कुन्तः प्रहरणमस्य ठञ्] कुन्त/भाला चलाने वाला। कौन्तेयः (पुं०) [कुन्त्याः अपत्यं ठक्] कुन्ती का पुत्र युधिष्ठिर। भीम, अर्जुन भी! कौप (वि०) [कूप+अण] कुए से सम्बन्धित, कुएं से निर्गत, कुएं से प्राप्त। कोपाकुलः (पुं०) कौप समूह, क्रोध युक्ता (१२/६) कौपीनं (नपुं०) [कूप खञ्] १. योनि, उपस्थ, गुप्ताङ्ग, गुह्येन्द्रिय। २. लंगोट, खण्डवस्त्र। (जया० १/३८) कौपीनभावः (पु०) लंगोटी, वस्त्र चिल्लिका। 'कौ पृथिव्यां पीनभावं प्रफुल्लावस्थामुत वनवासिनां वानप्रस्थानाम्' (जयो० वृ० १८/४७) 'कौपीनस्य वस्त्रचिल्लिकाया भावमयते शेषवस्त्रादिपरिग्रहं परित्यजति' (जयो० वृ १८/४७) कोज्य (वि०) [कुब्ज+ष्यञ्] वक्रता, कुटिलता, कुबड़ापन। कौमार (वि०) [कुमार+अण] तरुण, (वीरो०८/१७) (जयो० ३/४२) (सम्य०२१) (जया० ८/१७) 'युवा, कुवारपन, बाल्य। (जयो० २३/२८) कौमारकं (नपुं०) तारुण्य! (समुः ६/१७) कौमारकालः (पुं०) कुमारवस्था, तरुणकाल, लड़कपन। (दयो० ११२) कौमारिकेयः (वि०) [कुमारिका ढक्] अविवाहिता स्त्री का पुत्र। कौमाल्यगुणं (नपुं०) कुमारता के गुण। (सुद० ३/२९) कौमुदं (नपुं०) श्वेत कमल। (वीरो० १/३) 'कौमुदस्तोममु रीचकार' रात्रि में खिलने वाली कमलिनी। (सुद० ९९) कौमुदमेधयन्तम् (जयो० ११॥ For Private and Personal Use Only Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कौमुद ३२१ कौसुम्भक कौमुद (वि०) पृथिवी को आनन्दित करने वाला। 'कौ पृथिव्यां कौबेर (वि०) [कुबेर+अण्] कुबेर से सम्बन्ध रखने वाला। मुदः प्रसन्नताया:' (जयो० वृ० १/७४) 'को पृथिव्यां मुदं | कौश (वि०) [कुश+अण] रेशमी। कुश का बना हुआ। हर्षम्' (जयो० वृ० २८/३) 'स्फोटयितुं हि कमलं कौमुदं कौशरः (पुं०) कुशल भाव। (जयो० ५/९४) 'कौशरस्य नान्वमन्यत' (जयो० २८/३) कुशलभावस्य' (जयो०४/६५) कौमुदाप्तिमय (वि०) पृथिवी पर प्रसन्नता वाला। 'कौ भुवि कौशरः (पुं०) पृथिवी का जल। 'कौ पृथिव्यां शरस्य जलस्रा' मुदाप्तियः प्रसादयुक्तः' (जयो० ६/११२) कुमुदसमूहस्य (जयो० ४/६५) पृथ्वी के बाण रूप। (जयो० व०५/९४) विकासकारश्च' (जयो० ७० ६/११२) कौशरधर (वि०) चातुर्यधारिका, कुशला को धारण करने कौमुदाश्रय (वि०) पृथिवी पर प्रसन्नता फैलाने वाला, पृथिवी वाला। (जयो० ९/८७) 'इति कौशरधर-वाचमुत्तमां' का आश्रय। कुमुदानां समूहः कौमुदं कैरवसमूहस्तस्याश्रया | कौशलं (नपुं०) [कुशल+अण] प्रसन्नता, कुशलता, समृद्धि, विकासकारिणो' (जयो० वृ. ३/३७) कौ पृथिव्यां मुदाश्रयः क्षेम, दक्षता, चतुराई। (वीरो० ५/३०) चातुर्य। (जयो० २५९) प्रसक्तिकर: कौमदानामाश्रयः (जयो० ५/९१) कौशलदेशः (पुं०) कौशल नामक देश (समुः ४/२०) कौमुदी (स्त्री०) (कौमुद। ङोप। चांदनी, ज्योत्स्ना, चन्द्रिका। कौशलधर (वि०) कुशलता धारक, चातुर्य युक्त। (जयो० (सुद० ४/१३) कुमुदानामिय कौमुदीति चन्द्रस्येयं चन्द्रोतिपदे' | वृ० ९/८७) (जया० १५/६३) कौशलापुरी (स्त्री०) कौशल नगरी। (वीरो० १४/१६) कौमोदकी (स्त्री) [को पृथिव्याः मोदक-कुमोदक अण डोप् | कौशलिकं (नपुं०) [कुशल ठक्] घुस, रिश्वत। कुं पृथिवों मादयति-कुमोद। अण डोप) विष्णु की गदा। कौशलिका (स्त्री०) [कौशलिक टाप्] [कुशल अण् डीप्] कौरव (वि०) (कुरु- अण] १. कुरुओं से सम्बन्ध रखने १. उपहार भेंट, प्राभृत, चढ़ावा। २. अभिवादन, नमन। वाला। कौशलेयः (पुं०) [कौशल्या+ढक्] १. राम, दाशरथी, कौशल्या कौरव: (पुं०) कुरु की सन्तान, (सम्य०६५) दुर्योधनादि, कौरवं का पुत्र राम। नाम वीरं जनाय खलु सर्वसाधारणायेक्षते' (जयो० १८/५) कौशल्या (स्त्री०) [कोशलदेशे भवा] दशरथ की रानी, ज्येष्ट कौरवः (वि० । पृथिवी पर शब्द करने वाला। 'को भुवि रञ्जनाय भार्या। प्रसक्त्यर्थं खल रवमीक्षयते शब्द करोति।' (जयो० वृ० । कौशम्बिका (स्त्री०) [कुशाम्ब+अण्] कौशाम्बी नगरी, वत्स देश की राजधानी। (दयो० ९) कौरव्यः (पुं०) कुरु को सन्तान। कौशाम्बी (स्त्री०) [कुशाम्ब अण् ङीप्] कौशाम्बी नगरी। कौल (वि०) कुल+अण] कुल से सम्बन्धित, पैतृक. कौशिक (वि०) [कुशिक-अण] म्यान में स्थित। आनुवाशका कौशिक (पुं०) उलूक, उल्लू। 'नोऽस्तु कौशिकादिह विद्वेषी' कौल: (पु०) कुन सम्बंधी। (जयो० ८/९०) 'प्रकाशमान समये कोशिकात् उलूकात् कौलकेयः (१०) [कुल: ढक ! वर्णसंकर, व्यभिचारिणी स्त्री परः अन्य: को नरो विद्वेषी' (जयो० वृ० ८/९०) कौशिकी (स्त्री०) नदी, जो विहार में बहती है। कौलटिनेयः (पृ०) [कुलटा ढक वर्णमंकर से उत्पन्न पुत्र! कौशेयं (नपुं०) [कोशस्य विकार:-ढ] रेशम, रेशमी वस्त्र! कौलिक (वि० ) [कुल ठक! कुल से सम्बन्धित, कुल में कौसीद्यम् (नपुं०) [कुशीद+ष्यञ्] १. व्याज का व्यवसाय, प्रचलित २. आलस्य, आकर्मण्यता। कौलिकः (०) जुलाहा, तन्तुवाय। कौसुम (वि०) [कुसुम+अण्] सुमन युक्त, पुष्पता। (सुद० कौलीन (वि०) । कुल खज। कुलीन) २८) कौलीन्यं (नपुं०) (कुलीन प्य कुलीनता, वंश को वैशिष्ठता। | कौसुम-संविकासः (पुं०) विकसित सुमन। 'यस्या मुखे यदि जन्म संस्काराभ्यां कोलीन्यमिति कथ्यते। (हि०सं०२३) | कौसुम-संविकास' (जयो०८/२७) कौलूतः (पं) कुलुत अण] कुलूत देश का नृपति। कौसुम्भक (वि०) [कुसुम अण्] सुमन युक्त, पुष्पता। (सुद० कौलेयक (40) [कल ढक। शिकारी कुता. श्वान। २/८) For Private and Personal Use Only Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कौसुम्भक-भाजनं ३२२ क्रियाकाण्डः कौसुम्भक-भाजनं (नपुं०) कुसुम्भ से भरे हुए पात्र। (जयो० क्रमशः (अव्य०) [क्रम्+शस्] क्रमानुसार, एक सा, एक ८/२७) 'निम्नानि गन्धर्वशकैः कृतानि यत्राथ कौसुम्भक- मात्रा में। क्रमशः सकलै रथात्मनस्तकमारुढतया निपातनम्' भाजनानि। (जयो० ८/२७) (समु० २/२४) कौसृतिकः (पुं०) [कुसृति+ठक्] ठग, छली, २. बाजीगर, क्रमयुगं (नपुं०) युगानुसार। (समु०५/२) बदमाश। क्रमविचारकरी (वि०) क्रमशः विचार करने वाला। कौस्तुभः (पु०) [कुस्तुभी जलधिस्तत्र भवः] एक रत्न, जो क्रमविक्रम (पुं०) क्रम से पराक्रम को प्राप्त। वक्षस्थल की शोभा बढ़ाने कला होता है। (वीरो० ७/११) क्रमागत (वि०) क्रम से आया हुआ। 'क्रमशः आगतः क्रमागतः' क्रूय् (अक०) चूं चूं शब्द करना। (जयो० वृ० २१/७५) क्रमात्-क्रम से--'कुत्सितेषु सुगतादिषु क्रकचः (पुं०) [क्र-इति कचति शब्दायते-क+कच-अच्] क्रमाद्धा' (जयो० २/२६) आरा। क्रमिक (वि०) [क्रम्। ठन्] उत्तरोत्तर, क्रमानुसारी। २. परंपरागत, क्रकचच्छदः (पुं०) केतकी तरु। आनुवंशिका क्रकचपनः (पुं०) सागौन वृक्षा क्रमुः (पुं०) [क्रम् उ] सुपारी तरु। क्रकचपादः (पुं०) छिपकली। क्रमेल: (पुं०) [क्रम् एल्+अच्] ऊँट। उपवेशयति स्म तद्गतः क्रकरः (पु०) [क्र इति शब्द कर्तुं शीलमस्य-क्र+कृ+अच्] सहसा सादिवर: क्रमेलकम्' (जयो० वृ० १३/७३) आरा। क्रमेलकः (पुं०) ऊँट। क्रतुः (पुं०) [कृ+क्तु] १. यज्ञ, शक्ति । क्रयः (पुं०) [क्री+अच्] खरीद। क्रतुराज् (पुं०) यज्ञ स्वामी। क्रयणं (नपुं०) [क्री+ल्युट्] खरीदना, क्रय करना। क्रथ् (अक०) क्षति पहुंचाना. चोट करना, मार डालना। क्रयलेख्यं (नपुं०) दानपत्र, विक्रय पत्र। क्रथनं (नपुं०) [क्रथ+ ल्युट्] वध, हत्या। क्रयविक्रयः (पुं०) व्यापार, व्यवसाय। क्रथनकः (पुं०) [क्रथ+कन्] उष्ट्र, ऊँट। क्रयिक (वि.) व्यापारी, व्यवसायी। क्रन्द् (अक०) चिल्लाना, रोना। क्रन्दनं (नपुं०) विलाप, रुदन। क्रव्य (वि०) बिक्री योग्य, बिकाऊ। क्रम् (सक०) जाना, पहुंचाना। क्रव्यं (नपुं०) कच्चा मांस। क्रमः (पुं०) [क्रम्+घञ्] अनुक्रम, गति, कदम, पग। 'भवतः क्रशिमन् (नपुं०) [कृश्+इमनिच] कृश, दुर्बल, क्षीण। सान्निध्यमस्मिन् क्रमे' (सुद० ११३) 'रागादयः क्रमात्' क्राकचिकः (पुं०) [क्रकच+ठक्] आराशक। (सुद० १३५) क्रान्त (वि०) निस्सृत, निकला, गया हुआ। क्रमः (पुं०) शक्ति, बल। 'क्रमः शक्तौ परिपाट्याम्' इति क्रान्तः (पुं०) अश्व, घोड़ा। * आंदोलन। वि०' (जयो० २३/३६) * परिपाटी, परम्परा। क्रान्तिः (स्त्री०) १. गति, प्रगमन। २. अग्रभूत, पादगमन। ३. क्रमकृत् (वि०) किलानुकी पंक्ति में चलते हुए। अभिभूत करने वाला। 'पिपीलिकाली-क्रमकृत्-प्रशस्तिः' (जयो० ११/३३) क्रायक (वि०) क्रेता, खरीरदार, व्यापारी, व्यवसायी। क्रमणः (पुं०) [क्रम् ल्युट्] १, पाद, पैर, पग, २. अश्व, घोड़ा। क्रिमिः (स्त्री०) कीड़ा, कीट। क्रमणं (नपुं०) १. कदम। २. अतिक्रमण, उल्लंघन। क्रिया (स्त्री०) १. ०कार्यपद्धति, प्रक्रिया, २. रचनाधर्मिता, क्रमणान्वयः (पुं०) आक्रमण। 'प्रदोषसिंहक्रमणान्वयानां' (जयो० ३. ०उपचार ४, ०क्रियागति-व्यवसाय, ५. कृत्य, चेष्टा, १५/२८) कृते आक्रमणेऽन्वयः क्षुब्धरूपतया' (जयो० ६. श्रम ७. ०आचरण, ८. ०कर्म। ९. द्रव्य की पर्याय। वृ० १५/२८) पाणिग्रहणात्मिक क्रिया। (जयो० १/६७) क्रमतः (अव्य०) [क्रम्। तसिल्] क्रमश:, उत्तरोत्तर, क्रमानुसार। क्रिया-कलापः (पुं०) कार्यकलाप, रीति-रिवाज। क्रमदित्स (वि०) पंक्तिशः क्रमशो दित्सा। (जयो० १२/११८) क्रियाकारः (पुं०) अभिकर्ता, कार्यकर्ता। क्रमरोधः (पुं०) सीमातिक्रमण का निषेध। (जयो० २१/७५) | क्रियाकाण्डः (पुं०) विधि विधान, कार्य की विधि, बाह्य विधि। For Private and Personal Use Only Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra क्रियागुक्षि www.kobatirth.org धर्माधिककर्तृत्वममी दधाना बाह्यं क्रियाकाण्डमिताः स्वमानात् (वीरो० १८/४९) क्रियागुक्षि (स्त्री०) क्रियापद, कविरचना (जयो० ७/२) क्रियाद्वेषिन् (पुं०) पक्षपात । क्रियानयः (पुं०) क्रिया की प्रधानता । 'यः उपदेशः क्रियाप्राधान्य' । क्रियानिर्देश: (५०) साक्ष्य गवाही। क्रियापदं (नपुं०) ०कवि रचना पाटव ०क्रियावाचक, ०क्रियागुप्ति (जयो० ७/२) क्रियापारगमी (वि०) परिश्रमशील । क्रियायोगः (पुं०) क्रिया के साथ सम्बन्ध । क्रियारुचिः (स्त्री०) ज्ञान, दर्शन, चरित्र आदि के प्रति रुचि । क्रियावश: (पुं०) क्रिया का प्रभाव। क्रियावाचक (वि०) कर्म को प्रकट करने वाला। क्रियावाचिन् (वि०) क्रिया से बना हुआ शब्द । क्रियावादिन् (पुं०) क्रियावादी, कर्ता के बिना क्रिया सम्भव नहीं है, इसलिए उसका समवाय आत्मा में है, ऐसा कहने वाले जैनदर्शन में ३६३ मत हैं, उनमें क्रियावादी मत भी है। 'क्रिया अस्तीत्यादिकां वदितुं शीलं येषां ते क्रियावादिनः । ' (जैन०ल०३७८) 'क्रियां जीवादिपदार्थोऽस्तीत्यादिकां वदितुं शीलं येषां से क्रियावादिनः' (जैन०ल०३७८ ) क्रियाविधिः (स्त्री० ) कर्म करने का नियम, कार्य पद्धति । क्रियाविशाल (नपुं०) तेरहवें पूर्व का नाम, जहां लेखन विधि की व्याख्याएं हों। जहां संयम क्रिया, छन्दक्रिया और विधानादि का सभेद वर्णन हो। 'किरियाविसालो इ-गय-लक्खण- छंदालंकार-सेढत्थी पुरिस- लक्खणादीणं वण्णणं कुणई' (जय०५०२/४८) क्रियाविशेषणं (नपुं०) १. क्रिया की विशेषता प्रकट करने वाला शब्द । २ विधेय विशेषण। क्रियासंक्रान्तिः (स्त्री०) अध्यापन, शिक्षण, दूसरों को शिक्षा देना। - ३२३ क्री (सक०) खरीदना क्रय करना, मोल लेना। क्रीड (सफ०) खेलना, मनोरंजन करना, घूमना। 'क्रोडे मुहुर्वारम्वार वेल्लति क्रीडति' (जयो० वृ० १३/९०) क्रीड (पुं०) [क्री+पञ्] खेल, किल्लोल, उमंग, आमोद, प्रमोद, क्रीडकः (पुं० ) [ क्रीड्+घञ् स्वार्थे कन् ] खेल, उत्साह, उमंग (दयो० ८३) उत्साह | क्रीडनं (नपुं० ) [ क्रीड + ल्युट् ] खेलना, मनोरंजन करना । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कोड: क्रीडनक: (पुं०) खेल साधन । क्रीडनकतं (पुं०) खेल साधन, क्रीडास्कन, खिलौना सत्यवस्तुपरिबोधने विशो भान्ति क्रीडनकतो यतः शिशोः। (जयो० २ / ३०) 'क्रीडनकान्येवेति क्रीडवकत:' (जयो० वृ० २/३०) क्रीडनवकारक (वि०) क्रीड़ा को करने वाला मदारी, बाजीगर, नट (जयो० वृ० २५/५) क्रीडा (स्त्री० [क्रीड्+अ+टाप्] खेल, आमोद प्रमोद, उत्साह, उमंग, किलोल, हंसी। क्रीडाकर (वि०) क्रीडा करने वाला। (जयो० वृ० १६ / १५ ) क्रीडागृह (नपुं०) आमोदकक्ष, खेलस्थान क्रीडानुरक्त (वि०) क्रीडा में तत्पर । (दयो० ८३) क्रीडापर (वि०) क्रीडा युक्त, क्रीडा में तत्पर, खेल में लगा हुआ । 'वयस्यवर्गेण समं कदापि क्रीडापरेणेदमुदन्तमापि' (समु० १ / ३१ ) क्रीडारलं (नपुं०) मैथुन कामकेलि । क्रीण् ( सक०) खरीदना, क्रय करना । 'यः क्रीणाति समर्प मितीदं विक्रीणीतेऽवश्यम्' (सुद० ९१ ) क्रुञ्चः (पुं०) जलकुक्कुटी, बगुला । क्रुध् (अक० ) ०क्रोध करना, ०कोप करना ०क्रोधित होना । 'दग्धं क्रुधा कामधनुर्हरण' (जयो० ११/६७) + क्रुध् ( अक० ) ०चिल्लाना, रोना, ०चीखना ० विलाप करना । कुष्ट (वि० ) [ क्रुश्+क्त] चिल्लाया हुआ पुकारा हुआ। क्रूर (वि० ) ० निर्दय, ०निष्ठुर, कठोर, व्दारुण, ०भयंकर, ० अनिष्टकारी। For Private and Personal Use Only क्रूरकर्मन् (नपुं०) रक्त रंजित । क्रूरकृत् (वि०) निर्दय, निर्मम क्रूरकोष्ठ (वि०) मृदुता का अभाव । क्रूरगंध: (पुं०) दुर्गन्ध । क्रूरदृश (वि०) कुदृष्टि वाला । क्रूरलोचनं (नपुं०) कुपित दृष्टि । क्रेतृकुलं (नपुं० ) ग्राहकं (जयो० १३/८७) क्रेतु (पुं०) क्रेता, खरीरदार । क्रोञ्चः (पुं०) [कुञ्च+अच्] १. एक पक्षी, २. पर्वत विशेष । क्रोडः (पुं०) [क्रुड +घञ्] १. अङ्क, गोद, वक्षस्थल, छाती, सौना। २. गर्त, गट्ठा। 'पितरौ तु विषेदतुः सुतां न तथाऽऽजन्मनिजाङ्कवर्द्धिताम्' (जयो० १३/२२) 'अड्डे फोडे यशोविशिष्टं' (जयो० वृ० ३ / २३) 4 Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir क्रोडपत्रं ३२४ क्रोडपत्रं (नपुं०) प्रान्तवर्ती लेख, सम्पूरक। क्लेदभावः (पुं०) सड़ानभाव (वीरो० १६/२५) (जयो० २/१३०) क्रोडीकरणं (नपुं०) आलिंगन करना। क्लेदसम्भार (वि०) मेद युक्त। ‘क्लेदसम्भार : तनृत्पन्नभेद: क्रोडीमुखः (पुं०) [कोड्या मुखमिव मुखमस्याः] गेंडा। समूहस्तस्य धाराभिरन्वितं माक्षिकम्' (जयो० वृ०२/१३०) क्रोध: (पुं०) [क्रुध+घञ्] कोप, क्रोध, गुस्सा। क्लेश: (पुं०) [क्लिश्+घञ्] पीड़ा, वेदना, कष्ट, दु:ख। क्रोधन (वि०) [क्रुध+ल्युट] क्रोध युक्त, कुपित। क्लेशसंभृत (वि०) कष्टकारक। (जयो० वृ० २८/१२) क्रोधालु (वि०) [कुध् आलुच्] क्रोध वाला, गुस्सैल, चिड़चिड़ा। क्लैव्य (वि०) १. नपुंसकता, नामर्दी, पुरुषार्थहीनता। (सुद० ८४) क्रोध युक्त. क्रोधाविष्ट। क्लैव्ययुत (वि०) नपुंसकता युक्त, 'कपिले त्वया स वक्तव्य क्रोशः (पुं०) [कुश्+घञ्] चीख, चीत्कारः चिल्लाहट, युतः' (सुद०८४) चिल्लाना। क्लैव्यसम्पन्न (वि०) नपुंसकता से युक्त। (जयो० वृ० ११/५२) क्रोष्टु (पुं०) [क्रुश्+तुल] गीदड़! क्लोमं (नपुं०) [क्लु+मनिन] फेफड़े। क्रौञ्चः (पुं०) [क्रुञ्च+अण्] १. कुररी, बगुला. जलकुक्कुटी। | क्व (अव्य०) [किम् अत्, कु आदेश:] कहां, किधर, किसे, २. एक गिरि विशेष। कभी नहीं, कहीं, किसी जगह। (जयो० १/३९) 'मति क्रौञ्चरिपुः (पुं०) कार्तिकेय, परशुराम। क्व कुर्यान्नरनाथपुत्री' (जयो० ३/८५) 'क्व कुशलं कुशलं क्रौञ्चसूदनः (पुं०) परशुराम, कार्तिकेय। कुरुताज्जिनः' (जयो० ९/३६) कौर्य (नपुं०) [ क्रूर-ष्यज] क्रूरता. कठोरता। (वीरो० ११/४) । क्वचन (अव्य०) अन्यत्र। क्वचनान्यत्रापरिचितस्थाने' (जयो० क्लन्द (सक०) चिल्लाना, पुकारना, रोना, विलाप करना। वृ० १८/३२) 'भास्वानसौ क्वचन यापितसर्वरात्रिः' (जयो० क्लम् (अक०) थकना, अवसन्न होना, आलस्य होना। १८/३२) क्लमः (पुं०) [क्लम्+घञ्] थकावट, अवसाद, क्लान्ति। क्वचित् (अव्य०) एक जगह, किसी स्थान पर कहींक्लममिषं (नपुं०) आलसताव्याज, आलस्य के बहाने। कहीं-'मणयोऽपि हि क्वचित्' (जयो० २/१२) 'क्वचिदाश्रमे 'क्लममिषेण जिनमीप्सितमेषा' प्राणपतिं प्रति तदा सुवेषा' समु चिते निरतोऽसा वात्मने रुचिते' (जयो० २/११६) (जयो० १४/३२) 'क्वचित्कदाचिच्छुभयोगतोऽपि' (समु०८/३७) क्लान्त (वि०) [क्लम्+क्त] १. थका हुआ. श्रम युक्त, क्वण (अक०) अस्पष्ट शब्द करना, बजना। क्वणत्, क्वणन्त्यो' उदासीन, भोगोपयोगो-चितविचारतः क्लान्तः' (दयो० ३९) (वीगे० २/३५) ०क्वत्किणिकापदेशात्। आलस्य युक्त। २. मुझाया हुआ, म्लान। क्वणः (पुं०) [क्वण अप्+घञ्] शब्द, ध्वनि, झंकार। क्लान्तिः (स्त्री०) [क्लम्-क्तिन्] थकावट, श्रम। क्वत्य (वि०) [क्वात्यप] किसी स्थान से सम्बन्ध रखने क्लिद् ( अक०) गीला होना, आर्द्र होना. तर होना। वाला। क्लिन्न (वि०) [क्लिद् + क्त] गीला, आर्द्र. तर। क्वणित (वि०) ध्वनित। (वीरो०६/२९) क्लिश् (अक०) दु:खी होना, पीड़ित होना, दु:ख देना, क्वणितकिङ्किणी (स्त्री०) करधनी की किंकिणी। (वीरो० ६/२९) सताना, कष्ट होना। क्वापि (अव्य०) कदापि, कभी भी, कहीं भी कोई भी। क्लिशित (वि०) [क्लिश्क्त ] पीड़ित, दु:खित, कष्ट युक्त। (जयो० वृ० २३/३२) 'जले स्थले क्वाप्युदले गुहानां क्लुप्त (वि०) १. रचित, गुंफित। चैत्यानि वन्दे जिनपुङ्गवानाम्' (भक्ति० ३४) 'कुत्रचिदपिक्लृप्तिः (स्त्री०) चमक, कान्ति (वीरो० २०/११) श्रुत्यैव स जयो० वृ० ५/३३, तिष्ठोत्क्वापि तदा तदङ्गण' (मुनि० स्यादिति तूपक्तृप्तिः' १२) क्लिष्टि: (स्त्री०) [क्लिश्+क्तिन्] दु:ख, वेदना, पीड़ा, सेवा। क्ष क्लीव (वि०) [क्लीब्+क] नपुंसक। १. हिजड़ा, बधिता क्षः (पुं०) यह संयुक्त अक्षर है। इसमें क्+प का संयोग है। किया गया। २. पुरुषार्थहीन, भीरु, दुर्बल, कायर। | क्षः (पुं०) [क्षिडि] विनाश, क्षय, हानि, अन्तर्धान। २. क्लेदः (पुं०) [क्लिद्+घञ्] १. आर्द्र, गीला वर, नमी। २. विद्युत, ३. क्षेत्र, खेत, ४. राक्षस। ५. विष्णु का नरसिंह .. मवाद भेद, तनूत्पन्नमंद। अवतार। For Private and Personal Use Only Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir क्षण ३२५ क्षणस्थितिः क्षण (सक०) चाट पहुचाना, क्षति पहुंचाना, आघात करना। क्षणदाप्रणीतिः (स्त्री०) रात्रि की प्रवृत्ति। क्षणदाया रात्रेः प्रणीति: क्षण: (पुं०) [क्षण। अच्] १. उत्सव, आनन्द, हर्ष। 'क्षणाः प्रवृत्तिर्यद्वा। (जयो० १५/३९) उत्सवाः' (जयो० वृ० ४५) प्रसन्नता-शरदं भुवि वर्षणात् क्षणदाप्रवृत्तिः (स्त्री०) १. रात्रि की प्रणीति, २. क्षणिकवादिता पुनः क्षणवल्लक्षणमेत्य वस्तुनः। (सुद० वृ०५४) २. की प्रवृत्ति! (जयो० वृ० १८/६०) ३. मुनियों की जन्म, उत्पत्ति 'क्षणा जन्मानि (जयो० वृ० ४५) ३. वृत्ति स्याद्वादवाणी युक्त। उदितपिच्छानां मयूरपिच्छधारिणां लक्षण, शरीर के विभ्रम विलास आदि लक्षण। 'क्षणो दिगम्बराणां समूहस्तस्य वृत्तिः प्रवृत्तिः स्याद्वाद जिलास- विभ्रमादिलक्षण' (जयो० वृ० ३/३) ४. अवसर, भाक्-स्यादवादमनेकान्तवादं भजतीति' (जयो वृ० १८/६०) काल, समय, अवकाश, (जयो० ४/६८) (सम्य० १३५) क्षणदेसः (पुं०) एक मात्र प्रदेश। (सुद० ३/२) क्षीणदेश, अंश, भाग, केन्द्र, 'क्षण मात्र क्षणेन लाभ महता महीन्तु' कमर का पतला हिस्सा। 'उदर-क्षणदेशसम्भुवा समये। (वीरो० १८८) 'सति पश्यामि पश्यामि दु:खतो यान्ति मे (सुद० ३२) क्षणाः। (सुद० ९० ) वभृवायं महाराजो महावीरप्रभोः क्षणे' क्षणद्युतिः (स्त्री०) प्रभा, विद्युत् प्रभा, चमक। (सुद० १४४५) 'विधृताङ्गलि उत्थितः क्षणं' समु पस्थाय क्षणनं (नपुं०) [क्षण+ ल्युट्] घात, अघात, नाश, हानि। पतन सुलक्षण:।' (सुद० ३/२४) 'क्षणादुदीरयन्नेवं क्षणनिश्वासः (पुं०) शिंशुक। कर-व्यापारमादरात्' (सुद० ७८) क्षणभङ्गर (वि०) चंचल, नश्वर, क्षणस्थाई। नाशक- णमो सप्पिसवीणं चैकाहिकादिकरुगक्षणम्' (जयोल क्षणभर (वि०) क्षणमात्र (जयो० २५/४३) १९/२०) क्षणभूः (स्त्री०) क्षणमात्र। क्षणं (नपुं०) समय, अवसर, किञ्चित्काल। क्षणं किञ्चित्कालं' क्षणभूरा (स्त्री०) क्षणमात्र। (सुद० ९९) क्षणभृरास्तां न (जयो० १०/६५) 'समु द्यतो वारयितुं क्षणेन' (सुद० स्वप्नेऽप्युत यत्र न यानि वतत्वाम्' (सुद० ९९। १२०) 'समाह सद्यः कपिलक्षणेन सद्यः कपिलः क्षणेन, क्षणमात्रं (अव्य०) क्षणभर के लिए। (सुद. ३.३९) क्षणरामिन् (पुं०) कबूतर, कपोत। क्षणः (पु०) स्तोक नाम, प्रमाण विशेष। 'परिणामोत्पदन्तर-- क्षणमेव (अव्य०) क्षणमात्र ही। (दयो० ॥२॥ व्यतिक्रमकालः क्षण:' (सिद्धि वि०टी० वृ०३४९) एक क्षणरुचिः ( स्त्री०) क्षणभर की रुचि/प्रीति। विद्युत्सदृश चि। परमाणु का दूसरे परमाणु के अतिक्रमण का जो काल है। थोवो खणो णाम (धव० १३.२९१) 'क्षणेऽसोऽनन्तरक्षणे तत इति क्षणरुचिः शम्पेव भाति' क्षणकरः (पुं०) चन्द्र, शशि। (जयो० वृ० २५/३) 'क्षणरुचिः कमला प्रतिदिङ्मुख' क्षणचरः (पुं०) निशाचर, राक्षस। क्षणलसत् (वि०) भाणभात्र के लिए प्रकाशित। (जयो० २५/३) क्षण-क्षीणं (नपुं०) क्षणमात्र की कमी। नो चेत्क्षणक्षीण क्षण-लाक्षणिक (वि०) थोड़ी देर भर भी। (दयो०६६) विचारवन्ति दिनानि दीर्घाणि कुतो भवन्ति। क्षणविध्वंसिन् (वि०) क्षणभर में नष्ट होने वाला। क्षणत (वि०) क्षणभर भी (जयो० वृ० २५/४) (वीरो० १२/२०) क्षणविभङ्गदेशिनी (स्त्री०) जिनवाणी पवित्र लक्षण वाले सप्त क्षणद (वि०) आनन्द प्रद. आनन्द प्रदान करने वाले। क्षणदं भंगों के युक्त। 'क्षणस्य उत्सवस्स विभङ्गदेशिनी निषेधकी। क्षणमाध्यानात् कर्णालङ्करणं कुरु' (जयो० ३/३८) क्षणदं जिन वाणी सज्ज पवित्र लक्षण स्वरूप गपा आनन्दप्रदं-(जयो० वृ० ३/३८) ३. क्षणभर, मुहूर्तभर. तेच ते विभङ्ग वितर्काः 'स्यादस्ति स्यान्नस्तीत्यादिरूपास्तद्देशिनी किञ्चित्मात्र। तेषां प्ररूपिका। (जयो० वृ० ३/१०) क्षणदः (पुं०) ज्योतिषी, निमित्तशास्त्री। क्षणसम्बिधानं (नपुं०) क्षण सदृश। 'आयुः समुद्र- द्वितयोक्षणदा (स्त्री०) रात्रि, रात, निशा। (जयो० ९८/३९) पमानक्षणं' स्म जाने क्षण सम्बिधानम्' (वीरो० ११/२४) 'क्षणमुत्सवं ददातीति क्षणदा' क्षणमुत्सवं द्यति खण्डयतीति | क्षणसाक्षिक (वि०) क्षण में नष्ट होने वाला। यदिह पौद्गलिकं क्षणदा' क्षणं परिवर्तनं ददातीति क्षणदा' (जयो० १० क्षणसाक्षिकं तदनुकर्तुममुष्य किलाक्षिकम्' (समु० ७/१९) १५/३१) क्षणस्थितिः (स्त्री०) अनेक क्षण स्थायित्व। 'नित्यैकताया: For Private and Personal Use Only Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir क्षणिक ३२६ क्षपक परिहारकोऽब्द: क्षणास्थितेस्तद्विनिवेदिशब्द:। (जयो० क्षत्रियः (पुं०) [क्षत्रे राष्ट्रे साधु तस्यापत्यं जातौ वा] शास्त्रोपजीवि, २६/८९) कल्याणकारक प्रवृत्ति युक्त, शक्ति संपन्न। 'अस्तु क्षणिक (वि०) [क्षण+ठन्] क्षणस्थायी, चिरकाल तक नहीं सर्वजनशर्मकारणं जीविका भुजभुवोऽसिधारकम्। निर्बलस्य रहने वाला। (जयो० वृ० ६/७५) बलिना विदारणमन्यथा सहजकं सुधारणम्।। (जयो० २/११२) क्षणिकनर्मन् (नपुं०) क्षणिक विनोद। क्षणिकनर्मणि निजयशोमणि 'क्षतात् त्रायन्ते ते क्षत्राः परिपरित्राणकरा क्षत्रिया' (वीरो० मसुलभं च जहातु। (सुद०८९) १/३९) 'परित्राणाय बाहुभ्यां सम्मदाद्रणपरैहिं निघृणैः क्षणिकवादः (पुं०) सौगत दर्शन का एक वाद, एक विचारधारा, प्रस्फुरिदिवगतसङ्गरव्रणैः। सुष्ठु-शौर्य रससंम्मितैस्तदा रेजिरे जिसमें वस्तु को प्रतिक्षण बदलने वाला माना जाता है। परिधृता उरश्छदाः। (जयो० ७/९४) 'क्षणिकं नाम सुगतमतं' (जयो० ५/४२) यतमानान्दृढ़ाशयान्। क्षत्रिया इति संज्ञात: निजगाद महाशयः।। क्षणिकत्व (वि०) क्षण चमत्कारित्व, 'दृष्टिरेव लभते क्षणिकत्वम्' (हित०सं०८) स्वीय-बाहुबलगर्विता भुजास्फोटनेन (जयो० ५/४२) परिवर्तिस्वजाः। सम्बभूवुरधियो: सदोजसो बद्धसन्नहनका क्षणिन् (वि०) [क्षण इनि] अवकाश रखने वाला। २. क्षणस्थायी। किलकैशः।। (जयो० ७/९१) क्षणोत्तरः (पुं०) क्षणानन्तर। (वीरो० ५/२) 'शस्त्रोपजीविनः क्षत्रिया:। (जयो० २/१११) क्षणोदभवः (पुं०) क्षण में उत्पन्न, काल युक्ता (जयो० क्षत्रिय-जीविका (स्त्री०) क्षत्रियों की आजीविका। 'क्षत्रियस्य २/७९) असिधारणं जीविकाऽस्ति।' (जयो० वृ०२/११२) क्षत (वि०) [क्षण क्त] १. घायल, क्षति ग्रस्त, पतित। २. | क्षत्रियता (वि०) क्षत्रियपना। चतुष्पदेषूत खगेष्वगेषु वदन्नहो चोट ग्रस्त, काटा गया। ३. व्रण (जयो० ६/९३) क्षत्रियान्धमेषु। विकल्पनामेव दधत्तदादिमसौ निराधार क्षतकासः (पुं०) खांसी, क्वास। वचोऽभिवादी।। (वीरो० १७/२७) क्षतजं (नपुं०) रुधिर, रक्त, पीप। (जयो० ८/९) क्षत्रिय-बुद्धिः (स्त्री०) क्षत्रिय बुद्धि वाले, महावीर, अन्तिम क्षतयोनिः (स्त्री०) कौमार्यच्युता तीर्थंकर। (वीरो० १४/४७) क्षप्त-विक्षत (वि.) घाव जन्य, क्षतिग्रस्त, चोट जन्य। क्षत्रियवर्णः (पुं०) क्षत्रिय वर्ण। क्षतवृत्तिः (स्त्री०) दरिद्रता, जीविका से रहित। 'धवलो यशसेत्यनेकवर्णः क्षत्रियवर्णे किलावतीर्णः' (समु० क्षतव्रत (वि०) व्रत व्युत, व्रत में अतिचार लगाने वाला। ६/४१) क्षतशून्य (वि०) प्रतिमा हानि। (जयो० ५/९३) क्षत्रियाणी (स्त्री०) [क्षत्रिय ङीष] क्षत्रिय जाति की स्त्री। क्षतान्वित (वि०) व्रण युक्त। (जयो० ६/९३) क्षत्रियी (स्त्री०) [क्षत्रिय ङीष्] क्षत्रियाणी, क्षत्रिय नारी। क्षतिः (स्त्री०) [क्षण, क्तिन्न घाव, चोट, बाधा, हानि, क्षत्रियेश्वर-वरः (पुं०) क्षत्रिय राजा। 'यः क्षत्रियेश्वर-वर ०हास, न्यूनता। क्षय 'सम्यक्त्वमाद्यक्षतितो विभाति'। परिधारणीयः। (वीरो० २२/२६) जैन धर्म प्रवर्तक तीर्थंकर (सम्य० १३२) क्षत्रिय थे। क्षत्रिय दूसरों की दुःख से रक्षा करते थे। ऐसा क्षत्तृ (पुं०) [क्षद् + तृच्] १. मूर्तिकार द्वारपाल, सारथि। २. क्षत्रिय धर्म व्यापारी वैश्यवर्ग के हाथों में आया। जैन धर्म दासी पुत्र। प्राणिमात्र का हितैषीधर्म है, इसे लोकधर्म या राजधर्म क्षत्रः (पुं०) [क्षण क्विप्] ०अग्रगण्य, अधिराज्य, शक्ति, होना चाहिए था, पर वह एक जाति या सम्प्रदाय वालों प्रभुता, सामर्थ्य। २. नक्षत्र-(जयो० वृ०५/२७) ३. क्षत्र-जो का धर्म माना जा रहा है, यह बड़े दु:ख को बात है। तीर्थंकर भगवान के ऊपर छाते के रूप में सुशोभित होते क्षत (वि०) प्रशान्त, सहिष्णु, विनम्र, विनीत, क्षमाशील। हैं। तीन क्षत्र युक्त सिंहासन। क्षप् (अक०) १. उपासना करना, २. संयमी होना, आराधना क्षत्रत्राणकः (पुं०) ढाल, रक्षा कवच! (जयो० २७/२७) करना। ३. (सक०) क्षय करना-'इत्येव मोहं क्षपयन्नशेष' क्षवत्राणकारः (पुं०) रक्षा कवच, छाल, छाता। (भक्ति० ३१) क्षत्रप (वि०) क्षत्रियों का शिरोमणि। (जयो० २२/३३) | क्षपक (वि०) चरित्र मोहनीय को क्षय करने वाले साधु। १. For Private and Personal Use Only Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir क्षपक श्रेणी ३२७ क्षमाभृत् तपस्वी 'मोहक्खयं कुणतो उत्तो खवओ जिणिंदेहि' (भाव क्षमता (स्त्री०) सामर्थ्य, ०शक्ति, ०बल, धैर्य, साहस, सं०६६०) चारित्रमोह-क्षपणकरिणः क्षपकाः। (धव० १/१८२) सहनशक्ति। (सम्य० ७०) 'क्षमता दातुमहो बलाय मे' क्षपकश्रेणी (स्त्री०) गुणस्थान की सीढी। मोहनीय कर्म का (जयो० १३/३०) 'कस्यास्ति क्षमता परस्य स पुनस्त्वां क्षय करता हुआ आत्मा जिस श्रेणी पर आरुढ़ होता है। पातयेदापदि।' (मुनि० २०)। 'क्षयमुपगमयन्नुद्गच्छति सा' (त० वा० ९/१८) क्षप्प (स्त्री०) [क्षम् अङ्कटाप्] शान्ति विनत, सहिष्णुता क्षपणं (नपुं०) १. कर्म का पृथक्भाव। नाश, विनाश, क्षय। धैर्य। (जयो०७/३५) (जयो० वृ०५/१११) 'क्षमा सहिष्णुता 'अट्ठह कम्माण मूलुत्तर-भेय-भिण्ण-पयडि-ट्ठिदि- यस्यां सा' (जयो० वृ० ११/८८) 'परिवृतः क्षमयाप्यपरिग्रहः' अणुभाग-पदेसाणं जीवादी जो णिस्सेस-विणासो तं खवणं (समु० ७/२९) 'राज्ञी क्षमा ब्रह्मगुणैकनावे' (सुद० १०३) णामा' (धव० १/२१५) 'मान-माया-मदामर्षक्ष-पणाक्ष- ०क्षमा गुण विशेष, धर्म विशेष, ०दश धर्मों में एक धर्म पणः स्मृतः' (उपासका०८५९) उत्तम क्षमा। दुष्ट लोगों के द्वारा कहे गये गाली गलौच, क्षपणकः (पुं०) [क्षपण+कन्] याति, साधु, श्रमण। (जयो० हंसी मजाक आदि निरादर के वचन तथा ताड़न, मारण, वृ० १/९७) शरीरच्छेदन सरीखी आपत्तियों के जाने पर भी मन में क्षपणकाधिपतिः (पुं०) यतिवर! 'यतिवरेण क्षपणकाधिपतिना' मैलापन न आने देना।' (तत्त्वार्थ सू०वृ०१४२, सू०९/६) (जयो० वृ० १/९७) क्षमा क्रोधनिग्रहः कालुष्यानुत्पत्तिः कालुष्याभाव, सहनभाव। क्षपणत्वधारी (वि०) दिगम्बरत्नधारी, श्रमणत्वधारण करने 'क्रोधोत्पत्ति-निमित्ताविषह्याक्रोशादि-संभवे कालुष्योपरमः वाला। 'समस्त-सत्त्वैकहितप्रकारि मनस्तयाऽन्ते क्षपणत्व- क्षमा' (त० वा० ९/६) २. पृथ्वी-'समु द्रेण तान्ता व्याप्ता धारी।' उपत्य वै तीर्थकरत्वनामाच्युतेन्द्र तामप्यगमं सुदामा।। कमधिकृत्य क्षमा पृथ्वी (जयो० वृ० ११/८८) ३. गुण (वीरो० ११/३६) विशेष-क्षमासन्तोषादयस्ते कीदृशा अचला निश्चला अपि' क्षपणी (स्त्री०) [क्षप्+ ल्युट्+ ङीप्] १. चम्पू, २. जाल। (जयो० वृ० १/९४) पञ्चम्या नभसः प्रकृत्य-भवतादूर्जस्विनी क्षपच्यु (स्त्री०) अपराध। या ह्यमा. तावद्घस्त्रशतावधौ निवसतादेकत्र लब्ध्वा क्षमा' क्षपंत (वर्त०कृ०) क्षय करने वाले। प्रत्यग्रहीत्सापि समात्मनीतं (मुनि० ७) __ चैनः। क्षपन्तं सुतरामदीनम्। (सुद० ११९) क्षमाक्षक (वि०) क्षमाधारक। 'क्षमायाः सहिष्णुताया अक्षः क्षपा (स्त्री०) [क्षप्+अच्+टाप्] रात्रि, रात, रजनी। 'यन्मीलितं शकट एव क आत्मा यस्य सः।' (जयो० वृ० १/१०८) सपदि कैरविणी भिराभिः क्षीणा क्षपास्तमितमय्यत तारकाभिः। क्षमाकर (वि०) क्षमा करने वाला। (जयो० १८/२१) क्षमागुणं (नपुं०) क्षमा की विशेषता। क्षपाकरः (पु.) चन्द्रमा, चंद्र, शशि। 'उदिते समु द्धतपदैः क्षमाधर (वि०) क्षमा धारक। 'गुरुमाप्य स वै क्षमाधरं सुदिशो क्षपाकरे प्रयये ततोऽनुपदिभिः स्फुरत्तरे। (जयो० १५/९५) ___मातुरथोदयन्नरम्' (सुद० ३/२०) क्षम् (सक०) १. क्षमा करना, शान्त करना, 'क्षन्तव्यं तदहो क्षमाधर्मन् (नपुं०) क्षमाधर्म, विनय धर्म। पुनीत भवता देयं च सूक्तामृतम्।' (सुद० १२४) क्षमापदं (नपुं०) क्षमामार्ग। 'क्षम्यतामिति विमुत्युपार्जितम्' (सुद० १००) २. आज्ञा | क्षमाप्रार्थना (स्त्री०) क्षमा याचना, क्षमा करना, क्षमा भावना। देना, ३. प्रतीक्षा करना। ४. सक्षम होना, सहन करना। _ 'क्षमाप्रार्थनां करोमि' (जयो० वृ० १७/६०) क्षम (वि०) [क्षम् अच्] १. समर्थ, सक्षम, योग्य, पर्याप्त। | क्षमाप्रार्थिन् (वि०) क्षमा याचक, विनत, नम्रशील। 'तस्यै 'किन्त्वद्यापि न वेत्सि तां विकलतां तान्नासि मोक्तुंक्षमः' विनतोऽस्मि क्षमाप्रार्थी भवामि।' (जयो० वृ० २६/३३) (मुनि० १९) निर्मातुं क्षमः समर्थः स्यात्। (जयो०९/२८) क्षमाभावः (पुं०) क्षमा परिणाम। क्षमणं (नपुं०) प्रायश्चित्त, अन्यकृत् अपराध क्षमा। 'चित्तेऽपराध- क्षमाभूः (स्त्री०) सहिष्णु स्वभाव। 'माभूत्क्षमाभूर्लभतेऽवलग्नं क्षमणादिवेदं' (भक्ति०९) 'क्षमणं स्वस्यान्यभूतापराधक्षमा' सैषा सुकाञ्चीगुणतो ह्यविघ्नम्। (जयो० ११/२४) (जैन०ल०२८२) 'खमणं स्वस्यान्यभूतापराधक्षमा' | क्षमाभृत् (वि०) क्षमाशीला 'क्षमाभृतो मुनेर्वत्क्रात् प्रतिध्वनिरियान (भ० आ०टी०७०) भूत्। (समु० ७/३४) For Private and Personal Use Only Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir क्षमायाचना ३२८ क्षालनं क्षमायाचना (स्त्री०) क्षमाप्रार्थना, क्षमा भावना, नम्रभावना। क्षमाशील (वि०) क्षमा युक्त, क्षमाधर, क्षमा भृत। (जयो० क्षमित (वि०) क्षमाशील, सहनशील, धैर्यवान्, क्षमा स्वभावी। क्षय (वि०) १. हानि, नाश, २. ह्रास, क्षीणता, न्यूनता, ३. अंत, समाप्ति, विनाश। (सम्य० ८२/) ४. आत्यन्तिकी निवृत्ति। 'क्षयो निवृत्तिरात्यन्तिकी' (त० वा० २/१) क्षयो नाम अभावो-'खओ णाम अभावो' (धव० ७/९०) 'कर्माणां आत्यन्तिकी हानिः क्षयः' (त०श्लो०२/१) 'अत्यन्तविश्लेषः क्षयः' (पंचास्किाय अमृत वृ०५६) क्षयः (पुं०) [क्षि+अच्] गृह, निवास, आवास। क्षयथु (स्त्री०) [क्षि+अथुच्] तपेदिक, खांसी। क्षयिन् (वि०) [क्षय+ इनि] क्षय होने वाला, ह्रास जन्य, विनाशक, हीनता। क्षयिष्णु (वि०) [क्षि+इष्णुच्] क्षय करने वाला, विनाशक। क्षयोपशम: (पुं०) अनन्तगुण हीनता, क्षय और उपशम का उदय। 'क्षयोपशम उद्गीतः क्षीणाक्षीणबलत्वत:' (त०श्लोक०२/३) क्षयोपश्मलब्धिः (स्त्री०) क्षयोपशम की प्राप्ति। आत्मा को अपने हित की ओर दृष्टिगत होना। विशुद्धि के कारण अनंतगुणे हीन होकर उदीरणा को प्राप्त होना। क्षयोपशान्तिः (स्त्री०) क्षयोपशम की उपलब्धि। आत्मा को अपने हित की ओर दृष्टिगत होना। 'एकास्ति लब्धि दुरितस्यतादृक् क्षयोपशान्तिर्यत प्राप्य तादृक्। (सम्य० ४२/ क्षर् (अक०) १. बहना, २. प्रवाहित होना, ३. खिसकना, सरकना, ४. निकलना, रिसना, टपकना, ५. घटना, मिटना। क्षर् (सक०) देना, प्रदान करना। 'सुष्ठु न क्षरति न दुग्धं ददातीति' (जयो० १७/५४) क्षर (वि०) [क्षर+अच्] निस्सृत होने वाला, निकलने वाला, पिघलने वाला। क्षरणं (नपुं०) [क्षर्+ल्युट्] बहना, टपकना, निकलना, रिसना, झरना। क्षरद (वि०) झरते हुए। 'क्षरद-क्षर-सौध-सत्त्वरा' (जयो० वृ० २६/४) क्षरन्निव्रजच्च तदक्षर-सौधस्त्वं' (जयो० वृ० २६/४) क्षर-सौधः (पुं०) स्वच्छतर चौक। 'सर्वतश्चत्वरस्य मङ्गल मण्डलस्य पूरणे त्वरा' (जयो० २६/४) क्षरिणी (स्त्री०) नदी, सरिता, बरसात। (जयो० १/३) क्षरिन् (पुं०) [क्षर्+इनि] टपकने का मौसम, बरसात का समय। क्षल् (सक०) धोना, साफ करना, पोंछना। क्षालयति वस्त्र। 'वक्त्रं तथा क्षालयितुं जलं च। (वीरो० ५/९) वारा वस्त्राणि लोकानां क्षालयामास या पुरा। ज्ञानेनाद्याऽऽत्म निश्चित्तमभूत् क्षालितुमुद्यता।' (सुद० ४/३६) क्षात्र (वि०) [क्षच्+ अण्] रक्षा से सम्बन्धित। क्षात्रं (नपुं०) क्षत्रिय कुल, क्षत्रियत्व भाव। क्षात्रकुलं (नपुं०) क्षत्रियकुल। सुताभुजः किञ्च नराशिनोऽपि न जन्म किं क्षात्रकुलेऽथ कोऽपि। भिल्लाङ्गजश्चेत् समभृत्कृतज्ञः गुरो ऋणीत्थं विचरेदपि ज्ञः।। (वीरो० १७/३१) क्षात्रयशः (पुं०) क्षत्रिय यश, क्षत्रियत्व प्रकाशक। वाराशिवंशस्थितिराविभाति भोः पाठका, क्षात्रयशोऽनुपाती। (वीरो० २/७) क्षान्त (भूक०कृ०) [क्षम्+क्त] सहिष्णु, धैर्यवान्, सहनशील शान्तप्रिय। क्षान्तिः (स्त्री०) [क्षम्+क्तिन्] क्षमा, कोधादिनिवृत्तिः क्षान्तिः' क्रोध निग्रह, शान्त भाव, धैर्य। 'दयेव धर्मस्य महानुभावा क्षान्तिस्तथाऽभूत्तपसः सदा ना। (वीरो० ३/१६) क्षान्ति-सहनशीलता रखना 'भूतव्रत्यनुकम्पा दान-सराग संयमादियोगः शान्तिः शौचमिति सवेद्यस्य' (त०सू०६/१२, वृ०८९) (सम्य०८४) क्षान्तु (वि०) [क्षम्+तुन] सहनशील, धैर्यवान्, सहिष्णु। क्षाम (वि०) [क्षक्त] १. क्षीण, हीन, निर्बल, कृश, २. दग्ध। ३. क्षुद्र, तुच्छ। क्षार (वि०) [क्षर्ण ] संक्षरणशील, तिक्त, कटु, खारयुक्त। क्षारः (पुं०) रस, अर्क, राव, शीरा। क्षारकः (पुं०) [क्षार+कन्] १. खार, रस, २. अर्क, ३. शीरा। (जयो० ६/१०१) ४. मंजरी, कलिका, ५. पराग, ६. राख। (जयो०६/१०१) क्षारणं (नपुं०) [क्षार+णिच्+ ल्युट्] दोषारोपण। क्षारिका (स्त्री०) [क्षर्+ण्वुल+टाप्] भूख, धुधा। क्षारित (वि०) रिसता हुआ, निकलता हुआ, प्रवाहित। शालनं ( न क्ष ल णिच ल्यट] प्रक्षालन धोना साफ करना, छिड़कना। 'चान्द्रीचयैः क्षालन-नामगूढे' (वीरो० २१/८) 'अम्भसा समु चितेन चांशुकक्षालनादि परिपठ्यतेऽनकम्। (जयो० २/८०) 'क्षालनेन वस्त्रस्य निर्मला भवति।' (जयो० १८/६६) For Private and Personal Use Only Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir क्षालयामास ३२९ क्षीण क्षालयामास धोने या पोंछने स्वच्छ किया। 'वारा वस्त्राणि क्षायोपशमिकः (पुं०) कर्मों के क्षय और उपशम से उत्पन्न। लोकानां क्षालयामास या पुरा। (सुद० ४/३६) 'स्वान्तं हि 'कर्मण्णां क्षयादुपशमाच्चोत्पन्नो गुणः क्षायोशमिक:' (धव० क्षालयामास' (समु० ९/१७) क्षालयितुं-प्रक्षालन करने के १/१६१) लिए। 'वक्त्रं तथा क्षालयितुं जलं च' (वीरो० ५/९) । क्षारतंत्रं (नपुं०) क्षारद्रव्य घावों को शुद्ध करने वाली पद्धति, क्षालित (वि०) [क्षक्+णि+क्त] स्वच्छ किया हुआ, प्रक्षालित, एक चिकित्सा पद्धति। प्रमार्जित। 'रणरेण्वा धूसरितं क्षालितमरिदारदृगजलौघेन। क्षिण (सक०) छीलना। 'काष्ठं यदादाय सदा क्षिणोति' (जयो० (जयो० ६/३८) क्षालितं धौतं (जयो० वृ० ६/३८) २६/९०) क्षायिक (वि०) कर्मों में अभाव से उत्पन्न होने वाला। क्षितिः (स्त्री०) पृथ्वी, घर, स्थान। (त०सू०२/१) 'क्षयः कर्मणोऽत्यन्तविनाशः। क्षितिभृत (वि०) पृथ्वी धारक, पृथ्वी पालक नृप। (जयो० क्षायिक-अनंत-उपभोगः (पुं०) कर्म के क्षय से विभूतियों ९/३४, ९/३५) की प्राप्ति। क्षिप् (सक०) १. फेंकना, छोड़ना, डालना, २. भेजना, ३. क्षायिक-अनन्तभोगः (पुं०) भोगान्तराय के विनाश होने पर दृष्टि डालना, देखना। आक्षिपत् (जयो० ७/३) क्षिपन् अनन्त भोग सामग्री की प्राप्ति। 'कृत्स्न-भोगान्तरायतिरो इतस्ततोऽवलोकयन्। ४. दत्तं सूतिकया शवं च कमपि भावात् परमप्रकृष्टो भोगः। (त० वा० २/४) क्षिप्त्वाऽऽगतेनाऽथवा। (मुनि० ११) ५. व्यतीत क्षायिक-उपभोगः (पुं०) उपभोगान्तराय के शान्त होने पर करना-क्षिपेत् कालं चार्तवमेत्य गेहिसदनं तत्र क्षिपेदार्यिका। __ यथेष्ट उपभोग के साधन उत्पन्न होना। (मुनि० २८) क्षायिकचारित्रं (नपुं०) चारित्र मोहनीय के क्षय से उत्पन्न होने क्षिपणं (नपुं०) [क्षिप्+क्यून्] झिड़कना, फेंकना। वाले चारित्र, यथाख्यातचारित्र। 'षोडश-कषाय- क्षिपणिः (स्त्री०) १. चम्पू। २. जाल। नव-नोकषायक्षयात् क्षायिकं चारित्रम्' (त०वृ०२/४) क्षिपण्युः (नपुं०) शरीर।। क्षायिकज्ञानं (नपुं०) ज्ञानावरण के क्षय से उत्पन्न होने वाला क्षिपा (स्त्री०) १. रात्रि, २. भेजना। ज्ञान केवलज्ञान। 'ज्ञानावरणक्षयात् क्षायिकज्ञानं केवलम्' | क्षिप्त (भू०क०कृ०) [क्षिप+क्त] फेंका हुआ, डाला हुआ। (तश्लोक २/४) 'क्षिप्तोऽपि पङ्के न रुचि जहाति' (सुद० १२०) 'क्षिप्ताऽसि क्षायिकदानं (नपुं०) दान देने में बाधा का अभाव। विक्षिप्त इवाधुना तु' (सुद० ३/४०) क्षायिकभावः (पुं०) कर्मस्कन्धों के विनाश से जो आत्मपरिणाम | क्षिप्त-कुक्करः (पुं०) पागल कुत्ता। होता है, वह भाव क्षायिकभाव है, 'क्षयः प्रयोजनं यस्य क्षिप्तचित्त (वि०) उदास मन, विक्षिप्त मन। भावस्य स क्षायिकः, क्षायिकस्य भावो क्षायिक भावः।। क्षिप्तदेह (वि.) आराम युक्त शरीर। क्षायिकलाभः (पुं०) निर्विघ्नता पूर्वक साधनों की प्राप्ति। क्षिप्यमान (शानच् प्रत्यय) फेंकता हुआ। वह्निः किं शान्तिमायाति क्षायिक-वीर्यः (पुं०) वीर्यान्तराय के क्षय से प्रादुर्भूत शक्ति। क्षिप्यमानेन दारुणा। (सुद० १२६) क्षायिक-सम्यक्त्वं (नपुं०) सात प्रकृतियों के अत्यन्त क्षय से | क्षिप्र (वि०) [क्षिप्र+रक्] आशुगामी। जो सम्यक्त्व प्रादुर्भूत होता है 'सत्त-पयडिक्खएणुप्पण्ण- | क्षिप्रं (अव्य०) शीघ्र, तुरन्त, जल्दी। सम्मत्तं (धव० १/१९२) शुद्धात्मादिपदार्थविषये विपरीता- क्षिप्रकारिन् (वि०) आशुकारी। भिनिवेश रहितः परिणामः क्षायिकसम्यक्त्वमिति भव्यते।' क्षिया (क्षि+अङ्ग+टाप) विनाश। (परमात्म प्र०६१) क्षीजनं (नपुं०) सरसराहट, एक ध्वनि विशेष, जो छिद्र युक्त क्षायिकसम्यग्दृष्टि: (स्त्री०) मिथ्यात्व का निराकरण 'निराकृत- | प्रदेशों से निकलती है। मिथ्यात्वः क्षायिकसम्यग्दृष्टिरित्याख्यायते' (त० वा० ९/४५) क्षीण (वि०) [क्षि+क्त] १. कृश, निर्बल, पतला। २. घटा क्षायिकी (स्त्री०) क्षय को उत्पन्न करने वाला। क्षयः प्रयोजनमस्या हुआ, कम हुआ, समाप्त। ३. सुकुमार, शक्तिहीन। इति क्षायिकी' (अनगारधर्मामृत २/११४) हलकी-'क्षीणे रागादिसन्ताने' (सम्य० ११५) क्षीण शब्द For Private and Personal Use Only Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir क्षीण-कषायः ३३० का अर्थ नष्ट हो जाना भी है। (सम्य० ११५) 'क्षीणा | क्षीरधात्री (स्त्री०) ०धाय, दाई मां, दूध पिलाने वाली। क्षीरं अभावनापन्नाः' (जैन०ल०३९२) धारयति दधाति या सा क्षीरधात्री-स्तनपायिनी-(मूला० वृ० अस्तमित-'क्षीणा क्षापास्तमितमप्युततारकाभिः।' (जयो० ६/२८) १८/२१) क्षीरधिः (पुं०) दुग्धसागर, अशक्त-'क्षीणं वीक्ष्य विजेतुम्भुपगतः स्फीतो नरत्वं प्रति' क्षीरनिधिः (पुं०) दुग्धसागर। सागर, नीरधि, ०समुद्र। (वीरो० २२/३३) क्षीरनीरं (नपुं०) प्रगाढ़ता, एकरूपता, गाढालिंगन। क्षीण-कषायः (पुं०) कषाय रहित, सभी प्रकार के मोह का क्षीरपः (पुं०) शिशु, बच्चा, दूध पीने वाला बच्चा। व्यदेश। (सम्य० १४९) 'क्षीणा कषाया तेषां ते क्षीणकषायाः। क्षीरभाति (वि०) दुग्ध से भरे हुए। 'वत्सेन क्षीरभरितस्तनताद्रव्यकर्माणां कषाय-वेदनीयानां विनाशात्तन्मूला अपि मुद्यानमालेव वसन्तेन प्रफुल्लभावं' (दयो० ५४) भावकषायाः प्रलयमुपगता इति क्षीणकषाया, इति भण्यन्ते' क्षीरवारिः (पुं०) दुग्ध समुद्र। (भ०आ०टी० २७) मोह का अत्यन्त क्षय-द्वादश क्षीरविकृतिः (स्त्री०) जमा हुआ दूध। गुणस्थानवर्ती-'उपशमश्रेणिविलक्षणेन क्षपक श्रेणिमार्गेण क्षीरवृक्षः (पुं०) [पुं०] बड़, गूलर, ऊमर, कठूमर, पाकर निष्कषाय-शुद्धात्म-भावना-बलेन क्षीणकषायाः मधूक वृक्षा द्वादश-गुणस्थानवर्तिनो भवन्तिा' (वृहद, द्रव्य०सं०७३) क्षीरशरः (पुं०) मलाई, दूध की मलाई। क्षीणता (वि०) कृशता, शक्तिहीन। 'परोपकारः परस्मायनुग्रह क्षीरसमुद्र (पुं०) क्षीर सागर। (जयो० १/८, ९) बुद्धिः सर्वं उत्तरोत्तरं क्षीणतामवाप्तः' (वीरो० १/३३) क्षीरसारः (पुं०) मक्खन। क्षीणधन (वि०) निर्धन, गरीब, धन रहित, रंक। क्षीरसवी (स्त्री०) एक ऋद्धि विशेष, जिस ऋद्धि के प्रभाव क्षीणपाप (वि०) पाप से विमुक्त। से आहार दुग्ध परिणत हो जाते हैं। अथवा जिसके प्रभाव क्षीणपुण्य (वि०) पुण्य का अभाव। से मुनि वचन सुनते ही मनुष्य या तिर्यंच के दु:ख शान्त क्षीणमोह (वि०) मोह क्षय को प्राप्त। पृथक्त्वाय वितर्कस्तु यः हो जाते हैं। सुखोत्पादक वचन। (जयो० व१०१९/८०) श्रेणावात्मरागयोः। क्षीणमोहपदे तस्मैएकत्वायाधुनात्मः।। 'णमो खीरसवीणं तु गण्डमालादिदारणम्। (जयो० १९७०) (सम्य० १४८) मोहस्य तु क्षये जाते क्षीणमोहं प्रचक्षते। क्षीणमोह नामक गुणस्थान-'स मोहं पातयामास समोऽहं क्षीरादः (पुं०) शिशु, दूध पीता बच्चा। जिनपैरिति। अनुभूतात्म-सार्मथ्योऽय्यनु भूतदयाश्रयः।। क्षीराब्धिः (पु०) दुग्धसागर, क्षीरनिधि, उदधि। आत्म-सामर्थ्य येन स मोह। (जयो० २८/१९) क्षीरानं (नपुं०) खीर, दूध एवं चावल से बना तरल पदार्थ। पातयामास क्षीणमोहनामक गुणस्थानं प्राप्तवानिति' (जयो० क्षीरान्नस्थाली (स्त्री०) खीर की थाली। 'तावतेकत्र स्थाने वृ० २८/१९) ___ क्षीरान्नस्थाली सम्पन्ना सती दृष्टिपथमायसा। (दयो० १७) क्षीबता (वि०) उन्मत्तता, पागलपन। (जयो० ७/१७) क्षीरिका (स्त्री०) [क्षीर+ठन्। टाप्] दूध से निर्मित पदार्थ। क्षीरः (पुं०) [घस्यते अद्यसे घस्+ईरन्] दूध, दुग्ध (जयो० क्षीरिन् (वि०) [क्षीर+ इनि] दूध देने वाली। ३/७) क्षीरोदपूरः (पुं०) क्षीर सागर का पूर। (सुद० १२/११) क्षीरं (नपुं०) दुग्ध, दूध। क्षीव (अक०) मतवाला होना, उन्मत्त होना। क्षीरजः (पुं०) चन्द्र, शशि। क्षीव (वि०) [क्षीव्+क्त] उत्तेजित, मदोन्मत्त। क्षीरजा (स्त्री०) लक्ष्मी। क्षु (सक०) क्षींकना, खांसना। (क्षौति) क्षीरनीरं (नपुं०) गुण-दोष। पानी और दूध। 'क्षीर-नीर क्षुज्जय (वि०) भूख जीतने वाला। शब्दाभ्यामत्र गुण-दोषौ गृह्येते।' (जयो० वृ० ३/७) क्षुण्ण (भू०क०कृ०) [क्षुद्+क्त] कूटा हुआ, कुचला हुआ। क्षीरतनयः (पुं०) चन्द्र। क्षुत् (नपुं०) [क्षुद+क्विप्] १. छींक। २. छुधा, ०क्षुधा, भूख। क्षीरतनया (स्त्री०) लक्ष्मी। (त०वा०९/९) क्षीरदुमः (पुं०) अश्वत्थवृक्ष। क्षुतं (नपुं०) [क्षु+ क्त] छींक। For Private and Personal Use Only Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir क्षुता ३३१ क्षेत्रं क्षुता (स्त्री०) [क्षुत+टाप्] छींक। क्षुद् (सक०) १. कुचलना, मसलना, रगड़ना, पीसना। २. उत्तेजित करना। क्षद् विजय (वि०) भूख जीतने वाला, क्षुधाजयी। क्षुद्र (वि०) [क्षुद्+रक्] १. तुच्छ, नीच, अधम, २. दुष्ट, ३.. कर, ४. कृपण, निर्धण, ५. संकीर्ण। (जयो० २४/८७) क्षुद्रकम्बुः (पुं०) छोटा शंख। क्षुद्रकुष्ठ (नपुं०) निम्न कोढ। क्षुदकण्टिका (स्त्री०) धुंघरु। क्षुद्रचंदनं (नपुं०) लाल चन्दन। क्षुदजन्तुः (पुं०) छोटा जीव, लघु प्राणि। क्षुद्रजन्मन्: (नपुं०) तुच्छ जन्म। (वीरो० १०/३४) क्षुददंसिका (स्त्री०) गो मक्षिका। क्षुद्रबुद्धिः (स्त्री०) निम्न मति, बुद्धिहीन। कम बुद्धि वाला। क्षुद्ररसः (पुं०) शहद। क्षुद्ररोगः (पुं०) सूक्ष्म रोग, छोटी बीमारी। क्षुद्रलु (वि०) सूक्ष्म, छोटा। क्षदशंखः (पुं०) घोंघा, सीपी, छोटा शंख जीव। क्षुध् (नपुं०) [क्षुध्+क्विप्] भूख, छुधा, ०क्षुधा। क्षुधा (स्त्री०) [क्षुध्+टाप्] क्षुध, भूख। 'असातावेदनीय तीव्र-मन्द-क्लेशकरी क्षुधा' (नि०प०साल्टी०६) क्षुधाजनित (वि०) क्षुधा पीड़ित, भूख से व्याकुल। क्षुधा पिपासित (वि०) भूखा प्यासा। क्षुधालु (वि०) भूखा।। क्षुधाशांत (वि०) भूख शांत वाला। क्षुधित (वि०) भूखा, बुभुक्षित। (जयो०६/१२१) क्षुपः (पु०) [क्षुप्+क] झाड़ी, छोटी जड़ों का वृक्ष। क्षुभ् (सक०) हिलाना, कंपित करना, क्षुब्ध करना, आंदोलित करना। क्षुभित (वि०) आंदोलित, क्षुब्ध हुआ। जगतां त्रितयस्य सम्पदा क्षुभितोऽभूत्प्रमदाम्बुधिस्तदा। क्षुब्ध (वि०) [क्षुभ्+क्त] आन्दोलित, अस्थिर, चंचल, कंपित, __चलायमान। क्षुमा [क्षु+मक्] अलसी, एक सन विशेष। क्षुर् (सक०) काटना, खुरचना, कतरना। क्षुरः (पुं०) [क्षुर्क ] क्षुरा, उस्तरा, कचापहारि। क्षुरेण कचापहारि शस्त्रेण (जयो० वृ० २७/४०) । क्षुरप्रमुदा (स्त्री०) एक प्रकार की आसन, कनिष्ठा अंगुली को अंगूठे से दबाकर शेष अंगुलियों के फैलाने पर क्षुरप्रमुद्रा होती है। 'कनिष्ठिकामगुष्ठेन संपीड्य शेषाङ गुली प्रसारयेदिति क्षुरप्रमुद्रा' (निर्वाणकाण्ड ५/वृ० ५१) क्षुरिका (स्त्री०) [क्ष+कन्+टाप्] छुरी, चाकू, उस्तरा। क्षुरिणी (स्त्री०) [क्षुर्-इनि+ ङीष्] नाई की पत्नी, नाइन। क्षुरिन् (पुं०) [क्षुर्+इनि] नाई, क्षौरकर्मी। क्षुरी (स्त्री०) [क्षुर्+ङीष्] छुरी, चाकू। क्षुल्ल (वि०) [क्षुदं लाति गृह्णाति क्षुद्+ला+क] छोटा, लघु, स्वल्प। क्षुल्लक (वि०) [क्षुल्ल+कन्] १. सूक्ष्म, लघु, छोटा, स्वल्प। २. निम्न, क्षुद्र, अधम, नीच। ३. दुष्ट, निर्धन। ४. जैन सिद्धान्त की दृष्टि में यह उत्कृष्ट श्रावक का एक रूप है। जो ग्यारह प्रतिमाधारी होता है, वह एक वस्त्र, एक लंगोटी, पीछी और कमण्डलु रखता है, वह कचोपहारी तथा एक बार भोजन करने वाला उत्कृष्ट श्रावक होता है। 'क्षुल्लक: कोमलाचारः शिखा सूत्राङ्कितो भवेत्। एकवस्त्रं सकौपीनं वस्त्र-पिच्छ-कमण्डलुम्।। (लाटी०सं०७/६) क्षुल्लिका (स्त्री०) उत्कृष्ट श्राविका, ग्यारह प्रतिमाधारी श्राविका। क्षुल्लिकात्व (वि०) क्षुल्लिका पद वाली। तत्रास्याः पुण्य योगेनाप्यार्यिकासंघसङ्गमात्। बभूव क्षुल्लिकात्वेन परिणामः सुखावहः।। (सुद० ४/२९) शाटकं चोत्तरीयं च वस्त्रयुग्ममुवाह सा। कमण्डलुं भुक्तिपात्रमित्येतद् द्वितयं पुनः।। (सुद० ४/३१) शाटीव समभूदेषा गुणानमाधिककारिणी। सदारम्भादनारम्भादघादप्यतिवर्तिनी।। (सुद० ४/३२) सत्यमेवोप युज्जाना सन्तोषामृधारिणी। (सुद० ४/३३) पर्वण्युपोषिता कालत्रये सामायिक श्रिता।। सौहार्दमङ्गिमात्रे तु किल्ष्टे कारुण्यमुत्सवम्। गुणिवर्गमुदीक्ष्याऽगान्माध्यस्थ्यं च विरोधिषु।। (सुद० ४/३५) क्षेत्रं (नपुं०) [क्षि+ष्टुन्] १. स्थान, स्थल (जयो० वृ० ३/९३) २. आवास, भूमि, ३. निवास, गृह, भू-भाग। ४. खेत, भूमि, धान्य क्षेत्र। (वीरो० वृ० २/१३) 'शस्यपूर्ण क्षेत्रं दर्शितवान्।' (दयो० ९६) ५. कार्यस्थान, कार्यशाला, श्रेष्ठस्थान। ६. शरीर (जयो० वृ० ५/१३) 'क्षेत्रं निवासो वर्तमानकालविषयः' (स०सि० १/८) क्षेत्रं सस्याधिकरणं' (त० वा० ७/२९) ७. अवगाह-'यत्रावगाहस्तत् क्षेत्रम्' (जैन० ल० ३९५) ८. जनपदवाची-विषयवाची। ९. आधारआधेय वाची-'क्षियत्सतैषीत् क्षेष्यत्यस्मिन् द्रव्यागमो भावागमो वेति त्रिविधमपि शरीरं क्षेत्रम्, आधारे आधेयोपचाराद्वा' (धव० ४/६) १०. आकाश-खेत्त खलु आगास। ११. षड्द्रव्यस्थान ‘षड्द्रव्याणि क्षियन्ति निवसन्ति यस्मिन् तत्क्षेत्रम्।' (धव० ९/२२१) १२. त्रिभुवनस्थिति (महा० १/१२३) त्रैलोक्यविन्यास-महापु० २/२९) For Private and Personal Use Only Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir क्षेत्रकरः ३३२ क्षेत्रस्तवः क्षेत्रकरः (पुं०) कृषक, किसान, खेतिहर। क्षेत्रप्रमाणं (नपुं०) अंगुलादि का अवगाहन। 'अंगुलादि ओगा-- क्षेत्र-कायोत्सर्गः (पुं०) कायोत्सर्ग सेवित क्षेत्र, दोषों से रहित । हणाओ खेत्तपमाणं प्रमीयन्ते अवगाह्यन्ते अनेन शेषद्रव्याणि क्षेत्र। इति अस्य प्रमाणत्वसिद्धः' (जय० ध० १/३९) क्षेत्रकारक (वि०) क्षेत्र विशेष में करने वाला। क्षेत्रफलं (नपुं०) गुणन फल, लम्बाई-चौड़ाई का प्रमाण। क्षेत्रकृत (वि०) क्षेत्र में करने योग्य, क्षेत्र में की जाने वाली। विवक्षित क्षेत्र की परिधि को उसके विस्तार के चतुर्थ भाग क्षेत्रगणितं (नपुं०) रेखागणित, ज्यामिति। से गुणित करने पर जे प्रमाण आता है, वह क्षेत्रफल क्षेत्रगत (वि०) क्षेत्र में जाने वाला। कहलाता है। 'वासो तिगुणो परिही वास-चउत्थाहदो दु क्षेत्रचतुर्विंशति (स्त्री०) भरतादि चौबीस क्षेत्र। खेत्तफलं। (त्रिलोकसार १७) क्षेत्रचरणं (नपुं०) क्षेत्र का आचरण। क्षेत्रभक्तिः (स्त्री०) क्षेत्र का विभाजन, खेत का सीमांकन। क्षेत्रचारः (पुं०) क्षेत्र गमन। 'क्षेत्रे चारः क्रियते यावद्वा क्षेत्रं । क्षेत्रभूमिः (स्त्री०) धान्य उपज की भूमि, योग्य भूमि, उर्वर चर्यते स क्षेत्राचारः। (जैन०ल० ३९६) भूमि। क्षेत्रजात (वि०) क्षेत्र में उत्पन्न। क्षेत्रमङ्गलं (नपुं०) उत्तमोत्तम गुणों का स्थान, केवलज्ञान, क्षेत्रज्ञ (वि०) क्षेत्र स्वरूप को जानने वाला, आत्म स्वरूप का निर्वाणस्थान। ज्ञाता। क्षेत्रं स्वरूपं जानातीति क्षेत्रज्ञः।' (धव० १/१२०) क्षेत्रमासः (पुं०) क्षेत्र की प्रधानता वाला मास। क्षेत्रज्ञानं (नपुं०) विवेक, प्रदेश/स्थान ज्ञान। क्षेत्ररक्षा (स्त्री०) खेत की रक्षा। (वीरो० २/१३) क्षेत्रत (वि०) प्रदेशों में अवगाहित। क्षेत्रलोकः (पुं०) अनन्त प्रदेश का स्थान। उर्ध्व, अध् और क्षेत्रधर्म (नपुं०) आकाश रूप क्षेत्र का आत्म स्वभाव। तिर्यक् लोक का स्थान। क्षेत्रपतिः (पुं०) भू स्वामी, भूमिधर। (दयो० ४७) क्षेत्रवर्गणा (स्त्री०) क्षेत्र के विकल्प। क्षेत्रपदं (नपुं०) पवित्र स्थान, उचित पद, उत्तम मार्ग। क्षेत्रविद् (वि०) खेत का विशेषज्ञ, कृषक, किसान। १. क्षेत्र क्षेत्रपरावर्तः (पुं०) क्षेत्र परावर्तन, क्षेत्र परिवर्तन। मर्मज्ञ, विशेषज्ञ। क्षेत्रपरार्वनं (नपुं०) क्षेत्र परावर्त, समस्त लोक को अपना क्षेत्र क्षेत्रविमोक्षः (पुं०) विमोक्ष युक्त स्थान। जिस क्षेत्र में मुक्ति कर लेना। को प्राप्त किया गया। क्षेत्रपल्योपमं (नपुं०) काल विशेष। क्षेत्रवृद्धिः (स्त्री०) सीमातिक्रमण, अधिक क्षेत्र को स्थान क्षेत्रपाल: (पुं०) देवों की एक जाति प्रबन्धकर्ता। बनाना। 'अभिगृहीताया दिशो लोभावेशादाधिक्याभिसम्बन्धः क्षेत्रपुरुषः (पुं०) क्षेत्र का आश्रय लेने वाला व्यक्ति। । क्षेत्रवृद्धिः। (तत्त्वार्थ श्लोकवार्तिक ७/३०) क्षेत्रपूजा (स्त्री०) पूजनीय स्थान, तीर्थंकर जन्म, दीक्षा, कैवल्यादि | क्षेत्रव्यतिरेकः (पुं०) व्याप्त क्षेत्र में स्थित नहीं होना। अन्य का स्थान/पवित्र स्थान की पूजा। क्षेत्र में स्थित होना। क्षेत्रप्रतिक्रमणं (नपुं०) जीव परिहार युक्त प्रदेश में प्रतिक्रमण। क्षेत्रशुद्धिः (स्त्री०) क्षेत्र की शुद्धता। 'क्षेत्राश्रितातीचारान्निवर्तनं क्षेत्रप्रतिक्रमणम्' (मूला०वृ० क्षेत्रसमवायः (पुं०) क्षेत्र की समानता। जंबूद्वीप, सर्वार्थसिद्धि, ७७/११५) अप्रतिष्ठान नरक और नन्दीश्वरद्वीपस्थ प्रत्येक वापी का क्षेत्रप्रतिसेवना (स्त्री०) निषिद्ध क्षेत्र में गमन। 'द्रोण्यादिगमनं समान रूप से एक लाख योजन प्रमाण। 'सरिसाणि एसो क्षेत्रप्रतिसेवना' (भ० आ० ४५०) खेत्तसमवाओ' (जयो० ध०१/१२४) क्षेत्रप्रतिसेवा (स्त्री०) निषिद्ध क्षेत्र में गमन। | क्षेत्रसमाधिः (स्त्री०) क्षेत्र प्राधान्य में समाधि। 'अननुज्ञातगृहभूमिगमनम्।' (भ०आ० ४५०) क्षेत्रसंयोगः (पुं०) प्रसिद्ध क्षेत्रों का संयोग। क्षेत्रप्रत्याख्यानं (नपुं०) अयोग्य या अनिष्ट क्षेत्र का त्याग। क्षेत्रसंसारः (पुं०) जीव और पुद्गलों का परिभ्रमण स्थान। 'अयोग्यानि वानिष्ट प्रयोजनानि संयमहानि संक्लेशं वा क्षेत्रसामायिकं (नपुं०) अपने स्थान पर राग-द्वेषादि न करना, संपादयन्ति क्षेत्राणि तानि त्यक्ष्यामि इति क्षेत्रप्रत्याख्यानम् क्षेत्र पर समभाव रखना। (भ०आ०टी०११६) क्षेत्रस्तवः (पुं०) तीर्थंकरों के जन्म, निर्वाण आदि के स्थान For Private and Personal Use Only Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra क्षेत्रातिक्रमः www.kobatirth.org का स्तवन । 'कैलाशसम्मेदोर्जजन्त पावा- चम्पा नगरादिनिर्वाण क्षेत्राणां समवसृतिक्षेत्राणां च स्तवनं क्षेत्रस्तवनः । (मूला०वृ० ७०४१) क्षेत्रातिक्रमः (पुं०) क्षेत्र का अतिक्रमण । व्रती को लगने वाला दोष, जो व्रती क्षेत्र का अतिक्रमण करता है, वह क्षेत्रातिक्रम अतिचार जन्य होता है। क्षेत्राधिपतिः (पं०) क्षेत्रपति (दयो० ९७) - क्षेत्राधिदेवता ( पुं०) क्षेत्रपाल । क्षेत्रानुगामी (वि०) क्षेत्र में अनुगमन करने वाला। अवधिज्ञान अपनी उत्पत्ति के क्षेत्र से अन्य क्षेत्र में स्वामी के जाने पर उसके साथ रहता है, नष्ट नहीं होता है। 'स्योत्पन्नक्षेत्रादन्यस्मिन् क्षेत्रे हिरतं जीवमनुगच्छति। (गो० जी०३७२) क्षेत्राननुगामी (वि०) अपने क्षेत्र से अन्य क्षेत्र में स्वामी के साथ नहीं जाना, किन्तु वहीं पर नष्ट हो जाना। 