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अपहृषः
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अपाप
अपहषः (पुं०) [अप+हषु+अप्] छिपाना, गुप्त रखना,
०अपनी भावना व्यक्त न करना। अपहिय (वि०) निर्लज्ज, अपत्रप। (जयो० ९/७५) अपह्नवोऽलंकारः (पुं०) जिसमें सत्य को छिपाया जाता है।
(जयो० २६/५९, ६१, ६४, ६५-६६) मणसा वचसा च कर्मणाऽर्चनमिन्दुः। परिपूर्य शर्मणः। त्रिगुणं वपुराप्य घूर्णते क्षयजिच्छत्रतया जगत्पतेः।।
(जयो० २६/६१) अपहृतिः (स्त्री०) [अप+हु+क्तिन्] १. सत्य को छिपाना,
असत्य की स्थापना। २. अपह्वतिरलंकार-एक अलंकारइसमें दो वस्तुओं में साधर्म्य होने के कारण एक को छिपाकर कहा जाता है कि 'अमुक वस्तु यह नहीं है', अपितु यह है। नैतदेतदिदं ह्येतदित्यपह्नपूर्वकम्। उच्यते यत्र सादृश्यादयहृतिरियं यथा। (वाग्भटालङ्कार-४/८५) (जयो० ३/४९, २१/१५, २/५४, वीरो० ६/३७) मुहुर्मद्भङ्गिभिरङ्ग यत्र भ्रश्यद्रजा: श्रीस्थलपद्म आस्ते। समुद्वमन् सन् हुतभक्कणान् स शाणोपल: स्मारशिलीमुखानाम्।। (जयो० २४/१११) वायु के झोंको के कारण बार-बार पराग गिर रहा है, ऐसा शोभायमान गुलाब वहीं अग्नि-कणों को उगलने वाला कामदेव के बाणों को
क्षीण करने का शाणोपलमसांण ही है। अपह्रासः (पुं०) [अप+हास्+घञ्] ०घटना, ०कम करना,
०क्षीण करना, ०क्षय करना। अपाकः (पुं०) १. अपच, २. अजीर्ण, ३. अपरिपभब, अपाकरणं (नपुं०) [अप+आ+कृ+ल्युट्] निराकरण, हटाना,
०समेटना, ०दूर करना। द्रुतं पुराऽऽप्त्वा वसतिं मनोज्ञामापात्य
कापाकरणाकुलेन। (जयो० १३/८२) अपाकर्मन् (नपुं०) [अप+आ+कृ+मनिन्] चुकता करना। अपाकर्षम् (वि०) हटा लेना। (जयो० ६/९०) अपाकृतिः (स्त्री०) [अप+आ+कृ+क्तिन्] अस्वीकृति, संवेग,
भयाकृति। अपाक्ष (वि०) [अपनतः अक्षमिन्द्रियम्] १. विद्यमान, प्रत्यक्ष,
वर्तमान, अद्यतन। ३. नेत्रहीन। अपाङ्क्त (वि०) बहिष्कृत, पंक्ति में बैठने का अधिकारी
यगोभिरुचितचित्त हृतः। (जयो० १५/८६) कवि वे उक्त पंक्ति में 'अपाङ्ग' के दो अर्थ है-१. कटाक्ष और २. काम/कामदेव/मद। तथापाङ्गो मदनः पक्षेऽपाङ्गाः नेत्रप्रान्ताः। (जयो० वृ० १५/८६) जयोदय के तृतीयसर्ग में 'अपाङ्ग' का अर्थ हीन अङ्ग भी किया है। हीनानामपाङ्गानाञ्च।
(जयो० वृ० ३/६) अपाङ्गदर्शनं (नपुं०) तिर्यक् दृष्टि। अपाङ्गदृष्टिः (स्त्री०) तिर्यक् दृष्टि, तिरछी चितवन अपाङ्गदेशः (पुं०) नेत्रप्रान्त। अपाङ्गशरं (नपुं०) कटाक्ष-बाण, सा तस्या अपाङ्गशरसंहतिरप्यशेषा।
(सुद० १२३) यस्या अपाङ्गशर-संकलितो जिनेशः। अपाङ्गसम्पदा (स्त्री०) कटाक्ष सम्पत्ति, कटाक्ष विक्षेप सम्पदा।
धृत आसीत्तदपाङ्गसम्पदा। (सुद० ३४) अपाच् (वि०) [अपाञ्चति+अञ्च् क्विप्] पीछे की ओर जाने
वाला, पश्चिमी। अपाची (स्त्री०) [अप+अञ्च+क्विन् स्त्रियां ङीप] दक्षिण या
पश्चिम दिशा। अपाचीन (वि०) [अपाची+ख] पीछे स्थित, पश्चिमी, दक्षिणी। अपाच्य (वि०) [अपाची+यत्] पश्चिमी या दक्षिणी। अपाणनीय (वि०) पाणनीय-व्याकरण की सिद्धि का अभाव। अपात्रं (नपुं०) १. अयोग्य, ०अनधिकारी व्यक्ति, ०अयोग्य
बर्तन। (दयो० ११८) जद्यन्यमन्य एताभ्यामपात्रं त्वतिगर्हितम्।
(दयो० ११८ अपादानं (नपुं०) [अप+आ+दा+ल्युट्] (जयो० १९/९३)
अपसरण ले जाना। * पञ्चमी विभक्ति-पृथक् होने के
योग। अपादान-विहीन (वि.) कुत्सित आजीविका रहित, व्याकरण
विहितादपदान कारणविहीना (जयो० १९/९३) अपाध्वन् (पुं०) [अपकृष्टा, अध्वा] कुमार्ग, कुपथ। अपानः (पुं०) श्वास लेने की क्रिया। नि:श्वास लक्षण
आत्मना बाह्यो वायुरभ्यन्तरीक्रियमाणो नि:श्वासलक्षणोऽपानः।
(स०सि०५/१९) अपानृत (वि०) मिथ्या रहित, सत्य। अपाप (वि०) निष्पाप, निर्दोष, कुटिलता रहित, पापा
चाररहित ०सरलहृदय। (जयो० २४/१२३, २२/२४) वायुनाङिघ्रिप इवायमपापः। (जयो० ४/२२) प्रसञ्चरन् वात इवाप्यपापः। (सुद० ११९)
नहीं।
अपाङ्ग (पुं०) [अपाङ्गतिर्यक् चलति नेत्रं यत्र अप+अङ्ग+घञ्]
१. कटाक्ष, नेत्रप्रान्त, आंख का कोर, नेत्र का बाहर भाग। २. कामदेव, मदन, प्रेमदेव। प्रणयविकाशविद: पुनरपाङ्गम
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