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अपशब्दः
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अपहृत
अपशब्दः (पुं०) दुर्वचन, निन्दा, अविनीत वचन, ग्राम्य "णमो आमोसहिपत्ताणं-" यह 'अपस्कार' रोग को दूर
प्रयोग, असभ्यव्यवहार। दुष्ट वचन, ०अभद्र व्यवहार। करने वाला मन्त्र है। अपशिरस् (वि०) [अपगतं शिरः] शिर हीन, छिन्न शिर अपस्मारः (पुं०) मिरगी रोग, मूर्छा रोग। णमो मणवलीणं वाला।
चापस्मारपरिहारभृत्। 'णमो मणवलीणं' इदं पदमपस्मारस्य अपशुच् (वि०) शोक रहित, आकुलता विहीन।
नाम मृग्युन्मादेर्मलोविकारस्य परिहार भृद् भवति। (जयो० अपशैत्य (वि०) उष्णत्व, स्फूर्तिसत्करण। यथापशैत्यं जयराट् वृ० १९/७९) स तेन। (जयो० १७/३७)
अपस्मारिन् (वि०) [अप+स्मृणिनि] मिरगी/मूर्छा रोग से अपर्शमन् (पुं०) [अप+शृ+मनिन्] ०लज्जाविहीन, प्रसन्नता पीड़िता
का अभाव, आनन्दाभाव। (जयो० २/१९) अपगतं शर्म | अपस्मृति (वि०) विस्मरणशील, स्मृति विहीन।
येषु तेषु तथा भूतेषु सत्सु तानि। (जयो० वृ० २/१९) । अपसृ (सक०) [अप+स] चुराना, अपहरण करना। (जयो० ६/३४) अपश्चिम (वि०) सर्वप्रथम, अन्तिम, जिसके पीछे अन्य अपह (वि०) [अप+हा+ड] ०दूर हटाना, नष्ट करना, ०क्षय
कोई न हो। (जयो० १८/४३) 'ससू यते करना। तनयरत्नमपश्चिमातः।'
अपहतिः (स्त्री०) [अप+हन्+क्तिन्] ०क्षय करना, नाश अपश्रयः (पुं०) [अप+श्रिय+अज्] उपधान, तकिया।
करना, ०दूर हटाना। अपश्रम (वि०) सम्पन्न, समाप्त। अपूर्वमानन्दमगान्मनोरमा- अपहननं (नपुं०) [अप+हन+ल्युट] दूर करना, निवारण करना। सुदर्शनाख्यानकयोरपश्रमात्। (सुद० ३/४८)
अपहरणं (नपुं०) [अप+ह ल्युट्] छीनना, चुराना, बलपूर्वक अपश्री (वि०) श्री विहीन, शोभा रहित।
ले जाना। (सुद० ९२) । अपष्ठ (नपुं०) [अप+स्था+क] अंकुश की नोक।
अपहसित (वि०) अट्टहास करना, अकारण हंसी। अपष्ठु (वि०) [अप+स्था+कु] विरुक्त, विपरीत, प्रतिकूल। अपहस्तित (वि०) [अप+हस्त+इतन्] ०परित्याज्य, त्याज्य, अपष्ठुर (वि०) विरुद्ध, विपरीत।
०छोड़ा गया। त्याग, छोड़ देना, निकालना। अपसदः (पुं०) [अप+सद्+अच्] बहिष्कृत, च्युत, पतित।। अपहानिः (स्त्री०) अपसरः [अप+सृ+अच्] पलायन, प्रस्थान, अनुगमन। अपहारः (पुं०) [अप+ह+घञ्] निरादर। (जयो० ५/९७) अपसरणं (नपुं०) [अप+सृ+ल्युट्] उत्सर्ग, त्याग, विसर्जन। चुराना, छिपाना, ०दूर ले जाना, ०अपहरण करना। अपस (अक०) [अप+सृ] दूर होना, हटना, अलग होना। (समु०४/१२) अपहरण करना। कुतोऽपहारो द्रविणस्य
(जयो०१३/१३ किमु वर्त्मविरोधिनो जना अधुना चापसेरत् दृश्यते तथोपहारः स्ववचः प्रपश्यते। (वीरो० ९/१५)
चैकतः। (जयो० १८/१३ अपसरेत्-एकपार्वे स्थितो भवेत्। अपहारिन् (वि०) अपहरण करने वाला। (सुद० २/२३) अपसर्पः (पुं०) [अप+सृप्+ण्वुल्] गुप्तचर, जासूस।
निवारक (जयो० १९/४५) अपसर्पणं (नपुं०) [अप+सृप्+ल्युट्] ०लौटना, ०पीछे आना, अपह (सक) [अप ह] ०अपहरण करना, ०आधीन करना, दूर होना, पलायन। दर्पोऽपसर्पणमगात्स्विदनन्यगत्या।
शान्त करना। (वीरो० १९/४०) जिनामवापजहार शुद्धचित्। (सुद०८०)
दर्शकैरपि परैरपहर्तुम्। (वीरो० ७/१३) (जयो० ५/२) अपसव्य (वि०) विरुद्ध, विपरीत।
श्रमं लुनीतेऽपहरति। (जयो० वृ० ८८२) उक्त पंक्ति में अपसव्यम् (अव्य०) दाई ओर, दाहिनी ओर।
अपहरति का अर्थ शान्ति करना भी है। दृष्ट्या अपसारः (पुं०) [अप+स+घञ्] लौटना, बाहर जाना।
याऽपहरेन्मनोऽपि। (सुद० १०२) दृष्टि से तो मनुष्य मन अपसारणं (नपुं०) हांकना, निकालना, बाहर करना।
को हर लेता है। वश में कर लेता है। प्राह भो प्रतिभवाअपसिद्धान्त (वि०) सिद्धान्त च्युत, भ्रमयुक्त। नियम विरुद्ध भ्यपहर्तुम्। (जयो०४/२९) अपसृप्तिः (स्त्री०) [अप+सृप्+क्तिन्] दूर जाना।
अपहृत (वि०) तोड़ लिया, ले लिया, विनाश किया। गणनातिगैः अपस्करः (पुं०) [अप+कृ] विष्ठा, मल।
सहायस्यूतीत्यपहृता जनैर्वनस्य भूमि। (जयो० १४/२८) अपस्कारः (पुं०) रोग विशेष, मल-मूत्र रोग। (जयो० १९/७६) भूतिः सम्पत्तिरपहृता विनाशं लीला। (जयो० १४/२८)
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