'यत्क्षेत्रान्तरं न मच्च्छति स्वोत्पन्न क्षेत्रे एव विनश्यति भवान्तरं गच्छतु मा वा तत्क्षेत्राननुगामि' (गो०जी० ३७२ ) क्षेत्रानुपूर्वी (स्त्री०) परिचित क्षेत्र की अवगाहना। क्षेत्रानुयोगः (पुं०) क्षेत्र विवरण, स्थान की व्याख्या । क्षेत्राभिग्रह: (पुं०) क्षेत्र नियम क्षेत्र परिधि क्षेत्रार्यः (पुं०) काशी, कौशल आदि देशों में उत्पन्न । 'क्षेत्रार्याः काशी - कौशलादिषु जाताः (त०वा० ३/३६) जो पन्द्रहकर्म भूमियों तथा भरतक्षेत्र के वर्तमान साढ़े पच्चीस देशों में उत्पन्न या क्षेत्रगत चक्रवार्तियों की उत्पत्ति स्थान । क्षेत्रावग्रह: (पुं०) क्षेत्र आधिपत्य, प्रदेश पर विचार | क्षेत्राहार : ( पुं०) क्षेत्र में आहार का उपभोग । क्षेत्रिक (वि०) खेत से सम्बंध रखने वाला। क्षेत्रिक: (पुं०) कृषक, किसान, खेतहर क्षेत्रोज्झित (पुं०) क्षेत्र की वस्तुओं का परित्याग । क्षेत्रोत्तर (५०) उत्तरदिशादिगत क्षेत्र क्षेत्रोत्सर्गः (पं०) क्षेत्र में उत्सर्ग, क्षेत्र का त्याग। क्षेत्रोपक्रमः (पुं०) क्षेत्र/ खेत बनाने का क्रम, खेत का परिष्कार। क्षेत्रोपसम्पत् (पुं०) क्षेत्रोचित नियम की वृद्धि। 'यस्मिन् क्षेत्रे संयम तपोगुणशीलानि यमनियमादयश्च वर्द्धन्ते तस्मिन् वासो यः सा क्षेत्रोपसम्पत्।' (मूला०वृ० ४/१४१) क्षेप (पुं० ) [ क्षिप् घञ्] डालना, पहनाना 'चिक्षेप कण्ठे मृदु पुष्पहारम् ।' (वीरो० ९५/१४) रजांसि चिक्षेप निधाय पङ्के' (जयो० १/५३) २. समय बिताना, व्यतीत होना, कालक्षेप | 'सानन्दमेष प्रकार कालक्षेपं लयाऽऽमा खलु ३३३ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir क्षेमविधिः भूमिपाल: । (समु०२ / २९) ३. अपमान, आक्षेप, दुर्वचन, दोष । ४. अहंकार, घृणा अनादर । क्षेपक (वि० ) [ क्षिप् + ण्वुल् ] डालने वाला, भेजने वाला, घुमाने वाला । क्षेपणं (नपुं० ) [ क्षिप् + ल्युट् ] ०फेंकना, ०पहनाना, ०डालाना, ० बिताना। क्षेपणकर्ती (वि०) क्षेपणी, डालने वाला (जयो० ० ३/८९ ) क्षेपणि: (स्त्री०) चम्पू, नाव खेने की पतवार । क्षेपणी देखो ऊपर क्षेपणी (वि०) बरसाने वाली, डालने वाली । 'स्रजं मालां क्षिपतीति क्षेपणी क्षेपणकर्ती (जयो० वृ० ३/८९) क्षेपणीय (वि०) अर्पणीय, समर्पणीय, डालने योग्य, पहनाने योग्य। 'कण्ठभागेऽर्पणीयं क्षेपणीयम्' (जयो० वृ० ४/३२) क्षेपात्मक (वि०) आरोहणात्मक, पहनाने योग्य। 'सदस्यदः शीलित मेव माला क्षेपात्मकं ज्ञातवतीव वाला (जयो० १७ /१२) क्षेम (वि०) १. कुशल, २. प्रसन्न, सुखी, ३. उदार, हर्ष युक्त, ४. शुभ (जयो० ३ / २६) ५. विधिपूर्वक रक्षण करना । ६. शान्ति ७ रक्षा सुरक्षा (वीरो० १८ / १५) 'क्षेमं च लब्ध- पालन- लक्षणम्' (जैन०ल० ४०३) क्षेम: (पुं०) शान्ति, आराम, कल्याण । क्षेमंकर (वि०) शान्ति स्वभाव वाला, रक्षक प्रवृत्ति वाला। मंगलकारक, उपकारक । क्षेमंकर (पुं०) क्षेमंकर नाम विशेष क्षेमकथा ( स्त्री०) शान्तिकथा कुशल समाचार 'कोकोक्तिभिः कृतक्षेमकथा' (जयो० १४/४८) क्षेमस्य कथा क्षेमकथा | (जयो० वृ० १४/४८) क्षेमकर्मी (वि०) मंगलकारी, इष्टकारक | For Private and Personal Use Only क्षेम-क्षेम (वि०) बाह्यलिंग युक्त साधु का मार्ग। * लज्जाजनक क्षेमपूर्ण: (पुं०) शान्तिपूर्ण क्षेमपूर्णता (वि०) कुशलता 'कुशलता क्षेमपूर्णतास्ति।' (जयो० ३/३४) क्षेमपृच्छा (स्त्री०) कुशलता की जिज्ञासा । 'अथो पथापाततया तथापि न क्षेत्रपृच्छाऽनुचितास्तुतापि । (जयो० ३ / २६ ) 'क्षेमस्य कुशलस्य नवेति जिज्ञासा' (जयो० वृ० ३/२६) क्षेमप्रश्नं (नपुं०) कुशल क्षेम पूछना। क्षेमप्रश्नानन्तरं ब्रूहि कार्यामित्यादिष्टः प्रोक्तवान् सागरार्यः । ' (सुद० ३/४५) क्षेमविधिः (स्त्री०) सुरक्षा विधि योगास्य च क्षेमविधेः प्रमाता विचारमात्रात्समभूद्विधाता। (वीरो० १८/१५) Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir क्षेमहेतः ३३४ खगता क्षेमहेतुः (स्त्री०) शान्ति हेतु। भलाई के लिए। वक्तुः श्रोतुः क्षौद्रलेशः (पुं०) १. क्षुद्रभावांश मधुविन्दु। (जयो० ३/१३) ___हेमहेतवे सम्भूयात् पठितो जवंजवे। (समु० ९/३१) क्षौदातिग (वि०) शहदरहित, मधु रहित। (मुनि० ) क्षेमिका (स्त्री०) हल्दी। क्षौदेयं (नपुं०) [क्षौद्र ढञ्] मोम। क्षेमिन् (वि०) [क्षेम इनि] सुरक्षित, प्रसन्न, आनंदित। क्षौमः (पुं०) [क्षु+मन्+अण] रेशमी वस्त्र, ऊनी वस्त्र। क्षै (अक०) क्षीण होना, नष्ट होना, कृश होना, हीन होना, क्षौम्म् (वि०) हजामत। ह्रास होना। क्षौरिकः (पुं०) [और ठन्] नाई। क्षण्यं (नपुं०) [क्षीण+ष्यञ्] १. विनाश। २. सुकुमारना। क्ष्णु (सक०) पैना कन्ना, तेज करना। क्षैत्र (नपुं०) [क्षेत्र+अण्] खेत, खेतों का समूह। क्ष्मा (स्त्री०) पृथ्वी, भूमि। क्षैरेय (वि०) [क्षीर+ढञ्] दुग्ध सदृश, दूधिया, दूध से निर्मित, क्ष्माजः (पुं०) मंगलग्रह। धवलता युक्त। क्ष्मापः (पुं०) नृपति, राजा। क्षोडः (पुं०) [क्षोड्+घञ्] हस्ति बंधन वाला स्तम्भ। मापतिः (पुं०) नृपति। क्षोण (पुं०) स्थान, भू-भाग। हलन-चलन युक्त स्थान। क्ष्मालीकः (पुं०) भूमि सम्बंधी आसत्य। क्षोणिः (स्त्री०) [ डीनि] पृथ्वी, भूमि। २. गणितीय अंक। । क्ष्माय् (सक०) हिलाना, कांपना। क्षोणी देखो क्षोणिः। क्ष्माकलयं (नपुं०) भूमण्डल। (जयो० ६/१०५) क्षोत्तृ (पुं०) [क्षुद्+तृच्] मूसली, सिल बट्टा। क्ष्विड् (अक०) गीला होना। क्षोदः (पुं०) [क्षुद्+वञ्] पीसना, चूर्ण करना। २. धूल, कण, । क्ष्वेङः (पुं०) शब्द। सिंह गर्जना सूक्ष्मकण। (जयो० वृ० ४/६७) क्षोदकर (वि०) विप्लवल, अर्जन करने वाले, निकालने वाले। (जयो० वृ० ४/६७) क्षोदनं (नपु०) कूर्चन, खुरचना, खोदना। (जयो० वृ० २/१५६) खः (पुं०) कवर्ग का द्वितीय व्यञ्जन, इसका उच्चारण स्थान क्षोदित (वि०) क्षुण्ण, खोदने वाला, खोदी गई। 'आजिषु | कण्ठ है। तत्करवालेहर्य-क्षुर-क्षोदितास्तु संपतितम्। (जयो० ६/८०) खं (पुं०) १. आकाश, २. खाली स्थन, गगन (जया०८/४) क्षोभः (पुं० [शुभ+घञ्] क्षुब्ध, उत्तेजना, संवेग, विनाशक ३. छिद्र, बिल, ४. शून्य, बिन्दु, ५. स्वर्ग ६. अभ्रक, ७. वृत्ति। 'केन वा प्रलयजेन सिन्धुवत् क्षोभमाप। (जयो० ब्रह्मा। 'खं न भवतीति नखमाहुर्जगुः। नभस्तु पुन शून्यतया ७/७४) २. डोलना, हिलना। निष्प्रभतया च खमिति ख्यातिमाख्यां श्रीपूज्यपादतो क्षोभणं (नपुं०) क्षुब्ध करना, व्याकुल करना, संवेग उत्पन्न मुनिनयकाल्लेभे' (जयो० वृ० ३/४५) करना। खकारः (पुं०) ख वर्ण। (जयो० ११/७१) क्षोभणः (पुं०) कामदेव का एक बाण। खक्खट (वि०) कठोर, ठोस। क्षोमः (पुं०) [क्षु+मन्] ऊपर का कमरा, छत के ऊपर का खगङ्गा (स्त्री०) आकाश गंगा। कमरा। खगः (पुं०) पक्षी। क्षौत्रः (पुं०) छुरा, छुरिका। गखकन्या (स्त्री०) विद्याधर कन्या। (समु० २/७) क्षौणिः (स्त्री०) पृथ्वी, भू, धरा, अवनि। खगकेतु (पुं०) गरुड़। क्षौणिप्राचीरः (पुं०) समुद्र, सागर, उदधि, रत्नाकर। खगखानः (पुं०) वृक्ष कोटर। क्षौणिभुज् (पुं०) नृप, राजा। खगचर: (पुं०) विद्याधर। क्षौणिभृत् (पुं०) पर्वत, पहाड़। खगगणः (पुं०) पक्षी समूह (सुद० ५/२) क्षौद्रः (पुं०) [क्षुद्र+अण्] चम्पक वृक्ष। खगगतिः (स्त्री०) पक्षी का गमन। क्षौदं (नपुं०) क्षुद्रता, ओछापन। १. शहद। (जयो० ३/१३) खगति (स्त्री०) हवा की गति। क्षौदकः (पुं०) मधु, शहद। खगता (वि०) आकाशगामिता। (जयो० २२/४०) For Private and Personal Use Only Page #345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir खगपति ३३५ खट्टा खगपति (पुं०) १. सूर्य, २. गरुड़। खचित (वि०) [खच्+क्त] चित्रित, लिखित, जटित, भरा खगमः (पुं०) पक्षी। हुआ, मिश्रित, संयुक्त, परिपूरित। (जयो० १२/१३०) खगवती (स्त्री०) पृथ्वी, भूमि। (जयो० ६/८१) लावण्य खचित देहो (जयो० ६/८१) खगसत्त्वं (नपुं०) उत्तम ग्रह, उत्तम राशि। लावण्येन-सौन्दर्येण खचितः परिपूर्णो देहो यस्य सः' खगसानुमति (पुं०) विद्याधर पर्वत। (जयो० २३/५१) खच्चरः (पुं०) गधे या घोड़े के संयोग से उत्पन्न पशु। खगाग्रणी (स्त्री०) विद्याधर प्रमुख, खगानां विद्यावतां (जयो० खज् (सक०) मंथन करना, मथना, बिलोना, आंदोलित करना। ७/८९) खजः (पुं०) मथानी, बिलौनी। खगाधियः (पु०) गरुड़। खजकः मथानी, बिलौनी। खगावली (स्त्री०) बाण पंक्ति (जयो०८/३३) 'खगानां खजपं (नपुं०) [खज्+कपन्] घृत, घी। बाणानामावली' खजलः (पुं०) १. तुषार, पाला, ओसकण। २. मेघजल। खगासनः (पुं०) विष्णु। खजाकः (पुं०) [खज+आक] पक्षी। खगुण (वि०) गुण हीन। खजालिका (स्त्री०) [खज्+अ+टाप] खजा, खजाज डी खगेन्द्रः (पुं०) विद्याधर। (जयो० वृ० २३/७९) कन्+टाप्] कड़छी, चम्मच। खगेश्वरः (पुं०) विद्याधर। (समु०६/२५) 'नाम्नाऽतिवेगस्य खजित (वि०) बिलोचित, मथित। खगेश्वरस्य। खंज (अक०) लंगड़ाना, रुक रुककर चलना। खगोलः (पुं०) आकाशमण्डल। (जयो० ८/२२) खंज (वि०) [खञ्ज+अच्] विकलांग, लंगड़ा। खगोलविद्या (स्त्री०) आकाश मण्डल के गृह-नक्षत्रादि का | खंजक (वि०) लंगड़ाने वाला। ज्ञान, ज्योतिष विद्या। खंजकारि (वि०) लंगड़ाने वाला। खग्रासः (पुं०) पूर्ण सूर्यग्रहण या चन्द्रग्रहण। खञ्जनः (पुं०) [खच्+ ल्युट] चकोर पक्षी, शरद और शीतकाल खङ्गः (पुं०) तलवार, असि। (वीरो० १/३५, १/७) में दिखाई देने वाला पक्षी। (सुद० ११५) श्री जिनेन्द्रो खङ्गधारण (वि०) तलवार धारण करने वाला। (जयो० १/७) रूपाश्रयतु सखञ्जनम्। (मुनि० ३४) 'सुखञ्जनः संलभते खङ्गप्रहारः (पुं०) असि प्रहार। (वीरो० १/३५) प्रणश्यत्तमः' (वीरो० १/३) खङ्गमुद्रा (स्त्री०) असिमुद्रा। दाहिने हस्त की मुट्ठिबांधकर | खञ्जनरतिः (स्त्री०) गुप्त रति क्रिया। तर्जनी अंगुली के फैलाने की मुद्रा। 'दक्षिणकरेण मुष्टिं खञ्जनासनं (नपुं०) एक गुप्त आसन। बद्धवा तर्जनी मध्ये प्रसारयेदिति खङ्गमुद्रा। (निर्वाण काण्ड खञ्जनिका (स्त्री०) चकोर के सदृश पक्षी चकोरी, खजनपक्षी। ३१) (जयो० ११/२) खङ्गिन (पुं०) गेंडा, प्रसिद्ध वन्यप्राणी। (जयो० २१/२४) खंजरीटः (पुं०) [ख+ऋ+कीटन] चकोर पक्षी। खङ्गिन् (वि०) कृपाणधारी। (जयो० वृ० २१/२४) खञ्जलेखः (पुं०) [खन्+लिख+घञ्] खंजन पक्षी, चकोर। खङ्करः (पुं०) [ख कृ+खच्] अलक, बालों की लट। खटः (पुं०) [खट्+अच्] १. कफ, २. हल, ३. कुल्हाड़ी। खच (अक०) आगे आना, प्रकट होना, पुनर्जन्म होना। खटकः (पुं०) [खट्+ कन्] अर्द्धमुंद हस्त। खच् (सक०) १. बांधना, जकड़ना, जड़ना। २. मिलाना, पूर्ण खटिका (स्त्री०) [खट्+अच्+कन्+टाप्] खड़िया। १. क्षीणा, होना, भरना। (जयो० ६/८१) कठिनी। (जयो० ६/१०५) खचनं (नपुं०) अंकित करना। खटिकारेखा (स्त्री०) क्षीण रेखा। (जयो० ६/१०५) खचमस् (पुं०) चन्द्र, शशि। खटक्किका (स्त्री०) खिड़की। खचरः (पुं०) १. सूर्य, रवि, चन्द्र। २. ग्रह नक्षत्र, मेध। ३. खटिनी (स्त्री०) [खट्+ इनि+ङीप्] खड़िया। राक्षस। खट्टन (वि०) [खट्ट+ल्युट्] ठिंगना, कद में छोटा। खचरा (वि०) दुष्ट, दुर्जन। खट्टनः (पुं०) ठिंगना व्यक्ति। खचारी (वि०) आकाशगामी। खट्टा (स्त्री०) [खट्ट अच्+टाप्] खाट। (दयो० ८९) For Private and Personal Use Only Page #346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir खट्टा ३३६ खनिः खट्टा देखो ऊपर। खण्डशर्करा (स्त्री०) मिसरी। खट्वापदं (नपुं०) खाट के पास। (समु० ४/३८) खण्डाभेदः (पुं०) खण्ड खण्ड हो जाने वाली वस्तु। रांगा, खट्टिः (स्त्री०) [खट्ट+इन्] अर्थी। शीशा, दर्पण आदि। खट्टिकः (पुं०) खटीक, कसाई। (दयो० ५७) (वीरो० खण्डित (भू०क०कृ०) [खण्ड+क्त] विनष्ट, परित्यक्त, विध्वंस १६/१६) (मुनि०१०) वैद्योभवेद्भुक्तिरुधेव धन्यः सम्पोषयन् जन्य, विखण्डित। (सुद० १०३) खट्टिकको जघन्यः। (वीरो० १६/१६) खण्डिता (स्त्री०) खण्डिता नायिका, जिसका पति अपनी खट्टिककः देखो ऊपर। __ पत्नी के प्रति अविश्वासी हो। खण्ड् (सक०) तोड़ना, काटना, टुकड़े करना, कुचलना, नष्ट खण्डिनी (स्त्री०) [खण्ड् इनि डीप्] पृथ्वी, भू, भूमि, धरा। करना, खण्डित करना, भग्न करना। २. छोड़ना, त्यागना। खण्डोत्तमः (स्त्री०) उत्तमखण्ड, आर्य खण्ड। (सुद० १/१४) 'न खण्ड्यते सुखं यस्य सोऽखण्ड सुखस्सन्।' (जयो० खतमाला (स्त्री०) धूम, धूमानां तमोसि। (जयो० १२/६८) २५/५३) खदिकाः (स्त्री०) १. खील, लाजा, २. चांवल से बनने वाले खण्डः (पु०) [खण्ड्+घञ्] खाई, कटाव, भंग। २. टुकड़ा, लाजा। ३. सिका हुआ धान्य, जो फूल का रूप ले लेता डली, अंश। 'न जंगमायाति सुवर्णखण्ड:' पंके पतित्वापि च लोहदण्डः । (सम्य०६१) ३. अध्याय, अनुभाग, सर्ग। खदिरः (पुं०) [खद्+किरच्] खैर का पेड़। खैर, कत्था। ४. शर्करा खण्ड, घटादि के टुकड़े। 'खण्डो घटादीनां (सुद० १२८) १. इन्द्र का गुण, २. चंद्र। कपालशर्करादि:' (स०सि०५/२४) खदिरपत्री (स्त्री०) लाजवंती का बेल। खण्डं (नपुं०) ईख पोर, चीनी, शर्कर, खाण्ड। (जयो० | खदिरसारः (पुं०) खैर, कत्था, जो पान में लगाया जाता है, ३/२२) खण्डभिक्षुविकार। यह चूने की संगति से लालिमा धारण कर लेता है। खण्डकः (पुं०) टुकड़ा, अंश। 'खदिरस्य नाम वृक्षविशेषस्य सार इव सारो यस्मिन् स खण्डकुटः (पुं०) खण्ड रूप में धारण। खदिरसारस्सुदृढावयवीत्यर्थः'। (जयो० वृ०२२/९४) खण्डकथा (स्त्री०) लघु कथा। खद्योतः (पुं०) जुगनू, (वीरो० ४/२६) एक कीट जो वर्षा के खण्डकाव्यं (नपुं०) लघु काव्य, जिसमें एक ही संक्षिप्त समय रात्रि में विशेष रूप से चमकता है, यह छोटा उड़ने कथानक होता है जो चार से लेकर सात अध्याय से कम वाला कीट है। २. सूर्य। का भी हो सकता है, यह एकदेशानुसारि काव्य होता है। खद्योतकः (पुं०) दिनकर, सूर्य। खण्डजः (पुं०) खांड। खद्योतनः (पुं०) दिनकर, सूर्य। खण्डधारा (स्त्री०) कैंची। खन् (सक०) खोदना, खनन करना, उन्मूलन करना, उखाड़ना। खण्डन (वि०) १. तोड़ने वाला, ०खण्ड खण्ड करने वाला, 'उच्चखान कचौधं स कल्मपोपममात्मनः।' (वीरो० विघ्न डालने वाला, २. समाधान में आपत्ति उपस्थित १०/२५) करने वाला, ३. यथार्थ का भी विरोध करने वाला। ४. खनकः (पुं०) [खन्+ण्वुल्] १. भूगर्मीय तत्त्व, खनिज, विद्रोह, विरोध। खदान। २. मूषक, चूहा। ३. कर्ण, कान। ४. सेंध लगाने खण्डपालः (पुं०) हलवाई। वाला चोर। ५. गर्त, गड्डा (दयो० ९८) भुङ्क्ते कर्माणि खण्डमण्डलं (नपुं०) वृत्त का अंश। कर्लेव खनको यात्यधः स्वयम्। (दयो० ९८) खण्डमोदकः (पुं०) खांड के लड्डू। खनक (वि०) खोदने वाला। समस्ति गर्ने खनकस्य पात:। खण्डलः (पुं०) टुकड़ा, अंश, भाग। (दयो० वृ० ३) खण्डलवणं (नपुं०) लोडी नमक, सांभर झील का नमक। खननं (नपुं०) खनन क्षेत्र। खण्डवस्त्रं (नपुं०) कौपीन, लंगोटी। (जयो० १/३८) खनिः (स्त्री०) [खन्+इ, स्त्रियां डीप्] खान, खदान, खनन खण्डविकारः (पुं०) शर्करा, शक्कर, चीनी। क्षेत्र। (वीरो० ) 'एषोऽपि सन्मणिरभूत् त्रिशलाखनीतः। खण्डश: (अव्य०) [खण्ड+शस्] अंश अंश में, टुकड़े टुकड़े में। (वीरो० ) For Private and Personal Use Only Page #347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra खनिज www.kobatirth.org खनिज (वि०) खान, खदान से खोदकर निकाल गया पदार्थ । खनिजसंपत् (पुं०) खनिज सम्पत्ति, भूगर्मीय संपदा । खनित्रं (नपुं०) कुदाली, खुर्पा, गैंती, खंता। खनिवसति (स्त्री०) खान खोदने का निर्णय । खपदं (नपुं०) विमान, देव यान देवतामनुबभूव गुदा बैडूर्यनाग्नि खपदे शुभभावैः । (समु० ५ / १५ ) पुर। खपुरं (नपुं०) विद्याधर नगर, गन्धर्व खपुर (पुं० ) [ खं पिपति उच्चतया ख+पृ+क] १. सुपारी का वृक्ष। २. भद्रमोथा, ३. बाघनखा । खपुष्य (नपुं०) आकाश कुसुम, असम्भव या अनहोनी घटना 'भूतं तथा भावि खपुष्पवद्वा निवेद्यमानोऽपि जनोऽस्त्वसद्वाक्। (वीरो० २०/६) जो कार्य हो चुका या आगे होने वाला है, वह आकाश कुसुम के समान असद् रूप है। 'खपुष्पमथवा शृङ्गं खरस्यापि प्रतीयते' (सम्य० ११६) खपुष्पैः कुरुते मूढः स वन्ध्या सुतशेखरम् (सम्य० ११६) खर (वि० ) [ खं मुखनिलमतिशयेव अस्ति अस्य-ख-र अथवा खमिन्द्रियं राति -ख-रा+क] 'खरस्य दुष्ट लोकस्य कठोरवस्तुनश्चारि संशोधक' (जयो० १७५२) १. कठोर, कर्कश, ठोस, सख्त, तेज, प्रखर । २. तिक्त, चरपरा । ३. हारिकारक, पीड़ाजनक। ४. क्रूर, निष्ठुर, दुष्ट (जयो० १७ / ५२ ) ५. ग्रीष्म, गर्मी । ६. तीव्र 'कम्पितास्तु खरदण्डभावतः (जयो० ७०६०) खर (पुं०) गर्दभ, गधा 'खपुष्यमथवा खरस्यपि प्रतीयते' (सम्य० ११६) खरकर (पुं०) सूर्य, दिनकर खरकालः (पुं०) ग्रीष्मकाल, गर्मी का समय। 'वसुन्धरायास्तनयान् विपद्य निर्यान्तमारात्खरकालमद्य।' (वीरो० ४/११) खरकुटी (स्त्री०) १. गर्दभों का अस्तबल २. नाई की दुकान, क्षौर कर्मशाला। खर कोण (पुं०) १. चकोर पक्षी, २. तीतर | खर कोमल (पुं०) ज्येष्ठ मास । - खरखुराघातः (पुं०) तीक्षण शफायात। (जयो० ३ / ११०) खर- क्वाण: (पुं०) १. चकवा पक्षी । खर- गृहं (नपुं०) गर्दभ शाला | खर - गेहं ( नपुं०) गर्दभ शाला । खरणम् (वि०) तीखी नाक । खर- दण्डं (नपुं०) कमल, पद्म । खर-दण्डभावः (पुं०) तीव्र ताडन भाव। सम्प्रसीद कुरु फुल्लतां कम्पितास्तु खर- दण्ड-भाव: । (जयो० ७/६०) यतः ३३७ खरपालः (पुं०) काष्ठपात्र । खरमञ्जरी (स्त्री०) अपामार्ग । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir खरध्वंसिन् (वि०) कर्कशता को नष्ट करने वाला । खरनादः (पुं०) गर्दभ नाद, खरध्वनि । खरपात्रं (नपुं०) लोह पात्र । खरप्रयुक्तिः (स्त्री०) तीक्ष्ण प्रयोग (जयो० २४ ) खपरिका खरमरीचि (पुं०) सूर्य, प्रभाकिरण । (जयो० १८/६०) खरयानं (नपुं०) गर्दभ यान, गधों के द्वारा खींची जाने वाली गाड़ी। खर - रुचिः (स्त्री०) १. खल की प्रीति। २. सूर्य (जयो० १६ / ६८ ) (जयो० २२ / ३३) 'खलस्य रुचिः प्रीतिः ' खर- रुचिरः (पुं०) तीक्ष्ण किरण, सूर्य (सुद० १०४) खरशब्दः (पुं०) गर्दभ शब्द, गधे की ध्वनि। खरशाखा (स्त्री०) गर्दभशाला। खरस्वरा ( स्त्री०) अरण्य में उत्पन्न चमेली। खरादी (स्त्री०) शस्त्रचिकित्सक, काष्ठरञ्जक। (जयो० २७/३७) खरारि: (पुं०) दुष्ट, दुर्जन (जयो० १७ / ५२ ) खरिका ( स्त्री० ) [ खर्+ न्+टाप्] पिसी हुई कस्तूरी । खरिन्ध (वि०) गधी का दुग्ध पीने वाली । खरी (स्त्री० ) [ खर+ ङीष् ] गधी, गर्दभी । १. करञ्जिका (जयो० *} For Private and Personal Use Only खरु (वि०) १. श्वेत, २. मूर्ख, ३. अश्व घोड़ा, ४. दंत - खरुर्दशन ईशेऽश्वे' इति वि० (जयो० १६/५७) ५. गर्व, घमण्ड । खर्ज् (सक०) पीड़ा देना, दुःख उत्पन्न करना । १. व्याकुल करना, २ . खुजलाना। (जयो० २/४ ) खर्जनं (नपुं०) [खर्ज् + ल्युट् ] खरोचना, खुजलाना। खर्जिका (स्त्री०) रोग विशेष । खर्जुः (स्त्री० ) [ खर्ज् + उन्] खरोंच । १. खजूर का पादप । २. आकवृक्ष। खर्जुरन् (नपुं० ) [ खर्ज् + उरच्] चांदी, रजत। खर्जू (स्त्री० ) [ खर्ज् + ऊ] खाज, खुजली खर्जूर: (पुं०) १. खजूर, २. वृश्चिक, बिच्छु । (जयो० वृ० २४/५०) खर्जूरं (नपुं०) रजत, चांदी खर्जूरवेध: (पुं०) ज्योतिष का एक योग । खर्जूरवृक्षः (पुं०) खजूर वृक्ष, निश्रेणि। (जयो० वृ० २४/५ ) खर्जूरी (स्त्री०) खजूर वृक्ष । खर्परः (पुं०) १. खप्पर, भिक्षा पात्र, खोपड़ी । २. चोर, ३. छाता । खरिका (स्त्री०) [खर्पर अच्छी कन्+टाप्] अंजन Page #348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir खर्परी ३३८ खलु खर्परी (स्त्री०) अंजन, सुरमा। खलसंसर्गः (पुं०) १. दुष्ट की संगति, २. खली का संसर्ग, खर्च (अक०) चलना, फिरना, घूमना। खली का प्रयोग। खर्व (वि०) १. तुच्छ, लघु, छोटा, निम्न, अपंग, विकलांग। खलसम्पर्कः (पुं०) १. दुर्जन संगति, २. खली का प्रयोग। २. ठिगना, ओछा। ३. अपूर्ण। (समु० १/२६) खर्वः (पुं०) १. दस अरब की संख्या। २. कुबेर की नौ निधियों खलिः (स्त्री०) [खल इन्] खली तेल का मैल। में एक निधि। ३. कूजा नामक वृक्ष। ४. उत्तरोत्तर- खलित (वि०) दुष्टता युक्त। 'परोऽपकारेऽन्यजनस्य सर्व:' परोपकारः समभूत्तु खर्वः। खखित्तोत्तमाङ्गः (नपुं०) गजे सिर। 'खलितोलमाङ्ग एव (वीरो० १/३३) करकोपनिपात सम्भाव्यते' (दयो० ८६) खर्वटः (०) चार सौ गांवों के मध्य का ग्राम। मंडी लगने खलिनः (पुं०) [खे अश्मुखछिद्रे-लीनम्] लगाम, कविका, वाला ग्राम। २. पर्वतीय स्थान पर बसा हुआ ग्राम। लगाम की रास। खर्वित (वि०) १. हीन, २. कटा हुआ। खलिनी (स्त्री०) (खलः इनि डीप्] खलिहान समूह, खलिहान स्थान। खर्खिता (स्त्री०) अमावस्या और चतुर्दशी युक्त दिन। खलीकृतिः (स्त्री०) [खलाच्चि कृक्तिन्] दुर्व्यवहार, उत्पात। खल् (सक०) १. संग्रह करना, एकत्र करना। खलीनः (पुं०) कविका, लगाम। (जयो० १३/७२) (जयो० खलः (पुं०) [खल्+अच्] १. खलिहार, भू-भाग, स्थान, २. वृ० १३/५) भूमि, ३. रज राशि। ४. सूर्य, ५. तमाल वृक्ष, ६. तलछट, खलीन-कर्षणं (नपुं०) लगाम खींचना, लगाम लगाना। दवा घोटने का खल वहल। ७. मसाले या चटनी पीसने 'हयानां गणः स्वामिन्यश्वारोहे खलीनस्य कविकायाः कर्षणं, का अयस्क या पत्थर की शिला। ८. तिलविकार, खली | कुर्वतीव हि निधर्षणम्' (जयो० वृ० २१/११) तिलकक्कविकारः (जयो० १७/५४) 'पयस्विनी सा | खलीन-दोषः (पुं०) कायोत्सर्ग में स्खलन सम्बंधी दोष। 'यः खलशीलनेन' (वीरो० १/१७) खलीन पीडितोऽश्व इव दन्तकटकटं मस्तकं कृत्वा कायोत्सर्ग खल (वि०) १. कूर, दुष्ट, नीच, अधम, दुर्जन, निर्लज्ज, करोति तस्य खलीनदोषः' (मूला०वृ० ७/१७१) विश्वासघाती। (वीरो० वृ० १/१७) खलु (अव्य०) [खल उन्] यह अव्यय विविध अर्थों में खलजनः (पुं०) दुर्जन। (जयो० ३/२) प्रयुक्त होता है। १. वाक्यालङ्कार-वाक्य शोभा में (जयो० खलकः (पुं०) [खाला+क+कन्] घट। १४/२४) नृप सूनवतीव राजते द्रुममाला खलु विप्रलापिनी। खल-क्षण (नपुं०) खाई। (सुद० १/२५) खलस्य धूर्तस्यैव (जयो० १३/५२) २. क्योंकि-'काले रुचिः शुचिः स्यात्खलु क्षणोऽवसौ। सत्तमाऽऽले।' (सुद० १/६) यतः खलु तीर्थकृद वाक् खलता (वि०) दुष्टता, मूर्खता, नीचता, दुर्जनता। (सुद० ९१) (सम्य० ५) ३. निश्चय ही 'यावत् खलु क्षायिक भावजातिः' 'दुष्टमनुष्यता' (जयो० २२/६) 'समस्ति तावत् खलता (सम्य० ५७) 'शक्तिः पुनः सा खलु मौनमेतु। (सम्य० जगन्मतेः' सद्भावना विजयिनी खलतां हसति' (वीरो० २३) ४. पूछताछ, अनुरोध, प्रार्थना, विनय खल्विति ९/११) २. आकाशप्रदेश पंक्ति। (जयो० वृ० १८/५२) निश्चार्थ-(जयो० २/३८) खल्विति समुच्चये (जयो० खलति (वि०) [स्खलन्तिकेशा अस्मात् स्खल अतच्] गंजा। वृ० ५/१५)-और-शुद्धभावा खलु वाचि वंशि' (सुद० खलतिकः (पुं०) पर्वत, पहाड़। २/८८, २/१६) जैसे वाबिन्दुरोति खलु शुक्तिषु (सुद० खलत्व (वि०) दुष्टता, नीचता, मूर्खता युक्त। ४/३०) 'सन्निमेषकदृशा खलु पातुम्' (जयो० ५/६९) खलधान्यं (नपुं०) खलिहान। वाक्यपूर्णे-तेऽञ्चिताः खलु रुषा सगगया। (जयो० ७/७) खलपूः (पुं०) झाड़ने वाला, साफ करने वाला। ५. ही-एतयोः खलु परस्परेक्षण सम्भवेत्।' (जयो०२/६) खलमूर्तिः (स्त्री०) पारा। ६. तो-'मानसानि खलु यानि च यूनाम्। (जयो०३/७०) खलयज्ञः (पुं०) खलियान की क्रिया। ७. भी-परिणतिमेति यया खलु धात्री' (जयो० ३/७४) खलशीलनं (नपुं०) १. दुर्जन संगति, २. खली का सम्पर्क। वाक्- नि:संदेह, अवश्य, सचमुच आदि में 'खलु' अव्यय का कामधेनुः खलशीलनेनाऽमृतप्रदात्री सुतरामनेना।' (समु० १/२६) प्रयोग होता है। For Private and Personal Use Only Page #349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir खलुच् ३३९ खिन्न खलुच् (पुं०) [खं इन्द्रियं लुञ्चन्ति हन्ति इति-ख+लुञ्च+क्विप्] योग्य समश्नातु खादतु ज्ञानी। (जयो० १०/१२) (जयो० अन्धकार, तम। २७/४६) खलोपयोगः (पुं०) खल का उपयोग। खादः (पुं०) खाद, भूमि को पुष्ट करने वाली गोबर की खाद। खल्या (स्त्री०) [खल+यत्+टाप्] खलिहानों का झुण्ड। प्रस्तूयते सातिशयाख्यखादः चेदंकुरायात्मविदोऽप्रमाद :। खल्लः (पुं०) [खल+क्विप्] खरल। १. चकोर पक्षी, २. शक। मृदन्तरा बीजवदीष्यतेऽद: पुन: किलास्पष्ट सदात्मवेदः। खल्लिका (स्त्री०) [खल्ल+कन्+टाप] कढ़ाई। (सम्य० १०७) खल्लिट (वि०) गंजे सिर वाला। खादक (वि०) [खाद्+ण्वुल] खाने वाला, उपभोग कर्ता। खल्वाट (वि०) [खल्वाट] गंजा। खादतुं-खाने के लिए (जयो० २७/४७) खशः (पुं०) एक जाति विशेष, जलाशय। (जयो० २१/३४) खादनः (पुं०) दन्त, दांत। खशरः (पुं०) खश अधिपति। खादनं (नपुं०) खाना, चबाना। खष्पः (पुं०) १. क्रोध, कोप, २. हिंसा, निष्ठुरता। खादन्ती -खाती हुई, भोग करती हुई, (मुनि०११) खसः (पुं०) १. खाज, खुजली। २. एक जाति विशेष। खादाञ्चक्रे-खाया गया, उपभोग किया गया। (दयो० ५७) खसृचिः (पुं०स्त्री०) गर्हित अभिव्यक्ति। खादेत् खाना चाहिए। खादेत्त देवासमुतेऽभिवादी। (वीरो० ४/३३) खस्खलः (पुं०) पोस्ता। खादित (वि०) भुंजित (दयो० १९) खादितवान्-खाया गया खा खाना, भोजन करना। खादेत्तदेवासुमतेऽभिवादी। (वीरो० (दयो० ९५) १९/३३) खादाञ्चक्रे (दयो० ५७) खादितुं खाने के लिए (दयो० ९५) खाजिकः (पुं०) [खाज ठन् ] भुना हुआ, तला हुआ धान्य। खादितवान्-खाया गया (दयो० ९५) खाट (अव्य०) ध्वनि, खकार सम्बंधी ध्वनि। खादिर (वि०) [खदिर+अञ्] खैर का वृक्षा (जयो० १२/३४) खाटः (पुं०) [ख अट घञ्] अर्थी। खादिरसारः (पुं०) कत्था। (जयो० १२/१३४) खाण्डवः (पुं०) खांड, मिश्री। खादुकः (पुं०) [खाद्+ उन्+कन्] उत्पाती, द्वेषपूर्ण। खाण्डविकः (पुं०) [खाण्डव+ठन] हलवाई। खाद्यं (नपुं०) भोजन, भोज्यपदार्थ, (जयो० वृ० १२/१२५) खात (वि०) [खन्- वत] खुदा हुआ, कुदेरा गया, फोड़ा गया। खाद्यवस्तुं (नपुं०) अन्न, भोजन पदार्थ। खाने योग्य वस्तु। खातं (नपुं०) खाई, परिखा, आयाताकार सरोवर, बावड़ी। खानं (नपुं०) [खन्+ ल्युट्] खुदाई, क्षति, खदान। (दयो० वृ० ४०) १. भूगृह, तलघर। 'खातं भूमिगृहादि' खानक (वि०) [खन्+ण्वुल्] खोदने वाला। (जैन०ल० ४०५) खानिः (स्त्री०) खान, खदान। 'प्रवर्तते तेन विवेकखानिरयम्' खातकं (वि०) खोदने वाला। (सम्य० ७५) खातकं (नपुं०) खाई, परिखा। खानिक (वि०) [खान्+ठञ्] दरार, तरेड़। खात-सम्पात-करणं (नपुं०) खेती करना, भू जोतना। कर्षणे खानित (वि०) खुदवाने वाला। (दयो० ९८) खातसम्पात-करणे सिञ्चने पुनः। (दयो० ३६) खानिल (वि०) सेंध लगाने वाला। खाता (स्त्री०) [खात-टाप्] बनाया हुआ तालाव। खारः (पुं०) [खम् आकाशम्, आधिक्येन तृच्छति-ख+ऋत्रण] खातिः (स्त्री०) [खन्क्तिन्] खोदना, खनन, खुदाई। माप विशेष। खातिका (स्त्री०) खाई, परिखा। (वीरो० वृ० २/२४) (सुद० । खारवेली (पुं०) कलिंग देश का नरेश। (वीरो० १५/३२) १/३६) खिडरः (पुं०) लोमड़ी। खातिकाम्भः (पुं०) खाई का विशद जल, परिखा जल, किले खिद् (सक०) १. प्रहार करना, मारना, काटना, खींचना, २. से पूर्व खोदी जाने वाली परिखा का जल। इतीव तं थकान होना, श्रान्त होना, क्लान्त होना, कष्ट होना। जेतुमहो प्रयाति तत्खातिकाभ्भश्छविदम्भजातिः। (वीरो० २/२८) | खिदिरः (पुं०) [खिद्+किरच्] १. सन्यासी, २. दरिद्र, ३. चंद। खात्रं (नपुं०) [खन् + ष्ट्रन्] १. कुदाली, २. तालाब, ३. अरण्य। खिन्न (भू०क०कृ०) १. दु:खी, अप्रसन्न, व्याकुल, कष्टजन्य, खाद् (सक०) खाना, निकलना। खाद्यताम्-भक्ष्यता प्राप्ति | पीड़ित व्यापन्न। (जयो० ३/११०) 'खिन्ना यदिव सहज For Private and Personal Use Only Page #350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir खिन्नता ३४० गकारः कद्विधिना' (सुद०७४) 'किन्नथ-किन्नाथकरोमि खिन्नः' | खेदकर (वि०) कष्टप्रद, पीड़ादायी। सम्वेदवत्खेदकरं तदस्तु। (दयो० २/२) खिन्न-उत्कण्ठित (जयो० १२/१३०) | (जयो० १६/२६) 'मालत्याः शाकमुदीक्षेऽहमेव श्रुत्वाऽऽहान्या खिन्न? (जयो० खेदयेत्-खेद उत्पन्न करे, थकान उत्पन्न करे। नैषा वेगं १२/१३०) 'खिन्ना किमिति मेदिनीम्' (जयो० ३/११०) तावकं संविसोढुं शक्ता नैनां खेदयेतीह वोढः। (जयो० 'शफास्तेषामाघातैः खिन्नाः १७/१२८) 'एनां न खेदय खिन्नां विधेहि' (जयो० वृ० व्यापन्ना किमित्येवमनुनयन्। (जयो० वृ० ३/११०) १७/१२८) खिन्नता (वि०) व्याकुलता, कष्टजन्यता, पीड़ा युक्त। 'न | खेनोडकः (पं०) आकाश में तारे। खेनाकाशेनोडकानि मनागपि खिन्नतां गतः। (वीरो० ७/३०) 'यदगमं भवतो ___नक्षत्राण्येव। (जयो० १५/४२) भुवि भिन्नतां। तदुपयामि सदैव हि खिन्नताम्। (जयो० ९/४१) खेयं (नपुं०) [खन्+क्यप्] खाई, परिखा। खिलः (पुं०) मरुभू, मरुधरा, ऊसर भूमि, पथरीली भूमि। खेल (सक०) हिलाना, क्रीड़ा करना, जाना कांपना। खेलितुं खिलं (नपुं०) मरुधरा, परती भूमि। (जयो० २०/४५) सलालसा खेलति सा स्म तस्य। (जयो० खिलीक (वि०) रोकना, बाधा डालना। ११/१) खिलीभू (वि०) नष्ट करना, उजाड़ना। खेल (वि.) [खेल+अच] क्रीडन, क्रीडापूर्ण। शैशवमपि खुङ्गाहः (पुं०) [खुम् इत्यव्यक्तशब्दं कृत्वा गाहते-खुम्+गाह+ शबलं किल खेलैः कृतोचितानुचितम्। (जयो० २३/५७) अच्] कृष्ण-अश्व, टट्टू, ०अडियल घोड़ा। 'खेलैः क्रीडनैः शबलं' (जयो० वृ० २७/५७) खुरः (पुं०) [खुर+क] १. खुर, घोड़े का नख। २.खाट का खेला (स्त्री०) क्रीडा, खेल। पाया। ३. छुरा, उस्तरा, ४. पलंग का पाया। खेलिः (स्त्री०) क्रीडा, खेल। खुरणस् (वि०) चिपटी नासिका वाला। खोटिः (स्त्री०) चतुर स्त्री। सुरपदं (नपुं०) घोड़े के पैर। खोड (वि०) [खोड्+अच्] विकलांग, पंगू। खुरपातः (पुं०) घोड़ों की टाप। 'खुरपात-विदारिताङ्गणैः' (जयो०१३/२६) 'खुराणां पातेन विदारितम्' (जयो० ७० खोर (वि०) पंगू, लंगड़ा। खोलकः (पुं०) पुरवा, सकोरा, छिलका। १३/२६) खुरली (स्त्री०) सैनिक अभ्यास। खोलि: (पुं०) [खोल्+इन्] तरकस्। खुरलेखा (स्त्री०) खुरों की रेखाएं। (जयो० ७० ३/२७) ख्या (सक०) कहना, बोलना, घोषणा करना, ज्ञात करना। खुरालकः (पुं०) [खुर इव अलति पर्याप्नोति-खुर+अल्+ण्वुल्] ख्यात (वि०) १. कथित, प्रतिपादित। (सम्य० १९) २. प्रसिद्ध अयस्क बाण। (जयो० ३/७३, जयो० १/५१) खुरालिकः (पुं०) [खुराणां आलिभिः कायति प्रकाशते-खुराणि+ ख्यातिः (स्त्री०) प्रसिद्धि, कीर्ति, यश। (समु० १३/३२) कै+क] छुर रखने का स्थान, उस्तरा का स्थान। ख्यातिगत (वि०) प्रसिद्धियुक्त। खुलोकः (पुं०) चूहा, मूषक। यैः सम्भवित्री बहुधान्यहानिर्यथा | ख्यापनं (नपुं०) उद्घाटन, घोषणा। खुलोकैरवनाविदानीम्। (समु०१/२०) खुल्ल (वि०) क्षुद्र, छोटा, लघु, अधम, निम्न। खेचरः (पुं०) विद्याधर। (जयो० ६/६) | गः (पुं०) यह कवर्ग का तृतीय व्यञ्जन है, इसका उच्चारण खेटः (पुं०) [खे अटति-अट्+अच्] १. खेड़ा, गाँव। २. एक स्थान कण्ठ है। आभ्यन्तर प्रयत्न जिह्वामूल स्पर्श और शस्त्र, गदा। बाह्य प्रयत्न संवारनाद घोष है। खेटितानः (पुं०) गाकर जगाना। | ग (वि०) [गै+क] गतिमान होने वाला, ठहरने वाला, जाने खेटिन् (पुं०) [खिट्+णिनि] दुराचारी। वाला। खेदः (पुं०) कष्ट, दु:ख, पीड़ा, अवसाद , आलस्य, थकान। गः (पुं०) १. गन्धर्व, २. गणेश, ३. दीर्घ मात्रा। ४. प्रशंसा, 'अनिष्टलाभः खेदः' (नि०साल्टी०६) (सुद० ८७) कस्मै स्तुति, प्रार्थना। ५. गणधर। मनुष्याय न कोऽपि खेदः। (वीरो० १४/५२) गकारः (पुं०) ग व्यञ्जन। (जयो० १/४८) For Private and Personal Use Only Page #351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir गगनं ३४१ गच्छः गगनं (नपुं०) [गच्छन्त्यस्मिन्-गम्+ल्युट, ग आदेश:] नभ, गङ्गराज (पुं०) सेनापति गङ्गराज। सेनापतिर्गङ्गराजश्चास्य आकाश, देवपथ, गुह्यकाचरित, अवगाहन, अन्तरिक्ष। लक्ष्मीपतिः प्रियाः। जिनपादाब्जसेवायामेवासन विससर्ज तान्।। आगासं गगणं देवपधं गोज्झगाचरिदं अवगाहलक्खणं आधेयं (वीरो० १५/५०) वियापग-आधारो भूमित्ति एयट्ठो (धव०४/८) आधेय, | गड़हेमाण्डि (पुं०) नाम विशेष राजा। दोर्बलगङ्गहेमाण्डि मान्धातुर्या व्यापक, आधार, भूमि। धरैव शय्यागगनं वितानम्' (सुद० सधर्मिणी। श्री पदृद-महादेवी बभूव जिनधर्मधुक्।। (वीरो० १/३५) वियत्-गगन (जयो० १८/२२) 'वियति गगने १५/४४) प्रागुत्थितः पूर्वदिशि सञ्जातः' (जयो० वृ० १८/२२) गङ्गा (वि०) मनोहर, रमणीय, सुन्दर। (जयो० वृ० २०/६७) गगनंकष (वि०) गगनचुम्बी, व्योम चुम्बिन्। (जयो० २१/६३) गङ्गा (स्त्री०) [गम्+गन्+टाप्] गंगा नदी, हिमालय से निकलने 'यातीव स्व:पुरीं चेतुं स्व सौधैर्गगनंकषैः।' (दयो० १/१०) वाली मैदानी नदी, गगनापगा। (जयो० वृ० १३/५५) 'श्री गगन-कुसुमं (नपुं०) आकाश पुष्प। अवास्तविक वस्तु के सिन्धु गङ्गान्तरतः स्थितेन' (वीरो० २/८) लिए दिया जाने वाला दृष्टान्त। गङ्गाक्षेत्रं (नपुं०) गंगा का प्रदेश। गगनगड़ा (स्त्री०) सुपर्ववाहिनी, आकाशगङ्गा। 'जयकुमारस्य गङ्गाजः (पुं०) भीष्म, कार्तिकेय। अग्रतः सम्मुखं सुपर्ववाहिनी गगनगङ्गा समवाप।' (जयो० गङ्गातट (नपुं०) गंगा प्रान्त। (जयो० वृ० २०/६४) वृ० १३/५३) गङ्गादत्तः (पुं०) भीष्म। गगनगतिः (पुं०) देव, विद्याधर। गङ्गादेवी (स्त्री०) गङ्गा नामक देवी। 'गङ्गत्यभिराम मनोहरं गगनचरः (वि०) आकाश में विचरण करने वाला, नक्षत्र, नाम यस्यास्सा देवी' (जयो० वृ० २०/६४) सती सुलोचना ग्रह, पक्षी। के उच्चरित नमस्कार मंत्र के प्रभाव से स्त्रीरूप को गगनचुम्बी (वि०) आकाश को स्पर्शित करने वाली। (दयो० १/१०) छोड़कर गङ्गादेवी हुई। विपिनविहारे पन्नग-दष्टाभ्यतीत्य गगनध्वजः (पुं०) १. सूर्य, रवि, दिनकर। २. मेघ। नारीरूपमकष्टात्। सुदृशा घोषितमनुप्रसङ्गाज्जाताहमहो देवी गगनपतिः (पुं०) सूर्य, रवि, दिनकर। गङ्गा।' (जयो० २०/६७) गगनविहारि (वि०) आकाश में विचरण करने वाले। गङ्गाधरः (पुं०) महादेव, शिव, शंकर। 'सद्धार गङ्गा धरमुग्ररूपं गगनसद् (वि०) आकाश में स्थित होने वाला। तवेममुच्चस्तनशैलभूपम्। दिगम्बरं गौरि! विधेहि चन्द्रचूडं गगनसिन्धु (स्त्री०) आकाश गङ्गा। करिष्यामि तमामनन्द्रः।। (जयो० १६/१४) 'गलभूषणमेव गगनस्थ (वि०) नभस्थ, आकाश में स्थित। गङ्गा तां धरतीति तं तथैव सती धारा यस्यास्तां गङ्गा गगनस्थित (वि०) नभस्थ, आकाश में विद्यमान। धरतीति वा तामेव दिगम्बरं विधेहि। (जयो० वृ० १६/१४) गगनस्पर्शनः (पुं०) पवन, वायु, हवा। गङ्गापगा (स्त्री०) गङ्गा नदी। 'गङ्गापगासिन्धुनदान्तरत्र' (सुद० गगनाग्रं (नपुं०) आकाश का उन्नत भाग, उच्चतम प्रदेश। १/१४) गगनाङ्गणं (नपुं०) आकाश भाग, नभाङ्गण। 'गगनाङ्गमाशु गङ्गाप्रवाहः (पुं०) सुरस्रोत, (जयो० १५/ चञ्चलैर्ध्वजिनी। (जयो० १३/३७) गङ्गापुत्रः (पुं०) गङ्गा का पुत्र, भीष्म, कार्तिकेय। गगनाञ्चः (पुं०) विद्याधर, आकाशगामी। 'गगनाञ्चानामा- गङ्गाभृत (पुं०) १. शिव, २. समुद्र। काशगामिनां मनुष्याणां पङ्किवर्तते' (जयो० वृ० ६/७) गङ्गामध्यम् (नपुं०) गंगा तट। गगनापगा (स्त्री०) गङ्गानदी, आकाशनदी, स्वर्ग नदी। गङ्गायात्रा (स्त्री०) पवित्र यात्रा। गगनापगाचयः (पुं०) आकाश गंगा का प्रवाह, गंगा प्रवाह। । गङ्गाक्षुतः (पुं०) भीष्म। (जयो० १३/५५) गङ्गाहृदः (पुं०) एक तीर्थ। गगनाध्वगः (पुं०) सूर्य, ग्रह, नक्षत्र। गच्छः (पुं०) १. वृक्ष, २. गण, संघ, समुदाय। तिपुरिसओ गगनाम्बुः (नपुं०) वर्षा का जल। गणो, तदुवरि गच्छो।' (धव०१३/६३) साधुसमुदायगगनोदितनगरं (नपुं०) गन्धर्वनगर। आकाशे प्रकटितपुर। (जयो० 'एकाचार्यप्रणेय साधुसमूहो गच्छः। साप्तपुरुषिकी गच्छः। २/१५४) (जैन०ल० ४०५) For Private and Personal Use Only Page #352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir गज् ३४२ गडेरः गज् (अक०) गर्जना, चिंघाड़ना, चिल्लाना, दहाड़ना, व्याकुल गजवमः (पुं०) हस्ति सुंड, हाथी की सूंड। (जयो० ६/५३) होना। 'गजानां वमथुभिः' (जयो० वृ० ६/५३) गजः (पुं०) [गज्+अच्] हस्ति, हाथी, करि, इभ। 'जय गजव्रजः (पुं०) हस्ति दल। ___ कुमारो भवान् स इभा गजाश्च वाजिनो।' (जयो० १३/२३) गजस्थ (वि०) हस्त्यारुढ़। गजकुम्भः (पुं०) गण्डस्थल, हस्तिगण्डस्थल। 'गजास्तेषां गजस्नानं (नपुं०) हस्ति स्नान। कुम्भेभ्यो गण्डस्थलेभ्यो मुक्ता' (जयो० वृ० ६/६९) गजाग्रणी (पुं०) उत्तम हस्ति। गजकर्णः (पुं०) शिव। गजाधिपः (पुं०) गजराज, श्रेष्ठ हाथी। गजकर्माशिन् (पुं०) गरुड़। गजाधिपतिः देखें ऊपर। गजगतिः (स्त्री०) हस्ति चाल. मंद गति। गजाध्यक्षः (पुं०) हस्ति अधीक्षक। गजगामिनी (वि०) हस्ति चाल बाली। गजाननं (पुं०) गणपति। गजदन (वि०) हस्ति सदृश उच्च। गजापसदः (पुं०) उन्मत्त हाथी, दुष्ट हस्ति। गजदन्तः (पुं०) हाथी दांत, १. गणपति। गजाशनः (पुं०) अश्वत्थ वृक्ष। गजपत्तनं (नपुं०) राजा जयकुमार का शासित नगर, हस्तिनापुर। गजारिः (पुं०) सिंह। 'गज पत्तनस्य शशंस' (जयो० १३/१) (जयो० २/१५८) | गजायुर्वेदः (पुं०) हस्ति चिकित्सा। गजपत्तननायकः (पुं०) हस्तिनापुर नरेश, गजपत्तननायकः श्री गजारोहः (पुं०) महावत। जयकुमारः। (जयो० १३/१३) । गजाह्व (नपुं०) हस्तिनापुर। गजपादः (पुं०) हस्तिपाद। 'मुदाऽऽदायमेकोऽम्बुज कलिकां गञ्ज (सक०) ध्वनि करना, विशेष आवाज करना। पूजनार्थमायातः।' गजपोदनाध्वनि मृत्वाऽसौ स्वर्गसम्पदा गञ्जः (पुं०) [गंज्+घञ्] १. खान, आकर, खदान, २. यातः।। (सुद० ११४) खजाना, ३. मण्डी, ४. गोशाला, पर्णशाला, ५. अनादर, गजपुङ्गवः (पुं०) श्रेष्ठ हस्ति। तिरस्कार। अनाज मंडी। गजपुरं (नपुं०) हस्तिनापुर। 'पत्तनं गजपुरं प्रति विनिर्गतेः' गञ्जन (वि०) [गञ्ज ल्युट्] क्षुद्र समझना, लज्जित करना। (जयो० २१/१) गञ्जिका (स्त्री०) [गञ्जा+कन्+टाप्] मधुशाला, मदिरालय। गजबन्धनी (स्त्री०) १. ०वारी, ०बाड, २. गज अस्तबल गठ-जोड़ः (वि०) गठबन्धन, अनुबन्ध। श्रृंखला। ३. गज श्रृंखला 'परास्ता ध्वस्ता वारी गजबन्धनी।' गठबन्धनं (नपुं०) गठजोड, अनुबन्ध। विवाह के समय वर-वधू (जयो० १३/११०) के एक सूत्र में बांधने के लिए आपस में वस्त्र का गजमारी (स्त्री०) हस्तिमृत्यु। 'गजानां मारी नामापमृत्युस्तस्य गठबन्धन करना। अञ्चलवान्त भागस्य वस्त्रप्रान्तस्य बन्धो नाशनं' (जयो० वृ० १९/७७) णमो विडोसहिपत्ताणं च ग्रन्थिबन्धनाख्यो यः स' (जयो० वृ० १२/६३) उभयो: गजमारीनाशनं समञ्चत्। (जयो० १९/७७) शुभयोगकृत्प्रबन्धः समभूदञ्चलवान्तभागबन्धः। न परं दृढ़ गजमुक्ता (स्त्री०) हस्तिमुक्ता, जो गज के मद से बनती है। एव चानुबन्धो मनसोरप्यनसोः श्रियां स बन्धो।। (जयो० गजमुखः (पुं०) गणेश। १२/६३) गजमौक्तिकं (नपुं०) गजमुक्ता। गड् (सक०) खींचना, निकालना। गजमोटनः (पुं०) सिंह। गडः (पुं०) १. खाई, परिखा, २. पर्दा, आवरण, रुकावट। गजयो० गिन् (वि०) हस्ति पर आरुढ़ होकर युद्ध करने | गडिः (स्त्री०) वत्स, बछड़ा। वाला। गडु (वि०) [गड्+उन्] १. बेडौल, कुबड़ा। २. केंचुआ, ३. गजराज (पुं०) द्विपेन्द्र, हस्तिराज। (वीरो० ४/५७, जयो० जलपात्र। १३/९६) गडुकः (पुं०) [गडु+कै+क] जलपात्र, अंगूठी। गजराजिः (स्त्री०) हस्ति पंक्ति, हस्ति समूह। 'गजराजिरितः गडुर (वि०) कुबड़ा, बेडौला समाव्रजत्यथवा।' (जयो० १३/१४) गडेरः (पुं०) [गड्। एरक] मेघ, बादल। For Private and Personal Use Only Page #353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra गडोल: www.kobatirth.org गडोल: (पुं० ) [ गड् + ओलच्] कच्ची खांड। गड्डर: (पुं०) भेड़। गड्डरिका ( स्त्री० ) [ गड्डरं मेषमनुधावति उन्] १. भेड़ों की पक्ति २. नदी, धारा, प्रवाह, भेड़िया धसान। गड्डुक: (पुं०) स्वर्णपात्र । गण (सक०) गिनना, गणना करना, हिसाब करना, जोड़ना, मूल्य निर्धारण करना, मानना, समझना, गणित करना। (जयो० ३) + गण: (पुं०) [गण+अच्] गणना, गिनना, मानना, समझना। (जयो० ३/३) गणः समूहे प्रमचे संख्या सैन्यप्रभेदयोरिति (जयो० ० ६/४४) १. समूह माता पिता पुत्रादि २. प्रधान (जयो० ) कुटुम्बीजन देही देहस्वरूपं स्वं देहसम्बन्धिनं गणम् (सुद० ४/७) ३. स्थविर सन्तति, आचार पद्धति । 'पूरयेद्यतिषु सन्मना गुणगृह्य एव यतिनाममहौ गणः' (जयो० २/९५) कुल समुदाय। गणक (वि०) गणितज्ञ, दैवज्ञ निमित्त तन्त्रि (जयो० वृ० ३/६६ ) गणकारः (पुं०) वर्गीकरण, विश्लेषण । गणकृत्वस् (अव्य० ) कई बार, अनेक बार । गणगच्छभेदः (पुं०) गण के गच्छ का भेद । आगारवर्तिषु यतिष्वपि हन्त खेदस्तेनाऽऽश्वभूदिह तमां गण गच्छभेदः । (वीरो० २२/१८) गणगतिः (स्त्री०) उच्च संख्या, विशिष्ट गणना। गणचक्रकं (नपुं०) गुणी समूह का स्नेह भोज, ज्योनार, सहभोज, प्रीतिभोज । गणछन्दस् (नपुं०) विनियमिद छन्द, गण के प्रयोजन से छन्द । गणणीय (वि०) पूजनीय, आदरणीय (जयो० ) गिनने योग्य (जयो० ५/९४) गणदीक्षा ( स्त्री०) सामूहिक प्रव्रज्या । गणदेवता ( पुं०) इष्ट देवता। युक्त गणद्रव्यं (नपुं०) सार्वजनिक सम्पत्ति । गणधर (पुं०) १. गण रक्षक- गणभृत्स (वीरो० १४/२) 'गणपरिरक्खो मुणेयच्वो' (मूला०४/३५) 'गणं धारयतीति गणधर : ' गणान् धारयन्ति गणधर । : ' गणनं (नपुं०) १. गिनना (जयो० ६६२) २. मानना, संख्या (समु० १५९) गणनभावः (पुं०) पूज्यभाव (जयो० ) ३४३ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir गणना ( स्त्री०) समय (जयो० १/१६) एक, दो, तीन आदि संख्या विधान (जयो० ० ११/८८ ) गणनाथः (पुं०) गणस्वामी, गच्छनायक । गगनप्रयोग (पुं०) गुणन प्रयोग। (जयो० १/३४) गणनायकः (पुं०) गणपति । गणप: (पुं०) गणेश । गणपति: (पुं०) गणेश, गणपति, गणनायक । गणपर्वतः (नपुं०) कुलाचल, गणाचल । गणपीठकं (नपुं०) वक्षस्थल गणपुंगवः (पुं०) संघ प्रमुख | गणपूर्व: (पुं०) संघाधिपति, मुखिया । गणभर्तृ (पुं०) शिव । गणितपदं गणभृत् (पुं) देवसमूह (जयो० १९८५) गणभृत्सः (पुं०) गणधर । अभूद् द्वितीयो गणभृत्स वायुभूतिस्तृतीयः सकलीकृताऽऽषुः (वीरो० १४/२) गणयज्ञ: (पुं०) सामूहिक संस्कार । गणराड (पुं०) गणधर । (वीरो० १४/८) वीरस्य सान्निध्यमुपेत्य जात स्तत्त्वप्रतीत्या गणराडिहातः । गणराजदेवः (पुं०) गौतम स्वामी (वीरो० १/७) (वीरो० १४/८) गणशरणं (नपुं०) मुनिसंघ-शरण, गच्छशरण (समु० १३६ ) गणाग्रणी (पुं०) गणपति । गणाचल: (पुं०) मेरुपर्वत । गणाधिप: (पुं०) १. गणपति (जयो० १/२) गणधर (जयो० १९/४४) २. सैन्यपति। ३. संघ प्रमुख गच्छाधिपति । आचार्य गुरुकुलका प्रमुख गणाधिपः धर्माचार्यस्तादृग्गृहस्थाचार्यो वा' (सागार ६०२ / ५१ ) गणाधिपतिः देखो ऊपर। गणावच्छेदकः (वि०) गण का नेतृत्व करने वाला, धर्माचार्य। गणि: (स्त्री० ) [ गण् + इनि] गिनना, हिसाब करना । गणि: (पुं०) संघ नायक, आचार्य, साधुओं में अग्रणी आचार्य विशेष | For Private and Personal Use Only गणिका (स्त्री०) [गण ठञ्+टाप्] वैश्या । पण्यस्त्री, सुरतस्याधिष्ठात्री । (जयो० १७ / ५१) (जयो० ३/८०, १ / १३३)। यूथिका, जूती (जयो० २४/११५) गणिका यूथिका वेश्या इति विश्वलोचन (जयो० वृ० २४/१९५) गणित ( वि० ) [ गण्+क्त] गिना हुआ, गुणित, क्षेत्रित गणितपदं (नपुं०) क्षेत्रफल | Page #354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir गणितशास्त्र ३४४ गतप्रेम गण्डिकानुयोगः (पुं०) अर्थ कथन की विधि। गण्डीरः (पुं०) [गण्ड्+ईख] नायक, योद्धा। गण्डूः (पुं० स्त्री०) [गण्ड्+ड ऊङ्] १. तकिया, २. जोड़, गांठ। गणितशास्त्रं (नपुं०) करणानुयोगशास्त्र। (जयो० वृ० १/३४) गणितिन् (पुं०) [गणित+इनि] गणितज्ञ।. गणिनी (स्त्री०) संघ प्रमुखा, (मुनि०२८) धर्मसंघ नायिका। २. गणनाकत्री, अधिकारिणी। (जयो० २२/६०) गणी (पुं०) गणधर, द्वादशांग ज्ञाता। (जयो० ९/८२) गच्छाधिपोगणी। गौतम नाम 'गणी यथा गौतमनाधेयः' (वीरो० १४/१) 'गणी बभूवाऽचल एवमन्यः प्रभो सकाशान्निजनामधन्यः' गणीश: (पुं०) गणधर। (वीरो० १४/१९) गणेय (वि०) गिनने योग्य। गणेरू (स्त्री०) [गण+एरू] १. कर्णिका वृक्षा २. वेश्या, ३. हथिनी। गणेरुका (स्त्री०) [गणेरू+कै नप] दूती, सेविका, कुटिनी। गण्डः (पुं०) गाल, कपोल, गण्डस्थल। गणेशः (पुं०) वीरोक्तमनुवदति गणेश विश्वहेतवे (वीरो० १५/९) गणधर, साधुसंघ स्वामी। (भक्ति०१०) १. आचार्य 'अर्हन्नथो सिद्धरतो गणेशश्चाध्यापकः' साधुरनन्यनेश:' (भक्ति०१९)२. लम्बोदर, गजानन (दयो० ५३) गण्डकः (पुं०) १. गेंडा, २. रूकावट चिह्न, धब्बा। गण्डकूसुमं (नपुं०) हस्तिमद। गण्डकूपः (पुं०) कूट कूप। गण्डग्रामः (पुं०० बड़ा ग्राम। गण्डजलं (नपुं०) मद जल (जयो० १५/२८) गण्डदेश: (पुं०) कपोल, गाल। गण्डफलकं (नपुं०) विस्तीर्ण कपोल। गण्डभित्तिः (स्त्री०) गण्डस्थल, छिद्र। गण्डमण्डल: (पुं०) कपोल, गाल (जयो० १०/१०५) गण्डमालः (पुं०) कंठ रोग। (जयो० १९/८०) गण्डमूर्खः (पुं०) मूढ, पूर्ण मूर्ख। गण्डशिला (स्त्री०) विशाल चट्टान। गण्डशैलः (पुं०) विशाल चट्टान। गण्डस्थलं (नपुं०) हस्ति कपोल, गजकुम्भ। (जयो०६/५९) गण्डस्थलाग्रभागः (पुं०) कपोलपालि, गलभाग। (जयो० १३/७१) गण्डस्थली (स्त्री०) कपोल, कनपटी। गण्डकी (स्त्री०) नदी। गण्डलिन् (पुं०) शिव। गण्डिः (पुं०) (गण्ड+इनि] वृक्ष तना। गण्डिका (स्त्री०) [गण्डक+टाप्] १. पिण्ड, पीठी। २. वाक्य पद्धति। ३. एक प्रकार का पेय पदार्थ। गण्डूः (स्त्री०) हड्डी। गण्डूपदः (पुं०) एक कीट, केंचुआ। गण्डूभवं (नपुं०) सीसा। गण्डूपदी (स्त्री०) छोटा केंचुआ। गण्डूषः (पुं०) [गण्ड्-ऊषन्] कुरलक, कुल्ला (जयो० १९/६) मुट्ठीभर, हस्ति सुंड नोंक। गण्डूषनिरुक्तिः (स्त्री०) कुरलक प्रवृत्ति (जयो० १९/६) गण्डूषाणां कुरलकानां निरुक्ति प्रवृत्तिः। गण्डोलः (पुं०) [गंड्+ओलच्] कच्ची खांड। गण्य (वि०) सर्वोत्तम, अग्रगण्य शुचि। रुचिरमग्रतो गण्यम्। (जयो० ६/९४) गत (भू०क०कृ०) [गम्+क्त] व्यतीत, समाप्त, गया हुआ बीता, पहुंचा, सम्मिलित, अन्तर्निहित, समाहित, गतश्चतुर्वर्गबहिर्भवत्वं पुमान् समूहो न किलाप सत्त्वम्। (जयो० १/२४) श्री चक्रपाणे: स गतः प्रतिष्ठाम्। (जयो० १/१६) सकाशात् प्रतिष्ठां गतः प्राप्तः सन्' (जयो० वृ० १/१६) 'कौमाल्यगुणं गतः स वा। (सुद० ३/२९) विस्तृत 'श्रुतिप्रान्तगतो विलासः' (सुद० २४८) कानों के समीप तक विस्तृत। अतिलगित-'वनभूमिरूपागता गता जनभूमिर्ननु जानता नता।' (जयो० १३/४२) गतकर्म (वि०) कर्म रहित। गतकलष (वि०) पाप मुक्त। गतकषाय (वि०) कषाय रहित। गतक्लम (वि०) क्लेश रहित। गतचेतन (वि०) मूर्छित, चेतनाशून्य। गतदिनं (वि०) बीता हुआ कल। गतधी (वि०) बुद्धिहीन। गतधियापि मया समयः श्रियाम्। (जयो० २५/७५) गतप्रत्यागत (वि०) जाकर आया हुआ। वृत्तिपरिसंख्यान तप। गतप्रभ (वि०) कान्तिहीन, यश रहित। गतप्रमाद (वि०) प्रमाद रहित, अप्रमादी। गतप्राण (वि०) प्राण रहित। गतप्राय (वि०) प्रायः गया हुआ। गतप्रेम (वि०) प्रेमशून्य। For Private and Personal Use Only Page #355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir गतभर्तृका ३४५ गदान्वित गतभर्तृका (स्त्री०) विधवा स्त्री। पहुंचना। २. अवस्था, दशा, परिणति, स्थिति, अवस्थिति। गतभ्रान्ति (वि०) भ्रम रहित, संशय विमुक्त। चेष्टा-वामा गतिर्हिवामानां को नामावैति वामित:' (जयो० गतरूप (वि०) रूप रहित। १५०) ३. संसार, भव। ४. जीवों का परिणमन। ५. गतरूपध्यान (वि०) देहस्थ ध्यान से रहित, इन्द्रिय व्यापार से देशान्तर संचरण। ६. उत्पत्ति। 'दधती कञ्जगति स्थिराशयम्' रहित (जयो० १३/५९) स्रोत, उद्गम, प्राप्ति स्थान, गमन, गतलक्ष्मी (वि०) धनाभाव। आवागमन। (जयो० १३/२४) ७. निर्वाह-'मकरतोऽवतरस्य गतवयस्क (वि०) वयस्क पने से रहित, वृद्ध, बूढ़ा। सरस्वति (जयो० २/९७) भवितुमर्हति नासुमतो गतिः। गतवर्षः (पुं०) पिछला वर्ष, बीता हुआ वर्ष। (जयो० ९/६१) प्रवृत्ति-गतिर्ममैतस्मरणैकहस्तावलाम्बन: गतवर्ष (नपुं०) पिछला साल, बीता वर्ष। काव्यपथे प्रशस्तरा। (सुद० १/३) गतवान् (वि०) गया हुआ। (जयो० वृ० १/८९) गतिनियतिः (स्त्री०) आकाश गमन। “कियती जगतीयती गतवैर (वि०) वैर रहित प्रीतिभाव मुक्त। गतिर्नियतिर्नो वियति स्विदित्यतः।' (जयो० १३/२४) गत-व्यथ (वि० ) पीड़ा मुक्त। गतिभङ्गः (पुं०) ठहरना, रुकना, स्थान ग्रहण करना, विराम। गतशील (वि०) शील रहित। गतिमत् (वि०) प्रसरण। (जयो० ११/६९) गतशैशव (वि.) बचपन रहित। गतिरोधः (पुं०) विराम, ठहरना। 'गतिरोधवशेनासावेतस्योपरि गतसत्त्व (वि०) जीवन रहित। रोषणा' गतसत्य (वि०) सत्यनिष्ठा शून्य अलोक युक्त, मिथ्यात्व गतिविद्या (स्त्री०) गणित तथा विज्ञान विद्या। (सुद० १३३) सहित। गतिहीन (वि०) अशरण, निस्सहाय, परित्यक्त। गतसन्मति (वि०) बुद्धिहीन। गत्वर (वि०) [गम्+क्वरप्] गतिशील, जंगम, चर। गतसन्तोषः (वि०) संतोष रहित। गत्वरत्व (वि०) गमनशील। 'गत्वरत्वसमयातिसत्वरः' (जयो० गतसाधना (वि०) साधना का अभाव। २१/१) गतसम्यक्त्व (वि०) सम्यक्त्व शून्य। गद् (सक०) बोलना, कथन करना, वर्णन करना। निजगात् गतस्पर्श (वि०) स्पर्शरहित। (सुद०७७) 'राजा जगाद न हि दर्शनमस्य' (सुद० १०५) गताङ्गता (वि० ) अनुकूलता। 'फलितैः फलिनैर्गताङ्गता' (जयो० 'तदा विलक्षभावेन जगादेतीश्वरीत्वरी' (सुद० १०५) १३/४२) 'किमिति गदसि लज्जाऽऽस्पदं' (सुद०८७) सज्जङ्घभावं गताद्य (वि.) विद्यमानता। भजतो नगत्वं जगौ परोऽमुष्य पुनस्तु सत्त्वम्। सपर्यावरो गताक्ष (वि०) दृष्टिहीन, अन्धा। बभूवेति जगुर्न वर्याः। (वीरो० ५/६) गतानुगत (वि०) पूर्व परम्परा का अनुयायी। (वीरो० १०/३९) | गदः (पुं०) [गद्+अच्] १. बात कहना, भाषण करना। २. गतानुगत (वि.) सहज गति वाला। गतमनुगच्छति यतोऽधिकांश: रोग विशेष। (वीरो० वृ० ३/५) मया नावगतं भद्रे! सहजतयैव तथा मतिमान् सः।' (वीरो० १०/३९) सुहृत्द्यापतितं गदम्। (सुद० ७७) गतानुगतिः (स्त्री०) १. अनुगामी। 'गतं पूर्वजननमनु पश्चाद् | गदयित्नु (वि०) [गद्+णिच्+इत्नुच्] १. मुखर, वाचाल, २. गतिस्तया।' (जयो० २/१४१) २. भेड़ चाल। (वीरो० कामुक। ५/३३) ३. अन्योन्यानुकरण-(वीरो० ५/३३) गदयित्नुः (पुं०) मदन, कामदेव। गतानुगतिक (वि०) अन्धानुकरण करने वाला। 'गतानुगतिकत्वेन गदा (स्त्री०) [गद्+अच्+टाप्] मुद्गर, एक आयुध। सम्प्रदाय: प्रवर्तते' (वीरो० १०/१७) गदाग्रजः (पुं०) कृष्णा। गतानुगतिकत्थ देखो ऊपर गदाग्रपाणिः (वि०) गदा युक्त, गदाधारी। गदाञ्चितो माधव गतार्थ (वि०) निर्धन, दोन। इत्थमस्य निरामयस्य क्व सपो नृपस्य। (वीरो० ३/५) गतासु (वि०) प्राणहीन। गदान्वित (वि०) गदायुक्त, गदाधारी। 'सखी तेऽप्यभवत् पश्य गतिः (स्त्री०) [गम्। क्तिन्] १. गमन, जाना, प्राप्त करना, | नरोत्तम गदान्वितः। (सुद० ७७) For Private and Personal Use Only Page #356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org गदाधिकृत गदाधिकृत (वि०) मुग्दर युक्त (समु० ७/२) गदाभृत (वि०) गदाधारी । गदामुद्धा (स्त्री०) उर्ध्व गधा युक्त । गदायुद्धं (नपुं०) गदा से युद्ध करना । गदाहस्त (वि०) हस्त में गदा धारण करने वाला । गदित (वि०) कथित, निरूपित (वीरो० २२/४) प्रतिपादित, विवेचिता (जयो० १२ / ११५ ) इत्यनेन वचसा हृदि मोदमप्युपेत्य गदितं च वचोऽदः । (जयो० ४/५०) 'सुदतीत्थं गदितापि मुग्धिकाशु' (जयो० १२/४५) गदिन् (वि०) गदाधर, आयुधधारी । गद्गद (वि०) [गद् इत्यव्यक्तं वदति गद्गद् +अच्] हकलाना। (दयो० १२) भाव विभोर शब्द, हर्ष युक्त शब्द भृशमित्यर्थात्सुदृशः समभाद् गद्गदगिरोद्धरणम्। (जयो० १७ /१२५) गद्गदध्वनि (स्त्री०) हर्ष ध्वनि (जयो० २ / १५८) गद्गदवाक्यं (नपुं०) हर्ष जन्य वचन । गद्य (सं०कु० ) [ गद्+क्त] बोलने या उच्चारण करने योग्य। गद्यं (नपुं०) गद्य रचना, छन्दादि के नियम से विमुक्त वार्तिक । गद्यचिन्तामणि (स्वी०) वादीभसिंहकृत रचना। (जयो० २२/८४) गद्यात्मक (वि०) गद्य से समन्वित, गद्य में रचा गया। , गन्तु (वि०) [गम्+ तृच्] घूमता जाता। मन्त्री (स्त्री० ) [ गम् + ष्ट्रन्+ ङीष् ] बैलगाड़ी। गन्ध् (सक०) क्षति पहुंचाना, पूछना, मांगना, चोट पहुंचाना। गन्धः (पुं०) सुगन्ध, सुरभि । गन्धः (पुं०) सम्बन्ध, आमोद, प्रमोद । गन्धो गन्धके सम्बन्धे' इति वि० (जयो० २५/१०) गन्धो गन्धक आमोदे लेशसम्बन्धगर्वयो:' इति चान्यत्र (जयो० ० २५/७०) गन्धकुटी (स्त्री०) समवसरण सभा के मध्य में सुरभि को प्रदान करने वाली कुटी । (जयो० वृ० २६ / ६०) 'मध्येसभं गन्धकुटीमुपेतः' (वीरो० १३/१७) गन्धकाष्ठं (नपुं०) चन्दन की लकड़ी । गन्धकेलिका (स्त्री०) कस्तूरी। गन्धग्राही (स्त्री०) गन्ध ग्रहण करने वाली (समु०८/११) गन्धगुणं (वि०) गन्ध युक्त द्रव्य गन्धप्राणं (नपुं०) सुगन्ध ग्राहक नाक गन्धजलं (नपुं०) सुगन्धित जल, चन्दन युक्त जल । गन्धज्ञा (स्त्री०) नासिका । गन्धतूर्य (नपुं०) रण दुंदुभि । ३४६ गन्धनकुलः (पुं०) छछुन्दर गन्धनालिका ( स्त्री० ) चमेली । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir गन्धतैलं (नपुं०) सुगन्धित तेल। गन्धदायक (वि०) गंध देने वाला गंध प्रदतूलाश (जयो० २६/१९) गन्धदारू (नपुं०) चन्दन, अगर की लकड़ी। गन्धद्रव्यं (नपुं०) सुगन्धित पदार्थ । गन्धधूलि : (स्त्री०) कस्तूरी । गन्धनं (नपुं०) १. गन्धन सर्प विशेष २. प्रसंग (जयो० ६/१२७) गन्धपाषाण: (पुं०) गन्धक। गन्धपिशाचिका (वि०) काले रंग का धुंआ । गन्धर्वनगर गन्धपुष्पं (नपुं०) सुगन्धित पुष्प । गन्धपुष्प: (पुं०) नीलगिरि । गन्धपुष्पा (स्त्री०) नीलगिरि का पौधा गन्धफली (स्त्री०) चम्पककली, प्रियंगुलता । गन्धबन्धुः (पुं०) आम्र वृक्ष । गन्धमातृ (स्त्री०) भूमि, पृथ्वी । गन्धमादनः (पुं०) भ्रमर । गन्धमूषिकः (पुं०) छछुन्दर । गन्धमृग: (पुं०) गन्धविलाय । गन्धमोहिनी (स्त्री०) चम्पक कली। गन्धयुक्तिः (स्त्री०) सुगन्धि का उपाय। गन्धराजः (पुं०) चमेली पुष्प । गन्धलता (स्त्री०) प्रियंगुलता, चम्पककली। गन्धलोलुपी (स्त्री०) मधुमक्खी । गन्धवती (वि०) गन्धवाली (सुद० ३/२५ ) गन्धवहः (पुं०) वायु, मलयानिल (वीरो० ६/३३) १. कस्तूरीमृग । 