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कर्षक
२६५
कलत्रं
भूमान
कर्षकः (पुं०) किसान, कृषक, क्षेत्र पालक। 'कर्षक: कर्षणा- कलकूणिका (स्त्री०) अपवादी स्त्री। त्तथा' जो खेत जोतता है। (पद्मचरित० ६/२०९)
कल-कोकः (पुं०) मधुर शब्द वाली कोयल, कलकण्ठी कर्षणं (नपुं०) [कृष्+ ल्युट्] खींचना, घसीटना, झुकाना, कोयल। (वीरो०६/२९)
जोतना, कर्षक या कर्षण। सम्बन्धन (जयो० वृ० १३/६७) कलकृत (वि०) मधुर गान। २. खेती-(दयो०३६) 'कर्षणे खात-सम्पात-करणे सिञ्चने कलख (वि०) शब्द युक्त। पुनः। (दयो० ३६)
कलग्रह (नपुं०) करग्रहण, पाणिग्रहण (जयो० ७/५४) कर्षिणी (स्त्री०) [कृष्+णिनि ङीप्] लगाम लगाना। कलघोषः (पुं०) करग्रहण, पाणिग्रहण। (जयो० ७/५४) कर्पू: (स्त्री०) [कृष्+ऊ] १. हल रेखा, हुड, २. नदी, ३. | कलघोषः (पुं०) काक, कोयल, कलकण्ठी। __ नगर, ४. कंडे की राख, कृषि, खेती।
कलघोषिक (वि०) मधुर शब्द करने वाली। कर्हिचित् (अव्य०) [किम्+हिल्] किसी समय, कभी भी। कलङ्गः (पुं०) [कल्+क्विप् कल् चासौ अङ्कश्च] १. दूषण, कल् (सक०) १. गिनना, गणना करना, २. शब्द करना, ०दोष, मलिन, ०मैल, पाप, ०अपराध, ०कालाक्षर।
समझना, जानना, ध्यान देना। ३. सम्पादन करना, आदर (जयो० ६/१४) सकलङ्क पृषदङ्ककः स क्षयसहित: सहजेन। करना। 'स्वणमेव कलित-दत्तं' (जयो० वृ० २/१०) ४. (सुद० ८७) २. कालिमा, धब्बा, दाग। ३. लोहे की जंग। स्वीकार करना-'कलितं संदधती तदा प्रशस्तम्' (जयो० कलङ्ककला (सुद० ७१) १०/११३) ५. युक्त होना। 'यत्सुवर्णकलिते ललितं स्याद्' कलङ्क रूपा (स्त्री०) कुत्सित रेखा, तिरछी रेखा। (जयो० ५/४६) ६. अनुष्ठान करना ०कल्पना करना कलङ्करेखा (स्त्री०) दूषण रेखा। तस्यैव कलङ्करेखा। (जयो० 'कपोल-कलितेषु च भ्रमात्। (जयो० २/२६) ७. बांधना, १५/७०) जकड़ना, बन्धक बनाना। ८. विकलांग करना, विकृत कलङ्कलेशः (वि०) दोपवर्जित, दोषरहित, राग-द्वेषादि विहीन। करना।
'भूमावहो बीतकलङ्कलेश:' (वीरो० ३/४) 'कलङ्कस्य कल (वि०) [कल् घञ्] १. मनोहर, मधुर, स्पष्ट, उत्तम, दूषणस्य लेशो यस्मात्स दोषवर्जितः। (वीरो० वृ०३/४)
श्रेष्ठ। 'कलं वनेऽसावरिलम्बलेन' (जयो० २४/५५) । कलङ्कषः (पुं०) [कल+कष् खच्] सिंह, शेर मृगराज। करेण कलो-मनोहरो-(जयो० वृ० २२/७२) २. कला-(सुद० कषति हिनस्ति। १/४४)
कलङ्कित (वि०) [कलङ्क- इतच्] लांछित, चिह्नित, दोष युक्त। कलः (पुं०) कल कल शब्द, अस्पष्ट शब्द, मृदुशब्द। 'कल कलङ्किन् (वि०) १. कलंक वाले १. के सूर्य विषये बलकारि इति कल एवाऽऽगतो वा' (सुद० वृ०७२)
मात्रा सा न विद्यते। (जयो० वृ० १५/४१) २. के जले कल-कण्ठ (वि०) मधुर कण्ठ वाला।
पर्यन्तता समु द्रसद्भावात् लङ्का नाम नगरी। (जयो० वृ० कलकण्ठी (स्त्री०) कोयल, हंस।
१५/४१) ३. सदोषी-कलिरूपायामागमाज्ञया कृत्वा कल-कलः (पुं०) १. क्षुब्ध युक्त ध्वनि, कोलाहल। 'कलकलेन कलङ्गिनः' (जयो० वृ० १५/४२)
कृत्वा दुष्टं वदन्तीति' (जयो० १५/१२) २. सुभाषित-वचन- कलङ्की (वि०) सद् विवेक रहित 'क' जल से वेष्टित लंका 'कलकलप्रायामुक्तिं प्रकुर्वति' (जयो० वृ० १८/३)
तुल्य ब्रिटेन शासन। कल-कलमिषः (पुं०) कोलाहल के कारण। (दयो० १८) कलङ्की (स्त्री०) चन्द्रमा। कल-कलित (वि०) कलायुक्त। (सुद० १/४४)
कलङ्की (पुं०) कल्कि राजा। (जयो० वृ० १५/४१) कलकस्वभावः (पुं०) मधुर स्वभाव। (जयो० १५/१३) कलङ्करः (पुं०) जलावर्ण, भंवर। कं जलं लछ्यति भ्रामयति कल-कान्तिकलः (पुं०) मनोहर प्रवाह, कान्ति का सुन्दर क+लङ्क णिच्+उरच।
प्रवाह। 'उच्चलद-विरद-कल कान्तिकले' (जयो० २२/७२) कलङ्गिन् (पुं०) चन्द्र। (जयो० ३/८९) 'कलो मनोहरो कान्तेः कल: प्रवाहो यत्र यस्मिन्। (जयो० कलञ्जः (पुं०) पक्षी विशेष। वृ०२२/७२)
कलत्रं (नपुं०) १. चंद्रिका (सुद० ३/१०) २. दुर्गस्थान-श्रेणिकलकूजिका (स्त्री०) छिनार, अपशब्द बोलने वाली स्त्री। कलत्रं भूभुजां दुर्गस्थानेऽपि श्रोणिभार्ययोः इति विश्वलोचन:
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