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आताप:
१४६
आत्मत्राणं
आताप: (पुं०) [आतप्+घञ्] १. सन्ताप, दुःख, कष्ट,
पीडित। (भक्ति० २४) २. गर्मी, उष्णता, तपन। आतापिन् (वि०) [आ+तप्। णिनि] १. संतप्त किया गया।
(पुं०) पक्षी विशेष, गृद्ध, चील। आतिथेय (वि०) [अतिथिषु साधुः-ढञ् अतिथये इदं ढक्
वा] अतिथियों के अनुकूल, अतिथि सत्कार। 'आतिथेयेन विलसन्ती करुणा येषां ने तेषामातिथेय। ' (जयो० ५/२९) आतिथ्य (वि०) [अतिथि ष्य] सत्कारशील, अतिथि सत्कार। ___ 'आतिथ्ये वस्त्रुटिरेव तु न:।' (जयो० १२/१३६) आतिथ्यविधिः (स्त्री०) अतिथि सत्कार, सत्कारशील विधि।
तासां किलाऽऽतिथ्यविधौ नरेश। (वीरो०५/२) आतिथ्यविधानं (नपुं०) अतिथि सत्कार, स्वागताचरण। पति
यतीनां समुतिं प्रतीक्ष्य तदा तदातिथ्य-विधानदीक्षम्। (जयो०
१४८०) आतिथ्यरूपः (पुं०) अतिथि सत्कार। (दयो० २४) आतिथ्यसत्कार: (पुं०) स्वागताचरण, अतिथि सेवा, अतिथि
सम्मान। सुदर्शनपिताऽप्यत्राऽऽतिथ्यसत्कार तत्परः। (सुद०
३/४४) आतिदेशिक (वि०) [अतिदेश:+ठक्] उपदेश से सम्बन्धित,
अतिदेश से सम्बन्धित। आतिरेक्यं (नपुं०) अधिकता, विशालता, अत्यधिक, बृहत्तर। आतिशय्यं (नपुं०) [अतिशय+ष्यञ्] अतिशयता युक्त,
विशालतम, बहुत्व परिणाम। आतुः (स्त्री०) बेड़ा, वांसादि का बनाया गया घेरा, बाँड। आतुलित (वि०) आगे-पीछे होने वाली। (वीरो० १९/१९) आतुरः (वि०) [ईषदर्थ आ+ अत्+ उरच्] १. उत्कण्ठापूर्ण-पातुं
नृपातुरतया तु न यातु कश्चिद्। (जयो० २७/६४) २. कष्टानुभवी, कष्ट को अनुभव करने वाला-'तनये मन एतदातुरं तव।' (जयो० १३/९) ३. घायल, ०पीड़ित, ०दु:खी, त्रस्त, प्रभावित।
४. उत्सुक, तत्पर, ०सन्नद्ध, क्रियाशील। आतुरः (पुं०) रोगी, व्याधिग्रस्त मनुष्य। आतोद्यं (नपुं०) यन्त्र विशेष, वाद्य यन्त्र। (वीरो० २/३३) आतोद्यनाद (पुं०) भेरी शब्द। वाद्यं वादित्रमातोद्यं काहलादि
निरुच्यते इति विश्व० आत्त (भू० क० कृ०) [आ+दा+क्त] ०समागत, प्राप्त,
०लब्ध, उपार्जित, ०आया हुआ, प्रतिगृहीत, ०स्वीकृत, ०अंगीकृत्। जगाम मैरेयभृते त्वमत्र आघ्रातुमात्तप्रतिमेऽलिरत्र। ।
(जयो० १६/४८) आत्तानां समागतानामलीनाम्। (वीरो०
वृ०२/१२) आत्त-कल्मष (वि०) मलिनता युक्त, पाप जन्य। तुरगा अपि
ते रजस्वलावनि संपर्कत आत्तकल्मषा:। (जयो० २१/६५) आत्तनयी (वि०) गृहीत, लिया गया, समागता। स्वयमिति
यावदुपेत्य महीश: मरणार्थमस्यात्तनयी सः। (सुद० १०८) आत्तमूर्ति (स्त्री०) साक्षात् प्रतिमा। (सुद० २/२४) आत्तवरद (वि०) लाना, प्राप्त होना। आत्ता वरदा कन्या येन
सा। (जयो० वृ० ३/११६) आत्मक (वि०) [आत्मन् कन्] ०स्वाभाविक, आत्मजन्य,
स्वभाव स्वरूप। आत्म-कर्त्तव्यः (पुं०) अपना कार्य। (दयो० ३२) आत्म-कल्याण (नपुं०) आत्म कल्याण, अपना हित, निज
रक्षा। (जयो० वृ० २/५०) निजहित। आत्मकाम (वि०) परमात्मा इच्छुक, आत्म इच्छुक। आत्मकारिणी (वि०) आदरकी, सम्मानदात्री। (जयो० ३/११) आत्मकृत् (वि०) निजकृत, स्वकृत। आत्मखेदी (वि०) दु:खी, मन से दुःखी। (वीरो० १६/८) आत्मगत (वि०) मनोगत, अपने द्वारा उत्पन्न। आत्मगुणी (वि०) स्वाभाविक गुणी, सहज स्वभावी। (हित०
सं०पृ० १) विशुद्ध स्वभावी, आत्म परिणामी आत्म-गेहं (नपुं०) मनः कुटीर। ममात्मनो गेहमेतत् मदीयं
मन: कुटीरकं मनोरमत्वम्। (जयो० १/१०४) आत्मगोत्रं (नपुं०) स्वकुल, निजकुल। (जयो० १/१३३) आत्मज्ञ (वि०) आत्मज्ञानी, तत्त्वज्ञ, स्व स्वरूप ज्ञाता। आत्मज्ञान (नपुं०) स्वज्ञान, निजज्ञान। आत्म-ज्ञानी (वि०) स्वभाव जानकार। आत्मचिन्तनं (नपुं०) स्वकीय ध्यान, आत्मध्यान। (जयो०
२२।८६) आत्मज् (पुं०) पुत्र, तनय, सुत। दक्षतरावंचरात्मजास्तु सती।
(जयो० ६/६) आत्मजम्मन् (पुं०) पुत्र, तनय, सुत। आत्मतम (वि०) स्वकीय ज्ञान (भक्ति० ३) ०आत्म-बोध। आत्म-तत्त्वं (वि०) स्वभावलीनता, अपनी समाधि (जयो०
१/१) आत्म-त्यागः (नपुं०) निज-कल्याण त्याग, स्वार्थ त्याग। आत्मत्यागिन् (वि०) आत्मघाती, निज स्वरूप विध्वंसी। आत्मत्राणं (नपुं०) आत्मरक्षा, स्वरक्षा, अपना हित।
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