'ते शारदा गन्धवहाः सुवाहा वहन्ति सप्तच्छदगन्धवाहाः ' (वीरो० २२/१४) For Private and Personal Use Only गन्धवहा (स्त्री०) नासिका । गन्धवाहः (पुं० ) पवन, हवा, समीर । गन्धवाहक (पु० ) वायु (वीरो० २१ / १४ ) गन्धवाही (स्त्री०) नासिका । गन्धर्वः (पुं०) १. गन्धर्व / दैवीय गीतकार, प्रवीण २. हय, अश्व, घोड़ा। 'निम्नानि गन्धर्व शफै: कुलानि ' (जयो० ८/२७) गन्धर्वनगरं (नपुं०) गगनोदितनगर, गीत विद्याधर नगर । (जयो० वृ० २/१५४) Page #357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir गन्धर्वशफः ३४७ गमिन् गन्धर्वशफः (पुं०) अश्वखुर-'गन्धर्वाणां हयनां शफैः खरैः ३/५१) गच्छतु लभताम्-'बिन्दुमनुस्वारमाप्नोतु' (जयो० (जयो०८/२७) ३/५१) 'काशी प्रति गन्तुमुत्सहते' (जयो० ३/९५) 'स्वैरं गन्धविह्वलः (पुं०) गेहूं। गच्छंती च असतीति निगद्यते' (जयो० १/२०) 'श्रयन्ति गन्धवाती (स्त्री०) गन्ध फैलाती। (जयो० ६/७१) वृद्धाम्बुधिमेव गत्वा' (सुद० १/२८) 'तदेव गत्वा गन्धशेखरः (पुं०) कस्तूरी। सुहृदाश्रयत्वम्' (सुद० ३/३७) 'जगाम धाम किञ्चासौ' गन्धसारः (पुं०) चन्दन। (सुद० वृ० ११२) गन्धसोमः (पुं०) धवल कुमुदिनी। गम (वि०) [गम्+अप्] १. जाने वाला, गमनशील, प्राप्त होने गन्धहारिका (स्त्री०) गन्धकारिका। गन्ध लेकर चलने वाली। वाला, पहुंचाने वाला, प्रमाण कर्ता। २. मार्ग, पथगन्धहेतु (स्त्री०) गन्ध का कारण। (मुनि० २६) (जयो० १३/२४) निजगाम गमं समुत्तरन्' (जयो० १३/१६) गन्धापकर्षणं (नपुं०) आठ सुगन्धित पदार्थ का मिश्रण। गमक (वि०) [गम्+ण्वुल्] अनुक्रमण कर्ता, प्रमाण करने गन्धाधिक (वि०) गन्ध की अधिकता। (जयो० ५/७१) वाला। गन्धोत्तमः (स्त्री०) शराब, मद्य, मदिरा। गमनं (नपुं०) [गम्+ल्युट्] गति, अभियान, प्रमाण, चरण, गन्धोदश (नपुं०) सुगन्धित जल। (जयो० ३/८८) विचरण, जाना, चलना, शनैः रिंगण। २/११५) गन्धोदकवृत्ति (स्त्री०) गन्धोदकबिन्दु (जयो० २६/५८) 'समुद् गमनं तेन सहितं रिङ्गणं शनैर्गमनं तेन सुगमा' गन्धोदसंसिक्त (वि०) सुगन्धित जल से सिंचित, गन्धोदकेन (जयो० १३/२४) यात्रा गमनमवशयमेवास्तु (जयो० वृ० सुगन्धिजलेन संसिक्ता उक्षिताः' (जयो० ८८) ३/९१) गन्धोपजीविन् (वि०) सुगन्धित पदार्थों को बेचकर आजीविका गमनक्रिया (स्त्री०) सूर्याभिमुख होने की क्रिया। निर्ग्रन्थ चलाने वाले। अवस्था में स्थानक्रिया, ०आसनक्रिया, शयनक्रिया और गभस्तिः (पुंस्त्री०) [गम्यते ज्ञायते-गम्+ड+ग:विषयः तं गमनक्रिया का विशेष महत्त्व है। 'सूर्याभिमुखगमनादिका विभस्ति, भस्+क्तिच्] १. प्रभा, कान्ति, चन्द्रकिरण। २. गमनक्रिया' (भ०आ०टी०८६) दिनकर, सूर्य। (वीरो० २१/३) गमनभावः (पुं०) प्रयाण भाव। गभस्तिकरः (पुं०) सूर्य, दिनकर। गमनशील (वि०) प्रयागी, प्रवासी। 'यः प्रवासी नित्यमेव गभस्तिपाणिः (पु०) सूर्य, दिनकर। गमनशीलः स सूर्यो झगिति हि' (जयो० १४/९५) चरिष्णु, गभस्तिमाली (पुं०) सूर्य, प्रभाकर, भानु। (दयो० १८) संचरणशील-(जयो० ११/४) गभस्तिहस्तिः (पुं०) सूर्य, दिनकर। गमनसाधनं (नपुं०) यान, विमान, सुसज्जित वाहन। 'विमानमेव गभीर (वि०) [गच्छति जलमत्र, गम्+ईरन्] घना, सटा हुआ। सुयानं गमनसाधनम्' (जयो०५/५८) गहरी (जयो० वृ० ३/४८) गहन, दुर्गाह्य, अंगाध, गुप्त, गमनेच्छु (वि०) गमन की इच्छा करने वाला, चरिष्णु, प्रयाणेच्छु, रहस्यपूर्ण। निकलने की इच्छा वाला। 'किमु भो भवता त्वरावता गभीरचरितं (नपुं०) गूढचरित। (जयो० ९/९१) (जयो० १२/४९) द्रुतमग्रे गमनेच्छुना हताः।' (जयो० १३/७०) गभीरता (वि०) गहनता, रहस्यपूर्ण। गमिक (वि०) अक्षर समानता। * गतिमान्। गभीरताविधिः (स्त्री०) रहस्यपूर्ण विधि। प्रभुरेष गभीरताविधिः गमित (वि०) अभियान कर्ता, प्रयाण करने वाला, उतारने स तन्वा परिवारितोऽबनिधेः। वाले, प्रामित (जयो० १/१३) 'सुदर्शनत्वं गमितासि सन्तुष' गभीरहत (वि०) गम्भीर चित्त। (जयो० ६/२१) (सुद० ३/४१) गभीरार्थवती (वि०) गुर्वी। (वीरो० ७/२२) गमितप्रजावान् (वि०) समस्त प्राणियों को पार उतारने वाले। गभीरात्मन् (पुं०) परमात्मा प्रभु, ईश्वर। 'वीरप्रभुः स्वीयसुबुद्धि नावा भवाब्धितीरं गमितप्रजावान्। गभीरिका (स्त्री०) [गभीर+कन्+टाप्] गंभीरता, दुर्गमता युक्त। | गमिताङ्ग (वि०) गमन रूपमित (जयो० १२/६२) (सुद० गम् (सक०) जाना, पहुंचना, प्रस्थान करना, प्राप्त १/१) करना-'मुखमेव सखीकृत्य बिन्दुमिन्यत्र गच्छतु' (जयो० | गमिन् (वि०) प्रायाणकर्ता, यात्री। For Private and Personal Use Only Page #358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir गमनीय ३४८ गर्दभः गमनीय (पुं०) [गम्+अनीयर] सुगम, सुबोध, अभिप्रेय, निहित, गरुडव्यूहः (पुं०) सैन्य व्यवस्था। सेना की तीन व्यवस्थाएं उपयुक्त, वाञ्छित। हैं-'चक्रव्यूह, मकरव्यूह और गरुडव्यूह। 'गरुडव्यूहात्मकं गम्भारिका (स्त्री०) एक वृक्ष विशेष। स्वसैन्यं रचयन् सन् सङ्ग्रामकरम्। (जयो० वृ० ७/११३) गम्भीर (वि०) १. ग्रुर्वी, अगाध, पर्याप्त। गरुत् (पुं०) [गृ+रति] १. पक्षी के पर, २. निगलना। (जयो० गम्भीरः (पुं०) कमल, नींबू। वृ०६/८) गम्य (वि०) गया हुआ। (सम्य० १/२२) गरुत्मत् (वि०) [गरुत्+मतुप् । गरुड पक्षी वाला। गर (वि०) [गीर्यते-गृ+अच्] निगलने वाला, खाया जाने गरुलः (पुं०) गरुड पक्षी। वाला, गरेणुः ( स्त्री०) हथिनी, हस्तिनो। (जयो० १३/१०८) गरः (पुं०) पेय पदार्थ, रस। १. रोग, २. निगलना। ३. विष, गर्गः (पुं०) [गृ+ग] १. सांड। २. गर्ग ऋषि। जहर-'गर विषमिवाचरन्ति (जयो० ११/११) गरन्ति गर्गरः (पुं०) [गर्ग इति शब्दं राति-गर्ग रा+क] १. भंवर, आचारार्ये क्विप् प्रत्ययः' (भक्ति०१७) 'कमलाय | जलावर्त, २. मथानी। जलाद्वह्निर्भिषजो रोगिणे गरम् (दयो० ६४) दीपात्तमोऽ- | गर्गरी (स्त्री०) गगरी, मटका। (जयो० २१/५६) ध्वनीनाय प्रतिभाति समुत्थितम्।। (दयो० ६४) 'गरेण । गर्गाटः (पुं०) [गर्ग इति शब्देन अटति गर्ग+अट्+अच] एक नस्या दिव मोदकस्य' (समु० १/२१) मछली विशेष। गर (नपुं०) तर करना, छिड़कना। गर्जू (अक०) गर्जना, दहाड़ना, चिल्लाना, गुर्राना। 'जगर्ज गरणं (नपुं०) १. निगलना, २. विष भक्षण करना। ___चाहंश्रुणु विप्र! (समु० ३/३१) एवं प्रकारणे समुज्जगर्ज गरघ्नी (स्त्री०) एक मछली। (सुद० १२/३६) गरद (वि०) विषदाता। गर्जः (पुं०) [ग घञ्] गड़गड़ाहट, हस्ति चिंघाड, बादलों गरपरिणति (स्त्री०) विषफल, विष का प्रभाव। (जयो० वृ० की गर्जना। ११/११) गर्जनं (नपुं०) [गर्जु+ल्युट] १. दहाड़ना, गर्जना, गड़गड़ाना, गरभः (पुं०) [गृ+अभच्] भ्रूण, गर्भस्थ शिशु। २. आवेश 'मोदनोदनिधिगर्जनमेष' (जयो० ३/५७) (जयो० गरलः (पुं०) [गिरति जीवन-गृ+अलच्] विष, जहर। ५/५७) क्रोध, संग्राम, युद्ध। ३. स्पष्टपरिभाषण- 'मेघस्य गरित (वि०) [गर इतच्] विषयुक्त। गर्जनं स्पष्टपरिभाषणम्'। (जयो० १२/४९) गरिमन् (पुं०) [गुरु इमनिच्] बोझ, बड़प्पन, महिमा, श्रेष्ठता। गर्जनयान्वित (वि०) गर्जन युक्त। गर्जना करता हुआ। इति गरिमा (स्त्री०) ऋद्धि विशेष, वज्र से गुरुतर बनाने की सिद्धि। गर्जनयान्वित स्वतो मयवर्गो व्रजति स्म वेगतः। (जयो० १३/३३) गरिष्ठ (वि०) [गुरु+इष्ठन्] १. अधिक, भारी, प्रबल बोझ गर्जा (स्त्री०) [ग+टाप्] गरज, गड़गड़ाहट। युक्त। २. पचाने में अधिक भारी। ये नीरस प्रेमत आहरन्ति गर्जित (वि०) [ग+क्त] गर्जता हुआ, गड़गड़ाता हुआ। गरिष्ठमिष्टं स्वशनं गरन्ति। (भक्ति०१७) गर्तः (पुं०) [गृ+तन्] गड्ढा, खाई, कोटर, छिद्र, गुफा। गरिष्ठाहारः (पुं०) अपाच्य आहार। (सुद० १०१) गर्ने भीतिमये कदापि न पतेद्धास्यं पिशाचं गरीयस् (वि०) [गुरु-ईयसुन्] प्रगाढ, अतिगाढ़, अधिक त्यजेत्। (मुनि०३) कोमल। नगरी च गरीयसी सुधार सेनैवमलङ्कृता बुधाः। । गर्ततुल्य (वि०) गड्ढे समान। मत्वाऽर्धसम्पूरितगर्त-तुल्यामुवाह (जयो० १०/९) अलका नगरी गरीयसी (समु० २/१०) नाभिं सुकृतैककुल्या। (सुद० २/४७) गरीयसि स्वस्य गुणेऽप्य तोषः (समु० १/१८) गर्तिका (स्त्री०) [गर्तः अस्त्यास्याः गठन् ] जुलाहे का यंत्र गरुडः (पुं०) [गरुद्भ्यां डयते-डी-3] [गृ+उडच्] पक्षी गर्तः खड्डी। नाम। गोविंद वाहन, पुरुषोत्तम वाहन। 'गोविंदस्य वाहनं गर्द (अक०) शब्द करना, दहाड़ना। गर्दति, गर्दयति। गरुडं दृष्ट्वा अहीनां सर्पाणां तत्त्वं स्वरूपं यत्तद्दर्प विषमुज्झित्य गर्दतोयः (पुं०) तरंगित जल। पलायते।' (जयो०६/७९) गर्दभः (पुं०) [ग अभच] गधा। विप्लवो गर्दभेणेव गरुडध्वजः (पुं०) विष्णु। वडवायाभवन्नसौ। (हित०सं०१७) For Private and Personal Use Only Page #359 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir गर्दभं ३४९ गर्दभं (नपुं०) सफेद कुमुदिनी। गर्दभी (स्त्री०) [ गर्द अभच्+ ङीप्] गधी। गर्धः (पुं०) [गृध् + घज] १. इच्छा, उत्कण्ठा, २. लोभ, लालच। गर्धन (वि०) [गृध् + ल्युट्] लोभी, लालची। (जयो० ) ___ तृष्णापरिणाम। गर्धिन (वि.) [गई इनि] लोभी, लालची, इच्छुक। गर्भः (पुं०) [मृभन्उदर, पेट, गर्भाशय, भ्रूण, गर्भाधान। (स्त्री की योनि में जो वीर्य और रज का मिश्रण शुक्रशोणितयोर्गरणाद् गर्भः। गर्भकर (वि०) गर्भ धारण करने वाली। गर्भकाल: (पुं०) गर्भ ऋतु। गर्भकोषः (पुं०) गर्भाशय, बच्चादानी। गर्भक्लेशः (पुं०) प्रसव पीड़ा। गर्भक्षण (नपु०) गर्भकाल। (सुद० २/४२) गर्भक्षयः (पुं०) गर्भपात। गर्भगत (वि०) गर्भरथ। (सुद० २/४७) गर्भगृहं (नपुं०) गर्भाशय, मंदिर का मध्य भाग, गृह का अन्तरंग का भाग। गर्भग्रहणं (नपुं०) गर्भधारण। गर्भघातिन् (वि०) गर्भपात कराने वाली। गर्भचलनं (नपुं०) गर्भ संचालन, बच्चे की गर्भ में घूमना, हिलना। गर्भच्युतिः (स्त्री०) १. जन्म प्रसूति। २. गर्भस्राव. गर्भपात। गर्भजन्या (वि०) गर्भ से उत्पन्न होने वाले जीव। गर्भण्डः (पु०) प्रारंभ से ही दास, जन्मजात दास। गर्भदुह (वि०) गर्भपात कराने वाली। गर्भधरा (वि०) गर्भवती। गर्भधारणं (नपुं०) गर्भ में सन्तान धारण करना। गर्भधारणा (स्त्री०) गर्भ में सन्तति का रखना। गर्भध्वंसः (पुं०) गर्भपात। गर्भपकिन् (पुं०) साठी धान्य। गर्भपात: (पुं०) गर्भच्युति। गर्भपोषणं (नपुं०) गर्भ में स्थित संतान की पुष्टि/पालन। गर्भभवनं (पुं०) घर का मध्यदेश। गर्भमण्डपः (पुं०) शयनागार, शयनकक्ष, प्रसूतिगृह। गर्भमासः (पुं०) गर्भकालीन महिना। गर्भमोचनं (नपुं०) प्रसव। गर्भयोषा (स्त्री०) गर्भवती स्त्री। गर्भरक्षणं (नपुं०) गर्भस्थ शिशु संरक्षण। गर्भरूपः (पुं०) शिशु, तरूण। गर्भरूपकः (पुं०) देखो ऊपर। गर्भलक्षणं (नपुं०) गर्भस्थ शिशु संरक्षण। गर्भलक्षणं (नपुं०) गर्भवती होने का संकेत। सुतवती (जयो० __ वृ० १३/५२) गर्भवती (स्त्री०) गर्भिणी। (सुद० वृ० १३/५२) गर्भवसतिः (स्त्री०) गर्भाशय, गर्भाधान। गर्भवासः (पुं०) गर्भाशय। गर्भविच्युतिः (स्त्री०) गर्भस्राव। गर्भवेदना (स्त्री०) प्रसव पीड़ा, प्रसव कष्ट। गर्भ-व्याकरणं (नपुं०) गर्भवृद्धि। गर्भशय्या (स्त्री०) गर्भाशय। गर्भसंभवः (पुं०) गर्भ होना, गर्भ ठहरना। गर्भसंभूतिः (स्त्री०) गर्भ होना, गर्म ठहरना। गर्भस्तम्भा (पुं०) गर्भपात। (जयो० १९/७६) गर्भस्थ (वि०) गर्भ में स्थित, गर्भ की विद्यमानता। गर्भस्रावः (पुं०) गर्भपात। गर्भाङ्कः (पुं०) अंक के मध्य। गर्भागार (नपुं०) १. गर्भाशय, बच्चादानी। २. अन्तःपुर, भीतरी कक्ष। ३. प्रसूति का गृह। ४. पूजाकक्ष, मूर्ति स्थापना का कक्षा गर्भाधानं (नपुं०) गर्भधारण। गर्भार्भकः (पुं०) गर्भस्थ शिशु। गर्भ अर्भका गर्भाभकः। (वीरो० ६/३) गर्भाशयः (पुं०) योनि, बच्चादानी। गर्भिणी (स्त्री०) [गर्भ+इनि+ङीप्] (जयो० १९/७६) गर्भवती। (सुद० २/४९) गर्भेश्वरः (पुं०) गर्भ से धनी, जन्मजात प्रभुता युक्त। गर्भोत्पत्तिः (स्त्री०) भ्रूण रचना। गर्मुक (पुं०) १. स्वर्ण, सोना, २. घास विशेष। गर्मुत् (पुं०) [गृ+ उति मुट्] १. स्वर्ण, सोना। २. घास विशेष। गर्मुल्कगोलः (पुं०) सुवर्णपिण्ड 'गर्मुकस्य गोलं सुवर्णपिण्ड' (जयो० १५/१७) गर्व (अक०) अहंकार होना, घमण्ड होना। गर्व (पुं०) अहंकार, घमण्ड। को नाम जातेश्च कुलस्य गर्वः। (वीरो० ११/२२) For Private and Personal Use Only Page #360 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir गर्वाट: ३५० गवा गर्वाटः (पुं०) [ग+ अट्+अच्] चौकीदार, पहरेदार, द्वारपाल। - गलन्तिका (स्त्री०) छोटा घड़ा, घटिका, लुटिया। गर्विष्ठ्य (वि०) १. अहंकारी, अभिमानी। २. अपूर्व, अत्यधिक। गलमेखला (स्त्री०) हार। वामाझ्या परिभर्त्सितः स्ववपुषः सौन्दर्यगर्विष्ठयसा' (सुद० ९८) गलवार्त (वि०) स्वस्थ, निपुण। गहू (अक०) निन्दा करना, कलंक लगाना ०अपमानित गलव्रतः (पुं०) मयूर, मोर। ___ करना। गलशुण्डिका (स्त्री०) उपजिह्वा, गलकण्ठी। गर्हणं (नपुं०) निन्दा, अपमान, कलंक, दोष। 'कस्याप्यहो गलशुण्डी (स्त्री०) ग्रीवा रोग। ___ गर्हणत: समेत सम्प्रार्थ्यते नाथ। मृषा क्रियेत्। (भक्ति०४३) गलसंलग्न (वि०) गले में पड़ी हुई। 'गले तासां कण्ठे संलग्नौ गर्हणीय (वि०) [गर्ह अणीयर] निन्दनीय। 'यतोऽतिगः कोऽपि भुजौ यस्य स' (जयो० वृ० १३/८१) जनोऽनणीयान् पापप्रवृत्तिः खलु गर्हणीया।' (वीरो०१७/२२) गलस्तनं (नपुं०) १. गले के स्तन, अज के गले का स्तन। २. 'संसार एषोऽस्ति विगर्हणीयः' (वीरो० १७/१९) अर्धचन्द्राकार बाण। ३. गले से पकड़ना। गर्दा (स्त्री०) [गर्ह+अ+टाप्] 'गर्हणं गर्दा कुत्सा' निन्दा, गलस्तनी (स्त्री०) अर्धचन्द्र। कलंक, अपमान। (जयो० वृ० १/१४५) गलाङ्करः (पुं०) गले का रोग, कण्ठरोग। गर्हित (वि०) निन्दित, घृणित। कर्कशवचन। (दयो० ११८) गलालङ्करणं (नपुं०) गले का आभूषण, हार। 'वीरोदयोदारगर्हितभार्या (स्त्री०) निन्दित स्त्री। 'गर्हिता भार्या येन स विचारचिह्न सतां गलालङ्करणाय किन्ना' (वीरो० १/१०) निन्दितस्त्री' (जयो० २/१५२) गलालककृति: (स्त्री०) कण्ठशोभा। भटाग्रणीः प्रागपि गल् (अक०) टपकना, गलना, रिसना, पसीजना, निकलना। चन्द्रहास यष्टिं गलालकृतिमाप्तवान् स। (जयो०८/२४) (जयो० १५/१९) 'गलंतो निर्गच्छन्तो' (जयो० वृ० १५/१९) गलि: (पुं०) मट्ठा बैल, जो चलने में उचित न हो। 'गिलत्येव गलः (पुं०) [गल्+अच्] २. गला, कण्ठ, गर्दन। (जयो० वृ० ___ केवलं न तु वहति गच्छति वेतिगलि:।' ४/३३) २. मछली पकड़ने का कांटा। गलित (भू०क०कृ०) [गल्+क्त] निर्गत, निकला हुआ, टपका गलकन्दल: (पुं०) कण्ठनाल, गला, ग्रीवा। (जयो० १३/६३) हुआ। (जयो० वृ० १२/३२) (जयो० ५/५०) 'पराजितास्या गलकन्दलेन' (जयो० गलितकः (पुं०) नृत्य विशेष। ११/४७) गल्भ् (अक०) विश्वस्त होना, आत्मस्थ होना। गलकम्बलः (पुं०) बैल की गर्दन के नीचे लटकने वाली गल्भ (वि०) [गल्भ+अच्] साहसी, आत्मविश्वासी। झालर, बलिवर्दग्रीव झालर। गल्या (वि०) [गल्-यत्-टाप्] कण्ठ समूह। गलानां कण्ठानां समूहः। गलगण्डः (पुं०) गण्डमाला, रोग विशेष, गले में गांठ। गल्लः (पुं०) गला, गाला गलग्रहः (पुं०) गला पकड़ना, गला घोंटना, श्वांस अवरोध। गल्लक: देखो ऊपर। गलग्रहणं (नपुं०) श्वांसावरोध, गल रुंधना। गल्लकः (पुं०) १. पुखराज, २. नीलमणि। गलचर्मन् (नपुं०) अन्ननली, गला। गल्लदेशः (पुं०) कपोल। (जयो० १६/७९) गलद्विरेफ: (वि०) निकले हुए भ्रमर। 'गलन्तो निर्गच्छन्तो । गल्लकफुल्लकः (पु०) गाल फुलाना। 'कुशीलवा द्विरेफा भ्रमरा' एवाश्रयो' (जयो० वृ० १५/१९) गल्लकफुल्लकाः' (वीरो० ९/२६) गलदेशः (पुं०) कपोल। (जयो० १६/७९) 'कपोलयोर्गल्ल- गल्लर्कः (पुं०) मदिरा पीने का प्याला। देशयोः' गल्वर्कः (पुं०) [गर्लुमणिभेदः तस्य अर्को दीप्तिरिव] १. गलद्वारं (नपुं०) मुख। स्फटिक, वैडूर्यमणि। २. शकोरा, प्याला। गलनं (नपुं०) [गल+ ल्युट्] टपकना। गल्ह् (अक०) कलंक लगाना, निन्दा करना। गलनाल: (पुं०) गला, कण्ठ। 'गानमानविलसद्गलनाला' (जयो० गवः (पुं०) झरोखा, रोशनदान। ५/३९) गवयः (पुं०) [गो+अय्+अच्] बैल के सदृश। गव+अल्। उकञ्। गलभूषणं (नपुं०) हार, गले का आभूषण, कण्ठमाला (जयो० गवा (पुं०) ग्वाला, गोपाल। 'सुतो बभूवाथ गवां स पत्युः'। वृ० १५/७६) (सुद० ४/१८) For Private and Personal Use Only Page #361 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir गवाक्षः ३५१ गाण्डिवः गवाक्षः (पुं०) १. झरोखा, रोशनदान, जालक। २. वानर, गहनं (नपुं०) गर्त, गह्वर, गुफा। बन्दर। गवाक्षीविन्द्रवारुण्यां पुंसि जालककीशयोः इति वि० गहनावनि (स्त्री०) गहनभूमि, वनभूमि। (जयो० १३/५३) (जयो० २४/५०) 'पलितेव पुनः प्रवेणिका विजरत्याः गहनावने रतः। (जयो० गवाक्षपूर्णः (पुं०) १. झरोखों से परिपूर्ण, २. वानरों से पूर्ण। १३/५३) गवाग्रं (नपुं०) ग्राम समूह। गह्वर (वि०) गर्त, गड्डा, गुफा, कुहर। (जयो० १०/७) गवादनं (नपुं०) चरगाह क्षेत्र, गोचर भूमि। गभीरतर। (जयो० १४/५८) अहो गिरेर्गह्वरमेव सौधमरण्यगवादनी (स्त्री०) गोचरभूमि। देशेऽस्य पुरप्रबोधः।' (सुद० वृ० ११७) गवाधिका (स्त्री०) लाख। गह्वरी (स्त्री०) गुफा, कंदरा, खोह। गवाह (वि०) गो का मूल्य। गह्वरीप (वि०) गरिष्ठ। रतिप्रतीपश्च निशासु दीपः शमी स गवाशन: (पुं०) मोची, चर्मकार। गीयाद् गुणगह्वरीपः। (सुद० वृ० ११७) गवाश्वं (नपुं०) बैल एवं घोड़े। गा (स्त्री०) [गौ डा] गाना वाणी, बोलना। (सुद० ) 'मातुः गवाकृतिः (वि०) गाय की आकृति वाला। स्वरे गातुमभूत्' (जयो० ९८४८३७) (वीरो०५/१) श्लोक गवानृतं (नपुं०) अल्पक्षीर वाली गो को अधिक क्षीर वाली कहना। गाथा। (सुद० १२३) गातुं कतु लग्ना। गातुमारेभे (वीरो० गवालीकं देखो ऊपर। गो के प्रति झूठ बोलना। ५/१७) गविनी (स्त्री०) गो समूह।। गाङ्ग (वि०) [गङ्गा+अण्] गंगा में होने वाला। (समु० ३/१०) गवीन्द्रः (पुं०) ग्वाला, गोपालक। गङ्गाभ्कर (पुं०) गङ्गा प्रवाह, गङ्गा गति। (समु० ३/१०) गवीश्वरः (पुं०) गोपालक। सपदि मंथगुणेन गवीश्वरो यदिव गाङ्गटः (पु.) एक प्रकार की मछली। दन उपैति नवोद्धृतम्। (जयो० वृ० २५/६३) गाङ्गायनि (पुं०) भीष्म। गवीशः (पुं०) गोपालक। गाङ्गेय (वि.) [गङ्गा ढक्] गंगा में उत्पन्न होने वाला। गवेडुः (पुं०) चारा, घांस। गाजरं (नपुं०) गाजर। गवेष् (सक०) खोजना, पूछना, प्रयत्न करना। गाञ्जिकायः (पुं०) बत्तख। गवेष (वि०) [गवेष्+अच्] खोजने वाला, पूछताछ वाला। गाढ (भू०क०कृ०) [गाह+क्त] १. गहरा, गम्भीर, सघन, गवेषः (पुं०) पूछताछ, खोज। प्रबल, प्रचण्ड, प्रगाढ, अत्यधिक। 'पीत्वाऽऽतनं यन्मदमाप गवेषणं (नपुं०) [गवेष्+ ल्युट्] खोज, प्रसमीक्षण। (जयो० गाढम्।' (जयो० १६/३२) २. स्नान युक्त, गोता लगाया १३/७१) हुआ। गवेषणा (स्त्री०) गृहीत अर्थ का अन्वेषण। गाढं (अव्य०) ध्यानपूर्वक, प्रचण्डता से, बलपूर्वक। गवेषित (वि०) [गवेष् क्त] पूछा गया, खोजा गया, अन्वेषण | गाढता (वि०) सघनीभूत, अत्यधिकता। (जयो० वृ० १३/४८) किया गया। गाढदृष्टि: (स्त्री०) तीव्र विक्षेप। गव्य (वि०) [गो+यत्] उपयुक्त गायों के लिए ठीक। गाढमुष्टि (वि०) लोलुपी, लालची, बन्द मुष्टि वाला। (जयो० गव्य (वि०) गोदुग्ध, गाय का दूध। 'पयो गव्यं गोदुग्धमिव ७/२१) भवति।' (जयो० वृ० २/७८) गाढान्धकारः (नपुं०) प्रगाद् अन्धकार, सघन अन्धकार। गव्यूत देखो नीचे गव्यूति। गाढालिङ्गन (नपुं०) दृढ आलिंगन, अत्यधिक दबाना, अधिक गव्यूतिः (स्त्री०) दो कोस, दूरी का एक माप। 'दो धणुसहस्साई स्नेह दर्शाना। गाउयं' दो धनुष को गव्यूत कोश। गाणपत (वि०) गण से सम्बन्धित। गह् (सक०) पहुंचना, सघनता होना। गाणपत्य (वि०) गण का पूजक। गहन (वि०) [गह् + ल्युट्] १. गहरा, सघन, साद्र, अभेद्य, | गाणिक्यं (नपुं०) [गणिकानां समूह] गणिका समूह। दुर्गम, अत्यधिक। 'हेऽपयोग-गहनोदधिं' (जयो० ४/३) गाण्डिवः (पुं०) [गाण्डिरस्त्यस्य संज्ञायां व पूर्वपद-दी? २. कठोर, दृढ़, कष्टकर। विकल्पेन] अर्जुन का बाण। For Private and Personal Use Only Page #362 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir गाण्डीविन ३५२ गारुणिक गाण्डीविन् (पुं०) [गाण्डीव+ इनि] अर्जुन। गातागतिक (वि०) जाने आने के कारण उत्पन्न। गातानुगतिक (वि०) अंधानुकरण से उत्पन्न। गातुः (पुं०) [गै+तुन] १. गीत, गाना, २. कोयल, ३. भ्रमर, ४. गन्धर्व गातृ (पुं०) गवैया, गन्धर्व। गात्रं (नपुं०) [गै+त्रन्] शरीर, देह, काया, तनु। 'तपः प्रसिद्धयर्थमिहास्ति गात्रम्' (दयो० २/११) 'कलङ्कितामेति तुषारसारगात्रोऽपिरात्रे«दयैकहारः।' (जयो० १५/५८) गात्रकर्मन् (नपुं०) शरीर क्रिया। गात्रकर्षणं (वि०) गात्र को कश करने वाला। गात्रप्रमार्जनी (स्त्री०) तौलियां। गात्रमार्जनी (स्त्री०) अंगोछा, तौलिया, प्रक्षलिनी। गात्रयष्टि: (स्त्री०) कृश शरीर। गावरूहं (नपुं०) बाल, केश, रोम। गावलता (स्त्री०) सुकुमार देह। गात्रसंकोचिन् (पुं०) सेही, झाऊ, मूषक। गात्रसंप्लवः (पुं०) लघु पक्षी, गोताखोर पक्षी। गात्री (वि०) सुकुमार शरीरी। (वीरो०३/१८) गाथ: (पुं०) [गै+थन्] गीत, भजन, स्तवन। गाथक (वि०) [गै+थकन्] संगीतज्ञ, संगीतवेत्ता। गाथा (स्त्री०) १. छन्द, श्लोक, आर्या छन्द, गेय प्रधान छन्द। २. प्राकृत साहित्य का प्रसिद्ध छन्द जिसके प्रथम चरण में १२, द्वितीय चरण में १८, तृतीय में १२ और चतुर्थ चरण में १५ मात्राएं होती है। इसके लक्ष्मी, विद्या आदि २७ भेद होते हैं। आचार्य ज्ञान सागर ने गाथा का अर्थ प्रतीत, आभास होना भी कहा है। जिनालयाः पर्वततुल्यगाथा: समग्रभूसम्भवदेणनाथा:। (सुद० १/३१) गाथिका (स्त्री०) [गाथा+कन्+टाप्] गीत, श्लोक, छन्द। गाध् (सक०) खड़ा होना, ठहरना, रहना, कूच करना. डुबकी लगाना, खोजना। गाध (वि०) [गाध्+घञ्] उथला, कम गहरा। गान (नपु०) [गै+ल्युट्] सङ्गीत, गीत, भजन। 'गान-मान विलसद्गलनाला' (जयो० ५/३९) गान्त्री (स्त्री०) [गन्त्री+अण+डीष] बैलगाड़ी। गान्दिनी (स्त्री०) [गोदा+णिनि] गंगा। गान्धर्व (वि०) [गन्धर्वस्येदम्] गन्धर्वो से सम्बन्ध रखने वाला। गान्धर्वः (पुं०) १. गायक, स्वर्ग का गायक, दिव्य गायक। २. गान्धर्व विवाह पद्धति। गान्धर्वं (नपुं०) गन्धर्व कला। गान्धारः (पुं०) [गन्ध अण--गान्ध: ऋ+ अण] (जयो० ११/५७) १. राग। सङ्गीत के सप्त स्वरों में से तीसरा स्वर। 'षड्जर्षभ-गान्धार-मध्यम-पम- धैवत निपादनामकेप सप्तस्वरेषु तृतीयस्वर-गान्धार:। (जयो० १० ११/४२) २. गान्धार नामक देश। गान्धारिः (पुं०) शकुनि, दुमका मामा। गान्धारी (म्बी०) धृतराष्ट्र भी मार्ग। गान्धार के राजा सुबल की पुत्री तथा धृतराष्ट्र गन्नी। गान्धारेयः (पुं०) [गा-धार्ग सपत्यम्-हक्] दुर्योधन। गान्धिक (वि०) पना बोचर काना गंभी, लिपिकार। गान्धिकार्पित जिगन्धदायक गायिकेन गन्धदायकेनार्पित' (जया० ) गांधी (पं0 गांधी नाम विशेष। मोहनदास कर्मचंद गांधी, महाभा गांधी गाति 'प्रसिद्धो राष्ट्र पुरुषस्तस्येदं गांधियं शोभनं गायियं सुगन्धियं-गांधी सम्बंधिकार्यमिता।' (जयो० १८/८३) जिनका जन्म २ अक्तूबर १८६९- मृत्यु-१९४८॥ गामधिय (वि०) प्रशंसनीय। (सुद० ९४) गामिणी (वि०) आदर्श मार्ग अनुकरण करने वाली, परिगाहिनी। (जयो० वृ० २/११९) गामिन् (वि०) [गम्+णिनि] भ्रमणशील। गाम्भीर्य (वि०) गहराई, अगाधता। गाम्भीर्य कौशल कलादसकौ विचारः। गाम्भीर्यमन्तस्थशिशौ विलोक्यं (वीरो० ६/६) (जयो० २०/२७) गाय: (पुं०) [गै+घञ्] गाना, भजन, गीत। गायकः (पुं०) [गै+ण्वुल] संगीतकार, संगीतज्ञ, गायक। गायक एव जानाति रागोऽत्रायं भवेदिति। (वीरा० १६/१२) गायत्रः (पुं०) [गायत्री+अण] गीत, सूक्त। गायत्री (स्त्री०) [गायन्ते त्रायते-गायत्+त्रा+काङीष] गायत्री सूक्त, गायत्री छन्द। गायनः (पुं०) [गै ल्युट्] संगीतज्ञ, गायक। 'विनोदवशाद् गायन्तीनां गीतश्रुतेरति शयमाधुर्य।' (वीरो० वृ० २/१३) गारुड (वि०) [गरुडस्येदम् अण] गरुड सदृश। गारवः (पुं०) एक ऋद्धि, जिससे सुख्खसामग्री की प्राप्ति हो। गारुडः (पुं०) १. पन्ना, एक बहुमूल्य रत्न। २. मंत्र, ३. स्वर्ण। गारुणिक (वि०) [गारुड+ठक्] ऐन्द्रजालिक, विष नाशक औषधियों का विक्रेता! (समु०४/१४) For Private and Personal Use Only Page #363 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir गारुडि ३५३ गिरिस्रवा गारुडि देखो ऊपर। गारुडिन् (वि०) गारुडी, सर्प विद्या वाचक। (सुद० १३३) गार्दभ ( वि०) [गर्दभस्येदम] गर्दभ सम्बंधी। गार्द्धयं (नपुं०) [गर्द्ध ष्यन्] लालच, प्राप्त इष्ट वस्तुओं के पति आसक्ति। गार्ध (वि०) गर्भ सम्बंधी। गार्भिक (वि०) भ्रूण विषयक, गर्भ सम्बन्धी। गार्भिण (वि०) [ गार्भिणीनां समूह भिक्षा अण] गर्भावती स्त्रियों का समूह। गार्हपतं (नपुं०) गृहपति पद। गार्हपत्यः [गृहपतिना नित्यं संयुक्त संज्ञायां व्य] गृहपति पद। गाहमेध (वि०) गृहपति के योग्य। गार्हस्थ्य (नपुं०) [गृहस्थ+ष्यञ्] गृहस्थता (जयो० वृ० ३/६४) ____ गृहस्थी, घर सम्बन्धी। (वीरो० ९/६) गार्हस्थ्यमार्गः (पुं०) गृहस्थी मार्ग। (जयो० १२/१०) गालनं (नपुं०) [गल+णिच्+ ल्युट्] गलना, पिघलना, छानना। गालवः (पुं०) [गल+घञ्] लोध्र वृक्ष। गालिः (स्त्री०) [गल+इन्] गाली, दुर्वचन, अपशब्द। गालित (वि०) [गल+णिच्+क्त] प्रक्षालित, छाना गया, पिघलाया गया। गालोइयं (नपुं०) [गालोड्य+अण] कमल का बीज। गाहू ( अक०) स्नान करना. डुबकी लगाना, बिलोना, आलोडित करना। गाहः (पुं०) [गाह्+घञ्] गोता लगाना, स्नान करना। गाहनं (नपुं०) [गाह। ल्युट्] डुबकी लगाना, गोता लगाना। गाहित (वि०) [गाह् + क्त] गोता लगाया, स्नान किया हुआ। गिंडोलः (पुं०) एक जंतु। (सम्य० ५१) गिन्दुकः (पुं०) १. गेंद, २. वृक्ष विशेष। गिर् (स्त्री०) वाणी, शब्द, भाषण, भाषा, वचन, कथन। गिरमर्थयुतामिव स्थितां ससुतां संस्कुरुते स्म तां हिताम्। (सुद० ३/१२) 'कृत्वा हृद् गिरमपि प्रशस्तौ।' (सुद० गिरिः (पुं०) पर्वत, पहाड़, नग। 'अहो गिरेगह्वरमेव सौधमरण्यदेशे गिरिणा (सुद० ११७) गिरि (वि०) [गृ+इ+किच्च] पूजनीय, सम्माननीय, आदरणीय। गिरिकच्छपः (पुं०) पर्वतीय कछुवा। गिरिकष्टकः (पुं०) इन्द्र का वज्र। गिरिकदम्बः (पुं०) पर्वतीय कदम्बतरु। गिरिकन्दरः (पुं०) पर्वत की गुफा। (दयो० २२) गिरिकर्णिका (स्त्री०) भूमि, भू। गिरिकाननं (नपुं०) पर्वत निकुंज। गिरिकुहर: (पुं०) पर्वत गुफा। (दयो० २२) गिरिकूटं (नपुं०) पर्वत शिखर। गिरिगंगा (स्त्री०) पर्वतीय नदी, गंगा नदी। गिरिगुङः (पुं०) गेंद, कन्दक। गिरिचर (वि०) पर्वत पर विचरण करने वाले। गिरिजा (वि०) पर्वत पर उत्पन्न। गिरिजा (स्त्री०) १. पार्वती, गौरी, शिवाङ्गना, पर्वत पुत्री। २. पहाड़ी कदली। ३. गंगा। ४. मल्लिका लता। गिरीश्वरः सोमसमृद्धभालभृत्वमस्ति सेयं गिरिजापि जायते। (जयो० २४/४४) 'गिरिमाश्रित्य जातेति' (जयो० वृ० २४/४४) पार्वती रूपास्ति। (जयो० वृ० २४/४४) गिरितनयः (पुं०) कार्तिकेय। गिरिनंदनः (पुं०) कार्तिकेय। गिरिपतिः (पुं०) शिव, शंकर। गिरिपुष्पकं (नपुं०) शिलाजीत, एक शक्तिशाली औषधि। गिरिपृष्ठः (पुं०) पर्वत शिखर। गिरिप्रपात: (पुं०) पर्वतीय ढलान। गिरिप्रस्थः (पुं०) पर्वत प्रान्त की भूमि। गिरिमल्लिका (स्त्री०) कुटज वृक्ष। गिरिमानः (पुं०) विशालकाय हस्ति। गिरिराजः (पुं०) सुमेरु पर्वत, हिमगिरि। गिरिशः (०) [गिरौ कैलासपर्वते शेते-गिरि-शी+ड वा] शिव। गिरिशालः (पुं०) एक पक्षी। गिरि-शृंगः (पुं०) १. उन्नत शिखर, २. गणपति। गिरिषद् (पुं०) शिव। गिरिसानु (नपुं०) पठार। गिरिसारः (पुं०) अयस्क, लोह। गिरिसुता (स्त्री०) पार्वती। गिरिमवा (स्त्री०) पर्वतीय सरिता। गिरगट : (पुं०) सरट। (जयो० वृ० ५/१३) गिरदेवी स्त्री०) सरस्वती, भारती। गिरा (स्त्री०) वाणी, भाषा, वचन। (जयो० १/४) 'जगौ गिरा वल्लकिकां जयन्तीं।' (सुद० २/१२) स्वयमुत्तमत्त्वं विषयो दधानः स चाधुना सक्रियते गिर नः।। (वीर० १२/२) मुर्गिरा मोदमही पुनीतो। ( सूट For Private and Personal Use Only Page #364 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir गिरीन्द्रः ३५४ गुञ्जा गिरीन्दः (पुं०) सुमेरु, हिमालय। गीतिः (स्त्री०) १. स्तुति, गान, संकीर्तन। सार्हत्सद्गुण गीतिरेव गिरीशः (पुं०) सुमेरु, हिमालय। सुदृशा क्लृप्ता प्रतीतिस्तु मे। (जयो० ८/८५) २. प्रशंसा, गिरीश्वरः (पुं०) शिव, महादेव। १. प्रशस्त वाणीश्वर। गिरां गुणस्तवन। सा गीतिं जगाविति पुन : कलितप्रशंसा (सुद० वाचामीश्वरोऽधिपः प्रशस्तवाणीश्वरोऽसि। (जयो० २४/४४) १२३) २. गिरीश्वरः शिवोऽथ च गिरीणामीश्वरः कैलासः। (जयो० गीतिका (स्त्री०) [गीति कन्+टाप्] गाना, गीत, लघुस्तुति। २२/४४) गिरीश्वरः पर्वत मुख्यो महादेवश्च। (जयो० गीतिन् (वि०) सस्वर पाठ युक्त। २४/६) ३. उर्वीध्रपतिः (जयो० ) ४. बृहस्पति-गिरामीश्वरा गीतिपरायणं (नपुं०) गीतिकाव्य में निपुण। (सुद० १२३) वाग्मिनो बृहस्पतिः। (जयो० वृ० ५/८१) ५. सुमेरू गीतिरीतिः (स्त्री०) गीति के प्रकार, संगीत की विविधकला। पर्वत-प्रतिभाति गिरीश्वरः स च। (वीरो०७/१९) यातु ताल-लय-मूर्च्छनादिभिर्जुनकीर्तनकलाप्रसादिभिः। गिरीशसानु (पुं०) पर्वतराजशृंग भाग। गिरीशस्य पर्वतराजस्य गीतिरीतिमपि तच्छृतात्पुनर्म वाक्त्वमिह विश्वमोहनम्।। सानुःशृंग भागस्तस्मात् गगनरूप पर्वतोपरिमस्थलात्। (जयो० गीतिशास्त्राद् गीतानां रीतिः प्रकार: (जयो०२/६०) वृ० १५/१३) गीतिशास्त्रं (नपुं०) संगीतशास्त्र। (जयो० २/६०) गिल् (सक०) निगलना, चबाना। गीर्ण (वि०) []+ क्त] निगला हुआ, वर्णित, कथित, वर्णन गिल (वि०) निगला गया, उदरस्थ किया गया। किया गया. गाया गया। गिलः (पुं०) नींबू वृक्षा गीर्णिः (स्त्री०) [गृ+क्तिन्] प्रशंसा, यश। गिलगिलः (पुं०) मगरमच्छ, घड़ियाल। गी देवी (स्त्री०) सरस्वती, भारती। गिलनं (नपुं०) [गिल्+ल्युट] निगलना, खा लेना। गीर्वाण (पुं०) सुर, देवता। गिलित (वि०) [गिल्+क्त] निगला हुआ, खाया हुआ। गीर्वाण-वाणी (स्त्री०) देववाणी। सनाभयस्ते त्रय एव गिष्णुः (वि.) गाने वाला। गी: (स्त्री०) १. वाणी, भाषा, वचनवाक्। मम सुलोचनायास्तु यज्ञानुष्ठायिनो वेदपदाऽऽशयज्ञाः। गीर्वाणवाण्यामधि कारिणोऽपि समो ह्यमीषामपरो न कोऽपि।। (वीरो० १४/३) गीर्वाणी (जयो० वृ० २४/४४) नियोगिने तस्य समस्ति नो गीः। (जयो० वृ० २७/६) २. सरस्वती (जयो० १२/१८) गु (सक०) मलोत्सर्ग करना, गीत (वि०) गया गया, उच्चरित किया गया, घोषित किया। गु (स्त्री०) रश्मि, किरण। (जयो० वृ० १/९६) गीतं (नपुं०) गीत, गाना, भजन, कथन, प्रणीत, संकीर्तन, गुग्गुलः (पुं०) राल, गोंद, गुग्गल, गूगल नामक औषधि। लयात्मक शब्द। धान्यस्थली-पालक-बालिकानां (जयो० १९/७६) गीतश्रुतेनिश्चलतां दधानाः। (वीरो० २/१३) गुग्गुलधूपः (पुं०) गुग्गल औषधि की धूप। (जयो० १९/७५) गीतकं [गीत+कन्] स्तोत्र, स्तुति, गान। गुच्छ: (पुं०) गुच्छा, फूलों का समूह। [गु+क्विप्-गुत्) मयूरपंख। गीतक्रमः (पुं०) गान परम्परा। गुच्छकः (पुं०) गुच्छा, पुष्प समूह, गुलदस्ता। कशिम्ब (जयो० गीतज्ञ (वि.) गानकला में प्रवीण। १५/६२) गीतनियुक्तिः (स्त्री०) गीत शब्द, गान भाव। केवलं न भविता गुज् (अक०) गुंजार करना, गूंजना, भनभनाना। गुं गुं शब्द मृदुभुक्तिः सम्भविष्यति च गीतनियुक्तिः । (जयो० ४/५२) करना, गुन गुनाना। 'गीतानां नियुक्तिरपि सम्भावष्यति' (जयो० वृ० ४/५२) गुजः (पुं०) [गुज+क] गूंजना, गुनगुनाना। गीतप्रिय (वि०) गान विद्या कुशल, गान विद्या प्रेमी। गुञ् (अक०) गूंजना, शब्द टकराना। (सुद० ८२) आम्रस्य गीतमोदिन् (पुं) किन्नर, गन्धर्व। गुञ्जत्कलिकान्तराले लीकमेतत्सहकारनाम। (वीरो०६/२१) गीतवती (वि०) गान करने वाली, गाने वाली। 'विपिनेऽस्यकुतोऽपि | गुञ्जनं (नपुं०) [गुन्+ ल्युट्] गूंजना, भिनभिनाना, मंद मंद कौतुकान् मिलिता गीतवतीसु तासु का। (समु० २।८) शब्द करना, ध्वनि करना। 'गर्जनं वारिदस्येव दुन्दुभेरिव गोतवन्त (वि०) गीतज्ञ, गीत गाने वाला। निवार्यमाणा अपि गुञ्जनम्' (वीरो० १५/१) गीतवन्तः सत्यान्वितैरागमिभिर्हदन्तः। (वीरो० १८/५३) । गुञ्जा (स्त्री०) [गुञ्ज+अच्+टाप्] धुंधची, गुमची, काजीफल, गीता (स्त्री०) कर्म प्रधान गेयात्मक काव्य। कृष्णला। गुञ्जा नामक लता में लगने वाला फल, जो For Private and Personal Use Only Page #365 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir गुजाफलं ३५५ गुणगीता ऊपर बिन्दु से काला और शेष लाल वर्ण वाला। इसका * शौर्यादि गुण। (जयो० १/१०) वजन २-१/१५ ग्रेन १/४ ग्राम बराबर होता है। (जयो० * सूत्र, तन्तु धागा। (जयो० १/१०) २१/४८) भिल्लन्योज्झनलम्भने स सुमणिर्गुञ्जापि गुञ्जात्र * गुणोदयकाव्य आचार्य ज्ञानसागर रचित (जयो० १/२) भो! (मुनि० १४) 'परं गुञ्जा इवाभान्ति' (जयो० २/१४६) * प्रशंसा-'गुण प्रशंसा तामित' (जयो० १/९५) 'गुणानां गुञ्जाफलं (नपुं०) काञ्जीफल, 'काञ्जीफलयत् गुञ्जाफलवत्' शीलादीनां वृद्धिर्यथोत्तरमुत्कर्षप्राप्तिः' (जयो० वृ० १/९५) (जयो० वृ०६/३५) * सौन्दर्य-'गुणेन तस्या मृदुना निबद्धः'। (जयो० १/७१) गुञ्जारित (वि०) गुंजार युक्त। * क्षमादि विशेष (जयो० वृ० १/३२) गुञ्जिका (स्त्री०) गुञ्जाफल। घुघली, गुमुची। * शुभ्र गुण शुभैर्गुणैरर्जुन एव नान्य (जयो० १/१८) गुञ्जित (भू०क०कृ) [गुञ्ज+क्त] गुनगुनाना, मंद शब्द करना। * चाप, प्रत्यंचा -'भुवि महागुण-मार्गण-शालिना' (जयो० गुटिका (स्त्री०) [गु+टिक्+टाप्] गोली, गोला, पिण्ड। १/९८) गुणस्य ज्याया अधिकारेण (जयो० वृ० ६/६८) गुटी (स्त्री०) गुटिका, गोली। * गुण-रज्जु, रस्सी, सूत्र, धागा। (जयो० वृ० १/३२) गुडः (पुं०) [ गुड+क] शीरा, राब, इक्षु रस से निर्मित गुड़। * गुण-वैशेषिक मत में मान्य (जयो० वृ० २६/३२) येषां गुडाज्जातेव शर्करा (वीरो० २८/७) फाणि, मधुरं (जयो० मतेनाथ गुणः स्वधाम्ना। १२/७) * गुण-विषयसेवन-गुणो विषयसेवनं' (जयो० २/६८) गुडकः (पुं०) [गुड कन्] ०भेली, पिण्ड, गुड की पारी, * गुण-शौर्यादि (जयो० वृ० १/३१) परिया ०गुड से तैयार औषधि। * गुण-सन्धि विशेष। 'गुण एप् अदेङ्' (जयो० वृ० गुडपीठी (स्त्री०) गुड भेली। (वीरो० ५/वृ० ३०३) १/३) गुडलं (नपुं०) गुड से निर्मित। * द्रव्याश्रय-द्रव्याश्रया निर्गुणा गुणा (सम्य० ५/४०) गडा (स्त्री०) [गुड टाप] कपास का पौधा। १. बटी. गोली। * वर्तना-काल-परिवर्तन (त० सू० ५/३९) गुडाका (स्त्री०) [गुड आ कै+क+टाप्] गुडयति संकोचयति * सामान्य-गुण का नाम सामान्य। (वृ० ८४) गुणाः देहेन्द्रियादीनि इति गुडः तमाकति प्रकाशयति ०तन्द्रा, शक्तिविशेषाः (त०भा० ५/३७) निन्द्रा, आलस्य। * सरिस-सदृश परिणाम-'सरिसो जो परिणामो अणाइणिहणे गुडागुडायनं (नपुं०) खांशी। हवे गुणो सो हि' (कार्ति० २४१) गुडेरः (पुं०) भेली, पिण्ड, परिया। गुणव (वि०) गुणन करने वाला। गुण (सक०) गुणा करना, उपदेश देना, निमंत्रण करना। गुणकार (वि०) गुणोत्पादक। (जयो० १६/८२) हितकर, गुणः (पुं०) १. स्वभाव, प्रकृति, प्रभाव, (जयो० १/२) २. लाभदायक, यथेष्ठ। परिणाम, फल, परिणति। (सुद० २/२) 'जिह्वा गुणि गुणकारिणी (वि०) गुणवती, गुणोत्पादिका, हितकारी, लाभकारी। गुणेषु सञ्चरञ्चेतसा' (जयो० ३/२) 'गुणिनां पूज्यपुरुषाणां (जयो० १६/८२) गुणेषु शीलेषु जिह्वया रसनया कृत्वा सञ्चरन्' (जयो० वृ० गुणकारित्व (वि०) गुणकारी, गुणज्ञता प्राप्त। ३/२) कुतोऽत्र भो रक्त-विरक्तनामभेदं गुणे वस्तुतयेतियामः। गुणकीर्तनं (नपुं०) गुण स्तवन। (जयो० ६/७०) (सम्य० १२३) गुणगत (वि०) गुणों को प्राप्त। (जयो० ६/३२) * रत्नत्रयगुण-ज्ञान, दर्शन, चारित्र। गुणगह्वरः (पुं०) गुणों की गम्भीरता। * पुद्गलगुण रूप, रस, गन्ध वर्णवंतः। (सम्य० ११) गुणगह्वरी (वि०) गुण गरिष्ठता, गुण की विशेषता। (सुद० * वस्तुगतध्रुवांश-'ध्रुवांशमाख्यान्ति गुणेति नाम्ना' (वीरो० ११७) रविप्रतीपश्च निशासु दीपः शमी स जीयाद् ७/१८) गुणगह्वरीपः। (सुद० ९/१) * स्वभाव, प्रकृति-'भूरञ्जनो यस्य गुणश्च देवा' (जयो० । गुणगानं (नपुं०) गुणस्तुति, गुणकीर्तन, गुण प्रशंसा। (सुद० १/३७) * सत्कर्म- (जयो० ११/१०) गुणगीता (स्त्री०) गुण परिपूर्णा, गुणवर्णन। 'गुणानां गीता ७०) For Private and Personal Use Only Page #366 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir गुण-गुणी ३५६ गुणभद्रभूत चा यस्याः सा गुणपरिपूर्णा' (जयो०५/३३) योगिराजपदताऽऽपि गुणनिका (वि०) गुणग्राहिका 'गुणेन सह निका गुणनिका पुनीता यस्य विस्तृतमा गुणगीता' (समु० ५/३०) गुणग्राहिका।' (जयो० २४/१२९) गुण-गुणी (स्त्री०) अङ्ग अङ्गी, अवयव-अवयवी। वैशेषिक | गुणनिका (स्त्री०) १. आवृत्ति, अध्ययन, घोकना, याद करना। दर्शन गुण को गुणी से भिन्न मानता है। जैनदर्शन के गुण २. शून्य। 'गुणेन सह निका गुणनिका गुणग्राहिका शून्यरूपा और गुणी में तादाम्य सम्बन्ध मानता है। गुण और गुणी चा' (जयो० वृ० २४/१२९) में प्रदेश भेद न होने से एकरूपता है। मात्र संज्ञा, संख्या | गुणनीय (वि०) [गुण+अनीयर] १. गुणन योग, गुणा करने तथा लक्षण आदि की अपेक्षा भेद है। गुण गुणीरूप है। योग्य। २. अध्ययनीय, अभ्यासनीय। और गुणी गुण रूप है। अतः इनमें तादाम्य सम्बन्ध है। गुणनीयः (पुं०) अभ्यास, अध्ययन। तादाम्य सम्बन्ध में जिस द्रव्य का जो गुण होता है उसका गुणपालः (पुं०) गुणपाल नामक सेठ, उज्जयिनी नगरी का उसी के साथ तादाम्य होता है। (जयो० २६/८१, ८२ वृ० एक राजसेठ। राजा वृषभदत्त के शासन का प्रमुख सेठ। १२०७) 'गुणपालाभिधो राजश्रेष्ठी सकलसम्मतः।' कुबेर इव यो गुणगुर्वी (वि०) गुणों की परिपूर्णता अखर्व। (जयो० वृ०६/८) वृद्धश्रवसो द्रविणाधिपः।।' (दयो० १/१४) गुणगृह्य (वि०) गुण प्रशंसक, गुण ग्राहक। गुणपूर्णगाथा (वि०) गुणगान। (समु० १/३) गुणगेह (वि०) गुण ग्राहक। गुणप्रकर्षः (पुं०) गुणों की श्रेष्ठता। गुणग्रहीत (वि०) दूसरों के गुणों को ग्रहण करने वाला। गुणप्रणीतिः (स्त्री०) गुणों की खानि। सौन्दर्य शाखाप्रियकारिणीति गुणग्रामः (पुं०) गुण समूह। नाम्ना सुकामादिगुणप्रणीतिः। (समु० ६/२५) गुणग्राहक (वि०) गुण ग्रहण करने वाला, गुण प्रशंसक। गुणप्रतिपन्न (वि०) संयम गुण को प्राप्त। गुणं संजमं (वीरो० १/१६) संजमासंजमं वा पडिवण्णो गुणपडिवण्णो' (धव० गुणग्राहिका (वि०) गुणनिका, गुण ग्रहण करने वाली। १५/१७४) गुणग्राहिणी। गुणप्रत्ययः (पुं०) गुणों का आधार, सम्यक्त्व गुण का स्थान। गुणग्राहिन् (वि०) गुणग्राही। गुणप्रमाणं (नपुं०) गुणनं गुणः, स एव प्रमाणहेतुत्वाद् द्रव्य गुणज्ञ (वि०) गुण प्रशंसक। प्रमाणात्मकत्वाच्च प्रमाणं प्रमीयते गुणैर्द्रव्यम्' (जैन ल० गुणज्ञता (वि०) गुण ग्राहकता। नमतः स्म गुरुनुदारभावैर्विनयान्ना- वृ० ४१३) प्रमाण का हेतु, गुणों का प्रमाण। स्त्यपरा गुणज्ञता वै। (जयो० १२/१०५) गुणप्रयोगः (पुं०) गणनप्रयोग, गणित शास्त्र संख्या योग। गुणत्रयं (नपुं०) तीन गुण युक्त ज्ञान, दर्शन, और चारित्र (जयो० वृ० १/३४) युक्त। गुण-प्रसक्तिः (स्त्री०) गुणानुराग। 'गुणप्रसक्त्याऽतिथये विभज्य' गुणतः (पुं०) गुणस्थान से। जैनसिद्धान्त में चौदह गुणस्थान (सुद० १३०) ___ माने गए हैं। योग आत्मनि सम्पन्नो दश्माद् गुणतः परम्। गुणवृद्धि (स्त्री०) गुणों की वृद्धि। गुणश्च वृद्धिश्च गुणवृद्धि: (सम्य० वृ० १४२) व्याकरण शास्त्रोक्तो संज्ञे तद्वान' (जयो० वृ० १/९५) गुण-तन्तुः (स्त्री०) प्राणी भाव बर्तन 'प्राणीनां भाववर्तनम्' गुणभद्र (पुं०) आचार्य गुणभद्र, जैन महापुराण के रचनाकार। (जयो० ४/२८) (जयो० २३/४१) गुणधर्मः (पुं०) गुणधर्म नाम। १. गुण भाव। गुणभदः (पुं०) माधुर्य गुण सहित। 'गुणेन मधुरत्वेन भद्रं गुणधर्मिणी (वि०) गुणधारिणी, गुणवाली, गुणस्वभावी, मङ्गलम्' (जयो० वृ० २३/४१) गुणश्री म भार्याऽस्य समानगुणधर्मिणी। (दयो० १/१६) गुणभद्रभाषित (वि०) आचार्य गुण भद्र कथित। (जयो० वृ० गुणदोषः (पुं०) गुणों पर दोष। क्षीर-नीर विवेक। (जयो० वृ० २३/४१) गुणभद्रभूत (वि०) आचार्य गुणभद्र के रूप में उत्पन्न हुआ। गुणधामः (पुं०) गुणाधार. गुणों का स्थान। (जयो० ४/३) गंगेव वाणी गुणभद्रभूता, महापुराणी जगतेऽस्ति पूता। गुणधी (स्त्री०) बुद्धिशाली। (समु० १/७) "८० ३/७) For Private and Personal Use Only Page #367 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir गुणभद्राचार्य: ३५७ गुणस्थः गुणभद्राचार्यः (पुं०) आचार्य गुण भद्र, प्रसिद्ध संस्कृत पुराणकार। गुणवच्छिरोमणि (वि०) गुणीश। (जयो० वृ० ३/८९) (जयो० वृ० २३/४१) गुणविवेचना (स्त्री०) माधुर्य विवेचना। गुणस्य माधुर्यस्य विवेचना गुणभूमिका (स्त्री०) गुणाधिकार। गुणानां भूमिका। (जयो० न्यूनाधिक्यनिर्णयस्तस्य (जयो० ६/६९) १/८६) गुणवृक्षः (पुं०) मस्तूल, स्तम्भ, जहाज को बांधने का स्तम्भ। गुणमार्गणशालिन् (वि०) गुणस्थान और मार्गणा स्थान पर गुणवृत्तिः (स्त्री०) मुख्य प्रवृत्ति। विचार करने वाले। (सुद० ४/४) गुणवतं (नपुं०) अणुव्रत का उपकारक, उत्तरगुण रूप। 'गुणाय गुणमाला (स्त्री०) उज्जयिनी के राजा वृषभदत्त की पुत्री। चोपकारायाऽहिंसादीनां व्रतानि तत् गुणवतानि' (दयो० ११०) 'गुणार्थमणुव्रतानामुपकरार्थव्रतम् गुणव्रतम्। गुणमाला (स्त्री०) गुणसमूह। (दयो० ११०) एक राजकुमारी, गुणशः (पुं०) अर्चना, पूजा (सुद० ९४) उपदेशविधानं यतोऽदं श्रेष्ठी कन्या। प्रतीक्षते गुणशस्य। (सुद० ९/१) गुणयुक्तः (पुं०) १. गुणों से परिपूर्ण। २. डोरी सहित। गुणशब्दः (पुं०) विशेषण। चापलतेव च सुवंशजाता गुणयुक्ताऽपि वक्रिमख्याता। गुणशालिन् (वि०) गुणशाली, गुणयुक्त। भवता कलयिष्यामि, (सुद० १/४२) 'गुणयुक्तोन्नतवंशसंस्तुतः' (सुद० ३/६) (समु० ३/४१) तदघ गुणशलिना। (समु० ३/४१) गुणरत्नः (पुं०) नाम विशेष। गुणसंकीर्तनं (नपुं०) गुणवर्णन, गुण विवेचन। (जयो० ६/३२) गुणरत्नं (पुं०) गुण रूप रत्न। समुद्रवत्सद्गुणरत्नभूपः विमानवत्सौर गुणसंक्रमः (पुं०) शुभ प्रकृतियों का क्रम। __ भवादिरूपः। (सुद० २/३९) न दीपो गुणरत्नानां जगतोमेक गुणसंख्यानं (नपुं०) गुण गणना, गुणविचार। दीपकः। (सुद० वृ० १३५) गुणसंग्रहः (पुं०) गुण ग्रहण, गुणोपार्जन। जनोऽखिलो जन्मनि गुणरीतिः (स्त्री०) उपकार पद्धति। 'गुणस्योपकारस्य रीतिर्यत्र' शूद्र एव यतेत विद्वान् गुणसंग्रहे वः। (वीरो० १७/३५) (दयो० ९४/६) गुणसंग्रहोचित (वि०) गुणों से भरे हुए। तुगहो गुणसंग्रहोचिते गुणलक्षणं (नपुं०) धर्माचरण रूप लक्षण। १. आन्तरिक गुण मृदुपल्यङ्क इवाहतोदिते। (सुद० ३/२२) का आधार। गुणानां ज्ञानादीनां धर्माचारादीनां लक्षणम्। | गुणसंस्तवनं (नपुं०) गुण संकीर्तन, गुणगान, गुण विवेचन। (जयो० १९/२३) मुक्तात्मभावोदरिणी जवेन। मुक्तात्मभावोहरिणी जवेन गुणलयनिका (स्त्री०) तम्बू। समर्हणीया गुणसंस्तवेन। (सुद० २/४) गुणवचनं (नपुं०) विशेषण, संज्ञा की विशेषता बतलाने वाला। गुण-संश्रवणं (नपुं०) गुण श्रवण, गुणों का सम्यक् श्रवण, गुणवाचकः (पुं०) विशेषणा गुणों का सुनना। गुण संश्रवणावसरे विज भणेनानुसूचिनी गुणवत् (वि०) [गुण+मतुप्] गुणी, श्रेष्ठ, गुणवान्, गुण शस्ताम्' (जयो० ६/३९) युक्त। निर्निमन्त्रणतया न भवद्भिर्यातुमेवमुचितुं गुणवद्भिः' | गुणश्रेणी (स्त्री०) गुणों की वृद्धि, परिणामों की विशुद्धि की (जयो० ४/१४) वृद्धि। कमप्रदेशों की निर्जरा का कारण। गुणवती (वि०) १. विलास विभ्रमादिवती, रुचिकारकत्व वाली। गुणसमुदयः (पुं०) गुण समूह। (जयो० १/२) (जयो० ३/६१) सम्पन्ना गुणवती व्यञ्जनैरखिलैः पूर्णा। गुणसागरः (पुं०) नाम विशेष, एक मुनि। १. गुण समूह। (जयो० ३/६१) गुणसारौः (पुं०) गुण रहस्य। गुणनांशृंगारादीना सारो विद्यते * गुणयुक्त, ज्ञानादिगुण सहित। 'गुणवतीव ततिर्वचसी' यत्र स गुणसारः। (जयो० १६/७३) (जयो० वृ० ९/१०) गुणसेनः (पुं०) १. नाम विशेष। २. गुणों की सेना। गुणनां * सौन्दर्यादिगुण युक्त मदन-मनोहरं च गुणवत्यो धैर्य-सौन्दर्यादीनाम् यद्वा मन्त्रि-सामन्तादीनां च सेना समूहो नववयोऽन्वयं वनं युवत्यः (जयो०१४/१६) यत्र' (जयो० ५/६५) गुणवती (स्त्री०) गुणवती आर्यिका। सन्निशस्य पुनेतदुदन्तं | गुणसेवक (वि०) गुणों की सेवा करने वाला। श्रीधराऽपि भगवज्जिनसन्तम् सन्निधाय हृदये गुणवत्या गुणसेविन् (वि०) गुणों का आराधक। (जयो० २०/६८) आर्यिकात्वमभजद्भुवि सत्याः।। (समु० ५/२५) गुणस्थः (पुं०) गुणस्थान, गुणों का आधार। स्यूते: समं For Private and Personal Use Only Page #368 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir गुणस्थल: ३५८ गुणैकवपुषं तूर्यगुणस्र्थेऽतो भवेत् प्रपूतिर्भवसिन्धुसेतो। (सम्य० पृ० गुणार्णवः (पुं०) गुण की अन्तिम सीमा। (जयो० ११/४२) १२५) गुणार्पणं (नपुं०) गुणों का आरोपण। 'गुणानामर्पणा तद्गुणारोपो गुणस्थलः (पुं०) गुणस्थान। देवायुषो बन्धनमप्रभत्तगुणस्थलानां ___भवति' (जयो० १/३२) क्रियते जगत्तः। (सम्य० १२०) गुणानुसारः (पुं०) गुणों के अनुसार। गुणस्थानं (नपुं०) गुणों का स्थान, गुणों का आधार। मोह गुणावती (स्त्री०) गुण समूह। (सुद० २/३०) और योग के निमित्त से आत्मा के परिणामों में तारतम्य' गुणालयः (पुं०) गुणाश्रय, गुणों का स्थान। (जयो० ७/२) (जयो० द्वि० २८/१४) गुणानां शील संयमादीना स्थानं गुणाश्रयः (पुं०) गुणाधार, गुणों का स्थान, गुणालय। (सुद० गुणस्थानम्' (जयो० वृ० २८/१४) ३/१०) 'निर्दोषरूपाय गुणाश्रयाय' (भक्ति० २१) गुणहीन (वि०) गुणों से रहित, ज्ञान दर्शन और चारित्रादि का गुणास्पदः (पुं०) गुणों का स्थान। (जयो० ९/५) अभाव। (जयो० ६/६९) गुणिका (स्त्री०) [गुण+इन+कन्+टाप्] सूजन, रसौली, गिल्टी। गुणहीनखट्वः (पुं०) बिना बुनी खाट रस्सी से रहित खाट। गुणिगुणः (पुं०) गुणियों के गुण। गुणीनां पूज्यपुरुषाणां गुणेषु (दयो० ८९) शीलेषु' (जयो० ३/२) गुणाकरः (पुं०) गुणों की खान। 'गुणानामकरः संचयो यत्र' गुणिजनः (पुं०) ज्ञानीजन, गुणिपुरुष। 'गुणिजनेषु पुनर्बहुमूल्यता' (जयो० २४/५२) (समु० ७/१५) गुणाढ्य (वि०) गुणों की समृद्धि। गुणित (वि०) संग्रहीत, प्रारम्भ। 'कुसुम-गुणित-दामनिर्मलं गुणाधारः (पुं०) गुणवान्, योग्य व्यक्ति, गुणशील व्यक्ति। सा' (जयो० १०/११३) १. गिना हुआ, गुणा किया गया। गुणाधिकारः (पुं०) गुणभूमिका क्षमादि के अधिकार। 'गुणानां २. गुणवत्तार (जयो० १/३९) क्षमादीनामधिकार:' (जयो ० ७० २७/२) | गुणितीरः (पुं०) गुणों जनों से घिरा, १. गुणयुक्त। गुणितीरं गुणानधिकोराऽधिकरणं यत्र तां गुणभूमिकामित्यर्थः' (जयो० गुणयुक्तस्तीरो यस्य' (जयो० ६/५८) वृ० १४८६) गुणिन् (वि०) [गुण+ इनि] गुण वाला, गुणी, गुणशाली। गुणाधीनं (नपुं०) गुण राग। गणिनि (स्त्री०) गुणशालिनी। 'यदि गणिनि स्वर्गेऽस्य विचारो' गुणाधीनता (वि०) गुणानुरागता। (जयो० वृ० २७/५३) (जयो० २२/६२) गुणाननुवदता (वि०) गुणानुवाद करने वाला, गुण प्रशंसक। गुणिवर्गः (पुं०) ज्ञानी समूह, विद्वत् समूह। (सुद० ४/३५) (जयो० १६/७०) गुणिवरः (वि०) गुणीश, गुणवत् शिरोमणि। (जयो० ३/८९) गुणानुरागः (पुं०) गुणाधीन, गुणों के प्रति आसक्ति। गुणी (स्त्री०) अङ्गी, अवयवी। (जयो० ३/८९) वैशेषिक दर्शन गुणानुरागवृत्तिः (स्त्री०) गुणों के प्रति अनुराग जन्य प्रवृत्ति। गुण को गुणी से भिन्न मानता है, जैसा कि आत्मा का (जयो० २७/५३) ज्ञान और आकाश का शब्द गुण क्रमशः आत्मा और गुणानुरागी (वि०) अनुरञ्जित, गुणों के प्रति रागवान्। (जयो० आकाश से भिन्न है। १७/५८) 'अनुरञ्जितः सन् गुणानुरागी भवन्' (जयो० गुणीभर्तृ (वि०) गुणवान्, गुणशाली। गुणी गुणवान् भर्ता ११/४) 'गुणानुरागी करमर्पयामि' (जयो० १७/५८) स्वामी यस्य' (जयो० वृ० ४/५) गुणाभिषेकः (पुं०) वृद्धिकरण दीक्षा प्रयोग, दीक्षा प्रयोग। | गुणीश (वि०) गुणिवर, गुणवत्, शिरोमणि, गुणशाली। (जयो० (जयो० १६/२५) शरीरिवर्गस्य तमां विवेकहान्या महान्याग ३/८९) गुणाभिषेकः। (जयो० १६/२५) गुणीशील (वि०) प्रशस्त, गुण युक्त। (जयो० ६/५८) गुणवन्तो गुणानुमानिन् (वि०) गुणानुरागी। (जयो० १२/४५) गुणिनो वसन्ति यतः, तथैव गुणीशाली प्रशस्तः। (जयो० गुणानुवादः (पुं०) गुण विवेचन, गुण संकीर्तन। (जयो० वृ०६/५८) ६/७०) गुणैकबन्धुः (पुं०) गुणों का स्थान, गुणाधार। गुणस्तस्येकोऽद्वितीयो गुणान्वयः (पुं०) गुण युक्त। (सुद० १/१) बन्धुस्तस्य' (जयो० वृ० १/४९) । गुणान्वित (वि०) गुणयुक्त। (जयो० ३/७६) गुणैकवपुषं (नपुं०) सुन्दर देह, गुणमय शरीर। (जयो० ६/२७) For Private and Personal Use Only Page #369 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir गुणैकसत्ता ३५९ गुप्तः (पुं०) वैश्यवर्ण 'गुप्तो वैश्यवर्णः सञ्जतो' (जयो० १८/५०) गुप्तकः (पुं०) [गुप्त कन्] संधारक, प्ररक्षक। गुप्तपयोधरः (पुं०) आच्छादित स्तन। (वीरो० २१/२) गुप्तिः (स्त्री०) [गुप्+क्तिन्] रक्षा, निग्रह, गोपन, आच्छादन, निरोध, प्रच्छादन, झम्पन, प्रवेशन, रक्षण। मन, वचन और काय की प्रवृत्ति का निरोध। 'सम्यग्योगनिग्रहो गुप्तिः' (न० सू० ९/४) १. आत्म रक्षण का नाम। 'यतः संसारकारणादात्मनो गोपनं सा गुप्तिः ' (स०सि० ९/२) 'गुत्ती जोणणिरोहो' (कार्ति० ९७) 'गुप्यतेऽनयेति संरक्ष्यते सा गुप्तिः ' २. बिल, गुफा, कन्दरा, ३. कारागार, बन्दीगृह। ४. छिपाना, लुकाना, ढकना। ५. म्यान, छोटी तलवार की म्यान। गुप्तिकर (वि०) गुप्ति का पालन करने वाले। गुप्तित्रयात्मक (वि०) त्रिविध गुप्तियों वाले। (जयो० वृ० गुणैकसत्ता (स्त्री०) गुणों की प्रधानता, पातिव्रत्यादि गुण से युक्त। (सुद० २/६) गुणों से गुम्फित। गुणैषणा (स्त्री०) सद् गणान्वेषिणी, उत्तम गुणों की इच्छा। (जयो० १३/४३) गुणोत्पादिक (स्त्री०) गुणवती। (जयो० ६/८२) गुणोदयः (पुं०) गुणों का प्रादुर्भाव। मानवर्जितमपरिमितपरिणाम' (जयो० २०/७०) गुणोरूपूर्ति (स्त्री०) गुणों की श्रेष्ठ पूर्ति। (सम्य० ५८) गुणोल्लसत् (वि०) गुणों से सुशोभित। 'गुणेनायुर्बलेनोल्लसति प्रभवति' (जयो० २३/३१) गुणौघः (पुं०) गुण समूह। गुणः क्षमादि: औघ: समूहः (जयो० १/३२) गुण्ठ् (सक०) परिवृत्त करना, घेरना, लपेटना, परिवेष्टित | करना। गुण्ठनं (नपुं०) [गुण्ठ+ ल्युट्] छिपाना, ढकना। गुण्ठित् (वि०) [गुण्ठ्+क्त] आवृत, परिवेष्टित, घिरा हुआ, आच्छादित। गुण्ड् (सक०) ढकना, छिपाना, पीसना, चूर्ण करना। गुण्डकः (पुं०) [गुण्ड्+अच्+कन्] चूर्ण, धूल, रज। गुण्डिकः (पुं०) [गुण्ड्+ठन्] आटा, चूर्ण, भोजन। गुण्डित (वि०) पिसा हुआ, आच्छादित, ढका हुआ। गुण्य (वि०) [गुण+यत्] प्रशस्य, उपयुक्त, समीचीन, वर्णन योग्य। गुत्सकः (पुं०) [गुष्+स+कन्] गट्ठर, गुच्छ, ग्रन्थ का अनुच्छेद। गुद् (सक०) खेलना, क्रीड़ा करना। गुदं (नपुं०) गुदा। गुदकीलं (पुं०) बवासीर। गुद-कीलकः (पुं०) बवासीर। गुद्गुदानं (नपुं०) मृदुल। (जयो० २७/१२) गुदग्रहः (पुं०) कब्ज, मलावरोध। गुदपाकः (पुं०) गुदा की सूजन। गुदस्तम्भः (पुं०) कब्ज। गुध् (सक०) लपेटना, ढकना, वेष्टित करना। गुन्दलः (पुं०) शब्द विशेष, ढोल का शब्द। गुप् (सक०) रक्षा करना, बचाना। गुपिलः (पुं०) १. रक्षक, २. नृप। गुप्त (भू०क०कृ०) अनभिव्यक्त, रक्षित, संयुक्त, अदृश्य। (वीरो० १२/१८) 'गुप्तोऽपि सन् धातुगतो यथार्थः।' (जयो० १६/४२) गुप्तिभाग (वि०) गुप्तांगों का भोक्ता। उत्कोच भागी, गोपनभागी। 'गुप्तिरुत्कोचस्तं भजतीति गुप्तिभाग।' (जयो० वृ०३/१५) गुफ्/गुम्फ् (सक०) गूंथना, बांधना, लपेटना, रचना, बनाना। गुम्फित (भू०क०कृ०) बांधा हुआ, बुना हुआ। गुम्फः (पुं०) [गुम्फ्+घञ्] बांधना, गूंथना। गुर (सक०) १. प्रयत्न करना, चेष्टा करना। २. क्षति पहुंचना। गुरु (वि०) अत्यधिक, भारी, बोझल, प्रशस्त, दीर्घ, लम्बा, विस्तृत, महत्त्वपूर्ण, आवश्यक प्रभावशाली, आदरणीय। गुरु (वि०) अध्यापक, शिक्षक, ज्ञान देने वाला। (जयो० ११/२६) १. बृहस्पति, वृषभदेव, ब्रह्मा। (जयो० ५/३२) गुणाति शास्त्रार्थमिति गुरुः। गुरोरनुग्रहप्राप्त्या समवापाच्छतामथ। (जयो० २८/१) गुरोः बृहस्पतेः, गुरोर्वृषभदेवस्य आदि तीर्थंकर ऋषभदेव, जैन धर्म के आद्यप्रवर्तक, आदि गुरु भी उन्हें कहा जाता है। (जयो० १/२) २. सच्चे गुरु-रत्नत्रय विशुद्ध। ३. स्थूलतर, विपुल। (जयो० ८/२) 'गुरुर्नितम्ब: स्विदुरोजबिम्बः' (जयो० ११/२४) 'स्वित्तत उरोजबिम्बोऽपि गुरुरस्ति' (जयो० वृ० ११/२४) 'गुरोनितम्बाबलिपर्वणां' (जयो० ११/२५) * गुरु-सर्वश्रेष्ठ (जयो० वृ० ११/२७) गुरुणां पुरुणामाण ऋषभदेव (जयो० १/२) * गुरु-पिता-'गुरुमाप्य स वै क्षमाधरं सुदिशो मातुरथोदयन्नरम्। (सुद० ३/२०) * गुरुदेव (सुद० १/९) For Private and Personal Use Only Page #370 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir गुरुक ३६० गुल्गुलर गुरुक (वि०) [गुरु कन्] भारी, वजनी। गुरुलाघवं (नपुं०) अत्यधिक महत्त्व, विशिष्ट मूल्य। गुरुकार: (पुं०) उपासना, पूजा। गुरुवर्गः (पुं०) शिक्षक गण, पूज्यवृंद। गुरुक्रमः (पुं०) उपदेश, शिक्षाक्रम। गुरुवर्गाश्रितमोहः (पुं०) पूज्यवंद के आश्रित मोह 'जननीगुरुक्तिः (स्त्री०) बृहस्पतिमत, गुर्वी उतिर्यस्याः सा जनकादि सम्भूतश्चासौ मोहः' (जयो० १३/२०) गुरुतरप्रशंसनीय चार्वाक मत। (जयो० ५/४३) गुरुवर्तिन् (पुं०) गुरु के समीप रहने वाला ब्रह्मचारी। गुरुजनः (पु०) श्रेष्ठ पुरुष, श्रद्धेय व्यक्ति, पूजनीय व्यक्ति। गुरुवर्तुलः (पुं०) श्रेष्ठ वर्तुलाकार, उत्तम गोलाकार। (जयो० गुरुगर्जित (वि०) अत्यधिक चिंघाड, तीव्र गर्जना। (जयो० ११/७) 'कलत्रचक्रे गुरुवर्तुले दकृ।' 'गुर च वर्तुलञ्च ८/२३) गुरुवर्तुलं तस्मिन् प्रशस्तगोलाकारे' (जयो० वृ० ११/७) गुरुगौरवः (पुं०) अपना गौरव, निज सम्मान। गुरुवाक् (नपुं०) पितृ आदि का कथन। गुरुणां पित्रादीनामाज्ञागुरुगौरवास्पदः (पुं०) जन्मदाता के गौरव पूर्ण स्थान, पितृस्थान। कारिणी (जयो० ५/९९) (जयो० २४/४२) गुरुर्जन्मदाता तस्य गौरवास्पदं स्थानम्' गुरुवासरः (पुं०) बृहस्पतिवार, गुरुवार। (जयो० वृ० २४/४२) गुरुवासिन् (पुं०) गुरु के समीप रहने वाला, ब्रह्मचारी। गुरुतर (वि०) १. उन्नत, बोझिल। 'गुरुतर-कार्येऽहं विचरामि' गुरुवृत्तिः (स्त्री०) उत्तम आचरण, गुरु का आचरण। (सुद० ९२) कुचो गुरुतरो जातौ (जयो० १४/४१) २. | गुरुशुक्लता (वि०) १. बृहस्पति और शुक्र का सदभाव। २. श्रेष्ठतर, दुर्भरतर (जयो० १५/९६) अत्याधिक शुक्लता, सफेदी की अधिकता। 'यस्यारिभावे गुरुतरकार्यः (पुं०) कठिन से कठिन कार्य। गुरुशुक्लतास्ति' (जयो० १५/६९) 'गुरुर्ब्रहस्पतिः शुक्लश्च' गुरुतरप्रतिबिम्बः (पुं०) श्रेष्ठ प्रतिबिम्ब। (जयो० १५/९६) "भृगुस्तयोर्भावः गुरुशुक्लता यद्वा गुर्वी शुक्लता धवली गुरुताप्रकाशिन् (वि०) गौरवशाली। 'गुरुतां प्रकाशयन्ति तान् भावोऽस्ति किता" (जयो० १५/६९) गौरवप्रकाशकान्। (जयो० २/७१) गुरुस्थानं (नपुं०) उन्नत स्थान, श्रेष्ठ स्थान। उपनीतः पुनर्भव्यो गुरुत्व (वि०) गुरुता, भारीपन, बड़कपन। गुरुस्थानमिवालिभिः। (जयो० १०/८५) गुरुदेवः (पुं०) बृहस्पति, ब्रह्मा, गुरुदेव। (जयो० ३) गुर्व (वि०) साधुता, श्रेष्ठ। (सम्य० ९२) गुरुदक्षिणा (स्त्री०) शिक्षक वृत्ति। गुवाभिज्ञ (वि०) श्रेष्ठता का ज्ञापक। (सभ्य० ९२१) गुरुदैवतः (पुं०) पुष्य नक्षत्र। गुर्विणी (स्त्री०) गर्भवती स्त्री। गुरुद्रोहः (पुं०) पूज्य के प्रति विद्रोह। कृत्येऽस्मिस्तु महानेवं | गुर्वी (वि०) गभीरार्थवती (जयो० २०/८१) 'अर्थातिशयेन गुर्वी गुरुद्रहो भविष्यति। (जयो० ७/४२) गभीगावती' (जयो० वृ० २०/८१) 'स्त्रीमात्रसृष्टावियमेव गुरुपदः (नपुं०) गुरु चरण, सच्चे गुरु की समीपता। गुर्वी' (जयो० ११/८४) २. गुरुभाव, उत्कृष्ट भाव, उन्नत ____ 'गुरुपदयोर्मदयोगं त्यक्त्वा ' (सुद० ९६) विचार। (जयो० वृ० १५/६९) ३. बड़ी, महत्। 'रेरवैकिका गुरुपादः (पुं०) गुरु चरण, अध्यापक चरण। 'प्रसङ्गप्राप्तैरस्माकं नैव लघुर्न गुर्वी' लध्व्याः परस्या भवति स्विदुर्वी गुर्वी गुरुपादैरूक्तम्' (दयो० १/१०) समुदित नेत्रवतीति प्रभवति समीक्ष्याथ लघुस्ततीयां वस्तुस्वभावः सुतरामितीयान्।। (वीरो० गुरुपाद-पसद् भावधृता। (सुद० ८२) १९/५) गुरुपादपः (पुं०) उन्नत वृक्ष, उत्तम लता। गुर्वीक (वि०) गुरु सेवक, पृथिवी सेवक, जमींदार, कृषि गुरुपूर्णिमा (स्त्री०) गौतम जन्म दिन, शिक्षक पूर्णिमा। (वीरो० पण्डित। गुर्वीक: गुरुणां सेवकः धराजीविकश्च (जयो० १३/३८) २८/९४) बर्धमानादनंभ्राज एवं गौतमचातकः गुलावं (नपुं०) गुलाब पुष्प। (वीरो० १३/४) लेभे सूक्तामृतं नाम्ना साऽऽषष्ठी गुरुपूर्णिमा।। गुलुच्छः (पुं०) गुच्छ, गुल्म, समूह। गुरुभम् (नपुं०) पुष्यनक्षत्र। गुल्गुलर (स्त्री०) नैवेद्य विशेष, मूलतः आटे में गुड़ मिलाकर गुरुमर्दल: (पुं०) मृदंग। तला हुआ मीठा भुजिया। अत्रत्यविस्मापन दैवतायार्पितापि गुरुरत्नं (पुं०) पुखराज। नासा खलु गुल्गुलाया। (जयो० ११/६२) For Private and Personal Use Only Page #371 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir गुल्फः ३६१ गृहच्छिदं गुल्फः (पुं०) टखना, घुटना। गुल्मः (पुं०) झाड़ी, झुरमुट, लता समूह। गुल्मिन् (वि०) [गुल्म+ इनि] लता समूह वाला। गुल्मी (स्त्री०) | गुल्म+अच्+ ङीष्] तम्बू। गुवाकः (पुं०) सुपारी का वृक्षा गुहु (सक०) ढकना, छिपाना, आच्छादित करना, गुप्त रखना। गुहः (पुं०) अश्व। गुहा (स्त्री०) गुफा, कन्दरा, बिल। शून्यागार-गुहा श्मशान निलयप्रायो प्रतीतो मुदा' (मुनि० २९) गुहात्मक (वि०) दरीमय, गर्त सहित। भूरिदरीमय नाना गुहात्मनोऽप्यस्ति' (जयो० वृ० २४/२०) गुहिन (नपु०) अरण्य, वन। गुहेरः (पुं० [गुह एरक] १. अभिभावक, २. संरक्षक। ३. ___ लुहार, अयस्ककार। गुह्य (सं०कृ०) गोपनीय, छिपाने योग्य, गुप्त एकान्तिक। (समु० ) 'वमेर्विधौ यद्यपि वक्त्रमूह्य विरेचने किंतुतथैव गुह्यम्' (जयो० २६७९) गुह्यभाषणं (नपुं०) गुप्त बात को प्रकट करना, सत्याणुव्रत में लगने वाला दोष। गुह्यलम्पट: (पुं०) गुप्त लालची। 'गुप्तरूपेण विषयलोलुप:' (जयो० वृ० २/३२) गू (स्त्री०) मल, विष्टा। गूढ (भू०क०कृ०) गुप्त, आच्छन्न, (सम्य० १२६, सुद० १०२) गभीर, आवृत्त, छिपा हुआ। (जयो० ५/५१) आच्छादित (जयो० १७/१७) गृढनीडः (पुं०) खंजनपक्षी। गूढपथः (पुं०) गुप्तमार्ग पगडंडी गृढपादः (पु०) सर्प। गूढपयोधरा (स्त्री०) नव वधू। (जयो० १४/५२) गृढपुरुषः (पुं०) दृत, गुप्तचर, भेदिया। गूढपुष्पकः (पुं०) वकुलतरु। गृढब्रह्मचारी (विc ) गुप्त रूप में ब्रह्म का आचरण करने वाला। गृढमार्गः (पुं०) गुप्तमार्ग, भूगर्भ। (जयो० २/१५४) गूढमैथुनः (पुं०) कौवा। गूढ रहस्यः (पुं०) गुप्त बातचीत। (जयो० १६/६२) गूढवर्चस् (पुं०) मेंढक गूढसाक्षिन् (पुं०) गुप्त साक्षी। गृढार्थः (पुं०) रहस्यपूर्ण अर्थ। (जयो० २१/८७) गृथ् (पुं०) [गू+धक्] विष्ठा, मल। गून (वि०) विसर्जित मल। गूलर: (पुं०) एक फल, उदुम्बर फल। गूषणा (स्त्री०) अक्षिकृति। गृहनं (नपुं०) गुप्त, छिपाना, आच्छादन करना, प्रकट न करना। तत्थं गृहणं किंचि कहणं भण्णइ। गृ (सक०) छिड़कना, तर करना। गृज्/गृञ् (अक०) गुर्राना, शब्द करना। गृञ्जनः (पुं०) [गृञ् + ल्युट्] १. गाजर, शलजम। २. गांजा। गृध् (सक०) गृद्ध होना, आसक्त होना, ललचाना। गृधु (वि०) [गृध्+कु] लम्पट, कामातुर। गृध्नु (वि०) [गृध्+क्नु] लोलुपी, लोभी, लालची, लम्पट। गृद्धिः (स्त्री०) आसक्ति। (सुद० १०२) गध्यं (नपुं०) लोभ, इच्छा, वाञ्छा, चाह। गृध्र (वि०) लोलुपी, लम्पटी। गृधं (नपुं०) पक्षी विशेष। गृष्टिः (स्त्री०) [गृह्णाति सकृतगर्भम्+ ग्रह+क्तिच्] वत्स देने वाली गौ। ग्रस् (सक०) ग्रसना, निकालना। 'नृलोकमेषा असते हि पूतना' (वीरो० ९/९) गृह (सक०) ग्रहण करना/गृह्णीयात् (सुद० ) गृह देखो ऊपर-पकड़ना, लेना। गृहं (नपुं०) घर, निवास, आवास, स्थान, भवन। गृह-कच्छपः (पुं०) कबूतर। गृहकपोतः (पुं०) पालतू कबूतर। गृहकरणं (नपुं०) गृहकार्य, गृह का कारण। गृहकर्मन् (नपुं०) १. गृहस्थकर्म, घर का कार्य। २. मूर्ति रचना, जिनप्रतिष्ठा। गृहकलहः (पुं०) घरेलू कलह, घर के लोगों की आपसी कलह। गृहकल्पः (पुं०) परिग्रहजन्य वेष। गृहकारकः (पुं०) गृह निर्माता। गृहकुक्कुटः (पुं०) पालतू मूर्गा। गृहकार्य (नपुं०) गृहस्थी का नाम। गृहकार्यनिमग्न (वि०) गृहस्थी के कार्य में निमग्न/लीन। 'गृहकार्ये रन्धनक्षोटनादौ निमन्नासीत्' (जयो० २२/३७) गृहाच्छदं (नपुं०) गृह की कमजोरियां, गृह में अशान्ति, राजन्निरीक्ष्यतामित्थं गृहच्छिद्रं परीक्ष्यताम्। (सुद० १०८) For Private and Personal Use Only Page #372 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra गृहज: www.kobatirth.org गृहज: (पुं०) भृत्य, नौकर, घर में उत्पन्न, भृत्य के लिए 'गृहजात' शब्द का प्रयोग । गृहाजातः देखो ऊपर। गृहजातिका ( स्त्री०) धोखा, कपटभाव । गृहज्ञानिन् (नपुं०) मूर्ख, जड । गृहती (स्त्री०) १. वीथिका, २. चबूतरा, चौपाल । गृहतटीपंक्ति (स्त्री०) मार्गोपमार्ग, वीथिका । (जयो० वृ० १९/८३) गृहदेवता ( स्त्री०) इष्ट देव, अधिष्ठात्री देव, कुलदेवता । गृहदेविका ( स्त्री०) १. कुलदेवी, २. गृहस्त्री । गतो विवेक्तुं निजमित्युपायादुपासनायां गृहदेविकायाः । (जयो० १६ / ४ ) गृहदेहली (स्त्री०) घर की चौखट, गृह की देहली। गृहनमनम् (नपुं०) वायु, पवन, हवा । गृहनाशन: (पुं०) अरण्यक कापोत । गृहनीड: (पुं०) गौरेया, चिड़िया । गृहपति: (पुं०) गृहस्थ, गृहस्वामी, ग्रामकूट, ग्राम मुखिया । गृहपाल : (पुं०) गृहसंरक्षक | गृहपोतकः (पुं०) घर का भाग, गृह का एक हिस्सा, भूखण्ड । गृहप्रवेश: (पुं०) विधिवत् गृह में प्रवेश करना । गृहबभ्रुः (पुं०) पालतू नेवला । गृहबलिः (स्त्री०) आहूति । गृहभुज् (पुं०) काक, कौवा । गृहभङ्गः (पुं०) प्रवासी, यात्री । गृहभूमि : (पुं०) वास्तुस्थान । गृहभेदिन् (वि०) गृहभेदक, घर की कमी का निरीक्षक । गृहमणि: (स्त्री०) दीपक । गृहमाचिका (स्त्री०) चमगादड़ । गृहमेधिन् (वि०) गृहस्थ, श्रावक, व्रती श्रावक । गृहमृग: (पुं०) कुत्ता, श्चान। गृहमेध: (पुं०) गृहस्थ । गृहमेधिन् (पुं०) गृहस्थ । गृहयन्त्रं (नपुं०) गृह उपकरण । गृहवाटिका ( स्त्री०) गृह बगीची । गृहवित्त : (पुं०) गृह स्वामी । गृहशुकः (पुं०) पिंजरे का तोता, पालतू शुक। गृहसंवेशक : (पुं०) व्यवसायिक भवननिर्माता, स्थपति। गृहस्थः (पुं०) गृही, घर पर रहने वाला। (जयो० वृ० १/२२) 'गृह अगारं तत्र तिष्ठन्तीति गृहस्था:' नित्यनैमित्तकानुष्ठानस्थो गृहस्थ:' ( जैन०ल० वृ० ४/८) ३६२ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir गृहिणी गृहस्थता (वि०) गृहस्थ अवस्था । कौमारमत्राधिगमय्यं कालं विद्यानुयोगेन गुरोरथालम् । मिथोऽनुभावात्सहयोगिनीया गृहस्थता स्यादुपयोगिनी या । ( वीरो० १८/३३) सत्त्वषे मैत्री गुणिषु प्रमोदं क्लिष्टेषु जीवेषु तदर्तितोदम्। साम्यं विरोधिष्वधिमग्य जीयात् प्रसादयन् बुद्धिमहो निजीयाम्। (वीरो० १८/३३) गृहस्थराज : (पुं०) सुगेही, सद्गृहस्थ । (जयो० १८ / २) गृहस्थवर्ग: (पुं०) गृहस्थ समूह। सत्कारो गृहस्थवर्णस्याद्यं कर्त्तव्यं किं' (दयो० वृ० ५८ ) गृहस्थ - शिरोमणि (पुं०) अरारिराङ्, अगारराज, गृहस्थ का अग्रणी मनुष्य। (जयो० वृ० २/१३९) * मुखिया । गृहस्थाश्रमः (पुं०) गृहस्थजीवन, गृहस्थ स्थान। (जयो० वृ० २ / ६९ ) जयो० दय काव्य में आश्रम के चार भेद किए हैं - १. वर्णि, (ब्रह्मचर्याश्रम) २. मेहि (गृहस्थाश्रम ), ३. वनवासि ( ग्रहस्थाश्रम) वानप्रस्थाश्रम और ४. योगि (सन्याश्रम) (जयो० ११७) को गेहि एवं सदनाश्रम भी कहा जाता है। सत्कन्यंका प्रददता भवता प्रपञ्चे दत्तस्त्रिवर्गसहितः सदना श्रमश्चेत् । (जयो० १२/१४२ ) त्रिवर्गलहितः सदनाश्रमो गृहस्थाश्रम एव। (जयो० वृ० १२/१४२) गृहस्थाचार्य: (पुं०) बृद्धजन, गुरुजन, श्रेष्ठजन। (जयो० १२/९७) गृहागतातिथि: (नपुं०) अभ्यागत, घर में समागत जन। (जयो० वृ० ३ / ११६) गृहाक्ष: (पुं०) झरोखा, खिड़की। गृहाङ्गणं (नपुं०) घर का खुला स्थान, आंगन। (दयो० ६९) गृहाश्रमः (पुं०) गृहस्थाश्रम । गृहस्थान, घर परिकर । बुद्धि विधाने च रमां वृषक्रमे समादधाना विबभौ गृहाश्रमे ' (वीरो० ५/४०) 'ध्यानसिद्धिर्गृहाश्रमे' (सम्य० ११६ ) गृहिन् (वि०) गृहस्थ, गृहस्थाश्रम, 'स्यात् पर्वव्रतधारणा गृहिणां ' (दयो० ७६) गेहमेकमिह भुक्तिभाजनं पुत्र तत्र धनमेव साधनम् । तच्च विश्वजन सौहृदाद् गृहीति त्रिवर्गपरिणामसंग्रही (जयो० २ / २१) गृही, कामश्च धनं च धर्मश्च तेषां कर्मणि तेषु सम्प्रति मिथः । यस्माद् गृहिणोऽखिला अञ्चलाः कर्दमे पङ्के सन्ति। (जयो० वृ० २ / १९ ) गृहीजन: (पुं०) गृहस्था । (सम्य० १ / ३४ ) गृहिणी ( स्त्री० ) [गृह + इनि + ङीप ] गृह स्वामिनी, पत्नी, भार्या, गृहलक्ष्मी। (जयो० वृ० १२ / ९१) गेहिनीतिज्ञ । गृहिणी कौलीन्यादिगुणालंकृता पत्नी । For Private and Personal Use Only Page #373 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir गृहिता ३६३ गैरिका गृहिता (वि०) गृहस्थपना। कौमारमेके गृहितां च केऽपि नराश्च | गेष् (सक०) खोजना, ढूंढना, अन्वेषण करना। दारा अनुयान्ति तेऽपि। (सम्य० वृ० २१) गेहं (नपुं०) आवास, निवास, घर, स्थान, आश्रमस्थल, विश्राम गृहिधर्मन् (नपुं०) गृहस्थधर्म। कृत्यं करोतीति कृत्यकृत्, स्थान, कुटीर। 'ममात्मगेहमेतत्ते पवित्रेः पादपांशुभिः। (जयो० कर्त्तव्याचरणशीलो गृही, तस्य धर्मः गहिधर्मः। (जयो० १/१०४) ग्रन्थारम्भमये गेहे कं लोकं हे महेङ्गित। शान्तिर्याति वृ० २/७२) तथाप्येन विवेकस्य कलाऽतति।। (जयो० १/११०) दानमान-विनयैर्यथोचित्, तोषयन्निह सधर्मिसंहितम्। गेहमेकमिह भुक्तिभाजनं पुत्र तत्र धनमेव साधनम्। तच्च कृत्यकृद्विमतिनोऽनुकूलयन् संलभेत् गृहिधर्मतो जयम्।। विश्वजनसौहृदाद् गृहीति त्रिवर्गपरिणामसंग्रही।। (जयो० (जयो० २/७२) २/२१) स्थान-विनाशिदेहं मलमूत्रगेहं वदामि नात्मानमतो गृहीत (भू०क०कृ०) [ग्रह+क्त] पकडा हुआ, प्राप्त, दृष्टिपथगत. मुदेऽहम्।। (सुद० १२१) अधिगत। 'गृहीतमेतन्नभसा गभस्ति' (जयो० १/३३) गेहकीरः (पुं०) गृहशुक। जम्पत्योर्यन्निशि निगदतोश्चाशृणोद् 'करद्वय्या प्रापितौ चक्रकम्बुको येन स गृहीत सुदर्शन गेहकीरः। (जयो० १८/१०१) पाञ्चजन्य इति। (जयो० २४/५) गेहभृत् (पुं०) गृहस्थ। 'भोगेषु भो गेह भदस्ति' (जयो० गृहीतदास (वि०) दासता को प्राप्त। (सम्य० ७०) __ २७/१०) गृहीतमिथात्व (वि०) तत्त्वार्थ गृहीत में अश्रद्धान्। गेहिन् (वि०) गृहस्था (जयो० २/१) 'संहितार्थमनुवच्मि गृहीतमिथ्यादर्शनं (नपुं०) दूसरों के उपदेश से तत्त्वार्थ का गेहिनाम्' (जयो० २/१) गेहिनो हि सतृणाशिनो नराः। अश्रद्धान। (सम्य० १३) (जयो० २/२०) गेहिनो गृहस्था जना स्वहितार्थमेव धर्माचरणे गृहीतसम्यग्दर्शनं (नपुं०) तत्त्वार्थ के प्रति श्रद्धान। सङ्घटिता भवन्ति' (जयो० वृ० २/२०) 'सन्ति गेहिषु च गृहीताङ्गी (स्त्री०) १. गौरी, गिरिजा, पार्वती। २. गौरवर्मा। ३. सञ्जना अहा।' (जयो० २/१२) २. गृहस्थाश्रम। (जयो० अर्धाङ्गिनी। 'गृहीतमङ्गं यस्या सा गौरी, गौरवर्णा, गिरिजा वृ० २/११७) वा।' (जयो० वृ० १५/९२) गेहिधर्मः (पुं०) गृहस्थ कर्त्तव्य। श्रीजिनं तु मनसा सदोन्नयेत्तं गृहीतुं (हे०कृ०) ग्रहण करने के लिए। स्वयं सुखायेव पति | च पर्वणि विशेषतोऽर्चयेत्। गेहिने हि जगतोऽनपायिनी गृहीतुमभिप्रवृता सुरसुन्दरी तु।। (सम्य० ६७) भक्तिरेव खलु मुक्तिदायिनी।। गृहीशिन् (वि०) गृहस्था गेहिनीति (वि०) गृहिणी। (सुद० १०८) (जयो० २/३८) गृहीशितुः-गृहस्थस्य। 'सङ्ग्रहणता गृहीशिनः' (जयो० २/१०७) गेहिभिन्नसंस्कृतिः (स्त्री०) गृहस्थ से पृथक् संस्कार, साधु गृहोद्यानं (नपुं०) उपसाद, उपवन। (वीरो० वृ० ५/३७) चर्या। (मुनि० ३१) यस्मात् गेहिभिन्नसंस्कृतिविधौ नाना गृह्य (वि०) [ग्रह+क्यप्] परतन्त्र, पालतू। त्रुटि /मृषिः' (मुनि० ३१) गेंडुक: (पुं०) [गच्छतीति गः इन्दुरिव, गेन्दु कन्-गेंडुक] | गेहिसदनं (नपुं०) गृहस्थ घर, नो गच्छदेतिभूमिगेहिसदनं गेंद। निष्टोऽप्यनाकाङिक्षतः' निर्गत्यान्यगृहं वृजेदपि पुनः श्री गेन्दुकः (पुं०) कन्दुक, गेंद (दयो०८) (जयो० २५/१०) भ्रामरी मानितः।। (मुनि० १०, २८) गेन्दुकक्रीडा (स्त्री०) गेंद का खेल। प्रस्थितः तन् वर्त्मनि गेहिसानि (नपुं०) गृहस्थमार्ग। 'विशदानि पदानि गेहिसानौ 'गेन्दुकक्रीडानुरक्तं महाबलमवलोकयामास' (दयो० ८३) परमस्थानसमर्हणानिवानौ' (जयो० १२/७३) गेन्दुकवत् (वि०) गेंद की तरह। 'शुभाशुभ-कर्म-काण्डप्रेरित- | गै (सक०) गाना, पाठ करना, उच्चारण करना, वर्णन करना, स्यास्य-जन्तोरेतस्यां संसृतिरङ्गभूमौ गेन्दुकवदुत्पतन-निपतने स्तुति करना, गुणगान करना। भवत एव। (दयो० वृ०८) गैर (वि०) [गिरि+अण] पहाड़ से आया, पर्वत पर उत्पन्न। गेन्दुकेलि (पुं०) कन्दुकक्रीडा। श्री गेन्दुकेलौ विभवन्ति तासो पर्वतागत। नितम्बिनीनां पदयोर्विलासा। (वीरो० ९/३८) गैरिकः (पुं०) १. गैरुक, रक्तरेणु। (जयो०१५) २. पर्वत पर गेय (वि०) [गै+यत्] गायक, गाने वाला। ० उत्पक। गेयं (नपुं०) गान, गीत, लय। गैरिका (स्त्री०) रक्तमृत्तिका। (जयो० २४/४१) 1 For Private and Personal Use Only Page #374 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir गैरिकाली ३६४ गोद्रवः वा। गैरिकाली (स्त्री०) गेरुकी धूली। गैरिकस्याली परम्परा सैवेय - गोचरीकृतभक्षणं (नपुं०) भोजन की स्वीकृति गोचरीकृत्या रक्तप्रभा' (जयो० १८/६३) । कृतं भक्षणं भोजन-स्वीकारो येन स गोचरीकृतः स्पष्टतां गैरेयं (नपुं०) [गिरि ढक्] शिलाजीत। नीतो नाना तारकाणां क्षण: समयो' (जयो० २८/१६) गो (पुं०/स्त्री०) १. गाय, २. गो का उपकरण, ३. आकाश, गोचारकः (पुं०) ग्वाला, वरेदी, चरवाहा, गाय चराने वाला। ४. तारा, ५. किरण, ६. वज्र, ७. बाण, ८. सरस्वती वाणी। (जयो० वृ० २५/५९) जल- (जयो० १४/७९) गोचरोच्चारणं (नपुं०) स्पष्ट सम्भाषण, उच्चारण रूप कारण। गोकण्टकः (पुं०) गाय का खुर। 'सदधिपवदनेन्दोर्गोच्चरोचारणेन' (जयो० २०/३१) गोकर्णः (पुं०) गाय का कान। गोजल (नपुं०) गोमूत्रा गोकिराटिका (स्त्री०) मैना। गोजागरिकं (नपुं०) मांगलिक आनन्द। गोकीलः (पुं०) हल, मूसल। गोतम (वि०) मंगल गीतादि के शब्द वाले। (जयो० १०/१५) गोकुलं (नपुं०) वज्रभूमि, गायों के परिभ्रमण का स्थान, चरागाह। गोतल्लजः (पुं०) सांड, बलिवर्द। (जयो० वृ० १०/१५) गौशाल, गोकुल नाम विशेष। गोतीर्थ (नपुं०) १. गौशाला। २. गायादि के पानी पीने का गोकुलपतिः (पुं०) गोविंद। (जयो० ५३) * कृष्ण। स्थान, प्रवेशमार्ग। गोकुल स्थानं (नपुं०) सुरभिरस्थान गौशाला (जयोः । गोत्व (वि०) गौ संज्ञा गत। (हित० संपाद० १४) १०/१५) गोत्रं (नपुं०) सन्तान, क्रमागत परिवर्तन, गोत्रकर्म, परिवर्तन गोकूलिक (वि०) गाय का सहायक। क्रम, उच्चनीच कर्म। (हित० श्लोक० ८१) एकस्मिन्नपि गोकृत (नपुं०) गाय का गोबर। जनुषि गोत्रस्य परिवर्तनम्। (हित० ८१) 'गां वाचं त्रायत गोक्षीर (नपुं०) गाय का दूध। इति गोत्रम्' 'गूयते शब्द्यते तदिति गोत्रम्' गोत्रं तु यथार्थकुलं गोगृष्टिः (स्त्री०) तत्काल प्रसूत गाय। गोगोष्ठं (नपुं०) गौशाला, पशुशाला। गोत्रभित् (वि०) गोत्र को मलिन करने वाला, वंशभेदकर। गोग्रन्थिः (स्त्री०) सूखा गोबर। (जयो० १/४१) गोग्रहः (पुं०) पशुग्रहण। गोत्रि (वि०) गोत्र वाले। (जया० १२/११२) गोग्रासः (पुं०) गाय के लिए ग्रास। गोत्रिगुणं (नपुं०) गोत्री गुण, कुलगुण। 'आपि गोत्रिगुणाश्च गोघृतं (नपुं०) गाय का घी। (जयो० १६/६७) गोपधाम्नीति' (जयो० १२/११२) 'गोत्रिषु कुलीनेषु सिद्धा गोचन्दनं (नपुं०) गोसीर चन्दन। ये गुणाः' (जयो० वृ० १२/११२) गोचर (वि०) १. चारागाह, २. दृष्टिगत, स्पष्ट। 'बभूव गोत्रोच्चारणं (नपुं०) गात्रोत्पन्न, कुलगत वचन। (जयो वृ० चित्रोल्लिखितेव गोचरा' (जयो० २३/३३) ३. पञ्चाङ्ग, १२/२८) दृष्टि, ज्योतिष सम्बन्धी विचार। (सुद० १/२१) गोदन्तं (पुं०) हरताल, एक भस्म, आयुर्वेदभस्म। गोचरचारि (वि०) विषयभूत का आचरण करने वाला, विषयभूत गोदानं (नपुं०) संस्कार दान। होने वाला पद। 'न वेदनाऽङ्गस्य चेसनस्तु नासामहो गोचरचारि गोदारणं (नपुं०) हल, फावड़ा, खुर्पा। वस्तु। (वीरो० १२/३६) गोदावरी (स्त्री०) नदी विशेष। गोचरभूमिः (स्त्री०) चारागाह स्थान। (सुद० १/२१) व्रजस्थल। । गोदुह् (पुं०) ग्वाला, गोपाल। गोचराशिः (स्त्री०) ग्रह गोचर युक्त राशि। गोदोहः (पुं०) गाय का दूध, दुहने का समय। गोचर-वनं (नपु०) चारागाह का स्थान। (दयो० ५३) गोदोहनं (नपुं०) गाय दुहना। गोदोहनाम्भोभरणादिकार्यकरं गोचराधारः (पुं०) १. गोचर भूमि का आश्रय। (दयो० ४) पुनुर्गापवरं स आर्यः। (सुद० ४/२२) (सुद० १/२१) २. गोचर ग्रह का विषय। गोदोहनकाल: (पुं०) गाय दुहने का समय। गोदोहनकाल का गोचरी (स्त्री०) साधुवृत्ति, साधु को आहार चर्या। * दृष्टिगोचर एक अर्थ पयोधरालिङ्गन भी है। (जयो० वृ० १७/५७) करना। गोदवः (पुं०) गोमूत्र। For Private and Personal Use Only Page #375 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir गोधनं ३६५ गोमूत्रिका गोधनं (पुं०) पर्वत। गोपालकगृहं (नपुं०) गोपधाम। गोधिः (पुं) घड़याल। गोपालपतिः (पुं०) ग्वाला। (दयो० ६१) गोधिका (स्त्री०) छिपकली। गोपालिका (स्त्री०) गोपी, ग्वालिन, गायों को पालने वाली, गोधूमः (पुं०) १. गेहू, २. संतरा। गोपी। गोधूलि (स्त्री०) सन्ध्या समय। गोपिका (स्त्री०) ग्वालिन। (दयो०६५) गोधेन (स्त्री०) दूध देने वाली गाय। गोपीतः (पुं०) खंजन पक्षी। गोधः (पु०) पर्वत. गिरि। गोपुच्छं (नपुं०) गाय की पूंछ। गोनन्दी (स्त्रो०) सारस पक्षी। (मादा) गोपुटिकं (नपुं०) नन्दी मस्तक। गोनसः (पुं०) सर्प विशेष। गोपुत्रः (पुं०) वत्स, बछड़ा। गोनाथः (पुं०) १. सांड, बलिवर्द, २. ग्वाला, गोपाल। गोपुरं (नपुं०) ०नगर प्रवेश द्वार, मुख्य द्वार, पुरद्वार'। (जयो० गोनिवहः (पुं०) गो समूह। (समु० २/१९) अस्मत्क्रमौ ३/१०७) धैनुक। (जयो० ३/१०७) गोनिवहार्जनाय, भवेत् पयः पातुमिनाभ्युपाय:। (समु० १/१९) गोपुर-मण्डलं (नपुं०) पुरद्वाराग्रभाग, नगर प्रवेश द्वार का गोपः (पुं०) १. गोप, गोपाल। (दयो० ५५) २. गुप्त, रक्षक। | मुख्य हिस्सा। ३. प्रभा, कान्ति, दीप्ति। गोपुरीष (नपुं०) गोबर। गोपतिः (पुं०) १. गोपाल, ग्वाला। बैल हांकने वाला। २. सूर्य। गोप्रकाण्डं (नपुं०) सांड, बलिवर्द। 'गवां किरणानां पशूनां वा पतिरेप सूर्यः' (जयो० वृ० गोप्रचारः (पुं०) गोचरभूमि, चरगाहा क्षेत्र। ८/७) चक्रवर्ती-मृदुलदुग्धकलाक्षरिणी स्वतः, किमिति गोप्रवेशः (पुं०) गोधूलि बेला। गायों के लौटने का समय। गोपतिगौरुदिता यतः। (जयो० ९/७१) गोपतेश्चक्रवतिनो गोब्ल (स्त्री०) [गुप्+तृच्] संरक्षक। गौरेव गौर्वाणीरूपाः धेनु,' (जयो० वृ० ९/७१) गोप्तरि (वि०) संरक्षक, प्रतिपालक। नि:साधनस्य चार्हति गोपतुजः (पुं०) ग्वाले का लड़का। (सुद०४/१९) आकर्पताब्जं गोप्तरि सत्यं निर्व्यसना भूस्ते। (जयो० ८/९३) च सहनपत्रं तेनेकदा गोपतुजैकमत्र। (सुद० १/१९) गोबरः (पुं०) गौतम गणधर का स्थान। (वीरो० १४/४) गोपनिलयः (नपुं०) आभीर गृह, अहीरों का घर। 'गोपानां गोभृत् (पुं०) पर्वत, गिरि। निलयान गृहान्' (जयो० वृ० २१/५०) गोभक्षिका (स्त्री०) गोबर मक्खी। गोपपतिः (पुं०) ग्वाला, धेनुरक्षक'गोपपतिनृपवरो जयकुमारः। गोमंडलं (नपुं०) गो समूह, व्रज मंडल। (वीरो० १९/५९) (जयो० ३/१०७) गोमतल्लिका (स्त्री०) उत्तम गाय, सीधी गाय। गोपपशुः (पू) यज्ञीय गाय। गोमथः (पुं०) ग्वाला। गोपधामः (पु.) गोपालक गृह। (जयो० १२/११) गोमयः (पुं०) गोबर, गोपुरीष। (जयो० १७/५७) गोमयेन गोपबधूः (स्त्री०) ग्वालिन। खलु वेदिलिम्पन प्रायकर्म लभतामितो जनः। (जयो० गोपबलकः (पुं०) ग्वालों के लड़के। २/७८) गोपयोषितं (नपुं०) गोपांगनाओं के मुख। गोपयोषितां गोपीनां | गोमयोपित (वि०) गोबर से लिपि हुई। गोमयेन धेनुशकृतोपहितवदनं मुखं तत्खलु प्रस्फुटाः' (जयो० २१/५४) माच्छादितमास्यं मुखं यस्याः सा पक्षे गौश्चन्द्रमास्तस्य गोपवरः (वि०) गोपों में श्रेष्ठ। 'करं पुनर्गापवरं स आर्यः' मया लक्ष्या, उपहितमास्यं यस्या सा। (जयो० वृ० १०/७३) (सुद० ४/२२) गोमांस (नपुं०) गाय का मांस। (वीरो० १५/५७) गोपाङ्कित् (वि०) वाक्य परम्परा। (वीरो० ११/१) गोमायुः (पुं०) गीदड़, मेंढक! (दयो० ९६) गोपायनं (नपुं०) [गुप्त आय्+क्त] प्ररक्षित, सुरक्षित। गोमुखं (नपुं०) वाद्य यन्त्र। गोपाल (पुं०) ग्वाला। (दयो० ५३) गोमूत्रं (नपुं०) गाय का मूत्र। गोपालक (वि.) गायों का पालन करने वाला। (जयो० गोमूत्रिका (स्त्री०) छन्द विशेष। रमयन् गमयत्वेष वाङ्मये १२/११२) गवीश्वर-जयो० वृ० २५/६३) समयं मनः। न मनागनयं द्वेषधाम वा सभयं जनः। (वीरो० For Private and Personal Use Only Page #376 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir गोमृगः ३६६ गौनर्दः २२/३७) यह अनुष्टुप छन्द ही है, जिसमें आठ, आठ गोष्ठ् (अक०) इकट्ठा होना, सम्मिलित होना, ढेर लगाना। अक्षर हैं। गोष्ठः (पुं०) व्रज, गौशाला, ग्वालों का स्थान। गोमृगः (पुं०) गो सदृश गवय। गोष्ठि (स्त्री०) [गोष्ठ्+इन] सभा, सम्मेलन, सामूहिक विचार गोमेदः (पुं०) गोमेद नामक रत्न। का स्थान, संलाप, प्रवचन, विचार-विनिमय। गोयानं (नपुं०) बैलगाड़ी। गोष्पद् -दृष्टिगोचर होना, गोखुर समात दिखना। यज्ञानान्तर्गत गोरक्षः (पुं०) गोपाल, ग्वाला। भूत्वा त्रैलोक्यं गोष्पदायते। (दयो० १/३) गोरक्षणं (नपुं०) गउ संरक्षण। गोष्पदं (नपुं०) गाय का पैर, गाय के खुर के समान चिह्न। गोरक्षणप्रणालि (स्त्री०) गोरक्षा पद्धति। (जयो० वृ० १८/८३) गोसकृत् (पुं०) गोबर, गोमय। (जयो० १५/३०) गोरसः (पुं०) दहि, दूध, छांछ। गोस्तनी (स्त्री०) द्राक्षा, दाख। रसने समास्वादने द्राक्षेव यथा गोरस-सारिका (स्त्री०) वचन सम्बन्धी आनंद। 'ते किमु न गोस्तनी तथा मृद्वी' (वीरो० १/१) पश्यसि गोरस-सारिके।' (जयो० २४/१३७) गोह्य (वि०) गोपनीय, गुप्त, प्रच्छन्न। गोराजः (पुं०) सांड, बलिवर्द। गौञ्जिकः (पुं०) [गुञ्जा+ठक्] सुनार। स्वर्णकार। गोराटिका (स्त्री०) मैना पक्षी। गौ (स्त्री०) १. रश्मि, हेतु, २. वाणी। (जयो० २०/२६), गोरोपकारणं (नपुं०) गाय रोग निवारण। (जयो० १९/७९) (वीरो० १/३१) गोरोचना (स्त्री०) एक सुगन्धित पदार्थ। गौडः (पुं०) देश विशेष। गोर्गम् (नपुं०) [गुर्+ददन्] मस्तिष्क, दिमाग। गौडिकः (पुं०) [गुड+ठक्] ईख, गन्ना। गोल: (पुं०) १. पिण्ड, समूह, भूगोल, लोक, अन्तरिक्ष। २. गौणः (पुं०) अनावश्यक, अप्रधान। वस्तु विवेचन के मुख्य वर्तुलाकार। और गौण दो पक्ष होते हैं। द्रव्य की कुछ पर्यायों का गोलकः (पुं०) १. अमृत। अमृते जारजः कुण्डोऽमृते भतरि ग्रहण। गोलक इत्यमरः। (जयो० वृ० १८/७५) गौणत्व (वि०) गौणता युक्त। ब्राह्मणत्वमपि गौडत्वाद्यपेक्षया २. पिण्ड, भूगोल, ३. जारज पुत्र, विधवा पुत्र। लड्डू सामान्य। (जयो० वृ० २६/९१) (जयो० वृ० १२/१३३) गौण्यं (नपुं०) [गुण+ष्यञ्] गुणानां भावो गौण्यम्। अनावश्यक, गोलकावली (स्त्री०) भोले। १. लड्डू गोलकानां लड्डुकानां, अप्रधान। गुणेण णिप्पण्णं गोण्णं, गुण के आश्रय से करकोपलनामावलिः परम्परा। (जयो० वृ० १२/१३३) निष्पन्न। गोलविशेषणं (नपुं०) तिलक, वर्तुलाकार तिलक। (जयो० | गौतमः (पुं०) गणधर, गौतमऋषि। (वीरो० १/७) वर्धमानादनभ्राज वृ० १०/३१) एवं गौतमचातकः। लेभे सूक्तामृतं नाम्ना साऽऽषाढी गोलवणं (नपुं०) गाय का नमक। गुरुपूर्णिमा। (वीरो० १३/३८) आषाढी पूर्णिमा के दिन गोलांगुलः (पुं०) लंगूल, बन्दर। गौतम ने वर्धमान के/महावीर के दिव्य संदेश को प्राप्त गोलोभी (वि०) वेश्या। किया था। * गौतम बुद्ध। गोवत्सः (पुं०) गाय का बछड़ा। गौतमकेकि (पुं०) गौतम रूपी मयूर। (वीरो० १२/३९) गोवर्धनः (पुं०) गोवर्धन गिरि वृन्दावन के निकट का पर्वत। वीरवलाहकतोऽभ्युदियाय गौतमकेलिकृतार्थनया यः। अनुभुवनं गोवाट (नपुं०) गौशाला। स वारिसमुदायः श्रावणादिमदिने निरपायः।। (वीरो० १३/३९) गोवासः (पुं०) गौशाला। गौतमचातकः (पुं०) गौतम रूपी चातक। (वीरो० १३/३८) गोविदः (पुं०) गोपालक। गौतमस्वामी (पुं०) गणराजदेव। (वीरो० १/७) गोविंदः (पुं०) १. पुरुषोत्तम, विष्णु। पुरुषोत्तमस्य गोविंदस्य | गौतमी (स्त्री०) १. द्रोण भार्या, २. गोदावरी नदी। ३. हल्दी, वाहनं गरुडं' (जयो० वृ० ६/७९) २. गोविन्द, गोपालक ४. गोरोचन। प्रधान। (दयो० ५३) गोविंदो नाम गोपालो गौधूमीनम् (नपुं०) [गोधूम+खञ्] गेहूं का क्षेत्र। गोकुलपतिमेदिनीमंडलस्य दशः। (दयो० वृ०५३) गौनर्दः (पुं०) पतञ्जलि ऋषि। महाभाष्यकार। For Private and Personal Use Only Page #377 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir गौपिका ३६७ ग्रहचिन्तकः गौपिका (स्त्री०) गोपी, ग्वालिन। गौप्तेयः (पुं०) वैश्य पुत्र। गौर (वि०) शुभ्र, धवल, श्वेत। उज्जवल (जयो० १/१०) गौरा (स्त्री०) श्वेत, धवल। गौरपरिणामा (स्त्री०) गौरी। (जयो० वृ० २२/६७) गौरवं (नपुं०) महत्त्व, श्रेष्ठ, उत्तम, आदर, सम्मान। प्रभुत्व (जयो० १/३८) गुणावबोधप्रभव हि गौरवम् 'गौरवमेतिरात्रिः' (वीरो० ९/३२) गौरवकारि (वि०) महत्त्वपूर्ण। (वीरो० ४/५९) गौरवप्रकाशकः (वि०) महत्त्व उद्घाटन करने वाला। (जयो० २/७१) गौरवरूपता (वि०) गुरुत्व, भारीपन, अत्यधिक। (जयो० वृ० २०/७१) गौरववन्दक (वि०) महत्त्व को देने वाली वन्दना। आत्म महत्त्वशाली वन्दना। गौरवाढ्य (वि०) १. गौरव करता हुआ। २. गौ-रवाढ्य-आवाज करता हुआ सांड। गौरवेण महत्तयाढ्यो युक्तस्ततोरवाढ्यो नादयुक्तोऽकर्को गौवृषभ इव सन् भवन्' (जयो० वृ०७/११२) 'मदान्धो गौरवाढ्यः सन्नर्कस्तस्थौ ततोऽमुतः' गौरविणिः (वि०) गौरवशालिनी। (जयो० २८/५८) गौराकः (पुं०) अंग्रेज। सितरुचो गौराङ्गाः 'अंग्रेज' इति नाम्ना प्रसिद्धास्तेषां समाजः समूह इतो भारतदेशान्निति निर्गच्छति स्वदेश गच्छति। (जयो० वृ० १८४८१) गौरिका (स्त्री०) कुमारी कन्या। गौरिलः (पुं०) [गौर+इलच्] सफेद सरसों। गौरी (स्त्री०) [गौर ङीष्] १. गौरी, गौरवर्णा गिरिजा वा। (जयो० १५/९२) २. पार्वती, शिवप्रिया। (जयो०१६/१४) ३. गौरीनामप्सराश्च (जयो० २२/६७) ४. बालस्वभावा (जयो० वृ० १२/३) गौरीकृत (वि०) १. शुक्लकृत, २. पार्वतीपने को प्राप्त। __ गौरीति वा कृतं पार्वतीस्वरूपतः (जयो० १/१५) गौरीकान्तः (पुं०) शिव, गिरीराज। गोरीगुरुः (पुं०) हिमालय पर्वत। गौरीपट्टः (पुं०) श्वेत पट। गौरीपुत्रः (पुं०) कार्तिकेय। गौरीललितं (नपुं०) हरताल। गौरीदृशी (वि०) पार्वती तुल्य। (जयो० ११/८२) गौलक्षणिकः (पुं०) शुभ लक्षण। गौल्मिकः (पुं०) सेना की टुकड़ी। गौशितिक (वि०) सौ गोत्रों का स्वामी। ग्रन्थ् (अक०) टेढ़ा होना, झुकना। ग्रन्थः (पुं०) [ग्रन्थ्+ल्युट्] १. गांठ, गुच्छा, झुण्ड, लच्छा। २. ग्रथित करना, गूथना। ग्रथ्यतेऽनेनास्मादस्मिन्निति वाऽर्थ इति ग्रन्थः''विप्रकीणार्थग्रथनाद् ग्रन्थः' आदूरियाणमुवएसो गंथो' १. बांधना, गूंथना, रचना, बनाना, प्रबन्ध, काव्य (जयो० १/४) ग्रन्थकर्तृ (वि०) रचनाकार, प्रबंधकार, काव्य प्रणेता। (जयो० ७/२३) ग्रन्थकर्ता (वि०) काव्यकार, रचनाकार, काव्य प्रस्तोता। ग्रन्थकर्ताऽऽचार्यस्तेन कृतः सन्निवेशो रचना। (जयो० वृ० १/१७) ग्रन्थकर्तृरुद्देश्यभावः (पुं०) अनुयोग भाव। ग्रन्थकारः (पुं०) रचनाकार, लेखक। ग्रन्थकृत् (पुं०) रचनाकार। ग्रन्थकृति (स्त्री०) अक्षरात्मक काव्यकृति, ग्रन्थरचना। ग्रन्थकुटी (स्त्री०) पुस्तकालय। ग्रन्थविस्तरः (पुं०) विस्तारशैली भाष्य पद्धति। ग्रन्थसन्धिः (स्त्री०) पुस्तक अंश, रचना अध्याय। ग्रन्थारम्भः (पुं०) परिग्रह व्यापार, संचय प्रवृत्ति की क्रिया। ग्रन्थारम्भमये गेहे कं लोकं हे महेङ्गिता (जयो० १/११०) ग्रन्थिः (स्त्री०) १. पर्व, सन्धि, पोर। 'पर्वेति अवयवसन्धिम्रन्धिर्वा' (जयो० वृ०३/४०) २. गांठ, गुच्छा, समूह। ३. राग-द्वेष परिणाम। ग्रन्थिकः (पुं०) दैवज्ञ, ज्योतिषी। ग्रन्थित (वि०) सन्धियुक्त। ग्रन्थिन् (पुं०) ग्रन्थ पढ़ने वाला ज्ञानी, पण्डित। ग्रन्थिमा (वि०) ग्रथन किया हुआ, गूथा गया। ग्रन्थिल (वि०) जटिल, कठोर, गांठ युक्त। ग्रस् (अक०) निगलना, ग्रहण करना, भक्षण करना। ग्रसनं (नपुं०) निगलना, भक्षण करना, गले उतारना। ग्रस्त (भू०क०कृ०) निगला हुआ, लेना, समेटना, थमना, स्वीकार करना, धारण करना। ग्रहः (पुं०) पकड़ना, ग्रहण करना। ग्रहकल्लोलः (पुं०) राहु। ग्रहपतिः (स्त्री०) ग्रहों की अवस्था। चन्तकः (पुं०) ज्योतिषी, दैवज्ञ, नैमित्तक। For Private and Personal Use Only Page #378 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ग्रहणं ३६८ ग्रैवेयकः ग्रहणं (नपुं०) अर्थ ग्रहण, स्वीकार, अधिकृत। 'ग्रहणं सद्गुरुप-- दिग्टार्थविज्ञानम्' (भ० आ० ४३१) ग्रहदशा (स्त्री०) ग्रहों की स्थिति। ग्रहदेवता (पुं०) इष्ट देवता। ग्रहनायकः (पुं०) सूर्य, चन्द्र। ग्रहनेमि (स्त्री०) चन्द्रमा। ग्रहपतिः (०) सूर्य, चन्द। ग्रहपीडनं (नपु०) ग्रह जनित पड़ा। ग्रहमण्डलं (नपुं०) ग्रहों का वृत्त। ग्रहयुति (स्त्री०) ग्रहों का संयोग। ग्रहराजः (पुं०) सूर्य। ग्रहवर्ष: (पुं०) ग्रहों की स्थिति। ग्रहविप्रः (पुं०) ज्योतिषी। ग्रहशान्तिः (स्त्री०) ग्रहों का उपचारा। ग्रहसम (नपुं०) समान स्वर का ग्रहण। ग्रहिल (वि.) [ग्रह। इतच्] स्वीकारने वाला, लेने वाला। ग्राम: (पुं०) [ग्रस्+मन्] गांव, पुरवा, (सुद० १/२०) 'ग्रसति बुद्ध्यादीन् गुणान् इति ग्रामः: (जयो० ३/३३) 'ग्रामो जनपदाश्रितः सन्निवेशविशेषः' अनेककल्पद्रुमसम्बिधाना ग्रामा लसन्ति त्रिदिवोपमाना' (वीरो० २/१०) ग्रामकण्टकः (पुं०) पालतू मूगा। ग्रामकुमारः (पुं०) ग्राम बालक। ग्रामकूट: (पुं०) ग्राम प्रमुख। ग्राम गोदुहः (पुं०) ग्राम का ग्वाला। ग्रामघातः (पुं०) ग्राम का लूटना। ग्रामघोषिन् (पुं०) इन्द्र। ग्रामचर्या (स्त्री०) स्त्री संभोग। ग्रामचैत्यः (पुं०) गूलर तरु। ग्रामजालं (नपुं०) ग्राम समूह, ग्राममण्डल। ग्रामणी (पुं०) मुखिया, प्रधान। १. विषयासक्त व्यक्ति, २. | नापित। ग्रामतक्षः (पुं०) बढ़ई, विश्वकर्मा। ग्रामदेवता (पुं०) ग्राम का अभिरक्षक देव। ग्रामधर्मः (पुं०) स्त्री संभोग। ग्रामनिवासिन् (वि०) ग्राम निवासी। (दयो०५) ग्रामप्रेष्यः (पुं०) दूत, सेवक। ग्राममुखः (पुं०) मण्डी, बाजार। ग्राममृगः (पुं०) कुत्ता। ग्रामयजकः (पुं०) पुरोहित। ग्रामयाजिन् (पुं०) पुरोहित। ग्रामलुण्डनं (नपुं०) गांव लूटना। ग्रामवासः (पुं०) ग्राम निवास, ग्रामस्थान। ग्रामपण्डः (पुं०) क्लीव, नपुंसक। ग्रामसंघ: (पुं०) ग्रामसिंहः ग्राम निगम, पंचायत। ग्रामस्थ (वि०) ग्रामणी, गांव वाला। ग्रामहासकः (पुं०) जीजा, बहनोई। ग्रामिक (वि०) [ग्राम+ठञ्] गंवार, अक्कड़। ग्रामिकः (पुं०) मुखिया, प्रधान, प्रमुख व्यक्ति। ग्रामीण: (पुं०) [ग्राम खञ्] ग्रामवासी। ग्रामेय (वि०) गांव में उत्पन्न। ग्राम्य (वि०) [ग्राम यत्] १. गंवार, देहाती, ग्राम का निवासी। २. घरेलू, पालतू। ३. अभद्र। ग्राम्यः (पुं०) सूकर। ग्राम्यकर्मन् (नपुं०) ग्राम व्यवसाय। ग्राम्यधर्मः (पुं०) ग्राम कर्त्तव्य। ग्रामबुद्धिः (स्त्री०) जड़ बुद्धि, अनाड़ी। ग्रासः (पुं०) [ग्रस्+घञ्] कौर, कवल। १. भोजन, २. पोषण, ३. ग्रस्त, ग्रहण युक्त, आच्छादित चन्द्र सूर्य। ग्रासभक्षक (वि.) कवलोपसंहारक। (जयो० वृ०७/२१) ग्रासशल्यं (नपुं०) कांटा, मछली का कांटा। ग्रासीकृत् (वि०) कवलित। (जयो० वृ० २५/६८) ग्राह (वि०) पकड़ने वाला, थामने वाला। ग्राहः (पुं०) १. पकड़ना, जकड़ना। २. घड़ियाल, मगरमच्छ। ग्राहकः (पुं०) १. बाज, स्येन। २. विपचिकित्सक, ३. क्रेता, खरीददार, ४. पुलिस अधिकारी। ग्रीवकः (पुं०) ग्रैवेयक पर्याय। (समु० ५/१६) सिंहचन्द्रमुनिराट् ___ चरमेसग्रीवकेष्वजनिनाम सुरेशः। (समु० ५/१६) ग्रीवा (स्त्री०) गर्दन। ग्रीवाधोनयनं (नपुं०) कायोत्सर्ग में ग्रीवा नीचे करना। ग्रीवोर्ध्वनयनं (नपुं०) कायोत्सर्ग में ग्रीवा ऊपर करना। ग्रीष्म् (वि०) उष्ण, गरम। ग्रैवेयकः (पुं०) अवेयक नाम देव, लोक रूप पुरुष के ग्रीवा स्थान पर अवस्थित विमानों के देव। (जयो० १७/३६) ग्रीवासु भवानि ग्रैवेयकाणि विमानानि, तत्साहचर्यादिन्द्रा अपि ग्रैवेयकाः। (तन्वा०४/१९) २. गले का अलंकरण, गले का हार। For Private and Personal Use Only Page #379 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ग्रैष्मक ३६९ घडियाल: गृष्मक (वि०) [ग्रीष्म+वुज] गर्मी में बोया गया। ग्मा (स्त्री०) भूमि, धरणी। ग्लस् (सक०) खाना, निगलना। ग्लपनं (नपुं०) [ग्लै णिच्+ ल्युट] मुाना, सूखना, थकना, क्लान्त होना। ग्लपित (वि०) दु:खी, द्रवता प्राप्त बेहोश। (सुद० ८७) मुक्तात्मयत्वाच्च गभीरभावादे तस्य वार्धिर्लपितः सदा वा। (वीरो० ३/२) 'ग्लपितो द्रवत्वमित एव तिष्ठति' (वीरो० ३/२) 'विलोक्यं लोकं ग्लपितं द्रुतान्त-स्तयाप्तपुण्यातिशयेन दान्तः। (भक्ति० २२) ग्लहू (सक०) लेना, ग्रहण करना। प्राप्त करना, खेलना, पकड़ना। ग्लहः (पुं०) [ग्लह+अप्] पासे से खेलना, दाव, बाजी लगाना। ग्लान (भू०क०कृ०) [ग्लै क्त] क्लान्त, श्रान्त, थका हुआ। ग्लानिः (स्त्री०) [ग्लै नि] घृणा, अवसाद, थकान, हास, क्षय। (जयो० २/८२) ग्लानिर्गत (वि०) घृणामवाप्त, घृणा को प्राप्त। (जयो० १४/९२) ग्लानिमान (वि०) मलिनमुख। (जयो० ६/१७) ग्लान्यभावः (पुं०) नैर्जुगुप्सा, घृणा का अभाव। (जयो० वृ० २/७६) ग्लास्तु (वि०) [ग्लै+स्नु] क्लान्त, श्रान्त। ग्लुच् (सक०) जाना, पहुंचना, चलना। ग्लै (अक०) क्लान्त होना, थकना, मूछित होना। ग्लौ (पुं०) [ग्लै+डौ] १. चन्द्र, २. कपूर। घटक (वि०) [घट्+ण्+िण्वुल्] सुसंवेदनदायक-आत्म स्वरूप का अनुभव करने वाला। (जयो० २८/५९) २. कुम्भक, कुम्भ वाला। (जयो० वृ० २८/५९) पूरणायेत्यथो वाञ्छन् घटकं प्राप्य चात्मनः। (जयो० २८/५९) घटकल्पः (पुं०) घट युक्त, कुम्भसहित। घटकल्पसुस्ततिः (वि०) घर के समान सुन्दर। कुम्भोपमकुचवति। (जयो० १२/१२४) 'वटकं घटकल्पसुस्तनीत:' घटनं (नपुं०) [घट्+ल्युट्] प्रयास, प्रयत्न, घटित होना, मिलाना, एकत्रित करना, निष्पन्नता, प्रकाशन, कार्यान्विति। घटना (स्त्री०) समस्या। (जयो० वृ० ११/२०, दयो. ४४) अघटितघटनां करोति कर्म प्राणिनां सदाऽऽपदं च शर्म। घटा (स्त्री०) चेष्टा, प्रयत्न, प्रयास, बादलों का जमाव। घटिकः (पुं०) [घट्-कन्] घट के सहारे पार होना। घटिका (स्त्री०) [घटी+कन्+टाप्] छोटा घड़ा, करवा, मिट्टी का बर्तन। १. कालविशेष-द्वाविंशत्कलाभिर्घटिका' (जयो० २८/८०) २. घड़ी। घटिका घटिकार्थस्य समयः समयोऽसकौ। (जयो० २८/८०) ३. संगठनकी , सम्पन्न करने वाली। (जयो० २८८०) घटिकानन्तरः (पुं०) घड़ी के पश्चात्, चेष्टित्, (जयो० वृ० २७/३८) घटिन् (पुं०) [घट्+इनि] कुम्भ राशि। घटिन्धम (वि०) [घटी+ध्मा+खश्+मुम्] फूंक मारना। घटिन्धय (वि०) [घटी+घेट+खश] घटभर पानी पीने वाला। घटी (स्त्री०) मटकी, छोटा घड़ा। निधिघटीं धनहीनजनो यथाऽधिपतिरेष विषां स्वहशा तथा। (सुद० २/४९) घटोत्कचः (पुं०) नाम विशेष, एक शक्तिशाली वीर। घटोत्पादानुभागः (पुं०) घट के उत्पादन विषयक शक्ति। घटोनी (वि०) घट सदृश स्तन वाली। 'घटवत् पृथुलाकारौ ऊधसौ स्तनौ यस्याः सा घटोनी' (जयो० २२/८९) घटोपरोपिणी (वि०) कष्ट को उत्पन्न करने वाली। 'घटायाः ___ कष्टपरम्पराया उपरोपिणी प्रवर्तिनी' (जयो० वृ० २/१२६) घट्ट (सक०) हिलाना, संचालन करना, स्पर्श करना, मलना, सहलाना। घट्टः (पुं०) [घट्ट घञ्] घाट, तट, किनारा। घट्टनं (नपुं०) खण्डन, विनाश। तत्त्वोपदेशकृत्साशास्त्र कापथघट्टनम्।' (सम्य० ८३) घट्टना (स्त्री०) हिलाना, सहलाना, रगड़ना। घडियालः (पुं०) जल जन्तु। (दयो० ४२) घः (पुं०) कवर्ग का चौथा व्यञ्जन, इसका उच्चारण स्थान कंठ या जिह्वामूल है। यह स्पर्श वर्ण है। घकार घ भाव। (जयो० वृ० १/४८) घ (वि०) १. प्रहार करने वाला, नाशक, विध्वंसक, घातक। २. श्रम विशेष। 'घस्य शब्दस्य श्रमा' (जयो० वृ० २२/९१) घट (अक०) १. व्यस्त होना, प्रयत्न करना, प्रयास करना। उत्पन्न होना। उत्पन्न होना। (जयो० ६/७५) २. निष्पन्न होना, बनाना, निर्माण करना। ३. आरम्भ करना, शुरू करना। घटः (पुं०) [अट्+अच्] घड़ा, पात्र, मर्तवान, कुम्भ। (जयो० १२/१२४) For Private and Personal Use Only Page #380 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir घण्ट: ३७० घनहस्तः घण्टः (पुं०) [घण्ट्+अच्] एक व्यञ्जन, चटनी। घण्टा (स्त्री०) १. घंटी, कांस पात्र का गोलाकार वादनक। 'घण्टा ननु कल्पवासिनाम्' (वीरो०७/२) २. शिंशपावासी धीवर मृगसेन की भार्या। (दयो० १०) घण्टाताड (वि०) घण्टा बजाने वाला। (दयो० १८) घण्टाधीवरी (स्त्री०) घण्टा बजाने वाली धीवरी। (दयो०१२) घण्टानादः (पुं०) घण्टे की ध्वनि। घण्टापथः (पुं०) राजमार्ग, मुख्यपथ। घण्टामुदा (स्त्री०) अंगुलियों की विशेष क्रिया। घण्टाशब्दः (पुं०) घण्टा ध्वनि। घण्टिका (स्त्री०) [घण्टा ङीष् कन्] चूंघरू, किंकिणी। घण्टुः (स्त्री०) धुंघरू, हाथी की झालर पर झूमते हुए घुघरू। घण्डः (पुं०) [घण् इति शब्दं कुर्वन् डीयते-घण्+डी+ड] मधुमक्खी। घन (वि०) १. सघन, पूर्ण, गठा हुआ, (सुद०७८) २. बड़ा, महत्त्वपूर्ण, अभेद्य, प्रचण्ड, ३. शुभ, भाग्यशाली। बहुत (जयो० १२/१३३) निविड (जयो० २।८) *मेघात्मक (जयो० वृ०८४८) घन-शब्द विशेष- 'कांस्यतालदिजो घनः' वाद्य विशेष'संघनं घनमेतदास्वनत्' (जयो० वृ० १०/१६) वाद्य भेदाश्चत्वार इत्यमरकोशानुसारं तत्र घन-तुषार-ततआनद्ध-रूपाणि' घनमेतन्नामकं वाद्यम्।' (जयो० वृ० १०/१६) २. नागमोथा, नागरमोथा एक औषधि विशेष। यावद् घनं नेत्रवालं तावत् धान्याहिते रतः। (जयो० २८/३०) घन-मेघ, बादल। घनो मेघोऽथ विस्तारे इति विश्वलोचनः (जयो० २४/२) घनकफः (पुं०) ओले, हिमकण। घनम् (नपुं०) लोहमुद्गर। (जयो० ७/८०) घनकाल: (पुं०) वर्षाकाल। घनगर्जितं (नपुं०) मेघ ध्वनि। घनगोलकः (पुं०) स्वर्ण, रजत मिश्रण। घनघोरः (पुं०) मेघसमूह, अत्यधिक (सुद० ९७) मेघ घटा। (सुद० १२०) 'अकाल एतद् घनघोररूपमात्रम्' घनजम्बाल: (पुं०) प्रगाढ दलदल। घनता (वि०) अनल्पता, प्रगाढ़ता। (जयो० १३/२३) 'जनताया घनतां श्रितो भवान्' घनताल: (पुं०) चातक पक्षी, सारंग। घनतोल: (पुं०) चातक पक्षी। घननाभिः (स्त्री०) धुंआ। घननीहारः (पुं०) सघन कुहरा। घनपदवी (स्त्री०) अन्तरिक्ष, आकाशमार्ग। घनपाषण्डः (पुं०) मोर, मयूर। घनप्रसूनं (नपुं०) अत्यधिक पुष्प। लतानिकुञ्जेषु घनप्रसूनपदेन पुण्यायुधलब्धकेन। घनमूलं (नपुं०) गणित सम्बंधी घनराशि। (जयो० २४/१०७) घनमेचकः (पुं०) सघन मेघ। 'सद्वर्त्म लुप्तं घनमेचकेन' __ (वीरो० ४/८) घनरसः (पुं०) प्रगाढ़ रस। घनलोकः (पुं०) सप्त रज्जु प्रमाण लोक। सात राजु प्रमाण आकाश की प्रदेश पंक्ति को जगश्रेणी, जगश्रेणी के वर्ग को जगप्रतर और जगप्रतर को जगश्रेणी से गुणित करने पर घनलोक होता है। | घनवर्गः (पुं०) गणित में घन का वर्ग, प्रमाण विशेष। छटा घात। घनवर्त्मन् (नपुं०) आकाश, नभ। घनवल्लिका (स्त्री०) विद्युत, बिजली। घनवासः (पुं०) कद्दू, कुम्हड़ा। घनवाहनः (पुं०) १. शिव, २. इन्द्र। घनविघातः (पुं०) घनों का प्रहार। 'घनविघातमुपैति तनुनपात्' (जयो० २५/५५) घनश्यामः (वि०) काले मेघ। घनसमयः (पुं०) वर्षा ऋतु, वर्षाकाल। घनसारः (पुं०) १. कपूर (जयो० ११/२१) घनोऽद बहलो यो सारस्तस्य (सम्य० ६/७६) २. पारा, 'ममात्मने श्रीघनसार-वस्तु' घनानां मेघानां सारस्य, (जयो० ११/२१) घनसार-करणं (नपुं०) कर्पूर मिलन। (जयो० वृ० ११/२१) घरसारपात्री (स्त्री०) रम्भा, अप्सरा। (जयो० ५/८१) घरसारविन्दु (स्त्री०) कर्पूरांश। (जयो० १७/१०१) घनोऽप्रवि रलश्चासारश्च विन्दुः' (जयो० वृ० १७/१०१) घनसारसारः (पुं०) कपूरी तत्त्व, कर्पूर का सत्व। गर्भार्भकस्येव यशः प्रसारैराकल्पितं वा घनसारसारैः' (वीरो० ६/३) घनस्थली (स्त्री०) विस्तार युक्त। 'घनो विस्तारो यासां तास्ताः स्थल्यस्तासु' (जयो० व २४/२) घनोमेथेऽथे विस्तारे' इति विश्वलोचनः। (जयो० वृ० २४/२) घनस्वनः (पुं०) मेघ गर्जना घनहस्तः (पुं०) प्रमाण विशेष, हस्त माप। For Private and Personal Use Only Page #381 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir घनागमः ३७१ घातिवनं घनागमः (पुं०) वर्षा समय, वर्षर्तुः। (जयो० २३/३६) घनाङ्गलं (नपुं०) एक प्रमाण विशेष, प्रतरांगुल को दूसरे सूच्यंगुल से गुणित करने पर जो प्रमाण आता वह घनाङ्गल कहलाता है। 'घणे घणंगुलं लोगो' (ति०प० १/१३२) घनाघनः (पुं०) प्रगाढ़ मेघ, सघन मेघ, महामेघा (सु०वृ० ११५) घना निविडा ये घनाघना मेघाः। (जयो० २४/१९) घनाच्छनं (नपुं०) सघन आच्छादन, प्रगाढ़ आवरण। तत्र तल्पे नभः कल्पे घनाच्छादनमन्तरा। (सुद० ७८) घनात्ययः (पुं०) मेघों की समाप्ति। घनान्तः (पुं०) मेघ इति श्री। घनान्तरः (पुं०) मेघों से आवृत, मेघाच्छन्न । घनान्त राच्छन्नपयोजबन्धु रिवाबभौ स्वोचितधाम सिन्धुः। (वीरो० ६/९) घनान्धकारः (पुं०) प्रगाढ़ सम, अत्यधिक अन्धकार, घनघोर घटा। अनारताक्रान्तघनान्धकारे भेदं निशा-वासरयोस्तथारे' (वीरो० ४/२५) घनापित (वि०) पुञ्जीभूत (जयो० १/२३) निविडता, प्रगाढ़ता। (जयो० २४/४५) घनामयः (पुं०) खजूर वृक्षा घनाश्रयः (पुं०) अन्तरिक्ष, पर्यावरण। घनिष्ठ (वि०) प्रगाढ, निविड। 'छायां सुशीतलतलां भवतो घनिष्ठां'। घनीभावः (पुं०) प्रगाढ़ता का भाव। (जयो० १०/९९) घनोपल: (पुं०) ओले हिमरुण। (जयो० २४/२७) घनोघः (पुं०) मेघ समूह। (सम्य० ४४) घनोदयः (पुं०) वर्षाकाल, वर्षा ऋतु। 'घनानामुदयो यत्र तं । वर्षाकालमिति' (जयो० वृ० २२/२) २. घनोऽतिशयरूप उदयो यस्य' (जयो० वृ० २२/२) घरट्टः (पुं०) [घर सेकं अट्टति अतिक्रामति-घर+अट्ट अण्] चक्की , खरांस, घराट। घर्घर (वि०) [घर्घरा+क] गरगर शब्द करने वाला, गड़गड़ाने वाला, कलकल शब्द करने वाला। घर्धरः (पुं०) कलकल ध्वनि। घर्घरा (स्त्री०) घुघरूओं की ध्वनि। घर्घरिका (स्त्री०) [घर्घर+ठन्+टाप्] एक वाद्य यन्त्र। घर्धरितं (नपुं०) घुरघुराना। धर्मः (पुं०) [घरति अङ्गात्-घृ+मक्] ताप, गर्मी। गर्मी धूप। (जयो० ११) सूर्यस्य घर्मत इहोत्थितमस्मि पश्य वाष्पीभवद्यदपि वारिजलाशयस्य। (वीरो० १९/४३) घर्मजन्य (वि०) ग्रीष्मता युक्त, गर्मी उत्पादक। (जयो० २६/५६) धर्मसत्ता (वि०) गर्मी, उष्णता (जयो० ११/४४) घर्ष (सक०) रगड़ना, घर्षण करना, चूरा करना, पीसना। घर्षः (पुं०) रगड़, पीसना। घर्षणं (नपुं०) पीसना, चूरा करना। १. मैथुन नियन घर्षणं गजिते खे इति वि' (जयो० २३/२६) घस् (सक०) खाना, भोजन करना, निगलना। घस्मर (वि०) [घस्+क्मरच्] खाऊ, पेटू, अधिक खाने वाला। घस्र (वि०) [घस्+रक्] हानिकारक, दु:खयुक्त। घाटः (पुं०) [घट्+अच्] ग्रीवा का पिछला भाग। घाणी (स्त्री०) कोल्हू। (समु० १/५) घाण्टिक (वि०) घंटी बजाने वाला। घातः (पुं०) [ह्र+णिच्+घञ्] ०हानि, नुकसान, ०प्रहार, ०नाश, ०आघात, संहार। (सुद० ४/२६) ०संघात 'असत्य वक्तुर्नर के निपातश्चासत्यवक्तुः स्वयमेव घातः।' (समु० १/९) घातक (वि०) संहारक, नाशक, प्रहारक। घातकरा (वि०) संहारक, घात करने वाला, प्रहार करने वाला। 'परघातकरः करोऽस्य चास्य' (जयो० १२/६४) घातचन्द्रः (पुं०) अशुभ राशि पर स्थित चन्द्र। घाततिथिः (स्त्री०) अशुभ चन्द्र तिथि/दिन। घातन (वि०) [ह्न+णिच्+ ल्युट्] संहारक, हत्या करने वाला। घातनं (नपुं०) संहार, प्रहार, घात। घातपरायणः (पुं०) विध्वंस करने में कुशल, हानि करने में प्रवीण। 'एकः सहजसौहार्दी परो घातपरायणः' (दयो० ६२) घातसत्त्वस्थानं (नपुं०) एक गणतीय स्थान, बन्ध सदृश अष्टांक और अर्थक के मध्य में अधस्तन ऊर्वक से अनन्तगुणा और उपरिम अष्टांक के अनन्तगुणा हीन होकर जो सत्त्वस्थान अवस्थित होता है। घातिकर्मन् (नपुं०) घात/क्षय/क्षीण किए जाने वाले कर्म। ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय और अन्तराय ये चार कर्म केवलज्ञान, केवलदर्शन, सम्यक्त्व या चरित्र तथा वीर्य रूप गुणों से घात किए जाते हैं। घातिन् (वि०) [ह्र+णिच्+णिनि] घात करने वाला, नष्ट करने वाला, घातक, संहारक। (समु०८/८) (सम्य० ४८) घातिप्रकृतिः (स्त्री०) घातक प्रकृतियां। (वीरो० १२/३८) घातिवनं (नपुं०) घातियां कर्म रूप वन। (भक्ति० ३२) For Private and Personal Use Only Page #382 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir घातुक ३७२ घृणासद्भाव: घातुक (वि०) [ह्न+णिच्+उकञ्] संहारक, हानिकारक। घुर्धरी (स्त्री०) चोलर, चिल्हड़ एक कृमि विशेष। घातोत्थित (वि०) नाश से उत्पन्न। (जयो० २/१३०) घुष (सक०) घोषणा करना, ध्वनि करना। (घोषयत्) (जयो० घात्य (वि०) [ह्न-णिच्+ण्यत् घात करने योग्य, नाश करने ७/७) योग्य। घुसणं (नपु०) [घुष्। ऋणक्] केसर, जाफ़रान। घार: (पुं०) [घ्+घञ्] छिड़कना, तर करना। घूकः (पुं०) [घू इत्यव्यक्तं कायति-घू+के+क] उल्लू, उलूक। घार्तिकर (वि०) [घृतेन निर्वृतः-ठञ्] घी में तली हुई पूड़ी काकारिपक्षी। (जयो० १८/४) 'घूकाय चान्ध्यं दददेव आदि। भास्वान्' (वीरो० १९/१३) घावः (पु०) व्रण। (मुनि० ३१) घूर्ण (सक०) १. घूमना, परिभ्रमण करना, २. हिलना। धूर्णते घासः (पुं०) आहार, भोजन, ग्रास, कवल। १. घांस। (जयो० वृ०१८/४१) ३. चक्कर काटना। घूर्णते, घूर्णति। घासकुन्दं (नपुं०) चरगाह स्थान। ४. झूमना (जयो० २६/६१) घासभक्षणं (नपुं०) आहार करना, ग्रास लेना। (जयो० वृ० घूर्ण (वि०) [घूर्ण+ अच्] हिलाने वाला, घुमाने वाला। २/२०) घूर्णनं (नपुं०) [घूर्ण+ ल्युट्] घूमना, लपेटना, समेटना। घासवद् (वि०) घास सदृश। धासेन तुल्यं घासवद् यथा पशवो घूर्णमानता (वि०) आप्रदक्षिणा, घूमा हुआ, चक्कर काटता घासभक्षणे तत्परा भवन्ति। (जयो० वृ० २/२०) हुआ। 'राहुं प्रति आप्रदक्षिणं घूर्णमानता हसत्' (जयो० घु (अक०) शब्द करना, ध्वनि करना। वृ० २६/१५) घुः (स्त्री०) [घु+क्लिप] घुघु शब्द गुटर गूं। घुसंज्ञा (जयो० घु (सक०) छिड़कना, बिखेरना, फैलाना। १६/७३) घृण (अक०) चमकना, दीप्तियुक्त होना, प्रज्वलित होना। घुट ( अक० ) १. प्रहार करना, विरोध करना। २. वस्तु विनिमय घृणा (स्त्री०) निन्दा, ग्लानि, अरुचि, उपेक्षा, निरर्थक। करना। 'नीतिरैहिकसुखाप्तयेनृणामारीतिरुत कर्मणे घृणा' (जयो० घुट: (पुं०) [घुट्। अच्] टखना, घुटना। २/४) घुण (सक०) लेना, ग्रहण करना, समेटना। घृणाकर (वि०) निन्दा करने वाला, लज्जायुक्त। (दयो० ९८) घुणः (पुं०) [घुण्+क] घुन, लकड़ी में लगने वाला कीड़ा। प्ररयबलाबालगोपालादीनामपि घृणाकरं कार्यमेतत्। (दयो० ते इन्द्रिय जीव, तीन इन्द्रिय जीव। (वीरो० १९/३५) ९८) घुणाक्षरं (नपुं०) १. लकड़ी या पुस्तक पर घुन कीट द्वारा घृणाकरि (वि०) निरर्थक, प्रयोजन रहित। निजरूपनिरूपिणे बनाई गई रेखाएं। २. अक्षरात्मक रेखाएं। घृणाकरि अस्मै खलु दर्पणार्पणा' 'मुकरदानं घृणाकरी घुणाक्षरन्यायः (पुं०) असंभव का कदाचित् सिद्ध होना। घुन निरपेक्षा गर्दाऽभवदित्यर्थः। (जयो० १०/४९) कीट द्वारा खाए गए पुस्तक के पन्नों पर जो अक्षरात्मक घृणाधिकारी (वि०) घृणा का पात्र। न धर्मिणो देहमिदं रेखाएं उत्पन्न होती हैं वे प्रायः असंभव है-यदि कोई विकारि (सम्य० ९१) दृष्ट्वा भवेदेषु घृणाधिकारी' (सम्य० कदाचित् कार्य सिद्ध हो जाता है तो यह कार्य 'घुणाक्षरन्याय' ९१) कहलाता है। 'घुणः कृमिविशेषः स शनैः शनैः काष्ठं घृणापरक (वि०) घृणा में तत्पर। भासौ घृणापरकयेन्द्रदिशाशु भक्षयति, तेन तस्य भक्षमाणस्य विचित्र रेखा भवन्ति तासां दन्त' (जयो० १८/३३) मध्यात् काचिद्रेखाऽक्षराकारा भवति। (नीतिवाक्यामृत | घृणापात्रं (नपुं०) घृणाधिकारी। टीका०) (जयो० १०.९३) घृणारहित (वि०) निन्दा से रहिता घृणासद्भावविकला (जयो० घुणित (वि०) धुन युक्त हुआ। (जयो० २/७७) २२/८२) अघृणी। घुण्ट: (पु०) रखना. घुटना। घृणावलम्ब (वि०) घृणा पर आधारित। 'स्वरादि धर्मेण घृणाघुण्डः (पुं०) [घुण्ड ] भ्रमर, मधुकर, भौंरा। वलम्बात्' (भक्ति० ४१) घुर (सक०) शब्द करना, चीखना, चिल्लाना। घृणावान् (वि०) ग्लानि युक्त। (जयो० १/४७) घुरी (स्त्री०) [घुर+कि+ङीष्] नाक में छेदकर रस्सी डालना। घृणासद्भावः (पुं०) घृणा की उपस्थिति। For Private and Personal Use Only Page #383 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir घृणासहित ३७३ घोरब्रह्मचारित्व २७/४) घृणासहित (वि०) घृणा युक्त। (जयो० वृ० १५/२६) घृताम्रव (पुं०) घृत का निकलना। घृणास्पदं (नपुं०) घृणा का स्थान। पित्रोश्च मूत्रेन्द्रियपूतिमूलं घृष् (सक०) रगड़ना, घिसना, पीसना, चूरा करना, कुचलना घृणास्पद केवलमस्य तृलम्। (सुद० १०२) सौन्दर्यमङ्गे चमकना। किमुपैसिभद्रे घृणास्पदं तावदिदं महद्रे। (सुद० १२०) घृष्टिः (स्त्री०) [घृष्- क्तिच] पीसना, चूरा करना, प्रतिद्वन्द्विता। घृणिः (स्त्री०) [घृ+नि] गर्मी, प्रकाश, धूप। घृष्टि-कुट्टनं (नपुं०) पीसना-कूटना, कुचलना, मसलना। घृणित (वि०) निन्दनीय, अपमान जन्य। (जयो० २५/५) 'गतस्य सर्पस्य घृष्टिकुट्टनवद्युक्तं न भवति। (जयो वृ० 'कदापि कुर्याद् घृणितं न कर्म' (सम्य० ९६) वृणित-विचारवान् (वि०) मलिन स्वभाव वाला। (जयो० वृ० २५/२६) घृष्टिचिन्तनं (नपुं०) प्रतियोगिता का चिन्तन। शोघ्र चिन्तन। घृणिताचरणं (नपुं०) निन्दिताचरण, अभिनिन्दिताचरण। घृणा (जयो० २५/८०) करने वाले। वाचा वा श्रुतवचने निरतया भूया असूयाघृणी। | घोट: (पुं०) [घुट्+अच्] घोड़ा, अश्व। (मुनि०८) घोटकः (पुं०) अश्व, हय, घोड़ा। (जयो० वृ० १/१९) घृणोत्पादक (वि०) घृणा को उत्पन्न करने वाला, ग्लानि को 'वाजि-वाजिप्रमुखा घोटकप्रभृत्यो' (जयो० वृ० १/३८) उत्पन्न करने वाला। (जयो० वृ० २५/२६) घोटकगतिः (स्त्री०) घोड़े के गति, (जयो० वृ० ३/११४) घृणोद्धरण (वि०) घृणाजन्य। (जयो० २।८२) घोटकदोषः (पुं०) कायोत्सर्ग का दोष। घृतं (नपुं०) [घृ+क्त] ०घी, तप्त मक्खन। ०आज्य। घोटकपक्षं (नपुं०) घोटक स्थान। (जयो० १२/११७) सर्पि (जयो० ११४८६) (सम्यक घोटकमुखं (नपुं०) घोड़े का मुख। चतुर्दशगुणस्थानमुखेन १५) नार्दिताय तु सर्चिप घृतं सुप्लु हीह सुविचारतः घोटकमुखे चतुर्दशप्रकारा गुणा वल्गना भवन्ति' (जयो० कृतम्। (जयो० २/१०३) वह्निघृतं द्रावयतीत्यनेन घृतं पुनः वृ०३/१६४) 'चतुर्दशगुणस्थानानि मुखं द्वारं यस्येति ध्यान संद्रवतीतिश्रयेन:। (सम्य०७) पक्षे' (जयो० वृ०८/११४) घृतकृत (वि०) सर्पिविधानार्थ, घृत बनाने के लिए। (जयो०। घोणसः (पुं०) रेंगने वाला जन्तु। २/१४) तक्रता हि नवनीतमाप्यतेऽतः पनघृतकृते विधाप्यते। घोणा (स्त्री०) नाक, नथूआ। घृतवत् व्यञ्जनम् (नपुं०) राज्यपरिपूर्ण व्यञ्जन (जयो० घोणिन् (पुं०) [घोणा इनि] सूकर। १२/१२३) घेवर, राजभोग। घोण्टा (स्त्री०) [धुण+र+टाप्] बदरीवृक्ष, उन्नाव वृक्षा घृतधारा (स्त्री०) घी की धार। घोण्टाफलं (नपुं०) बदरीफल। घृतपाचित (वि०) घृत में पकाया गया। (जयो० १०) घोर (वि०) [घुर्+अच्] भीषण, भयानक, भयंकर, अत्यधिक, घृतपूरः (पु०) घेवर, घी से बना पकवान। घना, बहुत। घृतलेखः (पुं०) घृत की रेखा। (जयो० २०/५९) घोरडू (नपुं०) मूंग, जो सीझते नहीं, कङ्कोडुक। (वीरो० घृतवरः (पुं०) वृतपूर, घेवर, घी से निर्मित श्रेष्ठ पकवान्। १७/३३) घृतवरभूपः (पुं०) घेवर, घी से निर्मित मिष्ठान्न। 'घृतेन | घोरगुणं (नपुं०) शक्तिजन्य गुण। कान्त्या वा वरौ श्रेष्ठौ भूस्थानं पातो रक्षत इति घोरतपः (नपुं०) प्रबलतप, कठोर तपस्या। कायक्लेशादि तप। घृतवरभूपौ-व्यञ्जनविशेषौ त्रिवलिर्जलेविका। कपौलौ घोरतमः (पुं०) गहन अन्धकार। रात्रि: स्वतो घोरतमो विधात्री। घृतवरभूपौ' (जयो० वृ० ३/६०) (भक्ति० २५) घृतवरी (स्त्री०) नाम विशेष, माता का नाम। (सुद०१/४६) घोरदर्शनं (नपुं०) भयंकर दृष्टि।। घृतसिता (स्त्री०) घी-शर्करा। 'घृतं च सिता घृतसिते' (जयो घोरदृष्टिः (स्त्री०) भयानक अक्षिा डरावनी आंखें। वृ०२२/९१) घोपराक्रमः (पुं०) कठिन श्रम, अधिक परिश्रम। घृतस्रावी (स्त्री०) एक ऋद्धि विशेष। (जयो० १९/८०) घोरपराक्रमी (वि०) सहनशील। घृताची (स्त्री०) [घृत अञ्जु क्विप्ङीष्] १. रात, २. सरस्वती। | घोरब्रह्मचारित्व (वि०) चारित्र की उत्कृष्टता वाला ब्रह्मचर्य। एक अप्सरा। घृताची मेनका रम्भा उर्वशी च तिलोत्तमा। एक ऋद्धि विशेष। For Private and Personal Use Only Page #384 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir घोरस्मरः ३७४ चक्रः घोरस्मरः (पुं०) प्रवल काम। स एव घोरस्मर भागयुग्मतामहो (समु० ४/३०) घोरा (स्त्री०) श्रवण, चित्रादि नक्षत्र की गति। घोलः (पुं०) [घुर्+घञ्] तरल, घुला हुआ पदार्थ। घोषः (पुं०) [घुष्+घञ्] घोषणा, उद्घोष, ध्वनि, कोलाहल, १. आहीर वाली। घोषणा (स्त्री०) सूचना, ढिंढोरा, राजाज्ञा। घोषणापत्रं (नपुं०) सूचना पत्र, आदेश पत्र। घोषकः (पुं०) अहीर, अभीर। घोषका अभीरानृपस्य (जयो० वृ० २१/५८) 'आगताश्च दधिभाजनादिभिर्घोषकान्' घोषणं (नपुं०) [घुष्+ ल्युट्] उच्चारण, ध्वनि, निनाद। घोषकोला (स्त्री०) कुल्हड़ा, कद्दू। घोषयित्नुः (स्त्री०) हलकारा, ढिंढोरा। घोषवती (स्त्री०) वीणा विशेष। घोषवल्ली (स्त्री०) कुल्हड़ा, कद्दू। (जयो० वृ० २१/५२) घोषा (स्त्री०) सौंफ। न (वि०) विनाशक, घातक, विध्वंसक। घ्रा (सक०) सूंघना, सुगंध लेना। घ्राण (भू०क०कृ०) सूंघा। घ्राणं (नपुं०) नाक, नासिका। घ्रायतेऽनेनेति घ्राणम्। घ्राणनिरोधः (पुं०) सुगंध रहित। घ्राणेन्द्रिय (नपुं०) घ्राण इन्द्रिय, तीसरी इन्द्रिय। घ्रातिः (स्त्री०) सूंघने की क्रिया। चक् (अक०) १. तृप्त होना, संतुष्ट होना, २. प्रतिरोध करना। चकवी (स्त्री०) कोककुटम्बिनी (दयो० २/६) चकारः (पुं०) चवर्ग। (जयो० १/४८) चकित (वि०) [चक्र+क्त] आश्चर्य युक्त, विश्मय जन्य, प्रकम्पित, भयभीत, भीरु, आशंका युक्त। चकितं (अव्य०) भय से, आश्चर्य से, विश्मय से। चकोर: (पुं०) चकोरपक्षी, चकवा, चन्द्रमा की किरणें ही जिसका आधार है। (समु० ४/२०) 'मुनीश! सच्चारुचकोरचन्दमः' जीवंजीव पक्षी-चकोरैः जीवंजीवैः पक्षिभिः 'जीवंजीवश्चकोरकः' इत्यमरः (जयो० वृ० १८/६) चकोर चक्षुः (स्त्री०) जीवंजीव नयन, चंचल नयन, चकोर पक्षी की तरह नेत्र। 'सुदर्शन त्वञ्च चकोर-चक्षुषः' (सुद० ३/४१) चकोरदृक् (नपुं०) चंचल नेत्र, चकोर नयन, जीवंजीव। (जयो० १८/२३) (सुद०७४) तव चैष चकोरदृशोऽवश्यं च कौमुदाप्तिमयः' (जयो० ६/११२) 'चकोरस्य दृशाविव' (जयो० वृ० ६/११२) चकोरलोचना (स्त्री०) चकोराक्षी। (जयो० १५/९८) चकोरसमा (वि०) चकोर सदृश। (जयो० ६/६४) चकोराक्षी (स्त्री०) चकोरलोचना। 'चकोरस्य अक्षिणी यस्याः सा चकोराक्षी सा बाला।' (जयो० वृ० ६/८९) चकोरी (स्त्री०) खञ्जनिका। (दयो० ५३) पुरा तु राजीवदृशः किलोरी चकार राज्ञो दृगियं चकोरी। (जयो० ११/२) चक्की (स्त्री०) घरघट्टी ०पीसनी-'चक्की' ति लेक भाषयाम् । (जय ७८५) चक्रं (नपुं०) १. पहिया, चाक, गोलाकार अस्त्र, वृत्त, मण्डल। चक्रश्च कृत्रिमं चक्रे चक्रिणो दिग्जये जयम्' (जयो० ७/४१) चक्र सैन्ये रथाङ्गेऽपि आम्रजालेऽम्भसांभ्रमे। कुलाकृत्यनिष्पत्तिभाण्डे राष्ट्रास्त्रभेदयोः।। इति विश्वलोचनः।। (भक्ति-वृ. ६) २. सेना, समूह, रथाङ्ग, आम्रजाल, रथाङ्गः चक्र। (जयो० वृ० १/१९) ३. प्रांत, जिला, राष्ट्र, ग्राम समूह। ४. कुम्हार का चाक। अन्यातिशायी रथ एकचक्रो रवेरविश्रान्त इतीमशक्रः। तमेकचक्रं च नितम्बमेनं जगज्जयी संलभते मुदे नः। (जयो० ११/२२) 'सुप्रसिद्धमेकं चक्रं परिमण्डलं' (जयो० वृ० ११/२२) * समूह (जयो० २/१२१) चक्रः (पुं०) हंस पक्षी, चकवा। चः (पुं०) चवर्ग का प्रथम व्यञ्जन, इसका उच्चारण स्थान तालु है। च-चकार (जयो० वृ० १/४७) चः (पुं०) [चण् चि+उ] चन्द्र, कच्छप। चास्य चन्द्रमस्। (जयो० २५/८६) च (अव्य०) १. और, तथा, अन्तिम शब्द, (सुद० २/१८, २/४८) में प्रयुक्त होने वाला, दो या दो से अधिक के बीच में प्रयुक्त अथवा या आदि का बोधक। २. निश्चय, अवधारण, निर्धारण। 'निघर्षकुण्डी न च तुण्डिकेत्यरं' (जयो० ५/७८) ३. पादपूर्ती (पादपूति के रूप में च का पादपूरणे) (जयो० ३/११५) (जयो० ७/९२, २७/१) प्रयाग-गुप्तिभागिह च कामवत्तु-नः पक्षवाति च शीतरश्मिवत्पुनः। (जयो० ३/१५) 'गदितं च वचोऽदः' (जयो० ४/५०) इस वाक्य में च पादपूर्ति के लिए है। For Private and Personal Use Only Page #385 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir चक्रकम्बुकः ३७५ चक्रसंज्ञः चक्रकम्बुकः (पुं०) सुदर्शन चक्र एवं पाञ्चजन्य शङ्ख। (जयो० षड्चक्रार-बन्ध-जयो० वृ० २४/१४४) (जयो० वृ० २४/५) २५/८७) चक्रकारकं (नपुं०) १. नख, २. सुगन्धित पदार्थ। चक्रबन्धप्रयोजकः (पुं०) षड्यक्रार बन्ध का कथन। (जयो० चक्रगण्ड (स्त्री०) तकिया, मसनद, गोलाकार तकिया। वृ० ९/९५) चक्रगतिः (स्त्री०) वृत्ताकार परिभ्रमण, गोल घूमना। चक्रवालः (पुं०) चक्रमण्डल। चक्रगुच्छः (पुं०) अशोक तरु। चक्रभर्तृ (पुं०) कुलाल, कुम्हार, १. चक्र का मालिक। स चक्रग्रहणं (नपुं०) दुर्ग प्राचीर, परकोटा। चक्रभर्ता मणिकादिभारकर्तापि देवाऽकथि कुम्भकार:। चक्रचर (वि०) चक्राकार परिभ्रमण करने वाला। (जयो० १२/३७) चक्रचूडामणि (स्त्री०) मुकुट मंडित मणि, गोलमणि। चक्रभृत् (पुं०) चक्रधर। चक्रचेष्टा (स्त्री०) नयचक, न्याय ग्रन्थ, नय पद्धति। चक्रवाक चक्रभेदिनी (स्त्री०) रजनी, रात्रि। चेष्टा, भंवर-संचार (वीरो० वृ०९) चक्रमण्डलः (पुं०) वृत्ताकार। चक्रवीवकः (पुं०) कुम्भकार, कुम्हार। चक्रमण्डलिन् (पुं०) सर्प जाति। चक्रतीर्थ (नपुं०) पवित्र स्थान। चक्रमुखः (पुं०) सूकर। चक्रदष्ट्र (पु०) सूकर। चक्रयानं (नपुं०) गाड़ी, चक्के से चलने वाला वाहन। चक्रधरः (पुं०) १. राजा अर्ककीर्ति, चक्रवर्ती अर्ककीति. चक्रयुगः (पुं०) चक्के में तेल। (जयो० १३/५) (जयो० ९/८२) २. विष्णु। चक्ररदः (पुं०) सूकर। चक्रधारा (स्त्री०) चक्र का घेरा, चक्र परिधि। चक्ररायुधः (पुं०) चक्रशस्त्र। (समु० ६/२४) चक्रधुरी (स्त्री०) चक्रनेमि, पहिए की धुरी। . चक्रवर्तिन् (पुं०) सम्राट, चक्रवर्ती राजा, षट्खण्डाधिपति। चक्रनाभिः (स्त्री०) वृत्ताकार नाभि। आसमुद्रक्षितीशः। (वीरो० २। ) (जयो० ३/५) (जयो० चक्रनामन् (पुं०) चकवा। ७/६०) चक्रवर्तिनः चतुर्दशरत्नाधिपः षट्खण्डभरतेश्वरः चक्रनायकः (पुं०) चक्रवर्ती, नरेन्द्र (भक्ति० ३२) चक्रनेमिः (स्त्री०) चक्रधुरी। चक्रवर्तितनयः (पुं०) चक्रधर का पुत्र। (जयो० ७/७१) चक्रपाणिः (पुं०) विष्णु, चक्रधर, भरत चक्रवती, भरतेश्वर, (जयो० ४/११) अर्ककीर्ति नाम (जयो० ४/११) सृष्टेः पितामहः स्रष्टा 'चक्रपाणिस्तु रक्षकः। संहर्तुमुद्यतः चक्रवर्तिसुतः (पुं०) चक्रवर्ती का पुत्र। सद्यस्तामेनां प्रथमाधिपः।। (जयो० वृ० ७/२३) आदिचक्रवर्ती | चक्रवर्तिसुतत्व (वि०) चक्रवर्ती के सुतपना। चक्रवर्ती के पुत्र भरत (जयो० वृ० २०/१०) के समान। चक्रवर्तिसुतत्वेन मणिकाद्यभिमानतः। (जयो० चक्रपादः (पुं०) गाड़ी, यान। ७/८) श्री भरतसम्राडात्मजत्वेन (जयो० वृ० ७/८) चक्रपालः (पुं०) राज्यपाल, सेनाधिकारी। चक्रवर्तिनी (स्त्री०) साम्राज्ञी, प्रवृत्तिकर्ती। (जयो० ५/९२) चक्रपुरं (नपुं०) भरतक्षेत्र का एक नगर। समस्त्यमुष्मिन् । चक्रवाकः (पुं०) चकवा। ___ भरतेऽथ चक्रपुरं पुनः शक्रपुरातिशयि। (समु० ६/१) चक्रवाकनिधुनः (पुं०) कोकयुग। (जयो० वृ० १५/५१) चक्रपुरेश्वरः (पुं०) चक्रपुर का राजा चक्रायुध। (समु० ७/१) चक्रवाकी (स्त्री०) चकवी। (वीरो० २/४५) भर्तुर्युतिश्चाप्ययुति चक्रबन्धः (पुं०) छन्द विशेष, छन्द की प्रक्रिया वराकी तनोति सम्प्राप्य हि चक्रवाकी। (वीरो० ४/२५) 'एतच्छन्दश्चक्रबन्धे षडरात्मके लिखित्वा अग्राक्षरैः चक्रवाटः (पुं०) सीमा। स्वयंवरपल' इति ध्येयम्। स्वप्रेष्ठ स्मरसोदरं जयनृपं तत्रागतं चक्रवातः (पुं०) तूफान, हवा का गोलाकार प्रवेश। सादरं यत्नाद् गोपुर-मण्डलात् स्वयमथोत्सर्गस्वभावाधिपः। चक्रवृद्धिः (स्त्री०) ब्याज पर ब्याज। वप्ताऽऽनीय सुपुष्कराशयतनोर्धामप्रभृत्युज्ज्वलं रक्त्याऽदात् चक्रव्यूहः (पुं०) सैन्यदल की मंडलाकार स्थापना, चक्राभ। स्वपुरे ऽयमात्तवरदोऽरकृत्यपः श्रीधरः।। (जयो० १/११३) (जयो० वृ० ७/११३) (जयो० ३/११६) सर्गसूची-(जयो० ११/१००) | चक्रसंज्ञः (पुं०) चकवा। For Private and Personal Use Only Page #386 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir चक्रसाह्वयः ३७६ चञ्चप्रहारः चक्रसाह्वयः (पुं०) चकवा। चक्रहस्तः (पुं०) विष्णु। चक्राकार (वि०) गोलाकार, वृत्ताकार। चक्राकृति (वि०) गोलाकार, वृत्ताकार। चक्राधिपतिः (पुं०) षट्खण्डी, छह खण्ड का अधिपति। (जयो० वृ० १३/४६) चक्राभः (पुं०) चक्रव्यूह, चक्राकार सैन्य रचना। (जयो० ७/११३) चक्रायुधः (पुं०) नाम विशेष, राजा (समु० ६/२८) सुन्दरी रानी, अपराजित का पुत्र चक्रायुध। (समु०६/१४) २. शस्त्र विशेष, चक्रशस्त्र। चक्रावर्तः (पुं०) चक्राकार गति। चक्राह्वयः (पुं०) चकवा। (जयो० १६/३९) चक्रितुजः (पुं०) चक्रवर्ती का पुत्र। चक्रित्व (वि०) चक्रवर्ती पद युक्त। (जयो० ७/७) चक्रिपुत्रः (पुं०) चक्रितुज, (जयो० १२/७३) चक्रवर्ती तनय। (जयो० वृ०७/७) चक्रिसुतः (पुं०) चक्रवर्ती पुत्र। प्राह चक्रिसुत एव विशेषः। (जयो० ४/४४) चक्री (पुं०) चक्रवर्ती (हित०सं० १२) चक्रीश्वरः (पुं०) सर्वोच्चाधिकारी, षट्खण्डाधिपति। चक्रोपजीविन् (पुं०) तेली। चक्षु (सक०) देखना, अवलोकन करना, प्राप्त करना, ग्रहण करना, कहना, घोषणा करना। चक्षस् (पुं०) [चश्+असि] अध्यापक, शिक्षक, गुरु, दीक्षागुरु। चक्षुक्षेपः (पुं०) अवलोकन। (जयो० १६/२२) चक्षुरिन्द्रिय (नपुं०) नेत्र इन्द्रिय, जिससे पदार्थों को देखना होता है। चक्षुष्य (वि०) [चक्षये हित: स्यात् चक्षुस्+यत्] १. प्रियदर्शन, लुभावना, सुन्दर। २. हितकर, मनोहर। चक्षुस् (नपुं०) [चक्ष उसि] आंख, नेत्र, नयन, दृष्टि दर्शन, देखने की शक्ति। (जयो० ५/३३) (जयो० १/८९) चक्षुगोचरः (पुं०) दृष्टिगोचर। चक्षुदानं (नपुं०) प्राण प्रतिष्ठा। चक्षुपथ (पुं०) क्षितिज, दृष्टिगत। चक्षुर्दर्शनं (नपुं०) चक्षु से सामान्य ग्रहण होना, सामान्य स्वसंवेदन रूप शक्ति का अनुभव होना। चक्षुर्दर्शनावरणं (नपुं०) चक्षु इन्द्रिय द्वारा सामान्य उपयोग का आवरण। चक्षुर्निरोधः (पुं०) नेत्रेन्द्रिय के रूपादि पर विजय। चक्षुविषयः (पुं०) नेत्र का विषय। चक्षुःस्पर्शः (पुं०) नेत्र का स्पर्श होना, नेत्र द्वारा ग्रहण करना। चकुणः (पुं०) १. वृक्ष, तरु, २. यान। चङ्क्रमणं (नपुं०) [क्रम्। यङ्+ ल्युट्] घूमना, परिभ्रमण करना। इतस्तो गमनम्, इतस्तो परिचरणम् (मूल० ६४९) चङ्ग (वि०) १. वर, श्रेष्ठ, उत्तम, उचित। स्फुटरमाहेति स झर्झरोऽपि चङ्गः। (जयो० १२/७९) २. दक्ष, सामर्थ्यवान्, नवयौवनपूर्ण, ०शोभन। (जयो० १६/४) 'चक्षोदशो सामर्थ्यवान् नवयौवनपूर्णोऽपि' (जयो० वृ० १५/४) चङ्गस्तु शोभने दक्षे इति विश्वलोचनः। (भक्ति० ५) ३. अत्यन्त सुन्दर (जयो० वृ० १/१५) 'भवाद्भवान् भेदमवाप चङ्ग' ४. विचार-चङ्गो दक्षेऽथ शोभने इति वि। (जयो० वृ० २१/५७) चञ्च् (सक०) चलाय करना, हिलाना, घुमाना, इधर-उधर करना, चमत्कार करना। अञ्चति रजनिरूदञ्चति सन्तसमं तन्वि चञ्चति च मदनः। (जयो० १६/६४) चञ्चति - चमत्करोति- (जयो० वृ० १६/६४) चञ्चः (पुं०) [चञ्च+अच्] मान, मापदण्ड। चञ्चत्कान्तिः (स्त्री०) श्याम रूपा। (जयो० वृ० ६/१०७) चञ्चच्चिद् (वि०) मापदण्ड युक्त। (सम्य० ४१) चञ्चरिन् (पुं०) भ्रमर, अलि, भौंरा। चञ्चरीक (पुं०) भ्रमर, अलि, भौंरा। मुहर्मुहुश्चुम्वति चञ्चरीको (वीरो० ६/२१) चञ्चलं (वि०) [चञ्च्+अलच्-चञ्चं गतिं लाति ला+क वा] चलायमान, अस्थिर, चपल, स्वेच्छाचारी, गतिमान। चञ्चलचित्तं (नपुं०) चपलचित्त, चलायमान चित्त। (मुनि० २७) चञ्चलभावः (पुं०) चपल स्वभाव। चञ्चललोचना (स्त्री०) चपलनयना। (जयो० ३/४२) 'चञ्चले हावभावपरिपूर्णे लोचने यस्या। (जयो० वृ०३/४२) चञ्चलतायुक्त (वि०) चपलता सहित। (जयो० वृ० १/६०) चञ्चला (स्त्री०) बिजली, चपला। (जयो० ६/४७) चञ्चा (स्त्री०) गुड़िया। चञ्च (वि०) [चञ्च्+उन्] विख्यात, प्रसिद्ध, चतुर। चञ्चुः (पुं०) हिरण, मृग। चञ्च (स्त्री०) चोंच, (जयो० वृ० ११/४७) (वीरो०४/१९) चञ्चपुटं (नपुं०) चञ्च्वभ्यन्तर, बन्द चोंच। (जयो० १२ चञ्चप्रहारः (पुं०) चोंच मारना। For Private and Personal Use Only Page #387 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir चञ्चुभृत् ३७७ चतुर्मुख चञ्चुभृत् (पुं०) पक्षी। चञ्चुसूची (स्त्री०) वया पक्षी, सौचिक पक्षी। चञ्चू (स्त्री०) चोंच। * छिद्र युक्त लकड़ी। चट् (अक०) टूटना, चटकना, गिरना, अलग होना। चटकः (पुं०) [चट क्वुन्] चिड़िया, गौरैया। चटका (स्त्री०) चिड़िया। (सुद० ९४) चटत्कृति (स्त्री०) चटचटाना, चट चट शब्द करना। चटिका (स्त्री०) चिड़िया। चटु (नपुं०) चाटुता। चटुकी (स्त्री०) चुटकी। (जयो० ५/७२) चटुल-चटिका (स्त्री०) चपल चिड़िया। 'चटुलानां चपलाना चटिकानां कलविद्वानां निस्वनोऽस्ति' (जयो० १८/९३) चटुलापता (वि०) मधुर आलाप। प्रासङ्किमधुरवार्तालाप। (जयो० १३/१८) चटुलोल (वि०) मधुरालापी, मधुरभाषी। कंपनशील। चण (वि०) १. विख्यात, कुशल, प्रसिद्ध। २. सम्पादनः साधन। (जयो० ९/५९) चणकः (पुं०) [चण+क्वुन्] चना। चण्ड (वि०) [चंद्+अच्] १. प्रचण्ड, प्रखर, तेज, उग्र, आवेशयुक्त, तीक्ष्ण, तीखा, सक्रिय, आक्रोश। २. क्रोध। ३. देदीप्यमान-'चण्डो गुणानां परमा करण्डा' (भक्ति० ३१) चण्डमुण्डा (स्त्री०) चामुण्डा, दुर्गादेवी। चण्डमृगः (पुं०) जंगली जानवर। चण्डविक्रम (वि०) प्रवल शक्ति। चण्डा (स्त्री०) दुर्गादेवी। चण्डांशुः (पुं०) सूर्य, दिनकर। (जयो० १५/३०) चण्डातः (पुं०) [चण्ड+अत्+अण] सुगन्धयुक्त क र चण्डातकः (पुं०) लहंगा, साया। चण्डाल (वि०) [चण्ड्+आलच्] क्रूरकर्मी, घृणित कार्य करने वाला। चण्डालः (पुं०) नीच। चण्डालिका (स्त्री०) [चण्डाल+ठन+टाप्] चाण्डाल की वीणा। चण्डिकादेवी (स्त्री०) दुर्गादेवी। (जयो० २४/६८) चण्डिमन् (पुं०) [चण्ड्। इमनिच्] उग्रता, आवेश, क्रोध। चण्डिलः (पुं०) [चन्द्र+इलच्] नाई, क्षौरकर्मी। चण्डीशः (पुं०) महादेव। (जयो० १५/४७) चण्डीशचूडामणि: (स्त्री०) महादेव का मुकुटमणि। चण्डीशस्य महादेवस्य चूडामणिर्मुकुटस्थनीयः। (जयो० वृ० १५/४७) चतुर (वि०) [चत् उरन्] निपुण। नयदिवचारश्चतुरैरवाथि (जयो० १७/९) 'समस्ति चतुरैरपि सेव्या' (जयो० ५/४७) 'मनोरमापि चतुरा समाह' (सुद० ११३) चतुरनुयोगद्वारः (पुं०) चार अनुयोग द्वार। (जयो० वृ० १/६) चतुरुत्तरदशप्रकारत्व (वि०) चौदह प्रकार वाले चौदह संख्या युक्त । (जयो० वृ० १/६) चतुरानम् (नपुं०) चार मुख। (१२/४३) चतुरगः (पुं०) चार अंग, अध्ययन, अध्यापन, आचरण, प्रचारण। (दयो० ४/१६) चतुरगतिः (स्त्री०) कच्छप गति। चतुरतर (वि०) सुदक्षा (जयो० वृ० ८/४६) चतुरशीति (वि०) चौरासी। (समु० ) (जयो० २५/४२) चतुराश्रमित्व (वि०) वर्णि-गृहस्थ वानप्रस्थर्षि' (जयो० वृ० १८/४५) चतुराणा (पुं०) विज्ञ राजा। चत्वारः आणाः प्रकारा चतुरङ्गपूर्णा सभापति, सभ्य वादि-प्रतिवादीति' (जयो० ६/२३) चतुरावर्त (वि०) चार आवर्त वाला। (हित० ५७) चतुर्गतिः (स्त्री०) चार गति-नरक, तिर्यंच, मनुष्य और देव। चतुर्थ (वि०) चौथ, चार अंश का, चार भाग। चतुर्थकालः (पुं०) चौथा काला (मुनि० ३२) चतुर्थपर्वः (पुं०) चौथा अध्याय। चतुर्थलम्बः (पुं०) चौथा अध्याय। चतुर्थवयं (नपुं०) स्यादवक्तव्य। (जयो० १८/६२) चतुर्थसर्गः (पुं०) चौथा अध्याय। चतुर्था (वि०) चार प्रकार का। चतुर्दशन् (वि०) चौदह। (दयो० २४ वीरो० ३/३०) चतुर्दशरत्नं (नपुं०) चौदह रत्न। चतुर्दशगुणस्थानं (नपुं०) चौदह गुण स्थान। चतुर्दशत्व (वि०) चौदहवां (वीरो० ३/१४, जयो० ३/११४) चतुर्दशपूर्वित्व (वि०) चौदह पूर्वगामी। चतुर्दशी (स्त्री०) एक मांगलिक तिथि। चतुर्शमान (वि०) चारों ओर से प्रणाम। (सुद० ९६) चतुर्णिकायः (पुं०) चार समूह देव समूह। (वीरो० १३/१६) पादौ येषां प्रणमन्ति देवाश्चतुर्णिकायकाः। (सुद० १२६) चतुर्भागी (वि०) चार भाग वाला। (दयो० १८) चतुर्मुख (वि०) १. चारमुख वाला, चौराहा, चारों दिशाओं का मार्ग। २. चारद्वार, ३. ब्रह्मा। (जयो० ३/७५) For Private and Personal Use Only Page #388 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir चतुरिन्द्रियः ३७८ चन्द्रकला चतुरिन्द्रियः (वि०) चार इन्द्रिय वाला जीव। (वीरो० १९/३५) चतुर्वर्ग (वि०) चार समूह। (जयो०१/२४) धर्म, अर्थ, काम और मोक्षा (जयो० १/३) चतुर्वर्ण (वि०) १. चार वर्णों वाला। २. चार प्रकार के अक्षरात्मक वर्ण। (वीरो० ३/९) ३. ब्राह्मण-क्षत्रिय-वैश्य शूद्रा' (जयो० १/२४) चतुर (वि०) चार प्रकार का। (दयो० २/१) चतुर्विश (वि०) चौबीस, संख्या विशेष। चतुर्विंशति (स्त्री०) चौबीस, संख्या विशेष। (भक्ति०१८) चतुविंशतिक (वि०) चौबीस संख्या सहित। चतुविंशतिस्त: (पुं०) चौबीस तीर्थंकरों का स्तवन। चतुर्विध (वि०) चार प्रकार का। चतुर्वेद (वि०) चारों वेद वाला। चतुर्षष्टि (स्त्री०) चौंसठ। (वीरो० ३/३०) चतुष्क (वि०) चार से युक्त, चार के समूह वाला। चतुष्टकं चतुष्पथयुक्तम्। चतुष्कगल (वि०) गले के चार गुण। १. गान-गीत चातुर्य। (जयो० ११/४८) २. कवित्व-कल्पनाशीलत्व। ३. मृदुता-माधुर्य। सत्य-सत्यनिष्ठा। चतुष्कपूरणं (नपुं०) चौक पूरना। (जयो० १०/९१) चतुष्क-चक्रं (नपुं०) चार चक्र, चार संख्या चार पहिया। (जयो० १०/४५) चतुष्कयुक्त (वि०) चारा समूह युक्त। (वीरो० १३/३) चतुष्चक्रं (नपुं०) चार चक्र। (जयो०८/५) चतुष्टय (वि०) चार से युक्त, चार संख्या सहित। (सुद० ) चतुष्ट्य (वि०) चार का समूह, चार संख्या। 'पौरुषं भवति । तच्चतुष्यम्' (जयो० २/१०) चतुष्ट्यी (वि०) चार से युक्त। श्रीमुक्त्यर्थचतुष्टयीमिति। (मुनि० ३२) चतुष्पथ (वि०) चौराहा, समन्तमार्ग। चतुष्पथक (वि०) चौराहा, समन्तमार्ग। (भक्ति० १४) (वीरो० १२/३५) श्री चतुष्पथक उत्कलिताय। (जयो० ४/७) चत्वारः पन्थानो यस्य नरकगत्यादयो भवन्ति। (जयो० वृ० २५/४२) चतुष्पादः (पुं०) चार पैर, चौपाया। (दयो० वृ० ३) चत्वरं (नपुं०) [चत्+ष्वरच्] १. चौराहा, आंगन, गोलाकृति, २. मङ्गलमण्डप। चत्वरगः (पुं०) चौराहा। (जयो० २/१३३) चत्वरपूरणं (नपुं०) मण्डल पूरना, रांगोली करना। (जयो० २६/४) सर्वतश्चत्वरस्य मंगल-मंडलस्य पूरणे त्वरा शीघ्रता। (जयो० वृ० २६/४) चत्वारिंशत् (स्त्री०) चालीस, संख्या विशेप। चत्वाल: (पुं०) हवन कुण्ड। चद् (अक०) बोलना, प्रार्थना करना। चदिरः (पुं०) १. चन्द्र, २. कर्पूर। चल (अव्य०) नहीं, न केवल, भी नहीं। चन्दः (पुं०) [चन्द्+णिच् अच्] १. चन्द्रमा, २. कपूर। चन्दनः (नपुं०) [चन्द्। णिच्+ ल्युट्] चन्दन तरु, एक सुगन्धित पदार्थ। (जयो० ९/५५) (जयो० ११४४) (सुद० ३/७) कालागुरु मलयगिरेश्चन्दनमथ नन्दनमपि (सुद० ७१) कृष्णागुरुचन्दनकर्पूरादिकमय (सुद० ७२) चन्दनरसचर्चित (वि०) चन्दन, रस से लिपटा हुआ। (वीरो० १२/१६) सुगन्धियुक्त रस से लिपटा हुआ। चन्दनगिरी: (पुं०) मलयपर्वत। चन्दनः (पुं०) चन्दन तरु, सुगन्धित वृक्ष चन्दन। चन्दनता (वि०) मलयसुगन्धपना। (वीरो०१४/४५) चन्दनदुजः (पुं०) चन्दन वृक्ष, चन्दन तरू। (मुनि० ७) चन्दनद्रुमः (पुं०) चन्दन वृक्षा खदिरादिसमाकीर्ण चन्दनद्रुमववने। (सुद० १२८) चन्दनलेपः (पुं०) चन्दन का लेपा कुङ्कमैणमचन्दनलेपान्। (जयो० ५/६१) चन्दनादिः (पुं०) मलय पर्वत। चन्दनोदकं (नपुं०) चन्दन का जल। चन्दिरः (पुं०) [चन्द्+किरच्] १. हस्ति, हाथी। २. चन्द्रमा। चन्दोदयः (पुं०) चन्द्र का उदय। (वीरो० २/१५) चन्दोपल: (पुं०) चन्द्रकान्त मणि। निशासु चन्द्रोपलाभित्ति। (वीरो० २/१५) चन्द्रः (पुं०) [चन्द्र+णिच्+रक्] १. चन्द्रमा, २. चन्द्रग्रह, कपूर। (दयो० १/१८) ओषधिपति (जयो० १८/१८) 'द्वितीयाचन्द्रोऽष्टमीचन्द्रो (जयो० १/५५) * कुमुद-बन्धु-(जयो० वृ० ९/५१) * सुधाकर--(जयो० वृ० ५/६७) * रजनीश-(जयो० वृ० ५/६७) * सितांशु- (जयो० वृ० १५/५१) * रजनीकर-(शीतरश्मि ३/१५) चन्द्रकला (स्त्री०) चन्द्र किरण। (जयो० ३/६४) (सुद० For Private and Personal Use Only Page #389 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir चन्द्रकाञ्चिताश्छदा ३७९ चन्द्राभासः १/४१) चन्द्रस्य कलामिव। (जयो० १०/११८) किन्न चकोरदृशोः शान्तिमयी प्रभवति चन्द्रकला सा। (सुद० ७४) चन्द्रकाञ्चिताश्छदा (स्त्री०) शिखिपत्र, चन्द्रकान्तमणि की प्रभा। (जयो० १३/४९) चन्द्रकान्त (वि०) चन्द्रमा की प्रभा, (जयो० वृ० १/१४) चन्द्र ज्योत्स्ना। (वीरो० २/१५) २. चन्द्रकान्तमणि। (सुद० १/२८) चन्द्रकान्तमणि: (स्त्री०) शलोपल, चन्द्रकान्त नाम मणि। (जयो० वृ० २४/४९) चन्द्रकान्ता (स्त्री०) रात्रि, चादनी ज्योत्स्ना। चन्द्र इव मनोहरा सुलोचना सैव चन्द्रकान्ता, चन्द्रकान्तमणि। (जयो० वृ० १२/६२) 'चन्द्रकान्ता न कलावता द्रुता' (सुद० ३/४१) चन्द्रकान्तिः (स्त्री०) चादनी। (वीरो० २२/११) चंदगुप्तः (पुं०) चन्द्रगुप्त राजा। (वीरो० २२/११) चन्द्रगृह (नपुं०) कर्कराशि, राशिचक्र में चौथी राशि। चन्द्रगोलः (पुं०) चन्द्रलोक, चन्द्रमण्डल। चन्द्रगोलिका (स्त्री०) चांद, ज्योत्स्ना। चन्द्रग्रहणं (नपुं०) चन्द्र का राहुग्रस्त होना। चन्द्रचञ्चला (स्त्री०) लघु मत्स्य। चन्द्रचूडः (पुं०) शिव, महादेव। (जयो० १६/१४) 'चन्द्रश्चूडास्थाने' चन्द्रचूडामणिः (पुं०) शिव, महादेव। चन्दतुल्य (वि०) चन्द्र के समान। (जयो० १/१०) चन्द्रदारा (स्त्री०) नक्षत्र। चन्द्रद्युतिः (स्त्री०) १. चन्दन की लकड़ी, २. चांदनी। चन्द्रनामन् (पुं०) कपूर। चन्द्रपादः (पुं०) चन्द्रकिरण। चन्द्रप्रभा (स्त्री०) चन्द्र प्रकाश चन्द्रप्रज्ञप्तिः (स्त्री०) चन्द्र के स्वरूप को व्यक्त करने वाला शास्त्र। चन्द्रप्रभः (पुं०) अष्टम तीर्थंकर। (भक्ति० १८) चन्द्रप्रभं नौमि यदङ्गसारस्तं कौमुदस्तोममरीचकार। (वीरो० १/३) कर्तुं कुवलयानन्दं सम्वद्धुं च सुखंजनैः। चन्द्रप्रभः प्रभुः स्यान्नस्तमोप्रहाणये। (दयो० १/२) १. ज्योत्स्ना, चांदनी। चन्द्रस्येव प्रभा ज्योत्स्ना सौम्यलेश्याविशेषोऽस्येति चन्द्रप्रभः। चन्द्रप्रभ विस्भरामि न त्वाम्। (सुद० ८९) चन्द्रबाला (स्त्री०) १. बड़ी एला, २. चांदनी, ज्योत्स्ना। चन्द्र बिन्दुः (स्त्री०) अनुस्वार। चन्द्रभस्मन् (नपुं०) कपूर। चन्द्रभागा (स्त्री०) एक नदी विशेष। चन्द्रभासः (पुं०) तलवार, असि। चन्द्रभूतिः (स्त्री०) चांदी, रजत। चन्द्रमणिः (स्त्री०) चन्द्रकान्त मणि। (जयो० वृ० १५/४८) चन्द्रमण्डल (नपु०) चन्द्रबिम्ब। (वीरो०५/२१) चन्द्रमस् (पुं०) चन्द्रसम। (सुद० १००) शीता अनुष्णा करा: किरणा यस्य तद्भावं, चन्द्रमा। चन्द्रमस् (नपुं०) चन्द्रमा, सुधाकर, शीतधाम, अमृता, सुधारश्मि, शीतकरत्व। (जयो० वृ० १६/१०) लाञ्छनेश, निशानिशान, परीयूषपात्र. अमृतभाजन, क्षपाकर, पीयूषपाद। (जयो० १५/६८) चन्द्रमौलि (पुं०) राजा बीरबल्लात का मन्त्री। (वीरो० १५/४१) चन्द्ररेखा (स्त्री०) चन्द्रकला, चन्द्र किरण। चन्द्ररेणु (स्त्री०) चन्द्रकिरण। चन्द्रलेखा (स्त्री०) चन्द्रकला। (जयो० ३/४०) चन्द्रलोकः (पुं०) चन्द्रकिरण। चन्द्रलोहकं (नपुं०) चांदी, रजत। चन्द्रवंशः (पुं०) चन्द्रकुल। चन्द्रवदनं (नपुं०) चन्दमुख। चन्द्रविचारः (पुं०) चन्द्रप्रभा। (सुद० २/४६) चन्द्रव्रत (नपुं०) तप विशेष। चन्द्रशाला (स्त्री०) चौवारा, अग्गासिया, अटारी, छत का ऊपरी हिस्सा, अट्टालिका। (जयो० २१/७७) चन्द्रशालिका (स्त्री०) चौवारा। चन्द्रशिला (स्त्री०) चन्द्रकान्तमणि। चन्द्रसंज्ञः (पुं०) कपूर। चन्द्रसंभवः (पुं०) इलायची। चन्द्रहन् (पुं०) चन्द्र का राहु द्वारा ग्रस् होना। चन्द्र ग्रहण। चन्द्रहासः (पुं०) १. असि, तलवार। २. असिधृत, चन्द्र रूपी खड्ग। (जयो० २७/२७) चन्द्राख्यः (पुं०) चन्द्र नाम। (जयो० वृ० १/१५) (वीरो० १/१४) चन्द्राननं (वि०) चन्द्रमुखा चन्द्राननः (पुं०) कार्तिकेय। चन्द्रापीडः (पुं०) शिव शंकर। चन्द्राभासः (पुं०) चन्द्रमा का आभास होना। For Private and Personal Use Only Page #390 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir चन्द्राश्मन् ३८० चम्पू: चन्द्राश्मन् (पुं०) चन्द्रकान्तमणि। (जयो० १८/२३) चमसः (पुं०) चम्मच, यज्ञपात्र। चन्द्रिका (स्त्री०) १. चांदनी, ज्योत्स्ना। २. मदी (जयो० चमू (स्त्री०) [चम् ऊ] सेना। 'सच्चमूक्रम- समुच्चलद्रुजो-- ११/५३) ३. मल्लिका लता। (जयो० ३/३७) व्याजतो' (जयो० २१/१४) चन्द्रिकासारिणि (स्त्री०) चन्द्रिका सार, चांदनी का सार। चमूचरः (पुं०) योद्धा, सैनिक। कौमुदीसार। (जयो० १५/६५) चमूनाथः (पुं०) सेनापति, सेना प्रधान। चन्द्रिल: (पुं०) शिव। चमूपतिः (पुं०) सेनापति। अमू: समासाद्य चमूपतिः चप् (सक०) सान्त्वना देना, धैर्य बंधाना। किलाधरप्रदेशे रमते स्म नित्यशः। (जयो० २४/२) चमूपतिचपल (वि०) चंचल, अस्थिर, चलायमान (सुद० १/४२) दिग्विजयकाले भरतचक्रिणः सेनापर्तिजयकुमारः' स्फूर्तिवान्, विचारशून्य। चमूसमूहः (पुं०) सेना यूथ। (जयो०८/१) चपल (पुं०) १. मछली, २. चारक पक्षी। चमूहरः (पुं०) शिव। चपलता (वि०) चंचलता, अस्थिरता। तडिदिव चपलोपहितचेता। चम्म् (सक०) जाना, चलना, फिरना, घूमना। (सुद० १/४३) चम्पकः (पुं०) १. चम्पक पुष्प, चम्पा फूल, नागकेशर। २. चपलत्व (वि०) चाञ्चल्य, चपलता, चंचलता। (जयो० १/४८) स्वर्ण, ३. क्लीव, नपुंसक। चपला (स्त्री०) लक्ष्मी, श्री (जयो० वृ०६/९९) १. विद्युत, चम्पकदाम (पुं०) चम्पक की पुष्पमाला। (जयो० १४/२४) बिजली। (जयो० वृ० ६/९९) २. जिह्वा, जीभ, ३. मदिरा। चम्पकपुष्पं (नपुं०) चम्पाफूल, नागकेशर। चाम्पेयश्चम्पके चपेटः (पुं०) [चप्+इद्+अच्] थप्पड़, चांटा। नागकेशरे पुष्पकेशो स्वर्ण क्लीब इति विश्वलोचनः। (जयो० चेपटा (स्त्री०) [चपेट्+टाप्] चांटा, थप्पड़। वृ० १४/२४) चपेटिका (स्त्री०) [चपेट कन्+टाप्-इत्वम्] थप्पड़, चांटा। चम्पकमाला (स्त्री०) चम्पक दाम, चम्पा पुष्पों की माला। चम् (सक०) पीना, आचमन करना चाटना। चम्पकवृत्तं (नपुं०) चम्पा की बोड़ी। (जयो० १४/२२) चमत्करः (स्त्री०) चमत्कार, विस्मयजन्य, आश्चर्यशील। करस्फुरच्चम्पकवृन्तस्य संवादमिषादेकान्तस्य। चम्पकस्य चमत्करणं (नपुं०) १. विश्मय जनक, आश्चर्य युक्त। (जयो० वृत्तं यत्प्रसवबन्धनम्। (जयो० वृ० १४/२२) १२/१३३) २. आनन्दानुभूति। (भक्ति० १२) चम्पकरम्भा (स्त्री०) कदली विशेष। चमत्कारकः (पुं०) आश्चर्य, विश्मय। (जयो० वृ० १२/१३३) चम्पकालुः (पुं०) [चम्पकेन पनसावयवविशेषेण अलति, चमत्कारकर (वि०) आश्चर्य करने वाला, (जयो० वृ० १/३४) चम्पक+अल+उण्] कलहल तरु। चमत्कार-कारकः (पुं०) आश्चर्य युक्त, विचित्रता कारक, चम्पकावती (स्त्री०) चम्पा नगरी। विश्मय कारक। (जयो० वृ० १/४१) चम्पा (स्त्री०) [चम्प्+अच्+टाप्] नगरी (वीरो० १५/१३) १. चमत्कृत् (वि०) चमत्कार करना। (जयो० ३/१९) चम्पा पुष्प, २. चम्पा नामक नगरी। कमलानि च कुन्दस्य चमत्कृतिः (स्त्री०) आश्चर्य, विश्मय। च जाते: पुष्पाणि च चम्पायाः। (सुद० ७१) जम्बूद्वीप के चमरः (पुं०) चमर, जो भगवान् की मूर्ति के पास दाए-बाएं भरत क्षेत्र में (आर्यवर्त में) अंग नामक देश था, उस भाग स्थित किए जाते हैं। २. चमर हिरण विशेष भी है। अंगदेश में चम्पा नामक नगरी थी। इसका शासक चमरी (स्त्री०) चमरी नाम गाय। चमरी नाम गोस्तेन पुच्छस्य छात्रीवाहन था। जिसकी रानी अभयमती थी। (सुद० ३३) विलोकनेन परिचालनेन बालस्वभावं केशत्वमुत शिशुत्वं चम्पानगरं (नपुं०) चम्पा नामक नगर। (सुद० ३२) वदति (जयो० वृ० ५/८५) श्री मूर्धजैः सार्धमधीरदृष्ट्या- चम्पानगरी (स्त्री०) चम्पापुरी। (सुद०) स्तुतषिणः सा चमरी च सृष्ट्याम्। बालस्वभाव चमरस्य चम्पापुरं (नपुं०) चम्पा नगर। (सुद० ३०) तेन वदत्वहो पुञ्छ विलोलनेन।। (जयो० ५/८५) चम्पापुरी (स्त्री०) चम्पानगरी। (सुद० १/२४) भुवस्तु चमरीपुच्छ (नपुं०) चमरी गाय की पूंछ। तस्मिल्लपनोपमाने समुन्नतं वक्रमिवानुजाने। चम्पापुरी नाम चमरिकः (पुं०) [चमर+ठन्] कचनार वृक्ष, कोविदार तरु। जनाश्रयं तं श्रियो निधाने सुतरां लसन्तम्।। (सुद० १/२४) चमरैणः (पुं०) चमरमृग, चमर नामक हिरण। (समु० ४/१४) | चम्पू: (स्त्री०) [चम्प। ऊ] गद्य-पद्य मिश्रित काव्य। For Private and Personal Use Only Page #391 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir चम्पूप्रबन्ध ३८१ चरणसंपर्कः 'गद्य-पद्य-मिश्रितं काव्यं चम्पूरिति। यशस्तिलकचम्पू, दयोदय चरकार्यतत्परः (पुं०) चटकज्ञाता वैद्य, भिषज। (जयो० वृ० चम्पू (आचार्य ज्ञानसागर प्रणीत) ३/१६) चम्पूप्रबन्धं (नपुं०) चम्पू रचना, चम्पूकाव्य प्रबन्ध। तत्प्रोक्ते चरणचारी (वि०) पादचारी, पगविहारी। प्रथमो दयोदयपदे चम्पूप्रबन्धे गतः। लम्बो यत्र यते: | चरणचारित्व (वि०) पादचारी। चरणाभ्यां पादाभ्यां चरतीति समागमवशाद्धिस्त्रोऽप्यहिंसा श्रितः। (दयो० वृ० १३) पादचारी, चरणचारी। (जयो० वृ० १०/८४) १. आचरणं चय् (सक०) छोड़ना, जाना, परित्याग करना। चारित्रमिन्द्रियनिरोधादिलक्षणं चरतीति चरणचारी। (जयो० चयः (पुं०) संघात, संग्रह, समूह, ढेर, समुच्चय। (जयो० वृ०१०/८४) ६/२४) सविभावान् इव तेजसां चयः। (जयो० १३/१२) चरटः (पुं०) [चर्+अटच्] खंजन पक्षी। * चयः समूह (जयो० वृ० १३/१२) चरणं (नपुं०) १. पाद, पैर। * प्रवाह-'गगनापगाचयम्' गङ्गाप्रवाहम् (जयो० वृ० चरणः (पं०) २. स्तम्भ, सहारा, आश्रय। ३. छन्द का चौथाई १३/५५) भाग। (जयो० १/५) यत्कुलीनचरणेषु च तेषु छायया चयनं (नपुं०) [चि+ ल्युट्] १. चुनना, इकट्ठा करना, ढेर परिगतेषु मतेषु (जयो०५/२१) पृथिव्यां लीनं चरण-मूलम्' लगाना। २. देवों को अपनी सम्पत्ति से वियोग होना। चयनं (जयो० वृ० ५/२१) ४. गमन,गति, चलना (सुद० ९२) कषाय-परिणतस्य कर्मपुद्गलोपदानमात्रम्। यतो मस्तकेन चरणं गमनं अथवा पदभ्यां समुद्धरणं चयनलब्धिः (स्त्री०) अग्रायणीय पूर्व का नाम। भारोत्थापनं भवति। (जयो० वृ० २/११५) ५. चारित्र, चयवान् (वि०) संग्रह कर्ता, संग्रहवान्। 'शैलोचित-करिचयवान्' आचरण। (जयो० ५/२१) । (जयो० ६/२४) चरणकुशीलः (वि०) विद्याश्रम भूत। चर् (सक०) घूमना, चलना, जाना, चक्कर काटना, भ्रमण चरणजः (पुं०) शूद्र (जयो० १८/५८) करना, चक्कर लगाना, विचरण करना। वनाद्वनं चरणघातः (पुं०) पादार्दिन, पाद प्रहार। (जयो० वृ० १५/७२) सम्व्यचरत्सुवेशः स्वयोगभूत्या पवमान एषः। (सुद० ११८) चरणग्रन्थिः (पुं०) घुटना, टखना। अनुद्दिष्टां चरेद् भुक्तिम् (सुद० १३२) १. अनुष्ठान चरणदेशः (पुं०) पादभू। (जयो० १२/१०४) करना, अभ्यास करना, उपभोग करना। २. व्यवहार चरणनिकट (नपुं०) पाद सन्निकट। करना, आचरण करना। (जयो० २७/४०) चरणन्यासः (पुं०) पग, कदम। चर (वि०) विचरण, गमनशील, गतिशील, चलने वाला। चरणपतनं (नपुं०) विधिवत् प्रणाम, साष्टांग प्रणाम। चरः (पुं०) दूत, अनुचर। प्रेषितश्चर इतोऽवतारणहेतवेऽर्कपादयोः चरणपतित (वि०) चरणों में नम्रीभूत। सुधारणः। (जयो० ७/५६) चरणणंशु (स्त्री०) चरणरेणु, चरण रज। (जयो० वृ० १/१०४) * चरण-स्त्वार्याभूयतया चरानि भवतः सान्निध्यमस्मिन् चरणपानं (वि०) आचार-विचार करने वाला, संयमी। क्रमे। (सुद० ११३) चरणपुलाकः (पुं०) मूलगुण और उत्तरगुण की प्रतिसेवना। * चर्या-चुरादूरे चरः सर्वथा (मुनि० ३) चरणप्रान्तः (पुं०) चरणभाग, चरण समीप। (जयो० १६/६१) * त्रसजीव-जीवाः सन्ति चराः किलैवमचराः सर्वे चरणमुखः (नपुं०) दूत। (जयो० ५/६४) चिदात्मत्वतः। (मुनि० १३) चरणदृष्टदेशः (पुं०) एड़िया। (जयो० ११/१७) * दृष्टिगोचर। चरणप्रसादः (पुं०) चरण सेवा, सेवाभाव। पदरीति (जयो० वृ० * ग्रह विशेष। १/३१) (दयो० १०७) चरकः (पुं०) [च+ल्युट्] दूत,। चरणरेणु (स्त्री०) पादपांशु, चरणरज, पैरों की धूल। (जयो० * चरकसंहिता। वृ० १/१०४) चरकसंहिताकारः (पुं०) वैद्य, चरकश्चासौ आर्यश्च तस्मिंस्तत्परा चरणवती (वि०) चरणों में रहने वाली। (जयो० वृ० ४/५४) अनुरागिणो दूतवद् भवन्ति। चरस्य कार्ये तत्पराः परायणा चरणविनयः (पुं०) विनत भाव। भवन्ति। चश्चारे चलेऽपि चेति प्रमाणात्। (जयो० वृ० ३/१६) चरणसंपर्कः (पुं०) चरणस्पर्श, पादसमन्वय। For Private and Personal Use Only Page #392 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra चरणसमीप: चरणसमीप (पुं०) चरणभक्त (जयो० कृ० २४/४७) चरणसेवा (स्त्री०) सेवा शक्ति विनम्र प्रणाम। चरण स्पर्श: (पुं०) पादसमन्वय, चरणसम्पर्क। (जयो० वृ० १/१०५) · www.kobatirth.org चरणारविंदं (नपुं०) चरण-कमल (दयो० १/५१) पद-पंकज (जयो० वृ० १ / ९२) तेषां श्री चरणारविन्दभजनं कुर्या: किलात्मन्वरम् (मुनि० २५) चरणाविंदभजनं (नपुं०) पद पंकज में नमन । चरणारविंदयुगलं (नपुं०) पद पङ्कज द्वय (जयो० ० १/९२) चरणार्चनं (नपुं०) चरणों में नमन ( मुनि० १६ ) चरणामृतं (नपुं०) चरण प्रक्षालन । चरणानुयोग (पुं०) १. पादारविंद प्रसाद (जयो० ० १/२२) २. चारित्र बोधक विधान का शास्त्र । चारित्रवार्द्ध (जयो० वृ० १९ / २७) चरणादिस्तृतीय स्यादनुयोगो जिनोदितः । यत्र चर्याविधानस्य परा शुद्धिरुदाहता।। (जैन०ल० ४३४ ) चरजीव (पुं०) प्रसजीव (जयो० ० २ / १२८ ) चरदन्त ( वि०) पाप का विनाशक, दम्भ नाशक । चरस्य दम्भस्य पापाचारस्य दुष्टान् लेशान् चरद-भक्षयतविनाशयत्। चरन (पुं०) दूत, संदेशवाहक (जयो० ३/१४४) (जयो० वृ० १२/३) चरम (वि०) (चर्-अमच्] अन्तिम, पश्चात्वर्ती (वीरो० १४ / २) अन्त में प्रभासनामा चरमो गणीशः श्रीवीरदेवस्य महान् गुण सः । (वीरो० ४४ / १२ ) चरमकालः (पुं०) अन्त समय । चरमपौरुषः (पुं० ) अन्तिम पुरुषार्थ, मोक्ष पुरुषार्थ (जयो० वृ० १२/९) चरमभाव: (पुं०) उत्कृष्ट भाव, विशुद्धभाव। चरमशरीरं (नपुं० ) ० वज्रवृषभ नाराच संहनन युक्त शरीर । • रत्नत्रय आराधक का शरीर । चरमसमय: (पुं०) अन्तिम समय । चरमाचल: (पुं०) ० अस्ताचल पर्वत । ०परिश्चम गिरि । चरमादिः (पुं०) पश्चिमी गिरि चरमावस्था ( स्त्री० ) अन्तिम अवस्था । चरमेस (वि०) अन्तिम भागवाला । चरमेस-ग्रीवकः (पुं०) अन्तिम ग्रैवेयक, देवलोक की ग्रैवेयक पर्याय। (समु० ५ / १६) चरसकः (०) चरस, चर्मपात्र (जयो० २/१६) ३८२ चर्च् चराचर: (पुं०) चर- सजीव और अचर स्थावर जीव। (सम्य० ७/३२) (मुनि० १३) (वीरो० वृ० ३/२७) चल-अचल अचला निश्चलापि चराचरे (जयो० १/९४) चराचरमिदं सर्व स्वामिस्ते ज्ञानदर्पणे प्रतिविम्वतमस्तीति श्रद्धाति न कः पुमान्।। (समु० ७/३२) चराश्चर (वि०) १ चरणशील, गमन युक्त (जयो० ८/३८) २. आचरण करने योग्य: Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir चरिः (स्त्री०) जन्तु, प्राणी । चरिका ( स्त्री०) हाथी घोड़े का मार्ग । चरितं (भू०क०कृ) घटित, उदाहत्य अनुष्ठित (जयो० ९५५) १. ऊबाया, व्याप्त, प्राप्त ज्ञात, प्रस्तुत । २. गया हुआ, घुमाया गया। · चरितं (नपुं०) १ चरित्र, आचरण, मृत्य, कर्म, व्यवहार, अभ्यास । २. जीवनी, आत्मकथा, ऐतिहासिक विवरण । चरित कथा ( स्त्री०) साहसिक कथा, आत्मकथा प्रेरक कथा । चरित-चित्रणं (नपुं०) जीवन परिचय | चरितधर (वि०) आचरण युक्त। चरितनायकः (पुं०) प्रेरक नायक । (जयो० वृ० ५/२७) चरितार्थ (वि०) सफल, अभीष्ट दायक कार्यान्वित सम्पन्न, For Private and Personal Use Only समाप्त। चरित्रं ( नपुं० ) [ चर इत्र] १. आचरण, व्यवहार, स्वभाव, कर्म, अनुष्ठान । हरेश्चरित्रं कृतकं सभीति तस्यानुकूलास्तु कुतः प्रणीति। (जयो० १/३५) २. कर्तव्य, नियम। (सम्य० ५) चरित्रचर (वि०) चारित्रधारक आचरणशील स्त्रीकुर्वन्विभवं भवस्य सुतरामेतच्चरित्रचर | चरित्रमोहः (पुं०) चारित्रमोहकर्म । (जयो० ११०) (मुनि० २५) चरित्रवेदनं (नपुं०) चरित्र का अनुभव, चरित्र का ज्ञान। 'या पुराजन्मचरित्रस्य वेदनेऽपि' (जयो० २३/८३) चरिष्णु (वि० ) [ चर्+इष्णुच् ] ० गमनशील, ०संचारशील, परिभ्रमणशील, इधर-उधर गमन करने वाला। (जयो० ५/१०१) उरोजसम्भूतिमगान्मुहुर्वा तनुं चरिष्णुः सदृशोऽप्यपूर्वाम् (जयो० ११/४) चरुः (नपुं०) नैवेद्य जल-चन्दन- तन्दुलकुसुमस्रक् चरुणि दीपशिखायाः । (सुद० ७२) चर्च (सक०) १. पढ़ाना, अभ्यास करना, अनुशीलन करना, + " Page #393 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir चर्चनं ३८३ चलचञ्चः अध्ययन करना। २. धिक्कारना, आवृत करना, लगाना। चर्मप्रवेशकाः (पुं०) कमर बंद, बेल्ट, चमड़े की पट्टिका। 'मुदुचन्दनचर्चिताङ्गवानपि गन्धोदकपात्रत: स वा। (सुद० कमरबन्ध। ३/७) चर्ममुण्डा (स्त्री०) दुर्गा देवी। चर्चन (नपु०) [चर्च् + ल्युट] १. उपटन लगाना, लिप्त करना। चर्मयष्टिः (स्त्री०) चाबुक। २. अध्ययन, अभ्यास। चर्मवसनं (नपुं०) चर्मवस्त्र। चर्चरिका । स्त्री०) [चर्चरी+कन्+टाप्] १. चौराहे पर गाया चर्मवाद्यं (नपुं०) ढोल, तबला, मृदङ्ग, नगाड़ा। जाने वाला गान, ताल युक्त संगीत। २. सस्वर पाठ, चर्मसंभव (स्त्री०) बड़ी इलायची। उत्सव, चाचर। चर्मसमाश्रय (पुं०) चर्म पादत्राण युक्त। स चर्मसमाश्रयो चर्चा (स्त्री०) [चर्छ। अङ्टाप्] १. पूजा, अर्चना। (जयो० यदिता कुतः स्यात्तस्य वा न हिमा। (सुद० १०९) ६/१३२)। २. अध्ययन, अभ्यास। ३. विचार विमर्श। चर्मस्थ (वि०) चमड़े से युक्त। चर्चिक्यं (नपु०) [चर्चिका यत् ] उपटन, लेप, मालिश, चर्मावृत (वि०) चमड़े से आच्छादित। (सुद० १२०) (लि० संघर्षण। सं०४७) चर्चित ( भू०क०कृ०) [चर्च् + क्त] १. आलिप्त, लेप किया चर्मिक (वि०) [चर्मन् ठन्] ढाल से सुसज्जित। हुआ। (वीरो० १२/१६) २. विचारित, चिन्तनयोग्य माननीय। चर्मिन् (वि०) १. ढाल से आवृत, ढाल युक्त, २. केला ३. (सुद०३/७) भूर्ज तरु। चर्पटः (पुं०) [चुप्। अटन् ] चपेटना, थप्पड़ मारना। चर्मोपसृष्ट (वि०) चमड़े में रखे हुए। चर्मोपसृष्टं च रसोदकादि चर्पटी (स्त्री०) [चर्पट् ङीष् ] चपाती, रोटी। विचारभाजा विभुवा न्यगादि। (सुद० १२९) चर्भटः (पुं०) ककड़ी, ककड़ी विशेष। चर्या (स्त्री०) [चर+यत्+टाप्] ०चाल, क्रिया, प्रवृत्ति, चर्भटी (स्त्री०) ककड़ी। ०व्यवहार, ०भ्रमरी वृत्ति (जयो० वृ० २३/४६) ०अनुष्ठान, चर्मम् (नपुं०) ढाल। विधि, नियम, परिशीलन-विचार दृष्टि। चर्मण्यवती (वि०) चम्बल नदी। चर्यानिमित्तं (नपुं०) चर्या का हेतु। (सुद० ११९) चर्मन् (नपुं०) [चर+मनिन् ] चमड़ा, खाल त्वचा। उपर्युपात्तं । चर्यापरायण (पुं०) चर्या में निपुण (वीरो० १/१०५) ननु चर्मणा तु विचारहीनाय परं विभातु। (सुद० १०१) चर्या (स्त्री०) अवस्था-यो वै चचार समदृग्तृढयोगचर्याम् चर्मकारः (पुं०) चमार, मोची। चर्व (सक०) ०चबाना, ०कुतरना, ०खाना, निगलना, ०काटना, चर्मकारिन् (पुं०) चमार, मोची, चमड़ा रंगने वाला। ०कर्तन करना, चूसना, स्वाद लेना, चखना। चर्मकीलः (पुं०) मस्सा, अधिमांस। चर्वणं (नपुं०) चबौना, कुतरना, खाना, चार्बी (जयो० १३/७२) चर्मखण्डः (पुं०) चमड़े का टुकड़ा। आचमन करना, चखना, स्वाद लेना। नष्ट करना-पापस्य चर्मचित्रकं (नपुं०) सफेद दाग, सफेद कोढ़। चर्वणं (जयो० वृ० २६/३१) 'पुमान् विधिचर्वणम्' (जयो० चर्मजं (नपुं०) केश, बाल। २५/४६) चर्मतरङ्गः (पुं०) झुरौं, त्वचसंकोचन। चर्वा (स्त्री०) थप्पड़, तमाचा। चर्मदण्डः (पुं०) चाबुक, चमड़े से बना चाबुक। चल् (अक०) हिलना, कांपना, चलायमान, धड़कना, स्पंदन चर्मनालिका (स्त्री०) चाबुक। होना। सर्वेऽपि चेलुः, समुदायवित्ताः (वीरो० १४/१७) चर्मपट्टिका (स्त्री०) चमड़े का कमर बंद, बेल्ट। चलना (सुद० १२३) मन्दं मन्दमचलत्-(जयो० वृ० चर्मपत्रा (स्त्री०) चमगादड़। १/८९) आस्तदा सुललितं चलितव्यम् - (जयो० ४/७) चर्मपादुका (स्त्री०) जूता, पादत्राण। | चल (वि०) [चल-अच्] चलना, हिलना, कांपना। (जयो० चर्मपाश: (पुं०) गण्डकचर्मखण्ड, चमड़े की ढाल, चर्म वृ० १/९४) कवच। धृतः क्षत्रत्राणकचर्मपाश:। (जयो० २७/२७) चलकर्णः (पुं०) वास्तविक दूरी। चर्मप्रभेदिका (स्त्री०) मोची की रांपी। चलचः (स्त्री०) चकोर पक्षी। For Private and Personal Use Only Page #394 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir चलदल: ३८४ चातुर्मासः चलदलः (पुं०) अश्वस्थ वृक्ष। चलनं (नपुं०) चरण, पाद, पैर। 'स्वयं लघुत्वाच्चलनैकहक्का' (जयो० २०/८१) चलनकं (नपुं०) छोटा लहंगा। चलनैकहक (नपुं०) चरणसन्नीत दृष्टि, चरणों में संलग्न दृष्टि। (जयो० वृ०२०/८१) चलातङ्कः (पु०) गठिया वाट, रोग, गठानों में होने वाला रोग। चलात्मन् (वि०) चलचित्र, चलायमान मन। चलाचलं (नपुं०) चञ्चल, चपल. अस्थिर। (जयो० २५/४) चलित (भू०क०कृ०) आन्दोलित। चलेन्द्रिय (वि०) चञ्चल इन्द्रिय, विषसाक्त इन्द्रिय। चलेषुः (पुं०) लक्ष्यहीन धनुर्धर। चलोष्ठ (वि०) चलायमान होंठ। (जयो० १३/११) चष् (सक०) १. खाना, ग्रहण करना। २. चोट पहुंचाना। चषकः (पुं०) [चष्+क्वुन्] सुरापात्र, मदिरा पात्र, पानपात्र, (जयो० १६/३६) जलपात्र, शकोरा। चषके पानपात्रे (जयो० वृ० २/२०) चषकार्षित (वि.) दानपात्रार्पित, जल को परोसने वाली। निपपो चषकार्पित न नीरं जलदायाः प्रतिबिम्बित शरीरम्। (जयो० १२/२०) चषालः (पुं०) [चष्+आलच्] छत्ता। चाकचक्यं (नपुं०) चमक, कान्ति, प्रभा। चाकचिक्यं (नपु०) चेष्टा। चारित्रौ रिङ्गिनै ___ चाकचिक्यादिभिश्चेष्टादिभिः। (जयो० वृ० ३/८०) चाक्र (वि०) चक्र से किया जाने वाला प्रहार, मंडलाकार फरकना। (जयो० वृ० ९/१३) चाञ्चल्यभक्ष्णारनुमन्यमाना दोषाकरत्वं च मुखे दधाना। (वीरो० ३/२३) चाटः [चट्-अच्] चाटुकार, विश्वास जमाने वाला, ठग। चाटुः (स्त्री०) ठग, चाटुकार, चापलूस, मधुरालापी। चाटुकार: (पु०) चापलूस, मीठी-मीठी बाते करने वाला। चाटुवचनम् (पुं०) चादुकारी वचन। (समु० ३/४२) चाणक्यः (पुं०) कौटिल्य शास्त्र प्रणेता, नागर राजनीति का पण्डिता चाणरः (पुं०) कंस का सेवक। चाण्डालः (पुं०) १. पतित, अधम, नीच, दुष्ट। (वीरो० १७/२२) (सुद० १०५) २. वृषल, शूद्र-वृपलश्चाण्डाल इति--(जयो० वृ० १/४०) ३. मातङ्ग-(दयो० ४९) 'मातङ्गः यद्यपि वयं चाण्डाल:' चाण्डालचेत् (पुं०) मातंग हृदय। (सुद० १०७) चाण्डालिका (स्त्री०) चण्डाल की स्त्री, मातङ्ग स्त्री। चाण्डाली (स्त्री०) १. चण्डाल की स्त्री, एक भाषा, प्राकृत के स्वरूप को लिए हुए। २. रीति विशेष। चातकः (पुं०) चातक, पपीहा, चकवा। (सुद० १/४३, २/५०) (दयो० २०) कलिङ्ग इव चातकपक्षीव (जयो० वृ० ६/२१)'चातको मेघानां वर्षणमपेक्षते' (जयो० वृ०६/२१) 'चिरात्पतच्चातकचञ्चमले' (वीरो०४/१९) चातकगेहिनी (स्त्री०) चकवी, पपीहा पत्नी। (दयो० २०) चातकानन्दनः (पुं०) वर्षाऋतु, मेघ, बादल। चातकी (स्त्री०) चतकी, चातकगृहिणी। महिषी नरपालस्य चातकीवोदिताम्बुदम्। (सुद० ९९) चातनं (नपुं०) [चत्+णिच्+ ल्युट्] हटाना. क्षति पहुंचाना। चातुर (वि०) योग्य, प्रवीण, बुद्धिमान्, मधुराभाषी। चातुरक्षं (नपुं०) चार गोटी, पांसे, चौपड़ खेल। चातुरी (वि०) दक्षता, बुद्धिमानता। चातुर्दशं (नपुं०) राक्षस। चातुर्मासः (पुं०) चातुर्मास, वर्षावास। (वीरो० १२/३६) पञ्चभ्या नभत: प्रकृत्य भवतादर्जस्विनी या ह्यमा तावद् घरस्त्रशतवृधौ निवसतादेकत्र लब्ध्वा क्षमा। एतस्मिन्भवति स्वतोऽवनिरियं प्राणिव्रजैराकुला संजायेत ततोऽर्हतां सुमनसोऽसावुज्जम्भे तुला।। (मुनि०५१) साधु को चाहिए कि वह सावन वदी पञ्चमी से लेकर कार्तिक की अमावस्या करता हुआ एक स्थान पर निवास करे, क्योंकि इस समय में पृथ्वी स्वयं जीवों के समूह से व्याप्त हो जाती है। इसके बाद वह चाक्रिक (वि०) चक्र पर काम करने वाला, चक्राकार-कार्य करने वाला कुम्हार, तेली। चाक्रिकः (पुं०) कुम्हार, तेली, सारथि, चालक। चाक्रिणः (पुं०) कुम्हार पुत्र। चाखवः (पुं०) चूल्हा। निधेय मया किं विधेयं करोतुत सा साम्प्रतं चाखवे यद्वदौतुः। (सुद० ९५) चाक्षुष (वि०) [चक्षुस्+अण्] दृष्टि पर निर्भर, दृष्टिगत, दृष्टि रखने वाला। चाक्षुषं (नपुं०) चक्षु सम्बन्धी ज्ञान। चाक्षुषज्ञानं (नपुं०) चक्षु इन्द्रिय जन्य प्रमाण, साक्षात् प्रमाण। चाङ्गः (पुं०) १. अम्ललोणिका शाक, २. दन्त स्वच्छता। चाञ्चल्य (वि०) [चञ्चल+ष्यब्] चपलता, अस्थिरता, विलोलता, For Private and Personal Use Only Page #395 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir चातुर्मासिक ३८५ चाम्पेय रुचिः अर्हन्तों के मन के समान निर्मल हो जाती है। यद्यपि एव लता सेव धनुर्यष्टिरिव' चपल एव चापलस्तस्य चातुर्मास श्रावण कृष्ण प्रतिपदा से कार्तिक शुक्ल पूर्णिमा भावश्चापलता चाञ्चल्यं तदिव भूत्वा (जयो० वृ० १२/९३) तक होता है, इसलिए यहां सावन कृष्ण पञ्चमी से , २. वक्रता, तिरछापन वांकापन (सुद० १/४२) चापलतेव कार्तिक की अमावस्या तक सर्वथा आवागमन निषेध के च सुवंशजाता गुणयुक्ताऽपि वक्रिमख्याता। (सुद० १/४२) लिए जानना। चापल्ली (स्त्री०) धनुष लता। 'कौटिल्यमेतत्खलु चापवल्ल्याम्' चातुर्मासिक (वि० ) वर्षावास सम्बन्धी। (सुद० १/३४) चातुर्य (वि०) १. वाक्कौशल, कुशलता, दक्षता, प्रवीणता, चापविद्या (स्त्री०) धनुर्विद्या, धनुर्वेदित। 'सा चापविद्या बुद्धिमत्ता। (जयो० १६/४३) २. वैदग्ध-(जयो० वृ० नृपनायकस्य' (वीरो० ३/८) ११/४०) 'यत्परप्रीत्या स्वकार्यसाधनम्' दूसरे को प्रसन्न चापल्य (वि०) चंचलता, अस्थिरता, अडियलपन, लोल्य। करके जो अपना कार्य सिद्ध किया जाता है। ३. लावण्य, (जयो० वृ० २३/२८) सौन्दर्य, रमणीयता। चापल्यचारु (वि०) सहजचंचल। चपलायां चारुस्तं सहजचंचलं चातुर्यपरम्परा (स्त्री०) चातुर्याम पद्धति -पार्श्वनाथ की (जयो० वृ० १७/४३) शिक्षा पद्धति। (वीरो० ११/४४) चापार्थ (वि०) धनुष् काण्डार्थ। (जयो० ५/८४) चातुर्यामः (पुं०) पार्श्वनाथ कालीन मत। चापि (अव्य०) और भी, वैसे भी, तथापि, फिर भी, तो भी चातुर्वर्ण्य (नपुं०) [चतुर्वर्ण+ष्यञ्] चार वर्ण वाला धर्म। (जयो० १/१२) फिर भी। (सुद० ९५) चातुर्विध्यं (नपुं०) चार प्रकार, सामूहिक रूप। चामरः (पुं०) [चमर्याः विकारः तत्पुच्छनिर्मितत्वात्] चंवर चात्वाल: (पुं०) [चत्+वालच] १. दर्भ, कुश। २. हवनकुण्ड। (वीरो० २१/१८) राजा के उभय ओर पंखे की तरह चान्दनिक (वि०) [चन्दन ठक्] चन्दन से निर्मित. सुगन्धि हिलाए जाने वाले चमर। पतन् पार्वे मुहुर्यस्य चामराणां द्रव्य जिसमें चन्दन का समावेश हो। चयो बभौ। (जयो० ३/१०३) चान्दीचय (वि०) चन्द्रिका का छिटकना। (वीरो०४/८) चामरग्रहाः (पुं०) चमर युक्त। चान्द (वि०) [चन्द्र + अण्ड्] चन्द्रमा चामरग्राहिन् (वि०) चमर डुलाने वाली सेविका। चादकः (पुं०) अदरक, सोंठ। चामरग्रहिणी (स्त्री०) चमर डुलाने वाली सेविका। चान्द्रमस् (पुं०) चन्द्रमा, शशि, निशाकर, सुधाकर। चामरचारः (पुं०) चमर डुलना, चमर का संचार। चान्द्रमासः (पुं०) चन्द्रमा की तिथि के अनुसार गिना जाने चपरीबालगुच्छानां चारः प्रचारो बभो। (जयो० वृ० ५/६६) वाला माह। चन्द्र के संचार से उत्पन्न होने के कारण | चामरपुष्पः (पुं०) पूगनाग तरु, सुपारी का वृक्षा चन्द्रमास कहलाता है। चामर पुष्पकः (पुं०) १. सुपारी का पेड़। २. केतकी लता, चान्द्रायणं (नपुं०) प्रायश्चित्तात्मक तपश्चर्या। ३. आम्रवृक्षा चान्द्रायणिक (वि०) [चान्द्रायण+ठञ्] चान्द्रायण व्रत पालक। | चामरिन् (पुं०) [चामर इनि] अश्व, घोड़ा। चान्दीकला (स्त्री०) चन्द्रकला, चन्द्रमा की मनोहर कला। चामलसम्पदः (पुं०) चामर शोभा (जयो० २६/१६) चान्द्रीं कलां दृष्ट्वा स्त्रियः पुरुषैः संगन्तुमातुरा बभूव।' चामीकर (नपुं०) [चमीकर+अण] धतूरे का पौधा, स्वर्ण, (जयो० १६/८४) सोना। चामीकर चारुरुचिः सिंहासनवद्वरिष्ठः सः। चापं (नपुं०) [चप्+अण्] १. धनुष (जयो० २/१५) 'युद्धस्थले चामुण्डराजः (पुं०) राजा, नृप (वीरो० १५/४८) (वीरो० चापगुण प्रणीतिर्येषां' (वीरो० २/४१) २. वृत्त की रेखा, ४/५२) ३. धनुराशि। चामुण्डा (स्त्री०) दुर्गा रूप। चापलं (नपु०) [चपल अण] चंचलता, अस्थिरता, चाम्पेयः (पुं०) स्वर्ण, सोना। (जयो० १४/२४) १. विचारशून्यता, यदपि चाप लापं ललाम ते-(जयो०३/१२) चाम्पेयश्चम्पके नागकेशरे पुष्पकेशरे स्वर्णे क्लीव इति २. तुगति, ३, अश्व का अडियलपन। विश्वलोचनः। (जयो० वृ० १४/२४) चापलता (स्त्री०) १. धनुप लता, धनुर्लता (सुद० ७६) 'चाप | चाम्पेय रुचिः (स्त्री०) १. स्वर्ण प्रभा, स्वर्ण कान्ति। चाम्पेयस्य For Private and Personal Use Only Page #396 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir चाय ३८६ चारुफला सुवर्णस्य रुचिरिव रुचिः। (जयो० वृ० १४/२४) २. चम्पक पुष्प कान्ति। चम्पकपुष्पाणां दाम माला रुचिं (जयो० वृ० १४/२४) चाय (सक०) १. निरीक्षण करना, पहचानना, देख लेना। २. पूजा करना। चारः (पुं०) [चर्+घञ्] १. घूमना, परिभ्रमण करना। २. गति, मार्ग, प्रगति। (सम्म० २२) संचार (वीरो० २/१) चारकः (वि०) [चर्+णिच्+ण्वुल] भेदिया, ग्वाला, दूत। १. अश्वारोही, सवार। २. चारको बन्धनगृहम्-बन्धनगृह। बन्दीगृह। चारण: (पुं०) [चर् + णिच्+ ल्युट्] भ्रमणशील, तीर्थयात्री १. नर्तक, भांड, स्तुतिपाठक (जयो० वृ० ३/१७) गन्धर्व, गवैया, भाट। २. ऋद्धि विशेष। चरणं गमनम् तद् विद्यते तेषां ते चारणा:' चारणऋद्धिः (स्त्री०) अतिशय गमनशील ऋद्धि, जिसके प्रभाव से साधु अतिशय युक्त गमन समर्थ होते हैं। 'अतिशायिचरणसमर्थाश्चारणा:' चारणार्द्धिक (वि०) चारण ऋद्धिधारी (समु० ४/१८) चारतीर्थः (पुं०) दूतशिरोमणि। (जयो० ७/६२) चारदृक् (पुं०) गुप्तचर, दूत। चारा गुप्तचरा एव दृष्टिः । (जयो० वृ० २३/३) चारित्रं (नपुं०) १. आचरण, शुद्ध विचार, विशुद्ध आचरण, (सम्य० ८४) मोह-क्षोभ रहित आत्मा का परिणाम। पुण्य-पाप का परिहार, विरतिभाव। चरन्त्यनिन्दितमनेति चरित्रं क्षयोपशमरूपम्, तस्य भावश्चारित्रम्। (जैन०ल० ४३७) २. सच्चरित्रता, ख्याति, रीति, अच्छाई, उचिताचरण सदाचरण, विशिष्ट आचार। ३. पञ्चाचार रूप में प्रसिद्ध चरित्र, ज्ञानाचार, दर्शनाचार, चरित्राचार, तपाचार और वीर्याचार। चारित्रधर्मः (पुं०) प्राणातिपातनिवृत्ति रूप धर्म। चारित्रपण्डितः (पुं०) पञ्चविध चारित्र में से किसी एक में प्रवीण। चारित्रबालः (पुं०) चारित्र से रहित प्राणियों को चारित्रबाल कहा जाता है। चारित्रशक्तिः (स्त्री०) चारित्र स्तवन, विशुद्धाचरण का गुणगान। पश्चाचार में चारित्राचार भी एक भक्ति का रूप है। जो महावती, समितिपालक, गुप्तियों से गुप्त पञ्चविध चारित्र के धारी होते हैं, उनके चारित्रगुणों की भक्ति चारित्रभवित है। (भक्ति संग्रह वृ० ७-९०) चारित्रमोहः (पुं०) चारित्र मोहनीय कर्म। (सम्य० १२०) चारित्रमोहनीय (वि०) चारित्र मोह वाला जो बाह्य और आभ्यन्तर क्रियाओं की निवृत्तिरूप चारित्र को मोहित करता/विकृत करता है। चारित्रवार्द्धिः (स्त्री०) चरणानुयोग की वृद्धि। (जयो० १९/२७) चारित्रविनयः (पुं०) समिति, गुप्ति आदि में प्रयत्नशील रहना, चारित्र का श्रद्धान करना, इन्द्रिय एवं कषाय के व्यापार का निरोध करना। इन्द्रिय-कपायाणां प्रसर निवारणं इन्द्रिय कषाय-व्यापारनिरोधनं इति चारित्राविनयः।' (कार्तिकेयानुप्रेक्षा टी०४६६) चारित्रसंवरः (पुं०) चारित्र का संवरण, चारित्र में लगने वाले नवीन कर्मों को रोकना। चारित्राचारः (पुं०) पापक्रिया की निवृत्ति रूप परिणति। हिंसादिनिवृत्ति परिणतिश्चारित्राचार:। (भ० आन्टी० ४१९) 'पापक्रियानिवृत्ति-परिणतिश्चारित्रचारः' (भ०अ०टी०४६) चारित्राराधना (स्त्री०) तेरह प्रकार के विशुद्ध चारित्र का आचरण, इन्द्रियसंयम और प्राणि असंयम का परित्याग। चारी (वि०) विचरणशील। 'स्वभावतः सद्विभवाय चारी। (जयो० २७/१) चारु (वि०) रमणीय, मनोहर, सुन्दर, निरोग। (सुद० १२१) (जयो० वृ० १/६९) एकोऽस्ति चारुस्तु परस्य सा रुग्दारिद्रयमन्यत्र धनं यथारुक् (सुद० १२१) २. प्रगल्भ, प्रतिष्ठित, अभीष्ट, प्रिय, मनोज्ञा 'वचश्च चारु प्रवरेषु तासां' (जयो० १६/४४) ३. उत्तम-मुनीशः सच्चारुचकोर चन्द्रमस् (समु० ४/२०) चारुकुचः (पुं०) उन्नत कुच, उभरे हुए कुच। 'चारु कुचौ यस्या सा' (जाये०वृ० १२/१२१) चारुघोण (वि०) सुन्दर नाक वाला। चारुतर (वि०) आत्मकल्याण से युक्त। ततः सदा चारुतरं विधातुं विवेकिनो हृत्सततं प्रयातु। चारुदत्तः (पुं०) नाम विशेष। (वीरो० १७/२) (सुद० १२१) चारुदर्शनं (नपुं०) प्रियदर्शन, लावण्यावलोकन। चारुदृष्टिः (स्त्री०) चंचल दृष्टि, चपल दृष्टि। चारुधारा (स्त्री०) शची, इन्दाणी चारुनेत्र (वि०) चंचलनेत्र, सुन्दर दृष्टि वाणी। चारुपरिवेशः (पुं०) सुन्दर प्रसाधन, अच्छे परिधान, रमणीय वस्त्राभूषण। चारुफला (स्त्री०) अंगुर लता। For Private and Personal Use Only Page #397 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir चारुलोयणा ३८७ चितसम्मति चारुलोयणा (वि०) सुंदर नेत्रों वाली। स्वस्थ करना, औषध सेवन करना। (दयो० ११८) (जयो० चारुवर्धना (वि०) लावण्ययुक्त मुख। १६/८) (वीरो० ११/) चारुवक्त्र (वि०) सुन्दरता बढ़ाने वाली। चिकिलः (पुं०) [चि+ इलच्] पङ्क, कीचड़, कर्दम। चारुवता ( वि०) उन्नत व्रत करने वाली। चिकीर्षा (स्त्री०) [कृ सन्+अ+टाप्] कामना, वाञ्छा, इच्छा, चारुशिला (स्त्री०) रत्न, कीमती पत्थर। भावना, अभिलाषा। चारुशील (वि०) कान्त प्रकृति, सदाचरण युक्त। चिकीर्षित (वि०) [कृ+सन्+ क्त] इच्छित, अभिलषित, चाहत चारुहासिन् (वि०) मधुर मुस्कान वाली। वाञ्छित, इच्छुक। चार्चिक्यं (नपुं०) [चर्चिका+ष्यञ्] उपटन, लेप, सुगन्धित चिकुर (वि०) [चिइत्यव्यक्त शब्दं करोति चि+कुर+क] प्रसाधन। चंचल, चलायमान, अस्थिर, कम्पमान, स्थिर नहीं रहने वाला। चार्म (वि०) [चर्मन्+अण्] चमड़े से निर्मित, चर्माच्छादित। चिकुरः (पुं०) १. सिर केश, सिर के बाल। (जयो० १८/९४) चार्मण (वि०) चमड़े से ढका हुआ। २. पर्वत, पहाड़। ३. रेंगने वाला सर्प। चार्मिक (वि०) चमड़े से निर्मित। चिकुर निकरः (पुं०) बालसंमूह, केशराशि। (जयो० १८/९४) चार्मिणं (नपुं०) [चर्मिन्+अण] कवचधारियों का समूह।। चिकूरः (पुं०) केश, बाल। चार्वाकः (पुं०) लोकायत दर्शन। [चार लोकसम्मतो वाको चिक्कः (पुं०) [चिक् इति अव्यक्त शब्देन कायति वाक्यं यस्य] जो पृथ्वी आदि भूततत्वों को मानता है। शब्दायते-चिक्+कै+क] छछंदर। (जयो० वृ० २६/९३) वीरो० २०/१६ चिक्कण (वि०) चिकना, चमकदार, स्निग्ध, तैल युक्त, चार्वी (स्त्री०) [चारु+ ङीष्] १. सुंदर स्त्री, २. ज्योत्स्ना, ३. फिसलन युक्त। बुद्धि, प्रज्ञा, ४. प्रभा, कान्ति, दीक्षित। ५. कुबेर की प्रिया। चिक्कवणता (स्त्री०) चिकनापन। (समु०८/१०) चालः (पुं०) [चल+ण] छत, १. गृहों के समूह, २. नीलकण्ठ चिक्कणा (स्त्री०) सुपारी वृक्ष। पक्षी। ३. चलना, संचालन करना। (सम्य० २२) चिक्कसः (पुं०) [चिक्क्+असच्] जौ का आटा। चालकः (पुं०) [चल्+ण्वुल] दुर्दान्त हाथी। चिक्का (स्त्री०) चिकना, स्निग्ध। चालनं (नपु०) [चल+णिच् + ल्युट्] चलना-फिरना, घूमना, चिक्किरः (पुं०) [चिक्क् + इरच्] मूसक, चूहा। संचरण, परिभ्रमण, हिंडन। चिक्किनलिद (वि०) ताजगी, तरावट, तरी। चालनी (स्त्री०) चलनी, छननी आटा छानने का उपकरण। चिच्चित् (वि०) चिन्ता युक्त। (जयो० ८/८३) चालनीसमानः (पुं०) चलनी के समान। दिए गए सूत्रार्थ का चिञ्चा (स्त्री०) १. इमली का पेड़। २. धुंघची तरु। चलनी के समान विस्मृत होना। चिष्टिकः (पुं०) पीपीलिक, चींटी। (जयो० वृ० ५/६२) चालयति - चलायमान करता है। (जयो० ६/६२) चिट (सक०) भेजना, प्रेषित करना। चालयतिका (भू०) चलाया गया। चालयतिका मिषकी सती चित् (सक०) १. देखना, अवलोकन करना। २. जानना. चालस्य छद्मनो यतिका विश्रमो यत्र। (जयो० वृ०६/६२) समझना, सतर्क करना। चालित (भू०क०कृ०) [चल्+क्त] चलाया गया, प्रकम्पित, चित् (स्त्री०) [चित्+क्विप्] १. विचार, मन, प्रज्ञा, बुद्धि, प्रस्तारित। (जयो० वृ० ६/७७, सुद० ३/२३) समझ, ज्ञान, समझदार, प्रत्यक्षस्थित (जयो०३/२२) २. चालितवती (वि०) आगे चलने वाली। (जयो०६/३२) आत्मा, जीव, चेतना, (जयो० २६/९२) चाष: (पुं०) [चप् णिच्+अच्] नीलकण्ठ पक्षी। चित (भू०क०कृ०) [चि+क्त] एकत्रित, संग्रह किया हुआ, चि (सक०) १. चुनना, संचय करना, बीनना, इकट्ठा करना, संचित, प्राप्त, गृहीत। २. जड़ना, खचित करना, मढ़ना, भरना। चितनिशा (स्त्री०) गहन अन्धकार, मन का आवरण। (सुद० चिकित्सकः (पुं०) वैद्य, डाक्टर, निदानक, व्यथाहर (जयो० ७२) 'हतिः स्याच्चितनिशाया:' २६/१०१) * भिषक। चितसम्मति (स्त्री०) गहन सम्मति प्रत्यक्ष विचार ०बुद्धिजन्य चिकित्सा (स्त्री०) [कित्+सन्+अ+टाप्] उपचार, निदान, | विचार। (विरो० २०/८) For Private and Personal Use Only Page #398 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir चिता ३८८ चित्रं चिता (स्त्री०) [चित+टाष्] चितिका, चिता, जहां मुर्दे को | चित्तलेश (वि०) तत्पर चित्त वाले, मन में मोक्ष चिन्तन करने लकड़ियों के ढेर में रखा जाता है। वाले। प्रवर्तनायोद्यतचित्तलेश्तः सङ्घस्यते सन्तु मुदे गणेशः। चितिग्नि: (स्त्री०) शव को अग्नि। (भक्ति० ११) चितिः (स्त्री०) [चिक्तिन्] १. ढेर, समूह, पंज। २. चिता, चित्तविक्षेपः (पुं०) उदासमन, व्याकुल मन। ३. आयताकार स्थान। ४. अम्बार, टाल। चित्तवित्तः (पुं०) हृदयगत भाव। (जयो० ७/८२) चितिका (स्त्री०) [चिता+कन्+टाप] १. चिता, २. करधनी। चित्तविधिः (स्त्री०) मनोवृत्ति, मनोदशा। (सुद० ३/४२) चित्त (वि.) [चित्+क्त] चित्त दिया गया, प्रत्यक्ष किया गया, चित्तविप्लव: (पुं०) मानसिक क्लेश, व्याकुलता, मृ भाव, देखा गया, सोचा गया, मनन किया गया। २. अभिप्रेत, आसक्ति भाव, असंतोष, चित्त भ्रंश, उन्मत्तता। इच्छित, वाञ्छित, अभिलषित। (सम्य० ४५) चित्तविभ्रमः (पुं०) मानसिक क्लेश, चित्तभ्रंश, उदासीनता। चित्तं (नपुं०) १. देखना, २. मनन करना, मन लगाना, चित्तविश्लेषः (पुं०) मित्रता का अभाव, मैत्री भंग। विचार, चिन्तन। 'चित्तं तिकालविसयं' आत्मनः परिणाम- चित्तवृत्तिः (स्त्री०) मन की विचारधारा, रुचि, भावना, स्वभाव, विशेषः। ३. अभिप्राय, उद्देश्य। ४. आत्मा (जयो० १/२२) मन का अभिप्राय। * ५. मन, विचार, हृदय (सुद० १०४) 'मनाङ् न चित्तवेदना (नपुं०) मानसिक असंतोष, मनोमालिन्य, मन में चित्तेऽस्यपुनर्विकारः (सुद० ९९) ६. निर्मुक्त-वल्गन-- ___कुटुता, कष्ट, चिन्ता, उद्वेग, व्याकुल भाव। विमोचलनं तुरङ्गं स्वैरं निरङ्कुशमिवातिशयान्मतङ्गम्।। चित्तवैकल्यं (नपुं०) मन की व्यग्रता। श्रीपञ्जरादरणवाच्च विचारपूर्णं चित्तं जनः स्ववशमानयतात्तु चित्तहारिणी (वि०) चित्ताकर्षणि, चित्त को आकर्षित करने वाली। तूर्णम्।। (दयो० ४०) जनानां चित्तहारिण्यो गणिका इव भित्तिका। (जयो०८/८०) चित्तचारिन् (वि०) दूसरे की इच्छा पर चलने वाला। चित्तानुरक्तिः (स्त्री०) मानसिक अनुराग। 'वित्ताद्यर्जनहेतवे च चित्तजः (पुं०) चित्त में उत्पन्न प्रेमभाव, आवेश, रति। य इमे चित्तानुरक्तिस्तवा:' (मुनि० २२) चित्तजन्मन् (पु०) प्रेम, रति, आवेश। चित्तानुवर्तिन् (वि०) अनुरंजनकारी, अनुराग युक्ता। चित्तज्ञ (वि०) मन की बात जानने वाला। चित्तापहारक (वि०) आकर्षक, मनोनुकूल, मनोज्ञ, सौन्दर्ययुक्त, चित्तधारक (वि०) चित्त/मन लगाने वाला, 'सुखमालभतां मनोहारी, मोहक। चित्तधारकः परमात्मनि' (सुद० १२८) चित्तापहारिन् (वि०) आकर्षक, मनोज्ञ, मनोनुकूल, मनोहारी। चित्तनाश: (पुं०) अचेत अवस्था, बेहोशी। चित्तभोगः (पुं०) मानसिक प्रसन्नता, मनस्कार। (जयो० वृ० चित्तनिवृत्तिः (स्त्री०) संतोष, प्रसन्नता। शांतवृत्ति। ३/१०६) चित्तपरिणतिः (स्त्री०) मति, बुद्धि। (जयो० वृ० ६/८३) चित्तासङ्गः (पुं०) चित्ताकर्षक, अनन्य, अनुराग, अत्यधिक चित्तप्रसाद (वि०) आनन्द, हर्ष। प्रेम, प्रीतिभाव। चित्तप्रसन्नता (वि०) हर्षभाव युक्त। चित्तोल्लासः (पुं०) मानसिक शान्ति, हर्ष, आनन्द, मन में चित्तभा (स्त्री०) मनोवृत्ति, प्रकाशकार्की, चित्तदीप्ति। प्रसन्नता। (जयो० वृ० ९/७८) मच्चित्तभानामसुदेवतापि' (जयो० २२/८३) चित्तभा मम चित्तोल्लिखित (वि०) हृदयांकित, मन में उत्कीर्ण, हदय में चेतसि प्रकाश की, सूर्यकान्तसदृशी। (जयो० वृ० २०।८३) प्रविष्ट। (वीरो० वृ० २/१३) चित्तभित्ति (स्त्री०) मन की परत। चित्र (वि०) [चित्र+अच] १. उज्ज्वल, स्वच्छ, साफ, स्पष्ट, चित्तभू (पुं०) कामदेव। 'प्रेरितः सपदि चित्तभुवा यदञ्चति। २. चितकबरा, विचित्र, नाना रूप वाला। (जयो०६/११०) (जयो० ५/४) ३. आश्चर्यजन्य, विश्मयकारी, इत्येतच्चित्रमाश्चर्यकरणं चित्तभेदः (पुं०) ०मन मुटाव, विचार मतभेद, असंगति, न हि (जयो० ११/१७) अस्थिरता। चित्र: (पुं०) चित्र, रंग, वर्ण। चित्तमोहः (पुं०) मन में मोह, मुग्धता भाव, प्रेमभाव, आसक्ति चित्रं (नपुं०) छायाचित्र, चित्रकारी, आलेखन। १. नानाकार भाव। (जयो० वृ० ३/७९) पश्चाता । For Private and Personal Use Only Page #399 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir चित्रं ३८९ चित्रोल्लिखित चित्रं (अव्य०) अहो! कैसा विश्मय। क्या अद्भुत बात। चित्रफलकं (नपुं०) चित्रपटल, चित्र रखने का काष्ठफलक। चित्रकः (पुं०) तिलक। (जयो०६/३०) चित्रबहः (पुं०) मयूर। चित्रकरुचिः (स्त्री०) तिलक शोभा। 'चित्रक नाम तिलकं । चित्रभानु (पुं०) १. सूर्य, बह्नि। चित्रभानुरिनेऽनले इति विश्वतस्य रुचिं शोभा व्रजति। (जयो० वृ० ६/३०) लोचनः' इन सूर्य इत्यर्थः (जयो० २४/९९) (जयो० १५/२५) चित्रकष्ठ: (पुं०) कबूतर। चित्स्थिति (स्त्री०) १. परमात्मस्थिति (जयो० २/१२२) २. चित्रकथालापः (पुं०) रोचक कथा श्रवण, मनोरंजन कथा मदार पादप, ३. भैरव। सुनना। चित्रभित्तिः (स्त्री०) चित्र युक्त भित्तियां, विविध चित्रों से चित्रकम्बलः (पुं०) नाना प्रकार के वर्णों वाली झूल, हाथी की खचित दीवाल। चित्र भित्तिषु समर्पितदृष्टौ तत्र शश्वदपि झूल, रंगों से परिपूर्ण कालीन, गलीचा। मानवसृष्टौ। (जयो० ५/१९) चित्रकरः (पुं०) चित्रकार, अभिनेता। चित्रमण्डलः (पुं०) सर्प विशेष। चित्तकर्मन् (नपुं०) सजाना, अलंकृत करना, चित्र बनाना, चित्रमाला (स्त्री०) एक राजपुत्री, चक्रपुर के राजा अपराजित प्रदर्शन करना, जादूगरी दिखलाना। की पुत्री। (समु० ६/१८) चित्रकायः (पुं०) चीता, चित्तल। चित्रमृगः (पुं०) चितकबरा हिरण। चित्रकारः (पु०) रंगकर्मी। चित्रमेखलः (पुं०) मयूर, मोर, चित्रवर्ह, चित्रपिच्छक। चित्रकूटः (पुं०) पर्वत विशेष। चित्रयोधिन् (पुं०) अर्जुन का एक नाम। चित्रकृत् (पुं०) चित्रकार, चित्रकर्मी, रंगकर्मी। चित्ररथः (पुं०) सूर्य, रवि। १. नाम विशेष। चित्रक्रिया (स्त्री०) चित्रकारी, कलाकृति। चित्रल (वि०) चितकबरा। चित्रखचित (वि०) चित्र से युक्त, चित्रित, चित्र में बने हुए। चित्रलेख (वि०) सुन्दर रूप रेखा वाला, अत्यन्त सुंदर रेखा। 'चित्रेषु खचितानि लिखितानि' (जयो० वृ० ५/१०) चित्रलेखकः (पुं०) चित्रकार। चित्रग (वि०) विचित्र, उल्लिखित, चित्रांकित। चित्रलेखा (स्त्री०) नाम विशेष, प्रसिद्ध राजकन्या। चित्रगत (वि०) चित्र में अंकित, उल्लिखित। चित्रविचित्रं (स्त्री०) नाना प्रकार के वर्ण वाला। चित्रगुप्तः (पुं०) यमराज का लेखाधिकारी। चित्रविद्या (स्त्री०) चित्रकला। चित्रगृहं (नपुं०) १. रंगशाला, नाट्यशाला। २. विचित्र गृह। चित्रसंस्थ (वि०) चित्रित। चित्रचेष्टा (स्त्री०) मूर्त चेष्टा, चित्र रचना। प्रसरन्मृदुपल्लवेष्टया चित्रहस्तः (पुं०) हाथ की विचित्र स्थिति। सुलताङ्गीकृतचित्रचेष्टा। (जयो० १०/१४) 'चित्रस्य युवति चित्रा (स्त्री०) [चित्र+अच्+टाप्] १. नक्षत्र विशेष, २. चित्रा प्रतिमूर्तश्चेष्टा' (जयो० वृ० १०/१४) नामक स्वर्ग अप्सरा। (जयो० वृ० १८/७४) चित्रजल्पः (पु०) विविध वार्तालाप, नाना प्रकार से कथन। चित्रामः (स्त्री०) मैना, सारिका। चित्रता (वि०) शबलता (जयो० ६/३८) चित्राख्यात् (पुं०) विचित्र शोभा। चित्रो विचित्र इति ख्यातो या चित्रत्वच् (पुं०) भूर्जतरु। भा किरणः। (जयो० वृ० २२/१६) चित्रदण्डकः (पुं०) कास पादप, कपास का पौधा। चित्रानं (नपुं०) पीत, लाल वर्णादि युक्त अन्न, पीले चावल। चित्रन्यस्त (वि०) चित्रित, रेखांकित। चित्रानुरूपः (नपुं०) नानावर्ण। (जयो० २५/१२५) चित्रपक्षः (पुं०) तीतर। चित्रापूपः (पुं०) विविध व्यञ्जनों से परिपूर्ण पुएं, पुड़ी। चित्रपटः (पुं०) आलेख, तस्वीर, छायाकृति, छायांकन। चित्रार्पित (वि०) चित्रित। चित्रपद (वि०) विविध रूप में विभक्त, ललित पदावली, चित्रारंभः (वि०) चित्रित। सुन्दर पदावली चित्रोक्तिः (स्त्री०) सुष्ठुवचन युक्त कथन/उपदेश। चित्रपादा (स्त्री०) मैना, सारिका। चित्रोदतः (पुं०) पीत-चावल, पीले अक्षत। चित्रपिच्छकः (पुं०) मयूर, मोर। चित्रोल्लिखित (वि०) चित्रयुक्त। 'बभूव चित्रोल्लिखितेव गोचरा' चित्रपृष्ठः (पुं०) चटिका, चिड़िया। (जयो० २३/३३) For Private and Personal Use Only Page #400 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir चिद् ३९० चिर चिद् (पुं०) चैतन्य, जीव। (सम्य० ३१) चिन्तातुरः (पुं०) चिन्ता से व्याकुल। (दयो० १९) चिद्गुणं (नपुं०) चैतन्य गुण, चेतना लक्षण। बोधः स्फूर्जति चिन्तातुमनस् (वि०) चिन्ता से व्याकुल मन वाला। अनेन चिद्गुणो भवति यः प्रत्यात्मवेद्यः सदा। (मुनि० १४) चिन्तातुरमानसा तु सा विपद्य च व्याघ्रि अभूदहो रुषा। चिद्गुणलब्धिः (स्त्री०) चैतन्य गुण की प्राप्ति। (समु० ४/८) भव्यानितास्ताविकवर्त्म नेतु नमामि तांश्चिदगुणलब्धये तु। चिन्तापर (वि०) चिन्तनशील, ध्यान करने वाला। (भक्ति०१) चिन्ताभावः (पुं०) चिन्तन परिणाम, चिन्तन भाव। चिद्विलासी (वि०) ज्ञानानन्दस्वभावी। नित्योऽहमेकः खलु चिन्तामणिः (पुं०) काल्पनिक रत्न। (जयो० ८/९१) चिन्तामुक्त चिविलासी। (भक्ति० २६) करने वाला रत्न। चिन्तारत्न, जिससे मनोकामना भी पूर्ण चिदंकशः (पुं०) ज्ञान का अंश। (सम्य० १०९) होती है। वसुधैककुटुम्बिनाथ साऽऽरादुतचिन्तामणिमाश्रिता चिदात्मत्व (वि०) चैतन्यत्व। जीवा सन्ति चराः किलैवमचरा विचारात्। (जयो० १२१८७) सर्वेभ्यः सर्वस्वदायकेन राज्ञा सर्वे चिदात्मत्वतः। (मुनि० १३) दरिद्रतायै चिन्तामणिदत्त इति भावः। (जयो० वृ० १२/८७) चिदानन्दः (पुं०) चैतन्य स्वरूप आत्मा, ज्ञानस्वाभावी आत्मा। भाग्यतस्तमधीयानो विषयाननुयाति यः। चिन्तामणिं क्षिपत्येष (सुद० १२१) काकोड्डायनहेतवे।। (सुद० १२८) चिदानन्दसमाधिः (स्त्री०) ज्ञानानन्द समाधि, उत्कृष्ट सम्यक् भाव। चिन्तारत (वि०) चिन्ता युक्त, चिन्तन में तत्पर, आत्म-चिन्तन (सुद० १/३)। में लीन। सम्विग्नः स्वतनोश्च साधुरधुना स्वात्मीय चिन्तारतः। चिदेकपिण्डः ( पु०) एक ज्ञान शरीरी आत्मा। चिदेकपिण्डः (मुनि०वृ० १८) सुतरामखण्डः (भक्ति० ३१) चिन्तारलं (नपुं०) चिन्तामणि। (दयो० १०१) चिन्त् (अक०) सोचना, विचार करना, हृदार्तिमेतामनुचिन्तयन्तः' दुर्लभं नरजन्मापि नीतं विषयसेवया। (वीरो० १४/१४) चिन्तन करना, मनन करना, चिन्ता चिन्तारत्नं समुत्क्षिप्तं काकोड्डायनहेतवे।। (दयो० ७० ९/१) करना। तव आनन्दाय एव वयं चिन्तयामः (वीरो० ५/७) चिन्तावेश्मन् (नपुं०) परिषद् गृह, मन्त्रणाभवन। 'तदेतदाकर्ण्य पिताऽप्यचिन्तयत्' (सुद० ३/४२) २. मन चिन्ताहर (वि०) चिन्ता को हरण करने वाला। लगाना, ध्यान देना। वस्तुतो यदि 'चिन्त्येत चिन्तेतः कीदृशी चिन्ताहारी (वि०) चिन्ताहरण करने वाला। पुनः ३. खोज करना, याद करना। (जयो० १०/३०) ४. चिन्तिडी (स्त्री० ) इमली वृक्षा सम्मान करना। चिन्तित (वि.) [चिन्त्+क्त] विचार किया हुआ, सोचा गया, चिन्तयात्-संचय करें। (मुनि० २७) चिन्तन किया गया। चिन्तनं (नपुं०) विचारना, सोचना, (सम्य० ११५) ध्यान | चिन्तितिः (स्त्री०) सोच, चिन्तन, विचार, मनन, ध्यान। लगाना, एकाग्र करना। (जयो० वृ० १/३४) इति चिन्त्य (स०कृ०) [चिन्त्+यत्] चिन्तन करने योग्य, सोचने तच्चिन्तनेनैवाऽऽकृष्टः सागरदत्तवाक्। (सुद० ३/४३) । योग्य। चिन्ता (स्त्री०) [चिन्त्+ णिच्+अङ्कटाप्] चिन्तन, (सम्य० चिन्मय (वि०) [चित्+मयट्] १. आत्मिक, तात्विक, बौद्धिक। ११६) मनन, ध्यान, विचार। चित्ते चिन्ता ध्यानकरणम्। चिन्मयं (नपुं०) परमात्मा, विशुद्धज्ञानमय। (जयो० १० १/२२) चित्ते चेष्टवियोगानिष्टसंयोगजनिता चिपट (वि०) चिपटी नाक वाला। चिन्ता भवेत्। (जयो० वृ० १/२२) २. दु:ख (जयो० वृ० चिपट: (पुं०) चपटा किया गया। ९/५) चिन्तनं चिन्ता (स०सि० १/१३) 'चिन्ता चिपिटकः (पुं०) चिउड़ा, पोहे, चावल के पोहे। अन्त:करणवृत्तिः ' (त० वा० ९/२७) चिबु (स्त्री०) ठोडी। चिन्ताकर्मन् (नपुं०) चिन्ता करना, चिन्तनशील कार्य, मनन चिबुकं (नपुं०) ठोडी। करने योग्य कर्म, ध्यान देने लायक कर्म। चिमिः (स्त्री०) तोता। चिन्ताज्ञानं (नपुं०) चिन्तन करने योग्य ज्ञान, ज्ञानादित्रयात्मक चिर (वि०) [चि रक्] दीर्घकालीन, बहुत समय से चला रत्नत्रय का ज्ञाना आया। (सुद० १००) For Private and Personal Use Only Page #401 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir चिरकार ३९१ चीरं चिरकार (वि०) दीर्घकालीन, दीर्घसत्री, परम्परागत। चिरकारिक (वि०) दीर्घकालीन, दीर्घसूत्री। चिरकारिन् (वि० । प्राचीनतम्, बहुत समय का। चिरकालः (पुं०) बहुत समय, प्राचीन काल, दीर्घसमय, लम्बा अन्तगल। चिरकालिक (वि०) चिरकाल से चला आया, बहुप्रतीक्षित। चिरकालीन् (स्त्री०) बहुत समय से समागत। (मुनि० ३०) चिरजात (वि०) पूर्व में उत्पन्न, बहुत समय से उत्पन्न हुआ। चिरक्षुधित (वि०) बहुत भूखी, बहुत क्षुधा वाली। (दयो० २०) चिरञ्जीव (वि०) दीर्घायु वाला। चिरजीविन् (वि०) दीर्घजीवी। चिरटंकारः (पुं०) लम्बा उद्घोष। चिरतपस्वी (वि०) अधिक तप वाला। चिरदानं (नपुं०) ०अत्यधिक दान उचित दान, ०अपरिमित वस्तु का देना। चिरदानी (वि०) अत्यधिक दान देने वाला। चिरध्यानं (नपुं०) बहु समय तक ध्यान। चिरनमन् (वि०) अधिक नम्रशील, प्रणतभाव। चिरपरिचित (वि.) बहुत समय से परिचय वाला। चिरपाप (वि०) अधिक पाप, पाप की बहुतायत। चिरपुण्यं (वि०) उचित पुण्य, शुभभाव की अधिकता। चिरपुष्पः (पुं०) बकुल का फूल। चिरभ्रान्तिः (स्त्री०) चिरकालीन भ्रान्तियां, बहुत समय के भ्रम। (मुनि० ९०) स्वाध्यायः परमात्मबोध दियादेक उश्चिरभ्रान्तिहत्। (मुनि० ३०) चिरहिन् (पुं०) गधा, गर्दभ। चिररज (वि०) दोर्घ कालोन रज युक्त, दीर्घकालीन कर्म युक्त। चिररजनी (स्त्री०) लम्बी रात। चिरत्न (वि०) [चिरे भव:-चिर+त्न] पुराना, प्राचीन।। चिरन्तन (वि०) [चिरम् ल्युट्-तुट् य] पुराना, पुरातन, प्राचीन। चिरविप्रोषित (वि०) दीर्घ समय से बाहर रहने वाला, प्रवासी। चिरसंचित (वि०) बहुत समय से संगृहीत, चिरोच्चत। (जयो० वृ० १/७५) चिरसुप्त (वि०) बहुत समय से सोया हुआ। (दयो० ३०) चिरस्थ (वि०) चिरस्थायी, बहुत समय तक रहने वाली। चिरस्थायिन् (वि०) चिर समय तक रहने वाली, स्थायी, टिकाऊ दृढ़। (जयो० ६/७५) चिरायुस् (वि०) लम्बी आयु/उम्र वाला। चिरारोधाः (पु०) अधिक रोग, दृढ़ घेरा, चक्राकार रोक। चिरिः (पुं०) तोता। चिरोच्चित (वि०) चिरसंचित, बहुत समय से संगृहीत! चिरेण बहुकालेन उच्चिता, संगृहीतोऽसि:। (जयो० वृ० १/७५) चिर्भटी (स्त्री) [चिर+भट् अच् डीप्] ककड़ी, भटकचरिया। चिल् (सक०) वस्त्रधारण करना, परिधान पहनना। चिलमीलिका (स्त्री०) १. जुगनू, २. विद्युत, ३. चमकीला हार, गले का आभूषण। चिलाति (पुं०) राजा, कोटिवर्ष के स्थान का राजा (वीरो० १५/२०) चिल्ल् (अक०) ढीला होना, शिथिल होना। चिल्लः (पुं०) चील, गृद्ध पक्षी। चिल्लिका (स्त्री०) [चिल्ल्+इन्+कन्+टाप्] झींगुर। चिह्न (नपुं०) [चिह्न+अच्] अंक (जयो० वृ० ६/२१) लांछन, निशान, पहचान, प्रतीक, लक्षण, संकेत, इंगित, आकार। चिह्नकारिन् (वि०) चिह्न लगाने वाला, दाग लगाने वाला। डराबना। चिह्नधर (वि.) लक्षण धारी। चिह्नपत्रं (नपुं०) चिह्न युक्त पत्र, मुद्रित पत्र। चिह्नलोकः (पुं०) आकार, संस्थान, द्रव्य, गुण और पर्यायों के आकार। जं दिलै संठाणं दव्वाण गुणाण पज्जयाणं च। चिण्हलोगं वियाणाहि अणंतजिणदेसिदं (मूला० ७/५०) चिह्नितं (वि०) लांछित, लक्षण वाला, पहचान वाला, मुद्रांकित, संकेतित। चीच्चा (भू०) चीत्कार करने लगा चीच्चीत्कार-(भूतकालिक)-चीत्कार करने लगे। (जयो० ८/५) चीत्कारः (चीत्+कृ+घञ्) भयंकर गर्जन, तीव्र गर्जना, अधिक कोलाहल, विशेष क्रन्दन। स्फीत्कारचीत्कारपरम्। (जयो० २७/१८) चीत्कृत (वि०) चिंघाड़ वाला। अथो रथानामपि चीत्कृतेन छन्नः प्रणाद: पटहस्य केन। (जयो० ८/२३) चीनः (पुं०) [चि+नक्-दीर्घ:] चीन देश। चीनांशुकं (नपुं०) चीन में निर्मित वस्त्र। चीनाकः (पुं०) [चीन अक्+अण] कपूर। चीरं (नपुं०) १. वस्त्र, परिधान, कपड़ा। (सुद० २/११) (वीरो० ३/४१) २. धजी, चिथड़ा, फटा कपड़ा। ३. वल्कल। ४. चारलड़ी वाला हार। ५. दर्पण, सीसां For Private and Personal Use Only Page #402 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir चीरपरिग्रहः ३९२ चूडारनं चीरपरिग्रहः (वि०) वस्त्रधारी, वल्कलधारी। चुम्बनदानं (नपुं०) वटक दान, चूमने का आदान-प्रदान चीरि: (स्त्री०) १. अक्षी आवरण, आंख की पट्टी। २. झींगुर, परस्पर में चुम्बन करना। (जयो० १२/१२८) ३. झालर, गोट। चुम्बिः (स्त्री०) चूमा, चूमना। क्षीरोदपूर्रादर-चुम्बितीरे' (सुद० चीरिका (स्त्री०) झींगुर। २/११) चीर्ण (वि.) पालित, अनुष्ठित, बनाया गया, अधीत, विभाजित। | चुम्बिचन्द्र (वि०) चन्द्र की तरह चुम्बन। (जयो० २६/१३) चीलिका (स्त्री०) झींगुर। चुम्बित (वि०) चूमा गया, आलिंगन किया गया, चुम्बन किया चीव (सक०) पहनना, ओढ़ना, ग्रहण करना, लेना, पकड़ना। गया। सुकपोले समुपेत्य चुम्बित:। (सुद० ३/१९) सञ्जायते चीवरं (नपुं०) १. वस्त्र, परिधान, कपड़ा, २. चिथड़ा, फटा चुम्बितं (सुद० वृ० १०३) वस्त्र, जीर्ण वस्त्र। ३. वल्कल। ४. भिक्षुक परिधान। चुर (सक०) लूटना, चुराना, वहन करना, रखना, अधिग्रहण चीवरिन् (पुं०) भिक्षुक। करना, धारण करना। चु (पुं०) चवर्ग। (जयो० वृ० १/३९) चुरा (स्त्री०) १. चोरी, चौर्यकर्म। (जयो० १६/२५) (जयो० चुक्क (पुं०) चूक, छूटना। २/१२५) २. चवर्ग एवं रा धनं यस्याः सा चुरा। चतुरता, चुक्कारः (पुं०) [चुक्क्+अच्] सिंह दहाड़, सिंह गर्जना। चिपुणता। (जयो० वृ० ११/७८) चुक्रः (पुं०) [चक्र+रक्] अमल वेंत। चूरादूरः (पुं०) अचौर्य, अचौर्यव्रत। चोरी से दूर रहने वाला चुकं (नपुं०) अम्लता, खटास। साधु नित्यं पादपकोटरादिषु वशेदन्यानपेक्षिष्वथा- प्युद्भिन्नाचुक्रा (स्त्री०) इमली का वृक्ष। दितयोज्झितेषु च चुरादूरे चरः सर्वथा। (मुनि० ३) चुक्रिमन् (पुं०) [चुक्र+इमनिच्] खट्टापन। चुरिः (स्त्री०) [चुर+कि] लघु कूप। चुचुकः (पुं०) धुंडी, अव्यक्त शब्द। चुलूकः (पुं०) [चुल्+उकज्] हथेली भर जल, चुल्लु। चुञ्चुः (पुं०) प्रख्यात, प्रसिद्ध। चुलुकायते-चुल्लु में समा गया। (जयो० १/१०३) चुण्टा (स्त्री०) पोखर, छोटा कूप। चुलुकिन् (पुं०) [चुलुक इनि] सूंस, उलूपी। चुत् (अक०) चूना, टपकना, रिसना। चुलुम्प (अक०) झूलना, डोलना, हिलना, दोलायमान होना. चुता (स्त्री०) गुदा। आन्दोलित होना। चुद् (सक०) १. भेजना, प्रेरित करना, हांकना, धकेलना। २. चुलुम्पः (पुं०) [चुलुम्प+घञ्] पुचकारना, बच्चों को प्यार प्रश्न करना, प्रस्तुत करना, प्रोत्साहित करना, निर्देश देना, देना। फेंकना। चुलुम्पा (स्त्री०) [चुलुम्प+टाप्] बकरी। चुन्दी (स्त्री०) [चुन्द्+अच्+ङीष्] दूती, कूटनी। चुल्ल (अक०) खेलना, क्रीड़ा करना। चुप् (अक०) चुप रहना, चलना, चुपचाप खिसकना। चुल्लि (स्त्री०) चूल्हा। (दयो० ९३) चुबकः (पुं०) ठोडी। चुल्ली (स्त्री०) चूल्हा। चुम्ब (सक०) चूमना, चुम्बन करना, आलिंगन करना। अधरोष्ठं चूचुकं (नपुं०) घुण्डी, शब्द विशेष। (सुद० २/४५) चुम्बति (जयो० वृ० १२/७७) चूडकः (पुं०) [चूडा+कन्] कूप, कुंआ। चुम्बः (पुं०) चूमना, चुम्बन। चूडा (स्त्री०) १. बालों की चोटी, चुटिका। २. कलगी, मोर चुम्बकः (वि०) [चुम्ब+ण्वुल्] १. चूमने वाला, कामासक्त, कामुक। का उपरिभाग। ३. मुकुट, उष्णीष। ४. सिर, शिखर, चोटी, चुम्बकः (वि०) चुम्बक पत्थर, चकमक। कूट, चौबारा। ५. चूलिका-अनुयोग विषयों का संग्रह। चुम्बतितरा (वि०) चूमता हुआ, चूमने में तत्पर हुआ। (जयो० चूडाकरणं (नपुं०) मुण्डन संस्कार। वृ० ४/५६) चूडाकर्मन् (नपुं०) मुण्डन संस्कार। चुम्बनं (नपुं०) वटक, चूमना। (सुद० ९९) 'अतो वटकं चूडामणिः (स्त्री०) मुकुटमणि, सिरमोरमणि, शीर्षफूल। चुम्बनमपि देहि' (जयो० १२/१२४) (सुद० १२३) 'सातिरेक- चूडार (वि०) शिखा युक्त, कलगीदार। चुम्बनादिचेष्टोप देष्टुश्च' (जयो० ० १/७८) चूडारत्नं (नपुं०) चूडामणि, शीर्प फूल, श्रेष्ठ अलंकरण। For Private and Personal Use Only Page #403 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir चूतः ३९३ चेतभु चूतः (पुं०) १. आम्रतरु, २. कामदेव। चूलिकाङ्गं (नपुं०) गणनाभेद-चौराशीलाख नयुतौ का एक चूतं (नपुं०) गुदा। चूलिकाङ्ग। चूतकः (पुं०) आम्रतरु। चूतकरस्याम्र वृक्षः (जयो० १०/११७) | चूष् (सक०) पीसना, चूसना! चुचूष सद्यश्चतुरस्तमत्यादरेण चूतदार (वि०) आम्रदायिनी। (जयो० १२/१२७) चूतोचितकं सूदत्या। (जयो० १६/३८) चुचूषास्वादितवान् चूतोचित (वि०) आम्र सदृश। चूत इवोचितश्चूतोचितः (जयो० (जयो० वृ० १६/३८) १६/३८) चूषणं (नपुं०) [चूष+ ल्युट्] चूसना, चोखना। (जयो० १२/१२७) चूरचूरा (स्त्री०) चूरमा, वाटी का शर्करा युक्त चूरा। (जयो० चूषा (स्त्री०) १. चूसना, २. मेखला, ३. चमड़े की तंग। वृ० ६/१२) चूष्यं (नपुं०) [चूष्+ष्यत्] चूसने योग्य पदार्थ। चूर्ण (सक०) पीसना, चूर्ण करना, मसलना, रगड़ना। चेकितानः (नपुं०) शिव। चूर्णायाञ्चकार (जयो० वृ० ७/१०८) चेटः (पुं०) [चिट्+अच्] विट, भृत्य। चूर्णः (पुं०) चून, आटा. सुगन्धित द्रव्य, चन्दन चूरा। चूर्णस्य चेटकः (पुं०) चेटक राजा, वैशाली राजा। वैशल्या भूमिपालस्य पिष्टविशेषस्य (जयो० वृ० १६/४६) चूर्णो यव-गोधूमादीनां चेटकस्य समन्वयः पूर्वस्मादेव वीरस्य मार्गमाढौकिसक्तुकणिकादि। नोऽभवत्।। (वीरो० १५/१९) चूर्णं (नपुं०) चूना, खड़िया, सेटक। चेटिका (स्त्री०) सेविका, दासी, चेटी। (जयो० वृ० १२/१११) चूर्णकः (पुं०) सत्तू, आटा, चूना। (सुद० १५/१९) विवाहित पत्नी के अतिरिक्त रखी हुई चूर्णकार (वि०) चूना बनाने वाला। अन्य स्त्री। पत्नी पाणिगृहीता स्यात्तदन्या चेटिका मता।। चूर्णखण्डः (पुं०) रेत समूह, कंकण। (लाटी सं०) चूर्णनं (नपुं०) [चूर्ण+ल्युट्] कुलचना, पीसना। चेटी (स्त्री०) दासी, सेविका। (सु० ९२) इत्युक्ताऽथ गता चूर्णदोषः (पुं०) आहार उत्पादन के दोष। चेटी श्रेष्ठिनः सन्निधिं पुनः। (सुद० ७७) चूर्णपारदः (पु०) सिंदूर, अबीर। चेतकोऽपि (अव्य०) कोई भी चेतना (वीरो० १९/४२) (सम्य० चूर्णपिण्डः (पुं०) भोज्य वस्तु की प्राप्ति। १३४) चूर्णमुष्टिः (स्त्री०) चूर्ण की मुष्टि। 'वशीकारकचूर्णमष्टिः' चेतन (वि०) सजीव, जीवित, अन्त:करण, मन, आत्मा, सचेत। (जयो० १६/४६) चूर्णस्य पिष्टाविशेषस्य मुष्टिरिव मोहनाय चेतनकः (पुं०) चेतनता, ज्ञानात्मक, प्रज्ञा, ज्ञान, बुद्धि। (वीरो० जयेत्। (जयो० वृ० १६/४६) १४/२६) (जयो० २५/५५) चूर्णिः (स्त्री०) [चूर्ण इन्] चूरा, चूर्ण किया गया। चेतनत्व (वि०) चेतनता। चूर्णिका (स्त्री०) [चूर्ण+ठन्+टाप्] सत्तू, पिसा हुआ धान्य। चेतना (स्त्री०) ज्ञान, संज्ञा, बुद्धि, मति, प्राण, तत्व। (सुद० अतिसूक्ष्माऽतिस्थूल-वर्जितं मुद्ग-माष-राजमाष-हरि १९) विचार-'इहास्या इति चेतनाऽ भवत्। (समु० २/१४) मंथ-कादीनां दलनं चूर्णिका (त० वा० ५/२४) (सम्य० १४३) चूर्णित (वि०) चूर्ण किया गया, पीसा गया, चूर-चूर किया गया। चेतनात्मन् (पुं०) विचारभृत। (जयो० २४/१८) चूलः (पु०) केश, बाल। चेतस् (नपुं०) [चित्+असुन्] १. चेतना, चित्त ज्ञान, २. मन, चूला (स्त्री०) चोटी, शिखर, कूट, छत, गृह का ऊपरी भाग, आत्मा, हृदय। (सुद० १०३, जयो० ३/१) अन्त:करण पर्वतशृंखला। २. धूमकेतु शिखा। (जयो०४/४४) ३. विचार, चिन्तन, मनन। वाढं चेत्त्वमिहासि चूलिका (स्त्री०) १. चोटी, शिखर, ऊपरी भाग। (दयो० १८, कुत्सितमतिर्युक्ता क्षतिस्ते तदा। (मुनि० १४) को जानाति वीरो० २/११) २. अनुयोग-ग्रन्थ के सूचित अर्थों की कदा तदेतु विलयं तस्मात्स्वतश्चेद् भवेत् (मुनि० १११) विशेष प्ररूपणा प्राकृत में विश्लेषण। जाए अत्थपरूवणाए हृदय (जयो० ३/५४) कदाए पुव्वपरूविदत्थम्मि सिस्साणं णिच्छमो उप्पजदि सा चेतदा (वि.) चैतन्यता, आत्म भावत्व। (जयो० वृ० १/२२) चूलिया त्ति होदि। (धवल) ११/४०) २. गणना भेद, ३. चेतपततः (पुं०) चित्त रूपी पक्षी। रेखा (जयो० १२/५) 'मस्तकचूलिकाभ्यदारैः' (जयो० १२/५) चेतभु (पुं०) प्रेम। For Private and Personal Use Only Page #404 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra चेतविकार: चेतविकार : ( पुं०) क्षोभ, राग, द्वेष, मन का संवेग । चेता (स्त्री०) हृदय, चेतना (सुद० १/४३) । चेतोमत् (वि० ) [ चेतष+मतुप् ] जीवित । चेतोवृत्तिः (स्त्री०) मनश्चेष्टा। (जयो० ६ / ९०) चेद (अव्य०) यदि फिर भी, यद्यपि, तो भी (भक्ति० २५) चेदात्मन् (पुं०) चैतन्य आत्मा (मुनि० १३ ) चेदि (पुं०) चेदि नामक वंश चेद्यथा (अव्य) जैसा कि ( सुद० १३४ ) धेय (वि०) [चियत् संग्रह करने योग्य। चेल् (अक० ) हिलना, क्षुब्ध होना, कांपना, चलना । चेलं (नपुं०) [चिल+घञ्] वस्त्र, कपड़ा, १. दुष्ट, कूर चेलक (वि०) वस्त्रधारी । www.kobatirth.org चेलाञ्चलः (पुं०) वस्त्र प्रान्त, वस्त्र का हिस्सा । चेलानां वस्त्राणामञ्चनैः वस्त्रप्रान्तः' (जयो० १४/८७) चेलालङ्कारः (पुं०) वस्त्राभूषण (सुद० ११५) चेलिका (स्त्री० ) [ चेल+कन्+टाप्] चोली, अंगिया । चेष्ट् (अक० ) हिलना, चेष्टा करना, सक्रिय होना, संघर्ष करना, प्रयत्न करना, अनुष्ठान करना, व्यवहार करना, गतिशील होना । चेष्टकः (पुं० ) [ चेष्ट् + ण्वुल् ] रतिबंध, संभोग की पद्धति । चेष्टनं (नपुं०) [ चेष्ट्+ ल्युट् ] गति चेष्टा प्रयत्न, प्रयास, अनुष्ठान, सक्रिय । , चेष्टा ( स्त्री०) १. गति, प्रयत्न, प्रयास, अनुष्ठान, संघर्ष । अनेकवारं पुनरित्यथेष्टा समस्ति संसारिण एव चेष्टा (सम्प० ४६) २. आज्ञा- 'सेवकस्य चेष्टा सुखहेतुः' (सुद० ९२ ) ३. व्यवहार' चेष्टा स्त्रियां काचिदचिन्तनीया' (सुद० १०७) चेष्टित (भू०क०कृ० ) [ चेष्ट्+का] क्रियाशील, गतिशील, कर्मक्रिया, व्यवहार प्रक्रिया। 1 ३९४ चेष्टितं (नपुं० ) [ चेष्ट्+क्त + ल्युट् ] चेष्टा, कर्म, गति, क्रिया, 'मदनोदारचेष्टितम्' (सुद० ८३) चेष्टोपदेष्टु (वि०) चेष्टावाला प्रयत्नशील प्रयासरत (जयो० वृ० १/७८) चैतन्यं ( नपुं० ) [ चेतन+ ष्यञ् ] चेतना, प्राण, जीव, जीवन, संवेदन, प्रज्ञा, संज्ञा । ( मुनि० २६ ) चैतन्यता (वि०) चैतन्य से तन्मयता, आत्म तल्लीनता (मुनि० २६) चैत्तिक (वि० ) [चित्त+ ठक् ] मानसिक, बौद्धिक । चैत्यः (पुं०) स्मारक, धार्मिक स्थान, गृह में पूजा स्थान, अर्हद् बिम्बस्थान (जयो० २४/४) देवालय, जिनालय, चोचं मन्दिर चैत्यनामहंदुबिम्बानां' (जयो० २४/४) चिते लेप्यादिचयनस्य भावः कर्म वा चैत्यम्' चैत्यगृह (नपुं०) चैत्यालय। चैत्यनिकेतनं (नपुं०) अर्हनिम्बस्थान, चैत्यालय 'चैत्यानामर्हद्विम्बानां निकेतनं स्थानं (जयो० वृ० २४/४) वर्षेषु वर्षान्तर पर्वतेषु, नन्दीश्वरे यानि च मन्दरेषु, जले स्थले क्वाप्युदले गुहानां चैत्वानि वन्दे जिनपुङ्गवानाम् (भक्ति० ३४ ) चैत्यशक्तिः (स्त्री० ) चैत्यालयों की अर्चना / वन्दना । स्वमुद्रया शान्तिमुदाहरन्ति, Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 7 साम्यं जना आशु समाचरन्ति । यतः किलातीपरुषोः स्थानां चैत्यानि वन्दे जिनपुङ्गवानाम्।' (भक्ति० ३६) चैत्यप्रशंसा ( स्त्री० ) चैत्य में स्थित बिम्ब की स्तुति । चैत्यवर्ण (नपुं०) चैत्य प्रशंसा चैत्यवृक्षः (पु० ) सिद्धार्थ तरु, कृतकृत्य तीर्थकरों की प्रतिमाओं से पवित्र किए गए वृक्ष । चैत्यालय (पुं०) देवालय मन्दिर मूर्ति के पवित्र स्थाना चैत्यावर्णवादः (पुं०) कुयुक्ति पूर्वक प्रतिमाओं की निन्दा | चैत्यासनं (नपुं०) प्रतिबिम्ब की तरह आसन पद्यासन For Private and Personal Use Only " ध्यानावस्था का आसन । चैत्र: (पुं०) [चित्रा+अण्] १. चित्रा नक्षत्र, २. चैत्र मास (समु० ६/२७) बाल्यं विहायापि विवाहयोग्या लतेव चैत्रे भ्रमरेण भोग्या । (समु० ६ / २७ ) चैत्ररथं (नपुं०) कुबेर का उद्यान [चित्ररथ+अण] चैत्रशुक्लं (नपुं०) चैत्रमास का शुक्ल पक्ष । चैत्रशुक्लपक्षत्रिजया (स्त्री०) चैत्रशुक्ला त्रयोदशी। अन्तिम तीर्थंकर महावीर का जन्म दिन। चैत्रशुक्लपक्षत्रिजयायां सुतमसूत सा भूपति जा था। वैशाली गणराज्य के कुण्डपुर के राजा सिद्धार्थ का राजकुमार, रानी प्रियकारिणी त्रिशला का पुत्र । चैत्र (पं० ) [ चैत्री विद्यतेऽस्मिन्] चैत्रमास, चैत का महिना । चैत्री (स्त्री० ) [चित्रा+अण्+ ङीष्) चैत्री पूर्णिमा । चैद्यः (पुं०) शिशुपाल । [ चेदि प्यञ्] चैलं (नपुं०) वस्त्र, छोटा वस्त्र । चौक्ष (वि०) [चक्षु पञ्] पवित्र, स्वच्छ, साफ, सुन्दर, रमणीय, रुचिकर, हितकर, वृक्ष, कुशल । चोचं (नपुं० ) [ कोचति आवृणोति कुच्+अच्] १. वल्कल, छाल, २. खाल, चर्म, ३. नारियल । Page #405 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra चोय www.kobatirth.org चोज्य (वि०) आश्चर्य, विस्मय। चोटी (स्त्री० ) [ चुट्+अण्+ ङीप्] छोटा लंहगा । चोडा ( स्त्री० ) [ चोड़ति संवृणेति शरीरम् चड्+अच् + ङीष् ] चोली, ऑगया। चोदना (स्त्री० ) [ चुद् + ल्युट् स्त्रियां टाप्] फेंकना, निर्देश देना, उत्साहित करना, प्रोत्साहन देना, स्फूर्ति देना, आगे करना, हांकना, बढ़ाना। २. उपदेश विधि | चोद्यं (नपुं० ) [ चुद् + ण्यत् ] आक्षेप, प्रश्न, आश्चर्य । निवेद्य चोद्यं चतुरा तु राज्ञिका मनोविनोदं नयति स्म भूभुजः । (जयो० २३/८३) चोर: (पुं० ) [ चुर+ णिच्+अच्] चोर। (सम्य० २८) चोरिका (स्त्री०) चोरी, लूट चोरिन् (वि०) चुराया गया। चोल (पुं०) १. चोल देश, बोलवंश २. चोली, अंगिया। चोलकः (पुं०) [ चोल+कै+क] वस्त्रस्त्राण, छाल, बल्कल । चोलकिन् (पुं०) [ चोलक + इनि] वस्त्रस्त्राण से सुरक्षित सैनिक, कवच, ढाल | चोली (स्त्री०) चोली, अंगिया । चोष: (पुं०) [ चुप्+घञ् ] चूसना । चोष्यं (ऋ०वि०) चूसना । चौबीसी (वि०) चौबीस की संख्या वाला, चौबीस तीर्थंकरों की संख्या ( भक्ति० १८ ) + चौर: (पुं०) [ चुर. णिच्-अच्, चुराण चोर, लुटेरा (जयो० १५/८१) एकत्राङ्कित चौरसाधु पतिभि ' चौरकथा (स्त्री०) चोर सम्बन्धी कथा, चोरों का वर्णन, चोरों की चर्चा । 'चौराणां चौरप्रयोग-कथनं चौरकथाविधानम्' (निय० ता०वृ० ६७ ) चौरचरट: (पुं०) चौर भय। (जयो० वृ० १ / ३९) चौरप्रयोग (पुं०) चोरों की चर्चा, चोरों की अनुमोदना । चौरसुति (स्त्री०) चोरों की संगति (जयो० कृ० २८/५७) चौर लुण्टाक (पुं०) चोर लुटेरा (जयो० १/३० ) चौर संयुतिः (स्त्री०) चोरों की संगति (जयो० वृ० २८/५७) चौरप्रिया (वि०) चोरों का विरोधी (समु० ६/७०) चौरार्थदानं (नपुं०) चोर द्वार लाए गए अर्थ संग्रहण चौराहतगृह (वि०) चोरी के अर्थ का ग्रहण करने वाला । चौर्य (नपुं० ) [ चोर + ष्यञ्] चोरी, छूट, चुराना, अदत्त (जयो० २/१२५) स्वयं ग्राह्य वस्तु बिना पूछे वस्तु लेना (सम्य० २७) 'अदत्तस्य स्वयं ग्राहो वस्तुनः चौर्यमीर्यते' ३९५ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir च्युताधिभार संक्लेशपरिणामेन प्रवृत्ति यत्र तत्र तत् ।। ( हरिवंश पु० ५८ / ११) शरीरादिकों में अहंकार/ ममकार लिए हुए पर वस्तुओं का हथियाना, जबरन अपनाना। (सम्य० वृ० २८) चौर्यप्रयोगः (पुं०) चोरी का प्रयोग, अनुमोदना । ( मुनि० २१ ) चौर्यरत (वि०) अदत्तादान रहित, चोरी से रहित। (जयो० वृ० २८/५७) चौर्यानन्दः (पुं०) रौद्रध्यान, खोटा ध्यान, चोरी करके हर्षित होना। परद्रव्यहरणे तत्परता प्रथमं रौद्रम् (मूला०वृ० ५/१९९) , चौर्यानन्दी (वि०) रौद्रध्यान का एक भेद हिंसानन्दी, मृषानन्दी, चौर्यानन्दी और परिग्रहानन्दी । ( मुनि० २२ ) चैव (अव्य०) तो भी ऐसा भी (सुद० ७२ ) चौहानवंशभृत् (वि०) चौहानवंश वाला, कीर्तिपाल नामक राजा। चौहान वंशभृत् कीर्ति पालनाममहीपते देवी महीलाख्याना बभूव जिनधर्मिणी (वीरो० १५/५१) च्यवनं (नपुं० ) [ च्यु लुट्] उद्वर्तन मरण, आना, अवतरण, गति, च्युतिः च्यवनं चूक कृत्ये ममाभूच्च्यवनं तदेतत् । ( भक्ति० ३८ ) च्यवतः (वि०) अवतरित च्युत होने वाले होता हुआ आया हुआ (सम्य १०८) च्यवन्त (वि०) १. च्युत होते हुए गिरते हुए श्रद्धानतश्चाचरणाच्च्यवन्तः संस्थापिता संतु पुनस्तदन्तः । ( सम्य० ९५ ) २. हानि, वञ्चना, मरण, उद्वर्तन करते हुए। च्यावित (वि०) भ्रष्ट कराए गए, च्युत कराए गए, कदलीघात, विषभक्षण, वेदना, रक्तक्षयादि से खण्डित आयु वाला शरीर। कदलीपातेन पतितं व्यावितम्। च्यु , (अक० ) गिरना, नीचे आना, बाहर आना एक पर्याय से दूसरी पर्याय को प्राप्त होना, शरीर त्यागना, नष्ट होना, छोड़ना, निकलना। च्युत् ( अक० ) गिरना, निकलना, नीचे आना, छूटना, नष्ट होना, गिरना । 'पक्वफलमिव स्वयमेवायुषः क्षयेण पतितं च्युतम् । च्युत (भू०क० कृ० ) [ च्यु+क्त] गिरा, आया हुआ, निकला हुआ च्युतं त्यागं विनायुष्क क्रमश्वगतात्मकम्। 'निरूपराग शुद्धात्मानुभूतिच्युतस्य मनोवचन काय व्यापार-कारणम् । (सम्य० १३५ ) च्युतगत (वि०) बाहर निकला हुआ, गिरकर आया हुआ। च्युताधिभार (वि०) पदच्युत किया गया। For Private and Personal Use Only Page #406 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir च्युतात्मन् ३९६ छद्मस्थः च्युतात्मन् (वि०) आत्मभाव से रहित दुष्टात्मा वाला। च्युतिः (स्त्री०) [च्यु+क्तिन्] गिरना, पतन, अवतरण, आना, निकलना, रिसना, झरना. टपकना। छः (पुं०) चवर्ग का दूसरा व्यञ्जन, इसका उच्चारण स्थान तालु है। छः (पुं०) [छोड] १. अंश, खण्ड, भाग, हिस्सा, प्रदेश। २. सूर्य (जयो० २८/१) छा-छोदन क्रिया छश्च छोदकार्कयो: इति वि। छगः (पुं०) [छ यजादी छेदन गच्छति-छ+गम+ड] बकरा। छगलः (पुं०) बकरा, छाग, अजापुत्र। (दयो० ४४) (जयो० २५/३५, २५/१२) छगलं (नपुं०) नील वस्त्र। छगलकः (पुं०) बकरा। छगी (स्त्री०) बकरी। छज्जा (स्त्री०) वलभीतल (जयो०० १०/६१) छटा (स्त्री०) [छो+अटन्+टाप्] १. प्रभाव, कान्ति, प्रकाश, दीप्ति, किरण समूह। २. पुञ्ज, ढेर, राशि, ०ओघ। ३. रेखा, पंक्ति, लकीर। ४. आभा, ०शोभा, ०अलंकार (जयो० २/२३) ५. विचारधारा, अविच्छिन्न। धारा येषां ते प्राणाचार्य: बभूवुः। (जयो० वृ० ३/१६) छत्रः (पु०) [छादयति अनेन इति-छ्+णिच्-त्रन्] कुकुरमुत्ता. खंभी। छत्रं (नपुं०) आतपत्र, छाता। (जयो० वृ० २६/१५) १. छत्राकार योग। छत्रत्रयः (नपुं०) तीन छत्र। चांदी या स्वर्ण निर्मित भगवान् के मस्तक के ऊपर सुशोभित होने वाले तीन छत्र। त्रिगुणं वपुराप्य घूर्णते क्षयजिच्छत्रतया जगत्पतेः। (जयो० २६/६१) छत्रधर (वि.) १. छत्र धारक। २. छत्र ग्रहण करके चलने वाला। छत्रधार (वि०) छत्र ग्रहण करके चलने वाला। छत्रधारणं (नपुं०) १. आतपत्र लेकर चलना, छत्र लेना छाता रखना। २. बच जाना, उड़ जाना, ३. प्रगमन करना, भटकना। छत्रपुरी (स्त्री०) पुष्कल देश की नगरी। (वीरो० ११/३५) जिसका शासक अभिनन्दन था। छत्रा (स्त्री०) कुकुरमुत्ता। छत्रातिछत्रं (नपुं०) योग दृष्टि, जिसमें एक के ऊपर एक छत्र के सद्भाव के समान आकार से योग साधना की जाती है। 'छत्रात् सामान्यरूपात् उपर्यन्यान्यछत्रभावतोऽतिशायि छत्रं छत्रातिछत्रम्। (जैन०ल० ४४६) छत्रायते-छत के समान प्रतीत होना-अधस्थ-विस्फारि-फणीन्द्र- दण्ड श्छत्रायते वृत्ततयाऽप्यखण्डः। (वीरी० २/३) छत्रिकः (पुं०) [छत्र+ठन्] छाता लेकर चलने वाला। छत्रिन् (वि.) छाता रखने वाला। छत्वरः (वि०) [छद्+प्वरच] गृह, आवास, पर्णकुटीर। छद् (सक०) ढकना, पर्दा करना, आवरण करना, छिपाना, आच्छादित करना। छदः (पुं०) [छद्+अन्] आवरण, चादर। छदं (नपुं०) [छद्+ल्युट] आवरण, पर्दा, चादर। 'प्रणप्टदण्डानि सितातपत्रच्छदानि रेजुः पतितानि तत्र।' (जयो० ८/३८) छदानि आवराणां शुकानि। (जयो० वृ०८/३८) छदनं (नपुं०) १. आवरण, चादर। २. पत्र, पर्ण, ३. म्यान, खोल, संदूक, करण्य, डिबिया। छदपत्रं (नपुं०) तेजपत्र। छदिः (स्त्री०) १. छप्पर, छत का ऊपरी भाग। (जयो० १२/९१) गृहस्योपरिभाग। २. सञ्छादनवृत्ति, आच्छादन भाव, छिपाने का भाव। (जयो० वृ० २३/२८) छान् (नपुं०) [छद्म निन्] १. छिपाव, गोपन। (जयो० वृ० ६/६२) छल, कपटवश, धोखा देने वाला आवरण। २. बहाना, ब्याज। (जयो० १४८३) ३. जालसाजी, चालाकी, धूर्तता, ठगी। ४. आत्म-आवरण रूप कर्म, घातिया कर्म। 'छादयत्यात्मनो यथावस्थितं रूपमिति छद्म ज्ञानावरणादि घातिकर्म-चतुष्टयम्।' (जैन०ल० ४४६) छद्मतापसः (पुं०) वेशधारी, तपस्वी, पाखण्डी साधु। छद्मदृक् (स्त्री०) १. छल दृष्टि। २. ब्याज दृष्टि। 'छद्म छल यस्याः सा चासौ दृक् दृष्टिश्च। (जयो० वृ० १/८३) छद्मनामः (पुं०) उपनाम। छद्मभावः (पुं०) ब्याज, बहाना। छद्मवेशः (पुं०) कृत्रिम वेश। (जयो० वृ०७/४) छद्मस्थः (वि०) छद्म में स्थित, कर्मावरण जन्य। (सम्य०७३) ज्ञानावरण दर्शनावरण में स्थित। 'छद्म ज्ञान-दृगावरणे, तत्र तिष्ठन्तीति छद्मस्थाः । (धवला० १/१८८) 'छदुम णाम आवरणं तम्हि चिट्ठदि त्ति छउमत्थो। (धव० १०/२९६) For Private and Personal Use Only Page #407 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir छद्मस्थमरणं ३९७ छवि-दर्शिनी छद्मस्थमरणं (नपुं०) मन:मर्ययज्ञान वाले तक का कारण, | छर्दिका (स्त्री०) [छर्दि+कन्+टाप्] वमन करना। ___ चार क्षयोपशमिक वाले का मरण, छद्मस्थ संयतों का मरण। छर्दित (वि०) १. वमन करने वाला। २. घृतादि को गिराने का छद्मिन् (वि०) [छान् इनि] ठगी करने वाला, छल करने दोष वाला। वाला, कपट भावी। छर्दिदोषः (पुं०) आहार करते समय वमन से अन्तराय। छन्द् (सक०) प्रसन्न करना, संतुष्ट करना। छर्दिर्वमनमात्मनो यदि भवति। (मूला० ६/७६) छन्दः (पुं०) [छन्द्+घञ्] अभिलाषा, इच्छा, वाञ्छा, चाह, छर्दिस् (स्त्री०) वमन करना। इच्छानुकूल आचरण, चेष्टा। (जयो० वृ० २/५३) छल: (पुं०) छल, कपट, धूर्तता, वचन विघात। 'पशुतां छन्दना (स्त्री०) इच्छाकार पूर्वक ग्रहण। छलेन' (वीरो० १४/२७) वचनविघातोऽर्थविकल्पोपपत्त्या छन्दस् (नपुं०) [छन्द्+असुन्] १. इच्छा अभिलाषा, वाञ्छा, छलं वाक्छलादि। ब्याज, बहाना। 'लोम-लाजिच्छलात्सैषा' चाह, स्वेच्छाचरण। २. रचना, काव्य छन्द, वृत्त। (जयो० ३/४८) छलात्-व्याजात् (जयो० वृ० ३/४८) छन्दकृत् (वि०) पद्यात्मक रचना करने वाला। कालोपयोगेन हि मांसवृद्धि कुचच्छलात्तत्र समात्तगृद्धिः। छन्दगत (वि०) छन्द सम्बन्धी, रचना, कृति सम्बन्धी। (सुद० १०२) छन्दभङ्गः (पुं०) छन्दशास्त्र के नियम का उल्लंघन। छलं (नपुं०) १. छल, कपट, धोखा, बहाना ब्याज। २. छन्दयुगलः (वि०) छन्द समूह, युगलछन्द। योजना, उपाय। ३. दुष्टता। ४. दम्भ। छन्दशास्त्रं (नपुं०) रचनाधर्मिता का शास्त्र, वृत्ताास्त्र। छलच्छिदं (नपुं०) मायाचार, कपटभाव। (दयो० वृ० २३) छन्दसी (वि०) छन्द वृत्ति युक्त। छलनं (नपुं०) [छल्+ ल्युट्] कपट करना, मायाचार करना, छन्दोऽनुग (वि०) आज्ञानुसारिणी। (जयो० २७/२१) ठगना। छन्दोऽनुवर्ती (वि०) आज्ञानुसारी। छलयति-धोखा देता है, उगता है। छन्दोबन्धः (पुं०) प्रबन्ध रचना। (दयो० पृ० ५३) छलरहित (वि०) दम्भातीत, दम्भ रहित, कपट रहित। (जयो० छन्दोभिधः (पुं०) छन्द नाम। वृ० २३/९०) छन्दोऽभिश्चालः (पुं०) गेयात्मक पद्य का पद्धति, गीत - छलिकं (नपुं०) [छल+इनि] ठग, उचक्का। विशेष पद्धति। छवि-रवि-कलरूपाषायात् साऽऽर्हतीतिनः छल्लि (स्त्री०) १. छाल, वल्कल। २. फैलने वाली लता। ३. स्विदपायात्। (स्थायी) वसनाभरणैरादरणीयाः सन्तु मूर्तयः सन्तान, प्रजा, सन्तति। किन्तु न हीयान्। तसु गुणः सुगुणायाश्छविरवि-कलरूपा छवि (स्त्री०) [छयति असारं छिनत्ति तमो वा-छो वि+किच्च पायात्। (सुद० वृ० ७५) वा ङीप्] छन्न (वि०) [छद+क्त] ढका हुआ, आवृत, लुप्त, गुप्त, * आकार, (जयो० वृ. २४/४१) आच्छादित, आवरित, आच्छन्न। रहस्यपूर्ण। (सुद० ९०) * प्रतिमूर्ति, प्रतिबिम्ब (जयो० ३/८१) रजोऽन्धकारे जडजाधिनाथश्छन्ने न किं गोपतिरेष चाथ * कान्ति, शोभा, प्रभा (जयो० १०/४०) (जयो०८/७) * मुद्रा, आकृति (सुद० ७०) छन्नदोषः (पुं०) आलोचना, प्रायश्चित्त। राग-द्वेषरहिता सति सा छविरविरुद्धा यस्य। छन्ना (वि०) प्रलुप्ता, लुप्त हो गई। छन्ना किलोच्चै स्तनशैलमूले। * प्रकाश, दीप्ति, तेज। (जयो० ११/४९) * छाल, त्वच्, खाल। छन्नी-भवत्व (वि०) निष्प्रभ होता हुआ, छिपता हुआ। नियमेन * शरीर-'छविः शरीरं त्वक् वा' (त०भा० ७/२०) तिरोभावितुं किल गतवान्। (जयो०८/५०) * अलंकार छवि: अलंकार विशेषः। छमण्डः (पुं०) [छम्+अण्डन्] अनाथ, मातृपितृविहीन। छविकर (वि०) प्रभा फैलाने वाला। छर्द (अक०) वमन करना, कै करना। छविच्छल (नपुं०) प्रतिबिम्ब के बहाने। (जयो० २४/५८) छर्दः (पुं०) [छ+घञ्] वमन। छवि-दर्शिनी (वि.) कान्त्यवलोकिनी, सौंदर्य को देखने वाली। छर्दिः (स्त्री०) वमन करना। (जयो० १०/४०) For Private and Personal Use Only Page #408 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir छविभाक् ३९८ छिछी छविभाक् (वि०) छवि धारक, छविं शोभा विभर्ति। (जयो० छान्दस् (वि०) [छन्दस्+अ चा] १. वेदज्ञ, वेदाध्ययनशील, ११/१३) २. छन्दोबद्ध रचना, छन्दशास्त्र। छन्द एव छान्दसं छन्दशास्त्र छविरविकलरूप (वि०) निर्विकारता, निर्दोष मुद्रा। (सुद० (जयो० वृ० २/५३) ७५) छायविधिः (स्त्री०) छाया विधि। प्रतिभाति गिरीश्वरः स च छविलाञ्छित (वि०) प्रभा से चिह्नित, कान्ति से परिपूर्ण। सफलच्छायविधिं सदाचरन्। (वीरो०७/१९) (जयो० १८/१०३) छाया (स्त्री०) १. कान्ति, प्रभा, प्रणाली, प्रतिमूर्ति, प्रवृत्ति। छह -संख्या विशेष, षट्। (भक्ति० ९) सौन्दर्य लावण्य। (जयो० ३/११३, २२/४८) छाया छाग (वि०) बकरा, अज। (वीरो० १/३१) कान्तिर्धर्माभावा- २. छप्पर, छत, (जयो० २२/८२) ३. छागं (पुं०) बकरी का दूध। परछाई, छदि, छांह, छांव। स्वल्पपपल्लवच्छाया (सुद० छागभोजनं (नपु०) भेड़िया। ११२) ४. पुद्गल का एक गुण (तस०५/२४) 'छाया छागणः (पुं०) कंडा, करीष, उपले। प्रकाशावरणनिमित्ता' छाया प्रकाश का आवरण है। छाया छागमुखः (पुं०) कार्तिकेय। तमोरूपा सा छन्ना प्रलुप्ता भवति (जयो० वृ० ११४९) छागल (वि०) बकरी से प्राप्त होने वाला। ५. मनुष्य का प्रतिबिम्ब। ६. वर्णादिविकार। छयति छिनत्ति छागलः (पुं०) बकरा। (जयो० २६/१०३) वाऽऽतपमितिछाया। ७. प्रतिच्छन्दमात्रा। छिद्यते, छाणश: (पुं०) छोंक, बधार। छिनत्त्यात्मनमिति वा छाया। छात (वि०) विभक्त, काटा गया। छायागतिः (स्त्री०) छाया का गमन। छात्र: (पुं०) [छत्रं गुरोर्वेगुण्यावरणं शीलमस्य-छत्र+ण] विद्यार्थी, | छायाग्रहः (पुं०) दर्पण, शीशा। शिष्य, अध्ययनशील व्यक्ति। छायाछादित (वि०) छाया से प्रवारित, (जयो० १४८९) छात्रकर्मन् (नपुं०) छात्र क्रिया, छात्रकर्त्तव्य। छायातनयः (पुं०) सूर्यपुत्र शनि। छात्रखण्डं (नपुं०) छात्र समूह। छायातरुः (पुं०) सघन छाया वाला वृक्ष। छात्रगण्डः (पुं०) श्लोक का प्रारंभिक पद, काव्य का एक छाया द्वितीय (पुं०) छायाधारी, एक मात्र छाया वाला। अंश छायानपातगतिः (स्त्री०) छाया के पीछे नहीं चलना, पुरुष छात्रदर्शन (नपुं०) निकला गया नवनीत, एक दिन का निकाला अपनी छाया के पीछे नहीं चलता। गया नैनू, मक्खन। छायापथः (पुं०) पर्यावरण। छात्रा (स्त्री०) शिष्याः छायाभृत् (पुं०) चन्द्र, शशि। छादं (नपुं०) [छद्+णिच+घञ्] छप्पर, छत। छायामानः (पुं०) चन्द्र। छादनं (नपुं०) १. आवरण, आच्छदन, ढकना, प्रवारण आदि। छायामित्रं (नपुं०) छाता, आतपत्र, छतरी। (जयो० वृ० २३/२८) अनुभूतवृत्तिता छादनम् छायामृगधर (पुं०) चन्द्र, इन्दु, शशि। प्रतिबन्धहेतुसन्निधान्। संवरण, स्थगन। २. परिधान, वस्त्र, छायायन्त्रं (नपुं०) धूपधड़ी, काल बोधक यन्त्र। आंचल, ३. पत्र। छायावन्त (वि०) छाया युक्त, छायावान् छाया से सहित। छादनकर्मन् (नपुं०) आच्छादन क्रिया, संवरण क्रिया। (वीरो० २२/२९) छायावन्तो महात्मानं पादपा इव भूतले। छादन वस्त्रं (नपुं०) अञ्चल, आंचल, चुन्नी। (जयो० १७/४३) (वीरो० २२/२९) छादयितुं (हे०कृ०) गोप्तम् (जयो० १३/४३) ढकने के लिए, छायाविहीन (वि०) अच्छाय, परछाई रहित। आच्छादन के लिए। छाली (स्त्री०) बकरी, अजा (जयो० ११/३२) (जयो० वृ० छादित (वि.) प्रसारित, आच्छन्न, आवृत, ढका हुआ, प्रवारित। १११/३) (जयो० २७/२८) छाया-छादित-सरणो गुणेन विविनश्रियः छिः (स्त्री) [छो+कि] गाली, अपशब्द। श्रीमान् (जयो० १/८९) छिक्का (स्त्री०) छींग, झींकना। छाद्यिकः (पुं०) [छान्+ठक्] धूर्त. ठक, कपटी। छिछी (स्त्री०) घृणित शब्द। For Private and Personal Use Only Page #409 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir छिति छुरणं छिति (स्त्री०) भूतल, पृथिवी। (समु० १/२२) छितिपरायणः (पुं०) १. पृथिवी प्रवीण, २. तलवार में निपुण। (समु०१/२२) छित्तिः (स्त्री०) [छिद्+क्तिन्] काटना, खण्ड करना, विनाश करना। येनासौ जनिरायतिः सकशला पञ्चायतच्छित्तये। (जया० २७/६६) छित्तय-विनाशाय ( जयो० वृ० २७/६६) छित्वर (वि०) [लिवरप्] १. काटना, खण्ड करना. विनाश, मारना. विदीर्ण करना। २. शांत करना, सुधारना। छिद् (सक०) काटना, फाड़ना, विदीर्ण करना, नाश करना। जीतना (समु०४/७९) 'मोहमश्छिद्यत इत्युदारात्' (भक्ति०३०) छिदकं (नपुं०) १. वज्र, आयुध विशेष। २. हीरा, हीरक। छिदा (स्त्री०) [छिद्+अ+टाप्] विभाजन, विनाश, खण्ड। छिदि (स्त्री०) [छिद्+इन् ] छेदन, कुल्हाड़ा। छिदिभृत् (पुं०) श्वेत, सच्छिद्र। (जयो० १०/२७) छिदिरः (पु०) [छिद्-किरच] कुल्हाड़ा। छिदर (वि०) विभक्त करने वाला, काटने वाला। छिद्यमान (वि०) विभक्त किया गया, छेदा गया। (सम्य० १३९) छिद्रं (नपुं०) [छिप्रक] विल, गर्त, गड्ढा, छेद, विवर, रन्ध, गव्हर-(जयो० वृ० २४/४७) दरज, कटाब, दरार। (वीरो०१/१९) * दोष, सुराख। (वीरो० वृ० १/१९) छिद्र (वि०) छेदा हुआ, कटा हुआ, विभक्त, छिद्र युक्त। छिद्रकुट (वि०) घड़े के नीचे छेद। छिद्रकर्ण (वि०) छिदे हुए कानों वाला। छिद्रगत (वि०) छिद्रयुक्त, दोष युक्त। छिदघट (वि०) छेद वाला घड़ा। छिद्रदर्शन (वि०) दोष प्रदर्शन। छिदपूरणं (नपुं०) १. बिल भरण छिद्र, पूरना। २. दोषापकरण, कलहनिवारण। नीरपूर इव संचरन् स वा छिद्रपूरणविधी विचारवान्। (जयो० ७/५६) छिद्रानुजीविन् (वि०) दोष निकालने वाला, कलह करने छिद्रान्तरः (पुं०) वेंत। छिदात्मन् (वि०) दोष प्रकट करने वाला। छिद्रान्वेष (वि०) दोष निकालने वाला। छिद्रान्वेषी (वि०) दोष व्यक्त करने वाला। छिद्रित (वि०) [छिद्र इतच्] रन्ध्र युक्त, विवर सहित, छेद से परिपूर्ण, छिदा हुआ, विधा हुआ। छिन्न (भू०क०कृ०) [छिद्+क्त] विभक्त, कटा हुआ, खण्डित, विकीर्ण, टूटा हुआ। (सम्य० १३९) छिन्नकर्मन् (वि०) कर्म विमुक्त हुआ। छिन्नकषाय (वि०) कपाय रहित। छिन्नक्षोभ (वि०) राग-द्वेष रहित। छिन्नकेश (वि०) कटे हुए केश वाला, मुण्डित। छिन्नतप (वि०) तप से रहित। छिन्नतरु (वि०) कटा हुआ वृक्षा छिन्नतेज (वि०) क्षीण तेज वाला। छिन्नदान (वि०) दान में अन्तराय। छिन्नदोष (वि०) दोष रहित। छिन्नधर्म (वि०) धर्म च्युत, धर्म विमुख। छिन्ननिमित्त (वि०) त्रैकालिक ज्ञान का कारण। छिन्नपाप (वि०) पाप से रहित। छिन्नपुण्य (वि०) क्षीण पुण्य वाला, विदीर्ण 'पुण्य। छिन्नफल (वि०) गिरा हुआ फल। छिन्नभिन्न (वि०) क्षत-विक्षत। छिन्नमस्तक (वि०) कटे हुए सिर वाला। छिन्नमूल (वि०) विमूल विनष्ट वाला, सर्वस्वक्षीण, रिक्त, अभाव। छिन्नमोह (वि०) मोह रहिता 'छिन्नः प्रणष्टो मोहो मुग्धभावो' (जयो० वृ० १०/९६) छिन्नश्वास (वि०) दमा युक्त। छिन्नसंशय (वि०) संशय रहित। छिन्नस्वप्न (वि०) परस्पर के सम्बंध से रहित स्वप्न, तीर्थकर की माता को दिखने वाले स्वप्न। छुछुन्दरः (पुं०) एक जन्तु, जो मूषक की जाति का होता है। छुछुन्दरी (स्त्री०) एक जन्तु। छुद्र,टिका (स्त्री०) किंकिणी (वीरो० ६/२९) छुप् (सक०) १. काटना, विभक्त करना, उत्कीर्ण करना। २. लीपना, पोतना, अवगुण्ठित करना, मिलाना। छुरणं (नपुं०) [छुर् + ल्युट्] लीपना, सानना। वाला। छिद्रानुसन्धानिन् (वि०) छिद्रान्वेषी, दोषी, दूसरे पर आरोप लगाने वाला। छिद्रानुसारित्व (वि) दोय निकालने वाला। कौटिल्यमेतत्खलु चापवल्ल्या छिद्रानुसारित्वमिदं मुरल्याम्। (सुद० १/३४) For Private and Personal Use Only Page #410 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir छुरा ४०० जक्ष छुरा (स्त्री०) [छुर्+कटाप्] चूना, अरास। छुरिका (स्त्री०) [क्षुर+क्वुन्+टाप्] ०छुरी, चाकू, कृपाण पुत्री। (जयो० १४/५१) (वीरो० १/३६) छुरित (भू०क०कृ०) [क्षुर+क्त] खचित, जडित, आच्छादित किया। छुरी (स्त्री०) [क्षुर्+ङीष्] चाकू, छुरी। छद् (सक०) जलाना, चमकना, चमन करना। छर्दति, छर्दयति। छेक (वि०) १. शहरी, नागरिक। २. बुद्धिमान् नागर। छेकानुप्रास (पुं०) जहां एक ही बार वर्णों को आवृत्ति होती है या एक ही बार घटने वाली समानता। शिरीष-कोषादपि कोमले ते पदे वदेति प्रघणं तदेते। अस्माकमश्माधिकहीर वीरपूर्ण कुतोऽलङ्करुतोऽथ धीर।। (जयो० ३/२५) छेदः (पुं०) [छिद्+घञ्] काटना, १. तोड़ना, भंग करना, नाश करना। २. छिन्न, विराम, गतिरोध, ०समाप्ति, ०लोप, ०अभाव, ०खण्ड, ०टुकड़ा, ०भाग, हिस्सा, निराकरण। ३. अशुद्ध उपयोग। ४. अतिचार, दोष। ५. अवयवों अपनयन। कर्णनासिका दीनामवयवानामयनयन छेद:। (स०सि० ७/२५) ६. अहापन प्रव्रज्याहापनं छेद:। अपवर्तन, अपहार ७. छेद-प्रायश्चित्त, आलोचना का भी नाम है। अवस्थान का नाम भी छंद है। स्वस्थ भाव का च्युत होना भी छंद है। 'स्वस्थभावच्युत लक्षण: छेदो भवति।' (प्रव०सा०च० ३/१०) छेदगतिः (स्त्री०) छेद को प्राप्त होना ०छेदस्थान, निराकरण की अवस्था। छिन्नानां गति: छेदगतिः। (त०वा० ५/२४) छेदक (वि०) तक्षण, नाशक। नष्ट करने वाली। जन्म-जरा मृत्यु-रूप-सन्ताप-त्रितयोच्छेदकस्य जिनेन्द्र एव चन्द्र। (जयो० वृ० २४/७०) परस्य शत्रोस्तक्षकः छेदकश्च जायते। (जयो० वृ० ६/१०४) छेदनं (नपुं०) [छिद्-ल्युट्] १. खण्ड करना, विदीर्ण करना, नाश, घात, विनाश, विभक्त करना, विभाग करना, टुकड़े करना। २. अनुभाग, खण्ड, भाग, हिस्सा, अंश। छेदनं कर्मणः स्थितिघातः। छेदनक्रिया (स्त्री०) नाशक क्रिया, विनाशक बाधा। छेदवर्तिः (स्त्री०) संहनन विशेष, सेवार्त्त संहनन। छठा संहनन, जिसमें हड्डियां परस्पर छेद से युक्त हो, कीलों से भी सम्बद्ध न हो। वह प्रायः मनुष्यों के होता है और सदा तेलमर्दन आदि की अपेक्षा करता है। छेदस्पृष्टः (पुं०) छेदवर्ति संहनन, सेवार्त्त संहनन। छेदाहः (पुं०) प्राश्यचित्त विशेष, श्रामण्य अवस्था में कुछ अंश का छेद करना। छेदिः (पुं०) बढ़ई, सुधार, विश्वकर्मा। छमण्डः (पुं०) अनाथा छेलकः (पुं०) बकरा, धाग, अज। छैदिकः (पुं०) बेंत, दण्डा। छेदोपस्थापकः (पुं०) अट्ठाईस मूलगुणों में प्रमादयुक्त साधु। मूलगुणेसु पमत्तो समणो छेदोवट्ठावगो होदि। (प्रव० ३/९) छेदोपस्थापनं (नपुं०) व्रत विनाश पर पुन: विशुद्धि करना, चारित्र में दोष लगने पर पुन: महाव्रतों में स्थापित किया जाना। छेदोपस्थापना (स्त्री०) छेदोपस्थापन शुद्धि संयम। दोषों का उचित प्रतिकार। छो (सक०) काटना, खण्ड करना, विदीर्ण करना। छोटिका (स्त्री०) [छुट्+ण्वुल्+टाप्] चुटकी। छोटित (वि०) गिराने वाला, छोड़ने वाला। छोटित दोषः (पुं०) भोज्य सामग्री को गिराते हुए आहार करना। छोरणं (नपुं०) [छुट्+ ल्युट्] त्याग करना, छोड़ना। जः (पुं०) चवर्ग का तृतीय व्यञ्जन, इसका उच्चारण स्थान तालु है। जकार (जयो० वृ० १/५४) जः (पुं०) १. जन्म, उत्पत्ति, २. जनक, ३. विष्णु, ४. कान्ति, प्रभाव, आभा। ज (वि०) वंशज, कुलज, जन्मज, उद्भूत, उत्पन्न हुआ। समास के अन्त में या शब्द के अन्त में 'ज' लगने पर वह शब्द उत्पत्ति का बोध कराने लगता है। जैसे-वंश+ज-वंशज, वेश में उत्पन्न। वारिज-वारि में उत्पन्न होने वाला कमल। अण्डज-अण्डे से उत्पन्न। जकारः (पुं०) 'ज' वर्ण, जिसका उच्चारण स्थान तालु है। (जयो० १७/१८७) जकुटः (पुं०) १. मलयपर्वत, २. श्वान, कुत्ता। जक्षु (सक०) उपभोग करना, खाना। For Private and Personal Use Only Page #411 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जक्षणं ४०१ जघनं जक्षणं (नपुं०) [जक्ष ल्युट] उपभोग, भक्षण, भुंजन। जगदीशसुतः (पुं०) भरत। ऋषभ को जगदीश कहा गया, जगज्जयी (वि०) विश्वविजेता, लोकजयी। (जयो० ११/२२) उनका पुत्र भरत। जगदीशस्यादीश्वरस्य सुतो भरतचक्रवर्ती। जगज्जिगीष (वि०) विश्व विजेता, लोकजयी। (जयो० १४/३१) (जयो० वृ० २३/८९) जगज्जेता (वि०) विश्वजयी, लोकजयी। जित्वाऽक्षाणि | जगदीश्वरः (पुं०) ऋषभदेव। (हित०सं०६) धर्मश्चार्थश्च समावसदिह जगज्जेता स आत्मप्रियः। (वीरो० १८/२७) कामश्च, मोक्षश्चेति चतुष्टयम्। साध्यत्वेन मनुष्यस्य समाह जगत् (वि०) संसार, लोक, विश्व। (सुद० ४/१४) (जयो० जगदीश्वरः।। (लि०६) १/१०) किं किमस्ति जगति प्रसिद्धिमत्कस्य सम्पदथ जगदेकतात (पुं०) जगत् के अद्वितीय गुरु ऋषभ को जगत् कीदृशी विपद्। द्रव्य नाम समये प्रपश्यतां नो वितर्कविषया का गुरु कहा गया क्योंकि उन्होंने सर्वप्रथम जगत् के हि वस्तुता।। (जयो० २/४९) भयंकरा सा जगतोऽथ रात्रि प्राणियों के हितार्थ असि, मसि, कृषि, वाणिज्य, शिल्पादि (सम्य० १/१) का कथन किया था। २. चेतन-अचेतन द्रव्य समुदाय का नाम जगत् है। द्रव्यों जगदेकदेवः (पुं०) आदीश्वर ऋषभदेव, नाभेयज, आदिब्रह्म। के समुदाय को जगत् कहते हैं। 'जगत् चेतनाचेतनद्रव्य- जगतां सर्वेषां जीवानामेको देवः, प्रकाशगत। ऋषभः (जयो० संहतिः।' (भ०आ०टी० ८२) चराचर का समुदाय भी वृ २७/१) जगत् है। 'ईशिता तु जगतां पुरुदेव:। (जयो० ४/४९) जगदेकविभूषणं (नपुं०) एकमात्र अद्वितीय आभूषण स्वरूप। जगत्कर्तृ (पुं०) सृष्टिकर्ता। भूषणैर्भूषयामास जगदेकविभूषणम्। (वीरो० ७/३७) जगत्चक्षुः (पु०) सूर्य। जगदेवः (पुं०) जगन्नग, संसार का देव। (जयो० १/१०) जगत्तत्त्वं (नपु०) विश्व के पदार्थ। जगत्तत्त्वं स्फुटीकर्तु जगत्पालः (पुं०) विश्वम्भर। (वीरो० ५/२३) मनोमुकुरमात्मनः' (वीरो० १०/१५) जगन्नगः (पुं०) जगदेव। (दयो० १/१०) जगत्तिलकः (पु०) संयम का शिरोमणि। (पु० १/९७) जगन्नाथ: (पुं०) विश्व का स्वामी, ऋषभदेव का एक नाम। जगत्पूत (पुं०) सम्यक् गुरु, सच्चे गुरु। (जयो० १/१०४) जगन्मोहकर (वि०) जगत् को मोह उत्पन्न करने वाला। यन्त्रं जगत्समस्त (वि०) सम्पूर्ण लोक (जयो० वृ० १/१५) जगन्मोहकर स्वभावात्समङ्कितं मन्मथमन्त्रिणा वा। (जयो० जगतश्छाया: (स्त्री०) संसार प्रणाली। जगतः शरीरधारिण: ११/५८) प्राणिसत्छाया प्रतिमूर्ति। (जयो० ) जगन्मोहिनी (स्त्री०) लक्ष्मी (सुद० १/४०) जगती (स्त्री०) भूमि, पृथिवी। (जयो० १३/२४) जगन्निवासः (पुं०) परमात्मा, संसार का स्थान, लोक का जगतीतलं (नपुं०) भूतल, पृथिवीतल। (समु० ८/१३) (भक्ति० आधार। ३१) कस्यापि प्रार्थना कश्चिदित्येवमवहेलयेत्। जगन्मान्य (वि०) विश्व मान्यता वाला। (वीरो० २२/७) मनुष्यतामराप्तश्चेद्यथा त्वं जगतीतले।। (सुद० १३४) जगनुः (स्त्री०) अग्नि, आग। जगतीश्वरः (पुं०) नृप, राजा। जगप्रसूत (वि०) जग की उत्पत्ति। (वीरो० १७/१) जगतीरुहः (पुं०) तरू, वृक्षा जगराः (पुं०) कवच। जगद्गुरु (पुं०) ऋषिराज। (जयो० १/३३) जगराग्र (पुं०) कवच प्रान्त। (जयो० ७/१०७) जगद्व्यापिन् (वि०) विश्वव्यापी (वीरो० १०/३९) जगल (वि०) [जः जातः सन् गलति-गच्+अच्] चालाक, जगंदल (नपं०) जगत् में अन्तर। (सुद० ४/१) धर्त। जगदन्तः (पुं०) संसार के भीतर। (सुद०८१) जगलं (नपुं०) १. कवच, २. गोबर। जगद्विभूषणं (नपु०) संसार का अलंकरण। (सुद० ३४) जग्घ (वि०) [अद्+क्त] भुगित, खादित, खाया हुआ। जगद्धितं (नपुं०) लोक कल्याण (सुद० २/२६) जग्घिः (स्त्री०) [अद्+क्तिन्] भोजन, खाना। जगदम्बिका (स्त्री०) देवी। जगतां प्राणिनामम्बिका प्रतिपालि | जघनं (नपुं०) [ह्नअच्, द्वित्वम्] श्रोणी, नितम्ब। (जयो० के यमि तस्या देव्या। (वीरो० १/३५) वृ०३/६०) १. कूल्हा, चूतड़, पुट्ठा, २. स्त्रियों का पेडू, जगदाह्लादक (वि०) संसार को आनन्दित करने वाला। (वीरो०८७) | ३. सेना का पिछला भाग, सुरक्षित भाग। For Private and Personal Use Only Page #412 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra जघनमूल www.kobatirth.org जघनमूल (नपुं०) श्रोणिपूरी भाग, ऊरुस्थल। (जयो० १७/११३) जघनस्थली (वि०) नितम्बप्रदेश वाली (जयो० ० २४/२) जघनाघात (पुं०) श्रोणिपुर घात, नितम्बाघात । 'जघनैः श्रोणिपुरो भागैर्योसावाघातः' (जयो० वृ० २४ / ८४) " जघन्य (वि० ) [ जघने भव+यत्] सबसे पीछे अन्तिम । १. अधम, नीच, गिरा हुआ। २. व्रताहित अत्यन्त दुष्ट, पतित, क्षुद्रपरिणामी । 'सन्तोषयन् खट्टिको जघन्यः । (वीरो० १६/१६) ३. सर्वसाधारण लोग (दयो० वृ० ११८) जघन्य - अन्तरात्मा (पुं०) जिवभक्तगुण ग्रहण में अनुरक्त, आत्मनिन्दा से युक्त, अविरत सम्यग्दृष्टि । जघन्य - अन्तमुहूतः (पुं०) एक प्रमाण विशेष, एक समय अधिक आवली। जघन्य अपहृत (वि०) बाह्य साधनों से युक्त । जघन्यपदं (नपुं०) पतित पद जघन्यपात्र : ( नपुं०) शीलवान्, मिथ्यादृष्टि पुरुष, अविरत सम्यग्दृष्टि जीव, व्रतरहित व्यक्ति। 'व्रतेन रहित सुदृशं जघन्यम्' (सागार धर्मामृत ८/४४) 'जघन्यं शीलवान् मिथ्यादृष्टिश्च पुरुषो भवेत्। ( महापुराण २० / १४० ) 'अविरइसम्माइली जहणणपतं उ अक्खियं समये ।' जघन्यभाव: (पुं०) क्षुद्रभाव, दुष्ट परिणाम, बुरे विचार । जघन्यस्थिति (स्त्री०) एक समय प्रमाण वाली स्थिति । जघ्निः (वि०) आक्रमणकारी। जघ्नु (वि०) आक्रमण करने वाला, प्रहार करने वाला । जङ्गम् (नपुं०) जंग, अयस्क / लोह पर लगने जंग। जङ्गम (वि० ) [ गम् + यङ् + अच्] १. जीवित, चर, जीवधारी । चलायमान, हिलने-डुलने वाला। २. अपने बच्चे । निजमङ्गजमङ्ग जङ्गमं सहसोत्थापय धृष्ट। (जयो० १३/१५) जङ्गमप्रतिमा (स्वी०) अरिहंत प्रतिमा मोक्षगमनकाले 'एकस्मिन् समये जिनप्रतिमा जङ्गमा कथ्यते' (दर्शन० ३५ ) जङ्गलं (नपुं०) [गल्+यङ्+अच्] मरुधरा, मरुभूमि, मरुस्थल, जल से रहित प्रदेश, मारवाड परियात्रादि प्रदेश । जङ्गाल (नपुं०) मेढ़, बांध, सीमा, चिह्न जडुलं (नपुं०) ( गम् + यदुल] विष, जहर + जङ्घः (पुं०) जंघा, पिण्डली, टखने से लेकर घुटने तक का भाग । अबालभावतो जसे सुवृत्ते विलसनोः । (जयो० ३ / ४६ ) जङ्घा (स्त्री०) [ अन्य कुटिजं गच्छति अच्] जाप, पिण्डली | जङ्घाकारिक (वि०) धावक, हरकार, संदेशवाहक । ४०२ जठर- वह्निधर: जहाचारणा (स्त्री०) एक ऋद्धि विशेष, जिसके प्रभाव से पृथिवी के चार अंगुल ऊपर आकाश में घुटने मोड़े बिना बहुत योजन तक गमन करने में समर्थ कराने वाली ऋद्धि। Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जात्राणं (नपुं०) जंघा रक्षक कवच, आज क्रिकेट खेल में जो पेड पहना जाता है। जङ्घासदृशी (वि०) जंघाओं के समान (जयो० वृ० ११/२० ) जहिल (वि०) [जङ्घा इलच्] प्रवाचक, फुर्तीला तीव्रगति वाला। जज् (अक० ) लड़ना, युद्ध करना। जद (अक०) जुट जाना, तत्पर होना । जटा ( स्त्री०) [जट्+अच्+टाप्] १. शाखा, जड़, २. शतावरी पादप ३. लम्बे बालों का झुण्ठ, आपस में चिपके हुए केश समूह | जटावीर : (पुं०) शिव । जटाधरः (पुं०) शिव । जटाजूट (वि०) जटाओं युक्त। जटाज्वाल (पुं०) दीपक, लैप। जटायुः (पुं०) [जटं संहनमायुः यस्य ] १. श्येनी और अरुण का पुत्र । २. एक पक्षी । जटाल (वि० ) [ जटा+लच्] जलाधारी, घुंघराले केशवाला। (सुद० ३/१४) जटि: (स्त्री०) गूलर पादप, संघात जटिन् (वि०) जटाधारी। जटिल ( वि० ) [ जटा+इलच्] १. जटाधारी । २. अव्यस्थित, कठिन व्याप्त ३. अभेद्य, सपना जटिल : (पुं०) सिंह | जठर (वि०) [जायते जन्तुर्गर्भो वास्मिन् जर अर ठान्तदेशः ] १. कठोर, सख्त, दृढ़ । जठरः (पुं०) उदर, पेडू, गर्भाशय, उदर मध्यभाग (जयो० १३/६०) जठर ज्वाला (स्त्री०) उर भूख, उदराग्नि जठर यंत्रणा ( स्त्री०) शूल, गर्भावास का कष्ट जठर यातना (स्त्री०) गर्भ पीड़ा। गठरव्यथा ( स्त्री०) उदरशूल । जठर वह्निः (स्त्री०) जठराग्नि जठर- वह्निधर: (पुं०) उदर । जठरवह्नि धरतीति जठरवह्निधरमुदरम् । (जयो० वृ० ९/३७) For Private and Personal Use Only Page #413 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जठर-व्याधि ४०३ जनकारिन् जठर-व्याधि (स्त्री०) उदरपीड़ा, गर्भ पीड़ा, गर्भाशय दु:ख। जडधीश्वरः (पुं०) मूर्ख। (वीरो० ९/८९) जठराग्निः (स्त्री०) पेट में स्थित अग्नि, आहार को पचाने जडप्रसङ्गः (पुं०) मूर्ख की संगति, मूर्खसमागम। (वीरो० वाली अग्नि। ५/१०) गतस्य जीवस्य जडप्रसङ्गम्। (वीरो० १८/३) जड (वि०) [ जलति घनीभवति-जल्+अच्] १. मूर्ख, अज्ञ, जडराशि (स्त्री०) जडता की प्रमुखता, मूर्खता का योग। अनभिज्ञा, अज्ञानी। (जयो० वृ० २/१४८) (सुद० ३/४६) अस्मिन्निदानीमजडेऽपि काले रुचिः शुचिः स्यात्खलु जडान्तकरणं (नपुं०) विमूढमन। (जयो० वृ० २/१४२) सत्तमाऽऽले। (सुद० १/६) २. ठिठुरा हुआ, जमा हुआ। जडाशयः (पुं०) निर्विवेक, विवेक का अभाव, ज्ञानता का ३. गतिहीन, मन्दर, अपंग। ४. निश्चेतन, चेतना रहित, अभाव। (सुद० १/६) मूर्खहृदय महामूर्ख-कोई नवयुवती विवेकशून्य। (जयो० १/४७), ५. उदासीन, संज्ञाशून्य। स्वयंवर मंडप में नवयुवकों को छोड़कर सबसे अन्त में जडकर्मन् (स्त्री०) उदासीन जन्य काम। बैठे हुए बृद्ध मनुष्य का वरण करे तो उसे महामूर्ख कहा जडजं (नपुं०) १. जलज, कमल, २. जडता युक्त (जयो० जाएगा। १/४७) जडाशयत्व (वि०) मूर्खता युक्त, अज्ञानता करने वाला, जडजात (वि०) जडता को प्राप्त होने वाले। जडस्य अज्ञस्य विवेकता से विमुख हुआ। (समु० ६/४०) जातम् (जयो० १/५८) (सुद० ५/२) १. जहाज तोड़ने जडिमन् (पुं०) [जड+इमनिच्] १. जड़ता, मन्दता, बुद्धिहीनता। वाले। क्रियते विप्रवरिहादरो जडजातस्य समुत्सवतः। (सुद० २. मूर्छा, आसक्ति, संज्ञाहीनता। ३/२) जतु (नपुं०) [जायते वृक्षादिभ्यः जन+उ+त] लाख। जडजाधिनामः (पु०) १. मूर्खनाथ, मूर्खाधिपति। 'जडजानां जतुकं (नपुं०) [जतु+कन्] लाख, महावर। मूर्खाणा वाधिनाथ: स्वामी' (जयो० वृ० ८/७) २. जतुका (नपुं०) [जतुक+टाप्] १. लाख, चमगादड़ा कमलनाथ-जडजानां कमलानां अधिनाथ: स्वामी (जयो० जतुकी (स्त्री०) [जतुक ङीष्] चमगादड़। वृ०८/७) जतुपरिणतिः (स्त्री०) लाख का परिणमन। (जयो० वृ० जडता (वि०) [जडतल्+टाप्] मूर्खत्व (जयो० २/१४६) १२/१०६) अज्ञान, मूर्खता, आलस्यपना, बुद्धिहीनता, विपरिणाम. | जत्रु (नपु०) [जन्।रु] हंसुली, ग्रीवा हड्डी। निर्विचार-'जडतया विपरिणामतया निर्विचारतया' (जयो० जन् (अक०) उत्पन्न होना, पैदा होना, जन्म होना, निकलना, वृ० १/८५) 'सुमनस्ता जड़तायाश्च भवत्यन्तः' (सुद० फूटना, घटना। (जयो० वृ० १/२३) जनः (पुं०) [जन्+अच्] १. प्राणी, मनुष्य। (जयो० वृ० • अज्ञता-'जडताया अपकारिणीमतः' (सुद० ३/३२) १/१४) पुरुष, व्यक्ति-'भो भो जना वीरविभोर्गुणौघा जडत्व (वि०) मूर्खता, अज्ञानता। -नसोऽनुकूलं स्मरतामोघा। (सुद० १/४) 'मुक्तौ जनः जडतातिगत (वि०) अज्ञानता से दूर हुआ, वारि से दूर, विज्ञ संसरणात्सुभोगः' (जयो०१/२२) २. जीवित प्राणी, जन्तु, बना। (जयो० ६/११०) 'जडतातो अति गतो दूरवर्ती जनस्य (सम्य० १५५) जनः (सम्य० १५४) भवन्नपि' (जयो० वृ०६/११०) जनकः (पुं०) १. पिता, जन्मदाता, तात। (जयो० वृ० ३/११६) जडतापकरणं (नपुं०) १. ग्रीष्म ऋतु ज्येष्ठ मास। 'जडः 'रश्मिवेग-जनकोऽप्यथ माता' (समु० ५/२४) २. पूज्य, प्रवरश्चासौ तापश्च जडतापस्तस्य करणाय ज्येष्ठो गुरुः बड़े-सोऽस्मेवजनकायासौ राजै राजा जिनाय या (सुद० ४/२०) ज्येष्ठमासः' (जयो० २२/१७) २. मूखता को दूर करने जनक (वि०) [जन्+णिच्+ण्वुल] पैदा करने वाला, जन्मदाता, वाली। जड़ताया मूर्खभावस्य करणाय विनाशनाय। (जयो० उत्पन्न करने वाला। वृ० २२/१७) जनकात्मजा (स्त्री०) जनक राजा की पुत्री सीता। (जयो० जडधी (स्त्री०) जड़मति, मंदबुद्धि। पापिष्ठेन दुरात्मना जडधिया मायाविना लोभिना। (मुनि० १८) वृद्धो वराको जडधी जनकसुता (स्त्री०) सीता। (सुद० ८८) रयेण जातोऽधुना विभ्रमसंयुतानाम्। (वीरो० ४/२३) जनकारिन् (वि.) कल्याणकारी। १३/५९) For Private and Personal Use Only Page #414 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जनघोषः ४०४ जनाश्रयः जनघोष: (पुं०) जनता का स्वर, जन जन की पुकार। जनमतः (वि०) लोक अभिप्राय, लोगों की विचारधारा, जनादेश। जनचक्षुस् (नपु०) सूर्य, दिनकर। जनमञ्चः (पुं०) जन समुदाय, लोक समूह। (जयो० ) जनगामः (पुं०) चाण्डाल। जनमर्यादा (स्त्री०) सर्वमान्य रीति, लोक पद्धति, लोकधारा। जनता (स्त्री०) (जनानां समूह:] प्रजावर्ग, सर्वसाधारण जन। जनमान्य (वि०) सकल सम्मत, सर्व सम्मत, सभी लोगों द्वारा (जयो० १२/५७) 'जनतायाः प्रजावर्गस्य मोदसिन्धुः' (जयो० मानी गई। (दयो० १/१४) ५/३४) भूरञ्जन (जयो० १) जनमोदः (पुं०) लोक आमोद, जनता का परम हर्ष। जनतानन्दजनकः (पु०) जनता के आनन्द का आधार, प्रजा जनमेजयः (पुं०) एक नृप, राजा, हस्तिनापुर का अधिपति। के आनन्द का हितैषी-'जनतायाः लोकसमूहस्य आनन्द जनयितृ (वि०) जन्म देने वाला, सृष्टिकर्ता। जगतीत्यानन्दजनकः सम्मदकरः' (जयो० वृ० २/१४३) जनयित्री (स्त्री०) [जनयितृ+ङीष्] माता, जननी। जनतावशगा (वि०) प्रजा का हितैषी, प्रजा का मन-पसन्द। जनरञ्जनं (नपुं०) लोक हर्ष, जन आमोद। जनकसुतादिक 'जनताया वशगा भवनि यथा जनतायाः प्रसत्तिः स्यात्। वृत्तवचस्तु जनरञ्जनकृत्केवलमस्तु। (सुद० ८८) (जयो० वृ० ४/११) जनवादः (पुं०) जनश्रुति, लोककथन, लोकापवाद। जनत्रा (स्त्री०) आतपत्र, छतरी, छाता। जनव्यवहारः (पुं०) लोक प्रचलन, लोक व्यापार। जनदेवः (पुं०) नृप, राजा। जनशीषः (पुं०) जन शिरोमणि। (जयो० ९/७५) जनधनं (नपुं०) प्रजाधन। जनश्रुत (वि०) विख्यात। जननं (नपुं०) [जन ल्युट्] जन्म, उत्पत्ति, प्रसूति, प्रसव, जनश्रुतिः (स्त्री०) किंवदन्ती। सृजन, उत्पादन। जनसङ्घट्टनं (नपुं०) जनसमूह, जनसमुदाया 'जनानां संघट्टनं जनन (वि०) उत्पन्न करने वाला, जन्मदाता। १. जीवन, समर्दोऽस्ति' (जयो० १३/१५) अस्तित्व, उदय। जनसन्निवेशः (पुं०) जन समूह। (वीरो० १८/११) जन-नायकः (पुं०) नृप, राजा। विभूतिमत्त्व दधताऽप्यनेन जनसमुदायः (पुं०) १. कारक, छावनी, सैनिक पड़ाव महेश्वरत्वं जननायकेन। (जयो० ३/१३) स्थान-'कटकं जनसमुदायं दधामि (जयो० वृ० १२/१२४) जननि: (स्त्री०) [जन्+अनि] माता, मां, अम्मा, अक्का, आई। २. स्वजनचक्र, सुजनचक्र (जयो० वृ० ६/४८) जननी (स्त्री०) १. माता (समु० ३/११) 'जनयति जनसमूहः (पुं०) १. लोक सम्प्रदाय। (दयो० १०) राज्ये प्रादुर्भावयत्यपत्यमिति जननी' सन्तान को जन्म देने वाली संतुष्टस्य जनसमूहस्य (जयो० वृ० १/१९) २. व्रज (जयो० स्त्री। २. करुणा, दया। ३. चमगादड़, ४. लाख, लाक्षा। वृ० ५/८) जननीजनतीय (वि०) मातृतुल्य धाय। (सुद० ३/२१) जनसाक्षी (वि०) कहावत, किंवदन्ती। जन एव साक्षी ज्ञाताऽस्ति जननीमुदः (पु०) मातृचित्तविनोद। (वीरो० ५/४१) (जयो० ६/११८) सुपल्लवाख्यानतया सदैवाऽनुभावयन्त्यो जननीमुदे वा। जनसेवी (वि०) जनता का सेवका (वीरो० १८/१२) देव्योऽन्वगुस्तां मधुरां निदानाल्लता यथा कौतुकसम्बिधाना।। जनातिग (वि०) असाधारण, असामान्य, अतिमानव। (वीरो० ५/४१) जनापवादः (पुं०) लोक निन्दा, लोकापवाद। (जयो० १/६७) जनपदः (पुं०) १. राष्ट्र, नगर, साम्राज्य, राजधानी। २. जनाधार (पुं०) जनसमूह। जनसमुदाय। देश का एक प्रदेश/हिस्सा। जनसाधारण, जनाधिपः (पुं०) नृप, राजा। प्रजा। जनाधिनाथा (पुं०) राजा, अधिपति। जनपदिन् (पुं०) राजा, नगराधिपति। जनान्तः (पुं०) शून्यस्थान, एकान्त निर्जन। जनप्रवादः (पुं०) जनश्रुति, जनवाद, लोकापवाद, किंवदन्ती। जनान्तिकं (नपुं०) गुप्त संवाद। जनप्रिय (वि०) लोक प्रिय, जन हितेच्छु, जन-पसन्द, लोक | जनार्दनः (पुं०) विष्णु। रंजन का धारक। जनाकीर्णः (वि०) जनसमुदाय। जनभूमि (स्त्री०) नगर भूमि, वन भूमि। (जयो० १३/४२) | जनाश्रयः (पुं०) लोकाधार, जन सहारा, जनस्थान। (जयो० For Private and Personal Use Only Page #415 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जनिः ४०५ जन्मन् ३/७२) कलत्रं हि सुवर्णोरुस्तम्भं कामिजनाश्रयम्' (जयो० जनुष्मता (वि०) जन्मता, उत्पत्तिपना। (दयो० ३९) ३/७२) चम्पापुरी नाम जनाश्रयं तं श्रियो निधाने सुतरां जनु:सर्थि (वि.) जन्म की सार्थकता, उत्पत्ति का महत्त्व, लसन्तम्। (सुद० १/२४) जन्म लेने का प्रयोजन। (सुद० ११५) तस्यैव साधोर्वचसः जनिः (स्त्री०) [जन्+इन] १. जन्म, उत्पत्ति, सृजन, प्रसूति। प्रमाणाज्जनी जनुः सार्थमिति ब्रुवाणा' (सुद० ११५) (सम्य० ४५) २. स्त्री, माता, पत्नी। ३. पुत्रबधू, स्नुषा। | जनेन्द्रः (पुं०) नृपति, अधिपति। जनिका (स्त्री०) [जनि कन्+टाप्] १. पुत्रवधू-जनीवजनिका जनेश्वरः (पुं०) नृपति, अधिपति, राजा। (जयो० वृ० १२/८९) वधूवा (जयो० वृ० ४/५४) २. रूपवती नारी (जयो० | जनेश्वरी (स्त्री०) ज्ञानी। (सुद० ८९) भोजने भुक्तोज्झिते भुवि ६/४१) पुनरनु काविल राजं जनीकया तर्जनीकया कृत्वा | भो जनेश्वरि। (सुद० ८९) (जयो० ६/४१) जनैक-बन्धुः (पुं०) प्राणिमात्र का एक मात्र मित्र। (सुद० जनिभू (वि०) उत्पन्न करने वाली, जन्म देने वाली। (सुद० १/३) ११२) जनोघः (पुं०) जन समुदाय। जनित (वि०) [जन्+णिच्+क्त] उत्पन्न किया गया, प्रसूतित। जनोदाहरणं (नपुं०) यश, कीर्ति। (जयो० वृ० १/२२, २/३७) जन्तुः (पुं०) प्राणी, मनुष्य, जीव। (सम्य० ५३) 'संसार जनित् (पुं०) [जन णिच्+तृच्] जनक, पिता। स्फीतये जन्तो वः' (सुद० ४/१२) सुखं च दु:खं जगतीह जनित्री (स्त्री०) जननी, माता। जन्तोः (सुद० वृ० १११) जनी (स्त्री०) नारी, स्त्री, महिला। (जयो० १६/४६) 'रजनीव जन्तुबधः (पुं०) प्राणिवध, प्राणियों का घात। त्वमेकदा जनी महीभुज।' विन्ध्यगिरेनिवासी भिल्लस्त्वदीयाघ्रियुगेदेकदासी। तयोरगाज्जीव जनीका (स्त्री०) पत्नी. नारी। (जयो० ६/४१ जननशीला नमत्यधेन निरतरं जन्तुबधाभिधेन।। (सुद०४/१७) वीरो० ६/४०) जन्तुमात्रः (पुं०) प्राणि मात्र। (वीरो० १४/३७) जनीजनः (पुं०) प्रमदासमूह, नारी समूह। (जयो० १०/५८) जन्तुविरहित (वि०) जीव रहित, चैतन्य प्राणि रहित। (हि० जनीजन (पुं०) वृद्ध स्त्री। (सुद० ३/११) कुलदीपयशः ४३) प्रकाशिते ऽपतमस्यत्र जनीजनैर्हिते। (सुद० ३/११) जन्तुत्पत्तिः (स्त्री०) जीवोत्पत्ति। (सुद० १३०) जनीमनस् (पु०) स्त्रीमन, नारी स्वभाव। रविर्धनुः प्राप्य जनीमनांसि जन्मन् (नपुं०) [जन्+मनिन्] जन्म, उत्पत्ति (जयो० वृ० किल प्रहर्तुं विलसमांसि। (वीरो० ९/२८) १/१५) १. उद्गम, मूल, जीव। २. कर्म के कारण, चार जनीसमाजः (पुं०) स्त्री समाज, नारी वर्ग। (वीरो०६/१७) गति रूप उत्पत्ति।। प्राणग्रहण जन्म। (भ०आ०टी० २५) जनीस्वनीतिः (स्त्री०) स्त्रियों की चेष्टा, नारी पद्धति। (वीरो० जन्म कर्मवशाच्चतुर्गतिषूत्पत्तिः।' ६/२२) जन्मकीलः (पुं०) विष्णु। जनु (स्त्री०) [जन्+3] जन्म, उत्पत्ति, प्रसूति, प्रसव। (सुद० जन्मकुण्डली (स्त्री०) जन्मपत्रिका। वृ०७०) जन्मकृत् (पुं०) जनक, पिता। जनुज (वि०) उत्पन्न करने वाली, जन्म देने वाली। (जयो० जन्मगत (वि०) जन्म से प्राप्त। वृ० १२/१३३) जन्मक्षेत्रं (नपुं०) जन्म स्थान। जनुसृत्यु (स्त्री०) जन्म मरण। (दयो० १०७) लाभालाभौ जन्मतिथि: (स्त्री०) जन्म दिन, जन्म का समय। जनुमृत्युर्यशोऽपयश एव च। (दयो० १०७) जन्मदः (पुं०) जनक, पिता। जनुरुत्सवः (पुं०) जन्मोत्सव। (भक्ति० २२) श्रीहीभिरासेवित- जन्मदात्री (वि०) जन्म देने वाली। (समुद० ३/१२, जयो० मातृकाय देवैः सुमेरौ जनुरुत्सवाय' (भक्ति० २२) ११/५४) जनुस् (नपु०) [जन्+ उसि] जन्म, उत्पत्ति, प्रसूति, उत्पादन जन्मदिनं (नपुं०) जन्मतिथि, जन्म लेने का दिन। जीवन। 'अनुबुध्य जनुर्जिनेशिनः' (जयो० १२/१३८) (वीरो० जन्मदिवसः (पुं०) जन्मतिथि। ७/३) जन्मन् (नपुं०) उत्पत्ति। (जयो० वृ० १/३) For Private and Personal Use Only Page #416 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जन्मनक्षत्रं ४०६ जम्बूद्वीपः जन्मनक्षत्रं (नपुं०) जन्म का ग्रह। जन्मनामन् (नपुं०) जन्म के समय रखा गया नाम। जन्मपत्रं (नपुं०) जन्म पत्रिका, जन्मकुण्डली। (जयो० १५/६९) जन्मपत्रिका (स्त्री०) जन्मपत्र, जन्मकुण्डली। जन्मप्रतिष्ठा (स्त्री०) जन्मस्थान, १. मातृस्थान। जन्मभाज् (पुं०) जीवित प्राणी। जन्मभाषा (स्त्री०) मातृभाषा। जन्मभूमिः (स्त्री०) मातृभूमि। जन्मभृत् (पुं०) जीवित प्राणी। कस्मै जन्मभृतेऽप्यपद्रवकरं न स्यात् प्रभुज्यताम्। (मुनि० १३) जन्मयात्रा (स्त्री०) जीवन यात्रा। (वीरो० १८७१) जन्मयोगः (पुं०) जन्मपत्र, जन्म की गणना। जन्मरोगिन् (वि०) जन्म से रोगी होने वाला। जन्मलग्नं (नपुं०) जन्म समय। जन्मवत् (वि०) जन्म की तरह। (जयो० १/२३) जन्मवर्त्मन् (नपुं०) योनिस्थान, उत्पत्ति स्थान। जन्मवार्ता (स्त्री०) जन्म लेने की कथा। जन्मशोषणं (नपुं०) जन्म परिपालन, जन्म की सार्थकता। जन्मसाफल्यं (नपुं०) जीवन का उद्देश्य, जीवन का लक्ष्य, जीवन की सफलता। जन्मसंस्कारः (पुं०) प्रारम्भिक संस्कार, जन्म के समय के उचित नियम। (जयो० ११/५५) जन्मस्थानं (नपुं०) १. जन्मभूमि, स्वदेश। २. गर्भाशय। जन्माभिर्षयः (पुं०) जन्माभिषेक, तीर्थंकर बाल का प्रथम स्नान जो सुमेरु पर्वत की पांड्क शिला पर किया जाता। जन्माभिषेक देखो ऊपर। जन्मिन् (पुं०) जीवनधारी, प्राणधारी। जन्मोत्थ-कथा (स्त्री०) जन्मवार्ता। निजीयपूर्वजन्मवार्ता। (जयो० वृ० २३/३३) जन्य (वि०) [जन्+ण्यत्] १. जन्म लेने वाला, जनित, उत्पन्न, 'कुल से सम्बंधित। २. वारयात्रिक-वराती, वर के शोभा बढ़ाने वाले आगन्तुक कुटुम्बी (जयो० वृ० १२/१३४) ३. यान, वाहन, यात्रा का साधन। (जयो० ६/३९) जन्यः (पुं०) १. वराती, वरयात्री, वर/दुल्हे के सगे सम्बंधी। २. जनश्रुति, किंवदन्ती। जन्यं (नपुं०) १. उत्पत्ति, सृष्टि, जात, जन्म। २. बाजार, मेला, मण्डी। ३. अपमानजनक शब्द। ४. संग्राम, युद्ध। जन्यजन: (पुं०) १. वार यात्रिक, वाराती। (जयो० १२/१२३) २. संवाहक लोक (जयो० ६/३३) जन्यानां जन: समूहो जन्यजन: संवाहकलोक: (जयो० ७० ६/३३) जन्यहस्तं (नपुं०) १. वरातियों के हाथ, प्रेमभाव। 'जन्यानां वारयात्रिकाणं हस्तेषु' (जयो० वृ० १२/१३४) २. वधू/बहुत की सेविका/परिचारिका। ३. सुख, आनन्द। ४. यानवाहका। (जयो० वृ० ६/३९) उचितं चक्रुरिलापतिमितरं जन्या नयन्तस्ताम्। (जयो० वृ० ६/३९) जन्युः (पुं०) जन्म, उत्पत्ति, प्राणी। १. बह्नि, आग, २. ब्रह्मा। जप् (सक०) जपना, स्मरण करना, गुन गुनाना, मन्त्र उच्चारण करना, कहना, बोलना, प्रार्थना करना। जपा (स्त्री०) जपा पुष्य। (सुद० ७६) जपः (पुं०) [जप्+अच्] अपना, स्मरण करना, उच्चारण, कहना, दुहराना, प्रार्थना (जयो० वृ० ६/६४) जपपरायणः (पुं०) मन्त्र साधाना में रत। जपमाला (स्त्री०) मन्त्र जपने की माला। (जयो० वृ० १७/८२) जपमालिका (स्त्री०) मन्त्र की माला। जपाशं (नपुं०) जपा पुष्प, कामना करना। (जयो० वृ० ६/६४) जप्य (वि०) [जप्+यत्] जपने योग्य, प्रार्थना करने के योग्य। जभ/जम्भ (अक०) जंभाई लेना, उबासी लेना। जम् (अक०) खाना, जीमना, भोजन करना। जमदग्निः (पुं०) नाम विशेष, भृगुवंश में उत्पन्न ब्राह्मण। जम्पती (पुं०) पति-पत्नी।। जम्पती-कहती हुई, कहने वाली, बोलती हुई। 'प्रत्याव्रजन्तामथ ____ जम्पती तौ' (सुद० २/२४) जम्बालः (पुं०) [जम्भ+घञ्] काई, सेवार, कीचड़। जम्बालिनी (स्त्री०) नदी विशेष। जम्बीरः (पुं०) [जम्भ+ईरन्] नींबू। जम्बीरः (नपुं०) चकोतरा। जम्बुकः (पुं०) १. गीदड़, २. अधम पुरुष। (दयो० ९६) जम्बू (स्त्री०) [जम्+कु] जामुन, जामुन का वृक्षा (सुद० १/१९) (जयो० वृ० १२/१४) जम्बू (पुं०) जम्बुकुमार, एक नाम विशेष। जम्बूकुमारः (पुं०) अर्हद्दास श्रेष्ठी का पुत्र राजपुरी नगरी के सेठ का पुत्र। श्रेष्ठिनोऽप्यर्हद्दासस्य। जम्बू तरुः (पुं०) जामुन वृक्षा (वीरो० वृ० १५/२५) जम्बूद्वीपः (पुं०) मनुष्य लोक के ठीक मध्य में स्थित एक लाख योजन प्रमाण का एक द्वीप। (जयो० वृ० २३/४३) For Private and Personal Use Only Page #417 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिः जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति: (स्त्री०) भोगभूमि और कर्मभूमि के क्षेत्र का वर्णन करने वाला ग्रन्थ । जन्बूदुमः (पुं०) जम्बुवृक्ष (वीरो० जम्बूपदः (नपुं०) जम्बूद्वीप | ( सुद० १ / ११) जम्बूपददः (पुं०) जम्बूद्वीप। (जयो० २४/७ ) जम्बूपुर (पुं०) जम्बु नामक नगर । (जयो० २३/५५) जम्बूल: (पुं०) एक वृक्ष विशेष । जन्बूवृक्षः (पुं०) जम्बूद्रुम, जामुन का पेड़। (दयो० ५१ ) जम्भ: (पुं० ) ( जम्भू+घञ्] दात दन्त जम्भो दन्तेऽपि जम्भीर इति विश्वलोचने' (जयो० वृ० १४/१८) २. खाना, ३. खण्ड, टुकड़ा, अंश, भाग, ४. तरतकस ५. ढोढी, जम्भाई, उबासी ५. । जम्भजृम्भितं (नपुं०) दन्त परिवर्धन। जम्भानां दन्तानां जृम्भितं परिवर्द्धमानम् (जयो० १४/१८) जम्भरस: (पुं०) नीबू । (जयो० २६ / ८० ) जम्भराज (स्त्री०) दन्तपंक्ति प्रधानदन्त जनयन्ति तदुज्झिताः स्मलाजा निपतन्तोऽग्निमुखे तु जम्भराजाः । (जयो० १२ / ७१ ) जम्भारि: (पुं०) १. अग्नि, इन्द्र जम्भीर : (पुं०) नीबू । जय् (जि) (सक०) जीतना, सफलता प्राप्त करना, विजय प्राप्त करना । जयेत् प्रशंसेत्-प्रशंसा करना। (जयो० ९/१२) जयन्ति - जीतते हैं। (जयो० ३/८६) जयन्ति स्वीकुर्वन्ति (जयो० वृ० ३/८६) जयतमाम् विजयताम् (जयो० ९/६३) सोऽजयजयनृपः कृपाशने (जयो० ३/१९ ) कः सौम्यमूर्तीति जयेति सूक्तिः । (जयो० ५/१०२) जयपाय- जीतने के लिए (सुद० २/४३) 'तस्याः कृशीयानुदरो जयाय' जयतु (सम्य० ५३) जीयात् (सुद० ११७ ) जेतुं - (सुद० २/४५) जयन्त:- (सुद० १/१७) सफलता । जय: (पुं० ) [ चि+अच्] १. जय, विजय, जीत, (जयो० १/६५) २. उत्कर्ष गृहिणो धर्मस्तस्यास्त। जयमुत्कर्ष संलभते (जयो० २/७२) १. स्वदक्षसिद्धिजय-जयकुमार (जयो० १/२) २. जयनशील हस्तिनापुर का शासक । जयकार: (पुं०) जयघोष । (जयो० वृ० १२ / ९ ) जयकुमारः (पुं०) हस्तिनापुर का शासक। (जयो० १ / १३ ) (जयो० १/५) स जयकुमारनामा हस्ति पुराधिराजः ' ४०७ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जयहस्ति जयकुमारनृपः देखो ऊपर जयकुमारनृपतिः (पुं०) हस्तिनापुर नरेश । (जयो० वृ० १/१५) जयक्कणि: (स्त्री०) विष्णुचन्द्र नरेश की भाभीविष्णुचन्द्रनरेशस्याग्रजजाया जयक्कणिः । नित्यं जिनेन्द्रदेवाच कुर्वती समभादियम् ।। (वीरो० १५ / ४९ ) जयकोलाहलः (पुं०) जयघोष । जयघोषः (पुं०) जयनाद । जयढक्का (स्त्री०) विजय का ढंका, विजयसूचक वाद्य जयध्वनिः (स्त्री०) जयघोष । जयदेव (पुं०) जयकुमार (जयो० ८/४७) जयनं (नपुं०) [जि+ ल्युट्] १. जीतना दमन करना, विजय प्राप्त करना। २. जीन, हाथी घोड़े की पलान, झूल। 'जयनं तु जये वाजि जवन गजप्रभृति' कझुके' इति विश्वलोचन: ' (जयो० १३ / ३८ ) जयनशील (वि०) जयवंत, विष्णु। (जयो० १७/२) जयनादः (पुं०) जयघोष । जयनृपतिः (पुं०) राजा जयकुमार, हस्तिनापुर का राजा । (जयो० ३/१९ ) For Private and Personal Use Only जयन्त ( वि०) जययुक्त (जयो० २२/४३) जयन्ती (स्त्री०) १. अकम्पित गणधर की माता। २. पताका (जयो० ८/१५) (वीरो० १४/९) जयन्ती जीतती हुई (सुद०२/१२) जयवन्त जीतने वाली, जीतने वाला। जयपत्रं (नपुं०) जयघोष पत्र । जयपुत्रकः (पुं०) एक पासा । जयमङ्गलः (पुं०) राजकीय हस्ति । जयमहीपतिः (स्त्री०) हस्तिनापुर नरेश जयकुमार (जयो० १ / ११३) जयघोष अभिलेख। जयमाला (वि०) विजयमाला। जयवर्मा (पुं०) राजा विशेष । जयराज (पुं०) जयकुमार नामक नृपति। जयराट् (पुं०) जयराज, जयकुमार राजा, हस्तिनापुर नरेश । (जयो० १७/३७) जयवाहिनी (स्त्री०) १. शची, इन्द्राणी, २. विजययान यात्रा। जयवन्त (वि०) विजयशील (सम्य० १५३) जयशब्दः (पुं०) जयध्वनि, विजयघोष । जयस्तम्भ (पुं०) विजय स्तम्भ कीर्तिस्तम्भ | जयहस्ति (पुं०) जयनामक हाथी । Page #418 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जया ४०८ जलं जया (स्त्री०) दुर्गा, अम्बिका। १. एक वचन, जिसके सिद्धान्त जरती-जरती (स्त्री०) वार्धक्यपालित स्त्री, वृद्धा स्त्री। (जयो० कथन किया जाए। २. पोदनपुरी के राजा प्रजापति की १०/२७) रानी। (वीरो० ११/१७) जरसान्वित (वि०) वृद्धत्व प्राप्त। (जयो० १८/४१) जयिन् (वि०) जेतु शीलमरण-विजेता। जरन्तः (पुं०) वृद्ध पुरुष। जयेच्छु (वि०) विजयाभिलाषी, जय/विजय का इच्छुक। (जयो० जरद्गव (वि०) वृद्ध बलीवर्द, बूढा बैल (जयो० २३/६७) ८/४६) (दयो० २० ) जयैषिणी (वि०) विजयाभिलाषिणी, विजय की कामना करने जरसाञ्चित (वि०) वार्धक्यविभूषित। (जयो०९/७२) वाली। (जयो० ६/११६) जरा (स्त्री०) [जु+अ+टाप्] बुढ़ापा, वृद्धावस्था। (जयो० जयोक्ति (स्त्री०) जयकार, जयध्वनि, जयघोष। जयनाद-(जयो० १/३६) वयो हानि, वय जीर्णता। (वीरो० ९/७) जीर्यन्ति १२/९) विनश्यन्ति रूप-वयो-बल-प्रभृतयो गुणा यस्यामवस्थायां जयोदयः (पुं०) जयोदय नामक महाकाव्य, जिसमें २८ सर्ग प्राणिनः सा जरा। (भ०आ०टी० ७१) हैं। जो हस्तिनापुर नरेश के विजय अभियान से लेकर जराजीर्ण (वि०) वयोवृद्ध, निर्बलता, क्षीणता। वैराग्य तक के चित्र को चित्रित करने वाला है इसके | जरायिक (वि०) जर से निकला। जरायुरेव जरः तत्र आय: रचनाकार महाकवि भूरामल आचार्य ज्ञानसागर हैं। इसको जरायः जरायो विद्यते येषां ते जरायिक:-'गो-महिषीसं० १९८३ की सावन सुदी पूर्णिमा के दिन पूर्ण किया मनुष्यादयः सावरण-जन्मानः' गया। (जयो० १/१) लोकधराङ्कात्मकसंगणिते जराधीनः (पुं०) वार्धक्यापन्न, वृद्धावस्था। (जयो० ७/४६) विक्रमोक्तसंवत्सरे हिते। श्रावणमासमितिं प्रति याति पूर्ण जरायु (नपुं०) मांस एवं रुधिर् का जाल। जालवत्प्राणि-परिवरणं निजपर-हितैकजाति।। (जयो० २८/१०९) लोकाः त्रयः विततमांस-रुधिरं जरायुः कथ्यते। तत्र कर्मवशादुत्पत्त्यर्थ धराः पृथिव्यः अष्टौ नय-आत्मा चैक इत्थमङ्गानां वामतो माय आगमनं जरायः, जरायुरेव: जरः। गतिरिति नियमात् परिवर्तिते १९८३ तमे हितकरे। श्रीमान् जरायुज (वि०) जरायु में उत्पन्न होने वाला। 'जरायौ जाता श्रेष्ठिचतुर्भुजः स सुषुवे भूरामलोपाह्वयं वाणीभूषण-वर्णिनं जरायुजाः' यत्प्राणिनामानायवत् जालवत् आवरणं प्रविततं घृतवरी देवी च यं धीचयम्। तत्काव्यं लासतात् स्वयं विधि पिशितरुधिरं तद्वस्तु वस्त्राकारं जरायु'-जरायौ जाता जरायुजाः। श्री लोचनाया जयराजस्याभ्युदयं दधद् वसु दृगित्याख्यं च जरासन्धः (पुं०) नाम विशेष। (वीरो० १७/४२) सर्ग जयत्।। जरित (वि०) [जरा+इतच्] वृद्ध, बूढ़ा, क्षीण, निर्बल। जयोदयप्रकाश (पुं०) जय कुमार के अम्युदय का कथन। जरिन् (वि०) वृद्धा, बूढ़ी। (जयो० १२/११) (दयो० १/१) जरी (वि०) वृद्ध स्त्री। जय्य (वि०) [जि+यत्] जीतने योग्य, प्रहार्य। जरूधं (नपुं०) मांस। जरठ (वि०) [+अठच्] १. कठोर, ठोस, २. अधिक वय जर्जर (वि०) [ज+अर] बूढ़ा, वृद्ध, निर्बल, क्षीण। का परिपक्व। जर्जरित (वि०) [जर्जर+णिच्+क्त] छिन्नाभिन्न, विद्ध। जीर्णजरठः (पुं०) पाण्डुनरेश। शीर्ण, फटा-पुराना, विदीर्ण, अयोग्य, क्षार-क्षर, घिसा-पिटा, जरण (वि०) [+ल्युट्] बूढा, क्षीण, निर्बल, वृद्ध। क्षीण, हीन। कुसुमेषोः शर-जर्जरितापि या जनता जरणार्थ (वि०) परिपाक के लिए। (सुद० १२०) स्ययमितस्तयापि। (जयो० १४/३९) जरत् (वि०) [ज+शत्] वृद्ध, क्षीण काय, निर्बल, जीर्ण। | जर्जरीक (वि०) [जर्जर+ईक] बूढ़ा, वृद्ध, क्षीण, असमर्थ, जरत्कुमारः (पुं०) कृष्ण को मारने वाला (मुनि० २४) अयोग्य, छिन्नभिन्न, विदीर्ण, विखण्डित। (वीरो० १७/४२) जर्तुः (स्त्री०) योनि। जरत्गवः (पुं०) बूढ़ा बैल। जल (वि०) [जल्+अक्] शीतल, ठंडा, जड़। स्फूर्तिहीन, जरती (स्त्री०) वृद्धा, बुढ़िया, अधिक उम्र की नारी। (जयो० निर्बल। ४/५७) जलं (नपुं०) वारि, अम्बु, पानी, नीर। (जयो० १/५) उदक। For Private and Personal Use Only Page #419 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जया ४०८ जलं जया (स्त्री०) दुर्गा, अम्बिका। १. एक वचन, जिसके सिद्धान्त जरती-जरती (स्त्री०) वार्धक्यपालित स्त्री, वृद्धा स्त्री। (जयो० कथन किया जाए। २. पोदनपुरी के राजा प्रजापति की १०/२७) रानी। (वीरो० ११/१७) जरसान्वित (वि०) वृद्धत्व प्राप्त। (जयो० १८/४१) जयिन् (वि०) जेतु शीलमरण-विजेता। जरन्तः (पुं०) वृद्ध पुरुष। जयेच्छु (वि०) विजयाभिलाषी, जय/विजय का इच्छुक। (जयो० जरद्गव (वि०) वृद्ध बलीवर्द, बूढ़ा बैल (जयो० २३/६७) ८/४६) (दयो० २०/) जयैषिणी (वि०) विजयाभिलाषिणी, विजय की कामना करने | जरसाञ्चित (वि०) वार्धक्यविभूषित। (जयो० ९/७२) वाली। (जयो० ६/११६) जरा (स्त्री०) [+अङ्कटाप्] बुढ़ापा, वृद्धावस्था। (जयो० जयोक्ति (स्त्री०) जयकार, जयध्वनि, जयघोष। जयनाद-(जयो० १/३६) वयो हानि, वय जीर्णता। (वीरो० ९/७) जीर्यन्ति १२/९) विनश्यन्ति रूप-वयो-बल-प्रभृतयो गुणा यस्यामवस्थायां जयोदयः (पुं०) जयोदय नामक महाकाव्य, जिसमें २८ सर्ग प्राणिनः सा जरा। (भ०आन्टी० ७१) हैं। जो हस्तिनापुर नरेश के विजय अभियान से लेकर | जराजीर्ण (वि०) वयोवृद्ध, निर्बलता, क्षीणता। वैराग्य तक के चित्र को चित्रित करने वाला है इसके जरायिक (वि०) जर से निकला। जरायुरेव जरः तत्र आय: रचनाकार महाकवि भूरामल आचार्य ज्ञानसागर हैं। इसको जरायः जरायो विद्यते येषां ते जरायिकः-'गो-महिषीसं० १९८३ की सावन सुदी पूर्णिमा के दिन पूर्ण किया मनुष्यादयः सावरण-जन्मानः' गया। (जयो० १/१) लोकधराङ्कात्मकसंगणिते जराधीनः (पुं०) वार्धक्यापन्न, वृद्धावस्था। (जयो० ७/४६) विक्रमोक्तसंवत्सरे हिते। श्रावणमासमिति प्रति याति पूर्णं | जरायु (नपुं०) मांस एवं रुधिर् का जाल। जालवत्प्राणि-परिवरणं निजपर-हितैकजाति।। (जयो० २८/१०९) लोकाः त्रयः विततमांस-रुधिरं जरायुः कथ्यते। तत्र कर्मवशादुत्पत्त्यर्थ धराः पृथिव्यः अष्टौ नय-आत्मा चैक इत्थमङ्गानां वामतो माय आगमनं जरायः, जरायुरेव : जरः। गतिरिति नियमात् परिवर्तिते १९८३ तमे हितकरे। श्रीमान् | जरायुज (वि०) जरायु में उत्पन्न होने वाला। 'जरायौ जाता श्रेष्ठिचतुर्भुजः स सुषुवे भूरामलोपाह्वयं वाणीभूषण-वर्णिनं जरायुजाः' यत्प्राणिनामानायवत् जालवत् आवरणं प्रविततं घृतवरी देवी च यं धीचयम्। तत्काव्यं लासतात् स्वयं विधि पिशितरुधिरं तद्वस्तु वस्त्राकारं जरायु'-जरायौ जाता जरायुजाः। श्री लोचनाया जयराजस्याभ्युदयं दधद् वसु दृगित्याख्यं च जरासन्धः (पुं०) नाम विशेष। (वीरो० १७/४२) सर्ग जयत्।। जरित (वि०) [जरा इतच्] वृद्ध, बूढ़ा, क्षीण, निर्बल। जयोदयप्रकाश (पुं०) जय कुमार के अम्युदय का कथन। जरिन् (वि०) वृद्धा, बूढ़ी। (जयो० १२/११) (दयो० १/१) जरी (वि०) वृद्ध स्त्री। जय्य (वि०) [जि+यत्] जीतने योग्य, प्रहार्य। जरूधं (नपुं०) मांस। जरठ (वि०) [+अठच्] १. कठोर, ठोस, २. अधिक वय जर्जर (वि०) [ज+अर] बूढ़ा, वृद्ध, निर्बल, क्षीण। का परिपक्व। जर्जरित (वि०) [जर्जर+णिच् क्त] छिन्नाभिन्न, विद्ध। जीर्णजरठः (पुं०) पाण्डुनरेश। शीर्ण, फटा-पुराना, विदीर्ण, अयोग्य, क्षार-क्षर. घिसा-पिटा, जरण (वि०) [+ ल्युट्] बूढा, क्षीण, निर्बल, वृद्ध। क्षीण, हीन। कुसुमेषोः शर-जर्जरितापि या जनता जरणार्थ (वि०) परिपाक के लिए। (सुद० १२०) स्ययमितस्तयापि। (जयो० १४/३९) जरत् (वि०) [+शत्] वृद्ध, क्षीण काय, निर्बल, जीर्ण। जर्जरीक (वि०) [जर्जर+ईक] बूढ़ा, वृद्ध, क्षीण, असमर्थ, जरत्कुमारः (पुं०) कृष्ण को मारने वाला (मुनि० २४) ___ अयोग्य, छिन्नभिन्न, विदीर्ण, विखण्डित। (वीरो० १७/४२) जर्तुः (स्त्री०) योनि। जरत्गवः (पुं०) बूढ़ा बैल। जल (वि०) [जल्+अक्] शीतल, ठंडा, जड़। स्फूर्तिहीन, जरती (स्त्री०) वृद्धा, बुढ़िया, अधिक उम्र की नारी। (जयो० निर्बल। ४/५७) जलं (नपुं०) वारि, अम्बु, पानी, नीर। (जयो० १/५) उदक। For Private and Personal Use Only Page #420 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जलकण्टकः ४०९ जलपूरः १. पूजन के समय चढ़ाने वाला प्रासुक जल। (सुद० ५/२१) जीवन, वन, गो, पय, विष, अमृत, शिव, भुवन, तोय। पयः कीलालममृत जीवनं भुवनं वनम् तोयं जीवनमब्विषम्' इति धनञ्जय इत्यमरः (जयो० वृ० १४/७९) 'अनामिपाशनीभूयाद्वस्त्रपूतं पिवेज्जलम्' (सुद० ४/४३) जलकण्टकः (पु०) मगरमच्छ। जलकपि (पुं०) सूंस, सुंसुमार। जलकपोतः (पुं०) जल कबूतर। जलकरङ्कः (पुं०) १. श्री फल, नारिकेल, नारियल, २. बादल, मेघ, ३. कमल। ४. तरङ्ग। जलकल्कः (पुं०) पङ्क, कीचड़। जलकाकः (पुं०) जलकौआ। जलकान्तः (पुं०) वायु, पवन। जलकान्तारः (पुं०) वरुणदेव। जलकिराटः (पुं०) मगरमच्छ, घड़ियाल। जलक्रीड़ा (स्त्री०) जलकेलि। (जयो० वृ० २०६८९) जलकुक्कुट: (पुं०) जलमुर्ग, मुर्गानी। जलकुन्तलः (पुं०) काई, सेवाल, सेवारज। जलकूपी (स्त्री०) झरना, कृप, कुआं, तालाब, भंवर। जलकूर्मः (पुं०) शिंशुमार, सूंस। जलकेलिः (स्त्री०) जलक्रीड़ा, जलविहार। शिव मोक्षते सुखे जले इति (जयो० १४/६०) शिवकेलि। जलकोशः (पुं०) सेवारज, सेवाल, काई। जलङ्गमः (पुं०) [जल+गम्+खच्] चाण्डाल। जलगत (वि०) जल से प्राप्त। जलगुल्मः (पुं०) १. कच्छप, कछुवा। २. बावड़ी। जलचर (वि०) जल के विचरण करने वाले जन्तु। जलचारणं (नपुं०) जल में चलने की ऋद्धि, जीव विराधना से रहित जल में गमन। 'जलमस्पृश्य जलोपरि गमनं जलचारणत्वम्' (जैन०ल० ४५८) जलचारिन् (वि०) जल में विचरण करने वाले जलतन्तु। जलजः (पुं०) शङ्ख। जलज (वि०) जल में उत्पन्न होने वाले। जलजं (नपुं०) कमल, वारिज, पद्म। (जयो० ३/१००) जलजन्तु (नपुं०) जलचर जीव। (दयो० ४२) जलजात (वि०) जल में उत्पन्न हुए कमल। (जयो० १/५८) जलजिह्वः (पुं०) मगरमच्छ। जलजीवः (पुं०) १. जलजन्तु, २. मछवाह, मछुआरा। जलजीविन् (पुं०) मछुआरा, मछवाह। जलज्योतिः (स्त्री०) जल तरङ्ग। जलतरङ्गः (पुं०) १. एक वाद्य विशेष। २. जल की लहरें। जलताडनं (नपुं०) जल का पीटना, जल का अपव्यय। जलत्यज (वि०) अम्बुदादातुं-जल पिलाने के लिए। (जयो० १२/१३१) जलवा (स्त्री०) छाता, आतपत्र। जलत्रासः (पुं०) जलातङ्क रोग, पालन कुत्ते क काटने पर होने वाला रोग, हड़कायापन। जलदः (पुं०) मेघ, बादल, वारिमुच। (जयो० वृ० १२/५१) जलदा (स्त्री०) जल देवी। (जयो० १२/१२१) जलदाया (वि०) जल पिलाने वाली। (जयो० १२/१२१) जलदानं (नपुं०) प्याऊ। (जयो० २०/२) जलदानत्व (वि०) जलप्रदान करने वाली, नीरद भाव वाली। जलदर्दुरः (पुं०) वाद्य यन्त्र। जलदेव (पुं०) जलदेव। जलदेवता (पुं०) जलदेवता। जलदेवी (स्त्री०) जलपरी। जलद्रोणी (स्त्री०) डोलची। जलधरः (पुं०) मेघ, बादल। जलधारा (स्त्री०) पानी की धार। जलधिः (०) समुद्र, सागर। (सुद० २२) जलधीश्वरा (स्त्री०) नन्दिनी, समुद्र पुत्री (सुद० १/२) (वीरो० २/१७) जलनकुलः (पुं०) ऊद बिलाव। जलनरः (पुं०) जल पुरुष। जलनिधिः (पुं०) समुद्र, सागर। (वीरो० ४/५१) जलनिर्गमः (पुं०) १. नाली, २. जलप्रपात, झरना, निर्झर। जलनीतिः (स्त्री०) काई, सेवारज, सेबाल। जलपटलं (नपुं०) मेघ, बादल। जलपतिः (पुं०) समुद्र, सागर। जलपथः (पुं०) जलयात्रा। जलपात्रं (नपुं०) मणिका, सुराही। (जयो० वृ० २/१३३) जलपारावतः (पुं०) जलकपोत। जलपित्तं (नपुं०) अग्नि, आग। जलपुष्पं (नपुं०) कमल। जलपूरः (पुं०) जल की बाढ़, पानी का विस्तार से फैलाव। वारिगण। (जयो० २०/३२) For Private and Personal Use Only Page #421 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जलपृष्ठजा ४१० जलाञ्चल जलपृष्ठजा (स्त्री०) काई, सेवारज। जलप्रदानं (नपुं०) जल तर्पण, जल चढ़ाना। जलप्रलयः (पुं०) बाढ़ से विनाश, जल से विनाश। जलप्रवाहः (पुं०) जल की गति, जलधारा। (जयो० ६/७५) जलप्रान्तः (पुं०) नदी का तट, किनारा। जलप्रायं (नपुं०) जल बहुल प्रदेश। (जयो० १२/१३९) जलप्रायप्रदेश: (पुं०) जल की बहुलता वाला प्रवेश। जलप्रियः (पुं०) चातक पक्षी, मछली। जलप्लवः (पुं०) ऊदबिलाव। १. जलप्रवाह (वीरो० २/१५) जलप्लावनं (नपुं०) बाढ़, जलप्रलय। जलबन्धुः (स्त्री०) मछली। जलबालकः (पुं०) विन्ध्य गिरि। जलबालिका (स्त्री०) विद्युत, बिजली। जलबिंदुः (पुं०) समुद्र, जलनिधि। (जयो० ९/४१) जलबिडाल: (पुं०) ऊदबिलाव। जलबिम्ब: (पुं०) जलतरङ्ग, बुलबुला। जलबिम्बं (नपुं०) जल तरङ्ग, बुलबुला। जलबिल्वः (पुं०) सर, सरोवर, तालाब, चौकोर, तालाब। १. कछुआ, २. केंकड़ा। जलभू (वि०) जल में उत्पन्न। जलभूः (पुं०) १. मेघ, बादल। २. कपूर, जल का स्थान। जलभक्षिका (स्त्री०) जल में रहने वाला कीट। जलमण्डूकं (नपुं०) १. मेंढक, जल दुर्दर। २. वाद्य यन्त्र। जलमार्गः (पुं०) पनाला, नाली, जलप्रणाली। जलमुच् (पुं०) मेघ, बादल। (समु० ७/२५) जलमूर्तिः (पुं०) शिव। जलमूर्तिका (स्त्री०) ओला, हिमकण, बर्फ। जलयन्त्रं (नपुं०) नलकूप, पाताल कूप से जल निकालने का | साधन। जलमन्दिरं (नपुं०) जलगृह, फव्वारा युक्त भवन, जल के बीच स्थित भवन। जलयात्रा (स्त्री०) जलक्रीड़ा, जलकेलि, नौकायन। जलयानं (नपुं०) जहाज, पोत, जलपोत। (जयो० १३/३४) ___ (दयो० वृ० ६/६६) जलरङ्कः (पुं०) जलकुक्कुट, जलमुर्गा। जलरण्डः (पुं०) १. भंवर, जलावर्त। २. जलकण, जलबिन्दु। ३. जलसर्प। जलरुण्डः (पुं०) जलावर्त, भंवर। जलरसः (पुं०) नमक, लवण, समुद्री नमक, सांभर नमक। जलराशि: (पुं०) समुद्र, उदधि, सागर। जलराशिजा (स्त्री०) सरस्वती, भारती। (जयो० १९/३४) जलरुहः (पुं०) कमल, पद्य, सरोज। जलरुहं (नपुं०) अरविंद, सरोज, पद्म। जलरूपः (पुं०) मगरमच्छ। जललता: (स्त्री०) लहर, तरङ्ग। जलवमथु (वि०) पयोनिपीत, जल में फूत्कार, बुलबुला। (जयो० वृ० १३४/१००) जलवादः (पुं०) पानी की बहुलता। (दयो० १०) जलवायस् (पुं०) जल निवास। जलवाहः (पुं०) मेघ, बादल। जलवाहिनी (स्त्री०) पानी की मोरी, नालिका, नाली। जलविषुवत् (नपुं०) शारदीय विषुवत् [२२ या २३ सितम्बर]। जलवृश्चिकः (पुं०) झींगा मछली। जलव्यालः (पुं०) पानी का कार्प, जल सांप। जलशयः (पुं०) विष्णु। जलशयनः (पुं०) विष्णु। जलशयिन् (पुं०) विष्णु। जलशाला (स्त्री०) प्याऊ। (जयो० वृ० ६/८६) जलशूकं (नपुं०) काई, सेवारज। जलशूकरः (पुं०) मगरमच्छ। जलशोषः (पुं०) अनावृष्टि, कम बरसात। जलसम्वाहिका (स्त्री०) जल खींचने वाली। (जयो० ११/९७) जलसन्ततिः (स्त्री०) जलप्रवाह। (वीरो० ७/३४) जलसर्पिणी (स्त्री०) जोक। जलसिञ्चित (वि०) जल से सींचा गया। (सुद० ३/) जलसूचिः (स्त्री०) १. जोक, सुंसुआर। जलस्तुति (स्त्री०) जलप्रवाह। (वीरो० १८/३२ (जयो० १४/४५) जलस्थानं (नपुं०) सरोवर, तालाब, जलाशय। जलस्तम्भनवृत्ति (स्त्री०) जल रोकना, जलवृष्टि रोकने की ऋद्धि। (जयो० १३/३७) जलहं (नपुं०) जलमन्दिर, जलमहल, फव्वारा। जलहस्तिन् (पुं०) जलहाथी, गेंडा। जलहारिणी (स्त्री०) पनाला, नालिका। जलांश (वि०) अर्ण अंश, जलकण शीकर। (वीरो० ४/१६, भक्ति०६) जलाञ्चलं (नपुं०) १. झरना, निर्झर, जलप्रपात। २. काई, सेवाल। For Private and Personal Use Only Page #422 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जलाञ्जलिः ४११ जह जलाञ्जलिः (स्त्री०) चुल्लुभर पानी। (वीरो० १/३१) जलाटनः (पुं०) सारस। जलाटनी (स्त्री०) जोंक। जलायितत्त्व (नपुं०) जल तत्त्व (वीरो० २०/६) जलाशयः (पुं०) सरोवर, तालाब। (सुद० १/१८) जलाशय जलाधार जलदे तु जलाशयं इति वि (जयो० वृ० २१/३३) जलाष्टकः (पुं०) घड़ियाल, मगरमच्छ। जलात्ययः (पुं०) शरद, पतझड़। जलाधिदैवतः (पुं०) वरुणदेव। जलाधिपः (पु०) वरुणदेव। जलानयनदासी (स्त्री०) रहट, कुटकुटी। (जयो० २५/९) जलाम्बिकः (पु०) कूप, कुआं। जलार्कः (पुं०) सूर्य प्रतिबिम्ब। जलाजीवानार्थ (वि०) जल से आजीविका चलाने वाला। (जयो० १/३७) जलावगाहः (पुं०) जल में तैरना। (जयो० १४/८०) जलित्व (वि०) जलधारित्व, नीरधारी (जयो० २०/७७) जलभिघ (वि०) तडादिक, तालाब आदि। (जयो० वृ० १/७४) जलार्णवः (पुं०) वर्षाऋतु। जलार्थिन् (वि०) प्यासा। जलार्द (वि०) गीला। जलूका (स्त्री०) जोक। जलेन्द्रः (पुं०) वरुणदेव। १. समुद्र। जलेन्धनः (पुं०) वडवाग्नि। जलेभः (पुं०) जलहस्ति। जलेशः (पुं०) वरुणदेव। जलेशयः (पुं०) मछली। जलोत्सर्जनं (नपुं०) जलदाय। (जयो० वृ० ६२/१२१) जलौकः (पुं०) जोंक। (जयो०४/२०) (समु० १/१९) जलोदभवः (पुं०) कमल। (जयो० ४/५९) ०नीरज। जलोद्वैलनं (नपुं०) जलप्रवाह। (जयो० ११/३) जल्प (अक०) बोलना, कहना। (जयो० २/१५५) संलाप करना, गुनगुनाना, प्रलाप करना। जल्पन्ती। जल्पः (पुं०) [जल्प्+घञ्] १. भाषण २. कलकलरव (जयो० वृ० १८/५८) ३. प्रवचन, वार्तालाप, संवाद, विचार, (सुद १/१२) वितण्डावाद (जयो० वृ० १८/५८) ४. वाद-विवाद। वाक् युद्ध। (सम्य० ३३) ०साध्य के विषय में दूसरे को तिरस्कृत करना। जल्पका (वि०) व्यर्थ का बोलने वाला, बातूनी, गप्पी, मुखरी, बाचाल। जल्पित (वि०) भाषित। (जयो०५/२७) जल्लः (पुं०) मल, शरीर पर पसीने से जमने वाला मेल, मलपरीषह। 'सर्वाङ्गमलो जल्लः' शरीरमलं जल्लः। जल्लौषधिः (स्त्री०) मल परीषह, एक ऋद्धिविशेष, जिसके प्रभाव से मल को दूर किया जाता है। जव (वि०) ०स्फूर्तिमान् तंदुरुस्त, चुस्त। ०स्फूर्ति, ०तेजी। जवेन (तृ०ए०) (सुद० २/४२) जवात्-त्वरितमेव (जयो० १९/५) जवञ्जय (वि०) अत्यधिक शीघ्रता। (वीरो० ९/१६) संहति यत्क्रियते जवञ्जये (समु० ९/१३) जवलेविका (स्त्री०) जलेबी, एक मिष्ठान्न, रस से परिपूर्ण वर्तुल। भङ्ग विभङ्गरकारो मिष्ठान्न भेदः। (जयो० २४/७७) (जयो० ९/६०) जवन (वि०) स्फूति, तेजी, गतिशीलता, शीघ्रगामी। जवनं (नपुं०) वेग, गति, चाल। जवनिका (स्त्री०) [जूयते आच्छदयते अनया जु+ल्युट्+डी. जवनी कन्+टाप्] १. पर्दा, आवरण, २. दृश्य, सदृक का एक अंश, प्राकृत में रचित सदृक रचना का एक वर्ग। जवनी (स्त्री०) पर्दा, कनात। जवशील (वि०) वेगशील। जवत एव वेगादेव (जयो० वृ० ६/२६) जवसः (पुं०) [जु+असच्] घांस। जवा (स्त्री०) [जव+टाप्] जपा पुष्प। अडहुल। जवाहर (नपुं०) एक रत्न। जवाहरलालनेहरु (पुं०) भारत के प्रथम प्रधानमंत्री। (जयो० १८/८४) नवम्बर १४ सन् १८८९ प्रयाग-आनंद भवन। जविवाहः (पुं०) घोड़ा, घोटक, अश्व। (जयो० १३/२६) जष् (सक०) मारना, क्षति पहुंचाना, घायल करना। जस् (सक०) १. मुक्त करना, छोड़ना, २. प्रहार करना, मारना। ३. अपमान करना। जह (सक०) छोड़ना- जहाति (सुद० १२०) (जयो० १/८) जहकः (पुं०) १. समय, २. सर्प की केंचुली। जहत् (वि०) त्यागने वाला। जहासि-छोडते हो। (सुद० ३/३८) जहानकः (पुं०) [हा+शानच्क न्] महाप्रलय। जहुः (हा+उण्) शावक, वत्स, बछड़ा। जह्व (पुं०) एक नृप विशेष। (जयो० ६/३३) For Private and Personal Use Only Page #423 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जह्य ४१२ जातिकुमुसनगं जह्य (वि०) छोड़ने योग्य। (सुद० ४/४२) स्थिति। जातानां जन्मवतां बालकानां गीतिं जातनां पदार्थानां जह्नकन्या (स्त्री०) गंगा। (जयो० ६/३३) गीति स्पष्टीकरण। (जयो० वृ० १८/५१) जा (सक०) जाना, पहुंचना, ग्रहण करना, उत्पन्न होना। जातकाम (वि०) आसक्त। (जयो० २/११) जातु (सुद०९४) प्राप्त होना, (जाति-सुद० जातपक्ष (वि०) पंख निकलने वाला। १०४) जायते- (जयो० २/१४) जातपाश (वि०) बंधन वाला, बेड़ी युक्त। * समझना, ज्ञात होना। (जयो० १/१) बुधो विपदे जातु। जातप्रत्ययः (वि०) विश्वास करने योग्य। (सुद०८९) जातमन्मथ (वि०) कामरसक्ति को प्राप्त, प्रेमभाव को प्राप्त जाकियव्वा (स्त्री०) सत्तरस नागार्जुन की पत्नी। (वीरो० हुआ। १५/३८) जातमात्र (वि०) सद्योजात, तत्काल उत्पन्न। जागरः (पुं०) [जागृ+घञ्] १. जागना, सचेत रहना। २. जातरूप (वि०) सुन्दर, उज्ज्वल जन्म का रूप, दिगम्बर रूप, कवच, बख्तर। निर्ग्रन्थ रूप, नग्न रूप। (जयो० २८/४) जागरणं (नपुं०) [जागृ+ ल्युट्] जागना, सचेत रहना, सतर्कता। जातरूपधर (वि०) दिगम्बर रूप धारी। जागरा (स्त्री०) [जागृ+अ+टाप्] जागरण, सचेतनता। जातवेदः (पुं०) वह्नि, अग्निा जागरित (वि०) [जाण+क्त] सचेत हुआ, जागा हुआ। जाता (भू०क०कृ०) उत्पन्न हुई। 'रतिरिव रूपवती या जाता' जागरितृ (वि०) जागरणशील, प्रबुद्धशील, निन्द्रा विमुक्त। (सुद० १/४१) सतर्क, सचेत। जातिः (स्त्री०) [जन्+क्तिन्] जन्म, उत्पत्ति। (जयो० १२/६१ जागर्तिः (स्त्री०) जागरण, सचेतता। प्राप्ति (सम्य ५२) १. गोत्र, परिवार, कुल, वंश, वर्ग, जागुडं (नपुं०) [जगुड+अण] केसर, जाफरान। समुदाय। २. वर्ग विभाजन-मनुष्यजातिरेकैव नामकर्मोदजाग (अक०) जागना, सचेत रहना। योद्भवा। वृत्तिभेदा: हि तभेदाच्चातुर्विध्यमिहा श्नुते। (हित० जाघनी (स्त्री०) [जघन+अण। डीप्] १. पूंछ, २. जांघ। संपादक वृ० २०) ३. जायफल, ४. अंगीठी, ५. श्रेणी, जागतिः (स्त्री०) उत्थान, विकास। (जयो० ५/७०) वर्ग, प्रकार, भेद। ६. छन्द की एक विशेषता। ७. चमेली जाङ्गल (वि०) जंगली, अनाड़ी, असम्भ, वर्बर। पुष्प, मल्लि । (जयो० वृ० ३/७५) ८. जिनवचन--जाति जाङ्गलः (पुं०) तीतर पक्षी, बटेर। श्री जिनवाचमेव निगदेद्यस्याः प्रमादाद्यति रात्मानं प्रति वेत्ति जाङ्गलं (नपुं०) विष, जहर। सत्कुलमथोद्योगं गुरोः सम्प्रति।। उस श्री जिनवाणी को ही जालिः (पुं०) विषवैद्य। जाति कहते हैं, जिसके प्रसाद से यति आत्मा को जानते जाङ्घिकः (पुं०) [जङ्घा ठञ्] १. दूत, २. ऊँट। हैं और गुरु का उद्योग समीचीन कुल है। मिथ्या उत्तर देने जाजिन् (पुं०) [जज्+णिनि] योद्धा, सैनिक। का नामजाठर (वि०) उदरवर्ती, पेट सम्बन्धी। * मिथ्योत्तर यातिः यथाऽनेकान्त विद्विषाम्। जाठरः (पु०) पाचनशक्ति। * जाति: मातृसमुत्था-माता के वंश से जाति का प्रादुर्भाव। जाड्यं (नपुं०) [जड+ष्यञ्] १. जडता, निष्क्रियता, मूर्खता, 'मातृपक्षो जातिः' माता का पक्ष (वीरो० १७/२६) आलसीपना। (वीरो० ९/१८) २. शीतलता, जाड़ा- (वीरो० * जीवादि का सादृश्य परिणाम 'जातिजीवानां सदृश९/१८) परिणाम:' (धव० ६/५१) जात (भू०क०कृ०) १. जन्म लिया गया, पैदा किया हुआ, उगा * भेदकल्पना आचारमात्रभेदेन जातीनां भेदकल्पनम्। हुआ, निकला हुआ। २. उद्भूत, उत्पन्न 'ततश्च रजकी * साधर्म्य और वैधर्म्य से प्रत्यवस्थान होना। जाता' (सुद० ४/२८) ३. नियुक्त (जयो० १२/११५) जातिकथा (स्त्री०) निन्दा या प्रशंसा को उत्पन्न करने वाली जात: (पुं०) पुत्र। कथा। उत्पत्ति सम्बंधी कथा। जातं (नपुं०) प्राणी, जन्तु, जीवधारी। जातिकुसुमं (नपुं०) चमेली का पुष्प। जातगीतिः (स्त्री०) कुण्डलीक करणनीति उत्पन्न करने की | जातिकुमुसम्रगं (नपुं०) मल्लिमाला। (जयो० वृ० २०/९५) For Private and Personal Use Only Page #424 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जातिकोशः ४१३ जामात जातुचित (वि०) रंचमात्र, किञ्चित् भी, कुछ भी। 'न जातुचिदभूल्लक्ष्यस्तत्कृतोपद्रवे पुनः' (सुद० १३५) जातुधानः (पुं०) पिशाच, राक्षस। जातुष (वि०) लाक्षादिघटित। (जयो० २७/३८) लाख से ढका हुआ। जातिकोशः (पुं०) जायफल। जातिकोशी (स्त्री०) जावित्री, जायफल की छाल। जातिछन्दः (पुं०) मात्रिकछन्द या वर्णिकछन्द। 'मात्रिकछन्दो जातिर्वर्णिक छन्दश्च वृत्तमिति' (जयो० २२/८१) १. जन्म से सदाचरण युक्त 'जात्या जन्मना वृत्तेन स्वाचरणेन च लसन्तौ' (जयो० वृ० २२।८१) जातिधर्मः (पु०) धर्म कर्त्तव्य, धर्म आचरण, सदाचरण प्रवृत्ति। जातिध्वंसः (पु०) विशेषाधिकार की हानि। जातिपत्री (स्त्री०) जावित्री। जातिब्राह्मण (पुं०) जन्म से ब्राह्मण, नाम से ब्राह्मण। जातिभ्रंशः (पुं०) जातिच्युत। जातिभ्रष्ट (वि०) जातिच्युत, जाति से पृथक किया गया। जातिमात्रं (नपुं०) कर्त्तव्यपद, जीवन प्राप्ति। जातिलक्षणं (नपुं०) जाति का स्वरूप, जन्मसम्बंधी विशेषताएं, ___वंशज स्वरूप। जातिवाचक (वि०) जाति का प्रकट करने वाला वचन। जातिविद्या (स्त्री०) मातृपक्ष की विद्याएं। जातिविरोधिन् (वि०) जातिगत विरोध करने वाला। (१५/१०) जातिवैरं (नपुं०) जातिगत द्वेष, स्वभाविक शत्रुता। जातिवैरिन (वि०) जन्मविरोधी। सहजा सह जातिवैरिभिर्हदि मैत्री यदिमैधृताङ्गिभिः' (जयो० २६/४३) जातिशब्दः (पु०) जातिबोधक वचन, ०वर्ग युक्त शब्द।। जातिसंकरः (पुं०) जातिगत द्वेष, दो परस्पर जाति के योग से उत्पन्न दोष। जातिसम्पन्न (वि०) कुलागत विशेषता। जातिसारं (नपुं०) जायफल जतिस्थाविरः (पुं०) साठ वर्ष का व्यक्ति। जातिस्मर (वि०) जन्म का स्मरण! जातिस्मरणं (नपुं०) पूर्व जन्म का स्मरण। (जयो० २३/१०) जातिस्मृति (स्त्री०) जाति का स्मरण। (वीरो० ११/२३) (जयो० २३/११) जातिस्वभावः (पुं०) जातिगत लक्षण। जातिहीन (वि०) जाति से बहिष्कृत। जातिहुङ्गित (वि०) वेश्यादि से उत्पन्न। जातीयकता (वि०) जाति युक्त (वीरो० १८४८) जातीयता (वि०) जाति सम्बन्धी। (वीरो० २२/१८) जातु (अव्य०) १. कभी, सर्वथा, किसी प्रकार, संभवतः, कदाचित्, किसी समय, एकबार, किसी दिन। २. जीव। (सम्य ११७/७४)। जात्य (वि०) [जाति+यत्] एक ही जाति का, एक कुल से सम्बंधित। जान-समझें। जानकी (स्त्री०) जनक की पुत्री सीता। जानन्ति -जानती हैं, समझती हैं। (सुद० १०७) जानन्तु-वे समझे, वे सब जाने। (जयो० वृ० १/२०) जानपदः (पुं०) [जनपद-यम्] ग्रामीण। १. देश, २. विषय, ३. उक्ति विचार। जानासि-जानते हो (सुद० ४/४०) जानु (नपुं०) [जन्+अण्] घुटना, जंघा, ऊरु। (दयो० ३९) 'वापी तदा पीनपुनीरतजानुः' (सुद० १०१) जानुचितलम्बबाहु (स्त्री०) घुट ने तक लम्बी भुजाएं। (वीरो० ३/११) जानुज (वि०) जानने वाला। (सुद० ३/४) जानुजसत्त (वि०) जानने वाला पक्षी। जानुजाधिपति (पुं०) वैश्यराज। (सुद० ४/३) जानुदधन (वि०) घुटनों तक ऊँचा, घुटनों का गहरा। जानुफलकं (नपुं०) घुटने की फाली। जानुमण्डलं (नपुं०) घुटने की फाली, ऊरुवृत्त, जंघाकार। (जयो० ११/२७) जानुसन्धि (स्त्री०) घुटनों का जोड़। जानीहि-समझें जाने। (जयो० वृ० (सुद० २/४०), २/३) जापः (पुं०) [जप्+घञ्] १. जपना, स्मरण करना, याद करना, प्रार्थना करना, स्तुति करना। २. प्रार्थना, जाप, स्मरण, मंत्रोच्चारण। जाबाल: (पुं०) [जबाल+अण] रेवड़, बकरों का समूह। जाबालोपनिषदः (पुं०) अथर्ववेद का छग सूत्र। (दयो० २२/ जामदग्न्यः (पुं०) [जमदग्नि+यञ्] पराशुराम, जमदग्नि का पुत्र। जामा (स्त्री०) [जम्+अण्] १. पुत्री, २. स्नुषा, ३. पुत्रवधू। जामातु (पुं०) [जायां माति मिनोति वा] १. दामाद, जमाता। (दयो०७३) जामातरमुज्ज्वलान्तर। (जयो० १०/३) २. स्वामी, मालिक। ३. सूरजमुखी का फूल। For Private and Personal Use Only Page #425 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जामिः ४१४ जितकाशिन् जामिः (स्त्री०) [जम्+इन्] १. बहन, पुत्री, पुत्रवधू, २. जाल्मक (वि०) [जाल्म+कन्] घृणित, पापी, कुकर्मी, दुराचारी। नजदीकी सम्बन्ध, गुणवती स्त्री। जावन्य (वि०) [जवन+ष्यञ्] शीघ्रता, गतिशीलता। जामित्रं (नपुं०) जन्मकुण्डली का सातवां स्थान/घर। जाह्नवी (स्त्री०) [जह्नु अण्डीप्] गङ्ग नदी। जामेयः (पुं०) [जाम्या भगिन्या अपत्यम् ढञ्] भानजा, बहन का पुत्र। जि (सक०) जीतना, विजय प्राप्त करना, दमन करना, हराना, जाम्बवं (नपुं०) [जाम्बा: फलं अण् तस्य] १. सोना, स्वर्ण, पराजित करना, नियन्त्रण करना, दबाना। २. जामुन का तरु। जिः (पुं०) राक्षस, पिशाच। जाम्बवत् (पुं०) [जाम्ब+मतुप्] ऋच्छराज। लंका पर आक्रमण जिगत्नुः (नपु०) प्राण, जीवन। कर राम की सहायता करने वाला नृप। जिगीषा (स्त्री०) [जि+सन्+अ+टाप्] १. जीतने की इच्छा, जाम्बीरं (नपुं०) चकोतरा। जीतने की अभिलाषा। (जयो० वृ० ११/२८) २. चेष्टा, जाम्बूनदं(नपुं०) [जम्बूनद्+अण्] १. स्वर्ण, सोना, २. धतूरा। व्यवसाय, जीवनचर्या, जायमान (शानच्) उत्पन्न होने वाला। (सम्य० १२३) जिगीषु (वि०) जीतने का इच्छुक, जीतने का इच्छुक वादी। जाया (स्त्री०) [जन्+यक्+टाप्] पत्नी, भार्या। -पराजेतुमिच्छर्जिगीषुः जायानुजीविन् (पुं०) नट, अभिनेता। जिघत्सु (वि०) भूखा, क्षुधा पीडित। जायापतिः-दम्पती। जिघांसा (स्त्री०) [ह्न+सन्+अ+टाप्] मारने की इच्छा, जायिन् (वि०) [जि+णिनि] जीतने वाला, दमन करने वाला। विनाशेच्छा। जायुः (स्त्री०) १. औषधि। २. वैद्य। (सम्य० ५१) जिघांसु (वि०) [ह्न+सन्+उ] घातक, विनाशक, चटने आए। जार: (पुं०) [जीर्यति अनेन स्त्रियाः सतीत्वं-ज+घञ् जरयतीति (वीरो० २१/१०) १. मारने का इच्छुक (दयो० ९६) २. जार:] प्रेमी, उपपति, यार। बुभुक्षु। (जयो० वृ० २/१२८) जारजः (पुं०) चुगलखोर, दोगला। जिघृक्षा (स्त्री०) [गृह् । सन्अ+टाप्] ग्रहण करने की इच्छा। जारजन्मन् (पुं०) चुगलखोर। जिघ्र (वि०) [घ्रा+श] १. सूंघने वाला, २. निरीक्षण करने जारभरा (स्त्री०) व्यभिचारिणी स्त्री। वाला। जारिणी (स्त्री०) [जार+इनि+ङीप्] व्यभिचारिणी स्त्री। जिघ्रासः (पुं०) घ्राण निरोध, नाक वन्द करके श्वास रोकना। जालं (नपुं०) [जल्+ण] १. जाल, फंदा, पाश, २. गवाक्ष, जिघ्रास-मरणं (नपुं०) घ्राण निरोध पूर्वक मरण। खिड़की, झरोखा। ३. संग्रह, राशि, ढेर। ४. भ्रमजाल, जिज्ञासा (स्त्री०) [ज्ञा+सन्। अ+टाप्] पृच्छा, चाह, अभिलाषा, जादू, धोखा, छल, व्यर्थ, प्रपञ्च (जयो० १६/७५) इच्छा, पिपासा (दयो०८९) (जयो० वृ०३/२६) (जयो० जालकं (नपुं०) [जालमिव कायति-कै+क] १. जाल, फंदा। २३/७४) २. गवाक्ष, झरोखा। (जयो० वृ० १५/५३) उपगवाक्ष। ३. जिज्ञासु (वि०) [ज्ञा+सन्+उ] जानने का इच्छुक, ज्ञानेप्सु, छल, भ्रम, जादू। प्रयत्नशील पृच्छेच्छु। जालक्षः (पुं०) गवाक्ष, झरोखा। जिज्ञीषु (वि०) जीतने के इच्छुक वादी। जालपाद् (पुं०) कलहंस। जित् (वि०) जीतने वाला, परास्त करने वाला, हराने वाला। जालप्रसारः (पुं०) जाल का फैलाव। (दयो० ९७) (सुद० १/२९) जालिकः (पुं०) [जाल+ठन्] १. मछुआरा, मछली पकड़ने | जित (भू०क०कृ०) [जि+क्त] १. जीता हुआ, अभिजित, वाला। २. बहेलिया, चिड़ीमार, ३. मकड़ी, ४. ठग। ० अभिभूत, पराभूत, ०वशीभूत, प्रभावित, ०पराजित। जालिका (स्त्री०) १. जाली, २. जोंक, ३. लोहा धूंघट। (जयो० ३/४४) २. स्वभाविकवृत्ति निर्बाध गति से संचार जालिनी (स्त्री०) [जाल+इनि+ङीप्] चित्रयुक्त वृक्ष। करना। जाल्म (वि०) [जल्+णिक्] १. क्रूर, निष्ठुर ०कठोर व्यक्ति, जितकर्म (वि०) कर्मजयो। अविवेकी, शठ, मूर्ख, कुकर्मी, आचरण हीन, दुराचारी। जितकषाय (वि०) कषाय को जीतने वाला। निष्ठुर (दयो० २३) २. निर्धन, गरीव, ३. नीच, ०अधम। जितकाशिन् (वि०) विजय से आशान्वित। For Private and Personal Use Only Page #426 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जितक्रोध ४१५ जिनसेनः जितक्रोध (वि०) क्रोध को जीतने वाला। जिनदिनकरः (पुं०) जिनदेव सूर्य। (जयो० १०/९५) जितक्रोध (वि०) क्रोध पर विजय प्राप्त करने वाला। जिनदीक्षा (स्त्री०) अर्हत् दीक्ष, आर्हती प्रव्रज्या। (सम० २/३०) जितगतिः (वि०) गति को जीतने वाला। जिनदेवराजः (पुं०) जिनप्रभु। (वीरो० १२/३९) जितजरा (वि०) वृद्धावस्था को जीतने वाला। जिनदेवविभुः (पुं०) जिनेन्द्र भगवान। (जयो० १२/१४७) जिततृष्णा (वि०) प्यास पर विजय प्राप्त करने वाला। जिनधर्मः (पुं०) जिनेन्द्र प्रभु द्वारा कथित धर्म। (सुद० ३/१२) जितदम्भ (वि०) अहकार रहित। जिनधामः (नपुं०) जिनालय। जितपाप (वि०) पापक्षय करने वाला। जिनधर्मधृक (वि०) जिनधर्म को धारण करने वाले। (वीरो० जितमोह (वि०) मोहजयी। १५/४४) जितश्रम (वि०) उद्यमशील। जिनभक्ति (स्त्री०) जिनार्चन। (जयो० ९/५३) (वीरो० ७/१२) जिताक्ष (वि०) जितेन्द्रिय, इन्द्रियजयी। 'जिताक्षाणामहो धैर्यम्' जिनभास्करः (पुं०) जिनदेव रूप सूर्य। (सुद० ५/१) (सुद० १२४) जिनपादाब्जसेवा (स्त्री०) जिन चरणों से भक्ति। (वीरो० जितेन्द्रिय (वि०) इन्द्रियों पर विजय प्राप्त करने वाला। १५/५०) अक्षमाक्ष (जयो० १/१०८) (क्षुद० १०८) जिनपः (पुं०) जिनदेव, अरहंत (वयो० १/२) जितेन्द्रियत्व (वि०) इन्द्रिय जयी। ततो जितेन्द्रियत्वेन जिनपति (पुं०) जिनप्रभुः। (वीरो० १४/५३) पापवृत्तिपरान्मुखः। (सुद० १२८) जिनपथं (नपुं०) जिनमार्ग, जिनेन्द्र भगवान् का मार्ग रत्नत्रय जितिः (स्त्री०) [जि+क्तिन्] विजय, दिग्विजय। मार्ग, मोक्षमार्ग। जितुभः (पुं०) मिथुन राशि। जिनपादः (पुं०) शिवचरण। (सुद० १३/४७) जित्वर (वि०) जीतने वाला, विजयी, विजेता, जयनशील। जिनपूजा (स्त्री०) जिनार्चन। (सुद० ११४) मुक्त्वा क्षमामिदानीं तु जय जयसि जित्वर। (जयो०७/३५) जिनपुंगवः (पुं०) जिनेन्द्र देव। (जयो० ५/६३) (भक्ति० जिन (वि०) [जि+नक्] विजयी, विजेता, इन्द्रियजयी, राग-द्वेष ३/३६) रहित। (सम्य० ७२) 'रागादिजेतारो जिना:' जि जये अस्य जिनप्रतिमा (स्त्री०) जिनमूर्ति, अर्हत् प्रतिमा। औणादिक नक प्रत्ययान्तस्य जिन इति भवति, जिनप्रभुः (पुं०) जिनदेव। (वीरो० ७/३२) रागादिजयाज्जिन इति'। जिनप्रभुः (पुं०) अर्हत्, भगवान्। जिनः (पुं०) जिनदेव, अर्हत् देव, अरहंत, तीर्थकर। (जयो० जिनबिम्बं (नपुं०) जिनप्रतिमा। वृ० १/१) 'चतुर्थभूमौ भजतो जिनं च'। (सम्य० १००) जिनमन्दिरं (नपुं०) जिनालय। (सुद० ११४) जिनेन्द्र प्रभु का जिनकल्पः (पुं०) उत्तम संहनन युक्त। स्थान। जिनकल्पिक (वि०) उत्तम संहनन वाला, जित राग-द्वेष जिनमहालयः (पुं०) विशाल मन्दिर। (जयो० १९/४) 'मोहा उपसर्ग-परीषहारिवेगसहाः जिना एव विहरन्ति इति | जिनमुद्रा (स्त्री०) पद्मासन युक्त जिन प्रतिमा की तरह एक जिनालय (भ०आन्टी० वृ० ३५६) आसन। दृढ़संयम मुद्रा, ज्ञानमुद्रा। जितेन्द्रियमुद्रा, क्रोधादि जिनकृपानिधानं (नपुं०) जिनेन्द्र की कृपा दृष्टि का कारण कषाय से रहित आकृति। चत्तारि अंगुलाई पुरओ ऊणाई (सुद० ५/४) जत्थ पच्छिमओ। पायाणं उस्सग्गो एसा पुण होइ जिणमुद्दा।। जिनगिरा (स्त्री०) जिनवचन। (मुनि० २२ (चैत्यवंदवा० १६) दोनों चरणों के मध्य में आगे चार जिनगृहं (नपुं०) अंगुल का और पीछे इससे कुछ कम अंतर करके स्थित जिनचैत्यं (नपुं०) अर्हत् तीर्थ। होते हुए उत्सर्ग करना। जिनतत्त्वं (नपुं०) जिनेन्द्र भगवान द्वारा प्रतिपादिन तत्त्व। जिनवाग्रय (वि०) जिनवचन का प्रभाव वाले। (जयो०८/६७) जिनदेवः (पुं०) जिनेन्द्र भगवान। जिनशंसित (वि०) जिनदेव के प्रशंसा करने वाले। (सुद०७४) जिन-देव-वाणी (स्त्री०) वीतराग वाणी। (समु० १/५) जिनसेनः (पुं०) जिनसेनाचार्य-आदिपुराण के रचनाकार (जयो० जिनदर्शनं (नपुं०) प्रभु अर्हत् के प्रति श्रद्धा। (सुद०८/९१) वृ० १४२०) For Private and Personal Use Only Page #427 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जिनेन्द्रमूर्ति प्रतिष्ठा ४१६ जिह्वालिहू जिनेन्द्रमूर्ति प्रतिष्ठा (स्त्री०) जिनमूर्ति को प्रतिष्ठा। (जयो० | जिनेशः (पुं०) जिनेश्वर (भक्ति० २४, सुद० ७४) २/३१) जिनेशदेवः (पुं०) जिनप्रभु (वीरो० १४/२४) जिनार्चनः (पु०) जिनपूजा। (सुद० २/४०) (सुद० ३/३७) जिनेशवाच (पुं०) जिनवचन। (भक्ति० ४९) जिनस्य अर्चन जिनपूजनम् (जयो० वृ० ३/८३) जिनेश्वरः (पुं०) जिनेन्द्र, अर्हत्, भगवान, वीतरागी प्रभु, जिनार्चनाथ (पुं०) जिनेन्द्र देव। (सुद०) तीर्थंकर। जिनार्थ (वि०) जिनेन्द्र देव के निमित्त। (सुद०५/१) जिनेशिन् (पुं०) जिनेन्द्र प्रभु युक्त। (जयो० १२/७२) जिनानुशयः (पुं०) जिनचिन्तन। (जयो० २/३६) जिनोक्त (वि०) जिनदेव द्वारा कथित। (सम्य ७२) जिनाश्रमः (पुं०) जिनालय, जिनमन्दिर। जिनस्याश्रमं मंदिर जिन्ना (पुं०) यवननेता, १९४७ से पूर्व का नेता। (जयो० इति (जयो० ९/५२) १८/८९) जिनास्थानं (नपुं०) जिनालय। (वीरो० १५/३९) जिवाजिवः (पुं०) चकोर पक्षी। जिनास्पदं (नपुं०) जिनालय। (वीरो० १५/४७) जिष्णु (वि०) [जि+गृस्लु] विजयी, जीतने वाला, विजेता। जिनराज (पुं०) जिनेन्द्र देव। (सम्य० १०९) 'पापाचारं जेतुमर्ह इरां' (जयो० वृ० २७/४०) 'इन्द्रस्येव जिनराजमुद्रा (स्त्री०) शिवप्रतिमा, (जयो० १९/१४. भक्ति० २०) । जयनशीलः' (जयो०८/३५) । जिनरूपता (वि०) निर्ग्रन्थ रूपता, दिगम्बरत्व। जिह्य (वि०) [जह्यति सरलमार्ग-हा+मन् सन्वत् अतोपश्च] जिनवाक्यसारः (पुं०) स्याद्वाद सिद्धान्त। भाष्ये निजीये । १. कुटिल, तिर्यग्, तिरछा, टेढ़ा, वक्र, २. अनीतिपूर्ण, जिनवाक्यसारम्पतञ्जलिश्चैतदुरीचकार। तमाममीसांक नाम छली, कुटिलता युक्त। ३. मन्थर, आलसी। कोऽपि स्ववार्तिके भट्टकुमारिलोऽपि।। (वीरो० १९/१७) जिह्यं (नपुं०) झूठा, असत्यव्यवहार। जिनवाचक (नपुं०) जिनवाणी, वीतराग वाणी। जिह्यगतिः (स्त्री०) तिर्यगदृष्टि वाला, भैंगा, ऐचकताना। जिनवचनं (नपुं०) सर्वज्ञवाणी, वीतराग वाणी। (मुनि०१५) जिह्यमेहनः (पुं०) मेंढक, जिनवाणी (स्त्री०) जिनवचन। (जयो० १३/५८) जिह्ययोधिन् (वि०) युद्ध के प्रति उदासीन योद्धा, युद्ध से जिनालयः (पुं०) जिनमन्दिर। (जयो० १९/१४) विमुख होने वाला। जिनशासनं (नपुं०) जिनेन्द्र कथन, (जयो० १/२२) जिनदेव । जिह्यशल्य (पुं०) खदिर वृक्ष, खैर का वृक्ष। का अनुशासन। (सम्य० १५५) जिह्वः (ढे+ड द्वित्वादि) जीभ। (वीरो० वृ० १/७) जिनशान्तिः (पुं०) जिनदेव शान्ति प्रभु। जिह्वल (वि०) [जिह्वाला+क) जिभला, चटोरा। जिनसंग्रह (पुं०) जिनभगवान (भक्ति० ३४) जिह्वा (स्त्री०) [लिहन्ति अनया] रस जीभ, रसना। (जयो० जिनसद्मन् (नपुं०) जिनालय। (वीरो० १५/४ वृ० १/७) (मुनि० ३०) 'जिह्वया गुणिगुणेषु सञ्चरन्' जिनसेवकः (पुं०) शिवभक्ति। (भक्ति० २४) (जयो० ३/२) जिनाङ्कः (पुं०) जिनमुद्रा (वीरो० २/३५) जिह्वाग्रभागः (पुं०) १. रसातल, रसना का अग्रभाग, जीभ जिनागमः (पुं०) जिनशास्त्र, अर्हत्, कथित आगम, सूत्रग्रन्थ। का अग्रभाग (जयो० वृ० १/९७) २. रसातल- पातललोक स्वरूपाचरणं भेदविज्ञानं जिनागमे।। शुद्धोपयोगनामानि (जयो० वृ० १/९७) कथितानि जिनागमे।। जिह्वानिर्लेखनं (नपुं०) जीभ से खुरचना। जिनाज्ञा (स्त्री०) जिनादेश। (भक्ति० २८) (सम्य० १४३) जिह्वापः (पुं०) १. कुत्ता, २. बिल्ली, ३. व्याघ्रा जिनागमोक्त (वि०) जिनागमकथित। (जयो० १८५८) जिह्वामूलं (नपुं०) जीभ का मूल, रसना की जड़। जिनेन्द्रः (पुं०) जिनेश्वर, अर्हत्, भगवान्, वीतरागी प्रभु। जिह्वामूलीय (वि०) क और ख से पूर्व विसर्गध्वनि तथा कण्ठ (सम्य० १५३) (समु० १/४) ___व्यञ्जनों की ध्वनि का द्योतक शब्द। जिनेन्द्र देवः (पुं०) जिन। (वीरो० १३/१६) जिह्वारदः (पुं०) पक्षी। जीभ से शब्द करने वाला। जिनेन्ददेवार्चा (स्त्री०) जिनपूजा। (वीरो० १५/४९) जिह्वाल (पुं०) लालची। (जयो० सुद० १२८) जिनयज्ञमहिमा (स्त्री०) जिनपूजन का महत्त्व। (सुद० ११४) जिह्वालिहू (पुं०) जीभ से चाटने वाला कुत्ता, श्वान। For Private and Personal Use Only Page #428 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जिह्वालौल्यं ४१७ जीवनयात्रा जिह्वालौल्यं (नपुं०) लालच, लाभ। जिह्वाशल्यः (पुं०) खदिर वृक्ष। जिह्वास्वादः (पुं०) चाटना, चखना, जिह्वोल्लेखनी (वि०) जीभ से खरचने वाला। जीन (वि०) [ज्या। क्त] वृद्ध, बूढ़ा, क्षीण। जीनः (पुं०) चर्म थैली। जीमूतः (०) [जयति नभः जीयते अनिलेन जीवनस्योदका मूतं बन्धो यत्र] १. मेघ, बादल। २. इन्द्र। जीमूतकूटः (पुं०) एक पर्वत। जीमूलवाहनः (पुं०) इन्द्र। जीमूतवाहिन् (पु०) धुआ। जीयः (वि०) जीवन। (वीरो० १८/३९) जीयादिदानी (वि०) जुदा जुदा। (समु० १/५) जीरः (पुं०) [ज्या रक्] १. असि, तलवार, २. जीरा। जीरकः (पुं०) जीरा। जीरणः (पु०) जीरा, एक औपधि गुण से परिपूर्ण जीर्ण (वि०) [+ क्त] १. पुराना, पुरा, पुरातन, २. सड़ा, गला, फटा हुआ, नष्टकाय। जीर्णः (पु०) वृद्ध, स्थविर। जीर्णं (नपुं०) १. गुग्गल। २. क्षीणता, ३. बुढ़ापा। जीर्णकरः (वि०) जीर्ण हुआ, क्षीण शुष्क। जीर्ण-ज्वरः (पुं०) पुराना बुखार, बहुत दिनों का ताप। जीर्णपणः (पुं०) कदम्ब वृक्षा जीर्णवाटिका (स्त्री०) पुरानी वाटिका, सूखी बावड़ी, क्षत-विक्षत वाटिका। जीर्णवजं (नपुं०) वैक्रान्तमणि। जीर्ण (स्त्री०) १. वृद्धावस्था, २. क्षीणता, कृशता, दुर्बलता। | जीव् (अक०) १. जीना, जीवित रहना, प्राणयुक्त होना। जीविष्यामि (जयो० वृ० ३/९७) २. निर्वाह करना, आजीविका करना, आश्रित रहना। जीव (वि.) जीवित, विद्यमान, प्राणवान्। जीवः (पु०) पाण, चेतना, चैतन्य शृणूत चेद बुद बुद् बुद्धि जीवः' (वीरो० १४/२१) श्वास, आत्मा, (सम्य० १५५) जीवो मतिं न 'हि कदाप्यूपयाति तत्त्वात्' (सुद० १२९) २... जीवद्रव्य-जीवाश्च केचित्तवणवः स्वतन्त्राः' (सम्य० २२) (सम्य० २१) ३. जीवन, अस्तित्व। (दयो० ३५) ४. व्यवसाय! जीवकः (पुं०) १. जीवधारी, २. सेवक, ३. प्राणक-(जयो० । २१/२७) ४. कुश, वृक्ष, (जयो० २१/३२) जीबन्धरकुमार (वीरो० १५/२४) जीवकदुमः (पुं०) कुश, आसन, प्राणधारी वृक्षा 'आसनो जीवकद्रुमे' (जयो० २१/३२) जीवकर्मन् (नपुं०) जीवकृत कर्म। 'इदं करोमि तु जीवकर्म' (सम्य० ३३) जीवग्रहं (नपुं०) देह, शरीर। जीवग्राहः (पुं०) जीवित पकड़ा गया कैदी। जीवघातः (पुं०) जीवन विनाश। (दयो० ३५) अस्तित्वात (वीरो० २२/७) अस्तित्व की समाप्ति। जीवजीव: (पुं०) चकवा, चकोरपक्षी। जीवनकाल: (पुं०) जीवन का समय। (जयो० वृ० ३/१) जीवद (वि०) जीवनदायका जीवं ददातीति जीविदो मरणासन्नो (जयो०६/७५) जीवदयाः (स्त्री०) जीवों के प्रति दया। (जयो० वृ० १/२१) जीवदशा (स्त्री०) जीवन की अवस्था। जीवधनं (नपुं०) पशुधन।। जीवधर्मन् (नपुं०) जीवन का ध्येय। जीवधारी (वि०) जीवनधारी, प्राणधारी। जीवन (वि०) [जीव+ ल्युट्] जीवन दायक, प्राणार्षण (जयो० २२/५५) प्राणप्रद, प्राणप्रदाता। प्राणधारक (जयो० ९/१४) (सुद०४/२५) 'दुर्दशा: किमिव जीवनं नयेत्' (जयो० २/९४) १. जल-नदीपक्षे जीवनं जलम् (जयो० वृ० २२/५५) (जयो० वृ० १४/७९) २. वृत्ति- (वीरो० १८/२२) स्वाध्यायमेतस्य भवेदथाधो यञ्जीवनं नाम समस्ति साधो:' (वीरो० १८/२२) जीवनदायिनी (वि०) प्राणदायिनी, जीवन प्रदात्री (जयो० ७० १/९६) जीवनत्रुटिः (स्त्री०) जीवन का अपघात, अपमरण, अकालमृत्यु (सुद० ११६) जीवननायकः (वि०) प्राणाधार, जीवनाधार (जयो० १२/१८) जीवन-निर्वहणं (नपुं०) आजीविका, जीवन की वृत्ति। (सुद० १३१) (जयो० वृ० ३/७) जीवनमूल्य (नपुं०) जल का मूल्य। (जयो० ३/१५) जीवन-यापनं (नपुं०) आजीविका, जीवन की वृत्ति, जीविका चलाने का माध्यम्। (दयो० ४९) जीवनयात्रा (स्त्री०) जीविका, आजीविका, जीवनवृत्ति (वीरो० १८/७) For Private and Personal Use Only Page #429 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org जीवनरीतिः जीवनरीतिः (स्त्री०) जीने की कला, जीवन की पद्धति। (दयो० १०८) जीवनवृत्ति (स्त्री०) आजीविका, जीवनयात्रा (वीरो० १८/७) जीवनान्तः (पुं०) मृत्यु, मरण, छूटना। जीवनाघातं (नपुं०) विष । जीवनाधारः (पुं०) जीवन का आधार । जीवनावास (पुं०) शरीर, देह जीवनोत्सर्ग: (पु०) प्राणपरित्याग (वीरो० २२ / ३० ) जीवनोपाय (पुं०) जीवन का उपाय, जीविका का साधन । किं जीवनोपायमिहाश्रयामि प्राणाः पुनः सन्तु कुतो बतामो (दयो० वृ० १६) जीवनोपयोगि (स्त्री०) जीवन सम्बन्धी (जयो० वृ० २/११३) जीवन्त (पुं०) १. जीवन, २. औषधी जीवन्धरः (पुं०) राजपुरी नगरी का राजा जेवक, जीबन्धर (गोरो० १५/२४) जीवभेदः (पु० ) जीव के भेद । (वीरो० १९ / २६ ) जीवबन्ध: ( पुं०) जीव का बन्ध जीवबद्ध (वि०) बद्धयुक्त जीव, बधा हुआ जीव। (समु० ८/१३) जीवमङ्गलं (नपुं०) जीव के हित जीवराशि (स्त्री०) जीवसमूह (वीरो० १४/५३) जीवविचय: (पुं०) जीव के उपयोग पर विचार करना । जीवविप्रमुक्त (वि०) जीवन से मुक्त हुआ, जीव रहित, ० अजीवत्व। जीवविषय: (पुं०) जीव की इच्छा। जीवसमासः (पुं०) जीवों का संक्षिप्तिकरण, विविध जातियों का परिजान! 'जीवाः समस्यन्ते एष्विति जीवसमासाः ४१८ ( धव० १ / १३१ ) जीवहिंसा (स्त्री०) जीवों का घात (जयो० ११ / २६ ) जीवाजीव (पुं०) जीव और पुद्गल । जीवादत्त (वि०) जीव द्वारा नहीं दिया गया। जीवानुभाग: (पुं०) समस्त द्रव्यों की शक्ति । जीविका (स्त्री० ) [ जीव्+अकन् अत-इत्वम् ] जीने का साधन, आजीविका, वृत्ति, रोजगार। (जयो० २ / ११२) जीवित ( वि० ) [ जीव+क्त] जीता हुआ। प्राणानां धारणं, भवधारण । जीवन युक्त होता हुआ, विद्यमान, सजीवता को प्राप्त स्वजीवन युक्त (जयो० १/२२) जीवितकालः (पुं०) जीवन की सीमा । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ज़ जीवितज्ञा ( स्त्री०) धमनी । जीवित व्यय (पुं०) प्राण परित्याग जीवित संशय: (पुं०) प्राण संकट | जीविताशया ( स्त्री०) जीने की कामना । जीवितेच्छा (स्त्री०) जीवन की इच्छा। जीवतेश्वर (पुं०) जीवन का वाळा (जयो० वृ० ६/३) जीविन् (वि०) विद्यमान सजीवता जीवोद्धारः (पुं०) जीवों का उद्धार । (दयो० ३४) जीव कल्याण, प्राणीहित । जीव्या (स्त्री०) [जीव्यत्+टाप्] आजीविका का साधन जुगुप्सनं (नपुं० ) [ गुप्• सन् ल्युट् निन्दा, अभिरुचि, घृणा, ग्लानि । कुत्साप्रकार, व्यलीककरण। जुगुप्सा ( स्त्री०) देखो ऊपर। जुगुप्सेऽहं यतस्तत्किं जुगुप्स्यं विश्वमस्त्यदः । शरीरमेव तादृशं हन्त यत्रानुरज्यते । (वीरो० १०/९) जुष् ( अक० ) १. प्रसन्न होना, संतुष्ट होना, २. अनूकूल होना, चाहना, ३. अनुरक्त होना, ४. अभ्यास करना ५. आश्रय लेना । For Private and Personal Use Only जुष् (वि०) प्रसन्न होने वाला, संतुष्ट होने वाला, खुश। जुष्ट (भू०क० कृ० ) [ जुष् + क्त] १. प्रसन्न हुआ, हर्षित हुआ, आश्रित, सम्पन्न, युक्त । २. सेवित- 'यदृच्छायन्त: करणं हि जुष्टम्' (सम्य० ७०/ जुष्टिः (स्त्री०) उपलब्धि। 'हर्षयुक्त प्राप्ति', प्रीतिपूर्वकोपलब्धि । (जयो० १६/४६) जुहुः (स्त्री०) काष्ठ चम्मच। जुहोति ( स्त्री० ) [ जु+शितप्] अनुष्ठानों से युक्त । जू : (स्त्री० ) [ जू+क्विप्] १. चाल, २. पर्यावरण, ३. सरस्वती । जूकः (पुं०) तुला राशि । जूट : (पुं० ) [ जुट्+अच्] १. जूड़ा, केश समूह जुड़ा। २. समूह, ढेर । (वीरो० २/१८) जूटकं (नपुं०) जटा । जूत (वि०) जुते हुए । 'त्यमूपु वाजितं देवजूतम्' (दयो० २८ ) जूति (स्त्री०) चाल, वेग, गति। जूर ( सक०) चोट पहुंचाना, मारना, क्रोधित होना । जूर्ति: (स्त्री० ) [ ज्वर् + क्तिन्] १. ज्वर, बुखार। (सुद० १०२ ) २. शक्ति (जयो० २७/४०) ३. संहार-समस्ति शाकैरपि यस्य पूर्तिर्दग्धोदरार्थे कथमस्तु जूर्ति (दयो० प१० ३८ ) जू (सक०) नम्र बनाना, नीचा दिखाना, आगे बढ़ जाना। Page #430 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir /जृम्भ ४१९ ज्येष्ठ जुभ/जुम्भ (अक०) उबासी लेना, जम्भाई लेना, विस्तार | जैनधर्मानुयायिनी (वि.) जैनधर्म का अनुयायी। (वीरो० करना, खिलना. मुकुलित होना। 'करद्वयं कुड्मलतामया- १५/३१) सीत्तयोर्जजृम्भे मुदपां सुराशिः। (सुद० २/२५) जैनवचस् (पुं०) जिन वचन, तीर्थंकर वाणी। (जयो० २४/६१) जृम्भः (पुं०) जमुहाई, उबासी लेना। खुलना, मुकुलित होना। जैनवचनं (नपुं०) जिन वचन, जैनदर्शन, जिनवाणी, जैनसिद्धान्त ज़म्भावती (वि०) जम्भाई लेती हुई। (हितसंपादक १) जम्भिणी (वि.) जमुहाई लेती हई। (जयो० १५/८२) । जैनवाक् (नपु०) जिनवाणी। (जयो० वृ० ३/१०) जृम्भित (वि०) परिवर्धनमान, विकसित होती हुई। जैनसिद्धान्तः (पुं०) जिनवचन, जैनदर्शन, विरागी वचन। 'जम्भजृम्भित-कोमलभावं' (जयो० १४/१८) (जयो० १०/७७) जेत (वि०) जीतने वाला। (सुद० २/१३) जैनसेननः (पुं०) जिनसेनाचार्य, महापुराण कर्ता। (सुद० ८२) जेतृ (वि०) [जि+तृच्] विजयी, विजेता, जयनशील। (जयो० जैनी (वि०) जैनमतानुयायी। १७/१०) इन्द्रियाणि विजित्यैव जगज्जेतृत्वमाप्नुयात्। (वीरो० जैनी (स्त्री०) नाम विशेष। भूत्वा परिव्राट् स गतो महेन्द्रस्वर्ग ८/२७) ततो राजगृहेऽपकेन्द्रः। जैन्या भवामि स्म च विश्वभूतेस्तुक् जेतृत्व (वि०) विजयी, विजेता। विश्वनन्दी जगतीत्यपूते।। (वीरो० ११/११) जेता (वि०) विजेता, विजयी (जयो० २/१२७) जैनेन्द्रव्याकरणं (नपुं०) संस्कृत व्याकरण का एक प्रसिद्ध जेतुः -विजयी (सुद०१/२) ग्रन्था (जयो० वृ० १५/३५) जेन्ताकः (पुं०) शुष्क-उष्ण स्नान। जैमिनि: (पु०) ऋषि। जेमनं (नपुं०) [जिम्+ ल्युट्] भोजन। (जयो० वृ० १२/११३) जैवातुक (वि.) [जीव्+णिच+आतकन] दीर्घजीवी। जेमनपात्रं (नपुं०) भोजन की इच्छा, खाने की इच्छा। 'अयि जैवातुकः (पुं०) १. चन्द्रमा, शशि। २. कपूर, ३. पुत्र। चेतसि जेमनोतिचार: सकलव्यञ्जनमोदनाधिकारः। जैवेयः (पुं०) [जीवस्य गुरोः अपत्यम्-जीव ढक्] एक उपाधि (जयो० १२/११५) वृहस्पति के पुत्र कच को उपाधि। जैत्र (वि०) [जेतृ+अण] विजयी, विजेता। जैह्यं (नपुं०) [जिह्य ष्यञ्] धोखा, टेढ़ापन, झूठा व्यवहार। जैन: (पुं०) जैन धर्मानुयायी, जिनमत का अनुयायी। जैनानां जोङ्गटः (पुं०) दोहद। सासादन शायामिव सम्यग्दर्शनस्यापवादधारायाम्। (दयो० जोमः (पुं०) उमंग, उत्साह। जैनकीर्तनं (नपु०) जिनदेव को अर्चना। (जयो० २/६०) जोषः (पुं०) [जुष्+घञ्] १. तूष्णीपूर्वक सरोष, चुप्पी। २. जैनकीर्तनकला (स्त्री०) जिनार्चन की शोभा (जयो० २/६०) प्रसन्नता, आनन्द, उत्साह, उमंग। (जयो० ८/२५) ३. इच्छानुसार। जैनतत्त्वं (नपुं०) जिन मत में प्रतिपादित सप्त तत्त्व, वैचारिक दृष्टि। जोषा/जोषित् (स्त्री०) [जुष्यते उपभुज्यते-जुष्+घञ्-टाप् जैनदर्शनं (नपुं०) जिनमत द्वारा प्रतिपादित स्याद्वाद-अनेकान्त जुष्इति] नारी, स्त्री। का वचन। (हित संपादक १) जोषिका (स्त्री०) [जुष्+ण्वुल+टाप्] स्त्री, नारी। जैनधर्मः (पुं०) जिनमत, जैन विचारक, जैन दृष्टि, जैन ज्या (स्त्री०) [ज्या+अङ्कटाप्] धनुष की डोरी। १. सीधी विचारधारा, जैन समुदाय। विबुधैः समितस्य जैनधर्मकृपया रेखा, एक-दूसरे अंश को मिलाने वाली रेखा। २. पृथ्वी सम्भवताच्च नर्मशर्म। (जयो० १२/९९) जातीयतामनुबभूव भूमि, ३. जननी। च जैनधर्म: विश्वस्य यो निगदितः कलितुं सुशर्म आगारवर्तिषु ज्यांशः (पुं०) धनुषगुण। (जयो० वृ० १०/११३) यतिष्वपि हन्त खेदस्तेनाऽऽश्वभूदिह तमां गणगच्छ भेद। ज्यानिः (स्त्री०) [ज्या+नि] बुढ़ापा। १. क्षय, २. छोड़ना, त्यागना। ३. नदी, दरिया। (वीरो० २२/१८) जैनधर्मप्ररोहार्थ (वि०) जैनधर्म के प्रचार हेतु खारवेलोऽस्य ज्यायस् (वि०) १. बड़ा, वयस्क, २. श्रेष्ठतर, योग्यतर, महत्तर बृहत्तर। राज्ञी च नाम्ना सिंहयश तु जैनधर्मप्ररोहार्थं प्रक्रमं भूरि ज्येष्ठ (वि०) [प्रशस्यो वा+इष्ठन्] (जयो० १५/७४) १. चक्रतुः।। (वीरो० १५/३२) अतिशयेन प्रशस्यं श्रेष्ठं च प्रशंस्य श्रा, ज्या च' प्रशस्यस्थाने जैनधर्मानुयाभित्व (वि०) जैनधर्म के अनुयायी होने वाले। ज्या इत्यादेशौ। जेठा, बड़ा, २. श्रेष्ठतम, उत्तमतर, प्रमुख, (वीरो० १५/३४) प्रथम, मुख्य, उच्चतम। गुरु-(जयो० २२/१७) १: जेठ मास। For Private and Personal Use Only Page #431 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ज्येष्ठत्व ४२० ज्वालामुखी ज्येष्ठत्व (वि०) गुरुत्व को प्राप्त, श्रेष्ठता युक्त। 'महत्त्वमनुष्ठानेन ज्योत्स्नाप्रियः (पुं०) चकोर पक्षी। वा श्रेष्ठत्वम् ज्योत्स्नावृक्षः (पुं०) दीपाधार, दीपस्तम्भ। ज्येष्ठ-कन्या (स्त्री०) बड़ी पुत्री, बड़ी लड़की। ज्योत्स्निका (स्त्री०) चन्द्रिका, चांदनी। (जयो० १५/६१) ज्येष्ठतात: (पु०) बड़े भाई, ताऊ, दाऊ। ज्योतिस्नी (स्त्री०) चांदनी रात। ज्येष्ठभ्रातृः (पु०) बड़ा भाई, ताऊ, दाऊ। ज्यौतिषिकः (पुं०) [ज्योतिष ठक] गणक, दैवज्ञ, निमित्तज्ञाता। ज्येष्ठमातृ (स्त्री०) बड़ी माता, ताई। ज्योतिषी। ज्येष्ठवर्णः (पुं०) सर्वोच्च वर्ण, सवर्ण, उत्तम कुल। ज्योत्स्नः (पुं०) शुक्ल पक्ष। ज्येष्ठवृत्तिः (स्त्री०) पूज्य प्रवृत्ति। ज्वर (अक०) संताप होना, बुखार होना, रुग्ण होना। ज्येष्ठव्यापारः (पुं०) उत्तम व्यवसाय। ज्वरः (पुं०) [ज्वर+घञ्] ताप, बुखार दर्पज्वर, मदनज्वर, शीतज्वर। ज्येष्ठश्वश्रुः (स्त्री०) बड़ी साली, जिठसास। ज्वरपरिहारः (पु०) ज्वर नियन्त्रण ओं ही अहं णमो अरहताणं ज्येष्ठसुखं (नपुं०) उत्तम सुख। (जयो० वृ० १०७/७४) णमो जिणाणं हाँ, ही, हूँ हौ ह्वः अ सि आ उ सा ज्येष्ठी (स्त्री०) जेठमास की पूर्णिमा। अप्रतिचक्रे फट् विचक्राय झौं झी स्वाहां एवं जपित्वा ज्यो (सक०) परामर्श देना, सलाह देना। यन्त्रप्रक्षालनोदकस्य शिरसि धारणेन ज्वरपरिहार: स्यात्। ज्योतिः (स्त्री०) प्रभा, कान्ति, आभा। तज्जयतु परं ज्योतिः (जयो० वृ० १९/५८) समं समस्तैरनन्तपर्यायैः। (सम्य० १५३) ज्वरप्रतिकारः (पुं०) ज्वर परिहार, ज्वर निरोधक औषधि। ज्योतिर्मयः (वि०) [ज्योतिस्+मयट्] प्रभा युक्त, कान्तिमय, ज्वरयुक्त (वि०) ज्वर से पीडित। नक्षत्र सहित, तारामंडल सहित। ज्वराग्निः (स्त्री०) ज्वर की ताप। ज्योतिरीश: (पु०) ज्योतिर्विद् ज्योतिमान। ज्योतिषामीशस्तस्य चरिन् (वि०) ज्वराक्रान्त, ज्वर से पीड़िता (सुद० ९१) कान्तिमतो ज्योतिर्विदो' (जयो० ७० ६/६८) ज्वरी (वि०) ज्यरयुक्त। ज्योतिष (वि०) [ज्योतिस्+अच] गणित/फलित ज्योतिष। । ज्वल् (सक०) १. चमकना, प्रदीप्त होना, दहकना, जलना। कान्तिमान् (जयो० वृ० ६/८८) ज्योतिषां रवि-चन्द्रादीनां (सम्य० १०३) २. देदीप्यमान होना, प्रकाश करना। श्रुतिरिवास्ति' (जयो० वृ० ५/५२) ज्वलत् (वि०) दह्यमान। (जयो० २७/६०) ज्योतिषः (पुं०) दैवज्ञ, गणक। ज्वलनं (नपुं०) जलना, दहकना. चमकना। ज्योतिषविद्या (स्त्री०) ज्योतिर्विज्ञान। ज्वजम्भलः (पुं०) नारंगी। (सुद० १/१९) ज्योतिषी (वि०) [ज्योतिः इव कायति] १. ग्रह, तारा, नक्षत्र, ज्वलनः (पुं०) अग्नि, आग। दैवसम्बिद, दैवज्ञ। (समु० २/१५) ज्वलंत (वि०) जलता हुआ। ज्योतिःशास्त्रं (नपुं०) निगमशास्त्र, (जयो० वृ० २/५८) ज्वलन (वि०) चमकता हुआ, दहकता युक्त। निमित्तशास्त्र (वीरो० २/८) ज्वलनमुद्रा (स्त्री०) कमलाकार बैठना। ज्योतिस् (नपुं०) [द्योतते द्युत्यते वा द्युत् इसुन्] १. प्रभा, ज्वरात (वि०) ज्वर से पीड़ित। कान्ति, दीप्ति, आभा, प्रकाश। २. विद्युत, बिजली, ज्योति। ज्वलित (वि०) [ज्वल्+क्त] दग्ध, जला हुआ, प्रदीप्त, भासित। ज्वलित काष्ठं (नपुं) उत्सुक जलते हुए काष्ठ। (जयो० वृ० ७/७९) ३. नक्षत्र, ग्रह, तारा। ज्वलितान्तर (वि०) भीतरी भाग से जला, अन्तर में दग्ध। ज्योतिष्कः (पुं०) देव, प्रकाश युक्त विमान में उत्पन्न। 'वेर्मयूखैज्वलितान्तराणाम्' (वीरो० १२/१९) द्योतयन्ति प्रकाशयन्ति जगदिति ज्योतीषि विमानानि, सेषु भवा ज्योतिष्काः। ज्वालः (पुं०) प्रकाश, दीप्ति, प्रभा। ज्वालनं (पुं०) प्रकाश, प्रभा, कान्ति, अग्नि। ज्योत्स्ना (स्त्री०) [ज्योतिरस्ति अस्याम्-ज्योतिस्+न] चांदनी, ज्वाला (स्त्री०) लौ, अग्निशिखा, दीप्ति। (सुद० २/१७) चन्द्रकला, (जयो० १२/१२९) चन्द्रप्रभा, चन्द्रमा का (वीरो० १२/७) प्रकाश (दयो० ११०) सञ्जीविनीव सा शक्तिर्विषा ज्योत्स्नेव ज्वालामुखी (वि०) लावा स्थान। मे विधोः। (दयो० ११०) For Private and Personal Use Only Page #432 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ज्वालिन् ४२१ ज्ञानकौमुदी ग्वालिन् (पुं०) शिव। ज्ञः (पुं०) [ज. और ञ् क संयोग से ज्ञ] पण्डित, ज्ञानी (जयो० २२/२६) जानना, अनुभव करना, ज्ञान, गुणग्रहण वेत्ता। आत्मा-जानोति ज्ञास्यत्यज्ञासीदनेन 'ज्ञ' इति। (वीरो० १७/३१) नास्यः कोऽपि बभूव दृशि ज्ञस्य (जयो० २२/२६) ज्ञ (वि०) [जा क] जानने योग्य, कार्यज्ञ, वेदज्ञ, ज्ञापक, शास्त्रज्ञ, वेत्ता, परिचित। ज्ञदेवः (पुं०) विज्ञजन (वीरो० १७/३५) ज्ञपित (वि०) ( ज्ञा+णिच्+क्त] सूचित, व्यक्त, बोधित, ज्ञानयुक्त किया गया। ज्ञप्तिः (स्त्री०) [ज्ञा णिच्+क्तिन्] बुद्धि, मति, समझ, जानकारी। (दयो० ११३) ज्ञा (सक०) जानना, सीखना, अनुभव करना, समझना, परीक्षण करना, व्यक्त करना, सूचित करना, खोजना। (ज्ञात्वाजानकर जयो० वृ० १/२०) पितुत्वा प्रभुः पुनः (वीरो० ८/२७) सच्चिदानन्दमात्मानं ज्ञानी ज्ञात्वाऽङ्गतः पृथक्। (सुद० ४/११) ज्ञा-जानाति (सम्य० १५) ज्ञात (वि०) [ज्ञा+ क्त] जाना गया, अनुभूत। (जयो० ९) समझा हुआ, सीखा गया। (वीरो० ११/१३) (वीरो० १६/७) ज्ञातरहस्यः (पुं०) रहस्य की जानकारी। (वीरो० ११/१३) ज्ञाता (वि०) अभीष्ट संवदक। (जयो० १५/५३) पण्डित, विद्वान्। (जयो० ३/२०) ज्ञाताकथा (स्त्री०) उदाहरण युक्त कथा, नाम विशेष। ज्ञातिः (पुं०) [ज्ञा+क्तिन्] पैतृक सम्बन्ध, पिता, भाई, बन्धु, बान्धव। ज्ञातिजन: (पुं०) कुटुम्बीजन, बन्धुजन। (जयो० ६/२७) ज्ञातिभावः (पुं०) सम्बन्ध, आपसी मेल।। ज्ञातिभेदः (पुं०) सम्बन्धियों में भेद, एक-दूसरे में भेद। ज्ञातिविद् (वि०) सम्बन्धियों की जानकारी। ज्ञातेयं (नपुं०) [ज्ञाति+ ढक्] सम्बन्ध। ज्ञातृ (पुं०) [जा+तुच्] १. पण्डित, ज्ञानी, विद्वान्, २. परिचित, सम्बन्धी 'ब्राह्मणादिषु ज्ञातिषु' (जयो० वृ० १/४८) ३. ज्ञान-'आत्मा ज्ञातृतया ज्ञानम्' सम्यक्त्वं चरितं हि सः। (सम्य०८४) ज्ञातृकथा (स्त्री०) तीर्थकर, गणधरों की कथा, ज्ञातपुत्र महावीर की कथा। ज्ञातृताभावः (पुं०) जानने का भाव, ज्ञातभावा 'पञ्चवर्णात्मक पवर्गज्ञातृताभावश्च' (जयो० वृ० १/४) ज्ञातृधर्मकथा (स्त्री०) कथोपकथाओं की कथा, छठा अंगागम ग्रन्था ज्ञानं (नपुं०) [ज्ञा+ ल्युट्] १. चेतना, आत्मा, चैतन्यता, सजीव (सम्य० वृ० १२२) २. जानना. बोध करना, समझना, ज्ञान यानि जानना, समझना। (सम्य० १२५) प्रज्ञा, बुद्धि, प्रवीणता। ३. विद्या, शिक्षण। ४. सम्यक् ज्ञान-'संशय, विपर्यय और अन्ध्यवसाय से रहित ज्ञान। (तात्वार्थ सूत्र, १/१, वृ०७) * जं जाणदि तं णाणं-जो जानना होता है, वह ज्ञान है। * पदार्थावबोध। * विशेषावबोध, विशेषग्राहि। * सविशेष जानना। * स्वसंवेदन रूप। * भूतार्थ प्रकाशक ज्ञान। * तत्त्वार्थ उपलम्भक, तत्त्वप्रकाशन। * सामान्य-विशेष को ग्रहण करने वाला। * जीव शक्ति। * साकार रूप का जानना। * तत्त्वतो ज्ञायते येन तज्ज्ञानम्। ज्ञायन्ते परिच्छिद्यन्ते। * द्रव्य-पर्यायविषयक बोध। * ज्ञातिर्ज्ञानम्। * शास्त्रवबोध * हेयोपादेय-वस्तुविनश्चय बोध। ज्ञानाद्विना न सद्वाक्यं ज्ञानं नैराश्यमञ्चतः। तस्मान्नमो नमोहाय जगनातिवर्तिने।। (वीरो० २०/२४) यज्ज्ञानमस्त-सकलप्रतिबन्धभावाद् व्याप्नोति विश्वगपि विश्व भवांश्च भावान् (वीरो० २०/२५) * विशिष्ट ग्रहण * स्वार्थ निर्णयात्मक। * विकल्पाभाव रूप बोध। ज्ञानं (सम्य०८४) ज्ञानस्य (सम्य०४१) ज्ञाने-(सम्य० १२१) ज्ञानकर्मन् (नपुं०) बोधक कर्म। ज्ञानकाण्डं (नपुं०) ज्ञान समूह, आत्मज्ञान, वेदज्ञान, ब्रह्मज्ञान। ज्ञानक्रिया (स्त्री०) जानने का उपक्रम। ज्ञानकुशीलः (पुं०) ज्ञानाराधना विमुख, ज्ञानाचार की आराधना से रहित। ज्ञानकेन्द्र (नपुं०) ज्ञान का खजाना। ज्ञानकौमुदी (स्त्री०) ज्ञानप्रभा। For Private and Personal Use Only Page #433 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ज्ञानकृत ४२२ ज्ञानशास्त्र ज्ञानकृत (वि०) जानकर किया गया। युक्त होता हुआ भी चारित्रहीन होना। 'स्खलितादिज्ञानगत (वि०) बोधगत, जाना गया। भिर्ज्ञानपुलाकः' ज्ञानगम्य (वि०) समझने योग्य, अनुभव करने योग्य। ज्ञानप्रमाणं (नपु०) ज्ञान का प्रमाण, आत्मा का अस्तित्व। ज्ञानगुणप्रशस्तिः (स्त्री०) वस्तु स्वरूप का गुणगान। (वीरो० ज्ञानप्रवादः (पुं०) पांचों ज्ञान का विचार, जिस ग्रन्थ में पांचों १७/२१) ज्ञान का विचार हो, ज्ञान प्ररूपणा वाला पूर्वग्रन्थ। ज्ञानचक्षुस् (नपुं०) बौद्धिक दृष्टि, मन की दृष्टि। ज्ञानप्रवृत्तिः (स्त्री०) ज्ञानधारक। ज्ञानचिन्तनं (नपुं०) बोधानुभव, आत्म-चिन्तन, आत्मा के सर्वेऽपि प्राणिनोऽस्माभिः सम ज्ञानप्रवृत्तयः। विषय में सोचना। अयं शत्रुश्यं बन्धुरित्यज्ञानमयी हि धीः।। (हितसंपादक वृ० ५८) ज्ञानचेतना (स्त्री०) शुद्धात्मानुभूति, वीतरागता; शुद्धोपयोग। | ज्ञानशक्तिः (स्त्री०) वस्तु स्वरूप के ज्ञान का कथन। चेत्यते अनुभूयते उपयुज्यते इति चेतना तस्य कर्मफल ज्ञानबालः (पुं०) ज्ञान से रहित। 'वस्तुयाथात्म्यग्राहिज्ञानन्यूना ज्ञानचेतना (सम्य० १३४) स्वरूपाचरणं भेद विज्ञान ज्ञान ज्ञानबालाः' (भ०आ०टी० २५) चेतना। शुद्धोपयोगनामानि कथितानि जिनागमे।। (सम्य०१४३) ज्ञानबोधिः (स्त्री०) ज्ञान की प्राप्ति। 'बोधनं बोधि: जिनधर्मलाभः। * केवल ज्ञान का अनुभव करना। ज्ञानबोधि:-ज्ञानावरण-क्षयो पशमसम्भृता ज्ञानप्राप्तिः। * प्राणों से रहित केवल एकमात्र ज्ञान का अनुभव। ज्ञानमदः (पुं०) ज्ञान अहंकार, विद्यापद, श्रुत के प्रति मद। * कृतकृत्य चेतन स्वभाव का अनुभव। ज्ञानमय (वि०) ज्ञानयुक्त, ज्ञान सहित। 'येणां * किञ्च सर्वत्र सद्दृष्टे नित्यं स्याज्ज्ञान चेतना, स्थितिर्ज्ञानमयैककल्पा' अविच्छिन्नप्रवाहेण यद्वाऽखण्डैकधारया।। (सम्य० १३३) ज्ञानमयी (वि०) ज्ञानयुक्त। (सम्य० ४०) (भक्ति० २) ज्ञानतत्त्वं (नपुं०) आत्मज्ञान, यथार्थज्ञान, सम्यग्ज्ञान। ज्ञानमाह्वयन्त (वि०) ज्ञान का निरूपण करने वाला (जयो० २३७२) ज्ञानतपस् (नपुं०) उत्कृष्ट तप, ज्ञान/बोधक जन्य तप। ज्ञानमूर्तिः (स्त्री०) ज्ञानप्रतिमा (दयो० १/४) ज्ञानतापस (वि०) ज्ञान परक तपस्या करने वाला। ज्ञानयज्ञः (पुं०) अध्यात्मवेत्ता, तत्त्वज्ञा ज्ञानदः (पुं०) शिक्षक, गुरु, अध्यापक। ज्ञानयोगः (पुं०) ज्ञान साधन, आत्मानुभूति का उपयोग, ज्ञानदा (स्त्री०) सरस्वती, मां भारती। शुद्धज्ञानोपयोग। ज्ञानदानं (नपुं०) चार प्रकार के दान में एक दान। ज्ञानयोग्य (वि०) जानने योग्य, ज्ञाप्य। (जयो० वृ०२/६५) ज्ञानदुर्बल (वि०) ज्ञानाभाव, ज्ञान की कमी। ज्ञानवत् (वि०) ज्ञानी, शास्त्रज्ञ, ज्ञाप्य। (जयो० वृ० २७/४६) ज्ञाननयः (पुं०) ज्ञान माहात्म्य का उपदेश, ज्ञान की प्रधानता ज्ञानवती (वि०) वेदिकी, वेदिनी, ज्ञानयुक्ता। (जयो० वृ० १४/९) वाला विचार। ज्ञानवान् (वि०) ज्ञान युक्त, ज्ञानी. शास्त्रज्ञ। पिशितस्य ज्ञाननिश्चयः (पुं०) बोध का स्थिरीकरण, ज्ञान की स्थिरता। दयाधीनमानसो ज्ञानवसौ। (सुद० १२९) ज्ञान निरूपणं (नपुं०) ज्ञान विवेचन। (जयो० २३/७२) ज्ञानवाञ्जनः (पुं०) ज्ञानी, विज्ञ। (जयो० २/६५) ज्ञाननिष्ठ (वि०) आत्मज्ञान प्रवीण। ज्ञानविधायिन् (वि०) ज्ञान सहित, ज्ञानपूर्वक। 'यतो नहि ज्ञानपर (वि०) ज्ञानवान, ज्ञान युक्त। ज्ञानविधायिकर्मकर्तुं तदा प्रोत्सहतेऽस्य नर्म।। (सम्य० ४१) मुनिः कोपीन वासास्स्यान्नग्नो वा ध्यान तत्परः। ज्ञानविभूषण (वि०) ज्ञानयुक्त, ज्ञान सहित। एवं ज्ञानपरो योगी ब्रह्म भूयाय कल्पते।। (दयो० वृ० २४) ज्ञानविभूषणात्मक (वि०) ज्ञान से परिमंडिता ज्ञानपण्डितः (पुं०) सम्यग्ज्ञान से परिणत जीव, 'पञ्चविधज्ञान- ज्ञानविभूषात्मक (वि०) ज्ञानरूप आभूषण युक्त। 'लब्ध्वा परिणतो ज्ञानपण्डितः' (भ०आ०टी० २५) ज्ञानविभूषणात्मकतया भूरामलः संभवेत्। (मुनि० ३३) ज्ञानपण्डितमरणं (नपुं०) ज्ञान परिणत जीव का मरण। ज्ञानविराधना (स्त्री०) ज्ञानापलाप, ज्ञान का प्रतिकूल आचरण। ज्ञानपथं (नपुं०) ज्ञानमार्ग। ज्ञान वृत्तात्मन् (पुं०) ज्ञान युक्त आत्मा। (सम्य० ५३) ज्ञानपरीषहजयः (पुं०) श्रुतज्ञान के प्रति अभिमान। ज्ञानशास्त्र (नपुं०) १. ज्योतिषशास्त्र, नैमिनिक शास्त्र। २. ज्ञानपुलाकः (पुं०) अतिज्ञान युक्त, ज्ञान वाला साधु, ज्ञानाश्रय आत्मज्ञान सम्बंधी ग्रन्थ। For Private and Personal Use Only Page #434 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ज्ञानसमयः ४२३ ज्ञानसमयः (पुं०) ज्ञानसमय, संशय, विमोह और विभ्रम ११/३३४) 'ज्ञानभावनायां नित्ययुक्तता ज्ञानोपयोगः' रहित, निश्चयात्मक बोध, ज्ञानागम। ज्ञानिन् (वि०) [ज्ञान इनि] बुद्धिमान्, प्रज्ञावंत, विज्ञ, ज्ञानसरोवरः (पुं०) ज्ञान तडाग, ज्ञान-ध्यानरत। स्नानं ज्ञानसरोवरे । प्रतिभाशाली। 'न हि किञ्चिदपि निसर्गादगोचरं ज्ञानिनां भवति' यतिपतेर्वासासि सर्वा दिशः। (मुनि० २०) (वीरो० ४/३४) 'प्रकुरु ज्ञानि भ्रातः' (सुद० ११४) ज्ञानसाधनं (नपुं०) आत्मज्ञान का साधन। ज्ञानी (स्त्री०) वेत्ता, प्रतिभाशाली। (सुद० ४/११) सच्चिदानन्दज्ञानस्वरूप (पुं०) ज्ञानवान् युक्त आत्मा, सचेतनात्मा का मात्मानं ज्ञानी ज्ञात्वाऽङ्गतः पृथक्। लक्षण। सचेतनाचेतनभेद भिन्नं ज्ञानस्वरूपं च रसादिचिह्नम्। ज्ञानीचित्तः (पुं०) विज्ञहृदय। (जयो० २६/७७) (वीरो० १४/२५) ज्ञानकता (वि०) ज्ञान में तन्मयता। (भक्ति० २९) ज्ञानस्वभावः (पुं०) ज्ञानात्मक परिणाम। ज्ञानकविलोचनं (नपुं०) ज्ञानमात्र से अवलोकना (वीरो० ४/३६) ज्ञानाकारः (पुं०) ज्ञान स्वरूप। ज्ञापक (वि०) [ज्ञा+णिच्+ण्वुल] संकेतक, सूचना देने वाला। ज्ञानाचारः (पु०) वस्तु के यथार्थ स्वरूप की परिणति। ज्ञापकः (पुं०) शिक्षक, अध्यापक। ज्ञानात्मन् (वि०) सर्वविद, सर्वज्ञायक। (वीरो० १३/२८) ज्ञापकं (नपुं०) व्यञ्जनात्मक नियम। ज्ञानातिचारः (पुं०) ज्ञान में दोष। ज्ञापनं (नपुं०) [ज्ञा+णिच् ल्युट्] सूचना, संदेश, प्रसारण, घोषणा। ज्ञानादरः (पुं०) ज्ञानी, वेत्ता। (जयो० २७/४५) ज्ञापय् (सक०) संकेत करना, सूचित करना। ज्ञापयामास ज्ञानाधारः (पुं०) ज्ञानाश्रय, आत्माधीन। (जयो० १०५) ज्ञानाधीनः (पुं०) ज्ञानाश्रय। ज्ञापित (वि०) [ज्ञा+णिच्+क्त] सूचित, घोषित, उद्घोषित ज्ञानानुत्पादः (पुं०) मूर्ख, मूढ। किया गया। ज्ञानामूर्तिः (वि०) शुद्धात्म का अनुभव। ज्ञाप्य (वि०) जानने योग्य, ज्ञानयोग्य। (जयो०२/६५) 'ज्ञाप्यज्ञानान्तर्गत (वि०) ज्ञान के अन्दर। यज्ज्ञानान्तर्गत भूत्वा त्रैलोक्यं माप्यमथ हाप्यमप्यदः' गोष्यदायते। (दयो० २/३) ज्ञायक (वि०) जानने वाला, त्रैकालविषयक ज्ञाता। 'ज्ञायको ज्ञानाराधना (स्त्री०) जीवादि तत्त्वों का अधिगम, श्रुतज्ञान का ज्ञो वा' (जैन०ल० ४७७) (सम्य० १५२) निरतिचार पालन। ज्ञायकशरीरं (नपुं०) तीन काल विषयक ज्ञाता का शरीर, सशरीर ज्ञानार्णवः (पुं०) ज्ञानार्णव नामक ग्रन्थ, जिसके प्रणेता शुभचंद्र सिद्ध शिलागतशरीर, निषीधिकागत शरीर-'ज्ञातुर्यच्छरीरं हैं। (जयो० २८/४८) त्रिकालगोचरं तत् ज्ञायकशरीरम्' (स०सि० १/५) ज्ञानार्णवोदयः (पुं०) ज्ञानार्णव नामक ग्रन्थ का उदया ज्ञानार्णवस्य | ज्ञायक शरीर-अर्हन् (पुं०) अर्हत्-प्राभूत के ज्ञाता के त्रिकाल ज्ञानसमुद्रस्स उदयाय शुभचन्द्रता शोभनचन्द्रमस्त्वन् आसीत्। सम्बंधी शरीर। ज्ञानार्णवोदयासीदमुष्य शुभचन्द्र ता। योगतत्त्व- ज्ञायकशरीद्रव्यकृतिः (स्त्री०) त्यक्त शरीर वाले कृति प्राभूत समग्रत्वभागजायत सर्वतः।। (जयो० २८/४८) के ज्ञाता का शरीर। ज्ञानामृतं (नपुं०) ज्ञानात्म रूप अमृत। ज्ञानामृतं भोजनमेकस्तु | ज्ञेय (वि०) जानने योग्य, ज्ञान योग्य, ज्ञाप्य। (जयो० २८/३९) सदैव कर्मक्षपणे मनस्तु। (सुद० १२७) सामान्य-विशेषात्मक वस्तु। (सम्य० १५२) 'यदस्ति ज्ञानावरणं (नपुं०) ज्ञान के आवारक कर्म। ज्ञानाच्छादन, वस्तूदितनामधेयं ज्ञेयम्' (वीरो० २०/१९) जो कोई भी (तत्त्वार्था मूल० ८/४, वृ० १२३) वस्तु है, वह ज्ञेय है। * आवियतेऽनेनावृणोतीति वावरणं, ज्ञानस्यावरणं ज्ञानावरणम्। | ज्ञेयाकारः (पुं०) प्रतिबिम्ब के आकार से परिणत, ज्ञानावरणीयं (नपुं०) ज्ञान के आवरक कर्म, ज्ञानाच्छादन। । ज्ञानयोग्य-आकृति। 'ज्ञानमावृणोतीति ज्ञानावरणीयम्' (धव० १३/२०६) ज्ञेयात्मन् (पुं०) ज्ञेय स्वरूप। ज्ञानावरणीय-वेदना (स्त्री०) ज्ञानाच्छादन की रूप कर्म द्रव्य। ज्ञानोपयोगः (पुं०) सम्यग्ज्ञान की प्रवृत्ति रूप उपयोग। साकार झ पदार्थ विषयक उपयोग। 'सागारो णाणोवजोगो' (धव० झः (पुं०) चवर्ग का चौथावर्ण, इसका उच्चारण स्थान तालु है। For Private and Personal Use Only Page #435 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ४२४ झोषः झः (पुं०) [झट+ड] झंझावात, झन झन, खन खन। झग-झगायति-चमकना, दमकना, चमचमाना। झगति (अव्य०) झटिति, शीघ्र, तुरन्त। (जयो० ६/७२, समु०७/१५) झगिति देखो ऊपर। झङ्कारः (पुं०) झन-झनाहट, भिन भिनाना। झङ्कतं (नपुं०) झन-झनाहट, खन खनाहट। कलकृतामितिझंकृत नपुरं क्वणित-किङ्किणी-कङ्कृत-कङ्गणम्। (वीरो०६/२९) झङ्कारिणी [झङ्कार+इनि+ङीप्] भागीरथ, गंगानदी। भकृतिः (स्त्री०) [झम्+कृ+क्तिन्] खन-खनाहट, झन-झनाहट। झञ्झनं (नपु०) [झञ्झ्+ल्युट्] झनझनाना, खनखनाना, आभूषणों का शब्द विशेष। झज्झा (स्त्री०) [झमिति अव्यक्तशब्दं कृत्वा झटिति वेगेन वहति-झम्+झट्+ड+टाप्] तूफान, आंधी, हवा और पानी। झञ्झानिलः (पुं०) तूफान, आंधी, अन्धड़, तेज हवा, गतिवान् चक्रावात। झञ्झानिलोऽपि किं तावत्कम्पेयेन्मेका (वीरो० १०/३६) झञ्झावात: (पुं०) तूफान, आंधी, अन्धड़, तीव्रगामी हवावेग। (वीरो० १०/१३) (जयो० वृ० १५/२१) झञ्झावायु (स्त्री०) तीव्रवेग युक्त हवा, तूफान, आंधी, अन्धड़। झटिति (अव्य०) शीघ्र, तुरन्त, जल्दी से। झणझणं (नपुं०) [झणत+डाच्] झनझनाहट। झणझायित (वि०) झन-झन करता हुआ, खन-खनाहट युक्त। झणिका (स्त्री०) शोषिका। (जयो० २/१३३) झणत्कारः (पुं०) झनझलाहट। झप्पनं (नपुं०) झोंखा। (जयो० वृ० २४/११) हवा का प्रहार। झम्पः (पुं०) छलांग, उछल कूद। झम्या (स्त्री०) [झम्+पत्+टाप्] छलांग, कूद, गिरना, उछलना। झम्पाकः (पुं०) बन्दर, लंगूर। झरः (पुं०) झरना, प्रपात, निर्झर, जलप्रपात, प्रवाह। (जयो० १४/९३) झरदुत्तरल (वि०) झरती हुई चंचल, झज्ञमनुकुर्वती उत्तरले (जयो० २६/६९) झरा (स्त्री०) निर्झर, झरना। झर्झरः (पुं०) [झर्झ+अरन्] झांझ, मञ्जीरा, (जयो० १२/७९, १०/१९) झर्झरिन् (पुं०) शिव। झलझला (स्त्री०) [झलझल इत्यव्यक्तः शब्दः] झड़ी, फड़फड़ाहट। झलझलावशी (स्त्री०) झंझावात के आधीन। झलंझलावशीभूता समेति व्येति या ध्वजा। (वीरो० १०/१३) झला (स्त्री०) लड़की, धूया, पुत्री, कन्या। झल्लः (पुं०) मल्ययोद्धा। झल्लकं (नपुं०) [झल्ल-कन्] झांझ मीरा। झल्लरी (स्त्री०) [झर्ड्स+अरन् ङीष्] झांझ, मंजीरा, एक वाद्य विशेष चर्म से मढा हुआ गोल आकार वाला वाद्य। झल्लरी चर्मावनद्ध-विस्तीर्ण-वलयाकारा आतोद्यविशेषरूपा। झल्लरीसंस्थानं (नपुं०) झालर के आकार वाला लोक, मध्यलोक। झल्लिका (स्त्री०) १. उबटन, २. प्रभा, कान्ति, चमक। झषः [झष्+अच्] मछली, मत्स्य। (दयो० २/२) (जयो० २१/६१) मगरमच्छ, मीन (वीरो० ७/११) २. गर्मी, ताप, सन्ताप। झषकेतनः (पुं०) कामदेव, मदन। झषकेतुः (पुं०) कामदेव। झषता (वि०) मछलीपन। झषस्य च शफरता, रलयोरभेदात् सफलता झषता वा मुत:? (जयो० वृ० ९/१४) झषयुग्मः (पुं०) मीन युगल, स्वप्न में दृश्य मछली का जोड़ा। 'विनोदपूर्णो झषयुग्मसम्मितिः' (वीरो० ४/५९) झषावर्तः (पुं०) मत्स्योवृत्त, आचार्य वन्दनादि के लिए घूमकर जाना। झषाशनः (पुं०) सूंस झाङ्कृतं (नपुं०) [झङ्कृत्+अण] १. पायजेब, झांझन। २. छपधप शब्द। झाटः (पुं०) [झट्+घञ्] १. पर्णशाला, लतामण्डप। २. कान्तार। झिटिः (स्त्री०) [झिम्+रट्+अच्+ङीष्] झाड़ी विशेष। झिरिका (स्त्री०) झींगुर। झिल्लिः (स्त्री०) १. झींगुर, २. वाद्य यन्त्र। झिल्लिका (स्त्री०) [झिल्लि+कन्+टाप्] १. झींगुर, २. दीप्ति, प्रभा, चमक। झिल्ली (स्त्री०) झींगुर, दीपवर्तिका। झीसका (स्त्री०) झींगुर। झुण्डः (पुं०) वृक्ष, झाड़ी। (सुद० १०१) झुषिरः (पुं०) तृण शय्या। झोषः (पुं०) एक गणित, जिस राशि के मिलाने पर भागहार सम होता है। For Private and Personal Use Only Page #436 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ४२५ डमरः ञः चवर्ग का अंतिमवर्ण, इसका उच्चारण स्थान तालू और नासिका है। टण: (पुं०) टंकार, घंटे की ध्वनि। टनः देखो ऊपर। टहरी (स्त्री०) [टहेति शब्दं राति रा+क+ङीष] एक वाद्ययन्त्र, परिहास। टाङ्कारः (पुं०) [टङ्कार+अण्] झनझनाहट, ध्वनि। टिक् (अक०) टिकना, चलना-फिरना। टिटिभः (पुं०) पक्षी, टिटिहिरी पक्षी। टिप्पणी (स्त्री०) वृत्ति, टीका, व्याख्या, भाष्य, वार्तिक। टिप्पिणिका (स्त्री०) वृत्ति, व्याख्या। भाष्य। (जयो० वृ० १८/६१) टीक (अक०) टहलना, चलना-फिरना। टीका (स्त्री०) [टीक्यते गम्यते, ग्रन्थाथों] व्याख्या, वृत्ति। दु-टवर्ग। (जयो० वृ० १/३९) (जयो० वृ० ३/३६) टुण्टुक (वि०) [टुण्टु इति अव्यक्त शब्दं कायति] १. छोटा, ___ अल्प, २. दुष्ट, क्रूर। टुता (स्त्री०) टवर्ग की पालनकर्ती। टवर्गस्य प्रतिपालनकर्ती (जयो० २१/७८) टेकः (पुं०) कलाधर, गीत की पुनरावृत्तिा टध्वनौ का आत्मवान्। (जयो० ५/३२) टोलगतिवन्दनं (नपुं०) उछल कूदकर वंदना। । ट: (पुं०) यह टवर्ग का प्रथम वर्ण है, इसका उच्चारण स्थान __मूर्द्धा है। इसके उच्चारण में तालु से जिह्वा लगानी पड़ती है। टका (स्त्री०) पैसा टकटकायते -देखते रहना (दयो० ८२)। टङ्क (सक०) कसना, बांधना, ढकना, छिद्र करना। टङ्कः (पु०) [ टङ्क घञ्] १. चार मासे एक तोला, २. धातु का नियत मान। शिल्प (जयो० १७/५२) ३. सिक्का, असि, ४. टॉकी, ५. कुल्हाड़ी, कुठार। (जयो० . २४/१३६) ६. तलवार, असि, ७. टॉकी से काटा हुआ पत्थर। ८. क्रोध, अहंकार, गिरिगर्त। ९. सुहागा, खजाना, १०. म्यान, ११. पैर लात। टडूकः (पुं०) चांदी का सिक्का, रजत मुद्रा टंकण। टङ्काकृत चिह्न (नपुं०) चन्द्रचिह्न। (जयो० वृ० १५/५२) टङ्कलशाला (स्त्री०) टकसाल, टंकणयन्त्र। टङ्कणं (नपु०) [टङ्क ल्युट्] १. सुहागा, २. टांका, धातु का ___ जोड़। टङ्कणः (पुं०) अश्व विशेष। टङ्कणक्षारः (पुं०) सुहागा। टङ्कणयन्त्रं (नपुं०) छापाखाना, छापने का यन्त्र। टड्कानकः (पुं०) ब्रह्मदारु, शहसूत। टङ्कारः (पुं०) धनुष की डोरी की ध्वनि, चीत्कार, चीख। टक्कारपूरित (वि०) गर्जन संभृत। (जयो० ३/११) टङ्कारिन् (वि०) [टङ्कार+इनि] ध्वनि करने वाला, फूत्कार की ध्वनि वाला शब्द, झंकार करने वाला। टकिका (स्त्री०) [टङ्क कन्+टाप्] कुल्हाड़ी, कुठार, टांकी। ___ (जयो० ६/६०) टङ्कोट्टङ्कः (पुं०) १. टांकी, प्रहार, २. ग्रावदारणास्त्र। टंगः (पुं०) कुठार, कुल्हाड़ी, कुदाल। टङ्गण: (पुं०) सुहागा। टङ्गा (स्त्री०) टांग, लात, पैर। टङ्गिनी (स्त्री०) सुहागा। ठः (पुं०) टवर्ग का दूसरा वर्ण, इसका उच्चारण स्थान मूर्द्धा है। ठः (पुं०) एक ध्वनि, ठन ठन की ध्वनि। ठः ठः (पुं०) ठकार, मन्त्र शास्त्र में प्रयुक्त वीजाक्षर। (जयो० १६/८२) 'ठकारौ वर्णी विलक्षतस्तराम् अतिशयेन शुशुभते' (जयो० वृ० १६/८२) ठकः (पुं०) दिवालिया। (दयो० ११८) ठकत्व (वि०) ठक, ठक की ध्वनि वाला। (सुद० १/३४) ठक्कुरः (पुं०) सम्मान सूचक शब्द, पूज्य शब्द। ठगः (पुं०) दिवालिया, ठग। (दयो० ११८) ठालिनी (स्त्री०) करधनी। द डः (पुं०) टवर्ग का तृतीय वर्ण, इसका उच्चरण स्थान मूर्धा है। (जयो० १४/८४) डमः (पुं०) [ड+मा+क] डोम। डमरः (पुं०) झगड़ा, दंगा, भगदड़, ताडन, मार। For Private and Personal Use Only Page #437 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir डमरक (वि०) ४२६ णगण डमरक (वि०) प्रताड़न करने वाला, झगड़ने वाला। डी (सक०) उड़ाना, भगाना। डमरु (नपुं०) एक वाद्य विशेष, डुगडुगी एक हाथ में पकड़ डीन (भू०क०कृ०) उड़ा हुआ। कर हिलाने पर डुग-डुग शब्द निकलता है। यह बीच में डीनं (नपुं०) पक्षी उड़ान। पतला और दोनों ओर एक सा गोल, चर्म से आच्छादित, डुण्डुभः (पुं०) विषहीन सर्प दोनों ओर रस्सियों के बंध से युक्त, उन्हीं रस्सियों से | डुलिः (स्त्री०) कछवी, छोटा कूर्म। अग्रभाग में गांठ होती है, जो हाथ की मुट्ठी से बीच में | डोमः (पुं०) एक आदिवासी जाति। पकड़कर जब हिलाया जाता है, सब डुगडुग शब्द निकलता है। डमरुकमुद्रा (स्त्री०) आसन की एक स्थिति। डम्ब (सक०) फेंकना, भेजना, आदेश देना, देखना। ढ डम्ब (वि०) अनुकरण करना, तुलना करना। ढः (पुं०) टवर्ग का चतुर्थ वर्ण, इसका उच्चारण स्थान मृर्द्धा है। डम्बर (वि०) [डम्ब्+अरन्] १. प्रसिद्ध, विख्यात। २. समवाय, ढक्का (स्त्री०) [ठक इति शब्देन कायति] ढोल, नक्कार, संग्रह, संचय, समूह, ढेर। ३. सादृश, समानता, ४. नगाढा-भेरी, (जयो० २२/६१) अहंकार, गर्व। ढक्काढक्कारः (पुं०) ढक्का की आवाज, भेरी का प्रचण्ड डम्भ (सक०) इकट्ठा करना, एकत्रित करना, संग्रह करना। गर्जन। (जयो० ३/१११) डयनं (नपुं०) १. उड़ान, २. पालकी, ढोली। ढक्कानिनादः (पुं०) युद्धवादित्र का घोष। (जयो०८/६२) डवित्थः (पु०) काठ का बारहसिंहा। ढड्ढरं (नपुं०) उच्च स्वर से उच्चारण। डाकिनी (स्त्री०) पिशाचिनी, भूतनी। ढामरा (स्त्री०) हंसनी। डाकृतिः (स्त्री०) [डाम् कृ+क्तिन्] घण्टी बजनें की ध्वनि। ढालं (नपुं०) १. म्यान, कवच, आवरण। २. एक अध्याय। डामर (वि०) [डमर+अण] १. डरावना, भयावह, भयानक। ढालिन् (पुं०) ढालधारी योद्धा। २. दंगा करने वाला। ढुण्ढिः (पुं०) गणपति। डायस्थितिः (स्त्री०) बन्ध स्थिति का एक रूप, जहां स्थिति ढोल: (पुं०) ढोल, मृदङ्ग, बड़ी ढपली। स्थान में स्थित होकर उसी प्रकृति की उत्कृष्ट स्थिति को बांधना। ढोंक् (सक०) जाना, पहुंचना। डालिमः (०) दाडिम, अनार। ढोंकन (नपुं०) भेंट, उपहार। डाहलः (पुं०) एक देश विशेष। डिङ्गरः (पुं०) १. सेवक, २. ठग, धूर्त। डिण्डिमः (पुं०) [डिडीति शब्दं नाति डिण्ड+मा+क] एक ण: (पुं०) टवर्ग का पञ्चम वर्ण, इसका उच्चारण स्थान मूर्धा छोटा ढोल। ढिंढोरी-'जिनवन्दनवेदिडिण्डिमः' (वीरो० ७/६) है। प्राकृत भाषा में इसका प्रयोग मिलता है। जो 'न' को डिण्डिममानक प्रस्थान भेरी (जयो० १३/४) 'ण' के रूप में परिवर्तित होता है। डिण्डीरः (पुं०) १. कवच, २. झाग। आचार्य ज्ञानसागर के जयो० दय महाकाव्य के १९वें सर्ग डिमः (पुं०) दश प्रकार के रूपकों के भेद में एक भेद। में मन्त्रविधि के साथ 'ण' का प्रयोग है। 'णमोत्थु' डिम्बः (पुं०) [डिब्+घञ्] १. छोटा बच्चा, २. दंगा, ३. (जयो० १९/७६) णमो परमोहि जिणाणं (जयो० २१/६०) पिण्ड, ४. अण्डा। णः (पुं०) णकार, ज्ञान-वेदिरङ्गुलिमुद्राया बुधेः संस्कृतभूतले डिम्बयुद्धं (नपुं०) छोटी लड़ाई। णकारो निर्णये ज्ञाने इति च विश्वलोचनः। (जयो० २६/४४) डिम्बिका (स्त्री०) [डिम्ब् ण्वुल टाप्] १. कामुक। स्त्री २. बुलबला। णकारः (पुं०) 'ण' वर्ण। णकारी निर्णय ज्ञाने इति विश्व डिम्भः (पुं०) [डिम्भ्+अच्] छोटा बालक। १. शेरनी का (जयो० २६/४४) शावक। णगण (पुं०) एक गण मात्रिक गण। डिम्भकः (पुं०) १. छोटा बालक। २. जानवर का शावक। ण For Private and Personal Use Only Page #438 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir Serving Jin Shasan 146907 gyanmandirkobatirth.org ISEN 81-8315-048-9 vधुपा पारपोरेशन 5824, शिव मंदिर के पास, न्यू चन्द्रावल, जवाहर नगर, दिल्ली - 110007 दूरभाष : 91-11-23851294, 23850437 ई मेल : newbbc@indiatimes.com 1917881830150484 // For Private and Personal Use Only